कोई चीज़ लाओ जिसको कोई न जानता हो : महेश वर्मा से मोनिका कुमार का संवाद





महेश वर्मा और मोनिका कुमार दोनों समकालीन महत्वपूर्ण कवि हैं. महेश वर्मा की कविताओं पर मोनिका कुमार ने यह जो संवाद संभव किया है वह इसलिए भी रेखांकित करने योग्य है कि अपने समकक्ष से समक्ष होने का यह दुर्लभ उदाहरण है. यह संवाद सिर्फ महेश वर्मा की कविताओं तक ही नहीं जाता यह हिंदी की २१ वीं सदी की कविता को समझने का रास्ता भी प्रशस्त करता है. वैसे भी दो कवियों की यह जुगलबंदी अपने आप में किसी कन्सर्ट से कम नहीं. महेश चित्रकार भी हैं. साथ में उनके चित्र भी दिए जा रहें हैं.

यह ख़ास प्रस्तुति समालोचन के पाठकों के लिए.

  

“कोई चीज़ लाओ जिसको कोई न जानता हो”                     
महेश वर्मा से मोनिका कुमार का संवाद





हेश वर्मा की कविता की पंक्ति है “कथा लिखनी चाहिए ऐसे कि पंक्तियों के बीच रिसते ख़ून से चिपचिपा जाए ऊँगली पृष्ठ पलटते, न हो भले ही कथा का शीर्षक- ‘रक्तपात’.”
महेश वर्मा का पहला कविता संग्रह “धूल की जगह” (रज़ा पुस्तक माला, राजकमल प्रकाशन, 2018) पढ़ते हुए मुझे लगा कि उनकी इसी पंक्ति के सहारे उनकी कविता के बारे में बात करना ठीक होगा क्योंकि उनकी कवितायें पढ़ने का मेरा अनुभव भी कुछ इसी तरह का है कि पृष्ठ पलटते हुए ऊँगली चिपचिपी होती है लेकिन तुरंत नहीं पता चलता कि पंक्तियों से कुछ रिस रहा है. यह शायद रिसने और बहने का अंतर है कि किसी द्रव्य के बहने का पता जल्दी लग जाता है लेकिन रिसने का पता देर से लगता है. कई बार पता नहीं चलता रसोई की शेल्फ पर रखी बोतल से तेल धीरे-धीरे रिस कर फैलता हुआ निशान बनाते हुए जगह को चिकना कर देता है, फलों सब्जियों पर फफूंद आ जाती है और वे पड़ी-पड़ी कब रिसने लगते हैं, पता नहीं चलता.

चूने से पुती दीवार से कब तेज़ाबी सीलन रिसने लगती है, कुछ और देखते हुए अचानक ही उस पर निगाह पड़ती है. एक बार मेरे सिर पर लोहे का दरवाज़ा लग गया पर लगा सब ठीक है, लेकिन कुछ देर बाद ऐसे ही हाथ बालों में चला गया तो उस पर ख़ून लग गया. चोट गंभीर नहीं थी लेकिन इस बात से हैरानी हुई कि ख़ून रिस रहा था और मुझे पता नहीं चला. रिसने की धीमी गति में दारुणता का अनुभव है जो बहने के किंचित शक्तिशाली अनुभव से अलग होता है.

महेश वर्मा की कवितायों में जीवन के ऐसे अनुभव या दृश्य चीन्हें हैं जो पार्श्व में घटित हो रहे हैं या फिर बड़े बड़े विवरणों के सामने अपनी लघुता स्वीकार करते हुए सिमट गए हैं, उनकी एक कविता माँ, पिता, भाई, पत्नी और बेटे के रात में सोने की कथा को दर्ज करती है. घर की स्त्रियाँ कहाँ और किस भंगिमा में सो रही हैं या भाई अब कैसे नहीं सोता- इस कहानी में दरअसल भारतीय परिवारों के सोने और जागने की कहानी दर्ज है. महेश वर्मा की कवितायें भाषा और जीवन के अधूरेपन, अनुपस्थित और अदृश्य को कवितायों में खींच कर लाती हैं कि कहीं हम पूर्णता, उपस्थित और दृष्टिगत के भ्रम में ही न खो जायें और इस तरह से उथले रूप से आशावान और शांत नहीं हो जायें कि पता ही न चले कि अपने शरीर, समाज और संसार में क्या रिस रहा है.

“वह भोलापन जो विश्वास करता है और सलोना है वह भी अविश्वसनीय हो सकता है –सहज अभिनेत्रियों से भरे इस संसार में
उस सलोनेपन के धब्बे आत्मा की जीर्ण देह पर देखे जाएँ बाद के किसी वर्ष”
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“संज्ञाओं, परिभाषाओं और उपमायों पर विश्वास न करता हुआ
ख़ालीपन हूँ चीज़ों के बीच छूटा हुआ”

महेश वर्मा की कवितायों की निशानदेही ऐसे नहीं की जा सकती कि ये प्रेम कवितायें हैं या सामाजिक चेतना की कवितायें हैं या दर्शन से भरे हुए आख्यान हैं बल्कि इसमें एक संवेदशील, यथार्थवादी और किंचित दुखोन्मुखी कवि के सभी तरह के दिनों की बात है. शवयात्रा में शामिल होता या शव के चेहरे का निरीक्षण करता हुआ कवि और गली में मुरम्मत की दुकानों पर जाता हुआ भी और प्रेम संबंध की अंतरंगता की जटिलता और सौन्दर्य को जानने की कोशिश करता हुआ भी. छतीसगढ़ का कवि है लेकिन आदिवासी कविता में उतना ही है जितना कवि को दिखा होगा. कवि के पास सूचनायें और ज्ञान तो होता है लेकिन ये सभी सामान और अनुभूतियाँ शायद बहुत धीरे धीरे कवितायों का रसायन बनती हैं, बहुत सारा समय, बहुत सारी जगहें, बहुत सारे विचार और विरोधाभास, बहुत सारी भावनाएं और संवेदनाएं एक कविता की पूर्व पीठिका तैयार करते हैं. महेश वर्मा चित्रकार भी हैं तो यह बात भी कविता को प्रभावित करती होगी. “धूल की जगह” में प्रकाशित कवितायों का गरिष्ट स्वाद उनके सभी तरह के दीर्घ अभ्यास का परिणाम मालूम होती हैं.

हिंदी का हर कवि हिंदी कविता और हिंदी भाषा की हमारी समझ में कुछ परिवर्तन करता है. महेश वर्मा के काव्य और भाषा के प्रयोग गुणात्मक तौर पर दोनों में कुछ बहुत नया और अच्छा जोड़ने वाले हैं. 

नया और अच्छा एक ही बात में कहें तो यह कि कवितायें रीडर-फ्रेंडली नहीं हैं. जबकि सरकार और व्यापार (कई बार साहित्य भी) लगे हुए है कि बेतुकापन और उबड़-खाबड़ ख़तम करके साफ़ सुथरा देश, इतिहास, नागरिकता और सरल साहित्य बनायें तो यह कवि बेतुकेपन को लगभग एक मूल्य की तरह प्रस्तावित करता हुआ धूल की जगह” लेकर प्रस्तुत हुआ है.

