वसु गंधर्व : किसी रात की लिखित उदासी में

(वसु गंधर्व विनोद कुमार शुक्ल के साथ )




वसु गंधर्व (8 फरवरी २००१) की काव्य पुस्तिका 'किसी रात की लिखित उदासी में' का प्रकाशन रचना समय ने किया है. इसकी भूमिका महेश वर्मा ने लिखी है. वसु को बहुत बहुत बधाई.
भूमिका और कुछ कविताएँ आपके लिये. 


एक नई कथा                              
महेश वर्मा





व्याकरण के द्वार उसके पीछे बन्द हो गए
अब उसे खोजो शब्दकोशों के जंगलों और कुंजों में
चेस्लाव मीलोष
माम अच्छी चीजों के साथ साथ कवि हमें असमंजस भी देते हैं.  वे हमें अनुमानों, कल्पनाओं और स्नायविक उत्तेजनाओं के स्वर्ग में छोड़कर दूर से कौतुक की तरह देखा करते हैं. वे बहुत से विवरणों और रेखाओं को मिटा देते हैं और सूत्रों को छिपा देते हैं. जैसे इस संग्रह में एक कविता है 'सांझ'. यहां एक शांत शाम का दृश्य है जहाँ उदासी का होना कोई अचरज की बात नहीं-' यह उदासियों की बारीक सतहें हर चीज पर.. लेकिन आगामी कविताओं में हम देखते हैं कि उदासियों की यह बारीक सतहें बहुत जगहों, विवरणों और अवसरों पर मौजूद हैं. कविताएं इस उदासी का कोई क्लू देने को व्यग्र नहीं है. वे एक धूसर से लैंडस्केप की तरह याद किए जाने या भुला दिये जाने के लिए भी प्रस्तुत हैं. दरअसल इन कविताओं में किसी भी स्तर पर कोई दिखावटी व्यग्रता नहीं है. ये कविताएं संसार को देखने और महसूस करने के कई वैकल्पिक दृष्टिकोण एक विनम्र और शांत स्वर में प्रस्तुत करती हैं और अपने आप को पीछे हटा लेती हैं. यह जितना दृश्य को रचती हैं उतना ही अमूर्तन का आकाश भी गढ़ती हैं. इनमें बहुत से बदलते हुए दृश्य हैं ये दृश्य अपने को छुपाते हुए से लगते हैं. कुछ कविताओं के बाद पाठक इन धूसर स्मृति चित्रों का अभ्यस्त हो जाता है और अनजाने कब इन कविताओं और उनकी व्यंजनाओं से बने प्रतिसंसार पर विश्वास करने लगता है उसे पता नहीं चलता. इन्हें ठीक ठीक प्रतिसंसार भी नहीं कहा जा सकता. एक ढंग से वे हमारे साझे संसार की ऐसी विमाएं हैं जिनके बारे में पोलिश कवि रुज़ेविच ने कहा है- कभी कभी 'जीवन' उसे छिपाता है/ जो जीवन से ज़्यादा बड़ा है.


(दो)

उठाओ अंधकार में लिपटी
अपनी परछाई को
               
इस संकलन की कविताओं को पढ़ते हुए धीरे-धीरे आप एक ऐसी जगह में पहुंच जाते हैं जहां शाम गहराती हुई रात में तब्दील हो रही है या यह रात ही है जहां नीम रोशनी में बहुत कुछ सूक्ष्म स्तर पर घटित हो रहा है और कविता उसे अपनी मन्द्र लिपि में कहीं दर्ज कर रही है. यह रात का शांत धुंधलका  इन कविताओं का पसंदीदा रंग है. 'आवाज़' कविता कहती है-

'निशब्दता के किसी कोने में
रात अपने पंख फड़फड़ाती है
इसी से टूटती है चुप्पी.

एक कविता का शीर्षक ही है
'अंधेरा' जहां धीरे-धीरे पैठता है अंधकार
बिखरती जाती है ध्वनि.'

लिखा अनलिखा' शीर्षक कविता में कागजों पर उतरी किसी रात की लिखित उदासी है तो 'पुकार' कविता की शुरुआत में-

रात के समंदर में
रात की मछलियां
रात के नमक के बीच तैरती हैं.
                
इन कविताओं में रात, अंधेरा, ख़त्म होने-होने वाली सांझ.. यह सब अपने हिस्से की उदासियां साथ लेकर और प्रायः बहुत धीमे और नगण्य ढंग से घटित हो रही चीजों के समापन की तरह आते हैं.
               
इसी बीच एक कविता मिलती है-'निकलो रात'. यह रात को अंधकार के झूठे आवरण से, प्राचीन वृत्तांत से और अंततः आकाश से भी बाहर निकलने को पुकारती है. उसे एक नई और दूसरी रात चाहिए जहां मौत की ठंडी सरगोशियां और उनींदी कहानियां कुछ भी ना हों. इसे पढ़ते हुए लगता है कि क्या यह कविता संसार की हर जड़ हो चुकी अवधारणा को उसकी जड़ता और प्राचीनता से बाहर निकलकर समकाल का सामना करने को नहीं कह रही?


