परख: उत्कोच (जयप्रकाश कर्दम) : सत्य प्रकाश













कवि-कथाकार जयप्रकाश कर्दम का उपन्यास ‘उत्कोच’ इसी वर्ष राधाकृष्ण प्रकाशन से छप कर आया है. शोध छात्र सत्य प्रकाश ने इसकी समीक्षा लिखी है.






उत्कोच : जातिगत विषमता बनाम आर्थिक विषमता       
सत्य प्रकाश






साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है.प्रेमचंद जब इस बात को कहते हैं, तब यह आवश्यक हो जाता है कि वर्तमान साहित्य की समीक्षा समाज की वास्तविकता को ध्यान में रखकर की जाए या साहित्य की समीक्षा निष्पक्ष और सामाजिक समरसता को आधार बनाकर किया जाए क्योंकि वर्तमान साहित्यकारों द्वारा सत्ता को समर्थन करना संपूर्ण वांग्मय को कटघरे में खड़ा करता है. यह समर्थन भले ही धन, मान और सम्मान के लालच में किया गया हो किन्तु इससे आनेवाली पीढ़ी का भरोसा साहित्य से बिलकुल उठ जायेगा या यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि लगातार उठ रहा है. ऐसे में साहित्य की मशालको बचाने की चिंता नये लेखकों, पाठकों और समीक्षकों के कन्धों पर अधिक है. नये लेखकों, पाठकों और समीक्षकों की जवाबदेही सुनिश्चित करने की है, जो प्रगतिशील होकर साहित्य का सृजन और मूल्यांकन सामाजिक कुरीतियों, विकृतियों, विडम्बनाओं का खंडन करने के लिए कर रहे हैं. ऐसे लेखकों की शिनाख़्त आवश्यक है जो सामाजिक समरसता, एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं. 

वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए एक बार फिर साहित्य की मयार बदलने की जरुरतदिखाई पड़ती है. इस कड़ी में दलित लेखक जयप्रकाश कर्दम का नया उपन्यास उत्कोचसमाज की एकता, अखंडता और समरसता को बनाए रखने की वकालत करता दिखाई देता है. यह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समस्याओं की यथास्थिति को न केवल उदघाटित करता है बल्कि साहित्य की प्रगतिशील मशाल को आगे बढ़ाने का रास्ता अख्तियार करता है. उत्कोचका शाब्दिक अर्थ भ्रष्टाचारहोता है. इस उपन्यास में यह देखा जा सकता है कि किस प्रकार सदियों से चली आ रही जातिगत विषमता, आर्थिक विषमता में तब्दील हो गयी है.

उत्कोचउपन्यास सामाजिक वास्तविकता से अवगत करता है. इसका नायक मनोहर है. जिसकी पत्नी की मौत बीमारी का ईलाज नहीं कराने के कारण हो चुकी है. घर में एक बूढी माँ है. मनोहर की एक छोटी बेटी है. माँ ने खेत बेचकर मनोहर को पढ़ाया है. पढ़ाने के बाद उसकी एक्साइज विभाग में क्लर्क की सरकारी नौकरी लगी है. जहाँ दलित लोगों को कैसे क्लर्क, सफाई कर्मचारी या प्यून जैसी निचली पोस्ट पर उलझाए रखने का गणित चलता है. यह उपन्यास दलित विमर्श को और मजबूत करता दिखाई देता है. जयप्रकाश कर्दम के स्वयं दलित होने से सहानुभूति और स्वानुभूति का प्रश्न ख़त्म हो जाता है किन्तु वर्णव्यवस्था में व्याप्त जातिगत ऊँच-नीच और छुआछूत जैसी असमानता के आधार पर सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक विषमता कैसे पनप रही है इस उपन्यास में देखा जा सकता है. 

