मंगलाचार : अमिताभ चौधरी


























"बहुत कोमल है
टूटे हुए पत्ते की ऐंठ.     और
बहुत करुण ---
ऐंठ के टूटने की कर्कश-ध्वनि."




अमिताभ चौधरी राजस्थान के जिला चुरु के थिरपाली गाँव में रहते हैं, उम्मीद के साथ ये कविताएँ आपके लिए.   








अमिताभ चौधरी की कविताएँ                      


1. जल भरी झीलों पर झुककर
जल भरी झीलों पर झुककर
यदि मैं मिट्टी के कटने की तह देखता हूँ
तो मुझे अपना चेहरा दिखाई देता है.
मेरी आत्मा के पार्थिव जगत् !
क्या आकाश का शिल्प
इस बात का उत्तर है कि समतल रास्तों का नील
मेरा झील में दिखाई देता चेहरा है ?
                                                 
और
जो जल भरा है : मेरी इस दृष्टि की काट से ?
[
और मैंने उसी की ओंक भर अपनी प्यास बुझाई है!]







2. जितना तुम मुझे छू सको, छू लो
जितना तुम मुझे छू सको,
                            
छू लो! ----
व देखो कि मैंने स्पर्श की सीमाएँ बाँध दी हैं.
अंग वे सब [अ-पुष्ट] मैंने विसर्जित कर दिए हैं.
[
तुमसे छुए गए अपने अंग में : संप्रभ वह
                               
गंगा की तरह पवित्र हो गए हैं
                               
तो मुक्ति-विधायी होंगे!....]
अंत में, [यदि]
मेरे सामने रास्ता बच जाता है,
प्रतीक्षाएँ शेष रह जाती हैं तो मैं आँखें मूँद लेता हूँ
                             
--- कि सब अंधकार में लीन हो जाए
                               
और मैं -----
एक स्वप्न जैसी नींद के भार से पलकें गिराए रखूँ
कि, नेपथ्य में --- भटकने के
                                 
  स्वाँग से रिक्त
मैंने देह उतारकर आत्मा तुम्हारे हाथ में रख दी है.







3. धुआँ ही साँस लगा है
धुआँ ही साँस लगा है,
                               
प्रिये! ----
आग की क्या गंध होती है?
चूल्हे पर की छत के काले जाले
फेफड़ों पर झूलते हैं तो रोटी की अन्न-भाषा में
मन को लार लगा आता हूँ :
           धुएँ पर इतनी वैधानिक चेतावनियाँ हैं
          
कि मैं खाली पेट
                                       
आग को
                                       
हथेली पर पाता हूँ
             जीभर जलता हूँ.







4. टूटे हुए पत्ते की स्थिति से
बहुत कोमल है
टूटे हुए पत्ते की ऐंठ.     और
बहुत करुण ---
ऐंठ के टूटने की कर्कश-ध्वनि.
जिस छाया में आने को तपा वह ग्रीष्म,
पीला पड़ा, कना, झड़ा : उस छाया में गिरा
क्या पेड़ के सूख जाने के कौतुक से भरा है?
                                                     
कि मैं ----
उसे हथेली पर रखकर
मुट्ठी भींचने से पहले सोचता हूँ  [कि]
                         "
तुम्हारे लिए इतनी दूर आने के बाद
यदि मैं इस छाया में पहुँचा हूँ तो यह रास्ता ख़त्म हो जाना चाहिए !"
                 [यद्यपि यह एक ऋषि की प्रार्थना नहीं है
                 
कि एक टूटे हुए पत्ते की स्थिति से
                 
बसंत नहीं आना चाहिए!]










5. अबोल ध्वनि सही
दृश्यों की राग लगी आँखें
पलक झपकाने में रहीं :
                      
हाँ! हाँ! हाँ!
                      
                           
नहीं! नहीं! नहीं!
रक्त नहाये उजाले. इसलिए
मैंने वह बात कविता में नहीं कही.
जैसे, एक अबोल ध्वनि सही :
                           हाँ, वही अँधेरा,
                                                
वही ----
जिसे आँखें मूँदकर स्वीकार किया गया. इसलिए नहीं
कि उसे स्वीकार किए जाने में दृश्यों की काट है.