(तीन)
मेरे पास आए थे कुछ नीले ख़त
जिनके उधड़े जिस्म पर
मरहम लगा रही थी नीली हवा
(नीली धूप)

रात इस नीले दर्पण में
अपने अक्स देखते है
गुमराह जानवर और इंसान
(नीला वृक्ष)

अगर रंगों की ओर से इन कविताओं को देखें तो डूबती पीली साँझ और रात के अंधेरे रंगों के साथ नीला रंग इन कविताओं के वर्णक्रम का अहम हिस्सा हैं.


(चार) 
इन कविताओं में (अतीत की) बहुत सारी स्मृतियाँ हैं. यह स्मृतियाँ इतिहास, पुरातत्व, व्यतीत, बीता हुआ, गुज़रा हुआ जैसे अनेक पुकारू नामों से सामने आती हैं. इन स्मृति चिन्हों से कविता का रिश्ता द्वंद्वात्मक है और अपने ढंग से संवाद करता हुआ भी है. कई बार ऐसा लगता है कि कविता इस बात से आजिज़ आ चुकी कि 'पहले ऐसा हुआ करता था'. कहीं वह वसंत के पागल आख्यानों से बाहर आने को कहती है, कभी अंधेरे में घर लौटते लोगों को पलटने पर कोई भीगती स्मृति और अनुपस्थिति दिखा जाती है. पुरातन स्पर्श किसी बन्द दराज़ में अपने पंख फड़फड़ाता है तो कहीं स्मृतियों का चिट्ठा भी निरर्थक जान पड़ता है. लेकिन ऐसा नहीं है कि कविता इस पुरातन का कोई स्पर्श, कोई स्मरण नहीं चाहती. इस पुरातन के ही अगोचर हिस्सों से नए के उन्मेष की बात कविता कहती है.
           
जैसे 'वृत्तान्त' कविता पूर्वजों के पगचिन्हों पर चलने को स्वीकार करती हुई इतिहास से अपने रिश्ते को स्वीकार करती है. इस लिहाज से 'नीलांबरी' नाम की कविता, इतिहास और मिथक की शिलाओं पर अपना नाम लिखने के उद्घोष पर ख़त्म होती है. या फिर 'उठाओ' कविता कहती है-
         
उठाओ समकालीन स्पर्श से
समुद्र की वर्षों पुरानी चुप्पी को
और इसी दृष्टि से 'लौट कर' कविता का उल्लेख ज़रूरी जान पड़ता है-
          
उन संकीर्ण दरारों में
जहाँ भाषा का एक कतरा भी नहीं घुस पाता
वहीं से फूट पड़ेगा
कभी अधूरा छोड़ दिया गया वह गीत

और इसी कविता के अंत की पंक्तियाँ हैं-
           
हटाकर पुरातत्व का जंजाल
तब वापस आएगी
पहली कविता.        
           
इस दृष्टि से ये एक साफ़ इतिहासबोध की कविताएँ हैं जहाँ क्षरणशील और जड़ पुरातन से बाहर निकलने और फिर इतिहास की उम्मीद भरी जगहों से नूतन के निर्माण का स्वप्न जगमगा रहा है.


(पांच) 
ये कविताएँ कवि की (बहुत कम) उम्र और अनुभव के कारण गढ़ी गई कच्ची कविताएँ नहीं हैं जिन्हें किसी छूट और सहानुभूतिपूर्ण पाठ की ज़रूरत है. कवि की आयु के कारण बस यह होता है कि शुरू में एक अचरज और स्तब्धता साथ चलती है, फिर वह भी 'एक बहुत बड़े सन्नाटे का हिस्सा हो जाती हैं'. ये एक सधी हुई भाषा में लिखी गई सधी हुई कविताएँ हैं जो इन दिनों दुर्लभ मितकथन को सहज धर्म की तरह बरतती हैं. ये सादगी, चुप्पी और उम्मीद की कविताएँ हैं जिनका हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिए.गोया कि-

              
                   
इसी आकाश की विक्षिप्तता में
चमकेगी एक नई कथा
________________________________

महेश वर्मा हिंदी के सुपरिचित कवि और चित्रकार हैं. 
maheshverma1@gmail.com
 




ll वसु की कुछ कविताएँ ll 






असम्बद्ध 
हम दो ही हैं
इस अरण्य में
वृक्षों के प्राचीन चेहरों को
घूरते अचकचा कर

हम दो ही पाए जाते हैं
गुफाचित्रों के
अनेक अबूझे असंबद्ध
प्रेम या युद्ध के प्रसंगों में

हमारे डगमगाने से ही
धमकी थी कभी
हमारे बीच की पृथ्वी

एकसार सभी बर्बरताओं में
हमारा ही चेहरा है
हमारी ही किवदंतियों में फैली हैं
दूर तक सुनाई देती
घोड़ों की टापें

हर मृत्यु
हमारी ही मृत्यु है




पुराना आदमी
अकेली दीवारों जैसे
हाथों में जमती काई
बंद आंखों पर जमी होती गर्द
टूट कर इधर-उधर बिखरे होते पलस्तर
और बरसात में
भीतर टप टप गिरता रहता सीलन का पानी
हर रात

उसके अंदर
कोई भी जा सकता था
सुन सकता था
अपनी ही आवाज़ गूंज कर आती
बंद कमरों से

भीतर से खोखली थीं दीवारें
निरर्थक था स्मृतियों का चिट्ठा

अब बस देखना था
कि वह कब ढहेगा.




