बारिशगर : प्रत्यक्षा
प्रकाशक- आधार प्रकाशन, पंचकुला (हरियाणा)
प्रथम संस्करण-2019
मूल्य-180 रुपये
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प्रत्यक्षा का नया उपन्यास ‘बारिशगर’ चर्चा में है. प्रत्यक्षा कविता और पेंटिग में भी गति रखती हैं. उनका कथा-साहित्य अपने अनूठे शिल्प वैविध्य के कारण अलग से पहचाना जाता है. इस उपन्यास को देख-परख रहीं हैं मीना बुद्धिराजा
प्रत्यक्षा
बारिशगर
स्त्री-मन की अनूठी महागाथा
मीना बुद्धिराजा
साहित्य की एक ऐसी विधा जिसमें आधुनिक मनुष्य के जीवन को, उसकी विविधता में, अंतर्विरोधों के साथ समूची जटिलता और संश्लिष्ट रूप में, सभी रंग-रूपों में और मूर्त-जीवंत रूप में अनुभव कर सकें तो निसंदेह हिंदी साहित्य में यह विधा उपन्यास ही है. उपन्यास के विन्यास में यह संभव है कि मनुष्य के रूप में स्त्री-पुरुष के अस्तित्व का, अपने से इतर समाज से संबधों, दुविधाओं और उसकी जीवन-दृष्टि में वास्तविक रूप में वह सभी संभावनाओं और बहुआयामिता में अभिव्यक्त हो सकता है. इधर कुछ समय से साहित्य की अन्य विधाओं की तरह उपन्यास की संरचना, कथा प्रविधि में जो कई तरह के बदलाव आए हैं और रूपाकारों के बीच एक तरह की तरलता भी दिखाई देती है वह विशिष्ट है. आज कथा-साहित्य में सबसे प्रामणिक, संतुलित और जीवन से स्पंदित लेखन महिला रचनाकारों द्वारा ही हो रहा है.
प्रत्यक्षा का कथा-लेखन स्त्री के प्रति हमें अधिक संवेदनशील और सोच को उदार बनाता है. स्त्री के लिए दुनिया में जहाँ-जहाँ जो दरवाजे- खिड़कियाँ बंद हैँ उन्हे खोलने का साहस करते हुए नई संभावनाओं के साथ बहुत चुपचाप स्त्री के लिए समाज के नजरिये को बदलनें में अपनी विशेष भूमिका निभाता है. इसी अनवरत रचनात्मक यात्रा में कथाकार ‘प्रत्यक्षा’ का पहला बहुप्रतीक्षित नवीनतम उपन्यास ‘बारिशगर’ ‘आधार प्रकाशन’ से अभी प्रकाशित हुआ है जिसे कथ्य के स्तर पर लेखिका की सृजनात्मक-परिपक्वता, संवेदनशील अंतर्दृष्टि एवं शिल्प भंगिमा का चरम उत्कर्ष माना जा सकता है और पाठकों के लिए एक नयी बेहतरीन उपलब्धि. अंपनी संवेदना, सरोकारों एवं लेखकीय दायित्व के रूप में कथाकार और चित्रकार ‘प्रत्यक्षा’ निरंतर नये बहुरंगी क्षितिज का विस्तार कर रही हैं जिसकी उत्कृष्ट परिणति इस उपन्यास को बेहद पठनीय, रोचक और विलक्षण बनाती है.
इस परिवार में मुख्यत: तीन स्त्री चरित्र जिनमें एक विधवा माँ इरावती जो वायुसेना में एक मिग हादसे के दौरान मारे गये अपने पति कर्नल साहब को खो चुकी है. इरा की दो बेटियाँ सरन और दीवा जिनके अपने स्वतंत्र चरित्र और पहचान हैं लेकिन ये सभी रिश्ते आपस में जुड़े हुए भी हैं. इन तीनों स्त्री किरदारों के अंतर्द्वंद, और ज़िंदगी की जटिलताओं से संघर्ष के आसपास इस कथा का वितान रचा गया है. इसी घर में दीवा का बेटा प्यारा बच्चा बाबुनजो माँ के प्यार से वंचित लेकिन इस घर की जान है और इरा और सरन के साथ सबको एक डोर में बांधे रखता है. उसका प्यारा पालतू कछुआ तैमूरलंग भी सोचनेवाला महसूस करने वाला चेतन प्राणी इस घर का अनोखा सदस्य है. इनके साथ ही घर में रह रहा पुरुष किरदार बिलास भी उपन्यास का मुख्य चरित्र है जो अपने अतीत में प्रेम में धोखा खा चुकने के बाद यहाँ एकांत और आत्मनिर्वासन में फिर से ज़िंदगी का अर्थ खोज रहा है. बाहरी होते हुए भी वह इस घर का आत्मीय और अभिन्न हिस्सा है- हर मुश्किल में इनका साथ निभाने वाला.
लेखिका में इस कथानक में कहीं भी वक्त और किरदारों को गढ़ने की बेचैनी और जल्दी नहीं है इसलिए जैसे कूची के एक एक स्ट्रोक से जीवन की आंतरिक लय को पकड़ने और किसी खास क्षण और चरित्र को चित्र्रित कर देने की उनमें जादुई क्षमता है. इसलिए धीरे- धीरे ये सभी किरदार घर में अपनी आकृतियों की छाया से उभरते हैं और व्यक्तियों में बदलते हैं. उनके सभी आयाम अपने वास्तविक रंग-रूप में पाठकों के सामने रूबरू होते हैं और जैसे जैसे उनके सुख-दुख, हंसी-रूलाईयाँ, उनके संघर्ष , रिश्ते और यातनाएँ सब सामने आते हैं तो पाठकों से एक आत्मीय लगाव का संबंध स्वत:स्थापित कर लेते हैं. घर भी जैसे इनकी भावनाओं और दुखों का और टूटते-गिरते संबंधों को संभालने का प्रतीक यहाँ बन कर आता है-
“घर की रवायत कुछ अजीब सी थी. चीज़ें जैसी होनी चाहिये थीं , उसके ठीक उलट होतीं. इरावती जाने कितने साल की थीं, पर थी ऐसी जवान और उलट. घर भी उलट ही था. दिन में सोता और रात को जागता. किर्र मिर्र किर्र मिर्र आवाज़ें उठतीं. लकड़ी के फाँक से हवा दर्राती हुई गुजरती. काठ की सीढ़ियाँ अपने ही भार से दबी काँखती कराहतीं. कमरे में भूरा अँधेरा छाया रहता ऐसा जैसा बिलास सँवर ने न कहीं देखा न भोगा.... नीचे के बड़े कमरे में ऊँची बड़ी खिड़्की के बगल में जहाज जैसे पलंग पर बाबुन को उचककर चढ़ना पड़ता जिससे वह बाहर देखता. खिड़की से शहर को जाने वाली सड़क दिखती. खिड़की के अंदर से घर की दुनिया दिखती. घर जैसा घर था वैसा नहीं था. जो भीतर से था वही बाहर से नहीं था. घर भी सोचता कितना बीत गया कितना रीत गया. पहाड़ी टीले की फुनगी पर टिका जैसे अब उड़ा. अहा घर... फिर भी घर घर है इसलिए कि सरन उसे घर बनाए है. जैसे उसके कँधों पर टिका है. घर उसे चुप देखता है, हल्की साँस भरता है. वह उस वक्त उसका राजदार होता है. बाबुन की आँख में सपना भर जाता है.घर चुपके हँसता है बेआवाज़.”
