सुषमा
नैथानी की कविताएँ जहाँ शिल्प में सुगढ़ हैं वहीँ कथ्य में विविध और नयी. इन कविताओ
में आवास से लेकर प्रवास तक की लम्बी दूरी फैली हुई है, इनमें स्मृतियाँ, पीड़ा
और अकेलापन है, जिद्द और जिजीविषा है. संस्कृतियों का सह मिलन है और इस युग का
बायप्रोडक्ट व्यर्थताबोध की नुकीली कीलें हैं. जो अक्सर चुभती रहती हैं.
सुषमा नैथानी
की कविताएँ पढ़ना इन सब अनुभवों से गुजरना है.
सुषमा नैथानी की कविताएँ
सत्यातीत समय में
पोस्ट
ट्रुथ
वैश्वीकरण
की नाव पर चढ़कर आया है.
दीवार
खड़ी करने का हठ हो या ब्रेक्जिट
सब ग्लोबल
गाँव में छीना-झपटी के नये पैंतरे हैं.
पिछले
पच्चीस की खुली अर्थ-व्यवस्था पर पलटवार है.
नफ़रत
इतिहास में दफ़्न नहीं हुई थी
उस पर
शर्म का बस झींना पर्दा था
अब इतना
हुआ कि जो दबा-ढंका था
वह बेनकाब
हुआ.
भासी-आभासी
और यथार्थ में लिसरती दुनिया में
अजनबीयत
के अटूट सिलसिले हैं.
घुमावदार
गालियाँ के ठीक ऊपर रोशनी के जगमगाते टॉवर्स
और नीचे
जमीन पर हर ओर बज़बज़ाती नस्लीय हिंसा है.
इस और उस
को सबक सिखाने हेतु वैश्विक उद्घघोष हैं.
पैने
नाख़ून और दांत लिए यत्र-तत्र-सर्वत्र झुंड के झुंड हैं.
एक पूरा
बियाबान पसर रहा है!
एक-एक कर
ढहती जा रही हैं संरचनायें,
पाताल में
गिरते रहे हैं इलेक्ट्रॉन्स,
नियंडरथल
गुफा की भीत पर
डोलती हैं
आड़ी-तिरछी छायायें,
और हवा
में टकी है चीख़
इसके इतर
बाकी सब
हू...
लू... लू...
हवा हवा
सब...
धमकियों, संशय, अलगाव के बीच
अवांगर्द
सकपकाए सन्न खड़े
और
रिएक्शनरी मार्च पर हैं.
पूँजी के
जरख़रीद
अश्लील सेलेब्रिटीज़, धर्मगुरु, नेता-अध्येता
बात-बात
पर तालियाँ
सीटियाँ
और तालियाँ
मज़मा लगा
है.
विद्रुप—यह समय हमारे हिस्से आया है...
इसी
दुनिया में
चित्त
होना बारम्बार,
दुःख में
रेत-रेत दरकना
और फिर
खड़े होते रहना है.
मेरे इस
होने में तुम्हारा होना
बहुत-बहुत
शामिल है.
उम्मीद
करती हूँ कि तुम्हारे होने में
जरा सी
मैं भी शामिल रहूँ...
अन्वेक्षण
लालसा के गर्भ से
पहले-पहल जन्म लेगा विष ही,
अमृतघट का पता कहीं नहीं.
हलाहल सबके भाग !
बाहर निकलने से पहले
और थककर
ढेर हो जाने के बाद
फिर दौड़ते रहना भीतर-भीतर.
भटकन के लिए जरूरी है भूगोल,
लेकिन
पर्याप्त नहीं.
प्रेम में होगी
आकुलाहट,
सदाशयता, और विदा में हिलता हाथ भी.
अनहोनियों के जंगल में
वटवृक्ष की कतर-ब्यौंत होती नहीं.
प्रेम में होना आत्महंता होना है!
जीवन में उलट है पाठ्यक्रम,
अंत के मुहाने बैठा आरम्भ.
धूसर स्मृति और उबड़खाबड़ जीवन के बीच
हरे की इच्छा से तर है आत्मा का कैनवस.
कल नया दिन होगा!
