मति का धीर : लक्ष्मीधर मालवीय


मदनमोहन मालवीय के पौत्र लक्ष्मीधर मालवीय हिंदी के शिक्षक, भाषाशास्त्री, संपादक, कथाकार, चित्रकार आदि तो थे ही जापान में उनका घर लेखकों का एक सहज आत्मीय अड्डा भी बना रहा. उन्होंने साहित्यकारों के बेजोड़ फोटो भी खींचे हैं. पचासी वर्ष की समृद्ध और सार्थक जीवन यात्रा पूर्ण कर वे अब हम से विदा ले चुके हैं. कल (१०/५/२०१९) उनका निधन हो गया.


उनकी स्मृति को नमन करते हुए समालोचन उनकी एक कहनी यहाँ प्रस्तुत कर रहा है. संभावना प्रकाशन ने उनके कहानी संग्रह और उपन्यास आदि  प्रकाशित किये हैं.


ह नी मू न                                  
लक्ष्मीधर मालवीय



ज्वालामुखी से फूटकर बहती हुई ऊँची-ऊँची लहरें धीरे-धीरे जड़ होकर जम गई थीं, पर्वतों के फेरों में! वहाँ पहाड़ी नदी का चौड़ा सा कछार ही बच रहा था. नदी में जल न होने से गोल चिकने पत्थरों और रोड़ों की नदी थी वह. ध्यान से देखने पर पता चला कि वे रोड़े धीरे-धीरे सरक रहे हैं, ऊपर की ओर. सूरज डूबे कुछ ही देर हुई थी, पहाड़ की ढाल के ऊपरी हिस्से पर आकाश की नीली स्याही लुढ़क गई थी.

सड़क के मोड़ पर एक किनारे चार-पाँच व्यक्ति छितरे हुए खड़े थे. नीचे जाने वाली बस के निकल जाने के बाद वे पहुँचे होंगे, और अब किसी ट्रक के गु़जरने की राह देख रहे होंगे. एक पुरुष पैंतीस-चालीस साल की परेशान चेहरे वाली एक औरत के दोनों बाँह-कँधे पकड़कर लगातार समझाने के अंदाज़ में बोलता और मनुहार करता हुआ रोक रहा था और वह स्त्रा अपने को छुड़ाने के लिए खींचतान कर रही थी. वे कगार के एकदम किनारे थे. उनके पैरों के पास ही ज़मीन में तीन-चौथाई गड़ा ड्रम था, सफ़ेदी किया हुआ. दूसरी और तीसरी बार भी पलटकर उधर देखने पर वही दिखलाई दिया, पहले से कुछ अधिक दूरी पर जाकर अपने को छुड़ाती हुई वह औरत और इस ओर रह गया कगार के किनारे गड़ा हुआ वही ड्रम.

सामने वाले पहाड़ की अँधेरी ढाल पर जहाँ-तहाँ रह-रहकर पीली-पीली लपटें उठतीं. कई दिन हुए, जंगल में आग लग गई थी. जंगल बुझते-बुझते फिर जल उठने वाली मशाल की तरह जल रहा था. ठीक उसके नीचे तलहटी में सफ़ेद घरों की सिमटी हुई बस्ती थी.

बगल वाले नाले के ढूह पर खड़े होकर बातें कर रहे व्यक्तियों के शरीरों का काला ख़ाका यहाँ से दिखलाई दे रहा था. देर से वे अपनी जगह अडिग खड़े थे. यहाँ आते समय जब हम उनके बगल से गुज़र रहे थे, उन्होंने हमें रोककर पूछा था  उन्हें वैसी ही जिज्ञासा थी जैसी कि औचट जगह आए हुए बाहरी नौजवान जोड़े को लेकर होनी चाहिए, आख़िरी किरणों के भी गायब हो जाने के बाद वाले गहराते नीले उजास में. ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के झुंड, एक समान नक्शे के सफ़ेद मकानों की बस्ती, कगार पर खड़े तीन मनुष्य, बरामदे के सामने की ऊबड़-खाबड़ खुली जगह, अब सब पर गाढ़ी रोशनाई फैल गई थी.