‘इरा’ जब घर की बागडोर अपने हाथों में लेती है तो उसमें उसकी वे संवेदनाएँ, घर और रिश्तों के वो सरोकार भी शामिल हैं जो उसकी अपनी पहचान से ज्यादा मायने रखते हैं. जिनमें ज़िन्दगी की रोजमर्रा का संघर्ष है, दबाव-तनाव हैं, उसकी अंदरूनी बेचैनियों और अतीत के जख्मों को कुरेदने वाले यथार्थ की दुखद स्मृतियों का हिसाब-किताब है जो वर्तमान पर हावी हैं. इरा भी इनके साथ ताज़िंदगी अपने भीतर की असहनीय पीड़ा को छिपाकर जीना सीखने की कोशिश करती है. लेकिन इस पूरी पारिवारिक संरचना में तमाम हौसले और फक्कड़पन के बावज़ूद ज़िंदगी की कठिन चुनौतियों में कर्नल के बिना वह कभी अकेली भी पड़ जाती है-
“तुम हो अब भी कहीं. इक्कीस साल से लेकिन, मुझसे छुपे हुए... इरा के भीतर का सब गुमान खत्म हो गया है। इस घर में ऐसे रहती है जैसे पूरा घर एक इंतज़ार हो. और बेचारी सरन जिसने बाप को सिर्फ देखा या दीवा जिसने देखा पाया और फिर जो उसके जीवन से खो गया-किसकी तकलीफ ज्यादा है ? क्या दीवा इसलिए ऐसी हुई ? बिगडैल अपनी मनमानी करने वाली, जिद्दी, बददिमाग. लेकिन मै तो ऐसी न थी ! फिर? .. घर फिर उसाँस भरता है कि जिम्मेदारी से घर के लोगों की हिफाज़त में है.”
‘सरन’ का चरित्र अपनी उम्र से कहीं अधिक संज़ीदा, अंतर्मुखी लेकिन उदार, सहनशील और अनूठी गढ़न की अविस्मरणीय नायिका का है. उसका बिलास के प्रति अव्यक्त, निस्वार्थ प्रेम, धैर्य, ठहराव, अपने प्रति बिलास की उपेक्षाकी व्यथा और घर के प्रति सरन का गहरा लगाव, जिम्मेदारी और दायित्व, उसके अनकहे अनसुने दुख सब मौन और मर्मांतक है.उसके प्रेम मे अनुराग- समपर्ण है लेकिन अपने स्वंतत्र अस्तित्व की गरिमा के साथ.प्रत्यक्षा एक स्त्री कथाकार के रूप में महसूस करती हैं कि प्रेम, सुख- दुख, दर्द और ख्वाहिशों से लेकर सभी अनुभव बांटने की ही चीज़ हैं.
दुनिया में सब कुछ व्यक्त करने के लिए ही होता है , जो खुशियाँ जो तकलीफ, जो विडंबनाएँ हमने आत्मसात की हैं उसे साझा करना जरूरी है. इसी से ही जीवन को नए सिरे से गढने की उम्मीद मिलती है. बिलास भी एक अलग दृष्टि के साथपुरुष चरित्र के रूप में दुनिया को नए सिरे से समझने और समय के रहस्य में खुद को खोजने वालाएक नए नायक की तस्वीर को पेश करता है. पुराने प्रेम और अतीत के बंधनों को तोडकर एकांत को चुनकर जीना चाहता है – “हम गुम हुए लोग हैं, छूटी हुई जगहों में गुम, अनदेखीजगहों में गुम, बीते हुए समयों में गुम, अपने होने में हर वक्त गुम.” सरन की उदास आँखों में उम्मीद देखकर वह उस से दूर रहने की कोशिश भी करता है लेकिन सब कुछ खो कर भी एक बार फिर से दिलफरेब प्रेम के होने से अपने को रोक नहीं पाता जो धीरे- धीरे घटित होता है अनायास.
दीवा बचपन में ही पिता की सबसे लाड़ली के रूप में उन्हें खो देने के दुख, अपने लिए इरा की उपेक्षा और माँ और छोटी बहन सरन के प्रति नफरत के जिस दंश के साथ बड़ी होती है उसमें तनाव, दबाव, उपेक्षाओं के बीच साँस लेने को तरसता अवसाद में घिरता और ड्र्ग्स के नशे में डूबता जीवन है. बचपन के मुक्त मन की निश्चिंतता पर लगा ग्रहण जिस छटपटाहट से मुक्त होने के लिए विद्रोही दीवा यायावर बनकर घूमती है विदेश जाती है भटकती है और फिर दारोश के रूप में उसे प्रेम और जीवन से जूझने की आश्वस्ति मिलती है. लेकिन दारोश भी उसे अनब्याही माँ का दर्ज़ा देकर उसे छोड़कर चला जाता है नितांत असहाय और विवश छोड़कर. वह बच्चा इरा को सौंपकर दीवा फिर सात साल तक प्राग में भटकती रहती है जिसकी देह और मन पर असंख्य घाव हैं. प्रत्यक्षा बहुत संवेदनशील अंतर्दृष्टि से दीवा की आंतरिक परतों को उसकी क्लांत गाँठो को हालात के आईने में रखकर बारीकी सेखोलती है. जहाँ निरंतर भटकाव हैं, अकेलेपन की अनकही यातना है, जीवन से कठिन संघर्ष, नाउम्मीदी में सांत्वना की, सुकून की और अपनी तलाश है और अंतत इरा, सरन और बाबुन से दूर हो चुके और उलझ गये रिश्तों की अनंत स्मृतियाँ है.