कवि के साथ यह बातचीत ई-मेल के माध्यम से लगभग पांच महीनों में पूरी हुई और इस समय में कवि का जल्द जवाब भेजने का कह कर लंबे समय के लिए अदृश्य हो जाना भी शामिल है.
मोनिका कुमार

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‘उदाहरण’ कविता पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे स्त्री के मन तक पहुँच बनाना दुरूह अभ्यास है. जैसे अँधेरे के नीचे उदासी और उदासी एक नीचे ठंडी त्वचा. फिर कथा के सरोवर की सीढ़ियाँ उतरना, समानांतर इतिहास में घोड़ो की टाप सुनना, आर्तनाद सुनना, गुस्से की इबारत पढ़ना और एक चुप्पी को जानना. यूँ तो किसी भी मनुष्य के मन तक पहुँच बनानी या उसे विश्वास दिलाना बहुत मुश्किल बात है, सभ्यता के विकास के इस दौर में हमारे अंतर्संबंध ऐसे हैं कि किसी मनुष्य के क़रीब जाना दीगर बात है लेकिन फिर भी यह कविता पढ़कर लगता है कि स्त्री मन को जानना, उससे परिचय करना सामान्य से कहीं अधिक लंबा काम है. अगर मैं कविता को ठीक पढ़ रही हूँ तो आपसे यह पूछना चाहती हूँ कि स्त्री का मन आपको अधिक अन्धकार में, अधिक गहराई में और कई भावनायों जैसे गुस्से, रहस्य और चुप्पी में एक साथ प्रतीत होता है तो ऐसा क्यों होता है

जहाँ तक इस कविता की स्त्री की बात है उसे इस ढंग से देखा गया है कि युद्ध, दंगे या जीत का उन्माद, बदले की कार्यवाहियां इन सब की कीमतें स्त्री ने अधिक चुकाई हैं. इससे उसके पास ऐसे दुःख जमा हो गये हैं जो सिर्फ स्त्री दुःख हैं. इस कविता में घोड़ों की टापें आर्तनाद वगैरह की बातें वही संकेत करना चाहती हैं. बहुत सारे ऐसे दुःख और यातनाएं हैं जिन्हें वह किसी से नहीं कहती, अपने पुरुष से भी नहीं.

इससे एक साझा स्त्री समझ का संसार बनता होगा जो बाहर के लिए और विशेषकर पुरुष के लिए रहस्यपूर्ण है. क्योंकि बहुत जगह वह (संसार) चुप है.

जानना वैसे भी एक विडम्बनापूर्ण बात लगती है. एक कोशिका के बारे में विश्वासपूर्वक कुछ कहना मुश्किल है. जिनके साथ बचपन से मैत्री रही आई हो ऐसे मनुष्य का व्यवहार प्रायः चकित कर देता है और सारे पूर्वानुमानों को झुठला देता है तो ऐसे में जानने के बारे में क्या कहा जा सकता है ? धीरे धीरे यह कुछ ना जान समझ पाने का बोध अधिक आवृत्ति के साथ सामने आ रहा है. अगर सतत यातना और त्रास ना हों तो यह औचक और रहस्यपूर्ण व्यवहार दुनिया का एकमात्र आकर्षण माना जा सकता है.

“परिप्रेक्ष्य पहले से मौजूद होते थे तब घटना होती थी”, “समय में संदर्भहीन जाने के लिए कला अपर्याप्त थी”, “तयशुदा दस्तावेज़ उत्तर मान लिए जाएँगे”, “आख्यानों के बगूलों से धुंधला हो जाएगा आकाश” आपकी दो कवितायों क्रमशः ‘कारण’ और ‘इस समय’ से लिए हुए वाक्य हैं लेकिन इस तरह का स्वर, असहायता का यह भाव, विकल्पहीनता की स्थिति आपकी बहुत सी कवितायों में प्रकट होती है मुझे भी ऐसा लगता है कि इक्कीसवीं सदी में परिप्रेक्ष्य का अतिरेक है, बहुलता चाहिए थी लेकिन अतिरेक हो गया, अति आख्यानों से धुंधलका हो गया जिन्हें ठीक से पढने की विधि अभी हम विकसित करने की प्रक्रिया में हैं. आपको क्या लगता है कि परिप्रेक्ष्य घटना से पहले भयावह रूप से मौजूद क्यों है? अक्सर तो यह माना गया कि समय में संदर्भहीन जाने से लिए कला बल्कि कला ही पर्याप्त साधन थी, कला हमेशा से वैकल्पिक संसार का पर्याय रही है लेकिन कला भी इस युग में अपर्याप्त क्यों हो गई?    

ज्ञान और सूचना की विराट और सहज उपलब्धता के साथ अभी हम ठीक से वैसा तादात्म्य नहीं स्थापित कर सके हैं जैसा औद्योगिक और पूर्व औद्योगिक समयों में सरल यंत्रों के साथ कर सके थे. समकालीन कला का भी इस पूरी क्रान्ति से  रिश्ता अपने जटिलतम रूप में है. कलाकार पर यह अतिरिक्त दबाव है कि उसकी कला ऐसी ना हो जिसे टेक्नोलोजी आसानी से एक फ़ॉर्मूले में बदल सके. सॉनेट और समाचार लिख सकने वाले सॉफ्टवेयर बहुत पहले आ चुके हैं. तो ऐसी कला का बनाना मुश्किल होता जा रहा है जो समय में संदर्भहीन जीवन से थोड़ी दूर ले जा सके.

आप किसी भी प्रमुख कला रूप को देखिये क्या वह नए स्वप्न हमारे सम्मुख रख पा रही है? वहां भी प्रक्रिया और तकनीक पर अधिक चर्चा है और सांसारिक आपाधापी में और तेज़ गति का दबाव उस पर भी है. कई जगह उसकी सीधे तकनीक से स्पर्धा है. नयी कला में प्राचीन से शोषण करने और तात्कालिकता के अनुरूप उत्पादन का गहरा दबाव है. एक और हिस्सा है जो निरपेक्ष सा है.

कला की आन्तरिक संरचना में भी बहुत बदलाव हुए हैं. सामने आ रही कला का बहुत छोटा हिस्सा अपने प्रेक्षक और भावक से जीवंत संवाद करता है. इसलिये लगता है कि कला का समानांतर संसार इस संसार का विस्तार है, वह इसी की कॉलोनी मालूम पड़ता है. एक उदाहरण है- आर्ट रिव्यू पत्रिका हर साल कला के सौ प्रभावशाली लोगों और संस्थाओं की पावर लिस्ट जारी करती है. मेरे देखते देखते इसमें कलाकार कम होते होते तीन चार की संख्या पर आ गये हैं और पूरी सूची गैलरी मालिकों, गैलरी निर्देशकों, नीलामी केन्द्रों और क्यूरेटर्स से भरी होती है. यही कला के ताकतवर लोग हैं कलाकार हाशिये पर है. ऐसी सूचियों को अंतिम नहीं मान सकते लेकिन इनसे एक प्रवृत्ति का तो पता चलता ही है.

अगर ताकत की राजनीति की बात करें तो वह पहले परिप्रेक्ष्य और यथासंभव तर्क भी पहले गढ़ती हैं, फैलाती है और फिर अपराध करती है. इससे यह अपराध जब वास्तव में घटित होता है तो उसकी कुछ स्वीकार्यता पहले से मौजूद होती है. वह सामाजिक चेतना पर उतनी क्रिया नहीं करती जितना उसे करना चाहिए.

देखेंगी कि आज जघन्यतम अपराध के पक्ष में आक्रामक तर्क देने वाले पर्याप्त मात्रा और ताकत के साथ मौजूद मिलेंगे जबकि शतप्रतिशत जनमत को इसके विरुद्ध होना चाहिये था. साफ़ दिखता है कि हम एक सैन्यवादी अवचेतन की ओर धकेले जा रहे हैं और मनुष्य समाज के रूप में हमारी समझ मध्ययुगीन होती जा रही है. अतर्क्य और निर्लज्ज झूठों को दोहराती सत्ता को अपने नागरिक के बौद्धिक और संवेदनात्मक पक्ष शत्रु लगने लगे हैं. माइथोलॉजी को इतिहास की तरह उद्धृत करने का चलन बढ़ता जा रहा है. रोजमर्रा का तो यह हाल है कि अगर आप कहें कि आज यह वृक्ष अलग ही सुन्दर दिखाई दे रहा है तो आपको सिरफिरा मान  लिया जा सकता है.

