एक दिन का समंदर : हरजीत : प्रेम साहिल



















‘जिस से होकर ज़माने गुज़रे हों
बंद ऐसी गली नहीं करते.’

शायर हरजीत सिंह की यादें अधूरे प्रेम की तरह टीसती रहती है. उनके असमय निधन ने हिंदी ग़ज़ल की दुनिया को वीरान कर दिया. तेजी ग्रोवर हरजीत सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक पुस्तक के प्रकाशन की योजना पर कार्य कर रहीं हैं. यह आलेख उन्हीं के सौजन्य से मिला है जिसे लिखा है प्रेम साहिल ने. 
आप समालोचन पर ही हरजीत की ग़ज़लें और ख़त भी पढ़ सकते हैं.


  
एक दिन का समंदर : हरजीत                             
प्रेम साहिल




रजीत ने ख़ुद को इतना फैला लिया था कि आज उसे लफ़्ज़ों में पकड़ने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है. ग़ज़ल कहने, रेखांकन, पत्रकारिता, फ़ोटोग्राफ़ी करने, कोलाज बनाने, दोस्ती निभाने, घर चलाने, आंगनवाड़ियों के लिए खिलौने तैयार कराने, हैंडमेड काग़ज़ के प्रयोग से ग्रीटिंग कार्ड तथा फ़ैंसी डिबियां बनाने, उन पर फूल-पत्ती चिपकाने, फूल-पत्तियां जुटाने, तैयार वस्तुयों को खपाने, साहित्यिक व सांस्कृतिक समारोह कराने, बच्चों को चित्रांकन सिखाने के अतिरिक्त अभी और भी न जाने वो क्या-क्या करता. उसने तो अपनी सीमाएँ ही पोंछ डालनी थीं अगर मुशाइरों में जाना उसने लगभग बंद ना कर दिया होता. फिर भी साल में एकाध बार अंजनीसैंण या कोटद्वार के मुशाइरों में चला ही जाता था.

कारोबार के सिलसिले में चण्डीगढ़, दिल्ली, जयपुर तो क्या मुम्बई तक हो आता था. इतनी मशक्कत, भागदौड़ और वो भी दमे के मर्ज़ में मुब्तिला रहते हुए हरजीत के ही बूते की बात थी. कोई और होता तो कभी का बिस्तर पकड़ चुका होता. लेकिन हरजीत न जाने किस मिट्टी का बना हुआ था कि दमे की खांसी को भी जब तक चाहता दबा लेता था. जबकि छाती उसकी बलगम से लबालब रहती थी. इसके बावजूद जो समेटने की बजाए वो ख़ुद को फैलाता ही चला गया उसकी भी ख़ास वजह थी :

ये सब कुछ यूं नहीं बेवजह फैलाया हुआ हमने
ये सब कुछ क्यूं भला करते अगर राहत नहीं मिलती

सर खुजाने की फ़ुर्सत भी न पा सकने वाला हरजीत दोस्तों के बुलाने पर उनके कार्यों को अंजाम देने की गरज़ से तो ऐसे चल देता था जैसे कि उसके पास करने के लिए अपना कोई काम नहीं था.

बढ़ रही ज़रूरतों की पूर्ति  के लिए नये-नये साधनों की तलाश में कभी सप्ताह तो कभी माह भर के लिए भी घर से बाहर रहने लगा था. कहां जाता था, क्या लाता था इसकी चर्चा किसी से कभी अंतरंगता की रौ में ही करता था. उसमें ना प्रतिभा की कमी थी न परिश्रम का अभाव था. लेकिन अर्थ की विषमता उसे लील रही थी. इस में दोष इतना उसका नहीं था जितना कि उस व्यवस्था का जिस में गधा-घोड़ा एक समान आंका जा रहा है.

