ज़ोम्बी चलता फिरता मृत मानव शरीर है जिसे तांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा जीवित
किया जाता है पर वह शव की ही तरह व्यवहार करता है उसमें स्वतंत्र सोच या विवेक का
अभाव रहता है. वह मनुष्यों को संक्रमित कर उसे भी अपने जैसा बना लेता है. हालीवुड
की तमाम फिल्में इस पर बनी हैं और बन रहीं हैं.
मुझे तो कई बार ऐसा लगता है कि पश्चिम कहीं ग़ैर यूरोपीय समूह को ज़ोम्बी के रूप में तो निर्मित नहीं कर रहा है जिससे कि
उनके सामूहिक संहार को न्यायोचित ठहराया जा सके और जो विकसित सक्षम हैं उन्हें इसके
लिए पाप-बोध न हो. खैर
हिंदी कहानी में भी ज़ोम्बी का अवतरण हो चुका है. हिंदी के बहुचर्चित प्रतिभाशाली
कथाकार शिवेन्द्र ने इसी शीर्षक से यह कहानी लिखी है.
सुब बस अपने ठुकराए जाने का बदला लेना चाहता था. ट्रेन पकड़कर वह संध्या के शहर जा रहा था कि तभी ऐसी ख़बर आने लगी कि शहर दर शहर लोग ज़ोम्बी बनते जा रहे हैं. पैसेंजर परेशान हो उठे. उनके फ़ोन लगातार बज रहे थे या वे लगातार किसी न किसी को लगाए हुए थे. तब भी कुछ क्लीयर नहीं हो रहा था. बस इतना समझ आ रहा था कि रात प्रधानमंत्री ने कुछ घोषणा की थी और यह भी कि लोगों के ज़ोम्बी बनने में ही लोगों की भलाई है. अब तक सुब यह नहीं तय कर पाया था कि वह संध्या को कैसे मारेगा? उसके दीमाग में बहुत सी योजनाएँ थीं पर अब उन सब पर भारी पड़ रही थी ज़ोम्बी बन जाने की योजना.
उसी रात वह नज़दीकी बैंक गया और ज़ोम्बी बन गया पर जौंबियों की असली समस्या उसे ज़ोम्बी बन जाने के बाद समझ आई और वो ये कि अब वो बैंक और एटीएम के अलावा और कहीं नहीं जा सकता था. अब वह संध्या के पास कैसे जाएगा? उसने दीमाग लगाया- वह एटीएम-एटीएम घूमते घूमते उस गली के एटीएम पर जाकर खड़ा हो गया जहाँ संध्या का कोचिंग था और इंतज़ार करने लगा. संध्या को उसने कई बार देखा पर वह पागल थोड़ी ही न थी जो जौंबियों से कटवाने आती. वह दूर से ही निकल जाती.
सुब ने संध्या को सुबह-शाम जोहा, दिन-रात और हर दिन और इतने दिन कि वह दिनों की गिनती भूल गया. पर हर रोज़ वह बस एक ही कल्पना किया करता कि आज संध्या आ रही है और एक दिन उसकी कल्पना सच हो गई- संध्या अपनी कुछ सहेलियों के साथ एटीएम पर आई. वह बहुत ख़ुश थी. उसके साथ दोपर भी था और वह भी ख़ुश लगने की कोशिश कर रहा था. इतने सारे लोगों को अपनी ओर आते देख सभी ज़ोम्बी अपने दाँत पीसने लगे. पर उन सबको पीछे धकेल सुब आगे आ गया- संध्या को तो वही मारेगा, इसलिए तो वह ज़ोम्बी बना था.
उसने कोशिश की और बहुत कोशिश की लेकिन संध्या पर अटैक नहीं कर पाया, क्योंकि वह पैसे निकालने नहीं बल्कि सबको मिठाई खिलाने आई थी- उसका आईएएस निकल गया था.