ऐसा लगता है कि शीर्षक ‘स्वीकार’, ‘आत्मस्वीकृति’, ‘कन्फैशन’ हो न हो लेकिन हर कविता या कहें कि समग्र साहित्य किसी प्रकार का स्वीकार या आत्मस्वीकृति की अभिव्यक्ति है, बल्कि अस्वीकार का आन्दोलन विषयक साहित्य भी पहले कुछ स्वीकार करता है और फिर अस्वीकार में प्रतिक्रिया दर्ज करता है. 400 ईस्वी में  संत अगस्तीन ने ‘कन्फैश्न्स’ लिखकर जैसे पाश्चात्य साहित्य परंपरा में सिलसिला ही छेड़ दिया, जैसे किसी ने एक शब्द दिया जिसे लोगों ने मन्त्र की तरह ग्रहण किया हो, यह कन्फैशन पर्दे के भीतर किसी पादरी के सामने नहीं बल्कि खुले में अज्ञात पाठकों के सामने है. आमतौर पर स्वीकार किसी अपराध का होता है लेकिन जिसने किसी भी भाषा या संस्कृति में ‘स्वीकार’ या ‘आत्मस्वीकृति’ के शीर्षक में लिखा, उसने इन शब्दों की अर्थवत्ता में भी इज़ाफा किया. अक्सर ये स्वीकार साहित्य के शिल्प में होते भी कवि के कातर रूप से परिचय कराने वाले होते हैं जिससे अचानक कवि कुछ और मनुष्य लगने लगता है. आपकी कविता ‘स्वीकार’ मुझे बहुत अच्छी लगी, किसी शहर में नए आए हुए मनुष्य को बहुत बार स्वीकार करना पड़ता है कि वह नया है, स्वीकार का एक रूप यह भी हो सकता है, ‘जल के लिए पुराना हूँ तो क्या ? इस नदी से तो नया ही साक्षात्कार था न !’, आपकी कविता का मनुष्य प्रागैतिहासिक रूप से नया होने की बात करता है जो पुराना होते होते भी हर क्षण किसी सापेक्ष संबंध में नया है और चूंकि नया है इसलिए आशंका और असुरक्षा से भी घिरा हुआ है, दृश्य के बदल जाने की कामना करता ‘आश्वस्ति की गोद’ में आना मुख म्लान गाड़ लेना चाहता है. बस नया ही है जो न्याय की गुस्सैल निग़ाह और जीभ काटने की धारधार छुरी से बचा हुआ है, यह कैसी विडम्बना है कि नया होना लाभ की स्थिति है लेकिन नया होना डरावना अनुभव भी है. प्रश्न के रूप में कोई वाक्य विन्यस्त नहीं कर सकी लेकिन जिज्ञासा अगर आप अपनी  कविता पर या कुछ और कहें.

अपने परिचय और सुविधा के संसार से बाहर का संसार जो तुलनात्मक रूप से बहुत बड़ा है वह पास जाने पर हर बार अपने नयेपन से विस्मित करता है. बहुत समय से एक का ही जगह रहते रहते यह आदत सी हो जाती है कि जाने पहचाने लोग और दृश्य मिलें जिनसे नियत ढंग का साक्षात्कार हो और इसे बारम्बार दोहराया जाए. लेकिन इससे बाहर आते  ही उस विराट अपरिचय के सम्मुख हतबुद्धि सा खड़ा होना होता है जहां सब कुछ नया है यहाँ तक कि सूर्यास्त और हाटबाज़ार का दृश्य भी. यह नया और अपरिचित भी, लघुता और एकाकीपन का बोध कराता है और इसीलिए विनम्र भी बनाता है.

रोज़गार के सिलसिले में या यूं भी किसी अनजान सी जगह पर इस खिलवाड़ का विचार मन में आता है कि अभी इस क्षण यहाँ हूँ इसका अनुमान कोई भी नहीं लगा सकता. किसी नए कमरे में, सड़क या नदी के किनारे कहीं भी यह ख़याल आता है और एक अपरिभाष्य सी मनोदशा में ले जाता है.

यह अपरिचय, यह नयापन थोड़ा रूमानी सा भी है थोड़ा एकाकी होने का भयभीत आत्म गीत भी है. कुछ भी हो इसे स्वीकार करने में बाकी संसार से अपने रिश्ते का परीक्षण भी चलता रहता है.

कवि के लिए अंबिकापुर में रहना कैसा रहना है ? कवि अंबिकापुर में क्या देखता है ?

इस जगह से बेज़ारी, मोहब्बत और पस्ती का रिश्ता है. यहाँ सभी पुराने लोग ही एक दूसरे को नहीं पहचानते, पुराने मकान और गाड़ियां भी एक दूसरे को जानती हैं. अम्बिकापुर अपने ढंग का मोकोंदो (mocondo) ही है. बस यहाँ केले के अनगिनत पेड़ नहीं हैं ना कोई नदी आसपास. यह भी आधा यथार्थ में है आधा गल्प में. हर मोहल्ले की भाषा अलग भंगिमा रखती है और हर मोहल्ले का हास्यबोध अपने शिल्प में थोड़ा अलग है लेकिन पुराने लोग इस अंतर के भीतर भी मूलतत्व देख लेते हैं. कवि इनमें से अधिकाँश के बीच Poseidon की डॉल्फिन्स की तरह सहज तैरता है. यहाँ इतने संस्मरण हैं कि कुछ औचक और विस्मयपूर्ण हो पाना लगभग असंभव है. यह एक उजागर और दोस्ताना सी जगह है जहां मौसम बहुत मेहरबान हुआ करता है और रेलगाड़ियाँ यहाँ से खफ़ा-खफ़ा सी रहती हैं.

पुराने लोग पिता और भाई के रेफरेंस से ही पहचानते हैं और यह होता है कि सुबह किसी शवयात्रा और अंतिम संस्कार में मिले लोगों में से कुछ, शाम किसी विवाह समारोह में मिल जाएँ और हममें से किसी के चेहरे पर सुबह की मृत्यु का चित्र ना दिखाई दे. कवि होने ना होने से यहाँ कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता. स्थानीय हाइरार्की दुनियावी उपलब्धियों को ठेंगे पर रखती है.

अगर अम्बिकापुर के स्थानीय इतिहासबोध, भाषाविज्ञान और दर्शनशास्त्र की समझ ना हो तो यह आपके लिए एक बंद जगह है.

बुत शब्द बुद्ध से बना है और हिप से हिप्पी. आकाशगंगा की आकृति एक सोये हुए पुरुष के जैसी है और ऊँचे दर्जे के कलाकारों से भगवान खुद फेसबुक पर चैट करते हैं. निकम्मा समझे जाने पर चिढ़कर कैसे थेलीज ने तारे देखते देखते बता दिया था कि इस साल जैतून की फसल बहुत होगी, कांट अपने ढीले पायजामे की कमर संभालने के लिए टीन की डिबिया खोंसे रहता था. वैज्ञानिकों से पूछिए हिरण्यगर्भ विस्फोट जिसे आप लोग बिग बैंग कहते हैं उसके पहले क्या था ? जब सृष्टि बिंदु स्वरुप थी उससे पहले कारण स्वरुप कोई वस्तु नहीं थी यह तो सिद्ध हो चुका है कि वह ध्वनि ही थी. तो बताइए वह ध्वनि क्या थी? जान बचानी है तो बोलिए ओम की आवाज़.

यम, नियम, आहार, विहार, ध्यान, धारणा समाधि वगैरह की सूची बताकर कोई भी विद्वत्तापूर्ण मुंह बना सकता है. गीता पर अपनी मास्टरी है कहते हुए एक संस्कृत श्लोक कभी भी आ सकता है, यहाँ संधिविच्छेद के माहिर फ़नकार हैं और तत्क्षण तुक लगाकर आपकी  बात का मखौल बनाया जा सकता है.

