आपने हरजीत सिंह का
नाम सुना होगा ?
यह शेर सुना होगा –
आयीं चिड़ियाँ तो मैंने
यह जाना
मेरे कमरे में आसमान
भी था
हिंदी शायरी केवल
दुष्यंत कुमार तक ठिठकी हुई नहीं है. वह अपने रास्ते आगे बढ़ रही है. हरजीत सिंह इसी रास्ते के शायर
हैं.
प्रसिद्ध कवयित्री तेजी ग्रोवर की टिप्पणी के साथ हरजीत सिंह की ग़ज़लें ख़ास
समालोचन के पाठकों के लिए.
हरजीत सिंह
__________________________
1959 में देहरादून में
जन्मे हरजीत सिंह हिंदी के लोकप्रिय शायर थे जिन्होंने अपनी असमय मृत्यु से पहले
कई मुशायरे और काव्य-गोष्ठियों में शिरकत की थी, और जो लोगों की स्मृति में आज भी
दर्ज हैं. पेशे से वे बढ़ई थे जिन्हें कभी ठीक से किसी भी चीज़ का मेहनताना नहीं मिला. एक
विख्यात स्वीडी उपन्यासकार उनके बहु-आयामी जीवन से इस हद तक मुतासिर हुए थे की
उनके उपन्यास BERGET (परबत) का अहम् किरदार हरजीत से हुई उनकी मुलाकातों की
बुनियाद पर टिका है. ऐसा किरदार जो मुफ़लिसी का भी जश्न मनाते हुए भी अपनी टूटी हुई
छत से उड़ कर कमरे में आयी चिड़िया के बारे में भी इस तरह के आशू शेर कह लेता है :
आयीं चिड़ियाँतो मैंने
यह जाना
मेरे कमरे में आसमान
भी था
जिस गोष्ठी-मुशायरे
में भी हरजीत सिंह जाते, नौजवान लोग बेसब्री से उनकी ग़ज़लों और ऐसे फुटकर अशआर को
अपनी डायरी में नोट करने लगते. लेकिन मुशायरे लूट ले जाने वाले हरजीत एक आला दर्जे
के छायाकार भी थे और उनके बनाये रेखांकन और तस्वीरें कई पत्र-पत्रिकाओं, किताबों
में छपते भी थे. मित्रों की किताबों के आवरणों की परिकल्पना करना उनकी बेशुमार
लतों में शामिल था और अपने इस फ़न की बदौलत
भी हरजीत शिद्दत से हमारे बीच मौजूद हैं. 1999 की
देहरादूनी गर्मी के दौरान SPIC MACAY के एक कार्यक्रम में दरियां बिछाते हुए वे लू का शिकार
हुए और हिंदी शायरी का यह अनूठा हस्ताक्षर किस्सों-किंवदन्तियों का विषय बन गया.
उनके मित्रों-प्रशंसकों के पास आज भी उनके लिखे निहायत मर्मस्पर्शी और सुन्दर खत
सहेज कर रखे हुए हैं, जिन्हें उनकी ग़ज़लों के साथ ही छपवाने की संभावनाएं बन रही
हैं. उन्होंने दिल्ली की किसी प्रेस से उपने दो संग्रह छपवाए थे: “ये हरे पेड़
हैं” और “एक पुल” और 1999 में अपने नयी हस्तलिखित पाण्डुलिपि “खेल”
वे दोस्तों के हवाले कर गए. अपने एक दोस्त की नज़र किया यह शेर दरअसल ख़ुद हरजीत की
शख्सियत को बखूबी बयान करता है:
तमाम शहर में कोई
नहीं है उस जैसा
उसे यह बात पता है
यही तो मुश्किल है
_________________________________________ तेजी ग्रोवर
ll हरजीत सिंह के शेर व ग़ज़लें ll
(शेर)
ये हरे पेड़ हैं इनको न जलाओ लोगो
इनके जलने से बहुत रोज़ धुआँ रहता
है
1.
सूरज हज़ार हमको यहाँ दर-ब-दर मिले
अपनी ही रौशनी में परीशाँ मगर
मिले
नक़्शे सा बिछ चुका है हमारा नगर
यहाँ
आँखें ये ढूँढती हैं कहीं अपना
घर मिले
फिर कौन हमको धूप की बातें सुनायेगा
तुम भी मिले तो हमसे बहुत मुख़्तसर
मिले
कच्चे मकान खेत कुँए बैल गाड़ियाँ
मुद्दत हुई है गाँव की कोई ख़बर
मिले
नदियों के पुल बनेंगे ख़बर जब
से आई है
कश्ती चलाने वाले झुकाकर नज़र
मिले
2.
