सबद भेद : दस्तंबू : सच्चिदानंद सिंह



रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआफ़ l
आज कुछ दर्द मिरे दिल में सिवा होता है ll


महाकवि ग़ालिब का ‘दस्तंबू’ जिसे १८५७ के महाविद्रोह की डायरी कहा जाता है, अदब के लिहाज़ से मानीखेज़ तो है ही ढहते हुए पतनशील सामंती सल्तनत और हिंदुस्तान में स्थापित होते हुए औपनिवेशिक शासन के दोराहे पर खड़े एक सचेत लेखक और बुद्धिजीवी की कशमकश का आईना भी है. जिसे हम भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम कहते हैं वह इस महाकवि के लिए बलवा भर था.

क्या उर्दू क्या हिंदी ? चाहे ग़ालिब हों या भारतेंदु.  इन भाषाओँ के प्रतिनिधि बुद्धिजीवी और लेखक कमोबेश औपनिवेशिक शासन के समर्थक थे और उसकी न्याय व्यवस्था के प्रशसंक भी.


सच्चिदानंद सिंह का यह आलेख दस्तंबू को केंद्र में रखते हुए ग़ालिब की इसी कशमकश को सामने रखता है. 


दस्तंबू                            
सच्चिदानंद सिंह






मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ बहादुर ग़ालिब ने 11 मई 1857 से 31 जुलाई 1858 तक दिल्ली शहर के हालात और उस दौरान अपनी ज़िंदगी का एक ‘तथाकथित’ दैनिक वर्णन अगस्त 1858 में फ़ारसी नस्र (गद्य) में लिखा; खालिस फ़ारसी जिसमें अरबी का एक भी लफ्ज़ नहीं है. यह रचना उसी वर्ष दिसम्बर तक ‘दस्तंबू’ के नाम से प्रकाशित हुई. दस्तंबू फ़ारसी शब्द है. अर्थ है फूलों का गुलदस्ता. स्त्रीलिंग है, और लड़कियों के नाम के लिए भी प्रयुक्त होता रहा है. 

1857 के उन लहू-लुहान दिनों की कहानी के लिए यह नाम बहुत उपयुक्त नहीं लगता. फूलों का गुलदस्ता कुछ ऐसी खुशनुमा चीज है जिसे सदियों से सजावट या उपहार के काम लाया जा रहा है. नाम बताता है कि ग़ालिब ने इसे एक गुलदस्ते की तरह, किसी को उपहार स्वरुप देने के उद्देश्य से लिखा था. किताब की पहली छपाई की पाँच सौ प्रतियाँ निकलीं थीं, सात सजिल्द, खास आराइश (सजावट) के साथ. इन सात में एक इंग्लैंड गयी, एक गवर्नर जेनरल के पास कलकत्ते, और पाँच दिल्ली के दूसरे आला हाकिमों के पास.

ग़ालिब ने मलिका-ए-मुअज़्ज़मा इंग्लिस्तान (रानी विक्टोरिया) को देने के लिए एक गुलदस्ता रचा था. 

दस्तंबू की कहानी की शुरुआत ग़ालिब ने 11 मई 1857 से की है जिस दिन बंगाल रेजिमेंट (3 लाइट कैवेलरी, 11 इन्फेंट्री और 20 इन्फेंट्री) के सैनिक मेरठ में अपने कुछ यूरोपियन अफसरों को मार कर दिल्ली पहुँच गए थे. मेरठ से वे इतवार, 9 मई की शाम को चले थे और करीब 75 किलोमीटर चलकर 11 मई की सुबह, मुँह अंधेरे दिल्ली शहर के दरवाजों के सामने खड़े हो गए. उनके निकलने के एक दिन पहले, 8 मई की सुबह मेरठ में 3 बंगाल कैवेलरी के पिच्यासी सैनिकों ने नए एनफील्ड राइफल के गोलियों को दाँत से काट कर खोलने से इंकार कर दिया था. 9 मई की सुबह उनका कोर्ट मार्शल हुआ, उन्हें बेडियाँ पहना कर उनका परेड करा कर, उन्हें लंबी कारा का दंड सुनाया गया. इसी शाम बंगाल रेजिमेंट के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया.  इसके पहले बरहामपुर, बैरकपुर और अम्बाला में बंगाल रेजिमेंट के सैनिक विद्रोह कर चुके थे. पर मेरठ में अंग्रेजों को किसी विद्रोह की आशंका नहीं थी क्योंकि वहाँ भारी तादाद में यूरोपीय सैनिक मौजूद थे – गोरे सैनिकों का अनुपात जितना मेरठ में था उतना हिन्दुस्तान की किसी छावनी में नहीं. जो हो, इतवार 9 मई की शाम विद्रोही सैनिक मेरठ से चले और मंगलवार 11 मई 1857 की सुबह दिल्ली पंहुच गए. इसी मंगलवार से दस्तंबू की शुरुआत है.