‘छंद-भंग पर हो गया था हृदयाघात’ किंवदन्ती पर आपको विश्वास है ? अपनी कविता ‘नसीहत’ में तो वैसे आपने इसे गीत के सन्दर्भ में प्रयोग किया है कि इस किंवदन्ती पर विश्वास करते हुए गीत लिखना चाहिए लेकिन मेरी समझ से इसका आशय किसी भी किस्म के काव्य से है. आधुनिक कविता में छंद का पारंपरिक प्रयोग नहीं है तो फिर कविता किस किंवदन्ती पर विश्वास करते हुए लिखनी चाहिए ?

आधुनिक कविता इस किम्वदन्ती पर विश्वास करते हुए लिखनी चाहिये कि अभी की सारी कवितायेँ मिलकर मनुष्य के अंतर्जगत, उसके संसार, उसकी फंतासियों और स्वप्नों को कम से कम कहीं दर्ज तो कर ही रही हैं. अलग-अलग भाषाओँ और जगहों के कवि इसी विशाल परियोजना के अपने छोटे से हिस्से का काम कर रहे हैं और यह एक ज़रूरी काम है जिसे आगे बढ़ कर हमने खुद चुना है.

छंद भंग वाली किंवदंती पर मुझे विश्वास नहीं है लेकिन अगर किसी गीतकार को है तो मुझमें उसके उस विश्वास के लिए आदर और समर्थन है.

मेरा यह प्रश्न आपकी कविता ‘मछलियों’ से संबंधित है. हालाँकि आपने कविता की पात्र को अत्याधुनिका कहा है पर कविता पढ़ने पर लगता है ‘अत्याधुनिक’ शब्द का आपका प्रयोग बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वैश्वीकरण और पूँजीवाद के प्रभाव से निर्मित हुए सांस्कृतिक और राजनैतिक ‘उत्तराधुनिक’ यथार्थ के आशय से मिलता जुलता है. उत्तराधुनिकता में यथार्थ को कुछ इस तरह देखने का चलन बना कि कोई भी मूल्य या धारणा स्थिर नहीं है, इसी विचार के अंतर्गत हाई और लो आर्ट के भेद को मिटने की भी कोशिश की गई और एक वस्तु को बिना किसी एक पक्ष का वर्चस्व बनाए बिना उसे उसके सबसे गंभीर और हास्यास्पद पक्ष के साथ एकसाथ देखने की कोशिश की गई. कुछ ऐसी ही कवायद से आपकी कविता का पात्र अन्य अत्याधुनिक पात्र से मज़ाक में कहता है कि मछली के एक चित्र से सब कुछ का चित्र बनाया जा सकता है, अपने इस विचार को और साफ़ करने के लिए वह कहता है कि इसी चित्र से एक फीमेल न्यूड का चित्र और उसके गुप्तांग का चित्र भी बनाया जा सकता है और उसके ठीक बाद हाईपररिअल अंदाज़ में सारा दृश्य एक फिल्म में बदल जाता है जिस फिल्म में कैमरा सीधे सार्वजानिक मूत्रालयों पर रोका जाता है. आप बताएँ यह कविता लिखने का ख्याल कैसे आया या अगर इसके लिखने का कोई पूर्व संदर्भ है ?

इसे आधुनिक कला में होने वाले आडम्बरपूर्ण संवाद की कल्पना करते हुए उस पर व्यंग्य के रूप में शुरू किया था. लिखते हुए बीच में कैमरे की आंख से देखने का नाटकीय ढंग प्रवेश कर गया. संवाद एक झूठ से शुरू होता है कि एक मछली से सबकुछ का चित्र बनाया जा सकता है. नशे और बोल्ड दिखाई देने की लपट  में बातचीत शायद बहकती है तो पुरुष का गंभीर, भयभीत और परास्त कायांतरण होता है क्यूंकि अत्याधुनिका के प्रश्न के आगे के संवाद उसके पास नहीं है. सार्वजानिक मूत्रालयों में चित्रित कुंठा के रेखांकनो पर कैमरे को रोकने का विचार इस कृत्रिम संवाद के औचक अंत की तरह आया है लेकिन वहाँ के चित्रों और कविता के चित्रों में कोई निस्बत बनती भी है.

कोई एक ख़ास बात पूछने से हो सकता है सबसे ज़रूरी बात आने से रह जाए इसलिए मैं खुले प्रश्न की तरह पूछती हूँ कि आपका बचपन कैसा बीता ?

पिता चाहते थे कि मैं स्कूल न जाऊं. खेलूं–कूदूं  और स्वतंत्र बचपन का आनंद लूँ फिर सीधे मुझे आठवीं बोर्ड की परीक्षा दिलाई जाये. पिता शिक्षक थे और मैं परिवार में सबसे छोटा. एक शिक्षक और अभिभावक के रूप में शायद यह उनके अनुभव का निचोड़ जैसा कुछ रहा हो. तो आठ साल की उम्र तक स्कूल से मेरा सामना नहीं हुआ. इस बीच मुझे बुनियादी चीज़े जैसे गिनती और अक्षर वगैरह अज्ञात ढंग से सिखा दिए गए. शायद दीदियाँ इसके लिए कुछ यत्न करती हों कि पिताजी के बौड़मपन में उनका दुलारा भाई अनपढ़ ना रह जाये. पिता बस हस्तलिपि और मात्राओं की शुद्धता वगैरह के लिए रोज़ एक पेज लिखने को कहते थे जो थोड़े बहुत नागे के साथ मैं कर दिया करता था.

आठवें साल में यह होने लगा कि जब दोस्तों के घर पहुँचता तो पता चलता कि वो स्कूल गए हैं और उनकी माएं यह कहने से नहीं चूका करती थीं कि उनके बच्चों को रोज़ स्कूल जाना होता है और वहाँ मुश्किल पढाई करनी पड़ती है. इस बात का सबटेक्स्ट यही हुआ करता कि तुम्हें क्या, यह सब कुछ करना नहीं है. इससे मैं स्कूल जाने के आवेगपूर्ण सपने देखने लगा. सोते से उठ जाता और स्कूल के विषय में औल फ़ौल बड़बड़ाने लगता. तो घर वालों ने समझ लिया कि स्कूल भेजना ही पड़ेगा. घर के पास के स्कूल में मुझे कक्षा तीसरी में  भर्ती कर दिया गया. पहले दिन स्कूल के लिए दीदियों ने तैयार किया. एक अलुमिनियम के स्कूल बक्से में अनुमान से कापियां, स्लेट, पेंसिल, टिफिन और एक सफ़ेद रंग का फाउंटेन पेन रख कर मुझे स्कूल पहुँचाया गया. यहाँ के स्टाफ भी हमारे परिवार का परिचित सा ही था. पहले दिन छुट्टी की घंटी बजी तो बिना अपना बक्शा लिए मैं छुट्टी  लाइन में खड़ा हो गया. असेंबली के छोटे से मंच से बक्से को ऊपर उठा कर दिखाते हुए और मेरा नाम पुकारकर मुझे बुला कर इसे वापस किया गया.

बाकी समय में मोहल्ले के हम सभी साथी बहुत खेलते थे और पास के बड़े बड़े वृक्षों पर चढ़ जाते, तालाब में नहा आते, साँपों और केकड़ों का जीना दूभर किये रहते और घर वालों को इन सब की हवा नहीं लगने देते.

घर के बिलकुल पास मदन दाजी हैं. हर साज़ बजा लेते हैं और कुछ समय मिलिट्री में भी रहे. बचपन में उनके घर जाता तो उन्हें कभी बांसुरी कभी ड्रम बजाते देखता था. वो मेरे लिए पतंग बना देते और कभी कभी बांस से तीर धनुष भी. हम सब साथियों को विश्वास था कि दाजी जादू भी जानते हैं और जूडो कराटे के माहिर भी हैं. दाजी के पास कमांडो ट्रेनिंग, रहस्य विद्या और साँप पकड़ने के अनेक संस्मरण हैं. दाजी को उसी जिज्ञासा और अदब से अब भी हम लोग सुनते हैं.