ज़ोम्बी
शिवेन्द्र
सुब बस अपने ठुकराए जाने का बदला लेना चाहता था. ट्रेन पकड़कर वह संध्या के शहर जा रहा था कि तभी ऐसी ख़बर आने लगी कि शहर दर शहर लोग ज़ोम्बी बनते जा रहे हैं. पैसेंजर परेशान हो उठे. उनके फ़ोन लगातार बज रहे थे या वे लगातार किसी न किसी को लगाए हुए थे. तब भी कुछ क्लीयर नहीं हो रहा था. बस इतना समझ आ रहा था कि रात प्रधानमंत्री ने कुछ घोषणा की थी और यह भी कि लोगों के ज़ोम्बी बनने में ही लोगों की भलाई है. अब तक सुब यह नहीं तय कर पाया था कि वह संध्या को कैसे मारेगा? उसके दीमाग में बहुत सी योजनाएँ थीं पर अब उन सब पर भारी पड़ रही थी ज़ोम्बी बन जाने की योजना.
ट्रेन में लोग अब भी इस बात पर डीबेट कर रहे थे कि लोग ज़ोम्बी
क्यों बन रहे हैं और कैसे बन रहे हैं, सुब
ने अपने एक पत्रकार दोस्त को फ़ोन किया और उससे अब तक की सबसे सटीक जानकारी ले ली.
दोस्त ने उसे हिदायत दी कि वह किसी भी बैंक और एटीएम के पास न जाए क्योंकि सारे ज़ोम्बी
वहीं इकट्ठे हो रहे हैं.
परेशान लोगों के बीच एक अकेला सुब था जो मुस्कुरा रहा था.
जहाँ लोगों का इस टेंशन में सिर फटा जा रहा था कि वे अपने स्टेशन पर उतरें या नहीं, वहीं सुब बड़ी शान से संध्या के स्टेशन पर
उतर गया. उसे संध्या का पता नहीं मालूम था. संध्या के यह बताने के बाद कि वह किसी
दोपर नाम के लड़के की ओर आकर्षित होती जा रही है, सुब ने उसे
बार बार अपने प्यार का हवाला देकर उससे अपनी रही सही दोस्ती भी बिगाड़ ली थी और
पता नहीं दोपर के आकर्षण में या सुब से तंग आकर वह कोचिंग करने के बहाने या सचमुच
कोचिंग करने इस शहर में आ गई थी. सुब इधर उधर से बस इतना ही पता कर पाया था पर उसे
पता था कि हर शहर में कोचिंग के एकाध ही अड्डे होते हैं और फिर उसे अपने प्यार पर
इतना भरोसा था कि अगर वह सुबह सुबह चौराहे पर खड़ा हो जाए तो शाम होते न होते
संध्या को उससे टकराना ही था.
इसलिए स्टेशन से बाहर निकलते ही वह उन बड़े बड़े पोस्टरों
पर छपे पते पढ़ने लगा जो लोगों को आईएएस बनाने का दावा कर रहे थे और उन्हें ही संध्या
का पता मानकर वह उसी पते की ओर चल पड़ा. रास्ते में उसे ख़याल आया कि ऐसे वहाँ
जाने का कोई फ़ायदा नहीं क्योंकि उसे तो संध्या से बदला लेना है, इसलिए वहाँ ज़ोम्बी बनकर ही जाना चाहिए.
उसने एक एटीएम ढूँढा और क़तार बांधे जौंबियों के पीछे जाकर
खड़ा हो गया. उसे लगा था कि अगले ही पल कोई ज़ोम्बी अपना इन्फ़ेक्शन उसके ख़ून में
उतार देगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सब एक के पीछे एक बस खड़े रहे, किसी ने सुब की ओर देखा भी नहीं. उसने एक
के कंधे पर टैप किया तब भी कोई रिस्पोंस नहीं. तब इधर आने से कतराते, झिझकते, भय खाते
एक आदमी को उसने साहस दिया- “अरे! इनसे डरने की
ज़रूरत नहीं, ये काटते नहीं”
पर जैसे ही वह आदमी एटीएम तक आया, सारे के सारे ज़ोम्बी उस पर टूट पड़े और
अगले ही पल वह आदमी भी ज़ोम्बी बन चुका था- क़तार में निरुद्देशय सबसे पीछे खड़ा
हुआ. सुब को आश्चर्य हुआ- तो ज़ोम्बी उससे परहेज़ क्यों कर रहे हैं? उसने एक ज़ोम्बी को दो चाटें लगाए- “काटो मुझे भी
काटो”
लेकिन ज़ोम्बी यह करेला भी खा गया. यहाँ भी रिजेक्शन- सुब का
दिल बैठ गया. उसने अपने पत्रकार दोस्त को फिर से फ़ोन किया. इसका ठीक ठीक कारण उसे
भी नहीं पता था, लेकिन
रुझान यह कह रहे थे कि ये ज़ोम्बी केवल उन्हीं पर अटैक कर रहे थे जिनकी या तो जेब
ख़ाली थी या जो यहाँ तक पैसे निकालने की नियत से आ रहे थे.