उपन्यास का नायक मनोहर अपने मित्र सुन्दरलाल से कहता है देखो बनिए व्यापार करके खूब धन कमा रहे हैं. क्षत्रियों के पास जमीन-जायदाद है ही. सवर्ण हिन्दुओं में से नौकरियों में अधिकतर ब्राह्मण और कायस्थ हैं. इनके बाप-दादा पहले से ही नौकरियों में रहे हैं. उनकी पेंशन आती है सो अलग. इनमें बहुत से ब्राह्मणों के परिवार मंदिरों से जुड़े हैं. वहाँ वे पुजारी का काम करते हैं, जहाँ पर खूब सारा पैसा चढ़ावे में आता है. यह उनकी अतिरिक्त कमाई है. हमारे पास क्या है ?”1 एक दलित के पास क्या है ? इस प्रश्न को वर्तमान समाज में सभ्य कहा जाने वाला प्राणी कभी नहीं सोचेगा और न ही उसे सामाजिक विषमता और गरीबी की पीड़ा दिखाई पड़ती है. एक प्रगतिशील लेखक ही इस प्रश्न का जवाब दे सकता है या रोजमर्रा के अखबार, जिनमें मरे हुए जानवर की चमड़ी उतारने के कारण दलितों की पीठ डंडे और बेल्ट से लाल करने की घटनाएँ मिलती हैं या एक दलित के शव को जलाने से रोका जाता है.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत में प्राचीन समय से चली आ रही वर्णव्यवस्था ने द्विज और शूद्रों के भीतर असमानता को निर्मित किया है. हिन्दू वर्ण वर्णव्यवस्था वर्तमान दलित समुदाय को भीतर ही भीतर शैक्षणिक और आर्थिक स्तर पर कमजोर कर दिया है. जय प्रकाश कर्दम का उत्कोच उपन्यास शैक्षणिक और आर्थिक रूप से कमजोर दलित समुदाय की कथा को प्रस्तुत करता है. इस उपन्यास में मनोहर की पत्नी श्यामा बोलती है मनोहर ! तुम इतने पढ़े-लिखे और इंटेलिजेंट हो, फिर इस नौकरी में क्यों हो. तुमने कोई दूसरी अच्छी नौकरी पाने की कोशिश क्यों नहीं की ?”2 जिस पर मनोहर अपनी आपबीती सुनाते हुए शिक्षा में चल रहे भ्रष्टाचार को उजागर करता हुआ कहता है साक्षात्कार में नहीं निकल पाया....हालाँकि हर बार मेरा साक्षात्कार अच्छा हुआ, लेकिन हर बार मुझे साक्षात्कार में कम अंक मिले और मैं ऑफिसर बनने में सफल नहीं हो सका. लिखित परीक्षा में मुझसे कम अंक पाने वाले कई लोग साक्षात्कार में अधिक अंक पाकर सफल हो गए. जबकि उनका साक्षात्कार भी मुझसे अच्छा नहीं हुआ था.


इस बात को कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि इस प्रकार का खेल भारत के अधिकतर शैक्षणिक संस्थानों, सरकारी विभागों और देश की सक्रीय राजनीति में चल रहा है. साहित्य का उद्देश्य दबे, कुचले, शोषित, दमित और कमजोर का पक्षधरता करना है उत्कोच  उपन्यास इस काली सच्चाई उजागर करता है. अभयकुमार दुबे अकादमिक जगत की सच्चाई के बारे में लिखते हैं अकादमिक क्षेत्रों में अपने कौशल और ज्ञान के लिए समान मान्यता का संघर्ष कर रहे दलितों और गैरदलितों को कई तरह के कटाक्ष सहन करने पड़ते हैं. होता यह है कि कुछ विख्यात विचारकों और प्रतिष्ठित सिद्धांतों पर सुविधाभोगी समुदायों से आये हुए कुछ विद्वान अपनी ठेकेदारी मान लेते हैं. इससे उनका अहंकार तुष्ट होता है इसी प्रवृत्ति के कारण वे निचली जातियों का अपमान करते हैं.4