अकेली आँख की तरह चमक रही थी, अँधेंरी गली में दूर पर की अकेली दुकान में जल रही ढिबरी. मोमबत्ती वहाँ भला क्या मिल पाएगी! चौदह-पंद्रह साल का वह छोकरा जो दोपहर को यहाँ हमारे पहुँचने के समय से ही हमारे पीछे लग गया था, उस दुकान से मोमबत्ती खरीद लाने को कहकर पैसे ले आया था. उसे गए काफ़ी देर हो गई. अब क्या लौटेगा वह!

बरामदे से नीचे उतर, कुछ दूर जाकर इधर देखने पर डाकबँगला दफ़्ती के काले कटआउट-सा दिखलाई दिया. पत्थर के गोल रोड़ों की सूखी नदी तो वहाँ से दिखलाई न देती मगर रोड़ों के खिसकने की धीमी सरसराहट सुनाई दी. सामने काले परदे पर एक जगह धीरे-धीरे डोलती हुई भभक उठती पीली लपटें नज़र आतीं. हो सकता है वे तीन बातूनी अब भी उसी जगह पर खड़े फुसफुसाकर बातें कर रहे हों.

वह अँधेरे कमरे में बैठी कुढ़ रही होगी. लगता है, हमें अँधेरे ही में सो जाना होगा. वह बरामदे की ओर वाली बंद खिड़की के आगे कुर्सी खींचकर बैठ गई थी. अब भी वहीं बैठी थी. घुप अँधेरा होने पर भी मालूम हो गया कि वह जाकर पलंग पर लेटी नहीं है बल्कि उल्टी हथेली पर गाल टिकाए काँच के बाहर का अँधेरा ताक रही है.

कोई एक-डेढ़ घंटा हुआ होगा कि न जाने कौन आकर बंद दरवाजे़ को ज़ोर-ज़ोर से ठोकरें मारने लगा. उठकर साँकल गिराकर दरवाज़ा खोला. मक्के की सोंधी खुशबू नथूनों में लगी. अँधेरे में दोनों हाथों से बड़ा-सा थाल उठाए हुए चौकीदार खड़ा था. वह हमारे लिए रात का रवाना बनाकर ले आया था. अँधेरे कमरे में आकर खड़े हो चौकीदार ने लड़खड़ाती ज़बान और बहुत सारे इशारों से बताया कि लालटेन है, मगर तेल नहींलौटते समय मुसाफ़िर लालटेन से किरासीन का तेल निकाल ले जाते हैं. ऐसा वे एहतियातन अगले डाकबँगले के विचार से करते होंगे.

इस समय कितना बजा होगा, उसने चौकीदार से पूछा. चौकीदार ने अनुमान का समय बताया मगर मैं ठीक समझ न पायाउसने समझ लिया होगा, क्योंकि उसने दोबारा नहीं पूछा.

खों-खों खांसते हुए चौकीदार ने पैर से टटोलकर टेबुल ढूँढ़ लिया और थाल उस पर रख दिया. चौकीदार को शाम के समय एक बार ध्यान से देखा था. उसके ज़र्द चेहरे पर अधिकतर सफ़ेद खुटियाँ थीं. सिर और कानों के ऊपर से लपेटे हुए मैले तौलिए में से  खिचड़ी बाल उसके माथे पर लटके थे, पुतलियों में बिल्लौरी चमक थी और वह रह-रहकर कमज़ोर ठुनकियों में खांस रहा था.

दरवाज़ा बंद किए जाने की तीखी आवाज़ से पता चला, चौकीदार चला गया.

मुझे तेज़ भूख लगी थी. वह नींद से सो गई थी. या ठीक पता नहीं. मैंने अँधेरे को पोंछने की तरह एक बाँह फैलाकर उसे टटोल निकाला.

