प्रभात
की कविताओं पर लिखते हुए अरुण कमल ने माना है कि ‘यह हिंदी कविता की उंचाई भी है और
भविष्य भी’. उनका संग्रह ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ साहित्य अकादेमी ने २०१४
में प्रकाशित किया था.
प्रभात
की कविताओं का अर्थ संधान करती हुई, अलक्षित
सौन्दर्य को इंगित करती हुई सदाशिव श्रोत्रिय की यह टिप्पणी ख़ास आपके लिए.
प्रभा त की कवि ता
सदाशिव श्रोत्रिय
प्रभात की खासियत मैं इस बात में मानता हूं कि किसी विषय के
सम्बंध में जिस विशिष्ट भाव को यह कवि अपने मन में महसूस करता है उस भाव को अपने
पाठकों तक सम्प्रेषित करने का कोई अनूठा ही तरीका वह निकाल लेता है. उनकी
काव्य-सृजन की यह प्रक्रिया मुझे बहुत कुछ स्वप्न-सृजन सी लगती है जिसमें चेतन मन
की भूमिका लगभग नहीं के बराबर होती है. किसी
स्वप्न से जगने के बाद जैसे हम कई बार अपने आप को वियोग, पश्चाताप,उद्विग्नता या
अन्य किसी भाव से घिरा पाते हैं उसी तरह प्रभात की कविता पढ़ने के बाद हम जैसे उसके
संवेदनात्मक काव्य- अनुभव में सह्भागी हो जाते हैं.
प्रभात अपना यह काम किसी सामाजिक-राजनीतिक स्थिति पर किसी
सीधी टिप्पणी से बचते हुए करते हैं. वे कविता को स्वयं बोलने देते हैं और यदि पाठक
में उनकी कही बात को सुनने की क्षमता हुई तो कविता के माध्यम से भाव-सम्प्रेषण का
उनका अभीष्ट कार्य पूरा हो जाता है.
सदानीरा में प्रकाशित उनकी एक कविता अटके काम के उदाहरण से मैं अपनी बात आगे बढ़ाना चाहूंगा. कविता यूं है :
पतंगें अटकी हुई भी सुंदर लगती हैं
उन्हें उड़ने से कितनी देर रोका जा सकता है
आते ही होंगे लकड़ियों के लग्गे लिए लड़के
उतार लेंगे हर अटकी हुई पतंग
फड़फड़ाते हुए फट ही क्यों न जाए
कहीं अटकी हुई पतंग
इस बात को कौन मिटा सकता है भला
कि जब तक अटकी हुई दिखती रही
बच्चे उसे पाने की इच्छा करते रहे
कविता को पढ़ते हुए जो तस्वीर मेरे मन में उभरती है वह
पतंगों की न होकर सुन्दर और युवा लड़कियों की है. मुझे लगता है हमारे समाज में इन लड़कियों की स्थिति को यह
कविता बखूबी चित्रित करती है. लड़कियां स्वतंत्र और उन्मुक्त न हों तब भी युवावस्था
में उन्हें सुन्दर और आकर्षक लगने से भला कौन रोक सकता है ? अपने घरों और स्कूलों की कैद में भी वे उन्हें देखने वालों
को आकर्षित तो करती ही हैं. युवावस्था में अपने हाव-भावों से, अपनी अदाओं से, अपनी मुस्कराहटों से वे सबको रिझाती हैं. यह सब करते हुए वे शायद इस बात का भी कुछ
आभास कराती हैं कि उन्हें बहुत समय तक कैद करके नहीं रखा जा सकता.
समाज के जिन लड़कों के हाथ में लग्गे हैं, अर्थात जो पद-प्रतिष्ठा-धन-बल आदि से सम्पन्न
हैं, वे एक न एक दिन इन अटकी
हुई पतंगों को उतार कर ( अर्थात उन्हें ब्याह कर) ले ही जाएंगे. इस बीच यह भी
सम्भव है कि इनमें से कोई पतंग बहुत फड़फड़ा कर अपने आपको इस क़ैद से मुक्त करने की
कोशिश करे और इस संघर्ष में कदाचित फट ही जाए. पर यह एक अस्तित्ववादी यथार्थ है कि
जब तक वे अटकी हुई दिखती रहेंगी बच्चे बराबर उन्हें पाने की इच्छा करते रहेंगे.
