राजभाषा : अंतर्विरोध और बुनियादी सरोकार : मोहसिन ख़ान


भाषा त्वचा की तरह होती है. क्या कभी त्वचा भी बदली जा सकती है. इस देश की विडम्बनाओं का कोई अंत नहीं. शायद अकेला देश है जो अपनी भाषा का दिवस मनाता है.

संकट जन भाषा हिन्दुस्तानी को लेकर नहीं है विश्व में बड़ी तीन भाषाओं में वह है और वैश्विक स्तर पर सम्पर्क भाषा के रूप में उभर रही है.

भारत एक राष्ट्र बने और उसकी एक राष्ट्रभाषा हो इसी इच्छा के कारण अधिकतर क्षेत्रों में बोली और समझी जाने वाली ‘हिंदी’ को राष्ट्र भाषा के लिए उपयुक्त समझा गया. उसे भारत में सम्पर्क और सरकारी कामकाज की भाषा बननी थी.

हिंदी की एक और विडम्बना उसकी सांस्कृतिक चेतना से सम्बन्धित है. हिंदी क्षेत्रों में अपनी भाषाओं और उनके साहित्य से लगाव नहीं है. मध्यवर्गीय घरों में सब कुछ मिल जाएगा पर हिंदी में लिखी साहित्य की पुस्तकें नहीं मिलेंगी.

परायेपन और हीनता से ग्रस्त हिंदी समाज को हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में मिल भी जाये तो उससे क्या होगा ? 
सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और विवेकशील होकर ही हम किसी भाषा को बचा सकते हैं.

मोहसिन ख़ान का आलेख राजभाषा पर आज.

  

राजभाषा : अंतर्विरोध और बुनियादी सरोकार
मोहसिन ख़ान
 

भारत में राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रश्न सदैव अधर में ही लटका रहेगा. सरकार कोई भी आए, किसी भी दल की सरकार बने, कोई कभी यह नहीं चाहेगा कि भाषा के मुद्दे के आधार पर प्रांतों की भाषाई भावनाएं तनाव का सबब बने और भाषाई संबंधी प्रांतीय आंदोलन उभरकर सामने आए. कोई भी सरकार राष्ट्रभाषा के मुद्दे से सदा बचती, कतराती रही है. महात्मा गांधी ऐसे अवसर पर उचित विकल्प लेकर सामने आए थे, जिन्होंने हिंदुस्तानी को राजभाषा बनाने पर बल दिया अथवा उसे राजभाषा का सम्मान देने का प्रयत्न किया. किंतु सभा में अधिक मत हिंदी के पक्ष में पड़े और हिंदुस्तानी भाषा को राजभाषा अथवा राष्ट्रभाषा बनाने का मुद्दा हमेशा के लिये समाप्त हो गया.

हिंदी की राजभाषा स्थिति सुदृढ़ तो हो चुकी है, लेकिन उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलने में अभी बहुत समय लगेगा. इसका मुख्य कारण यह है कि हम अपने ही देश में राज भाषा को राष्ट्रभाषा न बनने देने के आंतरिक विरोध में संलग्न दिखाई देते हैं. यह आंतरिक समस्या और विरोध क्या है? इस पर गहराई से विचार करना आवश्यक है. 

राष्ट्रभाषा के मुद्दे को चाहे जितना उछालो, लेकिन धरातल स्तर पर जब तक हम राजभाषा को स्कूली शिक्षा की माध्यम भाषा नहीं बना देंगे तब तक यह स्थिति और भी दुर्गति की ओर बढ़ती चली जाएगी. बुनियादी धरातल पर हम यह प्रयत्न करें कि हमारी स्कूली शिक्षा का माध्यम केवल राजभाषा हो तभी जाकर यह मुद्दा स्वत: सुलझ सकेगा. हमने अपने समय में अंग्रेजी शिक्षा को बल दिया, सरकारों ने मान्यताएं दीं और प्रत्येक परिवार का प्रत्येक बालक जो मध्यमवर्गीय, उच्च मध्यमवर्गीय परिवार से संबंधित है, वह अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ग्रहण कर रहा है. 

जब तक शिक्षा का माध्यम हिंदी नहीं होगा तब तक यह आशा करना व्यर्थ है कि भारत की राजभाषा राष्ट्रभाषा बन पाएगी. सरकारों को और परिवारों को, समाज को इस बात के लिए संकल्पबद्ध होना होगा कि हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा देनी होगी अथवा हिंदी में ही शिक्षा देनी होगी  केवल हिंदी में शिक्षा देने की बात से केवल भारत में राष्ट्रभाषा हिंदी का संकल्प पूरा नहीं हो जाएगा. या यूं कहें कि हम माध्यमों को बदलने की बात कहकर राष्ट्रभाषा के प्रश्न को हल नहीं कर लेंगे. माध्यमों की स्थिति बदलने के लिए हमें उसके लिए कई स्तरों पर, कई श्रेणियों में एक साथ परिश्रम करना होगा और उन पुस्तकों का निर्माण करना होगा जिनकी भाषा अंग्रेजी की जगह हिन्दी हो. 