वह खाना मैं नहीं खाऊँगी. वह अब तक अँधेरे में जागते पड़े हुए की-सी तत्पर आवाज़ थी.

खाना खा रहा था कि चौकीदार ने आकर फिर दरवाज़ा भड़भड़ाया. चौकीदार नहीं, लड़का था. बोला मोमबत्ती ख़रीदने के लिए उसे पैदल नीचे के गाँव तक जाना पड़ा. सिर्फ़ एक मोमबत्ती बच रही थी.

मोमबत्ती न जलाओ, नहीं तो मेरी नींद भाग जाएगी.

मैंने उसे एक बाँह के घेरे में लेकर अपनी ओर खींचा लेकिन उसने खुद को अचानक भारी बना लिया.

उसे छोड़कर और-और बहुतेरी बातें सोचते-सोचते मैं फिर उसके बारे में ही सोचने लगा. उसकी कालर बोन काफ़ी उभरी हुई है लेकिन उसकी देह के कई आकर्षक हिस्से स्थूल हैं. उसके बाएँ उरोज के नीचे एक बड़ा-सा तिल है, जिसे जीभ की नोक से टटोलते हुए ढूँढ़ना और पा जाना क्रमशः उत्तेजक होता है. उसके पतले होठों के बारे में. मैं लिपस्टिक के रंगों में से एक का चुनाव करने लगा. गुलाबी या हल्का लाल नहीं, बल्कि चटख़ खूनी लाल. नहीं, वह भी नहीं.

( जयशंकर प्रसाद :फोटो सौजन्य लक्ष्मीधर मालवीय)
पूरे साढ़े तीन साल प्रेम में मुब्तिला रहने के बाद हमने शादी की और हम हनीमून मनाने पहाड़ों पर आए हैं मैंने उसे अपने निकट लाना चाहकर फिर कोशिश की मगर भारी पत्थर की तरह वह हिली तक नहीं! वह पैदल चलने की थकान भरी गहरी नींद सो रही थी. उसके पैर साँवले हैं, घुटनों तक. मैं उत्तेजित से हताश हो गया.

उजाला ठीक से हुआ भी न था कि कुलियों ने आकर ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें दे, अपने नाम चिल्लाते हुए दरवाज़ा भड़भड़ाकर हमें जगा दिया. पिछली शाम उन कुलियों को तय न किया होता और उनके नाम सुने हुए न होते  तो उनका आना डाकुओं के हमले-सा लगता.

पिछली रात पैक किया हुआ हमारा सामान पीठों पर लादकर वे तीनों कुली पहले चल पड़े. जाते-जाते उन्होंने बताया कि वे अगले मुकाम पर शाम को मिलेंगे. नहीं-नहीं, बीच में राह भटकने का कोई डर नहीं क्यांकि एक ही पगडंडी का रास्ता है.

पहाड़ की तीखी चढ़ाई चढ़कर हाँफ़ते हुए दम लेने को रुका तो दिखलाई दिया, सूरज अभी-अभी पहाड़ के ऊपर उछला था. उससे इस सुंदर दृश्य को देखने के लिए कहने के इरादे से मुड़ा तो देखा, उसने सफ़ेद लिपस्टिक लगा रखी थी, जो गीले इनैमल पेंट की तरह चमक रही थी.

मीलों दूर के बर्फ़ से ढके पहाड़ भी तब पहली बार दिखलाई दिए. थोड़ी ही देर बाद सर्दी महसूस हुई.

वह तेज़ चाल ऊपर चढ़ते हुए मेरे बगल से चुपचाप निकलकर आगे बढ़ गई. जींस में कसे उसके भारी नितंब कुछ ही देर में छोटे होने लगे. मुझे थोड़ा डर लगा कि वह इसी तरह अकेली बढ़ती गई तो कहीं राह भटक न जाए.

