रायपुर में पिछले दस वर्षो से अनवरत ‘मुक्तिबोध
स्मृति व्याख्यान’ के अंतर्गत इस वर्ष ११ सितम्बर को व्याख्याता थे वरिष्ठ आलोचक सूरज
पालीवाल, और विषय था– ‘दीमक के
व्यापारियों के विरुद्ध प्रति-संसार रचती मुक्तिबोध की कहानियाँ’.
मुक्तिबोध की कहानियों पर सूरज पालीवाल के इस विचारोत्तेजक व्याख्यान
को यहाँ अविकल प्रस्तुत किया जा रहा है.
दीमक के
व्यापारियों के विरुद्ध प्रति-संसार रचती मुक्तिबोध की कहानियाँ
सूरज पालीवाल
मुझे यह जानकर और आश्चर्य हुआ कि प्रतिवर्ष होने वाले इस आयोजन को उनका परिवार आयोजित करता है, जिसमें किसी प्रकार की सहायता सरकार या अन्य किसी संस्थान से नहीं लेता. आश्चर्य इसलिये भी कि मुक्तिबोध तो हम सबके हैं, अब वे केवल व्यक्ति भर नहीं रह गये हैं बल्कि उस गंभीर परंपरा के पर्याय बन चुके हैं जो निरंतर आगे बढ़ रही है. ऐसे समय में जब आयोजन केवल धन उगाही या कैरियर बनाने के साधन बनते जा रहे हैं तब इस प्रकार की निष्ठा देखकर मन भर आता है. मुक्तिबोध का सही रास्ता तो यही है. वे अतिरिक्त धन और वैभव के विरुध्द थे, धन या अन्य किसी प्रकार का प्रदर्शन उन्हें बेशर्मी लगती थी. उनके प्रिय कथाकार प्रेमचंद ने कहा था
इस पत्र में वे अपनी सीमा भी बताते हैं और उसका परिणाम भी. हम दुनियादार लोग हैं इसलिये परिणाम पहले देखते हैं. कठिन और टेढे़ रास्तों पर चलने में हमें डर लगता है, जीवन में किसी प्रकार की चुनौती का सामना करते हुये हमारी रूह कांपती है इसलिये हम तुरंत समझौते पर उतर आते हैं. यही कारण है कि मुक्तिबोध का साहित्य तो हमें अच्छा लगता है पर उनके संघर्षों से हम बचते हैं. मध्यवर्गीय आदमी सुविधाजीवी होता है, पर सुविधाएं उसे अंदर से कमजोर भी करती हैं यह उसकी समझ में या तो आता नहीं या वह उसे मानता नहीं है. मुझे बार-बार मुक्तिबोध की कहानी ‘समझौता’ का मेहरबान सिंह याद आता है जो कहता है ‘भाई, समझौता करके चलना पड़ता है जिंदगी में, कभी-कभी जान-बूझकर अपने सिर बुराई भी मोल लेनी पड़ती है. लेकिन उससे फायदा भी होता है. सिर सलामत तो टोपी हजार.’
मुक्तिबोध के साहित्य का बीज शब्द ‘आत्मा और विवेक’ है. उनके लिये ये शब्द भर नहीं थे वरन् उनके जीवन-मरण के सवाल थे. वे ऐसे समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, जिसकी आत्मा मर गई हो और विवेक नष्ट हो गया हो. ‘अंधेरे में’, सतह से उठता आदमी, क्लाड ईथरली, समझौता तथा ‘विपात्र जैसी कहानियों से आत्मा और विवेक की छटपटाहट निकाल दें, तो वे कहानियां सपाट हो जायेंगी. लेकिन मुक्तिबोध सपाट कहानियों के कथाकार नहीं थे. कुछ लोग सहज ही उनके अपने संघर्षों को उनके लेखन में देखने लगते हैं, यह सही है कि लेखक के अपने संघर्ष अलग-अलग रूपों में लेखन में आते हैं पर क्या यह कह देने मात्र से मुक्तिबोध के योगदान को समझा जा सकता है ? कहना न होगा कि इस प्रकार की सहज स्थापनाओं के कारण मुक्तिबोध का मूल्यांकन नहीं हो पाया. क्या कारण है कि मुक्तिबोध की कहानियां ‘नयी कहानी’ आंदोलन के दौर की महत्वपूर्ण कहानियां हैं, पर जब ‘नयी कहानी’ का मूल्यांकन किया गया तो न उसमें मुक्तिबोध थे और न उनकी कहानियां जबकि मूल्यांकन करने वाले उनके अपने मित्र ही थे.
यह सर्वविदित है कि परंपरा को तोड़कर सर्वथा नया और मौलिक देने वाले का मूल्यांकन बाद में ही होता है, इसलिये मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा, वैसे-वैसे मुक्तिबोध का मूल्यांकन होगा और वे बड़े और बड़े लेखक होते जायेंगे. दरअसल, मुक्तिबोध की कहानियां उस खांचे में सहज नहीं उतारी जा सकतीं, जो खांचा उस समय के कहानीकार और आलोचकों ने बनाया था. केवल कहानी ही नहीं उनकी कविता भी उस समय के खांचे में कहां फिट बैठती थीं ? मुक्तिबोध किन्हीं खांचों में समाने वाले न व्यक्ति थे और न रचनाकार. वे खांचों को तोड़ने में यकीन रखते थे, जिससे मनुष्य की आत्मा और विवेक को बचाया जा सके. हम लोग राजनांदगांव की नौकरी को बहुत महत्ता देते हैं, निर्विवाद रूप से उसकी महत्ता थी पर मुक्तिबोध का स्वभाव ऐसा न था. उन्होंने नेमि बाबू को पत्र लिखकर अपनी मनःस्थिति के बारे में कहा -
उकताने का मूल कारण उनकी आत्मा थी जो किसी प्रकार के बाहरी बोझ को स्वीकार नहीं करती थी, उनका विवेक उन्हें यह अनुमति नहीं देता था कि अच्छा जीवन जीने के लिये किसी प्रकार का समझौता किया जाये. यह विडंबना ही है कि एक ओर जीवन के अभाव उन्हें समझौता कर मध्यवर्गीय जीवन जीने को विवश कर रहे थे तो दूसरी ओर उनकी आत्मा इसे स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं थी. यह द्वंद्व उनकी कविता और कहानियों में जिस प्रकार आया है, उससे वे हिंदी के विरल रचनाकार साबित हुये. आत्मा को वे न केवल महत्व देते थे वरन् नये-नये रूपों में उसे प्रतिष्ठित भी करते थे. यथा ‘उसकी आत्मा एक नये महीन चश्मे से स्टेशन को देख रही थी’, ‘इतने में दिल के किसी कोने में कोई अंधियारा गटर एकदम फूट निकलता है. वह गटर है आत्मालोचन, दुख और ग्लानि का’, ‘क्लाड ईथरली हमारे यहां भले ही देह-रूप में न रहे लेकिन आत्मा की वैसी बेचैनी रखने वाले लोग तो यहां रह ही सकते हैं’, ‘जिस समाज में जननेंद्रिय भी बेची जाती है, वहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता बेचनेवालों की संख्या असीम है. उतनी बड़ी संख्या है आत्मा को रेहन रखने वालों की’, ‘मैंने सिर्फ एक अच्छा काम किया है. बड़े आदमियों के ज्यादा चक्कर में न पड़कर मैंने आम तौर से छोटे आदमियों का अहसान लिया है. वे छोटे आदमी यह नहीं कहते कि तुम अपनी आत्मा मुझे बेच दो.’ ऐसे वक्तव्य और स्थापनाओं के पीछे मुक्तिबोध की वह बेचैनी है, जो आत्मा को बचाये रखने के लिये रात-दिन उद्विग्न रहती है.