कि काल की गति रूकती नहीं!
कथा कहवैया की गुनने की सीमा है
यूँ कहानी कहीं ख़त्म होती नहीं!
मेहदी हसन
कहना उसे
अब नहीं
हैं
काले तवे,
पुराना
ग्रामोफोन
या कठिन
दिनों का
ओटोरिवर्स
पॉकेट प्लयेर.
फिर भी
ओस की
बूँद के
सलोनेपन
में लिपटी
वह
आवाज़
गूँजती
रहती है
मेरे
आसपास...
छुट्टी के दो दिन
आज फिर
धूल फांकी,
फालतू
चीज़ों से घर से खाली किया,
इस्तरी की, कपड़े-लत्ते
तहाये,
मन अटका
रहा,
दिन निकल
गया.
कुछ देर
घाम में बैठी,
कुछ देर
घूमते-घूमते हिसर टूंगे,
रस्ते पर
एक सांप दिखा,
दो खरहे, एक कनगोजर
दिन निकल
गया.
नैनीताल
हे
अयारपाटा के बाँझ-बुरांस
देर रात
गए
जब सीटी
बजाती, सरसराती, हवा चले
तो मुझे
याद करना.
कितने तो
रतजगों का हमारा साथ रहा.
अप्रैल-मई
की गुनगुनी धूप,
जुलाई-अगस्त
के कोहरे,
नवम्बर की
उदासी,
तुम्हें
याद रखूँगी मैं.
पहाड़ तुम
दरकना नहीं,
जब तक तुम
हो मेरा घर रहेगा.
जिनकी
नराई घेरती है वक़्त-बेवक्त
अब वे बहुत से लोग
नहीं रहे.
हरे-सब्ज़
रंग की झील तू बने रहना.
मेरे
बच्चों और फिर उनके के बच्चों के लिए भी.
किसी दिन
तुम्हारे भीतर झाँक कर
वो मेरा
अख्स देखेंगे...
ताजमहल
लाल बलुआ-पत्थरों के बीच एक फूल खिला है
ताजमहल!
मुगलिया सपनों में तीन सदी तक डोलते रहे होंगे
मिश्र के पिरामिड, उलूग बेग के मदरसे,
समरकंद-हिरात-काबुल के हुज़रें.
उत्तर से दक्खिन तक फैले किलों, मकबरों, महलों पर
फैली हुई है इन सपनों की छाया.
बीसियों साल पत्थरों से पटा रहा होगा आगरा,
हज़ारों-हज़ार पीठ-हाथ हो गए होंगे पत्थर.
नक्कासों, गुम्बजकारों, शिल्पीयों के जहन में
क़तरा-क़तरा उभरी होंगी यह महराबें व मीनारें.
चित्रकारों, संगतराशों, पच्चीकारों की उँगलियों के पोर पर
खिले
होंगे ट्यूलिप्स, सूरजमुखी, गुलबहार, चम्पा, चमेली.
झिर्रियों से छलनी-छलनी हुए होंगे मन
और आंसुओं के तालाब में मुस्कराए होंगे कमल!
तसल्लीबख्श किसी आख़िरी क्षण में
किसी
लिपिकार के होठों पर उभरी आह है
ताजमहल!
अर्जुमन्दबानो बेगम उर्फ मुमताज महल
कायनात की अजीम सौगातों के बीच
कितने प्यार से रखे हुए हैं तुम्हारे अवशेष.
दक्खिनी दरवाजे के जरा सा इधर
सहेली बुर्ज एक में दफ़न हैं बेग़म अकबराबादी^
सहेली बुर्ज दो में फतेहपुरीबेगम^
क्या मालूम कहाँ मरी खपी हरम की हूरें,
और दर्ज़नों कुंवारी शहजादियाँ*.
सिर्फ एक शहंशाह का ही विलाप है
ताजमहल!
______________
^शाहजहां की दो बेग़में जो ताजमहल परिसर में ही दफ़न हैं.
*अकबर ने मुग़ल शहजादियों के विवाह पर रोक लगा दी थी, जो मुमताज की बेटियों के लिए भी रही.
(21 दिसम्बर, 2013)
छिन्नमस्ता!