6. एक ऐसे समय
           क्या जानता है समय
          
कि मुझपर खिंची सब रेखाएँ
          
उसके स्पर्श की हैं?
मैंने भी किसी को छुआ तो जैसे
समय को छू लिया है.
और नहीं छुआ है तो समय को नहीं छुआ है.
---- एक ऐसे समय में
जबकि, मैं मरुस्थल का विस्तार किए
मिट्टी पर अपनी छाया देखते हुए सोचता हूँ
कि,
          
यदि यह मुझपर हो तो मैं एक क्षण साँस लूँ
          
और देखूँ कि मिट्टी पानी हो गई है.
           समय डूब गया है सूरज का अनुराग लेकर.










7. खेत मिट्टी से खाली नहीं होते, प्रिये
एक पुराने स्वप्न पर पलकें पड़ी हैं :
                 
अकाल वाले वर्ष पर किसान ने
                              
पसीना बुरका दिया है.
                  झीलें पानी से भर गई हैं.
                [
आकाश जैसे तारों से भरता है.]
                               एक अन्य ऋतु में
                              
कभी-कभी मैं सोचता हूँ :
                              
कितनी आग इस पानी के नीचे है
                              
जो आकाश पर तैर रहा है?
तुम मिलो तो मैं तुम्हें बताना चाहूँगा :
                       
भूख की आग चूल्हे की आग है,
                       
जो बुझती है तो भभकती है.
      [
किंवामरी हुई भूख अधिक पेट रखती है.]
राख पर अन्न पकता है तो ऋतु बदल जाती है.
चक्रवातों में कितनी ही धूल उड़े ---
                 खेत मिट्टी से खाली नहीं होते,   प्रिये!
[शब्दों से रिक्त पंक्तियाँ श्वेत पृष्ठ पर मौन व्यक्त नहीं करतीं :
                 अ-वर्ण का नील
                
आँखों में आकाश होता रहता है.]







8. बासी पानी की चिकनाई पर
ठीक है, -----
मैं काई पर पैर रखकर
पानी में चला जाता हूँ.
                    
तुम देखना :
                           बासी पानी की चिकनाई पर
                          
केवल पैर रखने की देर है! .....








9. रिक्त होने का आशय
तुम्हारा दिया हुआ कोई उपहार मेरे पास नहीं,
कि हाथ में. -----
                          कि जेब में. -----
                                                   कि आल्मारी में. -----
तुम्हारी कही हुई कोई बात इस सूने कक्ष में नहीं.
घर में कोई आहट नहीं,
तुम्हारे आने के पैरों की.
तुम्हारे हाथ का
कोई स्पर्श मेरी देह पर नहीं.
मेरी आत्मा पर तुमने कभी अपनी आँखें नहीं छुआई.
तुम्हारे न होने का एक अबाध रिक्त स्थान हैकेवल.
                                                 
जिसे मैंने,
कोष्ठक में बंद करके
पंक्तियों के सामने रखा है.
तुम्हारी ऐसी कोई स्मृति नहीं,
स्मृति का कोई चिह्न नहीं ----
कि उसे मैं साक्षी मानकर तुम्हारे होने-न-होने के अंतराल में
अपनी भाषा रख सकूँ.
मेरे पास कोई राह नहीं ----
कि मैं किसी पंक्ति से होकर कोष्ठक में आ सकूँ.
एक पंक्ति में भी यदि कोष्ठक के रिक्त होने का आशय
मैं नहीं बता सकूँ
तो तुम मेरी विवशता को क्या समझोगे?    [प्रिये!]
क्या कहोगे उस प्रेम को? --- जिसे मैंने हवा में किया,
                                              ---
और साँस घोंटी.





10. समय को चाहते हुए
होने/न होने की अ-वशता के बीच
क्या है? [या]
क्या नहीं है? ---- कि समय को चाहते हुए
आकाश की ओर नीली होती जाती रश्मियाँ
मेरी आँखें काटती हैं! .....
                      
जबकि, इन आँखों से मैंने तुम्हें देखा है
व समय को सुंदर कहा है!
















11. शैया पर
एक बल
देह सारी खिड़की की ओर
धकेलता हूँ : एक और सिलवट समेटता हूँ
                                            
शैया पर.
खिड़की के शीशे पर सूरज की छाप चौंकाती है :
                                              
धुंध जैसी चिलक में,
बंद कमरे के ओझल दृश्य धुँधले-धुँधले दिखाई दे रहे हैं-
[
किंवा, श्वेत पृष्ठ पर न लिखी पंक्ति का नील-वर्ण.]
कि, मैं खिड़की के खुलने की कल्पना करके
                                       
एक प्राण हो रहा हूँ :
            देह की शिथिलता में
           
निर्जीव होने की हानि सह सकने योग्य
           
यदि मैं इस समय होऊँ तो यह शीशे चटखें :
धूप यह भोर की नहीं ---
चढ़ती दोपहर की है. और मैं विपरीत-शीर्ष इसे देख रहा हूँ
कि यह भभककर मुझे प्रतीक्षा-मुक्त कर सकेगी ---
जैसे यह खिड़की खुलेगी!
                                     खुलेगी!
                                                      खु ले गी!
[जैसे यह खिड़की कक्ष को चौमुख भीत से बाहर करेगी.]