केवल पुस्तकों की नहीं बल्कि संबंधित सहायक सामग्री शब्दकोश आदि को भी हमें प्रारंभ से जांचकर देखना होगा कि किस हद तक इस हिंदी माध्यम की भाषा के सहायक सिद्ध हो रहे हैं. इतना ही नहीं हमें अनुवाद के क्षेत्र में बहुत बड़ा और व्यापक स्तर पर कार्य करना होगा, क्योंकि अनुवाद की पुस्तकें जिस स्तर पर शैक्षिक सामग्री के दायरे में लानी है उनकी कमी हमारे सामने बहुत अधिक रूप में मौजूद है. जब तक अनुवाद का व्यापक सूक्ष्म और उपयोगी रूप सामने नहीं आएगा तब तक स्कूली शिक्षा की और उच्च शिक्षा की पुस्तकों का माध्यम बदल नहीं पाएगा.

अनुवाद के क्षेत्र में हमें न केवल पुस्तकों का अनुवाद करना होगा, बल्कि संबंधित सूचना प्रौद्योगिकी, तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा, खगोल, भूगोल आदि की संपूर्ण शब्दावली, शब्दकोश, तकनीकी, कानूनी शब्दों, व्यापार-वाणिज्य की शब्दावली इत्यादि सभी का सफलता के साथ अनुवाद करना होगा. यदि राष्ट्रभाषा के प्रश्नों को सुलझाना है तो इन दो बुनियादी सरोकारों पर हमें खरा उतरना होगा. यदि हम इन बुनियादी सरोकारों से दूर हटकर केवल हिंदी को नारे से जोड़कर या केवल हिंदी को हम आयोजन से जोड़कर देखते रहेंगे तो हिंदी का भला किसी दशा में कभी भी नहीं हो पाएगा. 

मूल रूप से हमें इन दो क्षेत्रों पर गहराई से ध्यान देना होगा तभी जाकर हम राजभाषा और राष्ट्रभाषा के मुद्दे को सुलझा पाएंगे वरना हम यूं ही 14 सितंबर को जश्न मनाते रहेंगे और 15 सितंबर को फिर अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम की स्कूली शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेजते रहेंगे. यह बात न तो हमारी भाषा की नाक की है, नहीं किसी मान-अपमान की है, बल्कि यह बात विश्व की एक अच्छी और बड़ी भाषा को स्कूल शिक्षा की भाषा बनाने के साथ अनुवाद के माध्यम से इस भाषा को समृद्ध करने की है साथ ही उसके प्रति न्याय की बात है. जब हम यह न्यायिकता प्राप्त कर लेंगे तब ही जाकर हम अपनी हिंदी भाषा में हर क्षेत्र में सही रूप से विकास कर सकेंगे.

मुझे एक और बात खिन्नता के साथ हास्यास्पद भी लगती है कि संस्थाएं, व्यक्ति और अन्य क्षेत्रों से उठने वाली आवाज़ें यह दावा करती हैं कि हम अपनी भाषा को विश्व की भाषा बनाएंगे. या यूएनओ की भाषा आधिकारिक रूप में बनाएंगे. मुझे इस तरह की ढोंग वाली बातें भीतर से खिन्नकर जाती हैं. भारत में भाषाओं को लेकर इतनी विविधता है कि हम अपने ही देश में हिंदी राजभाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा न दिला सके और यूएनओ की आधिकारिक भाषा बनाने का दावा प्रस्तुत करते हैं. 

जबकि सबसे पहले यह जरूरी है कि हम अपने देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाएं फिर जाकर कहीं आर्थिक और तकनीकी प्रयत्नों के माध्यम से यूएनओ में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने का प्रयास करें. लेकिन हम गर्वोक्ति में अनाप-शनाप कुछ भी बोलते चले जाते हैं, उसके पीछे छिपे हुए तथ्यों को ठीक ढंग से समझने का प्रयास नहीं करते हैं. यही कारण है कि आज राजभाषा अंतर्विरोधों से ग्रसित नजर आती है और वह राष्ट्रभाषा के दृढ़ संकल्प में कहीं कमजोर सी इच्छा शक्ति की भाजन बन चुकी है.
----------------------------------------

डॉ. मोहसिन ख़ान
हिंदी विभागाध्यक्ष एवं शोध निर्देशक
जे एस एम महाविद्यालय, अलीबाग
(महाराष्ट्र) 402201
9860657970

11/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. अति उत्तम लेख. केंद्रीय हिंदी निदेशालय और वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग इस दिशा में निरंतर कार्यरत हैं किन्तु जब तक इसके लिए जन सामान्य एक जुट होकर मुहिम नहीं छेड़ेगा, कोई लाभ नहीं होगा.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. एकजुटता ही हिंदी को उसका सही पद दिलाएगी।