तिरुपति से
लौटी औरतें देखीं
शोक तज आयीं
केश तज आयीं.
देखीं
हिन्दू विधवा
शिन्तो विधवा
नन, सन्यासिन
ऑर्थोडॉक्स यहूदी सधवा
केश तज आयीं
कामना तज आयीं.
अनचाहे खिले
बैगैरत कामना फूल
ये केश किसकी कामना हैं?
किसकी मुक्ति?
क्या नहीं
रीझती
विरहराग नहीं सुनती मुंडिता?
पूरब-पश्चिम
उत्तर-दक्षिण
तिल-तिल तिरोहित
होती
लालसा की
कामना की
नदी में
छिन्नमस्ता!
संगत
घना बरगद का जंगल हुई
आसान रहा पहुंचना
मुश्किल निकलना.
नमी हुई, हवा हई,
रात के सिरहाने
बहते झरने की कलकल हुई.
भूमिगत नदी की हिलोर हुई,
नाक की
नोक में टिकी सर्द टीस
और आग का
ख़्वाब हुई
कवितायें.
धीमा ज़हर हुई.
सर पर चढ़ा उनका सरूर
धीमें-धीमें उतरा.
पढ़ते हुए
तुम याद आये.
जीवन
मैं आधी
उम्र इस नपी तुली रहस्यहीन, रसहीन दुनिया से बाहर
कहीं से
कहीं निकल जाना चाहती रही.
और फिर
शेष जीवन वापसी का रास्ता ढूँढती रही...
चौतरफा लामबंद है जो साज सामान इसके बीच नहीं रहती,
न इस दिन के भीतर जो चौबीस दाँतों से सोखता है मेरी चेतना.
खुशी, ज़िद्द, और दुस्साहस के बीच घिरी, शैने:
शैने: मेरी आत्मा होती है हरी...
दुनिया की लपस्या मेरे हिस्से बहुत आई नहीं,
फिर भी किसी-किसी दिन लगता है इस दिन के भीतर कुछ और दिन होते.
और कभी ऐसी बेकली रहती है कि ये दिन गुज़रे तो कोई बात बने...
अक्सर
जीवन अल्बेयर कामू के 'अजनबी' का प्लाट
हो जाता है,
कोई वाज़िब
बहाना भी नहीं होता, कहने को कोई बात नहीं बचती.
सिवा इसके
कि 'बहुत गरमी थी, झुंझलाहट
या थकान थी', कुछ का कुछ हो गया...
किसी बहाने अचानक वह बात खुलती है, जिसका
वहम भी जहन में नहीं रहता.
याद रखने और भूल जाने से अलग भी मन में बेखबरी की जगह होती है बहुत बड़ी.
उस छुपी जगह के बाशिंदों पर कोई क्लेम नहीं, बस
ज़रा सा उन्हें जान लेने की ख़्वाहिश है...
फ़ैसले सिर्फ इसलिए कठिन नहीं होते कि उनके साथ दुःख और मुसीबतें आती हैं.
दुःख और मुसीबत अपनी जगह कम और ज्यादा हो सकते हैं,
लेकिन उनके साथ ख़ालिस अकेलापन आता है...
दिल दुखा, चोट सही, लेकिन दिलदारी भी हिस्से में आयी.
दोस्ती के
फूल खिले, अजनबी सोहबत में दिल कई बार हरा हुआ.
घिरती
साँझ में जुगनू जो जादू कर गुज़रते हैं, उसके सरूर में बनी
रहती हूँ...
अब लाल कुछ कम सुर्ख़, पीला कुछ ज़र्द, नीला लगभग स्याह दिखता है,
सलेटी में कुछ उजास है भरी, और हरे में थोड़ी सी ख़ुशी.
करने को ढेर सारे काम और बिसूरते रहने को दुनिया बाक़ी है...
लपस्या (गढ़वाली शब्द ) = लालसा
विदा
अचानक यूँ
ही खड़े-खड़े गिर जाता है
विशालकाय
चिनार का पेड़
छूट जाता
है संग-साथ
बीत जाती
है उम्र
ख़त्म हो
जाता है प्रेम.