12. एक क्षण
एक क्षण
अपनी स्पृहा से बनने और बुझने के बीच शून्य
एक रचता है :
मै भी तो तुम्हारे निकट उतना ही हूँ
जितने कि तुम-
हमारे बीच एक क्षणिक अलगाव है.
जैसे प्रेम क्षणिक नहीं है :
                       ....बिछड़ते ही हम ऐसे मिलते हैं न!
                          
जैसे स्पृहा के सहसा विचलन में
                          
बिछड़ने का मन नहीं होता.

(ये कविताएँ रुस्तम सिंह के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं.)
________________________________________



अमिताभ चौधरी
थिरपाली छोटी   
चुरु (राजस्थान) 331305
amitabhchaudhary375@gmail.com


6/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. बहुत ही सुन्दर और मंजी हुई कविताएँ हैं। इन्हें छापने के लिए धन्यवाद। मेरे विचार में अमिताभ चौधरी इस वक्त हिन्दी के युवा कवियों में अत्यन्त महत्वपूर्ण कवि हैं।

    जवाब देंहटाएं
  2. तेजी ग्रोवर9 अप्रैल 2019, 10:24:00 am

    एक अच्छा कवि और मिल गया आज सुबह। पता नहीं क्यों रुस्तम ने कभी बताया नहीं मुझे। या बताया भी होगा तो फेसबुक से एक चिड़चिड़ापन जो तबियत में अनचाहे उतर आता है, उसके चलते मैंने ध्यान नहीं दिया होगा। इन कविताओं से पता चलता है कोई बिम्बधर्मी कवि अपने आसपास के संसार से कितने बारीक़ कश खींच सकता है, और उसकी सोच कैसे बिम्बों से उन्मत्त काव्य में रूपांतरित होती चलती है। इस कविता में सुरूर है, जुनून है, और काव्य संयम है...मज़ा आ गया पढ़कर। आभार रुस्तम। आभार अरुण देव। कवि को प्यार और दुलार।
    अमिताभ , आप अपने हिस्से में आई कविता को ठीक से निभा ले जाएंगे, कामना करती हूँ। यह आसान काम नहीँ है। आपको अपना जीवन ऐसा बनाये रखना पड़ता है कि हालात कुछ भी हों, वे कविता को पुष्ट करें, आप अपनी पूरी सामाजिकता को निभाते हुए भी कवि रहें, और अपने स्व की ब्रह्मांडीय अनुभूति से कभी भटक कर दूर न चले जाएं। दुनियावीपन की काट जिनके काव्य में गुम्फित है, उनकी ज़िम्मेदारी तो और भी बड़ी।

    जवाब देंहटाएं
  3. अमिताभ चौधरी को मैंने फेसबुक के माघ्यम से ही पढा और जाना...
    इनकी पोस्ट देखते ही ठहर जाती हूं कवितायें पढने के लिये.
    कई बार गई भी हूं सायास इनकी वाल पर कविताओं की खातिर.
    समालोचन पर उन्हें देखना अच्छा लगा.

    जवाब देंहटाएं
  4. Amitabh Chaudhary भाई की कविताएँ सुकून देती हैं. बधाई उन्हें समालोचन पर आने की ��

    जवाब देंहटाएं
  5. सुदर्शन शर्मा9 अप्रैल 2019, 3:15:00 pm

    अमिताभ इस दौर के undermined कवि हैं। उनकी कविताएं ठिठकने पर विवश करती हैं।
    किंतु वो लोकेषणा मुक्त काव्यकर्म में लीन तपस्वी हैं।अद्भुत बिंब और चेतना और अनुभव का एक अलग ही स्तर। साधुवाद समालोचन ।
    शुक्रिया।

    जवाब देंहटाएं
  6. Really marvellous poems,इस कविता के आगे नतमस्तक हूँ,सोचता हूँ पड़ कर, कितने गहरे और मौन होंगे अमिताभ जी, अरुण जी इन कविताओं के लिए आपको भी बधाई

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.