मैं बहुत विनम्रता के साथ यह पूछना चाहता हूं कि क्या हिंदी में ‘क्लाड ईथरली’ जैसी दूसरी कोई कहानी है ? अपने किये का पश्चाताप न कन्फेशन से किया जा सकता है और न आध्यात्मिक बनने से. यदि मनुष्य की आत्मा जीवित है और वह उसकी बात सुनता है तो वह उसे पागल कर देती है. मुक्तिबोध लिखते हैं ‘हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहां हम उन उच्च, पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदलकर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य, भद्र हो जायें, यानी दुरुस्त हो जायें या उसी पागलखाने में पड़े रहें.’ मुक्तिबोध के यहां सारा खेल मन और मस्तिष्क का है, जिसे आत्मा और विवेक भी कहा जा सकता है. क्लाड ईथरली ने हिरोशिमा पर जो भारी बम फेंका था, उससे पूरा शहर बर्बाद हो गया था, यहां तक कि 90 प्रतिशत चिकित्सक भी खत्म हो गये इसलिये बचे-खुचे घायल लोगों का इलाज भी संभव नहीं हो सका. ईथरली की आत्मा ने उसे अपने इस कुकृत्य के लिये कभी क्षमा नहीं किया. मुक्तिबोध लिखते हैं ‘जो आदमी आत्मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है. आत्मा की आवाज जो लगातार सुनता है और कहता कुछ नहीं है वह भोला-भाला सीधा सादा बेवकूफ है. जो उसकी आवाज बहुत ज्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है. लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है. पुराने जमाने में संत हो सकता था. आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है.’ यह केवल व्याख्या भर नहीं है बल्कि उनकी अपनी आदर्श स्थापनाएं हैं जो उनकी रचनाओं में गुंथी हुई हैं.
इस कहानी को पढ़ते हुये मुझे आश्चर्य हुआ कि उदारीकरण जो एक प्रकार का अमेरिकीकरण ही है, की भनक मुक्तिबोध को इक्कीस वर्ष पहले ही लग गई थी. वे लिखते हैं ‘भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमरीका है. एक जमाने में हम लंदन जाते थे और इंग्लैंड-रिटंर्ड कहलाते थे. और आज वाशिंगटन जाते हैं. अगर हमारा बस चले और आज हम सचमुच उतने ही धनी हों और हमारे पास उतने ही एटम बम और हाइड्रोजन बम हों और राकेट हों तो फिर क्या पूछना !’ और आगे लिखते हैं ‘मुख्तसर किस्सा यह है कि हिंदुस्तान भी अमरीका ही है.’ कहना न होगा कि अमरीका की जो ताकत आज दिखाई दे रही है, उसे मुक्तिबोध ने बहुत पहले ही पहचान लिया था. अमरीका और उदारीकरण के बारे में मैं इसलिये कुछ नहीं कहूंगा कि वह अलग बहस की मांग करता है और इससे मुद्दे से भटकने का खतरा उपस्थित हो जायेगा. मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि मुक्तिबोध की समझ कितनी दूरगामी थी कि भविष्य के खतरे और उसके कारण उन्हें स्पष्ट दिखाई देने लगे थे.
मुक्तिबोध की कहानियों की विशेषता जटिलता नहीं है, जिसकी चर्चा अधिकांश लोग किया करते हैं. जटिलता जीवन के रहस्यों को उलझाती है, संघर्षों की धार को भोथरा करती है और सीधे रास्तों को टेढ़े रूप में दिखाती है, मुक्तिबोध की कहानियां ऐसा नहीं करतीं. वे अपने दौर में लिखी जा रही कहानियों से भिन्न प्रकार की कहानियां लिखते हैं लेकिन वे कहानियां उस दौर में भी और आज भी अलग से पहचानी जाती हैं. अलग से पहचान बनाये जाने के अपने संकट हैं, जिनसे मुक्तिबोध परिचित थे पर वे उन संकटों की परवाह नहीं करते थे. यदि परवाह करते तो वे ‘नयी कहानी’ की उस भीड़ में खो जाते, जिसे ‘नयी कहानी’ के तीन झंडावरदारों ने दबा दिया था. यह महत्वपूर्ण है कि आजादी के बाद जिस मध्यवर्ग को ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ में विशेष महत्व दिया गया, उस मध्यवर्ग के स्वार्थ और इकहरे संसार से मुक्तिबोध को चिढ़ है.
हिंदी की महान कविता ‘अंधेरे में’ और उनके आलोचनात्मक लेखों के अलावा कहानियों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है. ‘सतह से उठता आदमी’ के कृष्णस्वरूप के वैभवपूर्ण जीवन और उसके दब्बू स्वभाव पर कन्हैया का थूकना सामान्य घटना नहीं है. धन-दौलत से विलासितापूर्ण जीवन तो जिया जा सकता है पर दब्बूपन दूर नहीं किया जा सकता. कृष्णस्वरूप, रामनारायण और कन्हैया तीनों वर्गीय दृष्टि से अलग हैं पर तीनों अपने वर्ग चरित्रों से ही कहानी को महत्वपूर्ण बनाते हैं. यह समझ कम कहानीकारों में पाई जाती है, मुक्तिबोध बारीकी से पात्र और घटनाओं को उठाते हैं और उस मुकाम पर ले आते हैं जहां कहानी अपने आप बहुत कुछ कहती-सी लगती है. उन्हें जल्दबाजी में नहीं पढ़ा जा सकता, उनके यहां हर शब्द का महत्व है, इसलिये सुनार की चुनौटी से उठाये गये शब्द लुहार के भारी हथोड़े की चोट करते हैं. वे सामान्य ढंग से कहानी को उठाते हैं और अपने स्वभाव के अनुसार बहस करते-करते उस जगह ले आते हैं, जिसकी कल्पना पाठक नहीं करता.
कई कहानीकार कहानी के आरंभ से उसके अंत का पता दे देते हैं पर मुक्तिबोध ऐसा नहीं करते. वे अपने पाठक को घुमाते हैं और खुद भी उसके साथ संवाद करते चलते हैं लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि पाठक को यह खबर नहीं लगने देते कि वे उसे कहां और कितनी दूर ले जा रहे हैं. बराबर बनी रहने वाली उत्सुकता उनकी किस्सागोई का भी नमूना है और उस दृष्टि का भी जिसके लिये वे जाने जाते हैं.
‘मुक्तिबोध’
की पुण्य तिथि पर आयोजित इस कार्यक्रम में बोलना मेरे जैसे व्यक्ति
के लिये कठिन है. हमारी पीढ़ी उन्हें पढ़कर बड़ी हुई है, हमारे
अंदर यदि थो़ड़ा भी साहित्य विवेक है तो वह हमने उनसे ही सीखा है. मैं जब अलीगढ़
मुस्लिम विश्वविद्यालय से शोध कार्य कर रहा था, तब मैं और
मेरे एक मित्र कई-कई घंटों तक मुक्तिबोध पर चर्चा किया करते थे. मेरा शोध रेणु पर
था लेकिन चर्चा मुक्तिबोध पर ही होती थी. वह युवावस्था थी और जाहिर है कि युवाओं
का आदर्श ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो स्वयं ईमानदार हो, जो
अंदर तक हिला दे, जो बेचैनी पैदा करे और जो व्यवस्था से
टकराने का साहस तथा विवेक उत्पन्न करे. मुक्तिबोध हम जैसे युवाओं की कसौटी पर खरे
उतरने वाले साहित्यकार थे. तब हम लोग मुक्तिबोध की पंक्तियों को मुहावरों और
सूक्तियों की तरह प्रयोग किया करते थे और चाहते थे कि सब लोग ऐसा ही करें.
विभाग या अन्य कहीं जब तर्क देने की नौबत आती तो हम मुक्तिबोध की स्थापनाओं का सहारा लिया करते थे और मानते थे कि जब मुक्तिबोध ने इस विषय पर लिख दिया तो बात खत्म. यह विश्वास हमारी पीढ़ी के अंदर समय के साथ दृढ़ से दृढ़तर होता गया. इसलिये मैं कह रहा था कि मुक्तिबोध से हमने न केवल साहित्य बल्कि जीवन की सचाई और उस पर निर्भीक होकर चलना भी सीखा है. मैं यह मानता हूं कि मुक्तिबोध पर केवल पढ़कर नहीं बोला जा सकता. हिंदी में मुक्तिबोध अकेले हैं जो पीछे से नहीं, चुपके से नहीं बल्कि आंखों में आंखें डालकर बात करते हैं और भटकने पर बार-बार सचेत भी करते हैं. कविता, कहानी और आलोचना इत्यादि विधाओं और लंबे-लंबे पत्रों में वे वैचारिक बहस करते हैं, बहस करना उन्हें अच्छा लगता है, जिस ईमानदारी से वे तर्क देते हैं, उसी ईमानदारी से वे दूसरों को सुनते भी हैं. इसके लिये मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा.