सुब की तो ऐसी कोई नियत थी नहीं, वह पक्का ज़ोम्बी बनने यहाँ आया था. तब उसने
अपनी जेब टटोली. जेब में भी कुल तीन हज़ार रुपए थे. सुब समझ गया कि उसे ज़ोम्बी बनने
के लिए क्या करना है- काग़ज़ के उन बेकार टुकड़ों को उसने निकाला और किसी बेवफ़ा
लड़की के झूठे प्रेम पत्रों की तरह सड़क पर उछाल दिया. एक ज़ोम्बी में हरकत हुई.
सुब को लगा कि अब बनेगा वह भी जौम्बी. लेकिन वह ज़ोम्बी तो उसके फेंके हुए रुपए बटोरने
लगा था और फिर उसे काटने की बजाय उसने सुब के रुपए उसी की जेब में घुसेड़ दिए. जब
अगली बार भी सुब ने ऐसा ही किया तो उस ज़ोम्बी ने जिसे उसने दो चांटे मारे थे,
रुपए उसकी जेब में रखने के बाद उसे एक घूँसा भी मारा, पर काटा नहीं.
“ये कैसे ज़ोम्बी हैं?” सुब ने सोचा.
हालाँकि अब तक बिना कहे ही वह समझ गया था कि उसे यह रुपए फेंकने नहीं बल्कि ख़र्च
करने हैं. केवल तभी उसे ये ज़ोम्बी काटेंगे और वह ज़ोम्बी बन सकेगा. कैसा समय था कि
प्यार का बदला लेना भी आसान नहीं रह गया था!
वह तीन हज़ार रुपए लेकर बाज़ार की ओर निकल पड़ा. पर अब कोई
बाज़ार बचा ही नहीं था. लोगों को ज़ोम्बी बनता देखकर जो आदमी थे वे अच्छे आदमी और
जो अच्छे आदमी थे वे बहुत अच्छे आदमी बन गए थे. दुकानदारों ने सबकुछ फ़्री कर दिया
था. शॉपिंग मॉल में ‘कुछ भी
ख़रीदो, कुछ मत दो’ वाले ऑफ़र के
पोस्टर लग गए थे. ख़ाली लोग अपने तवे-कढ़ाही लेकर घरों से बाहर निकल आए थे और
ऑफ़िस जाने वालों को मुफ़्त में नाश्ता करा रहे थे. खिलाने वाले इतने थे कि खाने
वाले कम पड़ जा रहे थे. सुब कहीं से कुछ भी लेकर, कुछ भी खा
पीकर पैसे बढ़ाता तो लोग उस पर हंस देते- “क्या भाई साब अब
हम आदमी होकर आदमी से पैसे लेंगे?”
हद ये कि सुबह से शाम हो गई और सुब के तीन हज़ार तो क्या एक
भी रुपए ख़र्च नहीं हुए. पैसे ख़र्च न होने की थकान से उसका पूरा शरीर टूट रहा था.
वह अपने प्यार का बदला लेने निकला था पर अब उसे आराम चाहिए था. उसने एक होटल की ओर
रूख किया और एक एक क़दम चलते हुए वह एक एक देवी देवता को लड्डू-पेड़े-बकरे चढ़ाता
जा रहा था कि कम से कम ये होटल वाले पैसे लेते हों.
होटल वाले भी खुदा के बंदे निकले. सुब ने उनके आगे हाथ
जोड़े तो उन्होंने उसके पैर पकड़ लिए. बड़ी मुसीबत थी. सुब अगले एक सप्ताह तक अलग
अलग होटलों के धक्के खाता रहा. इस बीच घूम घूमकर उसने संध्या के कोचिंग का भी पता
लगा लिया और दूर से ही सही पर संध्या से मिल भी लिया. वह पहले से अधिक ख़ुश और
खिली खिली लग रही थी. सुब का दिल संध्या के लिए फिर से धड़क उठा. बार बार संध्या
के मना करने के बावजूद उसे लगा कि कम से कम उसे एक कोशिश और करनी चाहिए. बस
प्रॉब्लम ये थी कि संध्या किसी भी तरह ये समझने को तैयार नहीं थी कि सुब के बिना
वह ख़ुश नहीं रह पाएगी.