एक मुन्ना थे जो रहस्यपूर्ण मुस्कान के साथ चुप रहते थे और शतरंज खेलते थे और महीन आवाज़ में पूछते- ‘क्या मामाजी?’ गुलाब सिंह कभी कभी आते थे जिनके बारे में कहा जाता था कि गणित अधिक पढने से उनका दिमाग फिर गया है. वे सुन्दर राइटिंग में दीवार या सड़क पर कुछ असंगत लिख देते जैसे “कूदे + चाय” और अचानक अपनी नकियाई सी आवाज़ में मन डोले मेरा तन डोले गाने लगते. फिर भी उनका सम्मान था. हम लोग उन्हें दूर से देखते. जली हुई मोबिल के कालेपन में डूबे हुए विक्षिप्तों और भिखारियों को कभी सीआईडी ऑफिसर कभी विदेशी जासूस मानकर हम लोग कुछ दूर तक उनका पीछा किया करते फिर अपने डर की सीमा से पहले लौट आते. पैलेस में रखी तोप का गोला चालीस किलोमीटर दूर जाकर फटा था यह कथा बार बार सामने आती और एक लड़भड़ थे जो रविवार को घोड़े पर आते. जहाँ उनका घोडा रुकता उस घर से लड़भड़ के नाम पर कुछ अनाज भिजवा दिया जाता. लड़भड़ कभी घोड़े से नहीं उतरते थे.

मुझे पसंद किया जाता था लेकिन हंसमुख और खुशमिजाज़ बच्चे के रूप में अपने को याद  नहीं कर पा रहा हूँ. बहुत सा हिस्सा भूल गया तो भी सामने एक बढ़ई परिवार था जहाँ मैं अपनी काठ गाड़ी सुधरवाने या गिल्ली बनवाने जाता तो वहां के कारीगर गाना सुनाने की शर्त पर  ही काम कर के देते थे. तब मैं जल्दी से उनके लिए कोई फ़िल्मी गाना सुना देता. बहुत जिद्दी भी था.

मुझे लगता है हम समय और इतिहास के ऐसे दौर में पैदा हुए हैं जहाँ मनुष्य की महान समर्थताएँ जैसे ज्ञान, तर्क, अनुभूति और अध्यात्म क्लांत पड़ गई हैं. ऐसा नहीं होता तो शायद आपकी कविता ‘लाओ’ का स्वर इतना तीव्र न होता, मनुष्य हमेशा अज्ञात से आकर्षित रहा है, हमारा वर्तमान संसार उसकी अनंत जिज्ञासाओं और उद्धमों का प्रतिफलन है लेकिन वह ज्ञात और परिचय के सुख में स्थित रहने वाला संतुलित मनुष्य भी रहा है लेकिन इस दौर में वह उद्विग्न होकर ऐसी चीज़ के लिए ज़िद्द करता हुआ मिलता है ‘जिसको कोई न जानता हो, जिसके बारे में कुछ बताने की असफलता को भी कोई समझ न पाए’ और जो ‘ज्ञान, तर्क, अनुभूति और अध्यातम सब को धता बताती हुई पहली बार की तरह आए’. मुझे हमारी पीढ़ी की यह स्थिति ज्ञान, तर्क, अनुभूति और अध्यात्म के सिलसिलों में अंतिम मनुष्यों जैसी प्रतीत होती है जिनके लिए जीवन की नैसर्गिकता और स्वाभाविकता परिपाटियों, व्याख्यायों और विधियों में उलझ कर लगातार सीमित होती हुई क्षीण हो रही है. निश्चित ही इसका सामना करने के लिए मनुष्य अपने तरीकों से संघर्षरत हैं लेकिन हमारे संघर्ष की जड़ों में निराशा अधिक और आशा कम है क्योंकि संघर्ष के इतिहास भी बताते हैं कि नीयत और कर्म की ईमानदारी के बावजूद हम निरंतर मनुष्य होने का गौरव खो रहे हैं. जो ‘लाओ’ में आप मांग रहे हैं, अगर वह चीज़ कोई और या मान लीजिये मैं आपसे मांग रही हूँ तो आप उसे खोजने, ढूँढने या पाने की क्या युक्ति या सुझाव देंगे?  

सवाल के अगर आखिरी वाक्य से शुरू करें तो मेरा कहना है कि युक्ति और सुझाव मेरे पास नहीं हैं लेकिन कुछ बातें हैं. हमारे समय की वैचारिकी में भी अनेक उलझी हुई अन्तर्धाराएँ हैं जिनके केंद्र में भाषा विज्ञान, शक्ति संरचना, नृविज्ञान, प्रयोजनवाद आदि आदि हैं. कई बार लगता है कि मनुष्य और प्रकृति के सुरक्षित सहअस्तित्व, अपनी नियति को बदल सकने की मनुष्य की क्षमता जैसे बुनियादी सवाल आज की विश्वदृष्टि से ओझल से हैं.

इस कविता का स्वर ऐसा हो गया है कि इसे यह बताने की जल्दी हो कि उस वस्तु या अवस्तु को कैसा ‘नहीं’ होना चाहिये. यह आने वाले नए को पहले से प्रश्नांकित करने की तरह है या उसके परीक्षणों कि अधूरी सूची यह कहना मुश्किल है. लगता है की कवि को ‘कोई चीज़ लाओ’ यह विचार सूझा और फिर इसके होने को मुश्किल से मुश्किल बनाने की शर्ते इसमें जोड़ दी गयीं. एक ढंग से यह जरुरी भी था क्योंकि उपलब्ध चीज़ मांगकर कविता क्या करती?

मैनें अनुभव किया है कि आप हिंदी से लेकर विश्व कविता पढ़ने बल्कि उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर पढने के शौक़ीन हैं. कविता पढ़ने के अपने अनुभव कुछ बताएँ कि कविता के भूगोल पर आपने अभी तक कैसे यात्रा की ?

घर पर बड़े भाई प्रभु नारायण वर्मा की ठीक-ठाक लाइब्रेरी पहले से थी तो वहां पढ़ते ढूढ़ते कुछ साल बाद किसी दिन भाई ने कहा तुम तो कविता अधिक पसंद करते हो ना? उस समय से पहले सोचा ही नहीं था कि एक पाठक के रूप में मेरी पसंद क्या है. तो मुझे भी लगा कि हाँ ये तो सही है.

उनके पास हिंदी, हिंदीतर भारतीय और विश्व कविता के अच्छे अनुवाद थे और भारतीय और विश्व कविता पर केन्द्रित पत्रिकाओं के चुनिन्दा विशेषांक भी थे.

इंटरनेट आने के बाद से यह भी हुआ है कि  पहले कोई ऐसा देश खोजना जिसका नाम भी नहीं सुना हो फिर उसकी भाषा की कविता का अंग्रेजी अनुवाद ढूँढना. यह एक मनोरंजक खेल रहा है.

एक बार जैसा आपने भी देखा था कि बीबीसी पर एक समाचार था कि लातविया  के लोग सबसे कम बात करना चाहने वाले देशों में अव्वल हैं. मतलब वह के लोग मुख्य मार्ग का उपयोग तक नहीं करते कि किसी परिचित से साक्षात्कार ना हो के जाये. तो सोचा कि इतना कम बोलने वाले देश के कवि कैसा लिखते होंगे तो इस तरह की भी बात हो जाती है.

कभी ये भी होता है कि किसी सन्दर्भ में किसी कवि का नाम आ जाये तो उसे ढूँढना. मुझे लगता है सब ऐसा ही करते हैं. कभी कभी 1969 में जन्मे कवियों को खोजता हूँ कि मेरी उम्र के कवि कैसा लिख रहे हैं. मतलब बहुत साधारण से फ़िल्टर हैं लेकिन इससे दिलचस्प चीज़े सामने आती हैं. अनुवाद पर बहुत निर्भर होना होता है फिर भी हिंदी में भारतीय और विश्व कविता के अनुवाद की पचास तो अच्छी किताबें निकल ही आएँगी जो एक जीवन भर पढने को कम नहीं हैं. एक  ही कवि को बरसों तक पढना अच्छा लगता है. इस तरह कुछ ही संग्रह हैं जिन्हें अदल बदल कर बरसों से पढ़ रहा हूँ.