स्त्री अस्मिता और प्रतिनिधित्त्व का प्रश्न अब भी समाज और साहित्य में बना हुआ है. स्त्री तन की है ? या मन की है ? इस पर साहित्यिक स्त्री विमर्श में खूब चर्चा हुई अंत में निष्कर्ष निकला कि स्त्री तन की भी है, मन की भी और वह धन की भी है. कर्म के आधार पर स्त्री का शोषण सदियों से चला आ रहा है. कुछ विद्वान् यह भी मानते हैं कि स्त्री मन से स्त्री है. अब कुछ विद्वान् यह मानने लगे हैं कि यदि स्त्रियों को आर्थिक आजादी दी जाय तो वे भी अपनी अस्मिता और प्रतिनिधित्व की लड़ाई स्वयं लड़ सकेंगी. इस प्रश्न को प्रत्येक वर्ग के पुरुष और स्त्री साहित्यकरों ने अपनी सुविधा और सीमा के अनुरूप चित्रण किया है. यह सुविधानुरूप चित्रण जाके पैर न फटी बिवाई सो क्या जाने पीर पराईकी ओर ध्यान केन्द्रित करता है. इस उपन्यास में स्त्रियों के दो रूप दिखाई देते हैं. एक ओर तथाकथित उच्च वर्ग की स्त्री है जो भ्रष्टाचार के धन से गहने और साड़ी पहन कर इतरा रही हैं. वहीं दूसरी ओर दलित स्त्री है जिसका पति सत्यनिष्ठा, कर्मठ, जुझारू के साथ-साथ मेहनत की कमाई से घर चला रहा है किन्तु वह उससे खुश नहीं है. 

श्यामा का अपने पति मनोहर द्वारा रिश्वत न लेने के कारण वाद विवाद होता है. मनोहर श्यामा को समझाने की कोशिश करते हुए कहता है श्यामा !... तुम भी क्या तुलना करने में लग जाती हो दूसरों से. उनकी अपनी जिन्दगी है, हमारी अपनी है.5 किन्तु श्यामा घर की तंगहाली से परेशान है वह कहती है 


क्यों न करूँ. उनकी बीवियों को देखा तुमने कैसी कीमती साड़ियों और गहनों से लदी हुई थीं सब की सब और एक-दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा सी कर रही थीं. और अपनी ओर देखो, अपनी बीवी को देखो...सबसे साधारण साड़ी थी मेरी.

यह समस्या केवल आर्थिक है ऐसा नहीं है. इसमें सामाजिक भेदभाव छुपा हुआ है. आर्थिक समानता की इस दौड़ में एक वर्ग ऐसा है जो सदियों से चालीस कदम आगे रहा है या निकल चुका है, जबकि दूसरा अभी भी शून्य पर खड़ा है. 

ऐसे में दौड़ का परिणाम कौन जीतेगा ? और कौन हारेगा ? करना बैमानी होगी. यहाँ श्यामा की मांग जायज है किन्तु तरीका गलत हो सकता है. जयप्रकाश कर्दम ने उपन्यास के भीतर स्त्री की समस्या को बेबाक और संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत किया है. वे स्त्रियों की दशा के संदर्भ में लिखते हैं 


निःसन्तान स्त्रियों को पूर्ण स्त्री नहीं माना जाता है. चाहे पुरुष की कमी के कारण वह गर्भ-धारण करने और सन्तान उत्पन्न करने में असमर्थ रहती हो, किन्तु पितृसत्तात्मक समाज में, ऐसे मामलों में पुरुष के अन्दर कोई कमी नहीं मानी जाती है और सारी कमी स्त्री पर ही आरोपित की जाती है.

जिस सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देता सभ्य समाज का व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता को बनाये रखने के लिए झूठे स्वांग भरता है असल में वह अंदर से कितना कमजोर और कुंठित है इसका अंदाजा उपन्यास पढ़ने से लगाया जा सकता है. लेखक स्त्री के भीतर व्याप्त दुर्गुणों को सामने रखता है 


स्त्री को माँ बनने की शिक्षा देने वाली स्त्री ही होती हैं. और उसके माँ नहीं बन पाने पर उस पर उलाहना और कटाक्ष करने वाली भी प्रायः स्त्री ही होती है.

इस प्रकार के प्रसंग समाज में रोज घटित होते हैं किन्तु स्त्री मुक्ति का प्रश्न अब भी शेष बना हुआ है. दलित स्त्रियों के साथ हिंसक घटनाएं सामने आ रही हैं जिनमे तेज़ाब फेकना, अश्लील वीडियों प्रचारित करना, बलात्कार, सरे आम निवस्त्र घुमाना और #मी टू जैसे शोषण के अनेक स्वरूप या हथकण्डे प्रयोग में लाये जा रहे हैं.