प्रत्यक्षा मजबूती से अपनी सभी स्त्री नायिकाओं के साथ खड़ी हैं और वो पाठकों की संवेदना का हिस्सा भी बनते हैं. परंपरागत लीक से हटकर दीवा स्त्री के अस्तित्व का जो नया भाष्य रचती है उसमें चाहे जितनी भी स्वछंदता, उन्मुक्तता और खुलापन हो लेकिन पाठक कहीं भी उसके प्रति अनुदार नहीं होता. क्योंकि रचनाकार सिर्फ अपनी लड़ाई नहीं लड़ता न ही सिर्फ अपने दुख-दर्द का लेखा जोखा पेश करता है. उसे जीवन के हर दौर से हर मौसमसे और परिस्थिति से मुठभेड़ करनी होती है. नज़दीक और दूर होते रिश्तों के साथ और समय के इतिहास के हर फैसलों के साथ. दीवा के भीतर की अथाह गहराई के अंधेरे तल में जहाँ कोई रोशनी नहीं जाना चाहती वहाँ बो उसे फिर अपनाता है। इस आंतरिक युद्ध में जीवन के भयंकर दबावऔर का सामना करते हुए दीवा जिनसे दूर भाग रही थी और जो सब कुछ लगभग खो चुका था अंत में वह फिर उस घर मेंमाँ ,बहन और अपने बेटे के पास वापस वापस लौटती है जहाँ उसके रिश्ते, उम्मीद, स्वप्न और प्रेम दोबारा खींच के ले आते है. अतीत और वर्तमान मिलकर फिर एक बेहतर भविष्य की संभावना के लिए एक साथ चलते हैं. दीवा के माध्यम से घर को अनेक अर्थों में खारिज़ करने और पुन: उपलब्ध करने की महत्ता का सभ्यतामूलक विमर्श भी इस उपन्यास की कथा के सूत्र में पिरोया गया है. जैसे सुप्रसिद्ध कवि ‘विनोद कुमार शुक्ल’ ने अपनी ने एक लोकप्रिय कविता में कहा है-
दूर से अपना घर देखना चाहिए
अंतिम दृश्य में अद्भुत परिकल्पना है जैसे रंगों में डूबे शब्दों का सौंदर्य पराकाष्ठा पर है जिसको उकेरने में प्रत्यक्षा अप्रतिम हैं. स्वप्न, कल्पना और यथार्थ बिल्कुल समानांतर जिसके स्थूल विवरण से कथाकार बचती हैं और उनकी भाषिक संरचना इसके लिए हमेशा शैली के स्तर पर बेहद अनूठे प्रयोग करती है. अनेक उपशीर्षकों में सूत्रबद्ध कथानक किसी स्लोमोशन चित्र श्रृखंला की तरह प्रत्यक्ष घटित होता है जिनमें जीवन की आतंरिक लय को अनेक ध्वनियों में सुना जा सकता है। स्मृतियों और घटनाओं काअंकन जैसे स्पंदित दृश्यों का कोलाज़ है जिन्हें पढ़ना मानों समंदर किनारे बैठकर दूर रोशनियों को तकने जैसा है जिसमें लफ्ज़ पारदर्शी होकर देर तक पाठकों के दिल-ज़हन में तैरते रहते हैं. पहाड़पर घर, पेड़-पौधे, बगीचे, बारिश, मौसम, रात, सुबह- शाम और प्राग की विदेशी धरती के खूबसूरत शहर जैसे इन शब्द रूपी रंगों में रोशन हो उठते हैं. छोटे वाक्यों, सीमित संवादों और आत्मालाप में धीमी गति और कोमलता से आगे बढ़ाने में कथाकार की भाषा का कौशल झलकता है.
यह भाषा अपनी तरफ खींचती आकर्षित करती है जिसमें उनका आत्मीय और पाठकों के मर्म को छूता गद्य अपने सम्मोहक प्रभाव में ‘निर्मल वर्मा’ के जादुई कथा-शिल्प की याद दिलाता है. इरा, दीवा और सरन के माध्यम से जो कथा बुनी गयी है उनमे सिर्फ स्त्री मन की अंदरूनी बेचैनियों, जिंदगी की जद्दो-जहद में सोच की उलझनें और टकराहटें ही नहीं आत्मीय संबंधों की आहटे भी हैं जो स्त्री के सामूहिक मनोजगत से जुड़ती है.
यह उपन्यास स्त्री के भीतर साँस लेते मनुष्य के अस्तित्व को पहचानने की कोशिश करता है. इसलिए एक नये कथ्य,कलेवर,भावभूमि और अनूठे चरित्रों को लेकर लीक से हटकर लिखा गया यह असाधारण उपन्यास एक नये स्त्रीवादी पाठ की माँग भी करता है.
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मीना बुद्धिराजा
साहित्य की एक ऐसी विधा जिसमें आधुनिक मनुष्य के जीवन को, उसकी विविधता में, अंतर्विरोधों के साथ समूची जटिलता और संश्लिष्ट रूप में, सभी रंग-रूपों में और मूर्त-जीवंत रूप में अनुभव कर सकें तो निसंदेह हिंदी साहित्य में यह विधा उपन्यास ही है. उपन्यास के विन्यास में यह संभव है कि मनुष्य के रूप में स्त्री-पुरुष के अस्तित्व का, अपने से इतर समाज से संबधों, दुविधाओं और उसकी जीवन-दृष्टि में वास्तविक रूप में वह सभी संभावनाओं और बहुआयामिता में अभिव्यक्त हो सकता है. इधर कुछ समय से साहित्य की अन्य विधाओं की तरह उपन्यास की संरचना, कथा प्रविधि में जो कई तरह के बदलाव आए हैं और रूपाकारों के बीच एक तरह की तरलता भी दिखाई देती है वह विशिष्ट है. आज कथा-साहित्य में सबसे प्रामणिक, संतुलित और जीवन से स्पंदित लेखन महिला रचनाकारों द्वारा ही हो रहा है.