एक-एक कर निकल जाते हैं लोग
एक दिन दरक जातीं हैं दीवारें
ढह जाती है छत.
छूट गये घर
टूट गए
प्रेम,
कट गये
पेड़ों
विलुप्त
हो चुके पक्षियों
मैं ठहर
कर
साफ़ मन
और स्नेह में भीगी
कहना
चाहती हूँ एक बार
विदा!
तस्वीर
बीस साल की
लड़की
तस्वीर में
फूल सी खिली है
कितनी
उम्मीद भरी
यूँ कुछ
वर्ष बाद
जिस घर
ब्याह कर पहुंची
कुचल दी
गयी.
शिक्षा, नौकरी, मेहनत, संवेदना
किसी से
उसका भला न हुआ...
बेघर
जब नहीं
होती बात
हवा नहीं
बहती
चिड़िया नहीं
गाती
झर जाते हैं
एक-एक कर सारे फूल
सूख जाती है
नदी.
धूसर, उजाड़ पगडंडी के
ऊपर
गोल-गोल
चक्कर काटती
फड़फड़ाती है
एक चील
पतझर के
मौसम में
मैं ढूंढ़ती
हूँ
घर का
पता...
मृत्यु
जीवन तो पंखुड़ी-पंखुड़ी टूटता रहा,
अभी-अभी वह आख़िरी ज़र्द पत्ता बेआवाज़ गिरा,
एक कांपती लौ बुझ गई,
वह तो बहुत पहले जा चुका था.
जरूरी है
कि बनी रहे मेरी भी कुछ अकेलेपन की आदत.
परुली की बेटी
तुम रामकली, श्यामकली,
परुली की बेटी
तेरह या चौदह की
असम, झारखंड
या उत्तराखंड से
किसी
एजेंसी के मार्फ़त
बाकायदा करारनामा
पहुँची हो
गुड़गाँव, दिल्ली,
मुम्बई, कलकत्ता,
चेन्नई और बंगलूर के
घरों के भीतर .
दो सदी पुराना दक्षिण अफ्रीका
हैती, गयाना, मारिशस
फिजी, सिन्तिराम यहीं है
अब.
बहुमंजिला फ्लेट के भीतर
कब उठती हो, कब सोती
क्या खाती, कहाँ सोती
कहाँ कपडे पसारती हो ?
कितने ओवरसियर घरभर
कभी आती है नींद—सी— नींद
सचमुच कभी नींद आती है?
दिखते होंगे
हमउम्र बच्चे लिए सितार-गिटार
कम्पूटर, आइपेड टिपियाते,
जूठी प्लेट में छूटा बर्गर-पित्ज़ा,
महँगे कॉस्मेटिक,
विक्टोरिया सीक्रेट के अंगवस्त्र.
किटपिट चलती अजानी ज़बान के बीच
कहाँ होती हो बेटी
किसी मंगल गृह पर,
या पिछली
सदी के
मलावी, त्रिनिदाद, गयाना में
तुम किसी रामकली, श्यामकली, परुली की बेटी
किस जहाज़ पर सवार हो
इस सदी की जहाजी बेटी*
_______
*जहाजी भाईयों की नक़ल पर
प्रेमी
मेरे पास थोड़ी सी हँसी
ढेर सा नमक है
और देने के लिए खूब सारा दुःख
ऑब्सेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर हूँ
कुछ लम्पट, कुछ कायर, कुछ नार्सिस्ट
पुराने ग्रामोफोन की अटकी सुई हूँ
वहां घर्र-घरर -घरर के कुछ नहीं बजता
सहेज लेने को अवसाद का कुँआ है
जहाँ से बार बार लौटती है
मेरी ही प्रतिध्वनि.
मेमौग्राम
(स्व. आर. अनुराधा
के लिए)
टालती रही
जब तक टाल सकी
बेसलाइन मेमौग्राम.
इस आश्वस्ति की टेक पर कि
नानी-दादी, फूफी-मौसी
अस्सी-नब्बे तक सब सलामत रहीं.
