जैसे कोई कोई ही कवि होता है उसी तरह से कुछ ही सहृदय होते हैं जहाँ कविताएँ खुलती हैं. सुरुचि, समझ और धैर्य ये भावक की ज़िम्मेदारियाँ हैं. सदाशिव श्रोत्रिय कवि हैं और कविता के व्याख्याकार भी. नंद चतुर्वेदी की इस कविता की बहुत आत्मीय व्याख्या उन्होंने की है.
नंद बाबू की एक कविता
सदाशिव श्रोत्रिय
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अपनी कविता के सस्वर पाठ या उसके विशिष्ट डिक्शन से श्रोताओं को मोह सकने की कला में भी वे काफ़ी पारंगत थे किंतु एक आधुनिक और समकालीन कवि के रूप में अपने विकास के बाद उन्हें वह सब बचकाना लगने लगा था. इसीलिए जो लोग उनकी कविता के भावों की तह तक पहुंचने में असमर्थ रहते हैं उन्हें पहले हमारे समय की कविता की अपनी समझ को टटोलने की कोशिश करनी चाहिए.
यह कविता ऐसे ही एक सरकारी आयोजन का चित्र अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत करती है जिसमें नंद बाबू जैसा कोई गम्भीर आशावादी कवि अपनी कविता पढ़ने के लिए खड़ा हुआ है. यह कवि वह मंच का कवि नहीं है जो अपनी गायन कला या फूहड़ हास्य से कम पढ़े-लिखे लोगों का मनोरंजन करता है. वह एक विचारशील कवि है और अपनी कविता के माध्यम से अपने श्रोताओं को आज के यथार्थ से परिचित करवाने की चाह रखता है ताकि वे उसे जान कर अपने आप को एक लम्बी लड़ाई के लिए तैयार कर सकें जो उनके हालात को सचमुच बदल सके.
जब वह पढ़ी गयी-
हमें यह न भूलना चाहिए कि कवि भी अंतत: एक सामाजिक प्राणी है. सम्भव है कल उसे अपने या अपने किसी रिश्तेदार के तबादले के लिए इसी अफ़सर के पास या इसी नेता की शरण में जाना पड़े जिसके लिए यह आयोजन किया जा रहा है. हमारे समय की विवशताओं और इसकी विडम्बनाओं को नंद बाबू जिस कुशलता से और जितने कम शब्दों में इस कविता माध्यम से व्यक्त करते हैं वह किसी भी समकालीन कवि के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है.
राष्ट्र-भक्ति की कविता
उसने एक कविता लिखी
राष्ट्र-भक्ति की
जब वह पढ़ी गयी -
तब वे सब लोग खड़े हो गये
काले, कलूटे, दुबले, भूखे, अनपढ़
उम्मीद के खिलाफ़
वे खड़े हो गये
तब अफ़सर ने कवि के कान में
कहा
इसे न सुनाएं
यह कोई कविता नहीं है
कवि डर कर बैठ गया
या यह अफ़सर का आतंक था
लेकिन कभी-कभी इस तरह भी होता है
कविता का अंत.
(नंद चतुर्वेदी, वे सोये तो नहीं होंगे, पृष्ठ 94)
अक्सर अधिकांश पाठक किसी कविता को शायद पर्याप्त
धैर्य से एवं पर्याप्त समय लगा कर नहीं पढ़ते. पाठकीय सहानुभूति के अभाव में वह कविता इसीलिए उनके सामने पूरी तरह खुल नहीं
पाती. उदाहरण के लिए यदि हम इसी कविता को लें तो हम पाएंगे कि ध्यान से पढ़ने पर यह
हमें एक रोचक कविता का आनन्द देने में पूरी तरह समर्थ है.
जो लोग नंद बाबू की कविता से परिचित हैं वे इस
बात को बड़ी आसानी से पकड़ सकते हैं कि यह कविता अपनी प्रकृति में एक ठेठ नंद बाबू
शैली की कविता है. इसमें वे सभी गुण मौजूद
हैं जो उनकी कविता के विशिष्ट गुण कहे जा
सकते हैं.
नंद बाबू कवि कर्म को काफ़ी गम्भीरता से लेते थे.