धर्मवीर भारती द्वारा उत्पन्न विवाद पर वे श्रीकांत वर्मा को पत्र लिखकर हिदायत देते हैं कि
विभाग या अन्य कहीं जब तर्क देने की नौबत आती तो हम मुक्तिबोध की स्थापनाओं का सहारा लिया करते थे और मानते थे कि जब मुक्तिबोध ने इस विषय पर लिख दिया तो बात खत्म. यह विश्वास हमारी पीढ़ी के अंदर समय के साथ दृढ़ से दृढ़तर होता गया. इसलिये मैं कह रहा था कि मुक्तिबोध से हमने न केवल साहित्य बल्कि जीवन की सचाई और उस पर निर्भीक होकर चलना भी सीखा है. मैं यह मानता हूं कि मुक्तिबोध पर केवल पढ़कर नहीं बोला जा सकता. हिंदी में मुक्तिबोध अकेले हैं जो पीछे से नहीं, चुपके से नहीं बल्कि आंखों में आंखें डालकर बात करते हैं और भटकने पर बार-बार सचेत भी करते हैं. कविता, कहानी और आलोचना इत्यादि विधाओं और लंबे-लंबे पत्रों में वे वैचारिक बहस करते हैं, बहस करना उन्हें अच्छा लगता है, जिस ईमानदारी से वे तर्क देते हैं, उसी ईमानदारी से वे दूसरों को सुनते भी हैं. इसके लिये मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा.
धर्मवीर भारती द्वारा उत्पन्न विवाद पर वे श्रीकांत वर्मा को पत्र लिखकर हिदायत देते हैं कि
‘श्री
भारती ने जो कंट्रोवर्सी पैदा की है, उसका उद्देश्य
प्रतिक्रियावादी भले ही हो, वह बहुत मूल्यवान है और उस पर
चर्चा होना बहुत आवश्यक है. ध्यान में रखिये, वह दाना दुश्मन
है, नादान दोस्त नहीं. इसलिये उसकी इज्जत होनी चाहिये. वह
प्रतिभाशाली है और प्रोब्लेम्स को खूब फील करता है और थिंक करने की कोशिश करता है.
वस्तुतः मैं उसके साहस से बहुत प्रभावित हूं. वह असल है, घटिया
नकल नहीं. यह ठीक है कि वह असलियत हमें पसंद नहीं. किंतु असलियत का विरोध दूनी बड़ी
असलियत की डिग्निटी से होना चाहिये और उसे दूनी बड़ी असलियत की शक्ति और गरिमा से.
... श्री भारती से लोहा लेना ही होगा, लेकिन पाठकों को
कन्फ्यूज करके नहीं उन्हें समस्या समझाते हुये. चुप रहने का कोई सवाल नहीं उठता.
चुप क्यों रहें ? जैसा बनेगा, वैसा
करेंगे. कंट्रोवर्सी के भीतर समस्या सच्ची है. इस समस्या के बारे में चुप रहना न
केवल गलत है, वरन् नुकसानदेह भी.’
इस पत्र का उल्लेख मैंने इसलिये भी किया कि हिंदी में अधिकतर बहस
गरिमाहीन होती जा रही हैं, विरोधी को ध्वस्त करने के लिये बहस होती हैं लेकिन मुक्तिबोध सामने वाले
की गरिमा को ध्यान में रखते हुये बहस करते भी थे और दूसरों से भी इस प्रकार की
उम्मीद करते थे. इसलिये यह कहना अत्युक्ति न होगी कि हिंदी में कोई दूसरा
मुक्तिबोध नहीं है.
जब आ. रमेश मुक्तिबोध ने फोन कर आने का आमंत्रण दिया, तब बहुत देर तक मैं असमंजस में रहा था. जीवन में ऐसे अवसर कम आते हैं जब आप अंदर से बड़े खुश होते हैं पर उस खुशी को बाहर नहीं आने देना चाहते. मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुझे क्या करना है ? पर मुझे लगा अपने सर्वाधिक प्रिय रचनाकार पर बोलने का अवसर मिला है तो हिचक कैसी. वर्धा आने से पहले मुझे नहीं मालूम था कि मुक्तिबोध का परिवार रायपुर में रहता है. रमेश जी हमारे आदर्श हुआ करते थे, जब भी कोई नाम लेता था तो हमारे सामने उनका एक चित्र बनता था, जो कुछ-कुछ मुक्तिबोध जैसा ही हुआ करता था. पर न मिलने का कोई आधार था और न फोन करने का साहस. एक अव्यक्त झिझक अंदर बैठी हुई थी, जो चाहते हुये भी बात नहीं करने दे रही थी. विगत छः-सात वर्ष पहले जब महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में नया भवन बनकर तैयार हुआ और यह तय हुआ कि इसका नाम ‘मुक्तिबोध भवन’ रखा जाय, तभी यह भी तय हुआ कि रमेश जी और उनके पूरे परिवार को बुलाकर इसका उद्घाटन करवाया जाय. तब पहली बार रमेश जी को देखा, तो आंखें जुड़ा गईं. उस समय आपके रायपुर के ही अनूठे कवि और कथाकार विनोद कुमार शुक्ल अतिथि लेखक के रूप में परिसर में ही थे. तब मैंने उनसे पूछा था कि मुक्तिबोध की शक्ल किससे मिलती है तो उन्होंने कहा ‘दिवाकर’ जी से.
उस समय मुक्तिबोध की पांडुलिपियां लेकर चारों भाई वर्धा आये थे. कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा था और मुक्तिबोध की प्रतिमा तो वाकई बोलती-सी लग रही थी. कार्यक्रम के कई साल बाद तक विद्यार्थियों का एक समूह ‘अंधेरे में’ कविता का पाठ कई अवसरों पर मुक्तिबोध की प्रतिमा के सामने खड़े होकर सस्वर करता रहा था, तब पूरा मुक्तिबोध भवन गूंज उठता था. तब ‘अंधेरे में’ कविता अपने असली रूप में खुलती थी, जितनी अच्छी तरह से अधिकांश अध्यापक कक्षाओं में नहीं खोल पाते. इसलिये मुझे लगता है मुक्तिबोध को बगैर समझे या दूसरे रास्तों से समझकर नहीं पढ़ाया जा सकता. उन्हें खुद ही समझना पढ़ता है और समझने के बाद तथाकथित कठिनाई स्वतः दूर होती चली जाती है.
जब आ. रमेश मुक्तिबोध ने फोन कर आने का आमंत्रण दिया, तब बहुत देर तक मैं असमंजस में रहा था. जीवन में ऐसे अवसर कम आते हैं जब आप अंदर से बड़े खुश होते हैं पर उस खुशी को बाहर नहीं आने देना चाहते. मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुझे क्या करना है ? पर मुझे लगा अपने सर्वाधिक प्रिय रचनाकार पर बोलने का अवसर मिला है तो हिचक कैसी. वर्धा आने से पहले मुझे नहीं मालूम था कि मुक्तिबोध का परिवार रायपुर में रहता है. रमेश जी हमारे आदर्श हुआ करते थे, जब भी कोई नाम लेता था तो हमारे सामने उनका एक चित्र बनता था, जो कुछ-कुछ मुक्तिबोध जैसा ही हुआ करता था. पर न मिलने का कोई आधार था और न फोन करने का साहस. एक अव्यक्त झिझक अंदर बैठी हुई थी, जो चाहते हुये भी बात नहीं करने दे रही थी. विगत छः-सात वर्ष पहले जब महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में नया भवन बनकर तैयार हुआ और यह तय हुआ कि इसका नाम ‘मुक्तिबोध भवन’ रखा जाय, तभी यह भी तय हुआ कि रमेश जी और उनके पूरे परिवार को बुलाकर इसका उद्घाटन करवाया जाय. तब पहली बार रमेश जी को देखा, तो आंखें जुड़ा गईं. उस समय आपके रायपुर के ही अनूठे कवि और कथाकार विनोद कुमार शुक्ल अतिथि लेखक के रूप में परिसर में ही थे. तब मैंने उनसे पूछा था कि मुक्तिबोध की शक्ल किससे मिलती है तो उन्होंने कहा ‘दिवाकर’ जी से.