अस्मिता के मानवीय संकट के समय में जब
स्त्री-रचनाकार अपनी पहचान और अस्तित्व को खोलती हुई साहित्य में उपस्थित होती है तो समस्त
स्त्री-समाज के सामूहिक अनथक संघर्ष और स्वप्न का रचनात्मक केंद्रबिंदु बन जाती है.
आज स्त्री-कथाकार अपने अनुभव और यथार्थ को परिपक्व जीवनदृष्टि से और विश्वसनीय
तरीके से अंकित कर रही हैं और उपन्यास-लेखन में भी स्त्री-चेतना का यह फलक निरंतर
विस्तृत और गंभीर हो रहा है.
इक्कीसंवी सदी के प्रथम दशक में स्त्री
कथा-साहित्य में जिन चुनिंदा युवा और सशक्त लेखिकाओं ने अपनी खास पहचान बनाई उनमें ‘प्रत्यक्षा’ का नाम उल्लेखनीय है. अपनी रचनाओं में इन्होंने स्त्री-अस्मिता के ‘स्व’ तक ही नहीं उसके ‘आत्म’ तक पहुंचने की नई संभावनाओं और संवेदनाओं के साथ कथा-लेखन को अनुभव के व्यापक
दायरे से भी समृद्ध किया है. पंरपरागत लीक से हटकर समकालीन स्त्री-छवि को विभिन्न
कोणों और सूक्ष्म आयामों में नये कथ्य और शिल्पगत प्रयोगों के साथ ढालने की दृष्टि
से प्रत्यक्षा आज की अनूठी लेखिका हैं.
उनके प्रमुख कहानी-संग्रहों- 'जंगल का जादू
तिल तिल', 'पहर दोपहर ठुमरी', 'एक दिन मराकेश में' स्त्री-जीवन को सभी पहलुओ से जोड़कर उसके मानवीय संबंधों,
टूटते बिखरते सपनों, प्रेम, वेदना, हर्ष-विषाद और अवसाद सभी क्षणों को संवेदना
के एक सूत्र में पिरोने की अद्भुत कहानियाँ हैं. उनकी कहानियों में स्त्री-नायिकाओं
का अपने मन को थाहकर, अनर्निहित कमजोरियों पर विजय पाकर उस
मुकाम तक पहुंचने का क्रमिक विकास है जहाँ वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्वयं तय
करती हैं.
प्रत्यक्षा का कथा-लेखन स्त्री के प्रति हमें अधिक संवेदनशील और सोच को उदार बनाता है. स्त्री के लिए दुनिया में जहाँ-जहाँ जो दरवाजे- खिड़कियाँ बंद हैँ उन्हे खोलने का साहस करते हुए नई संभावनाओं के साथ बहुत चुपचाप स्त्री के लिए समाज के नजरिये को बदलनें में अपनी विशेष भूमिका निभाता है. इसी अनवरत रचनात्मक यात्रा में कथाकार ‘प्रत्यक्षा’ का पहला बहुप्रतीक्षित नवीनतम उपन्यास ‘बारिशगर’ ‘आधार प्रकाशन’ से अभी प्रकाशित हुआ है जिसे कथ्य के स्तर पर लेखिका की सृजनात्मक-परिपक्वता, संवेदनशील अंतर्दृष्टि एवं शिल्प भंगिमा का चरम उत्कर्ष माना जा सकता है और पाठकों के लिए एक नयी बेहतरीन उपलब्धि. अंपनी संवेदना, सरोकारों एवं लेखकीय दायित्व के रूप में कथाकार और चित्रकार ‘प्रत्यक्षा’ निरंतर नये बहुरंगी क्षितिज का विस्तार कर रही हैं जिसकी उत्कृष्ट परिणति इस उपन्यास को बेहद पठनीय, रोचक और विलक्षण बनाती है.
‘बारिशगर’ उपन्यास एक समकालीन औपन्यासिक
कृति के रूप में स्त्री-मुक्ति की घोषणा न करते हुए भी स्त्री-विमर्श रचती है और स्त्री
के मन की व्यथा- कथा बांचती है. आधुनिक स्त्री भी अपने जीवन की यातनाओं, त्रासदी
और अनथक संघर्ष की नियति से कभी मुक्त नहीं हो सकी है. प्रेम के लिए, आश्वस्ति के लिए, निश्छ्ल संबंधों और विश्वास के लिए, अपने स्वप्नों
के लिए और अपनी मुकम्मल पहचान के लिए उसका यह संग्राम हमेशा होता आया है.
‘प्रत्यक्षा’ स्त्री के अंतर्मन
और उसकी पहचान में उस तह तक भी जाती हैं जहाँ सभी कठिनताओं में अपनी ज़मीन-आसमान
खोजते हुए ज़िंदगी का संघर्ष उसे अपने ही बलबूते पर लडना है. उनके लिए लिखना एक
स्त्री-रचनाकार के रूप में खुद से प्रेम करना और अपनी आवाज़ भी सुनना है. सामाजिक- पारिवारिक और स्त्री के द्वारा
स्वंय पर लगाई गई उन बंदिशों से मुक्त
होकर बाहर निकलने का माध्यम है जिनमें सदियों की घुटन है. यह रचना-प्रक्रिया में
निर्भीक हो तमाम मुश्किलों को पार कर स्वंय को देखना-परखना और महसूस करना है. आत्मीय
और सम्मोहक गद्य रचने में अप्रतिम कथाकार ‘प्रत्यक्षा’ का यह बेजोड़ उपन्यास जीवन की गहरी-बीहड़ अंतर्यात्रा में स्त्री के कठिन
संघर्ष और अस्तित्व की तलाश में ‘स्व’
का विस्तार है जिसमें उसके व्यक्तित्व का नैसर्गिक कोमल और मजबूत पक्ष साथ-साथ
चलता है.