वस्तुत: पतंगों का यह सामाजिक अर्थ ही प्रभात की इस कविता
को कविता बनाता है. पाठक के मन में नारी-स्वातंत्र्य सम्बन्धी किसी विचार का अभाव
इस कविता को समझने के लिए आवश्यक अर्हता का अभाव बन जाएगा और तब यह कविता इसके पाठक को कोई कविता ही नहीं
लगेगी.
हमारे समय के बहुत से मसले, बहुत से व्यक्ति और बहुत सी घटनाएं मिल कर इस कवि से किसी ऐसी कविता की रचना करवा सकते हैं जिसमें
उन सभी का समावेश हो जाए किंतु जिसमें कवि फिर भी सीधे सीधे कोई बयान देता दिखाई न
पड़े. पहल-115 में प्रकाशित
प्रभात की क्रिकेट और साइकिल को मैं एक
ऐसी ही कविता पाता हूं. इस कविता को पढ़ कर लगता है कि इसे लिखते समय कवि के
मन में धर्मनिरपेक्षता, यौन-समता,
पड़ोसी राष्ट्र के प्रति प्रेम और सद् व्यवहार, (पहले प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी और अब अन्य राजनीतिक गतिविधि में संलग्न) इमरान खान,
हिन्दू राष्ट्रवाद आदि अनेक बातें मन में आती
रही होंगी. इन तमाम चीज़ों के बारे में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए कवि
एक विशिष्ट बिम्ब-विधान् और घटना-क्रम खोज निकालता है. वह यहां हमें जनकपुरी नामक एक हिन्दू-मुस्लिम कॉलोनी (जिसका नाम पहले
ईदगाह कॉलोनी था) में बच्चों को क्रिकेट खेलते दिखाता है. कवि के मन का अक्स हमें
इस कविता में दिखाई देता है क्योंकि ये बच्चे खेल को पूरी तरह खेल की भावना से खेल
रहे हैं. उनमें पारस्परिक ईर्ष्या या प्रतिस्पर्धा की कोई भावना नहीं है. (पाठक के
मन में यहां भारत-पकिस्तान के बीच कटुता के साथ
खेले जाने वाले मैचों की बात आए बिना नहीं रहेगी).
पड़ोसी देशों के बीच आदर्श सम्बन्धों की कवि की कल्पना इस
कविता में बड़ी सहजता से प्रवेश कर जाती है. इन बच्चों में से कुछ के नाम
(यक्ष-नील-नल-गयंद ) शायद जानबूझ कर शुद्धत: हिन्दुत्वादी रखे गए हैं. मुस्लिम
लड़के का नाम मामिर भी शायद एक शुद्ध
मुस्लिम नाम है. पर खेलते समय इन बच्चों को अपने हिन्दू या मुस्लिम होने का
ज़रा भी बोध नहीं है. खेल के मैदान पर ही
सम्भव इस खेल की भावना को कवि हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों के आदर्श के रूप
में देखता है और इसीलिए वह उसे अपनी इस कविता में चित्रित करता है-
जनकपुरी में बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं
मामिर साइकिल चला रहा है
गोलू बैटिंग कर रहा है
बिट्टू बॉलिंग कर रहा है
यक्ष नील नल गयंद फील्डिंग कर रहे हैं
क्रिकेट में बड़ा मज़ा आ रहा है
मामिर साईकिल चला
रहा है
पर ये हिन्दू बच्चे बड़े सहज भाव से इस मुस्लिम बच्चे के
क्रिकेट कौशल को स्वीकार करते हैं और उससे इस कौशल-प्रदर्शन का आग्रह करते हैं :
निशा के भाई राकेश
ने
साइकिल घुमाते मामिर से कहा
‘अब्बू जी खेल ले
यार ’
‘खेलूंगा’
साइकिल एक तरफ खड़ी करते मामिर ने कहा
ओए बिट्टू तुझसे कब से गोलू के गिल्ले नहीं उड़ रहे
ये ओवर अब्बू जी को करने दे
( अब्बू जी यानी मामिर )
अब्बू जी की पहली ही बॉल पर छक्का पड़ा
दूसरी पर चौका
तीसरी पर दो रन
चौथी में गोलू क्लीन बॉल्ड हो गया
क्रिकेट में रोमांच बढ़ गया
यौन – समता के मुद्दे
को भी यह कवि किसी न किसी रूप में इस कविता में ले आता है. अपनी साइकिल पर हाथ
आजमाते देख मामिर सहज भाव से निशा से कहता है :
‘घुमा ले , घुमा ले ’
, .............