उस समय मुक्तिबोध की पांडुलिपियां लेकर चारों भाई वर्धा आये थे. कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा था और मुक्तिबोध की प्रतिमा तो वाकई बोलती-सी लग रही थी. कार्यक्रम के कई साल बाद तक विद्यार्थियों का एक समूह ‘अंधेरे में’ कविता का पाठ कई अवसरों पर मुक्तिबोध की प्रतिमा के सामने खड़े होकर सस्वर करता रहा था, तब पूरा मुक्तिबोध भवन गूंज उठता था. तब ‘अंधेरे में’ कविता अपने असली रूप में खुलती थी, जितनी अच्छी तरह से अधिकांश अध्यापक कक्षाओं में नहीं खोल पाते. इसलिये मुझे लगता है मुक्तिबोध को बगैर समझे या दूसरे रास्तों से समझकर नहीं पढ़ाया जा सकता. उन्हें खुद ही समझना पढ़ता है और समझने के बाद तथाकथित कठिनाई स्वतः दूर होती चली जाती है.
इस अवसर पर आ. शांता ताई की याद आना स्वाभाविक है. हिंदी में उनके संघर्षों पर कुछ नहीं लिखा
गया, पर क्या ऐसा हो सकता है कि पति
संघर्ष करे और पत्नी उसमें भागीदार न हो. घर परिवार के सघर्षों को पत्नी अधिक
झेलती है और वह पत्नी जिसने अपनी युवावस्था में अपने ही शहर के कोतवाल के बड़े और
लाड़ले बेटे से प्यार किया हो, तब उसके संघर्ष और बड़े हो जाते
हैं. केवल दिन ही नहीं बल्कि रात को घर लौटकर भी मुक्तिबोध जितना कठिन श्रम करते
थे, उसमें अभावों से घिरी पत्नी के पास तो शिकायतें करने का
भी अवसर शायद ही मिलता हो. इसलिये मैं अपने मित्र रमेश अनुपम जी से कह रहा था कि
शांता ताई के संघर्षो पर कुछ लिखा जाना चाहिये जिससे हिंदी जगत को यह मालूम हो सके
कि मुक्तिबोध के निर्माण में उनकी कितनी भूमिका है. कहा जाता है कि हर बड़े आदमी के
मूल में एक स्त्री का हाथ होता है, लेकिन बड़े आदमी का गुणगान
करते हुये हम उसी स्त्री को भूल जाते हैं. मैं महीयशी शांता ताई के संघर्षों को
कृतज्ञतापूर्वक याद करते हुये उन्हें विनम्र श्रध्दांजलि देता हूं और उम्मीद करता
हूं कि और कोई नहीं तो उनके पत्रकार बेटे दिवाकर जी इस काम को पूरा करेंगे. यह
इसलिये भी जरूरी है कि शांता ताई के माध्यम से ही मुक्तिबोध की पूरी तस्वीर बनेगी,
जिसकी जरूरत पूरे हिंदी जगत को है.
मुझे यह जानकर और आश्चर्य हुआ कि प्रतिवर्ष होने वाले इस आयोजन को उनका परिवार आयोजित करता है, जिसमें किसी प्रकार की सहायता सरकार या अन्य किसी संस्थान से नहीं लेता. आश्चर्य इसलिये भी कि मुक्तिबोध तो हम सबके हैं, अब वे केवल व्यक्ति भर नहीं रह गये हैं बल्कि उस गंभीर परंपरा के पर्याय बन चुके हैं जो निरंतर आगे बढ़ रही है. ऐसे समय में जब आयोजन केवल धन उगाही या कैरियर बनाने के साधन बनते जा रहे हैं तब इस प्रकार की निष्ठा देखकर मन भर आता है. मुक्तिबोध का सही रास्ता तो यही है. वे अतिरिक्त धन और वैभव के विरुध्द थे, धन या अन्य किसी प्रकार का प्रदर्शन उन्हें बेशर्मी लगती थी. उनके प्रिय कथाकार प्रेमचंद ने कहा था
‘किसी व्यक्ति की तमाम अच्छाइयां सुनने के बाद जब यह भी बताया जाये कि वह पैसे वाला है तो मेरे सामने उसकी समस्त अच्छाइयां तिरोहित हो जाती है और मुझे लगने लगता है कि उस व्यक्ति ने इस अमानवीय व्यवस्था से समझौता कर लिया है.’
कहना न होगा कि मुक्तिबोध की माताजी ने उन्हें प्रेमचंद का प्रशंसक
बनाया था और प्रेमचंद के कथा साहित्य ही नहीं बल्कि जीवन से भी मुक्तिबोध ने यह
सीखा था. हमारे और आपके और सब पाठकों के प्रिय लेखक होते हैं पर हम उनसे वह नहीं
सीखना चाहते जो उनके जीवन का आदर्श होता है. लेकिन मुक्तिबोध ने वही सीखा और उस
सीख का परिणाम श्रीकांत वर्मा को एक पत्र में लिखा ‘दोस्तों
में बड़ा आदमी कोई नहीं. बड़ों की चाटुकारिता होती नहीं, उनके
लिये मेहनत ही की जाती है. किंतु इस मेहनत ने अब तक कोई मुआवजा नहीं दिया.’
इस पत्र में वे अपनी सीमा भी बताते हैं और उसका परिणाम भी. हम दुनियादार लोग हैं इसलिये परिणाम पहले देखते हैं. कठिन और टेढे़ रास्तों पर चलने में हमें डर लगता है, जीवन में किसी प्रकार की चुनौती का सामना करते हुये हमारी रूह कांपती है इसलिये हम तुरंत समझौते पर उतर आते हैं. यही कारण है कि मुक्तिबोध का साहित्य तो हमें अच्छा लगता है पर उनके संघर्षों से हम बचते हैं. मध्यवर्गीय आदमी सुविधाजीवी होता है, पर सुविधाएं उसे अंदर से कमजोर भी करती हैं यह उसकी समझ में या तो आता नहीं या वह उसे मानता नहीं है. मुझे बार-बार मुक्तिबोध की कहानी ‘समझौता’ का मेहरबान सिंह याद आता है जो कहता है ‘भाई, समझौता करके चलना पड़ता है जिंदगी में, कभी-कभी जान-बूझकर अपने सिर बुराई भी मोल लेनी पड़ती है. लेकिन उससे फायदा भी होता है. सिर सलामत तो टोपी हजार.’
मुझे लगता है यह हिंदी की अद्भुत कहानी है, एक बेरोजगार और भूखे आदमी को किस प्रकार जानवर बनाया
जाता है, यह कहानी उस निर्ममता का बखान ही नहीं करती बल्कि
अंदर तक थर्राती भी है. कहानी के अंत में अफसर के माध्यम से मुक्तिबोध कहते हैं ‘यह तो सोचो कि वह कौन मैनेजर है जो हमें तुम्हें, सबको,
रीछ-शेर-भालू-चीता-हाथी बनाये हुये हैं.’ यह
टिप्पणी मार्मिक है. आज के समय में तो यह टिप्पणी और अधिक मौजूं है. अखबार और टीवी
चैनल्स रोज चिल्ला रहे हैं कि देश में भयंकर मंदी का दौर शुरू हो चुका है, लाखों युवाओं की नौकरियां खतरे में हैं, अर्थशास्त्री
चीख-चीखकर कह रहे हैं कि करोड़ों युवाओं के इस देश में पहले से ही बेरोजगारी थी जो
अब और बढ़ेगी. पर सुनने वाला कोई नहीं है. हमारा मध्यवर्ग ही नहीं बल्कि गांव का
किसान और मजदूर भी इस बात से प्रसन्न है कि कश्मीर हमारा हो गया है. उसने कश्मीर
नहीं देखा, न उसकी स्थितियां ही ऐसी हैं कि वह कभी अपने जीवन
में कश्मीर देख सकेगा पर कश्मीर का झूठा सपना उसे इस झूठ के साथ दिखाया जा रहा है
कि वह उसे सच मानकर प्रसन्न हो रहा है.