वह दोपहर सुब पर हावी हो गई और उसने जो पीनी शुरू की तो शाम
कर दी. शाम को उसे दोपर का ख़याल आया. उसे लगा कि वह संध्या को तो नहीं समझा सकता
पर दोपर ज़रूर ही उसके प्यार को समझ जाएगा, क्योंकि
लड़के तो होते ही एक दूसरे के भाई हैं. उस शाम से तो नहीं पर अगली सुबह से वह
संध्या का पीछा करने लगा और जब संध्या दोपर से मिली तो वह संध्या को छोड़कर दोपर
का पीछा करने लगा और पहली फ़ुर्सत में ही उसने रो रोकर दोपर को अपनी और संध्या की
पूरी प्रेम कहानी बता दी. दोपर को शॉक लगा क्योंकि संध्या ने अपनी तरफ़ से कभी भी
किसी ऐसे प्रेमी का ज़िक्र नहीं किया था और यदि यह आदमी से अच्छा आदमी और अच्छे
आदमी से बहुत अच्छा आदमी बनने का समय नहीं होता तो दोपर ख़ुद संध्या से बदला लेने
पर उतारू हो जाता. पर सुब का समय ही ख़राब था कि उसने अपनी दास्तान कही भी थी तो
ऐसे अच्छे समय में.
वह बुरी तरह टूट गया. संध्या उसे प्यार नहीं कर रही थी और
वह इसका बदला ले नहीं पा रहा था. उसके तीन हज़ार, अपनी एक एक पाई सहित अब भी उसकी जेब में जमे थे, जिसके कारण वह ज़ोम्बी तक नहीं बन पा रहा था. अब सारे रास्ते आत्महत्या की
ओर जा रहे थे.
उसने शराब मँगाई मगर पी नहीं, वह पूरे होशों-हवाश में मरना चाहता था. मरने से पहले उसे लगा
कि वह पागल हो जाएगा. प्लेटफ़ॉर्म की भीड़ के बीचोंबीच खड़ा वह चिल्लाया- “लड़कियों को सबकुछ इतनी आसानी से कैसे मिल जाता है…”
अब किसी को क्या पता? कोई
कुछ बोला ही नहीं. सुब ने किसी मोबाईल की तरह अपनी जेब से रुपए निकाले और उन्हें
प्लेटफ़ॉर्म पर पटककर, पटरी की ओर बढ़ गया. लेकिन इससे पहले
कि वह मरता, एक लड़की उन्हें लौटाने आ गई- “तुम्हारे रुपए”
अगर उसे संध्या की तरह तैयार किया जाता तो वह कम-बेशी उसी
के जैसी लग सकती थी. लड़की ने इस ओर ध्यान नहीं दिया था. सुब ने उसे सलाह दी- “इन्हें तुम ही क्यों नहीं रख लेती?”
“तुम चाहते हो कि मैं इन्हें रख लूँ?” लड़की
ने ख़ुशी ख़ुशी पूछा. सुब ने हाँ कर दी. लड़की ने वो रुपए रख लिए और बोली- “तो चलो”
“कहाँ?” सुब को आश्चर्य हुआ.
“तुम तो देख ही रहे होगे कि लोग अपनी चीज़ें देकर भी पैसे नहीं
ले रहे हैं, अब मैं लाख बुरी सही पर तुमसे यूँ ही पैसे थोड़ी
न ले लूँगी” लड़की ने उसे पटरी से उतार दिया- “आओ मेरे साथ”
उनके पीछे से धड़धड़ाती हुई ट्रेन गुज़र गई. लड़की उसे अपने
घर लेकर आई. उसकी छोटी सी खोली नोटों से भरी हुई थी. यहाँ तक कि बिस्तर भी नोटों
की गड्डी सजाकर बनाया गया था- “तुम
इतने रुपयों का करोगी क्या?”
“एक दिन मैं इनमें आग लगाऊँगी” वह हँसी.