आजादी के बाद भारत में सामाजिक समरसता के निर्माण के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया, जिसका उद्देश्य अर्जुन और एकलव्य दोनों को समान करने को लेकर था, किन्तु वर्तमान समाज के गुरु द्रोणाचार्य अभी भी अर्जुन को ही तालीम देने और एकलव्य का अंगूठा काटने का कार्य कर रहे हैं. मुख्यधारा के अधिकतर साहित्यकारों ने दलितों की पीड़ा को कभी साहित्य का विषय बनने ही नहीं दिया. इससे लम्बे समय तक समाज में गैरबराबरी पनपती रही जिसकी आड़ में छुआछूत, ऊँच-नीच, जूठन तथा मैला उठाने की अमानवीय कुरीतियों को बढ़ावा मिला तथा यथार्थ पर पर्दा डाले जाने का कार्य किया जाता रहा. यदि सौन्दर्यशास्त्र का अलाप करने वाली साहित्यिक गतिविधियाँ यथार्थ का चित्रण की होतीं तो, आज का भारत समानता, समतामूलक भारत होता न कि विषमतामूलक. 

21वीं सदी के भारत में जहाँ आरक्षण हटाने की बात पर सवर्ण समुदाय के लोग लगातार आन्दोलन कर रहे हैं किन्तु छुआछूत, ऊँच-नीच, जूठन, मैला उठाने की घटना, मरे जानवर की चमड़ी उतारने के खातिर पीटे जाने, खेत में शौच जाने से दलित बच्चों को मृत्यु के घाट उतारना इत्यादि घटना को नजरअंदाज किया जाता है. जयप्रकाश कर्दम उत्कोच उपन्यास में सवर्ण और दलित के बीच निर्मित हुए फासले को बताते हुए आरक्षण को महत्ता को मजबूती से रखते हैं. भारतीय समाज में आरक्षण को लेकर एक वर्ग उपन्यास के पात्र नरेश सक्सेना जैसी मानसिकता से ग्रसित है, जो कहता है 


इनको क्या दिक्कत है नौकरी की. दिक्कत तो हमें होती है....कोई देख ही नहीं रहा है कि साधारण पढ़े-लिखे और अयोग्य लोग आसानी से सरकारी नौकरी में आ रहे हैं और ऊँची ऊँची डिग्रियाँ लिए हुए योग्य लोग सड़कों की खाक छान रहे हैं.

यदि योग्य और अयोग्य का प्रश्न उचित है तो दोनों वर्गों को एक जैसी सुविधाएँ दी जाय, एक जैसा खाना, एक जैसा रहन-सहन, एक जैसा पहनावा और फिर योग्य और अयोग्य का चुनाव किया जाय तो बेहतर होता. रही बात आरक्षण की वह एस सी., एस.टी. ओबीसी को 49.5% आरक्षण का प्रावधान किया गया, जबकि 50.5% सामान्य सीटों पर केवल उच्च वर्णों का कब्ज़ा है. यहाँ तक कि व्यवस्था में बैठे उच्च वर्णों के लोग 49.5% सीटों के आरक्षण को पूरी तरह भरते नहीं है और बाद में उसे सामान्य में बदलकर अपने लोगों को नौकरियां उपलब्ध करते हैं. यहाँ तक कि प्रमोशन में आरक्षण के प्रावधान को अभी तक लागू नहीं किया गया है. इस उपन्यास में मनोहर अपने दोस्त सुधीर राजौरा को बताता है 


अब समझ रहे हो न तुम. रिश्वत की कमाई वाली सीटों पर अधिकांश उच्च जातियों के लोग इसलिए हैं क्योंकि ऊपर के अधिकारी भी उच्च जातियों के होते हैं, जो उच्च जातीय के कार्मिकों के प्रति उदार और अपनापन रखते हैं. इस कारण कमाई वाली सीटों पर प्रायः उच्च जातीय कर्मचारियों को ही तैनात किया जाता है, उनको संरक्षण भी प्रदान किया जाता है. इस तरह रिश्वत का अधिकांश पैसा उच्च जातियों के पास जाता है. उच्च जातियों के लोग वैसे ही, परम्परा से निम्न जातीय लोगों का सामाजिक-आर्थिक शोषण और दमन करते हैं. रिश्वत की इस अतिरिक्त मोटी कमाई से वे आर्थिक रूप से और अधिक समृद्ध हो जाते हैं और इसके दम पर आर्थिक रूप से कमजोर रहने वाले दलितों का और अधिक शोषण करते हैं.’”10 

लेखक ने दोनों ही चरित्रों नरेश सक्सेना और मनोहर को समाज के चौराहे से उठाकर उन्हें सामाजिक समस्याओं का जामा पहनाकर प्रस्तुत किया है. निर्धारित पाठक को करना है कि नरेश सक्सेना सही है या मनोहर.