मैं पिछले महीने रात के डेढ़ बजे दिल्ली में टेक्सी पकड़कर हवाई अड्डे जा रहा था. टेक्सी ड्राइवर युवा था. मैंने उससे पूछा ‘कैसा धंधा चल रहा है’ तो उसने कहा ‘मंदी है. सुबह से किश्त जमा करने लायक रुपये भी नहीं आये. हालत तो खराब है, ऐसी स्थिति में घर-परिवार चलाना मुश्किल हो रहा है.’ मुझे उसकी बातों से दुख हुआ तो मैंने प्रतिप्रश्न करते हुये कहा ‘लेकिन वोट ...’ वह मेरी बात समझ गया और बीच में ही बोला ‘बाबू जी, वोट तो बच्चों के भविष्य के लिये देते हैं, हमारी उम्र तो गरीबी में कट गई लेकिन हमारे बच्चे खुश रहें, हमने तो कश्मीर नहीं देखा लेकिन हमारे बच्चों के लिये जिसने कश्मीर का रास्ता साफ किया है वोट तो उसी को देंगे.’
मैं पिछले महीने रात के डेढ़ बजे दिल्ली में टेक्सी पकड़कर हवाई अड्डे जा रहा था. टेक्सी ड्राइवर युवा था. मैंने उससे पूछा ‘कैसा धंधा चल रहा है’ तो उसने कहा ‘मंदी है. सुबह से किश्त जमा करने लायक रुपये भी नहीं आये. हालत तो खराब है, ऐसी स्थिति में घर-परिवार चलाना मुश्किल हो रहा है.’ मुझे उसकी बातों से दुख हुआ तो मैंने प्रतिप्रश्न करते हुये कहा ‘लेकिन वोट ...’ वह मेरी बात समझ गया और बीच में ही बोला ‘बाबू जी, वोट तो बच्चों के भविष्य के लिये देते हैं, हमारी उम्र तो गरीबी में कट गई लेकिन हमारे बच्चे खुश रहें, हमने तो कश्मीर नहीं देखा लेकिन हमारे बच्चों के लिये जिसने कश्मीर का रास्ता साफ किया है वोट तो उसी को देंगे.’
मेरे पास कहने को कुछ नहीं था सिर्फ दुखी होने के अलावा. गरीब आदमी के
मन में यह सपना बोने वाले ज्यादा अपराधी हैं, जो उनकी समस्याओं की अनदेखी कर झूठ का सहारा ले रहे हैं. आश्चर्य इस बात
का भी है कि हम रोज देख रहे हैं कि कमर पर पिट्ठू की तरह ‘लेपटाप’
ढोते अपने और अपने आसपास के बच्चों को जो सुबह निकलते हैं और देर
रात घर में घुसते हैं, थके-हारे. जिनकी नौकरी का कोई भरोसा नहीं कि वह कल भी
सुरक्षित रह पायेगी कि नहीं फिर भी वे सुबह उसी भाव से निकलते हैं. उन्हें सिर्फ
इतना मालूम है यदि कारपोरेट जगत में नौकरी करनी है या नौकरी की चाहत करनी है तो
अपना सब कुछ भूल जाना होगा. आंकड़े बताते हैं कि देश की राजनीति और आर्थिक नीति की
समझ आईआईटीयन्स में बहुत कम है. वे पहले से अधिक कमजोर, चालाक,
स्वार्थी और धार्मिक हो गये हैं. पढ़े-लिखे नौजवान अपने आत्मबल के
क्षरण के दौर से गुजर रहे हैं और हमारा समाज समस्याओं से मुंह मोड़कर या तो धार्मिक
होता जा रहा है या अफवाहों पर अधिक विश्वास करने लगा है. ये दोनों ही स्थितियां
घातक हैं.
‘समझौता’
में शेर बने हुये आदमी का यह कथन फिर याद आता है ‘अबे डरता क्या है, मैं भी तेरे ही सरीखा हूं,
मुझे भी पशु बनाया गया है, सिर्फ मैं शेर की
खाल पहने हूं, तू रीछ की. तुम पर चढ़ बैठने की सिर्फ मुझे
कवायद करनी है, मैं तुझे खा डालने की कोशिश करूंगा, खाऊंगा नहीं. कवायद नहीं की तो हंटर पड़ेंगे तुमको और मुझको भी. मैं तुझे
खा नहीं सकता. आओ, हम दोस्त बन जायें. अगर पशु की जिंदगी ही
बितानी है तो ठाठ से बिताएं, आपस में समझौता करके.’ कहना न होगा कि अब हम और हमारा समाज पशु बनकर भी ठाठ से रहना चाहता है.
पशु बनने के लिये चार पैरों की जरूरत नहीं है, पशुवत् आचरण
और व्यवहार भी पशु होने की तरह ही है. हमें पशु बनाकर ठाठ से रहने का सपना कौन
दिखा रहा है, यह हम सबको मालूम है पर आराम और विलास की
जिंदगी जीने की इच्छा ने हमें समझौतावादी बना दिया है. आप अपने आसपास देखते-सुनते
होंगे लोग बड़े सहज रूप में कहते पाये जाते हैं कि हमारे कुछ करने या वोट न देने से
समाज थोड़े ही बदलेगा ? तो फिर समाज को बदलने की जिम्मेदारी
किसकी है?
हम जिस समाज में रहते हैं, उसे बदलने की जिम्मेदारी तो हमारी ही होनी चाहिये पर वह तर्क किसी प्रकार
का जोखिम न उठाकर समझौतावादी होने का तर्क है. मुक्तिबोध ऐसे समझौतों और
यथास्थितिवादियों को मानवता के विरुध्द अपराध मानते थे.
मुक्तिबोध के साहित्य का बीज शब्द ‘आत्मा और विवेक’ है. उनके लिये ये शब्द भर नहीं थे वरन् उनके जीवन-मरण के सवाल थे. वे ऐसे समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, जिसकी आत्मा मर गई हो और विवेक नष्ट हो गया हो. ‘अंधेरे में’, सतह से उठता आदमी, क्लाड ईथरली, समझौता तथा ‘विपात्र जैसी कहानियों से आत्मा और विवेक की छटपटाहट निकाल दें, तो वे कहानियां सपाट हो जायेंगी. लेकिन मुक्तिबोध सपाट कहानियों के कथाकार नहीं थे. कुछ लोग सहज ही उनके अपने संघर्षों को उनके लेखन में देखने लगते हैं, यह सही है कि लेखक के अपने संघर्ष अलग-अलग रूपों में लेखन में आते हैं पर क्या यह कह देने मात्र से मुक्तिबोध के योगदान को समझा जा सकता है ? कहना न होगा कि इस प्रकार की सहज स्थापनाओं के कारण मुक्तिबोध का मूल्यांकन नहीं हो पाया. क्या कारण है कि मुक्तिबोध की कहानियां ‘नयी कहानी’ आंदोलन के दौर की महत्वपूर्ण कहानियां हैं, पर जब ‘नयी कहानी’ का मूल्यांकन किया गया तो न उसमें मुक्तिबोध थे और न उनकी कहानियां जबकि मूल्यांकन करने वाले उनके अपने मित्र ही थे.
यह सर्वविदित है कि परंपरा को तोड़कर सर्वथा नया और मौलिक देने वाले का मूल्यांकन बाद में ही होता है, इसलिये मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा, वैसे-वैसे मुक्तिबोध का मूल्यांकन होगा और वे बड़े और बड़े लेखक होते जायेंगे. दरअसल, मुक्तिबोध की कहानियां उस खांचे में सहज नहीं उतारी जा सकतीं, जो खांचा उस समय के कहानीकार और आलोचकों ने बनाया था. केवल कहानी ही नहीं उनकी कविता भी उस समय के खांचे में कहां फिट बैठती थीं ? मुक्तिबोध किन्हीं खांचों में समाने वाले न व्यक्ति थे और न रचनाकार. वे खांचों को तोड़ने में यकीन रखते थे, जिससे मनुष्य की आत्मा और विवेक को बचाया जा सके. हम लोग राजनांदगांव की नौकरी को बहुत महत्ता देते हैं, निर्विवाद रूप से उसकी महत्ता थी पर मुक्तिबोध का स्वभाव ऐसा न था. उन्होंने नेमि बाबू को पत्र लिखकर अपनी मनःस्थिति के बारे में कहा -
‘वह लगभग एकदम एकांत स्थान है. एक या दो साल के भीतर ही, वहां से मेरा मन उकता जायेगा.’