शहरों में थे न गाँव में न बस्तियों
में थे
वो लोग कुछ पुलों की तरह रास्तों
में थे
सड़कों पे नंगे पाँव जो फिरते
हैं दर-बदर
कल ही की बात है ये बच्चे घरों
में थे
फिर यूँ हुआ कि फूल बहुत सख़्त
हो गये
कुछ ऐसे हादसे भी गुज़रती रुतों
में थे
उनकी ज़ुबाँ भी तेज़ थी लहज़ा भी
तुर्श था
लेकिन वे लोग कैद खुद अपने घरों
में थे
अब जैसे तुमने ख़ून बहाया नगर-नगर
लगता है इससे पहले कहीं जंगलों
में थे
3.
आते लम्हों को ध्यान में रखिये
तीर कुछ तो कमान में रखिये
एक तुर्शी बयान में रखिये
एक लज़्ज़त ज़बान में रखिये
यूँ भी नज़दीकियाँ निखरती हैं
फ़ासले दरमियान में रखिये
वरना परवाज़ भूल जायेंगे
इन परों को उड़ान में रखिये
आप अपनी ज़मीन से दूर न हों
खुद को यूँ आसमान में रखिये
हर ख़रीदार खुद को पहचाने
आईने भी दुकान में रखिये
4.
जलते मौसम में कुछ
ऐसी पनाह था पानी
सोये तो साथ सिरहाने
के रख लिया पानी
सिसकियाँ लेते हुए मैंने
तब सुना पानी
मुझसे तपते हुये लोहे पे
पड़ गया पानी
इस मरज़ का तो यहाँ अब कोई इलाज नहीं
शहर बदलो कि बदलना है अब हवा-पानी
आसमां रंग न बदले तो इस समन्दर से
ऊब ही जायें जो
देखें फ़क़त हरा पानी
शहर के एक किनारे पे लोग
प्यासे थे
शहर के बीच फवारे में जब कि था पानी
उस जगह अब तो फ़क़त ख़ुश्क सतह
बाक़ी है
कल जहाँ देखा था हम सबने खौलता पानी
जब समंदर से मिलेगा तो चैन पायेगा
देर से भागती नदियों का हाँफता पानी
5.
रेत बनकर ही वो हर रोज़ बिखर जाता है
चंद गुस्ताख़ हवाओं से जो डर जाता है
इन पहाड़ो से उतर कर ही मिलेगी बस्ती
राज़ ये जिसको पता है वो उतर जाता है
बादलों ने जो किया बंद सभी रस्तों को
देखना है कि
धुआँ उठके किधर जाता है
लोग सदियों से किनारे पे रुके रहते है
कोई होता है जो दरिया के उधर जाता है
घर कि इक नींव को भरने में
जिसे उम्र लगे
जब वो दीवार उठाता है
तो मर जाता है
6.
जब भी आँगन धुएं से भरता है
दिल हवाओं को याद करता है
साफ़ चादर पे इक शिकन कि तरह
मेरी यादों में तू उभरता है
उड़ने लगता है हर तरफ़
पानी
इस नदी से तू जब
गुज़रता है
दिन-ब-दिन पा रहा हूँ मैं तुझको
जैसे नशा कोई
उतरता है
रात जुगनू से
बातचीत हुई
अब अंधेरों से वो भी डरता है
हम लकीरें ही खींच
सकते हैं
रंग तो उनमें वक़्त भरता है
7.
उसके लहजे में इत्मिनान भी था
और वो शख्स
बदगुमान भी था
फिर मुझे दोस्त कह रहा
था वो
पिछली बातों का उसको ध्यान
भी था
सब अचानक नहीं
हुआ यारो
ऐसा होने का कुछ गुमान भी था
देख सकते थे छू न सकते
थे
काँच का पर्दा दरमियान
भी था
रात भर उसके साथ
रहना था
रतजगा भी था इम्तिहान
भी था
आयीं चिड़ियाँ तो
मैंने ये जाना
मेरे कमरे
में आस्मान भी था
8.
कोई दिल ही में छुपा हो जैसे
दिल उसे
ढूँढ रहा हो जैसे
साये – साये वो चले आते है
धूप से उनको गिला हो जैसे
जश्न के बावजूद लगता है
कोई आया न गया हो जैसे
वो तो ख़ामोश नहीं हो सकता
उसको ख़ामोश किया हो जैसे
आपसे कुछ भी नहीं कहता हूँ
आपसे कुछ न छुपा हो जैसे
दर्द सावन में खूब खिलता है
दर्द का रंग
हरा हो जैसे
9.