प्रेम, यंत्रणा,
स्वप्न और उम्मीद की यह सघन दुनिया एक घर, शांत सुंदर पहाड़ी कस्बे और
वैश्विक भूगोल के इर्द-गिर्द स्त्री-संवेदनाओं के जिस संसार को रचती है वह उतनी ही
स्पंदनशील है कि जैसे खुद से ही संवाद करना और सामना करना है. पुरुषों के बनाए
साहित्यिक उपनिवेश में यह उपन्यास स्त्री के साहस, स्वाभिमान
अपने नए अंदाज़ और स्त्री-किरदारों की अनूठी गढ़न में पूर्व निर्मित बन्धनों से मुक्ति
का एक नया स्वर है.आज स्त्री-कथाकार एक बड़े बदलाव के साथ अपने अनुभव, अंतर्द्वंद्वों और असहमतियों को आत्मविश्वास से व्यक्त कर रही हैं जहाँ
सिर्फ देह-मुक्ति ही विमर्श का फार्मूला न होकर बौद्धिक रूप से वह अधिक सक्षम,
गंभीर और सचेत भी है.
इस उपन्यास के कथ्य में स्त्री केंद्र में है पर यह हमारे दौर का नया रचनात्मक स्त्री-विमर्श है जो सीमित दायरों से आगे बढ़कर एक नया सभ्यता विमर्श भी हमारे सामने प्रस्तुत करता है. यहाँ एक बड़ा फलक खुलता है जो एक स्त्री के सबंधों और संवेदनाओं के आयामों को ही नहीं परंतु उसके वैचारिक चेतनामूलक आयामों को भी छूने का ईमानदार प्रयास करता है. कथाकार असाधारण शैली में बहुत आत्मीयता से स्त्री किरदारों के अंतर्मन को स्पर्श करती है और उनके सम्यक भीतरी-बाहरी संसार को अपनी सृजनात्मकता के केंद्र में ले आती हैं. अनुपम शब्द-चित्रकार ‘प्रत्यक्षा’ अपनी गहन बौद्धिकता को भी यहाँ रचनात्मक औजार की तरह इस्तेमाल करती हैं. ‘विलियम फॉकनर’ ने कहा था कि-
इस उपन्यास के कथ्य में स्त्री केंद्र में है पर यह हमारे दौर का नया रचनात्मक स्त्री-विमर्श है जो सीमित दायरों से आगे बढ़कर एक नया सभ्यता विमर्श भी हमारे सामने प्रस्तुत करता है. यहाँ एक बड़ा फलक खुलता है जो एक स्त्री के सबंधों और संवेदनाओं के आयामों को ही नहीं परंतु उसके वैचारिक चेतनामूलक आयामों को भी छूने का ईमानदार प्रयास करता है. कथाकार असाधारण शैली में बहुत आत्मीयता से स्त्री किरदारों के अंतर्मन को स्पर्श करती है और उनके सम्यक भीतरी-बाहरी संसार को अपनी सृजनात्मकता के केंद्र में ले आती हैं. अनुपम शब्द-चित्रकार ‘प्रत्यक्षा’ अपनी गहन बौद्धिकता को भी यहाँ रचनात्मक औजार की तरह इस्तेमाल करती हैं. ‘विलियम फॉकनर’ ने कहा था कि-
‘वह जब कोई किताब लिखते हैं तो उनके पात्र खुद खड़े हो जाते हैं और फिर वही तय करते हैं कि उनको कौन सा रूप मिलेगा और उनका अंज़ाम क्या होगा.‘
अपने इस उपन्यास ‘बारिशगर’ में प्रत्यक्षा कथासूत्र की उपस्थिति को लेकर बहुत संवेदनशील और सजग हैं.
यद्यपि भाषा की बारीक कारीगरी और अनुभवों संवेदनाओं के सूक्ष्म-जटिल चित्रण के
कारण प्रत्यक्षा का कथा साहित्य परिष्कृत पाठकीय चेतना की मांग करता है. तथापि इस
उपन्यास में अपनी रचनाशीलता के बने बनाए घेरे को वे जिस तरह नए प्रयोगों से तोड़ती
हैं वह अद्वितीय और सराहनीय है. लेखिका ने बहुत सधाव और कौशल से संतुलित रूप से
इसका कथानक लिखा है और कथासूत्रों पर उनकी गहरी पकड़ स्पष्ट दिखाई देती है. जैसे
कैनवास पर किसी सधे हुए चित्रकार की पेंटिंग जिसमें सभी भाव और रंग अपनी संपूर्णता
में अंकित होते हैं.एक शांत खूबसूरत पहाड़ी कस्बे मे बसे एक घर से उपन्यास की कथा
शुरु होती है जिसमें और जिसके आसपास जीवन निस्पंद बह रहा है. घर इस कथा का केंद्र
बिंदु है जहाँ सभी चीज़ें दृश्य-अदृश्य रूप से घटित हो रही हैं. ‘घर’ इस पूरे उपन्यास में जिसका मूर्त रूप परिवार है
उससे टकराए बिना समय की और जीवन की मुश्किलों से जूझने का कोई रास्ता कहीं नही
दिखाई देता. यह घर इसमें रहने वाले सभी पात्रोंके लिए सबसे बड़ी आश्वस्ति है और
ज़िंदगी का एक अटूट हिस्सा और जीता-जागता किरदार भी.
इस परिवार में मुख्यत: तीन स्त्री चरित्र जिनमें एक विधवा माँ इरावती जो वायुसेना में एक मिग हादसे के दौरान मारे गये अपने पति कर्नल साहब को खो चुकी है. इरा की दो बेटियाँ सरन और दीवा जिनके अपने स्वतंत्र चरित्र और पहचान हैं लेकिन ये सभी रिश्ते आपस में जुड़े हुए भी हैं. इन तीनों स्त्री किरदारों के अंतर्द्वंद, और ज़िंदगी की जटिलताओं से संघर्ष के आसपास इस कथा का वितान रचा गया है. इसी घर में दीवा का बेटा प्यारा बच्चा बाबुनजो माँ के प्यार से वंचित लेकिन इस घर की जान है और इरा और सरन के साथ सबको एक डोर में बांधे रखता है. उसका प्यारा पालतू कछुआ तैमूरलंग भी सोचनेवाला महसूस करने वाला चेतन प्राणी इस घर का अनोखा सदस्य है. इनके साथ ही घर में रह रहा पुरुष किरदार बिलास भी उपन्यास का मुख्य चरित्र है जो अपने अतीत में प्रेम में धोखा खा चुकने के बाद यहाँ एकांत और आत्मनिर्वासन में फिर से ज़िंदगी का अर्थ खोज रहा है. बाहरी होते हुए भी वह इस घर का आत्मीय और अभिन्न हिस्सा है- हर मुश्किल में इनका साथ निभाने वाला.