      हटाएं
  2. अरुण माहेश्वरी14 सित॰ 2019, 10:15:00 am

    हिंदी दिवस पर राजभाषा हिंदी के सवाल पर मोहसिन खान का लेख मेरी नजर में इस विषय पर लिखा गया सबसे अधिक अवांतर क़िस्म का लेख है । इससे पता चलता है कि इन्हें भारत के संघीय ढाँचे, सरकारी कामकाज की 22 भाषाओं और भाषाई आधार पर भारत के वैविध्यपूर्ण जातीय स्वरूप का न्यूनतम अहसास भी नहीं है, ज्ञान तो दूर की बात ।

    इनका पूरा जोर हिंदी को सभी जगह प्राथमिक शिक्षा की भाषा बनाने पर है ! सचमुच जो मूल समस्या है उसे ही कैसे कोई इतनी मासूमियत से समाधान के रूप में पेश कर सकता है !

    प्राथमिक शिक्षा के तौर पर हिंदी को लाने का मतलब होता है भारतवासियों की मातृभाषा के रूप में अकेले हिंदी को लाने की कल्पना करना । भारत में रहने वाला व्यक्ति जब तक पूरी तरह से विक्षिप्त और जुनूनी नहीं हो गया हो, कैसे वह यह सोच भी सकता है ? इस से ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ वाले जुनूनी ही जाहिर होते हैं !

    उनको शिकायत हैं कि हिंदी को स्कूलों में नहीं चलाया गया, अंग्रेज़ी को चलाया गया ! आज तो सब जगह कम्प्यूटर की सांकेतिक भाषा का बोलबाला है । वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि किसी भाषा को यदि सिर्फ प्रयोजनमूलक भाषा के तौर पर देखा जायेगा तो आज के युग में उसका अस्तित्व कभी सुरक्षित नहीं रह सकता है । काम चलाने के लिये अब लोगों के हाथ में मोबाइल और टैबलेट हैं जिसके संकेत चिन्हों की अपनी एक सार्वलौकिक भाषा है ।

    भाषा का संबंध आदमी के भाव जगत से होता है । और वह स्कूली शिक्षा के बजाय परिवेश और साहित्य से बनता है, जिनके पीछे कोई स्वार्थ नहीं होता है । यह मनुष्यों का चित्त जगत कहलाता है । मोहसिन खान इस चित्त जगत को सरकारी जगत से स्थानापन्न करना चाहते हैं !

    ज़रूरत तो आदमी से हर कुछ करवा लेती है । फिर, आज की दुनिया में कोई भी हिंदी से ही क्यों बँधा रहेगा ? वह अंग्रेज़ और उसके न्यूनतम अक्षर ज्ञान से कम्प्यूटर की सांकेतिक भाषा का अपने काम के लिये सहजता से प्रयोग कर सकता है । इसमें हिंदी के वर्तमान रूप की जगह उसके कथित ‘हिंदुस्तानी’ रूप से क्या लेश मात्र भी फ़र्क़ आ सकता है ? हिंदी का वर्तमान सिनेमा, आकाशवाणी, दूरदर्शन और टेलिविज़न चैनलों का रूप कम लोकप्रिय नहीं है । लेकिन फिर भीभारत के वैविध्यमय सौन्दर्य के ‘नाश’ के लिये अभी तक काफी नहीं है ।

    यह टिप्पणी हिंदीवादी जड़ सोच का खास नमूना है .

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी दृष्टि को पढ़ा अपने मूल समस्या को जाना परखा, आपका आभार।

      हटाएं
  3. आदरणीय अरुण जी का बहुत आभार, उन्होंने आलेख को उपयुक्त माना। लेकिन उनकी प्रस्तावना को मैं सलाम करूंगा जिस दृष्टि को समाहित किया कमाल की है।
    शुक्रिया!!!��

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में रविवार 15 सितम्बर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  5. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-09-2019) को "लेइसी लिखे से शेयर बाजार चढ़ रहा है " (चर्चा अंक- 3459) पर भी होगी।


    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  6. वर्तमान परिदृश्य में बहुत अच्छी विचार प्रस्तुति हेतु धन्यवाद ,
    माध्यम को भी हो लेकिन आज हिंदी को भारत में नहीं बल्कि विश्व भर में व्यापक स्तर पर अपनाया जा रहा है
    कहते हैं न कि घूरे के दिन भी फिरते हैं, इसलिए ऐसा मेरा मानना है और विश्वास है कि वह दिन जरूर आएगा जब हिंदुस्तान ही नहीं विश्व में हिंदी बोलने-लिखने वालों के सबसे अधिक संख्या होगी और वह अग्र पंक्ति में होगी, तब हिंदी दयनीय भाषा नहीं बल्कि सम्मान की भाषा होगी

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत महत्वपूर्ण लेख। विश्वभाषा बनाने से पहले हिंदी को पूरी तरह राष्ट्र भाषा बनाना बेहद जरूरी है। बहुत ठीक कहा आपने।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.