संगीत सुनने के बारे में बताईए.

बहुत सी अच्छी चीजों की तरह संगीत सुनने का शौक भी बड़े भाई से ही मुझ तक आया. पिताजी सहगल के अनन्य प्रेमियों में से थे. रेडियो सिलोन से आठ बजने में पाँच मिनट पर सहगल का एक गीत बजता था. उस समय के आस पास पूजा रोक कर पिताजी दीदियों में से किसी एक को सिलोन लगाने को कहते, पूजा घर के बाहर रेडियो रख दिया जाता वे पूजा घर में बैठे-बैठे सहगल का एक गीत सुनते और उसके बाद आगे की पूजा करने लगते. उस दौरान घर में चुप्पी रहती. उस समय सहगल मुझे तनिक पसंद नहीं आते थे. बहुत बाद में उनके तिलिस्म में थोड़ा प्रवेश मिला.

घर में पहला कैसेट प्लेयर और फिर रिकॉर्ड प्लेयर भाई ले कर आये और देखते देखते कैसेट्स और रिकार्ड्स का एक उम्दा और वैविध्यपूर्ण संग्रह तैयार हो गया. भाई शुरू से बेगम अख्तर के मुरीद रहे हैं. मैं जब किसी दूसरे गायक को सुनता मिलता तो भाई कहते– देर सबेर तुम्हें भी बेगम अख्तर ही पसंद आयेंगी. यही हुआ भी. मुझे फ़िल्मी गीत, गजलें, कव्वालियाँ और शास्त्रीय संगीत सुनना पसंद है. बहुत धीमी गति से अभी सीखना शुरू किया है कि कम से कम कुछ समझ सकूँ. इधर ये भी हुआ है कि बचपन में सुने रिकार्ड्स और उसके गायकों को यूट्यूब पर ढूंढ कर सुनना.

एक स्थानीय संगीत विमर्श भी धर्मयुद्ध की तरह चलता रहता है. जैसे नुक्कड़ पर, चाय ठेले पर जबरिया कान में सुनाये गये फ़िल्मी गीतों पर हुज्जत, कल रात हुए ऑर्केस्ट्रा की समीक्षा और उसमें संशोधन के प्रस्ताव. यह प्रायः उत्तेजना की उन ऊँचाइयों तक सहज ही पहुँच जाया करता है जहाँ प्रेक्षक को यह भय हो जाए कि किशोर दा वाले और रफ़ी साब वाले, लता दी वाले और गीता दत्त वाले एक दूसरे की हत्या भी कर सकते हैं.

भातखंडे ने क्या कहा था इससे क्या होता है? अभी लाओ हारमोनियम तुम अपना सा लगाओ मैं अपना सा लगाता हूँ, कौन बेसुरा है क्लीयर हो जाएगा. आवाज़ को सीढ़ी सीढ़ी उतारना चाहिए.

यह संगीत- गुस्से, बेढंगेपन, दोस्ताना इर्ष्याओं और अनंत बकझक की आदिम सिम्फनी है. यह स्मरणशक्ति का महाबली है. संगीतकार रवि की बुआ की शादी किस गाँव में हुई थी यह तक बता देने वाले राव साब मरहूम की जगह अब भी खाली ही है. अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन से अपनी पसंदीदा ग़ज़ल– चल मेरे साथ ही चल को फरमाइश करके सुन लेने के संस्मरण हैं और बीस साल पहले उषा उत्थुप नाईट में कितनी भीड़ थी की हैरत किसी शाम अब भी हमारे सर पर मंडरा सकती है. 

हंगामा है क्यूँ बरपा वाली ग़ज़ल में गुलाम अली ताल से कट गए हैं, कोई मानेगा? क्या खुराक थी बड़े गुलाम अली की! लानत जनरल जिया उल हक़ को कि मेहदी हसन जैसे फ़रिश्ते को छह कोड़े की सज़ा दी. मोहम्मद रफ़ी का गाना रेकॉर्ड करने वाले साउंड रिकार्डिस्ट से 2007 में बोम्बे में मिला था. कल्याण जी के पास अनोखा क्ले वायलिन था और सहगल को भूत ने अंगूठी दी तब उनकी किस्मत पलटी.


आपकी कवितायों का काव्य-पुरुष अतीतजीवी भी प्रतीत होता है जिसके गहरे संबंध यदि हैं तो वह वर्तमान में नहीं अपितु किसी प्राचीनता में अवस्थित हैं. आपकी कई कवितायों में यह काव्य पुरुष किसी सामानांतर भूगोल में अंतरंगता ढूंढता हुआ मिलता है. उदाहरण के तौर पर अगर आपके संग्रह की शीर्षक कविता धूल की जगहपढ़ें तो हमें वहां यह मिलता है :कुछ आहटें बाहर की कुछ यातना के चित्र ठंड मेंपहनने के सारे कोट और कई जोड़े जूते हमारेपुरानेपन के गवाह जहाँ मालूम था कि धूपआने पर क्या फैलाना है, क्या समेट लेना हैबारिश में.कोई गीत थे तो यहीं था.
दुनिया के किसी भी कोने और संस्कृति में जीते हुए जब मनुष्य को धूप और बारिश से अपने संबंधों की विस्मृति होने लगे तो यह चिंताजनक बात है लेकिन इस बदले हुए समय में पुरानियत में जीने के अपने दुःख है. तो फिर क्या करें


शिम्बोर्स्का कहती हैं कि –
‘जैसे ही मैं उच्चारती हूँ शब्द भविष्य,
पहला अक्षर पहले ही अतीत में चला जाता है.'

एक ढंग से हम लोग अतीत ही हैं. इन कविताओं में स्मृति का बहुत इस्तेमाल किया गया है अजीब बात है कि मुझे याद बहुत कम रहता है और भविष्य से बहुत उम्मीदें हैं, तो ऐसा लगता है कि लिखा हुआ अपने ही  ख़िलाफ़ जा सकता है.

'धूल की जगह' कविता मेरी ओर से यह कहने की कोशिश है कि जीवन के भीतर क्षरण और अंततः अंत अपना आकार लेते रहते हैं. इसे अनेक उदाहरणों से याद किया गया है. आपने सही कहा है कि अतीत स्मरण के अतिरेक के खतरे हैं. प्रमुख है पुनरुत्थानवाद का ख़तरा लेकिन मुझे लगता है कि ये कविताएँ अतीत की ऐसी यात्राएँ नहीं करतीं. ये कुछ नज़दीक के अतीत को कविता के ढंग से याद करती हैं या प्रागैतिहासिक अतीत के पैमाने से मनुष्यता को मापना चाहती हैं. रघुवीर सहाय ने किसी संग्रह की भूमिका में लिखा कि- 'वह कितना सुंदर था जो छोड़ आया हूँ और दुखी नहीं हूँ.'


"अंतिम रात" जैसी कई कविताएँ पढ़ते हुए लगता है जैसे आप जीवन के अंतिम छोर पर खड़े होकर कविताएँ लिख रहे हैं, जैसे क़यामत आ चुकी है, "न नौ, न सात, न तेरह, न तीन" "धार्मिक भी मारे गए अधार्मिक भी". आपकी कल्पना में इतना नैराश्य क्यों है ? क्या नमक सिर्फ ज़िन्दगी के बदले प्राचीन तुला पर तौल कर मिलने लगे तो जीवन का शुभारंभ होगा ?

इस नैराश्य पर अक्सर उँगली रखी गई है. ख़ुद मैं भी इसे लौटकर देखता हूँ. इसके कारण जितने आंतरिक हैं उससे कम वाह्य नहीं हैं. हमेशा महसूस हुआ है कि जैसे जेनेसिस की सात दिनों में बनाने की कथा है उसका विलोम शुरू हो चुका है.