लेखिका में इस कथानक में कहीं भी वक्त और किरदारों को गढ़ने की बेचैनी और जल्दी नहीं है इसलिए जैसे कूची के एक एक स्ट्रोक से जीवन की आंतरिक लय को पकड़ने और किसी खास क्षण और चरित्र को चित्र्रित कर देने की उनमें जादुई क्षमता है. इसलिए धीरे- धीरे ये सभी किरदार घर में अपनी आकृतियों की छाया से उभरते हैं और व्यक्तियों में बदलते हैं. उनके सभी आयाम अपने वास्तविक रंग-रूप में पाठकों के सामने रूबरू होते हैं और जैसे जैसे उनके सुख-दुख, हंसी-रूलाईयाँ, उनके संघर्ष , रिश्ते और यातनाएँ सब सामने आते हैं तो पाठकों से एक आत्मीय लगाव का संबंध स्वत:स्थापित कर लेते हैं. घर भी जैसे इनकी भावनाओं और दुखों का और टूटते-गिरते संबंधों को संभालने का प्रतीक यहाँ बन कर आता है-
“घर की रवायत कुछ अजीब सी थी. चीज़ें जैसी होनी चाहिये थीं , उसके ठीक उलट होतीं. इरावती जाने कितने साल की थीं, पर थी ऐसी जवान और उलट. घर भी उलट ही था. दिन में सोता और रात को जागता. किर्र मिर्र किर्र मिर्र आवाज़ें उठतीं. लकड़ी के फाँक से हवा दर्राती हुई गुजरती. काठ की सीढ़ियाँ अपने ही भार से दबी काँखती कराहतीं. कमरे में भूरा अँधेरा छाया रहता ऐसा जैसा बिलास सँवर ने न कहीं देखा न भोगा.... नीचे के बड़े कमरे में ऊँची बड़ी खिड़्की के बगल में जहाज जैसे पलंग पर बाबुन को उचककर चढ़ना पड़ता जिससे वह बाहर देखता. खिड़की से शहर को जाने वाली सड़क दिखती. खिड़की के अंदर से घर की दुनिया दिखती. घर जैसा घर था वैसा नहीं था. जो भीतर से था वही बाहर से नहीं था. घर भी सोचता कितना बीत गया कितना रीत गया. पहाड़ी टीले की फुनगी पर टिका जैसे अब उड़ा. अहा घर... फिर भी घर घर है इसलिए कि सरन उसे घर बनाए है. जैसे उसके कँधों पर टिका है. घर उसे चुप देखता है, हल्की साँस भरता है. वह उस वक्त उसका राजदार होता है. बाबुन की आँख में सपना भर जाता है.घर चुपके हँसता है बेआवाज़.”
‘इरा’ जब घर की बागडोर अपने हाथों में लेती है तो उसमें उसकी वे संवेदनाएँ, घर और रिश्तों के वो सरोकार भी शामिल हैं जो उसकी अपनी पहचान से ज्यादा मायने रखते हैं. जिनमें ज़िन्दगी की रोजमर्रा का संघर्ष है, दबाव-तनाव हैं, उसकी अंदरूनी बेचैनियों और अतीत के जख्मों को कुरेदने वाले यथार्थ की दुखद स्मृतियों का हिसाब-किताब है जो वर्तमान पर हावी हैं. इरा भी इनके साथ ताज़िंदगी अपने भीतर की असहनीय पीड़ा को छिपाकर जीना सीखने की कोशिश करती है. लेकिन इस पूरी पारिवारिक संरचना में तमाम हौसले और फक्कड़पन के बावज़ूद ज़िंदगी की कठिन चुनौतियों में कर्नल के बिना वह कभी अकेली भी पड़ जाती है-
“तुम हो अब भी कहीं. इक्कीस साल से लेकिन, मुझसे छुपे हुए... इरा के भीतर का सब गुमान खत्म हो गया है। इस घर में ऐसे रहती है जैसे पूरा घर एक इंतज़ार हो. और बेचारी सरन जिसने बाप को सिर्फ देखा या दीवा जिसने देखा पाया और फिर जो उसके जीवन से खो गया-किसकी तकलीफ ज्यादा है ? क्या दीवा इसलिए ऐसी हुई ? बिगडैल अपनी मनमानी करने वाली, जिद्दी, बददिमाग. लेकिन मै तो ऐसी न थी ! फिर? .. घर फिर उसाँस भरता है कि जिम्मेदारी से घर के लोगों की हिफाज़त में है.”
‘सरन’ का चरित्र अपनी उम्र से कहीं अधिक संज़ीदा, अंतर्मुखी लेकिन उदार, सहनशील और अनूठी गढ़न की अविस्मरणीय नायिका का है. उसका बिलास के प्रति अव्यक्त, निस्वार्थ प्रेम, धैर्य, ठहराव, अपने प्रति बिलास की उपेक्षाकी व्यथा और घर के प्रति सरन का गहरा लगाव, जिम्मेदारी और दायित्व, उसके अनकहे अनसुने दुख सब मौन और मर्मांतक है.उसके प्रेम मे अनुराग- समपर्ण है लेकिन अपने स्वंतत्र अस्तित्व की गरिमा के साथ.प्रत्यक्षा एक स्त्री कथाकार के रूप में महसूस करती हैं कि प्रेम, सुख- दुख, दर्द और ख्वाहिशों से लेकर सभी अनुभव बांटने की ही चीज़ हैं.
दुनिया में सब कुछ व्यक्त करने के लिए ही होता है , जो खुशियाँ जो तकलीफ, जो विडंबनाएँ हमने आत्मसात की हैं उसे साझा करना जरूरी है. इसी से ही जीवन को नए सिरे से गढने की उम्मीद मिलती है. बिलास भी एक अलग दृष्टि के साथपुरुष चरित्र के रूप में दुनिया को नए सिरे से समझने और समय के रहस्य में खुद को खोजने वालाएक नए नायक की तस्वीर को पेश करता है. पुराने प्रेम और अतीत के बंधनों को तोडकर एकांत को चुनकर जीना चाहता है – “हम गुम हुए लोग हैं, छूटी हुई जगहों में गुम, अनदेखीजगहों में गुम, बीते हुए समयों में गुम, अपने होने में हर वक्त गुम.” सरन की उदास आँखों में उम्मीद देखकर वह उस से दूर रहने की कोशिश भी करता है लेकिन सब कुछ खो कर भी एक बार फिर से दिलफरेब प्रेम के होने से अपने को रोक नहीं पाता जो धीरे- धीरे घटित होता है अनायास.