अपने कवि होने को वे किसी तमगे की तरह इस्तेमाल नहीं करते थे बल्कि कविता और
साहित्य में अपनी पैठ के कारण ही वे अपने आपको विशिष्ट मानते थे. इस बात को खुले रूप में न कहते हुए भी उनका यह विश्वास था
कि जो सचमुच कवि है वह किसी अन्य महत्वपूर्ण कहे जाने वाले व्यक्ति से किसी भी रूप
में कम महत्वपूर्ण नहीं है. यदि कोई समाज अपने कवियों-लेखकों-विचारकों को पर्याप्त
सम्मान नहीं देता तो इसे वे उस समाज का
दुर्भाग्य ही मानते थे. जैसे हर संगीतकार उस्ताद अलाउद्दीन खां या हर क्रिकेट
खिलाड़ी सुनील गावस्कर नहीं हो सकता उसी तरह हर लिखने वाला भी कोई महत्वपूर्ण कवि
नहीं हो सकता. वे मेरे सामने कई बार कवि के रूप में तुलसीदास की अनूठी काव्य- प्रतिभा पर आश्चर्य व्यक्त किया करते थे.
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अपनी कविता के सस्वर पाठ या उसके विशिष्ट डिक्शन से श्रोताओं को मोह सकने की कला में भी वे काफ़ी पारंगत थे किंतु एक आधुनिक और समकालीन कवि के रूप में अपने विकास के बाद उन्हें वह सब बचकाना लगने लगा था. इसीलिए जो लोग उनकी कविता के भावों की तह तक पहुंचने में असमर्थ रहते हैं उन्हें पहले हमारे समय की कविता की अपनी समझ को टटोलने की कोशिश करनी चाहिए.
जैसा सब जानते हैं, राजनीतिक विचारधारा की दृष्टि
से नंद बाबू लोहियावादी थे. ग़रीबों और वंचितों के प्रति उनके मन में गहरी करुणा और
सहानुभूति थी और अतीत के अपने निजी अनुभवों के बूते पर वे उनकी स्थितियों को कई बार अपने आप को उनकी जगह रख कर देखने में
समर्थ थे. इसके साथ ही उनके मन में ग़रीबों की उन्नति के नाम पर सरकारी स्तर पर किए
जाने वाले कर्म-कांडीय प्रयत्नों के प्रति एक गहरा अनास्था- भाव भी था. वे जानते
थे कि प्रशासकीय स्तर पर समारोहों के नाम पर ग्रामीण ग़रीबों की जो भीड़ जुटाई जाती
है उनसे अधिक लाभान्वित ये ग़रीब लोग न
होकर इन समारोहों के आयोजक और
प्रदर्शनकर्ता ही होते हैं.
(by Édouard Manet) |
यह कविता ऐसे ही एक सरकारी आयोजन का चित्र अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत करती है जिसमें नंद बाबू जैसा कोई गम्भीर आशावादी कवि अपनी कविता पढ़ने के लिए खड़ा हुआ है. यह कवि वह मंच का कवि नहीं है जो अपनी गायन कला या फूहड़ हास्य से कम पढ़े-लिखे लोगों का मनोरंजन करता है. वह एक विचारशील कवि है और अपनी कविता के माध्यम से अपने श्रोताओं को आज के यथार्थ से परिचित करवाने की चाह रखता है ताकि वे उसे जान कर अपने आप को एक लम्बी लड़ाई के लिए तैयार कर सकें जो उनके हालात को सचमुच बदल सके.
उसकी प्रसिद्धि के कारण इस कवि को भी एक
सार्वजनिक सरकारी कार्यक्रम में कविता-पाठ
के लिए बुलाया गया है जहां आसपास के गांवों के “काले, कलूटे, दुबले, भूखे, अनपढ़”
लोग भी किसी न किसी तरकीब से लाए गए हैं. कवि को अपनी कविता की सचाई में पूरा यकीन
है पर वह शायद इस तथ्य से भी नावाकिफ़ नहीं है कि इस प्रकार के आयोजनों में जो कवि वाहवाही लूटते हैं वे उसके जैसे
बुद्धिजीवी कवि नहीं होते. इसीलिए उसकी
कविता सुन कर इन श्रोताओं का एकाएक उठ खड़ा होना उसे किंचित अप्रत्याशित (“उम्मीद
के खिलाफ़”) लगता है :
जब वह पढ़ी गयी-
तब वे सब लोग खड़े हो गये
काले, कलूटे, दुबले, भूखे, अनपढ़
उम्मीद के खिलाफ़
वे खड़े हो गये
वस्तुत: इस स्थिति की नाटकीयता इस कविता को एक
रोचक कविता बनाती है. सम्भव है गांव के ये लोग इतनी देर कविताएं सुनते हुए उकता गए
हों और इसीलिए अचानक उठ खड़े हुए हों. पर इस कवि को अपनी आशावादिता में उनका यह उठ
खड़ा होना उसकी कविता के असर से विद्रोह
में उठ खड़े होने जैसा लगता है.