देह गंध 
हमारे गीत
जैसे पुरानी कमीज़ें

जर्जर होकर घिस चुकी बाहें
हर तरफ फैले
पहनने वाली की लापरवाही के निशान
उसका बेढंगापन

आस्तीन से आती पसीने की बू
और देहगंध
उधड़ी सिलाई से झांकता
आत्मा का म्लान मुख

ढूंढो उसे
किसी लैंपपोस्ट की रोशनी में नीचे
पतंगों का संगीत सुनते
भीग रही होगी
कोई फटी कमीज.





नीला है यह वृक्ष
नीला है यह वृक्ष
जैसे इसे सींचा गया हो ज़हर से
नीली हो जाती है इसके आवरण में उतरती शाम
नीला है इसके पत्तों का संगीत

रात इस नीले दर्पण में
अपने अक्स को देखते हैं
गुमराह जानवर और इंसान
और सूर्य उगने की संभावित दिशा में
समाधिस्थ होकर बैठ जाते हैं

इसकी छाँह में बैठो कुछ देर
गिरने दो इसके ठंडे नीले चुप को
रिस कर अपने माथे पर

यह सबसे उदास वृक्ष है.
_________________________________

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  1. भाषा और और अभिव्यक्ति दोनों स्तरों पर अत्यंत सशक्त कविताएं। कवि को बधाई और आशीष।

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  2. रामचन्द्र सोनी30 नव॰ 2019, 1:13:00 pm

    करुणा का इतना अनुपम उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है आपकी कविताएं मन में सकारात्मक भाव भरतीहै वसु

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  3. तुषार धवल30 नव॰ 2019, 6:07:00 pm

    वसु की कविताओं को पढ़ा। स्तब्ध रह गया। दंग रहा!! यह कवि जबरदस्त उम्मीदों की भोथड़ी नीली सतहों से नीला जंगल उगा रहा है। मैं बहुत प्रभावित हुआ इन कविताओं के मेटाफर और भाषा-शिल्प से।

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  4. अद्भुत कविताएं। यह सबसे उदास वृक्ष है... मार्मिक भाव की उत्कृष्ट अभिव्यंजना।बहुत बधाई व आभार..

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  5. बेहतरीन ... धन्यवाद यहाँ शेयर करने के लिए

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  6. बहुत ही सुंदर कविता। बधाई वसु

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  7. गार्गी मिश्रा2 दिस॰ 2019, 1:30:00 pm

    उठाओ समकालीन स्पर्श से
    समुद्र की वर्षों पुरानी चुप्पी को

    उन संकीर्ण दरारों में
    जहाँ भाषा का एक कतरा भी नहीं घुस पाता
    वहीं से फूट पड़ेगा
    कभी अधूरा छोड़ दिया गया वह गीत

    - वसु गन्धर्व


    यह कहना अनुचित नहीं होगा कि वसु हम सबसे उम्र में बहुत छोटे हैं पर उनका काव्य संसार बहुत परिपक्व है। बीते दिनों वसु से दूरभाष पर बात हुई। इस कवि में कवि होने का बोध तक नहीं है। और क्या कहूं। इन कविताओं को बार बार पढ़ती हूं। बार बार हैरत में पड़ती हूं। बार बार धन्यवाद में डूबती हूं। यही सुख है। समालोचन का बहुत धन्यवाद ऐसी विलक्षण प्रतिभा की कृतियों को साझा करने के लिए।

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  8. "देह गंध" कविता मे जो सारी आम सी लगती चीजों का एक ऐसा चित्रण पेश किया है ,कि सारी चेतना को झकझोर ,कविता मजबूर कर देती है विचारो मे खो जाने पर ।
    बहतरीन लिखता है तू

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  9. किसी रात की लिखित उदासी में ... वसु गंधर्व की कविताएं जब पढ़ो ... तब नया पाठ का एहसास कराती हैं। वसु की संवेदनाओं का अपना संसार, अनुभूति का अपना कैनवास और अभिव्यक्ति की सांगीतिक खनक... कुछ ऐसा ही है वसु का काव्य संसार। कवि सोमदत्त के शब्दों में कहूं तो ... उम्मीद का बिरवा जगाना है। वसु के रूप में उम्मीद का बिरवा जग गया है। वसु को बधाई

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