मैं बीच रास्ते में सुस्ताते हुए तुम्हें मिल जाऊँगी, या अगले डाकबँगले में—  लगता है उसने मेरे मन की बात भाँप ली थी.

मैंने कदम बढ़ाकर उसके पास पहुँचना चाहा पर लगा कि मैं सीने तक गहरे जल में आगे धँसने की कोशिश कर रहा हूँ, इससे ज़्यादा तेज़ चलने का यत्न करूँगा तो यहीं भहरा पडूँगा.

वह तो कब की मेरी आँखों से ओझल हो चुकी थी!

रोज़ इसी तरह डाकबँगले से मुँह अँधेरे निकलकर इकट्ठा या अकेले चलते हुए पाँचवा दिन था हमारे हनीमून का, जब ऊपर से लेकर नीचे तक बर्फ़ से ढका हुआ पहाड़ सामने दिखलाई दिया, नीली धुँध में बहुत ही बड़े ओले सा! पर्वत के नीचे चौड़ी नदी कि निकासी थी मगर नदी लहरों की परतों समेत जमी हुई.

पगडंडी के दोनों ओर दूर-दूर तक पेड़ों के काले ठूँठ ही नज़र आए. ज़मीन भी राख से ढकी. कुलियों ने कल इसी जगह के बारे में कहा होगा, कि पाँच साल हुए जंगल में भारी आग लगी थी और कोई पखवारे भर जंगल जलाने के बाद बुझी थी.

अगले डाकबँगले के बरामदे में वह खंभे की आड़ लेकर खड़ी मेरी राह देख रही थी.

ओह डार्लिंग, तुम मुझे कितना प्यार करती हो, आगे बढ़कर मैंने उसका होंठ हल्के से चूम लिया. अँधेरा होने से मैं उसका चेहरा ठीक से न देख सका, मगर वही रही होगी. और भला कौन हो सकता है, यहाँ! फिर भी मैं उसका चेहरा एक बार ज़रूर देखना चाहता था. उसके होंठ और ख़ासकर यह कि उसने लिपस्टिक का रंग बदल दिया होगा.

वह आख़िरी बँगला था. कुली हमारा सामान बरामदे में छोड़कर चले गए थे. उन्होंने बता ररखा था कि घाटी में छह किलोमीटर दूर गाँव में उनके रिश्तेदारों के घर हैं, रात वे वहाँ बिताएँगे और चौथे रोज़ जब हमें नीचे उतरना है, वे आ जाएँगे.

नए मुसाफ़िर की आहट पाकर कुछ देर बाद यहाँ का चौकीदार आया और बोला कि उसकी कोठरी के पीछे वाले मक्के के खेत के नीचे है. हमें उससे कोई मदद न चाहिए थी. हमारे बिना कहे ही उसने आतिशदान में लकड़ियाँ जमा कर सुलगा दी. फिर अँधेरी पगडंडी पर चलता हुआ आँख से ओझल हो गया.

लालटेन जलाने के लिए माचिस की काँड़ी जलाकर बत्ती को छुआई मगर उसने लौ न पकड़ी. लालटेन हिलाने पर पता चला उसमें तेल न था. यहाँ तो दुकान भला क्या होगी. कमरे की आग रातभर जलाए रखना ज़रूरी था. सर्दी से बचने के लिए क्योंकि चौखट में दरवाज़े न थे. और इसलिए भी कि आते समय जमी हुई नदी के दूसरी ओर धीरे-धीरे दूर जाता हुआ एक काला रीछ दिखलाई दिया था.

डाकबँगले में दो ही कमरे थे. दोनों खाली. इधर भला कौन आएगा. देखने लायक है भी क्या. एक जमी हुई नदी और उसके सिरे पर खड़ा बर्फ़ का हल्का नीला पहाड़.