दीवा बचपन में ही पिता की सबसे लाड़ली के रूप में उन्हें खो देने के दुख, अपने लिए इरा की उपेक्षा और माँ और छोटी बहन सरन के प्रति नफरत के जिस दंश के साथ बड़ी होती है उसमें तनाव, दबाव, उपेक्षाओं के बीच साँस लेने को तरसता अवसाद में घिरता और ड्र्ग्स के नशे में डूबता जीवन है. बचपन के मुक्त मन की निश्चिंतता पर लगा ग्रहण जिस छटपटाहट से मुक्त होने के लिए विद्रोही दीवा यायावर बनकर घूमती है विदेश जाती है भटकती है और फिर दारोश के रूप में उसे प्रेम और जीवन से जूझने की आश्वस्ति मिलती है. लेकिन दारोश भी उसे अनब्याही माँ का दर्ज़ा देकर उसे छोड़कर चला जाता है नितांत असहाय और विवश छोड़कर. वह बच्चा इरा को सौंपकर दीवा फिर सात साल तक प्राग में भटकती रहती है जिसकी देह और मन पर असंख्य घाव हैं. प्रत्यक्षा बहुत संवेदनशील अंतर्दृष्टि से दीवा की आंतरिक परतों को उसकी क्लांत गाँठो को हालात के आईने में रखकर बारीकी सेखोलती है. जहाँ निरंतर भटकाव हैं, अकेलेपन की अनकही यातना है, जीवन से कठिन संघर्ष, नाउम्मीदी में सांत्वना की, सुकून की और अपनी तलाश है और अंतत इरा, सरन और बाबुन से दूर हो चुके और उलझ गये रिश्तों की अनंत स्मृतियाँ है.
प्रत्यक्षा मजबूती से अपनी सभी स्त्री नायिकाओं के साथ खड़ी हैं और वो पाठकों की संवेदना का हिस्सा भी बनते हैं. परंपरागत लीक से हटकर दीवा स्त्री के अस्तित्व का जो नया भाष्य रचती है उसमें चाहे जितनी भी स्वछंदता, उन्मुक्तता और खुलापन हो लेकिन पाठक कहीं भी उसके प्रति अनुदार नहीं होता. क्योंकि रचनाकार सिर्फ अपनी लड़ाई नहीं लड़ता न ही सिर्फ अपने दुख-दर्द का लेखा जोखा पेश करता है. उसे जीवन के हर दौर से हर मौसमसे और परिस्थिति से मुठभेड़ करनी होती है. नज़दीक और दूर होते रिश्तों के साथ और समय के इतिहास के हर फैसलों के साथ. दीवा के भीतर की अथाह गहराई के अंधेरे तल में जहाँ कोई रोशनी नहीं जाना चाहती वहाँ बो उसे फिर अपनाता है। इस आंतरिक युद्ध में जीवन के भयंकर दबावऔर का सामना करते हुए दीवा जिनसे दूर भाग रही थी और जो सब कुछ लगभग खो चुका था अंत में वह फिर उस घर मेंमाँ ,बहन और अपने बेटे के पास वापस वापस लौटती है जहाँ उसके रिश्ते, उम्मीद, स्वप्न और प्रेम दोबारा खींच के ले आते है. अतीत और वर्तमान मिलकर फिर एक बेहतर भविष्य की संभावना के लिए एक साथ चलते हैं. दीवा के माध्यम से घर को अनेक अर्थों में खारिज़ करने और पुन: उपलब्ध करने की महत्ता का सभ्यतामूलक विमर्श भी इस उपन्यास की कथा के सूत्र में पिरोया गया है. जैसे सुप्रसिद्ध कवि ‘विनोद कुमार शुक्ल’ ने अपनी ने एक लोकप्रिय कविता में कहा है-
दूर से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना
घर
कभी लौट सकंगे की पूरी आशा से
सात संमंदर पार चले जाना चाहिए
जाते जाते पलट कर देखना चाहिए
दूसरे देश से अपना देश
अंतरिक्ष से अपनी पृथ्वी
यथार्थ के अनेक हाशियों को पार करने की
कोशिश भी यहाँ स्पष्ट है जहाँ प्रश्न सिर्फ स्त्री-पुरुष संबंधों केबीच देह-मुक्ति
का विमर्श का नहीं बल्कि वैश्विक और बहुराष्ट्रीय होती संस्कृति में स्त्री-
अस्तित्व के एक बड़े फलक को भी खोलने का अछूता प्रयास है. दीवा तमाम धोखों और आघातों से उभर कर
आती नयी बनती स्त्री की छवि है. अपने स्त्री- पात्रों की आंतरिक जड़ता ,संत्रास और पीड़ा को उपन्यासकार
गहराई से समझती हैं लेकिन अंतत: गतिशील बदलाव की उम्मीद भी इन्हीं में बसती है जो
अपने में एक मुकम्मल स्त्री की तस्वीर बनाती हैं. एक मनुष्य के रूप में हम पूरी
ज़िंदगी किसी तलाश में बिता देते हैं और जब पुराने बंधनों को तोड़कर जीवंतता से कथा
की रचना होती है तो एक नये जीवंत संसार के दरवाजे खुलते हैं. अंत में जिस बारिशगर
की कल्पना है वह उसी अदृश्य खामोश किरदार की तरह है जो अपने में प्रेम, सुकून, खुशियों और उम्मीद के रूप में उनके जीवन की शुष्क
ज़मीन और बंजर संवेदनाओं को फिर से सराबोर और ज़िंदा करता है. सभी किरदार प्रेम की
वेदना, विडंबना और नि:स्सारता को अपने-अपने तरीके से अनुभव
करते हैं. अपने दुखों और स्मृतियों को समेटकर भी जिस प्रेम के स्त्रोत की तलाश और
इंतज़ार वे करते हैं वह अंतत: बारिशगर के रूपक की तरह साकार होता है जिसकी आरज़ू यह
जीता-जागता घर भी कर रहा था-
“कहते हैं कोई जादूगर था जिसने जादू चला
दिया. कोई बारिशगर था जिसने सूखे रेगिस्तान में बारिश बना दी. सब और पत्तियाँ
लहलहा गई हैं. सब ओर पीले फूल खिल गये हैं. एक खंडहर होता घर फिर से आबाद हुआ है.