उकताने का मूल कारण उनकी आत्मा थी जो किसी प्रकार के बाहरी बोझ को स्वीकार नहीं करती थी, उनका विवेक उन्हें यह अनुमति नहीं देता था कि अच्छा जीवन जीने के लिये किसी प्रकार का समझौता किया जाये. यह विडंबना ही है कि एक ओर जीवन के अभाव उन्हें समझौता कर मध्यवर्गीय जीवन जीने को विवश कर रहे थे तो दूसरी ओर उनकी आत्मा इसे स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं थी. यह द्वंद्व उनकी कविता और कहानियों में जिस प्रकार आया है, उससे वे हिंदी के विरल रचनाकार साबित हुये. आत्मा को वे न केवल महत्व देते थे वरन् नये-नये रूपों में उसे प्रतिष्ठित भी करते थे. यथा ‘उसकी आत्मा एक नये महीन चश्मे से स्टेशन को देख रही थी’, ‘इतने में दिल के किसी कोने में कोई अंधियारा गटर एकदम फूट निकलता है. वह गटर है आत्मालोचन, दुख और ग्लानि का’, ‘क्लाड ईथरली हमारे यहां भले ही देह-रूप में न रहे लेकिन आत्मा की वैसी बेचैनी रखने वाले लोग तो यहां रह ही सकते हैं’, ‘जिस समाज में जननेंद्रिय भी बेची जाती है, वहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता बेचनेवालों की संख्या असीम है. उतनी बड़ी संख्या है आत्मा को रेहन रखने वालों की’, ‘मैंने सिर्फ एक अच्छा काम किया है. बड़े आदमियों के ज्यादा चक्कर में न पड़कर मैंने आम तौर से छोटे आदमियों का अहसान लिया है. वे छोटे आदमी यह नहीं कहते कि तुम अपनी आत्मा मुझे बेच दो.’ ऐसे वक्तव्य और स्थापनाओं के पीछे मुक्तिबोध की वह बेचैनी है, जो आत्मा को बचाये रखने के लिये रात-दिन उद्विग्न रहती है.
मैं बहुत विनम्रता के साथ यह पूछना चाहता हूं कि क्या हिंदी में ‘क्लाड ईथरली’ जैसी दूसरी कोई कहानी है ? अपने किये का पश्चाताप न कन्फेशन से किया जा सकता है और न आध्यात्मिक बनने से. यदि मनुष्य की आत्मा जीवित है और वह उसकी बात सुनता है तो वह उसे पागल कर देती है. मुक्तिबोध लिखते हैं ‘हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहां हम उन उच्च, पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदलकर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य, भद्र हो जायें, यानी दुरुस्त हो जायें या उसी पागलखाने में पड़े रहें.’ मुक्तिबोध के यहां सारा खेल मन और मस्तिष्क का है, जिसे आत्मा और विवेक भी कहा जा सकता है. क्लाड ईथरली ने हिरोशिमा पर जो भारी बम फेंका था, उससे पूरा शहर बर्बाद हो गया था, यहां तक कि 90 प्रतिशत चिकित्सक भी खत्म हो गये इसलिये बचे-खुचे घायल लोगों का इलाज भी संभव नहीं हो सका. ईथरली की आत्मा ने उसे अपने इस कुकृत्य के लिये कभी क्षमा नहीं किया. मुक्तिबोध लिखते हैं ‘जो आदमी आत्मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है. आत्मा की आवाज जो लगातार सुनता है और कहता कुछ नहीं है वह भोला-भाला सीधा सादा बेवकूफ है. जो उसकी आवाज बहुत ज्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है. लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है. पुराने जमाने में संत हो सकता था. आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है.’ यह केवल व्याख्या भर नहीं है बल्कि उनकी अपनी आदर्श स्थापनाएं हैं जो उनकी रचनाओं में गुंथी हुई हैं.
इस कहानी को पढ़ते हुये मुझे आश्चर्य हुआ कि उदारीकरण जो एक प्रकार का अमेरिकीकरण ही है, की भनक मुक्तिबोध को इक्कीस वर्ष पहले ही लग गई थी. वे लिखते हैं ‘भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमरीका है. एक जमाने में हम लंदन जाते थे और इंग्लैंड-रिटंर्ड कहलाते थे. और आज वाशिंगटन जाते हैं. अगर हमारा बस चले और आज हम सचमुच उतने ही धनी हों और हमारे पास उतने ही एटम बम और हाइड्रोजन बम हों और राकेट हों तो फिर क्या पूछना !’ और आगे लिखते हैं ‘मुख्तसर किस्सा यह है कि हिंदुस्तान भी अमरीका ही है.’ कहना न होगा कि अमरीका की जो ताकत आज दिखाई दे रही है, उसे मुक्तिबोध ने बहुत पहले ही पहचान लिया था. अमरीका और उदारीकरण के बारे में मैं इसलिये कुछ नहीं कहूंगा कि वह अलग बहस की मांग करता है और इससे मुद्दे से भटकने का खतरा उपस्थित हो जायेगा. मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि मुक्तिबोध की समझ कितनी दूरगामी थी कि भविष्य के खतरे और उसके कारण उन्हें स्पष्ट दिखाई देने लगे थे.
मुक्तिबोध की कहानियों की विशेषता जटिलता नहीं है, जिसकी चर्चा अधिकांश लोग किया करते हैं. जटिलता जीवन के रहस्यों को उलझाती है, संघर्षों की धार को भोथरा करती है और सीधे रास्तों को टेढ़े रूप में दिखाती है, मुक्तिबोध की कहानियां ऐसा नहीं करतीं. वे अपने दौर में लिखी जा रही कहानियों से भिन्न प्रकार की कहानियां लिखते हैं लेकिन वे कहानियां उस दौर में भी और आज भी अलग से पहचानी जाती हैं. अलग से पहचान बनाये जाने के अपने संकट हैं, जिनसे मुक्तिबोध परिचित थे पर वे उन संकटों की परवाह नहीं करते थे. यदि परवाह करते तो वे ‘नयी कहानी’ की उस भीड़ में खो जाते, जिसे ‘नयी कहानी’ के तीन झंडावरदारों ने दबा दिया था. यह महत्वपूर्ण है कि आजादी के बाद जिस मध्यवर्ग को ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ में विशेष महत्व दिया गया, उस मध्यवर्ग के स्वार्थ और इकहरे संसार से मुक्तिबोध को चिढ़ है.
हिंदी की महान कविता ‘अंधेरे में’ और उनके आलोचनात्मक लेखों के अलावा कहानियों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है. ‘सतह से उठता आदमी’ के कृष्णस्वरूप के वैभवपूर्ण जीवन और उसके दब्बू स्वभाव पर कन्हैया का थूकना सामान्य घटना नहीं है. धन-दौलत से विलासितापूर्ण जीवन तो जिया जा सकता है पर दब्बूपन दूर नहीं किया जा सकता. कृष्णस्वरूप, रामनारायण और कन्हैया तीनों वर्गीय दृष्टि से अलग हैं पर तीनों अपने वर्ग चरित्रों से ही कहानी को महत्वपूर्ण बनाते हैं. यह समझ कम कहानीकारों में पाई जाती है, मुक्तिबोध बारीकी से पात्र और घटनाओं को उठाते हैं और उस मुकाम पर ले आते हैं जहां कहानी अपने आप बहुत कुछ कहती-सी लगती है. उन्हें जल्दबाजी में नहीं पढ़ा जा सकता, उनके यहां हर शब्द का महत्व है, इसलिये सुनार की चुनौटी से उठाये गये शब्द लुहार के भारी हथोड़े की चोट करते हैं. वे सामान्य ढंग से कहानी को उठाते हैं और अपने स्वभाव के अनुसार बहस करते-करते उस जगह ले आते हैं, जिसकी कल्पना पाठक नहीं करता.