आमदनी के साधनों की तलाश ने कभी उसे चैन से बैठने ही नहीं दिया. बैठा वो नज़र तो आता था मगर बैठ कहां पाता था. व्याकुल आदमी चैन से बैठ ही नहीं सकता. ऐसा जो संभव होता तो वो ये क्यों कहता :

मुझको इतना काम नहीं है
हां फिर भी आराम नहीं है

न वो ख़ुद आराम करता था न उसके जो कुछ लगते थे उसे कभी चैन से रहने देते थे. आराम न करने की हद तक काम करने वाले हरजीत का उक्त शे'र पढ़ने-सुनने वालों को हैरत में डाल देता है. लेकिन उसके ऐसा कहने का तात्पर्य ये भी हो सकता है कि उसके पास कोई नियमित या स्थाई रोज़गार नहीं था. बावजूद इसके वो जितना व जो भी करता था उसे गर्व एवं स्वाभिमान की निगाह से देखता था :

अपना ही कारोबार करते हैं
हम कोई नौकरी नहीं करते

हरजीत निठल्ला नहीं था. फिर भी तंगदस्त रहा. जबकि एकआध को छोड़ कर उसके दायरे के अधिकांश लोगों की आर्थिक दशा अच्छी-ख़ासी थी. क्या वे लोग हरजीत से ज़ियादा प्रतिभा सम्पन्न थे ? क्या वे उस से अधिक परिश्रमी थे ? दरअसल तर्ज़े-बयान की तरह हरजीत का तर्ज़े-हयात भी दूसरों से भिन्न था:

वो अपनी तर्ज़ का मैक़श,हम अपनी तर्ज़ के मैक़श
हमारे जाम मिलते हैं मगर आदत नहीं मिलती......

कारीगरी उसे विरासत में मिली थी. जहां उसे कारीगर के महत्व का ज्ञान था वहां उसकी विषमताओं से भी अनभिज्ञ नहीं था :

फ़नकारों का नाम है लेकिन
कारीगर का नाम नहीं है.....

उसने कारीगरी की बजाय फ़नकारी को अपनाया. उस में उस ने नाम भी कमाया लेकिन दाम के लिए उसे और भी पापड़ बेलने पड़े. पापड़ तो उसने नाम कमाने के लिए भी ज़रूर बेले होंगे मगर इस प्रयास का आभास कभी सरेआम नहीं होने दिया. पर कौन नहीं जानता कि इस अंधे युग में फ़न का लोहा मनवाने के लिए भी लोहे के चने चबाने पड़ते हैं. दाम कमाने के लिए उसे कारीगरों की ख़ुशामद भी करनी पड़ती थी. स्वयं कारीगरों की पृष्ठभूमि से आए हरजीत के लिए कारीगरों के नखरे उठाना कोई हैरत की बात नहीं थी :

नक्शे नहीं बताते कैसे बने इमारत
होते हैं और ही कुछ कारीगरों के नक्शे

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहीं लिखा है : "जो अभावों और संघर्षों में पले-बढ़े हैं उनका सब से बड़ा दुश्मन उनका सर होता है जो झुकना नहीं जानता और जो झुकता है वो सर भी तो उनका दुश्मन ही होता है."
उक्त कथन हरजीत और उसके जीवन पर भी कम सही नहीं बैठता.