दरवाजे़-खिड़कियों के चौखटों के बाहर बहुत बडे़ एक्वेरियम की तरह अँधेरे का उजास फैला था. उसमें एक जगह बड़ा तारा झिलमिलाता हुआ दिखलाई दिया. तेज़ी से उड़ती हुई रेत की सरसराहट सुनाई दी. बर्फ़ की ऊँची नुकीली चोटी टूटकर बिखरती हुई नीचे गिरी होगी. कुछ ही देर में रेत की सरसराहट और साफ़ सुनाई देने लगी. वह रेत न थी, सामने जमी हुई नदी के तल पर छोटे-बड़े पत्थर कछुओं की मानिंद धीरे-धीरे ऊपर की ओर सरक रहे थे.

सामने मक्के के पके खेत में लपटें, धूप की चमकीली किरणों की तरह, लहक रही थीं. पास ही किसी पेड़ की ऊँची डाल पर बैठा कौवा देर से काँव-काँव कर रहा था. अचानक वह उड़ा और काँव-काँव करता हुआ घाटी की ओर निकल गया. फिर भी बगुले की क्वाँ-क्वाँ की तरह भारी अंतिम काँव-काँव की मनहूस गूँज देर तक कानों के भीतर गूँजती रही.

उसने एक साथ बहुत सारे लकड़ी के कुंदे आतिशदान में डाल दिए थे. आँच सारे कमरे में भर गई. उसकी हथेली पर हथेली रखी— उसकी हथेली हल्के बुख़ार-सी गर्म लगी.

लेकिन आँच बढ़ते-बढ़ते असह्य हो गई. यहाँ तक कि गालों की चमड़ी के नीचे दिल की धड़कनें, धक्-धक् करती हुई साफ़ सुनाई देने लगीं और लगा कि आँखों की पुतलियाँ आग पर रखी बारीक काँच की रकाबी की तरह तड़ककर टूट जाएँगी!

उसने आँखों में मुस्कराते हुए हथेली उठाई और चार उँगलियाँ हिलाकर मुझे पास आने का इशारा किया. उसका साँवला चेहरा आग की पीली लपटों और ताप से ताँबई रंग का हो गया था. उसकी पतली नाक के ऊपर उभर आई पसीने की नन्ही-नन्ही बूँदों के भीतर कई-कई नन्ही लपटें नाच रही थीं.

मैंने कहा था न तुमसे, कि कितनी भी दूर क्यों न हो, आख़िरी मंज़िल तक तुम्हारा साथ दूँगी!

मैं कृतज्ञता प्रगट करने के भाव से उसकी नंगी बाँह पर धीरे-धीरे हथेली फेरने लगा.

सातों रंग काले आकाश में बारीक धूल जैसे फहरा रहे थे. कई सौ मीटर की ऊँचाई से गहराई वाली बर्फ़ की सपाट ढलान पर लाल झरना बेआवाज़ गिरता दिखलाई दिया.

क्या तुम्हारी तबीयत बिगड़ रही है? उसने मेरा सिर अपनी ओर खींचकर अपने स्तनों के बीच दबा लिया.

नहीं तो! मैं सिर्फ़ तुम्हें प्यार करता हूँ.

सुनते ही वह खिलखिलाकर हँस पड़ी — या कि तुम मुझे सिर्फ़ प्यार करते हो.
मुझसे उत्तर देते न बना.

तुम इधर मेरे और पास क्यों नहीं आ जाते! उसके होठों के कोने पर अब भी भूली हुई मुस्कान थी.

अपने मन की क्रूरता को उससे छिपा ले जाने में मैं शायद सफल हो रहा था. थोड़ी देर तक उस चेहरे को एकटक देखता रहा. फिर उसके उरोजों के बीच अपना चेहरा गड़ा लिया.

मैंने तुम्हें कितनी बार बताया है कि मेरा नाम राधा नहीं है!