क्या चलानी नहीं आ
रही है ?
कुछ देर बाद सांझ हो जाने पर जब बच्चों के घर से उन्हें
बुलाने की आवाज़ें आने लगती है , तब मामिर के पिता
का जो चित्रण यह कवि करता है ,वह भी हमें अनूठा लगता है :
पायजामे के अन्दर दबी बनियान में
लम्बी काली दाढ़ी में चमकता गौरवर्ण चेहरा
गली के छोर पर खड़ा था
हम देखते हैं कि अवसर मिलने पर अपनी कविता को अलंकारिक
बनाने के लिए यह कवि ‘निशा’ जैसे किसी शब्द में निहित श्लेष का भी
काव्यात्मक उपयोग कर लेता है :
............मामिर
जनकपुरी में अपने
अकेले आशियाने की तरफ़ बढ़ रहा था
बाकी सब भी अपने-अपने घरों की तरफ़
निशा भी
राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की दुर्दशा के सम्बन्ध में
विचार करते हुए यह कवि एक ऐसी विवाहिता
स्त्री की कल्पना करता है जिसके न्यायपूर्ण स्थान पर किसी दूसरी ही औरत ने कब्ज़ा
कर रखा है.
अपने ही घर में हिंदी की हैसियत
एक रखैल की-सी हो गई है
अँग्रेज़ी पटरानी बनी बैठी है
अँग्रेज़ी के बच्चे शासकों के बच्चों की तरह
पाले-पोसे जाते हैं
हिंदी के बच्चों की हैसियत
दासीपुत्रों सरीखी है
अंग्रेज़ी के बच्चे ही वास्तविक बच्चों की तरह देखे जाते हैं—
भावी शासकों की तरह
हिंदी के बच्चों को ज़मीनी अनुभवों और योग्यताओं के बावजूद
उनके सामने हमेशा नज़र नीची किए विनम्र बने रहना होता है
हिंदी हाशिए पर धकेल दिए गए अपने बच्चों के साथ
शिविर में रहती है
अँग्रेज़ी राजमहलों में
हिंदी अब थकी-थकी-सी रहती है
उसके अनथक श्रम का कहीं कोई मूल्य नहीं है
उसके बच्चों का भविष्य अंधकार से भरा है
प्रभात ने स्वयं ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत
कार्य किया है और इसीलिए वे उस निराशा के भाव को बख़ूबी महसूस कर सकते हैं जो उनके
जैसे प्रतिबद्ध हिन्दी लेखकों की तमाम मेहनत के बावजूद इस देश में अंग्रेज़ी के
मुक़ाबले हिन्दी के दूसरे नंबर की भाषा बन कर रहने से उत्पन्न होता है. क्या
उन जैसे लेखकों की तमाम कोशिश के बावजूद
हिन्दी इस देश में डूब जाएगी ?