एक शाइर के रूप में तो मैं हरजीत को उसकी ग़ज़लों के माध्यम से जानता था. कभी आमना-सामना नहीं हुआ था. इतना सुना था कि शाम के समय वो 'टिप-टॉप' में जाता है. मेरा चमोली (गढ़वाल) से देहरादून जाना साल में एक-दो बार ही हो पाता था. लेकिन जब से उसके अड्डे की भनक लगी थी मेरी इच्छा हो रही थी कि वो मुझे टिप-टॉप में मिल जाए तो सुबहानअल्लाह. ना भी मिले तो वहां से उसका सुराग तो मिल ही जाएगा. इस गरज़ से एक बार मैं चकरॉता रोड़ चला भी गया. लेकिन वहां टिपटॉप नाम का होटल मुझे नहीं मिला.. शाम का समय था. चालीस किलो मीटर दूर अपने ससुराल जाने की जल्दी में किसी से पूछने की ज़हमत भी नहीं उठाई. दूसरी बार गया तो ढूंढने के बावजूद वह होटल फिर कहीं नज़र नहीं आया. उस बार भी जल्दी में था. तीसरी बार एक दुकानदार से मैंने पूछ ही लिया. देखने के बाद मालूम हुआ कि उस होटल का साइन बोर्ड ही नदारद है. ख़ैर जब होटल मालिक से मैंने हरजीत के विषय में पूछा तो पता चला कि आजकल वो वहां दस बारह दिन में एक बार जा पाता है.

संयोग से जब मेरी पत्नी स्थानांत्रित होकर देहरादून में रहने लगी तब एक रोज़ किसी का स्कूटर मांग कर मैं हरजीत के घर चला गया. घर का पता उसकी पहली पुस्तक "ये हरे पेड़ हैं" जो कि बी मोहन नेगी की मार्फ़त मुझे बहुत पहले मिल चुकी थी में दर्ज था.

हरजीत के घर तशरीफ़ ले जाने का समय तो अब मुझे याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि बताने पर जब मैंने उसके कमरे में प्रवेश किया था, वो रज़ाई ओढ़ कर बिस्तर पर लेटा हुआ था, कुछ देर पहले ही गैरसैण से लौटा था. थकान मिटाने या सुस्ताने की गरज़ से ही वो बिस्तर अपनाता था ऐसी बात नहीं थी. उसका तो कार्यस्थल ही बिस्तर था. अपना नाम बता कर मैं उसके पास ही कुर्सी पर बैठ गया, थकान के बावजूद वो भी उठ कर बैठ गया. लेकिन आलस्य का कोई शेड न उसके चेहरे पर था न उसकी आवाज़ से महसूस हुआ. हम दोनो की बात होने लगी. जब मैंने उस से उसकी नयी पुस्तक 'एक पुल' मांगी तो उसने कहा कि बाइण्डर के यहां से लानी पड़ेगी, इस समय मेरे पास एक भी प्रति नहीं है. उस ने मुझ से दूसरे दिन आने का आग्रह किया और मुझ से मेरा फ़ोन नंबर भी ले लिया.

उसे पीने का शौक था ना कि लत. एक बार अपनी तो अनेक बार दोस्तों की जेब से मंगाने, कभी उनके तो कभी अपने घर में बैठ कर पीने-पिलाने और उठने से पहले " वन फ़ॉर द रोड़ " वाला जुमला दोहराने का भी शौक ही था, ना कि लत. लत से तो दासता की बू आती है जबकि हरजीत किसी का दास नहीं था. शौक़ीन था. शौक़ में गौरव की ख़ुश्बू है. इस लिए उसे हरजीत सिंह उर्फ़ शौक़ीन सिंह तो कहा जा सकता था, मगर हरजीत दास हरगिज़ नहीं.

शौक़ और लत में जो बुनियादी फ़र्क है उसे समझना इस लिए लाज़मी है कि ऐसा ना करने से हरजीत का आचरण बदगुमानी का शिकार हो सकता है. मैं स्वयं उसके शौक़ को लत समझने की भूल कर चुका हूं. मुझ से कभी पैसे मांग लेता तो मैं सोचता था कि उसे मांगने की लत है. लेकिन वो मांगता कहां था, वो तो निकालता था मानो उसकी अपनी जेब सामने वाले की पैंट या शर्ट पर लगी हो. लेन-देन के मामले में हरजीत लगभग फ़ेयर था. वो अगर किसी से पैसे लेता था तो बदले में सेवाएँ देता था. जहां सेवाएँ लेता था वहां पैसे ही देता था. जहां तक खाने पीने की बात है अकेले में तो खर्च कर लेता था लेकिन दोस्तों की सभा में खर्च करने की ज़हमत उठाने का अवसर उसे चाहने पर भी नहीं मिल पाता था. बावजूद इसके अपनी जेब ढीली करने का अवसर लेने में संकोच भी नहीं करता था. अपने को इस काबिल बनाने के लिए ही तो इतना हलकान हो रहा था. ये दीगर बात है कि उतनी सफलता नहीं मिल पा रही थी जितने कि वह हाथ-पांव मार रहा था.