घर एक दिल है जो धड़कता है- हब डब हब डब.
घर साँस भरता है. अब निश्चिंत हुआ. कोई
काम सौंपा था पूरा हुआ. लकड़ी के खंभे जो सालों स्पर्श की गर्माहट पाकर मुलायम चमक
से भरे हैं, फुसफुसाते हैं कोनों और आलों से.
शहतीर चूँ चाँ करते एक संगीत रचते हैं. फर्श पर कदमों की आहट इंतज़ार करती है रोज़ ब
रोज़ की ज़िंदगी के मीठे संगीत की.
यही जीवन है. आह! यही मीठा जीवन है. यही
मीठा सरल जीवन है.
घर चुपके हँसता है बेआवाज़. एक पल को लगता
है भेड़ चराने वाले चरवाहे को कि मेमसाहब वाली लाल कोठी अभी फुनगी पर टिकी गिरी
गिरी फिर तिकी. आँख मलता हैरानी में और अपनी बेवकूफी पर सिर हिलाता आँखे मिचमिचा
सूरज देखता दिन का समय थाहता है.”
अंतिम दृश्य में अद्भुत परिकल्पना है जैसे रंगों में डूबे शब्दों का सौंदर्य पराकाष्ठा पर है जिसको उकेरने में प्रत्यक्षा अप्रतिम हैं. स्वप्न, कल्पना और यथार्थ बिल्कुल समानांतर जिसके स्थूल विवरण से कथाकार बचती हैं और उनकी भाषिक संरचना इसके लिए हमेशा शैली के स्तर पर बेहद अनूठे प्रयोग करती है. अनेक उपशीर्षकों में सूत्रबद्ध कथानक किसी स्लोमोशन चित्र श्रृखंला की तरह प्रत्यक्ष घटित होता है जिनमें जीवन की आतंरिक लय को अनेक ध्वनियों में सुना जा सकता है। स्मृतियों और घटनाओं काअंकन जैसे स्पंदित दृश्यों का कोलाज़ है जिन्हें पढ़ना मानों समंदर किनारे बैठकर दूर रोशनियों को तकने जैसा है जिसमें लफ्ज़ पारदर्शी होकर देर तक पाठकों के दिल-ज़हन में तैरते रहते हैं. पहाड़पर घर, पेड़-पौधे, बगीचे, बारिश, मौसम, रात, सुबह- शाम और प्राग की विदेशी धरती के खूबसूरत शहर जैसे इन शब्द रूपी रंगों में रोशन हो उठते हैं. छोटे वाक्यों, सीमित संवादों और आत्मालाप में धीमी गति और कोमलता से आगे बढ़ाने में कथाकार की भाषा का कौशल झलकता है.
यह भाषा अपनी तरफ खींचती आकर्षित करती है जिसमें उनका आत्मीय और पाठकों के मर्म को छूता गद्य अपने सम्मोहक प्रभाव में ‘निर्मल वर्मा’ के जादुई कथा-शिल्प की याद दिलाता है. इरा, दीवा और सरन के माध्यम से जो कथा बुनी गयी है उनमे सिर्फ स्त्री मन की अंदरूनी बेचैनियों, जिंदगी की जद्दो-जहद में सोच की उलझनें और टकराहटें ही नहीं आत्मीय संबंधों की आहटे भी हैं जो स्त्री के सामूहिक मनोजगत से जुड़ती है.
यह उपन्यास स्त्री के भीतर साँस लेते मनुष्य के अस्तित्व को पहचानने की कोशिश करता है. इसलिए एक नये कथ्य,कलेवर,भावभूमि और अनूठे चरित्रों को लेकर लीक से हटकर लिखा गया यह असाधारण उपन्यास एक नये स्त्रीवादी पाठ की माँग भी करता है.
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मीना बुद्धिराजा
ऐसोसिएट प्रोफेसर- हिंदी विभाग, अदिति महाविद्यालय,दिल्ली विश्वविद्यालय
संपर्क-9873806557
संपर्क-9873806557
बहुत सुन्दर और गंभीर विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अरुण देव जी , शुक्रिया मीना , कितनी बारीकी से तुमने मन के तहों को सहेज लिखा है, कितनी नई जगहों से खड़े इन किरदारों को भिन्न कोण से परखा है , बहुत शुक्रिया तुम्हारा
जवाब देंहटाएंइतने प्यार से पढ़ने और लिखने के लिये
सुन्दर विश्लेषण
जवाब देंहटाएंअच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है आपने। बधाई। लेखिका के कथा साहित्य के लिए परिष्कृत पाठकीय चेतना की मांग वाली बात यहाँ खटकती है। एक अदृश्य पाठक के लिए आपको परिष्कृत पाठकीय चेतना के मानकों का उल्लेख भी करना चाहिए ताकि वह पहले से तैयारी कर इसे पढने का मानस बनाए।
जवाब देंहटाएंमीना बुद्धिराजा की समीक्षा मौलिक रचना का आस्वाद देती है। इस समीक्षा में मीना किसी प्रभाववादी चित्रकार की तरह पात्रों के अभ्यंतर की ओर इंगित तो करती हैं, लेकिन उनके अंतरतम का अतिक्रमण नहीं करती।
जवाब देंहटाएंऔर ऐसा होता है कि सुबह -सुबह 'दिन बन जाये' वाली स्थिति हो जाती है जब मन को सुख देने वाली चीज परोस दी जाए।इतनी खूबसूरती से की गई समीक्षा आपके सामने पूरा कथानक रख देती है और आप विस्मित विमुग्ध होकर ऊब डूब होते रहते हैं। Pratyaksha Sinha Meena Budhiraja और समालोचन को बधाई।स्तर आख़िर कोई चीज होती है।बधाई Arun Dev जी।
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