फूल सभी अब नींद में गुम
हैं महके अब पुरवाई क्या
इतने दिनों में याद जो तेरी
आई भी तो आई क्या
मैं भी तन्हा तुम भी तन्हा दिन तन्हा
रातें तन्हा
सब कुछ तन्हा-तन्हा
सा है इतनी भी तन्हाई क्या
खिंचते चले आते हैं सफ़ीने
देख के उसके रंगों को
तुमने इक गुमनाम इमारत साहिल पर बनवाई क्या
सारे परिंदे सारे पत्ते
जब शाखों को छोड़ गये
उस मौसम में याद से तेरी
हमने राहत पाई क्या
काँच पे धूल जमी देखी
तो हमने तेरा नाम लिखा
काग़ज़ पे ख़त लिखने की भी तुमने रस्म बनाई क्या
आ अब उस मंज़िल पर पहुँचें
जिस मंज़िल के बाद हमें
छू न सकें दुनिया की
बातें शोहरत क्या रुसवाई क्या
10.
दोस्त बन कर ज़िन्दगी में
आ गयी है चाँदनी
अब मुझे अच्छी तरह
पहचानती है चाँदनी
दूर रहना उसकी मज़बूरी भी
है अच्छा भी है
मुझसे जब मिलती है लगता है नई है चाँदनी
मैंने कुछ लोगों की आँखों से चुराया है उसे
मैं वो इक बादल हूँ जिसमें घिर गई है चाँदनी
मेरा यह तन्हाईयों का शहर
उसका शहर है
जिसके रस्ते जिसके आँगन
चूमती है चाँदनी
जिस नदी में रोज़ सूरज डूबता
है शाम को
रात उस काली नदी में नाचती है चाँदनी
धूप से मैं उसकी कोई बात भी
क्यूँ कर कहूँ
धूप कह देगी
कि हाँ मुझसे बनी है चाँदनी
11.
सीढ़ियाँ कितनी बड़ी हैं सीढ़ियाँ
मुझको छत से जोड़ती हैं सीढ़ियाँ
गाँव के घर में बुज़ुर्गों की तरह
आजकल सूनी पड़ी हैं सीढ़ियाँ
इन घरों में लोग लौटे ही नहीं
धूल में लिपटी हुई हैं सीढ़ियाँ
सिर्फ बच्चों की कहानी के लिए
आसमानों में बनी
हैं सीढ़ियाँ
इस महल में रास्ते थे अनगिनत
अब गवाही दे रही हैं सीढ़ियाँ
उस नगर को जोड़ते हैं सिर्फ
पुल
उस नगर की ज़िन्दगी हैं सीढ़ियाँ
इस इमारत में है ऐसा इंतजाम
हम रुकें तो भागती हैं सीढ़ियाँ
__________________
(हरजीत सिंह का फोटो रुस्तम सिंह के सौजन्य से )
पक्षियों के श्वेत -स्याम फोटो गूगल से साभार.
एक मुकम्मल शायर... जिसने पा लिया हो ज़िन्दगी
जवाब देंहटाएंहरजीत हिंदी ग़ज़ल का महत्वपूर्ण नाम है लेकिन कतिपय कारणों से उनकी चर्चा नहीं हुई। सच यह है कि दुष्यंत की ग़ज़ल में तो खामियाँ भरी पड़ी हैं जबकि हरजीत की ग़ज़ल मुकम्मल ग़ज़ल है। उनकी ग़ज़ल नारा बनकर नहीं रह गई है बल्कि वो सरगोशी के लहजे में बात करती है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंकमाल की ग़ज़लें
जवाब देंहटाएंमैं समालोचन का प्रशंसक हूँ. आज यह किसी भी पत्रिका के मुकाबले ज्यादा अच्छी है. बहुत बेहतरीन गज़ले हैं. गज़ल के इस स्तम्भ का नाम रसा से क्या मतलब है.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (05-03-2018) को ) "बैंगन होते खास" (चर्चा अंक-2900) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 'रसा' उपनाम से गज़लें कहते थे.