मैंने सुना है कि एक्सीडेंट के बाद से वो बहुत संभल और सिमट गया था, लेकिन मुझे इस बात का कतई इल्म नहीं है क्योंकि  हरजीत से मेरी मुलाकात ही एक्सीडेंट से बहुत बाद में हुई थी. उसके माज़ी की कंद्राओं में घुसपैठ का प्रयास भी मैंने नहीं किया. मैंने तो उसे महज़ वहां से उठाया जहां पर वो मुझे मिला था. इस लिए उसके सम्हलने और सिमटने की कहानी मेरे व्यक्तिगत अनुभव से बिलकुल भिन्न है. मैंने तो जब-जब देखा उसे पंख फ़ैलाए उड़ते हुए देखा. लहराते, गुनगुनाते और मुस्कुराते ही देखा.

दूसरों के काम आने के साथ-साथ दूसरों से काम लेने का भी उसे शऊर था. दो-एक मर्तबा मेरे काम से पेरे साथ वो जा चुका था. एक दिन शाम को अचानक मेरे घर आया, बैठा, खाया-पिया और अन्य बातें कर लेने के पश्चात उठ कर जाने से पहले कहने लगा, " कल सुबह तुम्हें मेरे साथ मसूरी जाना है. अब तक तू मुझे लेकर जाता रहा, कल को तू मेरे साथ जाएगा " और हँसने लगा.

मज़े की बात देखिए, काम से जाते समय भी वो लुत्फ़ लेना नहीं भूलता था. घर से बाहर शहर या शहर से बाहर कहीं भी जाता था तो शोल्डर-बैग या तो उसके कंधे पर लटका रहता था या स्कूटर के हैंडल पर. बैग में वो छोटी-बड़ी दो-तीन प्रकार की पानी की बोतलें, प्लास्टिक के दो-तीन गिलास, एक बलेडनुमा फोल्डिंग चाकू, सलाद का सामान, नमकीन की पुड़िया, एक फ़ाइल जिस में कभी कुछ फ़ोटो, कुछ नेगेटिव कुछ अन्य काग़ज़-पत्र आदि तो वो घर से ही लेकर चलता था. घर में उपलब्ध रहती तो एकाध पाव रम भी अलग से किसी बोतल में डाल कर बैग के किसी कोने में छुपा कर साथ ले लिया करता था. कोई दोस्त टकर जाता तो अतिरिक्त व्यवस्था बाज़ार से की जाती थी, कोई नहीं भी मिला तो अपना माल जय-गोपाल.

उस दिन जब उसके काम से हम मसूरी जा रहे थे तो रम का एक हाफ़ हमने देहरादून से ही रख लिया था. रास्ते में एक जगह स्कूटर रोक कर सड़क के किनारे एक पैराफिट पर बैठ गये थे. बैठते ही वो गुनगुनाने लगा और साथ ही जश्न का सामान भी सजाने बैठ गया था. मैंने कहा ना कि वो कारोबारी लम्हों को भी जशन के रंग में डुबो लेता था. दो-दो पेग मार लेने के उपरान्त पुन: जब खरामा खरामा मसूरी की ओर बढ़ने लगे तो मेरे पीछे बैठा हरजीत अचानक कहने लगा, "मैंने अभी चालीस साल और जीना है." उसकी बात सुन कर मुझे हैरत भी हुयी और डर भी लगा था. हैरत जीने की प्रबल इच्छा से छलक रहे उसके आत्मविश्वास पर और डर उसके मर्ज़ के कारण.