भारतीय राजनीति के लिए आरक्षण हमेशा लोकतंत्र पर कब्ज़ा करने का हथियार रहा है. आरक्षण किसे? क्यों? और कितना? समझना न राजनेताओं को आवश्यक लगा न ही उन्हें मतलब है. परन्तु यह तीनों प्रश्न प्राचीन काल से चली आ रही वर्णव्यवस्था का ही आधुनिक रूप है. उपन्यास का पात्र नरेश सक्सेना यह भी कहता है कि 


यह तो राजनीति का मामला बन गया है आजकल. आरक्षण को ख़त्म करने की बात तो छोड़िये, प्रत्येक राजनीतिक दल ने वोट के चक्कर में इन एससी, एसटी को सिर आँखों पर बैठा रखा है. हर दस साल बाद संसद द्वारा आरक्षण को अगले दस साल के लिए बढ़ा दिया जाता है. किसी भी दल का कोई भी सांसद आरक्षण के विरोध में ठीक से चूँ तक नहीं करता. इसलिए यह दिक्कत खत्म होने वाली नहीं है. यह तो बनी रहेगी.11 

आरक्षण, जिसे बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर सामाजिक समरसता का मूल मन्त्र समझते थे. आरक्षण का सृजन तथाकथित ब्राह्मणों द्वारा निर्मित जातिगत छुआछूत, कर्मकांडों, ऊँच-नीच के अमानवीय कुकृत्यों के खात्मे के लिए किया गया था किन्तु इसी आरक्षण को आधार बनाकर आज भी उच्च शिक्षण संस्थानों, सरकारी विभागों और यहाँ तक कि संसद में उच्च जाति के लोग कुंडली मारकर बैठे हुए हैं. यथार्थ के धरातल पर किसी भी सरकार के मंत्रियों की जाति की जाँच की जाय तो अधिकतर मंत्री उच्च जाति से संबंध रखते हैं. उपन्यास का पात्र सुन्दरलाल कहता है बिलकुल जी, देश को लूट रहे हैं ये राजनेता. भ्रष्टाचार को बढ़ावा तो राजनेता ही दे रहे हैं. यदि राजनीति भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाए तो देश से भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा.12  

वर्तमान में हमारे समाज के नेताओं द्वारा आरक्षण और समरसता जैसे शब्द की व्याख्या और प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है. सामाजिक समरसता के नाम पर दलित समुदाय के साथ खिचड़ी खाने का ढोंग किया जा रहा है किन्तु क्या इससे सच में समरसता हो रही है? क्या सच में उच्च वर्ण का व्यक्ति परिअल’, ‘पंचम’, ‘अतिशूद्र’, ‘अंत्यजया नामशूद्रआदि वर्ण के लोगों के साथ रोटी और बेटी का संबंध बना रहा है? क्या अमीर और गरीब की खाई समाज से मिट गयी? यह प्रश्न आज और अब भी विचलित करते हैं.

उत्कोचउपन्यास मूलतः भ्रष्टाचार पर केन्द्रित है. इस उपन्यास में शिक्षा में भ्रष्टाचार, राजनीतिक भ्रष्टाचार, सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार इत्यादि भ्रष्टाचार के कई रूप देखने को मिलते हैं. भ्रष्टाचार का ऐसा रूप जो, हिन्दू वर्ण व्यवस्था की ऊँच-नीच की दो पाटियों के भीतर दलित समाज का व्यक्ति लगातार पिसता चला जा रहा है. उपन्यास में सुन्दरलाल कहता है 