आपकी कवितायों को शोर में, भीड़ में, धक्कमपेल में या कहिये कि समकालीन शोर शराबे में नहीं पढ़ा जा सकता या शायद मैं नहीं पढ़ सकी, कुछ कवितायों को छोड़ कर जो अपेक्षाकृत स्पष्ट लगती है या जहाँ कविता पढ़ने का अभ्यास या अनुभव काम आ जाता है, ज़्यादातर कविताएँ निरंतर पढ़ते रहने से और क्रमवार पढ़ने में समझ में आती हैं, आप कविता शुरू करने का कोई माहौल नहीं बनाते हैं बल्कि कहीं से भी शुरू कर देते हैं और एकदम अन्तरंग भाषा में शुरू करते हैं जैसे कि सुनने वाला आपकी चेतना को  बख़ूबी जानता है. क्या आपको पाठक पर विश्वास है ? जब आपने कवितायें लिखनी शुरू कीं तो आपको पढ़ने वालों से क्या सुनने को मिला था

यही सुनने को मिलता थी कि समझ नहीं आतीं, पता नहीं क्या है वगैरह.
पाठक को समझाया जाए यह मेरे मन का काम नहीं है. सभी समकालीन कलारूप अपने भावक से एक प्राथमिक किस्म की तैयारी की मांग करते हैं, उतनी ही मांग मेरी कविता भी करती होगी.
क्रमबद्ध, सुसंगत और तार्किक ढंग से बढ़ना कविता का चरित्र नहीं है. यह काम कथा, समाचार, डायरी, आत्मकथा आदि पहले से कर रहे हैं. अमूर्तन और कल्पना को और जगह मिलनी चाहिए लेकिन पता नहीं क्यों ऐसी कोशिशें पाठक के हास्यबोध को जगा देती हैं.

विश्वास है कि (मेरी भी) कविता को पाठक मिलते हैं जो इस अराजकता को लेकर सहिष्णु हैं.

क्या मृत्यु का विचार या जिसे हम 'डैथ विश' कहते हैं- हमेशा आपके मन में चलता रहता है ? क्या मृत्यु मनुष्य को भव्य बनाती है 

अभी तो मृत्यु को लेकर सहज ही हूँ. मुझे बहुत लंबी उम्र की इच्छा है, कम से कम नब्बे वर्ष. बहुत से अंतिम संस्कारों के अनुभव से कह रहा हूँ कि मृत्यु शांत और निरपेक्ष बना देती है,मृत व्यक्ति के जैसा चेहरा नहीं बनाया जा सकता.

आज का दिन कैसा गुज़रा ? मृत्यु का ख़याल आया ? 

बारिश और ठंड के कारण माहौल में उदासी है. कुछ मन का कर नहीं पाया. मृत्यु का ख़याल एक बार कुछ पल के लिए आया था यह सोचते हुए कि लोग कहाँ पहुंच कर यह कह पाते होंगे कि अब उठा ले भगवान वगैरह.

आपके घर परिवार में और लोग भी कवि हैं ? 

हाँ मुझसे बड़े भाई ने कुछ कविताएँ लिखी हैं लेकिन उनका मन कहानी लिखने में अधिक रमता है.

आजकल, इन दिनों क्या सोचते हैं ? 

भारत की राजनीति और पेंटिंग करने के बारे में बहुत सोचता हूँ. बड़े-बड़े कैनवस कल्पना में बनते मिटते रहते हैं इससे कई बात विकल और उत्तेजित होकर बाहर घूमने निकल जाता हूँ. फ़िर लौट आता हूँ. राजनीति के बारे में सोचते हुए लगता है इस मौजूदा फॉर्मेट से कोई सच्ची राह निकलना मुश्किल है. और कुछ निजी बातें भी सोचता हूँ.

कई बार
बहुत सा सोचा हुआ तो इतना बेतुका होता है कि कहाँ से सोच कहाँ पहुंच गई, यह सोचा हुआ भूल जाता है.

पिछली बार कब हैरान हुए ? ऐसा कुछ जिसने आपकी किसी धारणा, कल्पना या विचार के समक्ष कुछ अभूतपूर्व रखा हो. 

अभी याद नहीं आ रहा. लेकिन ऐसा होता रहता है.
देश दुनिया की पेंटिंग्स देखते ऐसी हैरानी अक्सर होती है.
जर्मन विजुअल आर्टिस्ट Gerhard Richter की पेंटिंग तकनीक देखकर हैरानी हुई थी.

कुछ कवि होंगे आपके सोल-मेट्स जैसे ? जीवित या मृत, यहाँ के या दूर के ?
हाँ हैं ना.

राजकमल चौधरी, के. सच्चिदानंदन, दिलीप चित्रे, शंख घोष, नबनीता देवसेन, और अनुवाद में उपलब्ध पोलिश, स्वीडिश और नॉर्वेजियन कवि.

नवनीता देवसेन आपको क्यूँ अच्छी लगती हैं ? आपने उनपर कविता भी लिखी है. 

सबसे पहले मैंने उन्हें समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका में पढ़ा था. अनुवादक उत्पल बैनर्जी का नाम याद नहीं रहा. दसेक साल बाद उनकी दूसरी कविताएँ पढ़ने को मिलीं और अनुवादक से संवाद भी हुआ. मुझे लगता है उनकी सच्ची आवाज़ में कोई मिलावट नहीं है और वह बहुत भीतर से आती हुई बेधक आवाज़ है.

और क्या पूछना चाहिए ? कुछ जो इन प्रश्नों के दायरे में न आया हो पर उसे यहाँ होना चाहिए.

ऐसा तो कुछ नहीं सूझ रहा.

हमारी बातचीत को पसंद की अपनी या किसी अन्य कवि की कविता से खत्म कर दीजिये. 

उदासी

उस जगह जहाँ नीले आकाश
की लहरों की आवाज़ सुनाई देती है
मुझे लगता है जैसे मैं
किसी कल्पनातीत चीज़ को छोड़ आया हूँ

अतीत में साफ़-साफ़, एक स्टेशन पर
मैं खड़ा था एक खिड़की पर खो गई चीज़ों के वास्ते
और पहले से भी ज़्यादा उदास हो गया.

शुंतारो तानीकावा

अनुवाद:अशोक पांडे
_____________________
turtle.walks@gmail.com

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  1. अच्‍छी व विशद बातचीत। कवि को उसकी कविता को उसकी दिनचर्या उसके चिंतन उसके भौतिक अभौतिक सूक्ष्‍म प्रेक्षणों को जानने में मदद करने वाली बातचीत। कम युवा हैं जो ऐसी सुदूरभेदी संवेदी बातचीत कर सकें जो लोगों की समझ में भी जाए। ऊपर ही ऊपर न निकल जाए।
    ऐसी बातचीत है यह। दोनों संवादियों को साधुवाद।

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  2. बहुत अच्छी बातचीत और अकादमिक भी
    हिंदी कविता को अब नई कविता के प्रतिमान से आगे जाकर लगभग चमत्कृत भाषा में नए शिल्प, मुहावरे और समझ के साथ लिख रहे इन कवियों को भी समझना पड़ेगा
    मोनिका कुमार, Mahesh Verma, Ammber Pandey या ऐसे कवि ही अब हिंदी में नई धारा के सर्जक है और अच्छी बात यह है कि ये क्लासिक रच रहे है
    गद्य और पद्य के साथ भिन्न भाषाओं के ज्ञान के साथ विशाल फलक पर सिनेमा और सामाजिक मुद्दों की समझ भी इन्हें पुष्ट करती है
    समालोचन की यह बातचीत बेहद दिलचस्प और आश्वस्तिदायक है

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  3. Saahajta mein parishram ka dakhal kaise sahaj banaaya jaaye , iska ek kathin udaaharan hai yah samvaad..