जब लड़की ने दरवाज़ा बंद किया, सुब को घबराहट सी हुई. वह जितना घबराया
उतना ही तना. फिर यह सोचकर कि अगर इस लड़की को उस तरह से देखा जाय तो यह संध्या हो
सकती है, वह नॉर्मल हुआ. लड़की को इसकी उम्मीद नहीं थी- “हो गया?” उसने पूछा. सुब को यह पता नहीं चला कि क्या
हो गया. पर यह कमरा उसे अच्छा लगने लगा और यह लड़की भी और संध्या से बदला लेने की
बात उसके मन से निकल गई और समय तो इतना अच्छा था ही कि अगर कोई चाह ले तो सुख से
अपनी ज़िंदगी गुज़ार सकता था.
ऐसे समय में भी सुब के नसीब में सुख नहीं था. रात होते ही लड़की ने उसे यहाँ से जाने के लिए कह दिया, क्योंकि आग लगाने के लिए उसे अभी और रुपए इकट्टे करने थे. दरवाज़े के बाहर खड़े खड़े सुब ने एक बार फिर से यह निर्णय किया कि अब वह संध्या से बदला लेकर ही रहेगा और अब तो उसकी जेब भी ख़ाली थी, अब उसे ज़ोम्बी बनने से कोई नहीं रोक सकता था.
ऐसे समय में भी सुब के नसीब में सुख नहीं था. रात होते ही लड़की ने उसे यहाँ से जाने के लिए कह दिया, क्योंकि आग लगाने के लिए उसे अभी और रुपए इकट्टे करने थे. दरवाज़े के बाहर खड़े खड़े सुब ने एक बार फिर से यह निर्णय किया कि अब वह संध्या से बदला लेकर ही रहेगा और अब तो उसकी जेब भी ख़ाली थी, अब उसे ज़ोम्बी बनने से कोई नहीं रोक सकता था.
उसी रात वह नज़दीकी बैंक गया और ज़ोम्बी बन गया पर जौंबियों की असली समस्या उसे ज़ोम्बी बन जाने के बाद समझ आई और वो ये कि अब वो बैंक और एटीएम के अलावा और कहीं नहीं जा सकता था. अब वह संध्या के पास कैसे जाएगा? उसने दीमाग लगाया- वह एटीएम-एटीएम घूमते घूमते उस गली के एटीएम पर जाकर खड़ा हो गया जहाँ संध्या का कोचिंग था और इंतज़ार करने लगा. संध्या को उसने कई बार देखा पर वह पागल थोड़ी ही न थी जो जौंबियों से कटवाने आती. वह दूर से ही निकल जाती.
सुब ने संध्या को सुबह-शाम जोहा, दिन-रात और हर दिन और इतने दिन कि वह दिनों की गिनती भूल गया. पर हर रोज़ वह बस एक ही कल्पना किया करता कि आज संध्या आ रही है और एक दिन उसकी कल्पना सच हो गई- संध्या अपनी कुछ सहेलियों के साथ एटीएम पर आई. वह बहुत ख़ुश थी. उसके साथ दोपर भी था और वह भी ख़ुश लगने की कोशिश कर रहा था. इतने सारे लोगों को अपनी ओर आते देख सभी ज़ोम्बी अपने दाँत पीसने लगे. पर उन सबको पीछे धकेल सुब आगे आ गया- संध्या को तो वही मारेगा, इसलिए तो वह ज़ोम्बी बना था.
उसने कोशिश की और बहुत कोशिश की लेकिन संध्या पर अटैक नहीं कर पाया, क्योंकि वह पैसे निकालने नहीं बल्कि सबको मिठाई खिलाने आई थी- उसका आईएएस निकल गया था.
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writershivendra@yahoo.in
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शिवेंद्र
मुंबई में रहते हुए फ़िल्मों और टीवी सीरियल आदि में सक्रियता के साथ-साथ सतत लेखन भी.writershivendra@yahoo.in
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समकाल में इतनी ताकतवर कहाती मैंने शायद ही कोई पढ़ी हो l ढेर सारी बधाइयॉ I
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14-05-2019) को "लुटा हुआ ये शहर है" (चर्चा अंक- 3334) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यह कहानी नोटबंदी के एक अनछुए पक्ष को उद्घाटित करती है। अ जिल्टेड लवर इन द डेज़ आफ़ डिमोनेटाइज़ेशन।
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी
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