लेकिन फिर डरने को आंकड़े है ही
वर्ष की शुरुआत में डॉक्टर ने अल्टीमेटम दिया था
हिम्मत जुटाते अब दिसंबर हो गया
कई दिन घर-दफ्तर में खटती रही
अनमनी रही,
रह-रह पेट में उठती मरोड़,
और जीभ पर आ जाता कसैला स्वाद.
ऐसे डर नहीं था, फ़कत झुंझलाहट थी.
मेरी बारी आई तो गनीमत रही कि टैक्नीशियन उम्रदराज़ औरत थी
बाक़ी मशीन थी, खड़ी-पड़ी
आड़ी / तिरछी
और उसका आघात था, ठंडापन था.
मेरे पास ब्रुफ़ेन थी,
और झोले में पड़ी एक किताब थी
जिसे खोल सकने की
दिन भर
गुंजाइश न बनी
यूं फ़जीहत का सिलसिला शुरू हुआ..
(12 दिसम्बर,
2015)
कमल जोशी के लिए
याद आता है वो सड़क के किनारे का ख़ूबसूरत, घनेरी
छांव वाला पेड़
जिसके नीचे तुम बैठे रहे बहुत देर
और उस रस्ते में खायी हुई ताज़ा हरी ककड़ी.
देखने को
अब बची हैं तस्वीरें और याद है तुम्हारा कहना
‘मैं कभी दूसरा शॉट नहीं लेता, जो पकड़ना है एक में
ही पकड़ लेता हूँ.”
हमारी
पकड़ में यूँ तुम्हारा नाख़ून भी नहीं आया.
लड़ना भी एक चुनाव हुआ और मुँह फेर लेना भी.
हम तुम्हें सिर्फ़ पहली ही बात के लिए जानते थे,
और कितना कम जानते थे कि दूसरी का गुमान न था.
कमल जोशी
दोस्त याद करेंगे अब तुम्हें पहाड़ चढ़ कर,
ठंडी हवा
और पानी के बीच, अकेलेपन में.
याद
करेंगे तुम्हारी उस उन्मुक्त हँसी, बुलंद आवाज़ और लापरवाही को.
सूर्यग्रहण
आज चाँद
की सोलह कलाएँ
सूरज ने
चोरी की.
पेड़-पत्तों
ने गवाही दी
उकेरी
उसकी अनगिनत छवियाँ.
मैंने याद
किया पिछली सदी में कभी
उस चाँद
को जो
बाख़ली के
आँगन में
रखी काँसे की
थाली में
उतर आया
था
मेरे ही
लिए.
याद किया
तारे गिनते बूढ़े दादा को,
फूले सर
वाली ताई और दादी को,
और अखरोट
के पेड़ को.
नीम की
पत्तियों को याद किया.
उस आम के
पेड़ को याद किया
जिससे
गिरकर टूट गयी थी
मेरी
दाहिनी हँसुली.
(21 अगस्त 2017
को कोरवालिस में पूर्ण सूर्यग्रहण देखते हुए.)
बापू का चरखा
बापू इक्क्सवीं
सदी के दुसरे दशक में
दुनिया की १०० सबसे अधिक लोकप्रिय फोटो में
शामिल हो
गया अब तुम्हारा चरखा.
वो दिख
जाता है दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी के साथ
जो बैठा
है आणविक हथियारों के जख़ीरे पर
और मक्खी
की तरह मसल सकता है बड़ी आबादी.
वो जो
स्वनाम जड़ित सूट पहनता है
या वह भी
जो बुलेट ट्रेन बेच सकता है
या खदानों
का कच्चा माल बेचता-ख़रीदता है
और गिरमिट
का इंतज़ाम कर सकता है
कात रहा
है सूत...
चोपता से सप्रेम
असली वैभव
वृक्षों का नसीब है!
अफ़सोस !
मैं
एक उम्र
बेवजह उलझी रही,
और शेष शोक में
डूबी रही.
विध्वंश
की पूरी एक रेल चलती रही.
_____________
डा. सुषमा नैथानी ऑरेगन स्टेट
यूनिवर्सिटी, कोरवालिस, अमेरिका
में वनस्पति विज्ञान की रिसर्च असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं. वह साहित्य, संगीत और
घुम्मक्कड़ी में गहरी रुचि रखती हैं, और हिंदी व अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में लिखती हैं. 2011 में हिंदी में काव्य
संकलन ‘उड़ते हैं
अबाबील’ (2011) और ‘धूप में ही मिलेगी छाँह कहीं’ (2019) प्रकाशित.