जवाब देंहटाएंहरजीत से मेरी एकमात्र मुलाक़ात 1997 में या 1998 में मसूरी में हुई थी। वह शरदकाल का समय था। हरजीत की कोई रिश्तेदार रहती थी मसूरी में, जो मेरी बेटी के स्कूल में टीचर थी। उन्होंने ही अपने घर बुलाया था और हरजीत से मिलवाया था। हरजीत देर तक अपनी ग़ज़लें सुनाते रहे थे। हम लोगों ने एक-दूसरे से दोबारा मिलने का वायदा किया था। आज हरजीत के साथ बिताई वह शाम फिर बड़ी शिद्दत के साथ याद आई।
जवाब देंहटाएंमैंने हरजीत जी को पहल के एक अंक से जाना था जब ढेर सी ग़ज़लें छपी थीं। तब से मैं हरजीत का ऐसा कायल हुआ कि बात बेबात उनका ज़िक्र दोस्तों से कर ही लेता हूँ।
जवाब देंहटाएंवास्तव में हरजीत बड़ा शायर और बहुत प्रिय दोस्तथा। उसके न रहने के समाचार सुन कर ही उर्दू के महत्वपूर्ण शायर इजलाल मजीद ने यह शेर कहा था--
जवाब देंहटाएंकोई मरने से मर नहीं जाता
देखना वो यहीं कहीं होगा।
मेरे लिए वोः सगे भाई की तरह था ।
हरजीत की बहुत सी पंक्तियाँ ऐसी हैं जो दोस्तों की स्मृतियों में हैं । वे कहां मिलेंगी कह नहीं सकते।जैसे
जवाब देंहटाएंमुझसे फिर मिल कि मेरी आँखों में
धान तैयार है कटने के लिये।
समालोचन को धन्यवाद। दुष्यंत कुमार के जिक्र बिना भी पढ़ा जा सकता है इन्हें जो और खुला और बेहतर होगा। दुष्यंत के लिखे में जो भी शोर या और कुछ है उसकी कीमत शायरी को देनी पड़ी। हरजीत जी तो ज़बान में लज्ज़त के कायल कवि है, उनके यहां जो पानी और तन्हाई है, नमी है वह उनकी नैसर्गिक मनः स्थिति का ही विस्तार और सम्मिलन है। बरसों पहले 'वातायन'(जिसमें राजेश जोशी पहली दफा छपे) पत्रिका जब दोबारा बीकानेर से हरीश भादानी ने शुरू की तो उसके दूसरे ही अंक के लिए मुझे 'ये हरे पेड़ हैं' समीक्षा के लिए थी। वे दिन वह पाठ आज भी हरजीत जी के संग रहना याद आता है।
जवाब देंहटाएंहरजीत प्रकृति से शिद्दत से जुड़े शायर थे। उनसे जुड़े कई प्रसंग याद आते हैं। एक बार वे जब बंबई मेरे घर आये तो बैग रखते ही तीसरी मंजिल के मेरे घर की बालकनी खोली और सुबह सुबह ही कई तस्वीरें क्लिक कीं। संयोग से तीन चार महीने बाद फिर आये और बालकनी खोलते ही जोर से चिल्लाए - सूरज यहां बालकनी के बाहर एक हरा भरा पेड़ था। कहां गया। मेरे लिए ये शर्म से डूब मरने के पल थे कि मेरी बालकनी के सामने का पेड़ काटा जा चुका था और मुझे ही पता नहीं था।
जवाब देंहटाएंमित्रो, आपने हरजीत को नए सिरे से याद कर हम सभी मित्रों को उत्साह से भर दिया है. मुझे मालूम है रुस्तम और मैं अकेले नहीं हैं जो उन्हें हर रोज़ और कई प्रसंगों में नम आँखों से और कभी उनके अशआर-ग़ज़लें अन्य मित्रों को सुनाते हुए खूब खूब याद करते हैं. खतों और उनकी अन्य कृतियों का जो जखीरा हमारे पास है, उसमे और भी कई लोगों का ज़िक्र आता है जिनके पास ऐसे जखीरे ज़रूर होंगे. सलीम खान साब ने तो एक ख़त हमसे साँझा किया ही है. मैं उनके खतों में अशआर को भी संकलित करने की कोशिश कर रही हूँ, जो उनके संग्रहों में नहीं आये. मस्त-मौला हरजीत फ़िक्र ही नहीं करते थे उन्हें दर्ज करने की, या उन्हें सहेजकर रखने की. प्रेम साहिल ने एक अद्भुत लेख उनपर लिखा है, अनिरुद्ध उमट उनके एक संग्रह की समीक्षा कर चुके हैं. मैं चाहती हूँ हम सब लोग मिलकर उस सब को एक जगह सहेज लें जो बाद में कभी ठीक से छप सकता है. यह उपक्रम सब मित्रों पर ही टिका हुआ है और वे ही मिलजुलकर इस अहम काम को अंजाम दे सकते हैं. कोई प्रकाशक सूझता हो तो भी बताएँ...मैं Dawangara Umat की आभारी हूँ की उन्होंने इन ग़ज़लों को साँझा करने लायक फॉर्मेट में लाने में हमारी मदद की है. इस तरह ताज़ातरीन पीढी में हरजीत की एक और मित्र भी वुजूद में आयीं. ".एक अलमस्त शानदार ग़ज़लकार अब हमारी. बीच नहीं है" --ऊपर ज्ञान जी ने लिखा है...और उन्हीं के संग हम सब मिलकर उन्हें अपने बीच लौटा लाने की कोशिश कर रहे हैं. आनंद-कण सभी के हिस्से में फिर-फिर आएंगे...है न?