मैं चौकन्ना हो गया— तो क्या मैंने तुम्हें अभी राधा कहकर पुकारा था? अकेला पल, अंतिम से एकदम पहले वाला, कितना पैना और नुकीला होता है!

धू-धू जलती हुई आग की लपटों के ऊपर एक महराब, ऊँचा, खंडहर इमारत के प्रवेश द्वार का. उसकी कच्ची दीवारें और छत धुएँ से काली थीं.

उस दरवाजे़ से होकर हम पहले भी कई बार गुज़र चुके थे. अंदर एक झील हुआ करती थी, जिसमें रोशनी की मीनारें थीं. महराबदार दरवाजे़ से होकर अंदर जाते और बाहर निकलते वक़्त हमारे क़दम आप ही तेज़ हो जाते, इस डर से कि ऊपर का सारा ढाँचा किसी भी समय भरभराकर गिर पड़ेगा.

वह मेरे सामने बैठी थी और उसकी एक-एक पारदर्शी शिरा में रक़्त दौड़ता दिखलाई दे रहा था. गर्म बहुत है, कहते हुए उसने एक-एक कर अपने सारे वस्त्र छिलकों की तरह उतार दिए. बाँस के सफे़द रेशों जैसे उसके लंबे केश और महीन काग़ज की ख़ाली थैलियों से उसके स्तन. आग की पीली रोशनी उसके एक ओर से, थोड़ा पीछे से आ रही थी, इससे उसके एक गाल की जगह खोखला, सिर सपाट गंजा और आँख की जगह पर काला कोटर दिखलाई दिया.

तुम आकर इस कुर्सी पर बैठ जाओ तो तुम्हारे चेहरे पर ठीक रोशनी पड़ने लगेगी, मैं कुछ-कुछ डर गया था.

तभी देखा, जलती आग वाले प्रवेश द्वार से एक, दो, तीन, चार-चार मानव आकृतियाँ दबे पैर अंदर आकर कमरे के चारों कोनों में खड़ी हो गईं, और उल्लुओं जैसी आँखों से लगीं हमें घूरने!

तुम उस तरफ़ न देखो— उसने निकट आकर मुझे परले वाले कँधे से पकड़कर अपने से सटा लिया— फ़िक्र न करो, मैं जो तुम्हारे साथ हूँ! तुमने यही तो कहा था न, कि क्या सब कुछ को इकट्ठा दाँव पर लगाओगी? लेकिन क्या तुम्हें पता है?

क्या?
कि मैं क्या चाहती हूँ!
हाँ. मुझे —

उसने तीखेपन से बात काट दी — नहीं! उसने कई बार सिर हिलाया — नहीं, तुम नहीं जानते.

बाहर सफ़ेद-सफ़ेद गाले मंद गति से उतर रहे थे. बर्फ़ के कई फाहे, राह भटके हुए की भाँति, उड़ते हुए बिना दरवाज़ों वाले चौखट से अंदर आए और फ़र्श तक पहुँचने के बजाय बीच ही में ग़ायब हो रहे!

राधा! तुमने अपना नाम राधा ही बताया था न! देखो राधा, हम दोनों ही यदि इकट्ठा विक्षिप्त हुए तो हमें किसी निर्जन द्वीप में —

राधा, या जो भी उसका नाम रहा हो, उल्लसित स्वर में बोली— तो क्या बेजा होगा! जीवन की अंतिम साँस तक काले आकाश के नीचे तेज़ धूप को तुम्हारे साथ अपनी देह में सोखते हुए घूमा करेंगे हम! मैं तेज़ बहती हवा और हिमपात की, अपनी देह के रेशे-रेशे को बाहर निकालकर उसे बर्फ़ से धोने की कामना पूरी कर सकूँगी. और क्या तुम जानते हो?

क्या?

कि यों भी हम यहाँ से नीचे नहीं लौट रहे हैं. कभी नहीं.
मगर चौथे दिन कुली आएँगे.