दबा कर रखने की उसकी लाख कोशिशों के बावजूद मैंने उसके मर्ज़ को जितनी गम्भीरता से लिया था उतनी गम्भीरता से कहने का कभी साहस नहीं जुटा पाया. उसकी छाती में बलगम इतनी तीव्र गति से बन रहा था कि खारिज करते रहने और दबा लेते रहने के बावजूद उसकी रफ़तार कम नहीं हो रही थी.

हरजीत को आराम की सख़्त ज़रूरत थी. लेकिन आराम तो उसका नंबर एक दुश्मन ठहरा. आराम लेने की बजाए उसने "विरासत निनियानवें" की दौड़-धूप और धूल ली. जिस समय हरजीत "विरासत" का ताम-झाम समेट रहा था, उसके खो जाने की घड़ी कार्य में उसका हाथ बटा रही थी. कार्य निपटा कर हरजीत ने अपने धूल-भरे हाथ अभी झाड़े ही थे कि दुष्ट घड़ी ने लपक कर उसे अपने शिकंजे में ले लिया.

हरजीत मेरी उपलब्धि था. लेकिन मेरी उपलब्धि की विडम्बना देखिए :

कुछ दिन पहले मैंने उसको ढूढ़ लिया
आने वाले वक़्त में जिसको खोना था

मुझे इस बात का मलाल नहीं कि मैंने डूब रहे सूरज से हाथ मिलाया था, बल्कि तसल्ली इस बात की है कि हाथ सूरज से मिलाया था. उसके हाथ की गरमी आज भी मेरे हाथ में है.

ग़ज़ल उसकी तमाम संवेदनाओं का केंद्र होने की वजह से उसकी अभिलाशाओं का आधार थी. इसको लेकर उसकी आँखों में जुगनू  चमक रहे थे. रतजगे उन आँखों को न जाने कहां कहां लिए फिरते रहे :

रतजगा दिन भर मेरी आँखें लिए फिरता रहा
शाम लौटा साथ लेकर वो बहुत से रतजगे

रतजगों का ये सिलसिला लंबा खिंच सकता था अगर हरजीत अपनी आँखें नहीं मूंद लेता.

आओ हम उस लहर के सीने पर जाकर विश्राम करें
देखो तो उस लहर को वो इक लहर किनारों जैसी है

अल्पायु में ही आँखें मूंद लेने वाला हरजीत बेशक एक दिन का समंदर था, जिसकी लहरों पर हम विश्राम तो कर सकते हैं लेकिन उसे समेट कर सीलबंद करने का हुनर हम में से किसी के पास नहीं है. उसने कहा था:

एक दिन के लिए समंदर हूँ
कल मुझे बादलों में मिलना तुम

समंदर आज बादल बन चुका है. हरजीत के मित्र कवि अवधेश कुमार के सिवाए अन्य कोई तौफ़ीक वाला ही आज हरजीत से हाथ मिला सकता है.
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प्रेम साहिल
47- शालीन एनक्लेव
बदरीपुर रोड
जोगीवाला, देहरादून - 248005
मोबाइल - 9410313590

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हरजीत सिंह की ग़ज़लें और ख़त यहाँ पढ़ें.