कई कहानीकार कहानी के आरंभ से उसके अंत का पता दे देते हैं पर मुक्तिबोध ऐसा नहीं करते. वे अपने पाठक को घुमाते हैं और खुद भी उसके साथ संवाद करते चलते हैं लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि पाठक को यह खबर नहीं लगने देते कि वे उसे कहां और कितनी दूर ले जा रहे हैं. बराबर बनी रहने वाली उत्सुकता उनकी किस्सागोई का भी नमूना है और उस दृष्टि का भी जिसके लिये वे जाने जाते हैं.
आप सबने ‘पक्षी और दीमक’
कहानी पढ़ी होगी, यह कहानी जितनी साधारण है
उतनी ही असाधारण भी है. श्यामला के साथ छत्तीसगढ़ के मौसम-बेमौसम की आंधियां और
भगवे खद्दर के कुरते वाले की दुनिया से लेकर कार्यालयों में चलती रिश्वत इत्यादि
से कहानी शुरू होती है. कहानी जहां से शुरू होती है, वहां
किसी का ध्यान नहीं जाता कि मुक्तिबोध के मन में क्या है? लगता
है श्यामला से संबंध और सामाजिक संबंधों को बताना उनका उद्देश्य होगा. जिस प्रकार
शास्त्रीय संगीत का बड़ा उस्ताद किसी राग को धीरे से उठाता है और धीरे-धीरे उसे
उसकी अप्रतिम ऊंचाइयों तक ले जाता है, उसी प्रकार मुक्तिबोध
कहानी को ले जाते हैं. कहना न होगा कि पक्षी और दीमक एवं दीमक का व्यापारी
प्रतीकात्मक हैं. दुनिया में ऐसा कौन-सा पक्षी है जो दीमक जैसी मामूली-सी चीज के
लिये अपने पंख दे दे. पक्षी अपने पंखों का महत्व जानते हैं, वे
यह भी जानते हैं कि पंखों के कारण ही वे पक्षी हैं, पंख ही
उनका जीवन हैं और पंखों से ही वे आकाश को छूने का हौसला रखते हैं. लेकिन विडंबना
देखिये कि जिस प्रकार युवा पक्षी को धोखे में रखकर बड़ा व्यापारी उसे दीमक खाने का
आदी बना रहा है, वैसे ही हमारे देश-विदेश के बड़े व्यापारी
हमारे युवकों के भविष्य से खेल रहे हैं. पंख तो स्वप्न हैं, असीमित
उड़ान के. और अब सपनों के व्यापारी हमारे युवकों के सपने खरीदकर ऐसी चीजों के प्रति
आकर्षित कर रहे हैं. जो खतरनाक हैं. ऐसे अवसरों पर पाश की
मशहूर कविता फिर-फिर याद आती है ‘सबसे खतरनाक होता है हमारे
सपनों का मर जाना’. पर बड़े व्यापारी यह भलीभांति जानते हैं
कि सपनों को मारकर ही किसी पीढ़ी को खत्म किया जा सकता है. इसलिये दीमक जैसी घातक
चीजों के प्रति आकर्षित किया जा रहा है, जिससे लोगों का
ध्यान बांटकर अपना स्वार्थ हल किया जा सके.
अभी कुछ दिन पहले ‘चंद्रयान 2’ चंद्रमा पर भेजा गया, इसका खूब प्रचार किया गया इसलिये किया गया कि लोग देश की आर्थिक मंदी और कश्मीर के कर्फ्यू को भूल जायें. ‘चंद्रयान 2’ निश्चित ही बड़ी उपलब्धि है, लेकिन इसरो और हमारे समर्पित वैज्ञानिक इस प्रकार के शोध लगातार करते रहते हैं पर उसके एक हिस्से के विलुप्त होने को ऐसे दर्शाया गया जैसे सब कुछ खत्म हो गया हो. धवल वस्त्रों से सुसज्जित प्रधानमंत्री इसरो प्रमुख को गले लगा रहे हैं, इसरो प्रमुख रो रहे हैं, एंकर भी रो रहे हैं और ऐसा वातावरण बना रहे हैं कि टीवी देखने वाले भी रो रहे हैं. आप सभी जानते हैं कि विज्ञान के क्षेत्र में हर प्रयोग सफल नहीं होता पर वैज्ञानिक रोते नहीं हैं बल्कि वे उससे सीख लेकर आगे सफल और महान प्रयोग करने का संकल्प लेते हैं. अभिनंदन विमान उड़ा रहे हैं और हमारे चैनल्स लगातार दिखाते हुये भावुक टिप्पणी कर रहे हैं और सारे देश को लगने लगता है जैसे हमारा ‘वार हीरो’ विमान उड़ाकर फिर से पाकिस्तान को खत्म करने जा रहा है.
ये सब जानबूझकर किया जा रहा है ताकि आप उन बहसों और चर्चाओं को नहीं सुन सकें जो देश की बेराजगारी और मंदी की सप्रमाण व्याख्या कर रही हैं. भयंकर मंदी के दौर से गुजर रहे देश के भोले लोगों के लिये यह खबर कितनी उत्साहवर्धक है कि रूस को भारत एक हजार करोड़ डालर का कर्ज देगा, जिस भारत की अर्थव्यवस्था खुद संकट में है, जो रिजर्व बैंक की सुरक्षित राशि का उपयोग करने की स्थिति में आ गयी है, वह देश एक जमाने में अमेरिका को टक्कर देने वाले रूस को कर्ज दे रहा है तो हमारी छाती अचानक छप्पन इंच की नही तो कुछ कम भी नहीं होती है. यह एक प्रकार का भ्रम है. भ्रम की स्थिति यह है कि यहां नही तो विदेश में नौकरी मिल रही है और बच्चे भाग रहे हैं अमेरिका, कनाडा और न जाने कहां-कहां ! घर में अकेले और बूढ़े मां-बाप हैं जो उदास और बीमार होकर व्हाटसएप पर अपने खिलखिलाते बच्चों को देख रहे हैं. हमें याद है कि एक जमाने तक मां बाप अपने ही देश में बहुत दूर बच्चों को नौकरी करने नहीं भेजा करते थे, बच्चे बुढ़ापे की लाठी होते हैं लेकिन अब घुटनों में दर्द है पर लाठी विदेश में है, क्या करें ?
कहना न होगा कि लाखों के पेकेज ने इस देश की सत्तर प्रतिशत गरीब आबादी के सपनों में दीमक डाल दी है. आर्थिक असमानता अकल्पनीय ढंग से बढ़़ रही है और हमारे युवा पंखहीन-स्वप्नहीन होकर अनिश्चित भविष्य जी रहे हैं. लोगों की जब समझ में आयेगा तब-तक सारे पंख बिक चुके होंगे तब यह अनुरोध व्यर्थ ही होगा कि ‘ये मेरी दीमकें ले लो, और मेरे पंख मुझे वापस कर दो.’ बड़ा व्यापारी हंसते हुये कहता है ‘बेवकूफ, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूं, पंख के बदले दीमक नहीं.’ ये व्यापारी कौन हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है. कहानी में एक ‘भगवे खद्दर कुरते वाला भी है, यह भगवे कुरते वाले कौन हैं और वे क्या कर रहे हैं, इसे आप सब मुझसे अधिक जानते हैं.
अभी कुछ दिन पहले ‘चंद्रयान 2’ चंद्रमा पर भेजा गया, इसका खूब प्रचार किया गया इसलिये किया गया कि लोग देश की आर्थिक मंदी और कश्मीर के कर्फ्यू को भूल जायें. ‘चंद्रयान 2’ निश्चित ही बड़ी उपलब्धि है, लेकिन इसरो और हमारे समर्पित वैज्ञानिक इस प्रकार के शोध लगातार करते रहते हैं पर उसके एक हिस्से के विलुप्त होने को ऐसे दर्शाया गया जैसे सब कुछ खत्म हो गया हो. धवल वस्त्रों से सुसज्जित प्रधानमंत्री इसरो प्रमुख को गले लगा रहे हैं, इसरो प्रमुख रो रहे हैं, एंकर भी रो रहे हैं और ऐसा वातावरण बना रहे हैं कि टीवी देखने वाले भी रो रहे हैं. आप सभी जानते हैं कि विज्ञान के क्षेत्र में हर प्रयोग सफल नहीं होता पर वैज्ञानिक रोते नहीं हैं बल्कि वे उससे सीख लेकर आगे सफल और महान प्रयोग करने का संकल्प लेते हैं. अभिनंदन विमान उड़ा रहे हैं और हमारे चैनल्स लगातार दिखाते हुये भावुक टिप्पणी कर रहे हैं और सारे देश को लगने लगता है जैसे हमारा ‘वार हीरो’ विमान उड़ाकर फिर से पाकिस्तान को खत्म करने जा रहा है.