जवाब देंहटाएंहरजीत को यहां पढ़ना किसी सदमे की याद की तरह मेरे पास आया। अवधेश और उसके साथ बीते/ बिठाये हुए ढेरों क्षण जिन्हें मैं अपना कहूँ तो भी उनके साथ ज़्यादती ही होगी। एक जिप्सी और दूसरा बोतल में बंद जिन। कब खुद ब खुद बाहर निकल आये ,कहना भी खतरे से भिड़ने जैसा है। उसकी ग़ज़लें तो कभी कभी दुष्यंत का मुंह चिढ़ाती भी नज़र आ जा सकती हैं। इतना असभव शायर ! बहुत सारे सुपरलेटिव्ज़ इस्तेमाल करने का जी है लेकिन क्या होगा उससे ? उसकी मुस्कान ही छीन जायेगी जो यादों में पड़ी अवधेश और उसकी चुटकियों में ताल दे रही है। ..! Qm Globalaaya Namah
जवाब देंहटाएंदरअसल हरजीत ने काफी सालों तक रचनायें छपवाने से परहेज किया।दोस्तों ने खुद कुछ छाप दिया तो छाप दिया।बाद में दोस्तों के बहुत समझाने पर वह इस तरफ ध्यान देने लगा।दोनों संग्रह उसने स्वयं दोस्तों की मदद से छपवाये।
जवाब देंहटाएंकमाल के शेर और बेहतरीन शायर शायद
जवाब देंहटाएंहरजीत जी. मैं यही कहता था. बड़े भाई प्रमोद कौंसवाल के सौजन्य से उनकी ग़ज़लें मिली थीं पढ़ने को डीबीएस कॉलेज के दिनों में. कॉलेज में सुनाता था. अपनी डायरी में अनिल जनविजय, मंगलेश डबराल, अदम गोंडवी, बल्ली, हरजीत की रचनाएं लिख कर रखी थीं. वो लाल रंग की डायरी थी...है. वे तूफ़ानी दिन थे. कविताएं और वे दिन घुलमिल गये थे. कविताओं को सुनते हुए मेरे सहपाठी, दोस्त, छात्र सब जैसे अलग ही रंगतों में खिल जाते थे. हरजीत से आमनासामना हुआ कुछ वर्षों बाद. सीनियर साथी लेखकों नवीन नैथानी, विजय गौड़, अवधेश कुमार और बहुत सारे अन्य साथियों से मिला. ‘ये हरे पेड़ हैं” की एक छोटी सी समीक्षा रविवारी जनसत्ता के लिए की थी. वे फ़्रीलांसिग भाग-एक के दिन थे. मैं देहरादून में जान लिया गया था. हरजीत जी ख़ुश थे. उनके कंधों पर एक झोला टंगा रहता था. उनकी आंखें कैसे भूली जा सकती हैं. और दाढ़ी मूंछ के भीतर छिपी नटखट मुस्कान. सुभाष जी, नवीन जी, विजय जी, साहिल जी, जितेन जी और भी कुछ देहरादून के पुराने साथियों के पास हरजीत की बहुत निजी और ख़ास यादें होंगी. उनसे भी हरजीत को फिर से पाया जा सकता है...शायद.
जवाब देंहटाएंसमालोचन पर तेजी जी ने एक बहुत पुरानी स्मृति को जैसे न जाने हम जैसे कितने सारे लोगों के सामने एक खिड़की की तरह रख दिया. वहां हरजीत और उनके हरे पेड़ हैं. वे वहीं थे. हम शायद भूल गए थे. हम जैसे आधी दुविधा आधे यकीन में, “कहते रहे शायद शायद.”
ग़ज़लकार हरजीत सिंह की स्मृति में देहरादून के सामाजिक संगठन धाद ने स्मृति वन में एक पौधा रोपा है, जो उनकी यादों को हमेशा ताजा और हरा-भरा रखेगा।
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