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  1. हरजीत से मेरी भी दो मुलाकात है।बहुतबप्यारा था।उसकी किताब पढी है।लेकिन जल्दी चला गया।तेजी उसका जिक्र करती थी।

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  2. बहुत हृदय स्पर्शी संस्मरण । हरजीत बहुत बड़ा कलाकार, सायर,चित्रकार, तो था ही, आदमी भी गजब का था।मेरे मुलाकात केवल हरजीत के फैन से है।
    साहिल साहब बहुत खूब लिखा।सादर।

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  3. कई बार लगता है कि हरजीत के साथ एक बनती हुई रवायत अधूरी रह गयी। यह शायद ऐसी रवायत थी जो जीवन को उसकी जड़ों के पास जाकर देखती थी। शायरी को प्रशिक्षण के बजाय जीवन की राहों से हासिल करती थी। चौंकाने के बजाय अनुभव में उतरने पर ध्‍यान देती थी। और अपने देवताओं को मामूली चीज़ों में ढूंढ़ना चाहती थी।
    ज़िदगी उनसे इस क़दर नाराज़ न होती तो शायद हरजीत अपने दम पर ही इस रवायत को मुकम्‍मल कर देते!

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  4. Naresh Goswami आपने तो मुझे रुला ही दिया। कोई दिन नहीं बीतता उस कम्बखत की याद दिलाये बिना। आपने कितने अच्छे से समझा है न उसे!

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (31-08-2019) को " लिख दो ! कुछ शब्द " (चर्चा अंक- 3444) पर भी होगी।

    ---
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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  6. Teji Grover जीवन में जब कुछ बुरा और अप्रत्याशित घटता है तो पता नहीं कैसे कोई पंक्ति हमारे बिखरते आत्म का सहारा बन जाती हैं। यह शायद उन्हीं दिनों की बात होगी। तब पता नहीं कि हरजीत ज़िंदाबाद थे या नहीं। हम कई दोस्त छात्र-राजनीति में लहूलुहान होकर हाशिये पर सिमट गए थे। जाति, बाहुबल और पैसे की ताकत ने हमें जीतते-जीतते हराया ही नहीं, बेमानी भी कर दिया था।
    उन्हीं दिनों कहीं से हरजीत का दीवान हाथ लगा था। उस दुख में हम पीते थे, रोते थे और हरजीत को पढ़ते थे। तब दिमाग़ और जेहनियत को उसके इन दो शेरो ने बचाए रखा था:
    1. एक बड़े दरवाज़े में था छोटा सा दरवाज़ा और
    अस्ल हक़ीक़त और थी लेकिन सबका था अंदाज़ा और
    2. बहुत उदास है पानी हरेक प्याली में
    मेरे मिज़ाज को फिर जलतरंग होना है

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  7. इस लेख में साहिल जी ने हरजीत के फ़नकार पक्ष पर ज़ोर दिया है। परन्तु वास्तव में वे कारीगर भी थे। वे पेशे से बढ़ई थे -- जैसे किसी समय मैं मेकैनिक था -- पर अपनी दूसरी रुचियों के चलते उस धन्धे को चला नहीं पाए और वह बीच में ही छूट गया।पीते तो वे रोज़ थे और बहुत बार दिन में भी। जब वे यात्रा करते थे तो उनके कन्धे पर एक water bottle लटकी रहती थी। इसमें पानी नहीं, सस्ती रम और पानी का घोल रहता था। हमारे घर आते थे तो रोज़ शाम-रात को पीने का दौर चलता था। वे खीरों और टमाटरों को काफ़ी समय लगा कर बहुत बारीक काटते थे -- यह उनकी आदत में शुमार था -- और फिर पीना शुरू होता था। डिनर के बाद कुछ ग़ज़लें ज़रूर होती थीं। उन्हें अपनी सब ग़ज़लें और शेर याद रहते थे। घनघोर ग़रीबी उनके साथ ही रहती थी। हर बार वे एक कुर्ता इत्यादि माँगकर मुझसे ले जाते थे। आने-जाने का किराया भी उनको देना होता था और कभी-कभार कुछ अतिरिक्त पैसे भी।