ठीक कह रहे हो. थाना, कोर्ट, कचहरी सब जगह भ्रष्टाचार फैला है. गरीब और बिना रसूख वाले आदमी की कहीं कोई सुनवाई नहीं है. इस भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी को न्याय नहीं मिल पाता.13 

उपन्यास में देखने को मिलता है कि भ्रष्टाचार ने समाज में जातिगत ऊँच नीच के आधार पर आर्थिक विषमता को जन्म दिया है. यह उपन्यास हरिशंकर परसाई के भोलाराम का जीवकहानी की याद दिलाता है जिसमें सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार का यथार्थ चित्रण हुआ है. उत्कोच उपन्यास में जयप्रकाश कर्दम सरकारी कार्यालय में व्याप्त भ्रष्टाचार के सन्दर्भ में लिखते हैं 


मनोहर के कार्यालय में रिश्वत का बोलबाला था. बिना रिश्वत के कोई काम वहाँ नहीं होता था. कर्मचारियों का वेतन तो कम था लेकिन ऊपरी आमदनी इतनी अधिक थी कि कम वेतन की ओर किसी का ध्यान जाता ही नहीं था. अफसर से लेकर बाबू तक, सब के काम के अनुसार रेट बँधे थे. दफ्तर में आने वाला जो व्यक्ति सब को यथोचित भेंट चढ़ा देता था, उसका काम सरलता से और समय से हो जाता था. किन्तु जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता था उसका काम होना असम्भव नहीं होता तो कठिन अवश्य होता था.14 

वर्तमान में एम.टी.एन.एल, जेट एयरवेज, बिजली विभाग, जैसे बड़े बड़े सरकारी संस्थानों के बंद होने का सबसे बड़ा कारण बड़े से लेकर छोटे सरकारी कर्मचारियों के भीतर भ्रष्टाचार का घर कर जाना भी रहा है. बड़े-बड़े टेंडर में घोटाले, बड़ी-बड़ी प्राईवेट कंपनियों से साठ-गाँठ होना एक विशेष कारण है. लगातार रेलवे, खनिज खाद्यानों, शिक्षण संस्थानों इत्यादि का बंद होना और भारत में निजीकरण को बढ़ावा देना भ्रष्टाचार का नतीजा है. निजीकरण का सबसे अधिक प्रभाव आरक्षण पर पड़ रहा है जिसके कारण दलित युवा कम पगार में छोटे मोटे काम करने पर मजबूर हैं. समाजशास्त्री कांचा अइलैय्या अपनी पुस्तक हिंदुत्व-मुक्त भारत में लिखते हैं हिन्दू धर्म की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण इसकी विज्ञान-विरोधी और समानताविरोधी नैतिक मूल्य पद्धति है.15 इसमें दो राय नहीं है कि सभी जातियों, वर्णों तथा वर्गों में समानता ही देश को नयी ऊंचाई प्रदान कर सकती है.

दलित साहित्य की पक्षधरता और उसकी जवाबदेही की बात करें तो उसने दबे, कुचले, दमित, दलित, पिछड़े और पीड़ित जन के भीतर सामाजिक समरसता लाने में बड़ी भूमिका का निर्वाह कर रहा है. यही कारण है कि मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पाण्डेय दलित साहित्य के सन्दर्भ में बताते हैं 


अगर सम्पूर्ण भारतीय समाज को विकसित होना है तो एक बहुत बड़े हिस्से वाले दलित समाज का विकसित होना जरूरी है और इसमें बहुत बड़ी भूमिका दलित साहित्य की है. पर इसके साथ ही दूसरे स्तर पर मैं दलित समाज से अलग जो भारतीय समाज है, उसके विकास के लिए भी दलित साहित्य को जरूरी समझता हूं. वह इस तरह से कि दलित साहित्य सवर्ण समुदाय को उसकी अपनी ही विकृतियों, कुरूपताओं और विसंगतियों से परिचित करा सकता है, जिनसे मुक्त होकर बाकी भारतीय समाज यानी सवर्ण भारतीय समाज भी अपनी कमजोरियों, मूर्खताओं से मुक्त होकर विकसित होने का रास्ता पाएगा या खोजेगा. इसलिए दलित साहित्य दोनों स्तरों पर भारतीय समाज के विकास के लिए आवश्यक है.16 