कुछ कविताएँ व लेख पब्लिक एजेंडा, कादम्बिनी, पहाड़, हंस, आउट्लुक, आदि हिंदी पत्रिकाओं में प्रकाशित.
sushma.naithani@gmail.com
sushma.naithani@gmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-09-2019) को "स्वर-व्यञ्जन ही तो है जीवन" (चर्चा अंक- 3454) पर भी होगी।--
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुषमा, रचनाएँ बहुत असरदार हैं, हौले हौले बहा कर ले जाती हैं परचित दायरों से बहार क्षितीज के पास! बहुत उम्दा, बार बार पढूँगी समालोचन में प्रकाशित तुम्हारी इन कविताओं को!
जवाब देंहटाएंक्या ग़ज़ब का केनवास है सुषमा जी का ... और अभिव्यक्ति भी बिल्कुल अनूठी, मौलिक !
जवाब देंहटाएं"जीवन में उलट है पाठ्यक्रम,
अंत के मुहाने बैठा आरम्भ.
धूसर स्मृति और उबड़खाबड़ जीवन के बीच
हरे की इच्छा से तर है आत्मा का कैनवस ..."
"तसल्लीबख्श किसी आख़िरी क्षण में
किसी लिपिकार के होठों पर उभरी आह है
ताजमहल!
सिर्फ एक शहंशाह का ही विलाप है
ताजमहल!"
"पूरब-पश्चिम
उत्तर-दक्षिण
तिल-तिल तिरोहित
होती
लालसा की
कामना की
नदी में
छिन्नमस्ता!"
और वो जो बहुत गहरे छू गईं ...वो पंक्तियाँ ...
"पहाड़ तुम दरकना नहीं,
जब तक तुम हो मेरा घर रहेगा.
जिनकी नराई घेरती है वक़्त-बेवक्त
अब वे बहुत से लोग नहीं रहे.
हरे-सब्ज़ रंग की झील तू बने रहना.
मेरे बच्चों और फिर उनके के बच्चों के लिए भी.
किसी दिन तुम्हारे भीतर झाँक कर
वो मेरा अख्स देखेंगे..."
ये 'नराई' लगना ...आह ! इसे समझना ही इस कविता की आत्मा को पढ़ पाना है।
इन कविताओं को पढ़ना सचमुच ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं से रू-ब-रू होना है।
ज़िंदा,धड़कती कविताएँ।आभार अरुण।बधाई सुषमा जी को।
जवाब देंहटाएंसुषमा जी को बधाई अच्छी कविताओं के लिये.
जवाब देंहटाएंWell marked...full marks to the poet and Arun Dev ji
जवाब देंहटाएंकुछ कविताएँ काफ़ी अच्छी हैं।
जवाब देंहटाएंकविताओं का फलक बहुत ही बेहतरीन है
जवाब देंहटाएंजीवन से लेकर चंद्रमा तक की कलाएं कविताओं के माध्यम से उकेरी गई
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंनिःशब्द करती रचनाओं का संकलन .....
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत कविताएं ....
जवाब देंहटाएंबेहद सुंदर कविताएँ..दिल को गहराई तक छूने वाली..
जवाब देंहटाएंआप सब का बहुत शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंसुषमा जी, आपकी कविताओं ने मन्त्र-मुग्ध कर दिया. सहज और सरल भाषा में आप इतना कुछ गहरा कह जाती हैं कि उसकी थाह पाना भी कठिन हो जाता है.
जवाब देंहटाएंआपके विचारों की मौलिकता और उनका खुलापन आपको परंपरागत कवियों से और लीक का अनुकरण करने वाले तुकबन्दी करने वालों से बिलकुल अलग करता है.
वैचारिक जागरूकता और साहस के साथ-साथ आपकी कविताओं में पहाड़ की हवा जैसे ताज़गी है और पहाड़ी नदी का सा प्रवाह है.
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