ये सब जानबूझकर किया जा रहा है ताकि आप उन बहसों और चर्चाओं को नहीं सुन सकें जो देश की बेराजगारी और मंदी की सप्रमाण व्याख्या कर रही हैं. भयंकर मंदी के दौर से गुजर रहे देश के भोले लोगों के लिये यह खबर कितनी उत्साहवर्धक है कि रूस को भारत एक हजार करोड़ डालर का कर्ज देगा, जिस भारत की अर्थव्यवस्था खुद संकट में है, जो रिजर्व बैंक की सुरक्षित राशि का उपयोग करने की स्थिति में आ गयी है, वह देश एक जमाने में अमेरिका को टक्कर देने वाले रूस को कर्ज दे रहा है तो हमारी छाती अचानक छप्पन इंच की नही तो कुछ कम भी नहीं होती है. यह एक प्रकार का भ्रम है. भ्रम की स्थिति यह है कि यहां नही तो विदेश में नौकरी मिल रही है और बच्चे भाग रहे हैं अमेरिका, कनाडा और न जाने कहां-कहां ! घर में अकेले और बूढ़े मां-बाप हैं जो उदास और बीमार होकर व्हाटसएप पर अपने खिलखिलाते बच्चों को देख रहे हैं. हमें याद है कि एक जमाने तक मां बाप अपने ही देश में बहुत दूर बच्चों को नौकरी करने नहीं भेजा करते थे, बच्चे बुढ़ापे की लाठी होते हैं लेकिन अब घुटनों में दर्द है पर लाठी विदेश में है, क्या करें ?
कहना न होगा कि लाखों के पेकेज ने इस देश की सत्तर प्रतिशत गरीब आबादी के सपनों में दीमक डाल दी है. आर्थिक असमानता अकल्पनीय ढंग से बढ़़ रही है और हमारे युवा पंखहीन-स्वप्नहीन होकर अनिश्चित भविष्य जी रहे हैं. लोगों की जब समझ में आयेगा तब-तक सारे पंख बिक चुके होंगे तब यह अनुरोध व्यर्थ ही होगा कि ‘ये मेरी दीमकें ले लो, और मेरे पंख मुझे वापस कर दो.’ बड़ा व्यापारी हंसते हुये कहता है ‘बेवकूफ, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूं, पंख के बदले दीमक नहीं.’ ये व्यापारी कौन हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है. कहानी में एक ‘भगवे खद्दर कुरते वाला भी है, यह भगवे कुरते वाले कौन हैं और वे क्या कर रहे हैं, इसे आप सब मुझसे अधिक जानते हैं.
मुक्तिबोध जितने बड़े कवि और आलोचक हैं, उतने ही बड़े कहानीकार भी हैं. उनके पास सिर्फ विचार ही नहीं है बल्कि
विचार को अमलीजामा पहनाने के लिये ठोस जमीन और उसकी भाषा भी है. समय के साथ जब-जब
उनकी कहानियों का पाठ होगा, तब-तब वे कहानियां अपने
युगानुकूल अर्थ खोलेंगी और मुक्तिबोध समर्थ, जागरूक और विरल
कहानीकार के रूप में जाने जाते रहेंगे.
छत्तीसगढ़ की यह भूमि केवल छत्तीस गढ़ों या नक्सलवादियों के लिये ही नहीं जानी जाती बल्कि माधवराव सप्रे, मुकुटधर पांडे, मुक्तिबोध, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी तथा विनोद कुमार शुक्ल के लिये भी जानी जाती है. हमारी अपनी पहचान बन चुके हिंदी के विरल रचनाकार मुक्तिबोध की पुण्य तिथि पर उनके परिवार के साथ आप सबने मुझे याद किया, यह स्मृति मेरे लिये आजीवन धरोहर की तरह रहेगी. मुक्तिबोध की स्मृति को प्रणाम करते हुये आप सबसे विदा लेता हूं. धन्यवाद ! आभार.
छत्तीसगढ़ की यह भूमि केवल छत्तीस गढ़ों या नक्सलवादियों के लिये ही नहीं जानी जाती बल्कि माधवराव सप्रे, मुकुटधर पांडे, मुक्तिबोध, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी तथा विनोद कुमार शुक्ल के लिये भी जानी जाती है. हमारी अपनी पहचान बन चुके हिंदी के विरल रचनाकार मुक्तिबोध की पुण्य तिथि पर उनके परिवार के साथ आप सबने मुझे याद किया, यह स्मृति मेरे लिये आजीवन धरोहर की तरह रहेगी. मुक्तिबोध की स्मृति को प्रणाम करते हुये आप सबसे विदा लेता हूं. धन्यवाद ! आभार.
रायपुर, दि. 11 सितंबर, 2019
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surajpaliwal@yahoo.com
Mob. 09421101128
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Mob. 09421101128
बहुत ज़रूरी लेख। अच्छा लिखा। ज़रूरत है कि युवा लेखक मुक्तिबोध को अपना आदर्श बनाएँ ।
जवाब देंहटाएंमुक्तिबोध की कहानियों की ताकत की प्रासंगिकता बहुत ही बेहतरीन ढंग से उभर कर आयी है। लेख का एक सशक्त गुण अपने समय-समाज की यथास्थिति और सत्ता की स्वहित साधक चालाकियों की खबर लेते हुए खबरदार करना है। बहुत ही समझदार और प्रभावशाली लेख है। आत्मा और विवेक को झकझोर देने वाला। धर्मवीर भारती के संदर्भ से लेख का प्रारंभ बहुत गहरे अर्थ देता है।
जवाब देंहटाएंमुक्तिबोध की सोच, वैचारिकी और उनकी कहानियों को वर्तमान घटनाओं से जोड़कर प्रस्तुत करना बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंमुक्तिबोध पर बहुत सारगर्भित टिप्पणी है। कहानीकार के रूप में उनके विवेक से परिचित कराने वाला विशेष लेख है।
जवाब देंहटाएंएक बेहद खास दिन, जिसकी साक्षी बनने का सौभाग्य मिला।मुक्तिबोध पर स्सथानीय शासन की अपेक्षा अखरती है, छत्तीसगढ़ को एक ऐसे साहित्यकार का सानिध्य मिला जिसने समाज को नयी दिशा दी सोचने की जिसने सदैव व्यवस्था के विरुद्ध कलम चलाई।पालीवाल जी का नगर आगमन सुखद रहा।इसके लिए मुक्तिबोध बंधुओं को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंमुक्तिबोध पर एक अच्छी चर्चा के लिए धन्यवाद ।मुक्तिबोध अपने समय के साथ ही नहीं बल्कि हर एक युग के साथ संवाद करते नजर आते हैं, क्योंकि परिस्थितियां लगभग जड़ हो चुकी हैं। और बदलाव जो चाहिए, बदलाव के सारे उपकरण ,लगता है जैसे समाप्त कर दिए गए हैं। हमारी शिक्षा और विश्वविद्यालय से जो पीढ़ी निकल रही है वह कहीं ना कहीं रचनात्वमकता भूलकर जड़ता को ही भयंकर ढ़ंग से परिभाषित करने में लगी हुई है।अंधेरे की छटपटाहट भी गायब हो उसके आदि बन जाने की नौबत आ गई है।फिर आत्मा और विवेक की स्वतंत्र सत्ता पर ही असली खतरा है।इसी के साथ मुक्तिबोध जैसे लेखक का सवाल भी जुड़ा है।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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