समाज का एक वर्ग जिसने ढोंग ढकोसले, पूजा-पाठ, संस्कृति का भय दिखाकर पर्याप्त रोजी, रोटी, कपड़ा और मकान पर कब्ज़ा करने का कार्य किया जबकि दूसरा दलित समुदाय जिसने सदा ही रोजी, रोटी, कपड़ा और मकान के लिए संघर्ष किया. उन्हें शिक्षा से वंचित रखा, उन्हें मंदिर में घुसने नहीं दिया, वेद सुनने के नाम पर उनके कानों में सीसे पिघलाकर दाल दिया. जिनकी स्त्रियों को छाती ढकने की आजादी नहीं दी गयी, जिनके चलने से जमीन दूषित न हो इसलिए उनकी पीठ पर झाड़ू बाँधी गई. यह आम जीवन की विडंबना नहीं है बल्कि काली सच्चाई है. इन सभी समस्याओं को लेकर जयप्रकाश कर्दम सामाजिक समानता के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं.

अंततः एक पाठक की दृष्टि से इस उपन्यास को यदि देखा जाए तो इसका कथानक अधिक विस्तृत न होने के बाद भी सामाजिक समस्याओं को अभिव्यक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ता. भारत में भ्रष्टाचार, गरीबी, अशिक्षा, स्त्री शोषण, जातिगत भेदभाव, छुआछूत और धार्मिक विकृतियाँ इत्यादि सामाजिक गैरबराबरी को दर्शाते हैं तथा इससे दलित समुदाय सदियों से शोषण का शिकार होता आया है. दलित समुदाय की जमीनी हक़ीकत और सदियों के संताप के सन्दर्भ में घनश्याम दास अपनी पुस्तक भारत में सामाजिक आन्दोलनमें लिखते हैं 


हिन्दू जाति व्यवस्था के क्रम में इनका स्थान चातुवर्ण व्यवस्थासे बाहर है. ये लोग देश के विभिन्न भागों में परिअल’, ‘पंचम’, ‘अतिशूद्र’, ‘अंत्यजया नामशूद्रके नाम से जाने जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि इन लोगों का स्पर्श और कभी-कभी उनकी छाया और यहाँ तक की उनकी आवाज भी स्वर्ण हिन्दुओं को अपवित्र कर देती है. यद्यपि, कानून रूप में अब ये लोग अस्पृश्य नहीं हैं, तथापि अभी भी उनमें से कई लोग इस कलंक से ग्रसित हैं.17 

वर्तमान साहित्य में इस प्रकार के प्रसंगों का आना सम्पूर्ण वंग्यमय को कटघरे में खड़ा करता है.
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सत्य प्रकाश
शोध छात्र
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय
satyaprakashrla@gmail.com


सन्दर्भ सूची

  1. कर्दम, जयप्रकाश, उत्कोच, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ संख्या-126
  2. वही, पृष्ठ संख्या-80
  3. वही, पृष्ठ संख्या-80
  4. सं. दुबे, अभयकुमार, आधुनिकता के आईने में दलित, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2005, पृष्ठ संख्या-101
  5. कर्दम, जयप्रकाश, उत्कोच, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ संख्या-100
  6. वही, पृष्ठ संख्या-100
  7. वही, पृष्ठ संख्या-73
  8. वही, पृष्ठ संख्या-73
  9. वही, पृष्ठ संख्या-53
  10. वही, पृष्ठ संख्या-121
  11. वही, पृष्ठ संख्या-53
  12. वही, पृष्ठ संख्या-62
  13. वही, पृष्ठ संख्या-63
  14. वही, पृष्ठ संख्या-44
  15. अलैइय्या, कांचा, हिंदुत्व-मुक्त भारत, सेज पब्लिकेशन, दिल्ली, संस्करण-2017, पृष्ठ संख्या-15
  16. पाण्डेय, मैनेजर, मेरे साक्षात्कार, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-1998,पृष्ठ संख्या-137
  17. शाह, घनश्याम, घनश्याम शाह, भारत में सामाजिक आंदोलन, रावत पब्लिकेशन, दिल्ली, संस्करण-2009, पृष्ठ संख्या-105
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