हिंदी अब थकी-थकी-सी रहती है
उसके अनथक श्रम का कहीं कोई मूल्य नहीं है
उसके बच्चों का भविष्य अंधकार से भरा है
कुछ है जो भीतर ही भीतर खाए जाता है
आते-जाते हाँफने लगी है
भयभीत-सी रहने लगी है
हिन्दी की इस असहायतापूर्ण और कमज़ोर स्थिति को एक अतिरिक्त
संवेदनात्मक आयाम देने के लिए यह कवि इस कविता की अगली पंक्तियों में जो करता है
वह दृष्टव्य है :
कल की ही बात है
नींद में ऐसे छटपटा रही थी जैसे कोई उसका गला दबा रहा हो
बच्चे ने जगाया :
माँ ! माँ ! क्या हुआ !
पथरायी आँखों से बच्चे के चेहरे की ओर देखते बोली :
क्या मैं कुछ कह रही थी?
हाँ तुम डर रही थीं !
थकान से निढाल फिर से सो गई
सोते-सोते ही बताया :
बड़ा अजीब-सा सपना था
अँग्रेज़ी ने मुझे पानी में धक्का दे दिया
उसे लगा पानी कम है
वह हालाँकि हँसी-मज़ाक़ ही कर रही थी
लेकिन पानी बहुत गहरा था
मैं डूब रही थी
इतने ही में तुमने मुझे जगा दिया
जाओ सो जाओ
अभी बहुत रात है
बुदबुदाते हुए वह सो गई
वस्तुत: किसी बाह्य
स्थिति का भावनात्मक उल्था जिस काव्य-प्रतिभा की दरकार रखता है वह हम प्रभात में पाते हैं. यह उल्था ही दरअसल
सीधे पाठक के अवचेतन में प्रवेश की वह क्षमता रखता है जो किसी सफल कविता की अपनी
विशेषता है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में भी वे अपनी बात निर्विघ्न
शीर्षक कविता में एक विशिष्ट काव्यात्मक अन्दाज़ में रखते हैं.
मैं निर्विघ्न खाना खा रहा हूँ
तो यह यूँ ही नहीं है
यह एक ऐतिहासिक बात है
ऐसा न हो कि मेरे बाबा की तरह
मेरे मुँह से भी कोई कारिंदा रोटी का कौर छीनने आ जाए
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हासिल करने के लिए गांधी,नेहरू,अम्बेडकर,ज्योतिबा,
सावित्री बाई और नानाभाई,सेंगाभाई जैसे अनेक जाने-अनजाने लोगों ने लम्बे समय तक
संघर्ष किया तब कहीं जाकर वह हमें नसीब हुई है. धर्मान्धता के मुद्दे पर
टिप्पणी के लिए भी यह कवि काव्य-रचना के
इस मौके का सार्थक इस्तेमाल करने में नहीं चूकता जब वह कहता है कि :
मैं जीवन का जितना भी हिस्सा
निर्विघ्न जी सका
उसके पीछे ‘निर्विघ्नं कुरू
मे देव
सर्व कार्येषु सर्वदा’
जैसा कोई श्लोक नहीं
लोकशाही के लिए संघर्ष करने वालों का
सुदीर्घ इतिहास रहा
सदाशिव श्रोत्रिय
5/126 ,गोवर्द्धन
विलास हाउसिंग बोर्ड कोलोनी,
हिरन मगरी , सेक्टर
14,
उदयपुर -313001 (राजस्थान)
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30 -06-2019) को "पीड़ा का अर्थशास्त्र" (चर्चा अंक- 3382) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
नई परतें खोलते हैं Sadashiv Shrotriya जी, उन्हें प्रणाम।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आत्म मुग्ध करती समालोचना जो कवि के कृतित्व और व्यक्तित्व दोनो को उजागर कर रही है और उनकी कृतियों पर ध्यानाकर्षण कर रही है।
जवाब देंहटाएंनमन ।
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंनवीन बिम्ब-योजना और कथ्य कवि को विशिष्ट बनाता है। प्रबुद्धता से किये गए भाष्य के लिए सदाशिव श्रोत्रिय जी का अभिनंदन।।
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