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  8. Teji Grover Rustam Singh तंगदस्ती हमारे यहाँ भी थी, लेकिन हरजीत अपनी अमीरी माहौल में घोल दिया करता था। उसके आते ही हमारी दुनिया बहुत बड़ी हो जाया करती थी और शाम के वक़्त सब दोस्त जो हरजीत के आने का जश्न मनाना चाहते थे बिना बुलावे के भी चले आते थे।
    मैं उसके "शौक" को लेकर प्रेम साहिल से कभी अलग से गुफ़्तगू करूँगी। उन्होंने अगर डूबते सूरज से हाथ मिलाया तो हमने चढ़ते हुए सूरज से। "शौक" उनके जीने और मरने दोनों की बड़ी वजहों में शामिल था। और जीवन की धज्जियां उड़ाने वाले हरजीत परिवार और दोस्तों से ख़ुद को उड़ा ले गए जबकि उन्हें ऐसा करने की इजाज़त नहीं थी।
    मैंने इस आलेख को प्रेम जी से टाइप् करवाने के दौरान उनको उस मुलाकात के बारे लिखा था जो हमारी उनसे अंतिम भेंट थी। जनाब इतने ख़स्ता -हाल थे कि नाराज़गी और दुख के बीच का वह क्या स्पेस बन आया था, अभी तक कहना मुश्किल है। सुबह उठते ही मैंने हरजीत से जाने क्यों एक ही वाक्य में बात खत्म की , Harjeet, if you die, I'm going to kill you. फिर बहुत देर तक मेरा रोना नहीं थमा। और वह बैठा प्यार से मुस्कुराता भर रहा रुस्तम और मेरे सामने बैठा!
    रुचियों की वजह से नहीं, हरजीत को कोई उसके काम का ठीक मेहनताना देता ही कहाँ था। साहिल जी ने तफ्सील से कई चीजें बतायी हैं हमें।
    और इतने कम समय की दोस्ती के चलते, प्रेम साहिल कितने अच्छे से हरजीत की झलक दिखा गए हमें। शायद लिख कर तो और कोई नहीं दिखा पाया। किंवदंतियों की बात नहीं कर रही।

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  9. रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई
    तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं
    - कैफ़ी आज़मी
    क्या ख़ूब इंसान रह होगा वो, जिसको देख के ज़िन्दगी मुस्कुराती रही ... वो दिल जो औरों के दुःख में भीगता रहा... वो अलमस्त, यारबाश इंसान जो दुनिया की तमाम जद्दोजहद से जूझते हुए भी ज़िन्दगी को शायरी की तरह जीता रहा।
    ऐसे इंसान की दोस्ती भी नैमत है !
    रश्क़ होता है उन सब से जिन्हें ये नैमत नसीब हुई।
    बहुत ही ख़ूबसूरत लेख !
    प्रेम साहिल जी और तेजी ग्रोवर जी का बहुत आभार हरजीत जी से रू-ब-रू कराने का !
    बाज़ लोग इतने बाकमाल होते हैं कि उनके रूह की ख़ुशबू उनके जाने के बाद भी पीछे छूट जाती है ... और फिर जब कभी, जहाँ कहीं उनका ज़िक्र होता है, वो ख़ुशबू आस-पास महसूस होती है।

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  10. भूपिंदर प्रीत31 अग॰ 2019, 11:10:00 am

    हरजीत जी से मुलाकात अक्सर तेज़ी रुस्तम की बातों के जरीए हो जाती है,जब भी हरजीत की बात चलती है,तेज़ी के चेहरे का नूर ही कुछ और हो जाता है,जीवन की इतनी साधारण बातों को इतनी सादगी और गहराई से कह देना ही हरजीत का कमाल है,प्रेम साहिल भी मेरे मित्र है,मैं उनकी कविताओं का भी आनंद लेता रहा हूँ,अब उनका ये लेख पड कर उनसे और भी मुहब्बत हो गई है,सम्पूर्ण रूप में हरजीत जी को पड़ने का अब मन कर रहा है