अब होता यह है कि जो सरकारी अफ़सर इस आयोजन में
ड्यूटी पर तैनात है उसे लगता है कि यह बुद्धिजीवी कवि इन श्रोताओं का अपेक्षित
मनोरंजन न कर इस कार्यक्रम का मज़ा बिगाड़ रहा है. सम्भव है इस अफ़सर की अनुशंसा पर
ही इस प्रसिद्ध और चर्चित बुद्धिजीवी कवि को बुलाया गया हो और सम्भव है इस अफ़सर को
बाद में इस बात के लिए किन्हीं नेताजी की डांट खानी पड़े कि वह ऐसे कवियों को कैसे बुला लेता है जिन्हें कायदे की
कविता लिखना भी नहीं आता. जो भीड़ बहुत मुश्किलों से जुटाई गई है उसका इस तरह
बिखरने लगना हर अफ़सर के लिए मुसीबत पैदा कर सकता है. इसीलिए यह अफ़सर दो टूक शब्दों
में इस वरिष्ठ और बहुचर्चित् कवि को निस्संकोच
कह देता है कि
इसे न सुनाएं
यह कोई कविता नहीं
है
पर इस कविता का जो सबसे करुण और मार्मिक भाग है वह यह है कि
कवि डर कर बैठ गया
हमें यह न भूलना चाहिए कि कवि भी अंतत: एक सामाजिक प्राणी है. सम्भव है कल उसे अपने या अपने किसी रिश्तेदार के तबादले के लिए इसी अफ़सर के पास या इसी नेता की शरण में जाना पड़े जिसके लिए यह आयोजन किया जा रहा है. हमारे समय की विवशताओं और इसकी विडम्बनाओं को नंद बाबू जिस कुशलता से और जितने कम शब्दों में इस कविता माध्यम से व्यक्त करते हैं वह किसी भी समकालीन कवि के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है.
कवि का इस तरह डर कर बैठ जाना उसके लिए भी किसी ट्रेजडी
से कम नहीं है क्योंकि यदि वह एक संवेदनशील कवि है तो उसकी आत्मा उसे सदैव इस बात
के लिए कचोटती रहेगी कि जिस समय उसे अपनी ज़बान खोलनी चाहिए थी उस समय वह अफ़सर के
आतंक से या अपने स्वार्थ के कारण चुप रहा.
केवल कविता में सरकारी नीतियों के उसके
विरोध करने का क्या अर्थ है यदि मौका पड़ने पर वह एक एक्टिविस्ट की भूमिका निबाहने
में चूक जाए ? नंद बाबू के बिन्दु नामक पत्रिका निकालने, या किसी आम चुनाव
के समय समाजवादी उम्मीदवारों के लिए भाषण देने को तैयार रहने को भी हमें इस कविता
को पूरी तरह समझने के लिए याद रखना होगा.
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सदाशिव श्रोत्रिय
सदाशिव श्रोत्रिय
5/126, गोवर्द्धन विलास हाउसिंग बोर्ड कोलोनी,
हिरन मगरी, सेक्टर 14,
उदयपुर -313001 (राजस्थान)
मोबाइल -8290479063
कवि-समीक्षक सदाशिव श्रोत्रिय ने आदरणीय नंद चतुर्वेदी की कविता का न केवल सुन्दर भाष्य और उसकी प्रासंगिक पृष्ठभूमि को खूबसूरती से उभारकर फोकस में ला दिया है, बल्कि नंद बाबू के कवि कर्म और उनकेे मानवीय सरोकारों की ओर भी प्रभावशाली ढंग से संकेत किया है। कई मायनों में यह कविता नंद बाबू की सोच और उनके व्यक्तित्व के जीवंत पक्ष को बेहतर तरीके से उजागर करती है।
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