तो क्या हुआ! हम वापस कभी न पहुँच पाएँगे — उसके स्वर से आह्लाद छलका पड़ रहा था — जानते हो हम कितनी दूर निकल आए हैं? डेढ़ सौ किलोमीटर! किलोमीटरों के डेढ़ सौ फेरे हमारे पैरों को जंज़ीर से जकड़े हैं, वे कभी न खुलेंगे, कभी नहीं.
हम पंद्रह किलोमीटर एक दिन के हिसाब से चलकर —

अचानक उठकर खड़ी होते हुए उसने तेज़ी से बात काटी — दूरी के फेरे तब भी कम न होंगे!

सर्द हवा के झोंके ताप को धकेलते हुए अंदर तक पैठने लगे. कोनों में खड़े वे लोग हथेलियों से मुँह दबाकर हँसी को बाहर निकल पड़ने से रोक रहे थे.

वह एक पर्वत की ऊँची चोटी से पेंग भरकर उड़ती हुई दूसरे पर्वत की सबसे ऊँची चोटी पर जा बैठती! बाँस के बारीक रेशों से लंबे बाल, बारीक कागज़ की खाली थैलियों जैसे झूलते हुए दोनों स्तन. हँसती हुई वह बोली, दूरियों की साँकल तब भी पैरों से लिपटी ही रहेगी, समझे! बर्फ़ के ऊँचे धरहरों वाली नदी बहकर नीचे नहीं जाती! बल्कि छोटे-बड़े रोड़े और पत्थर ही वह देखो, ऊपर चढ़ते आ रहे हैं!

राख से लिपटी लकड़ियों के भीतर जलती हुई आग थी और उसे एकटक देखते रहने पर कभी कदा उसमें से पीली या नीली छोटी सी लौ बाहर झाँककर फिर आग के अंदर लौट जाती. बाहर पेड़ों की पत्र विहीन शाखों पर बैठे पक्षियों जैसे बर्फ़ के कई लोंदे गिरे धप्-धप्! जैसे कि सफ़ेद उल्लू ठंड से मर-मरकर गिर रहे हों!

ठीक ही कहा था उसने. हम एक-दूसरे के इतने अधिक निकट आ गए थे कि एक के लिए दूसरा आँख से ओझल हो चुका था! ऊँची-ऊँची चोटियों वाले बर्फ़ के पहाड़ों को लिए हुए वह नदी सचमुच जम गई थी! पहाड़ों के सबसे ऊँचे-ऊँचे धौले शिखर ऊपर से टूटकर गिरते और हिमनद की कड़ी सतह से टकराकर बिखरते तो तनिक भी आवाज़ न पैदा होती मगर दिखलाई देता, ढेर सारी बर्फ़ चमकती धूल-सी हवा के झोंकों के साथ एक ओर उड़ जाती!

सड़क के मोड़ पर खड़े वे सभी लोग अब तक वहाँ से अपने-अपने ठिकाने की ओर चले गए होंगे. वह पुरुष भी अपनी पत्नी को साथ लेकर घर वापस पहुँच ही गया होगा और सूखी नदी के तल पर बिखरे रोड़े मंथर गति से ऊपर की ओर चढ़ रहे होंगे!
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कहानी संग्रहों के लिए संभावना प्रकाशन से सम्पर्क किया जा सकता है
६४, रेवती कुंज, हापुड़ -२४५१०१
मोब. 7017437410

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  1. हिंदी की विलक्षण संपदा का लोप हैै यह। उनकी स्‍मृति काोो नमन। समालोचन उन्‍हे उनकी कहानी से याद कर रहा हैैै । यह तोष की बात है।

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  2. एक महत्वपूर्ण भाषाविद का अवसान अपूर्णीय है, उन्हें सादर श्रद्धांजलि ।

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  3. जी नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-05-2019) को

    "मातृ दिवस"(चर्चा अंक- 3333)
    पर भी होगी।

    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    ....
    अनीता सैनी

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