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  11. Naresh Goswami आप किस दीवान की बात कर रहे हैं? ये हरे पेड़ हैं। एक पुल। उसने खुद ही यह संग्रह जेब से पैसा खर्च कर छपवाए थे।अंतिम संग्रह था
    खेल
    जो अप्रकाशित ही रहा और उसके गुम जो जाने की एक लंबी कहानी भी है। कई साल बाद यह संग्रह किसी मित्र के पास से बरामद हुआ, जिसे मालूम नही था कि वह अंतिम और एकमात्र बची हुई कॉपी है।

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  12. Teji Grover वह शायद 'एक पुल' रहा होगा। किताब के औसत आकार से कुछ छोटा और स्लिम।
    मुझे हरजीत का जो कुछ भी याद है, वह उसी दीवान का है। उन्हें बरसों बाद एकमुश्त और दुबारा पढ़ने का मौक़ा यहीं समालोचन पर मिला।

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  13. प्रेम साहिल जी का लेख पढ़ा .. हाल ही पुस्तक समीक्षा की एक गोष्ठी हाँक में साहिल जी और हमारे कथाकार साथी लोग गोष्ठी के बाद हम लोगो के जाने का इंतजार करते रहे । हम महिलाएं आखिर घर को निकल रही थी तो वहां नमकीन की पूड़ियाएँ खुलने लगी। अब पता चला इनकी जड़ें गहरी है और टिपटॉप और डिलाइट के बारे में सूरज प्रकाश जी सुभाष पंत जी अरुण जी से सुना वहां देहरादून के साहित्यकारों की कछड़ी बैठती रही है। हमने भी यही सोचा कि हम उस परंपरा का हिस्सा बने इस बाबत बाते भी हुई पर कामयाबी नहीं मिली।
    मैं बचपन देहरादून में गुजारने के बाद अध्ययन के लिए कानपुर फिर श्रीनगर रही। सो उस अवधि में देहरादून किसी से मिलना मिलाना नहीं हुआ। हम जब सब मिलते है तो ये बाते पुराने साथियों के बारे में सुनते है देहरादून के साहित्यिक परिवेश पर बाते होती हैं। अवधेश जी, ओमप्रकाश बाल्मीकि जी आदि साथियों के बारे में भी, बहुत पहले मुझे मोहन राणा जी ने ये हरे पेड़ है पढ़ने के लिए कहा था तो पढ़ा था।
    इसी कड़ी में प्रेम साहिल जी का यह लेख हरजीत जी के जीवन के कितने ही पहलू पर बात करती है। जहां उनकी शायरी है वहीं उनका कठिन जीवन और शौक, धींगा मस्ती , और यह भी कि श्वांस की तकलीफ के बावजूद भी वे जीवन, लेख और अपने कार्यों को विस्तार देते रहे। ये बहुत बडी बात है, अनुकरणीय है।
    वहीं लेखकीय जीवन की एक बड़ी त्रासदी भी सामने आई कि उनका जीवन कितना भी कठिन और आर्थिक संकटों से गुजर रहा था तिस पर उनके लेखकीय कार्यो को सही मोल नही मिला। साहिल जी ने बहुत दिलचस्प तरीके से संस्मरण और हरजीत जी के जीवन के कई फलक पर लिखा है। बहुत सुंदर लेख
    जिस पर कुछ उन्हीं शब्दों में यूं कहूंगी कि
    बादलों से गुफ़्तगू न हुई
    हम समंदर देखते रहें


    तेजी जी को शुभकामनाएं कि उनका यह कार्य जल्दी सफल हो।
    प्रेम साहिल जी को इस सुंदर लेख के लिए बधाई

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  14. हरजीत जैसे ज़िंदादिल इंसान और बेइंतहा ताज़गी भरी ग़ज़लें कहने वाले शायर की ज़िंदगी और उसके संघर्ष , दोनों को उजागर करने वाले इस आलेख के लिए हार्दिक बधाई ! ---- रामकुमार कृषक .

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