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  4. गहरे प्रश्न हैं। ऐसी बातचीत कवि होने के स्ट्रक्चर को कुछ हद तक सामने ले आ पाती हैं। कवि के बचपन और उनके शहर पर दिए उत्तर एक तिलिस्म सा बुनते हैं। अच्छा प्रयास है। कहीं कहीं प्रश्नों का बहुत लंबा होना खटकता है। कवि चित्रकार का ग्रीन रूम अब तक डिकोडेड नहीं है ये इस सम्वाद की अच्छी बात है।

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  5. स्वाति अर्जुन15 अप्रैल 2019, 9:55:00 am

    वाह्हह..ये ज़रूरी था, महेश आजकल फेसबुक पर भी नहीं हैं और फोन के संपर्क से भी दूर. ऐसे में उनसे जुड़ी ये ख़बर/लेख का आना अच्छी बात है.

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  6. Mahesh Verma की कविता की यह किताब है मैंने उसी समय मंगाई थी जब छपी थी । ऐसा संवाद अपने सम कालीन मित्रो के बीच लगातार होते रहना चाहिए । मोनिका ने बड़े धैर्य से इतने महीनों में यह इंटरव्यू लिया, यह कमाल है। अमूमन ऐसा धैर्य देखने को नहीं मिलता । बहुत धीमे, विलंबित में चलती इस बातचीत का अपना सुख है । "धूल की जगह" एक जरूरी किताब है, यह इंटरव्यू भी ।

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  7. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-04-2019) को "तुरुप का पत्ता" (चर्चा अंक-3307) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  8. Very freewheeling interview...loved this...eager to read Mahesh's poems...read some of Monika's...will read more...

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  9. बहुत बढिया बातचीत है यह।
    इसे प्रिंट लेकर पढ़ना होगा। मोनिका के सवाल जितने महेश के कवि से हैं उतने स्वयं से भी। कविता के साथ दुरूह और सहज यात्राएं करना मोनिका को खूब आता है। महेश इतने सधे हुए चिंतक भी हैं, कभी कभी ताज्जुब होता है कवि, चिंतक, चित्रकार क्या एक ही व्यक्ति है? मैं खुद तो चिथड़े चिथड़े हो जाती हूँ, दोनों कलाएँ , कविता और चित्रकला, फिसल ही जा रही हैं मेरे देहात्म से।

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  10. जीवन और मृत्यू से कविता के बहाने जैसे कोई बातचीत हो रही हो।मोनिका जी ने अद्भुत सवाल पूछे कवि ने यथार्थ का आईना दिखाया है।

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  11. आनंददायी संवाद। सही है, संवाद में भी एकालाप है और उसी में सब है।

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  12. अच्छा संवाद. खासकर कविता की तासीर पर बात करना एक कवि चित्रकार से.
    सवाल और जवाब की बेहद सार्थक शृंखला, इन दोनों की युति में दिखाई पड़ती है. मोनिका जी ने इस कवि को अपने ढंग से पढ़ा और उससे सवालों के रूप में कुछ ऐसे आख्यान प्रस्तुत किए जिससे हम कवि ही नहीं बल्कि उनकी कविताओं की पूरी चेतना है रूबरू होते हैं.
    दोनों को बहुत बधाई.

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  13. महेश और मोनिका कुमार का यह सम्वाद, जैसा मोनिका जी ने बताया कि महीनों ईमेल संदेशों द्वारा टुकड़े-टुकड़े में हुई है, लेकिन पढ़ने बैठा तो लगा कि बातों का झरना निरंतर झर रहा हो। दोनों कवियों ने मीलों दूर अपने अपने शहरों में घर में बैठ टुकड़ों में हुई इस बातचीत में कहीं भी ऐसा नही लगने दिया कि समय और भौगोलिक दूरी ने उनके सम्वाद के की एकसार रसमयता को बाधित किया है।
    इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता में धड़कते मानवीय जीवन को, जीवन जिस समाज की इकाई है,उस समाज को उसके दर्शन और सौंदर्य को इस सम्वाद में व्यापक और गहराई से अभिव्यक्ति मिली है। इस सम्वाद के लिए दोनों कविगण के साथ कवि सम्पादक अरुण देव की धैर्यक्षम प्रतिभा को सलाम करते हुए उनका कृतज्ञ होने को जी करता है।

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  14. आदरणीय पाठक मित्रो
    इस बातचीत को लेकर आपकी आत्मीयता अनुभव करके मुझे बहुत ख़ुशी हुई.

    मोनिका कुमार

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  15. मेरे ख़याल में यह बातचीत साक्षात्कार की विधा का ज़्यादा उन्नत और सशक्त रूप है। मेल के ज़रिये की जाने वाली ऐसी बातचीत में दोनों संवादी किसी तरह की तात्कालिक हड़बड़ी या दबाव में नहीं रहते। दोनों के पास अपने प्रश्नों और उत्तरों पर दुबारा नज़र डालने, उन्‍हें संवारने या सुधारने की फ़ुर्सत होती है।
    अभी हाल में समास के किसी अंक में उदयन वाजपेयी ने कृष्णत बलदेव वैद से ऐसी ही लंबी बात की थी। मुझे लगता है कि इस फॉर्मेट का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

    जवाब देंहटाएं
  16. आदरणीय नरेश जी

    मैनें कवितायें पढ़ते पढ़ते महेश जी को प्रश्न भेजे और उन्होंने अपनी मर्जी से जवाब भेजे.

    पन्द्रह प्रश्नों के बाद मैनें उनसे कहा कि आप एक घंटे के लिए ऑनलाइन रहिये और तुरंत इन प्रश्नों का उत्तर लिखिए. सुविधानुसार एक घंटे में उनसे मैनें छह -सात प्रश्न पूछे और उन्होएँ साथ के साथ जवाब लिखे.और इस तरह यह बातचीत संपन्न हुई.

    आपने सही कहा कि हड़बड़ी और दबाव नहीं था लेकिन फिर भी मैं फुर्सत और spontaneity का तालमेल रखना चाहती थी. एक बात यह है कि मैनें इसके बाद सिर्फ प्रश्नोत्तर को सिर्फ एकत्रित किया, संपादित नहीं. न ही मैनें अपने प्रश्नों में बदलाव किया और न ही एक बार मुझे भेजने के बाद महेश जी ने उसे सुधारा.

    जवाब देंहटाएं
  17. मोनिका जी,
    फिर तो इस बातचीत की और ज्‍़यादा तारीफ़ होनी चाहिए। ऐसे गुम्फित और तहदार सवालों का जवाब देना आसान नहीं होता। लेकिन आपके सवाल और महेश वर्मा के जवाब में अभिप्रेत तक पहुंचने की विकलता लगातार बनी रहती है। बधाई।

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  18. आभार समालोचन...

    मेरे लिए बिल्कुल नयी और दिलचस्प बातें ,

    महेश वर्मा की कविताएँ मुझे जटिल लगती है... लेकिन बार-बार पढ़ने का मन करता है. पहला काव्य संग्रह रजा पुस्तक माला मँगा लिया है.

    अरुण जी, मोनिका कुमार आभार आपका

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  19. यह एक वर्ष पुरानी बातचीत है । आज पढ़ी । महेश वर्मा हमारे इस रंगों से लिथड़े हुए समय में श्वेत-श्याम कवि है । कवि में उतना ही धीरज चाहिए जितना महेश वर्मा की कविताओं में दिखता है । बहुत सुंदर सुलिखित बातचीत । वे हिस्से बढ़िया जहां बचपन की उनके शहर की बातें स्मृतियां इत्यादि । कविताओं पर सवाल पूछना कवि के साथ अन्याय है । अपनी कविता का बचाव करना व्याख्या करना उसे विस्तार देना कवि का काम नहीं । समकालीनों में ऐसे संवाद होने चाहिएं । पठनीय गद्य ।

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