दस्तंबू का पहला ज़िक्र हमें 17 अगस्त 1858 के दिन ग़ालिब के अपने अज़ीज़ शागिर्द मुंशी हरगोपाल तफ़्ता को लिखे खत में मिलता है:


“अब एक अम्र सुनो – मैंने आगाज़े याज़दहुम (ग्यारहवीं) मई सन 1857 ई.से सी व एकुम (इकत्तीस) जुलाई सन 1858 ई. तक रूदादे शहर (शहर का वर्णन) और अपनी सरगुज़िश्त (जीवनी) याने पन्द्रह महीने का हाल नस्र (गद्य) में लिखा है और इल्तेज़ाम ऐसा किया है कि दसातीर[1] की इबारत यानी फ़ारसी क़दीम लिखी जाए और कोई लफ्ज़ अरबी न आये. … हाँ अशखास के नाम (लोगों के नाम) नहीं बदले जाते. वो अरबी, अंग्रेजी, हिंदी जो हैं लिख दिए हैं.” तफ़्ता आगरा और अलीगढ में रहता था. ग़ालिब ने दस्तंबू को आगरे से छपवाने का निश्चय किया था क्योंकि “दिल्ली के छापेखाने का कापीनिगार खुशनवीस (सुलेखक) नहीं था”.

जब किताब तैयार होने को आयी तो ग़ालिब ने अपने मित्र और शागिर्द चौधरी अब्दुल गफ़ूर ‘सुरूर को लिखा,
“11 मई 1857 ई. को यहाँ फ़साद शुरू हुआ. मैंने उसी दिन घर का दरवाजा बन्द और आना-जाना मौक़ूफ़ (स्थगित) कर दिया. बेशग़ल ज़िंदगी बसर नहीं होती. अपनी सरगुज़स्त (संस्मरण) लिखनी शुरू कर दी. जो सुना गया वो भी ज़मीमे सरगुज़स्त (संस्मरण के कोड-पत्र) करता गया.” 

वे ग़ालिब की कड़की के दिन थे. ग़ालिब को मई 1857 से ‘पिन्सन नहीं मिल रहा था. 1858 आते आते उन्हें पुराने कपड़े बेचने पड़ रहे थे. जुलाई 1858 में उन्होंने तफ़्ता को लिखा है,

“कई दिन हुए जो मैंने एक विलायती चोगा और एक शाली रूमाल ढाई गाजा दलाल को दिया था … वो उस वक्त रुपया लेकर आया था.”[2]

ये बात उनके दोस्त जानते थे और अगस्त में किताब छपवाने की सुन मित्रों ने अचरज किया होगा. ग़ालिब ने एक ऐसे ही एक मित्र को लिखा है,



“मियाँ, क्या बातें करते हो? मैं किताबें कहाँ से छपवाता! रोटी खाने को नहीं, शराब पीने को नहीं, जाड़े आते हैं, लिहाफ़-तोशक की फ़िक्र है; किताबें क्या छपवाऊंगा? मुंशी उम्मीद सिंह इंदौर वाले दिल्ली आये थे. साबिक ए मारिफ़त (पूर्व परिचय) मुझसे न था. एक दोस्त उनको मेरे घर ले आया. उन्होंने वो नुस्खा देखा. छपवाने का कस्द किया. आगरे में मेरा शागिर्दे रशीद (सुशिष्य) मुंशी हरगोपाल तफ़्ता था.  उसने इस एहतमाम को अपने जिम्मे लिया. मसविदा भेजा गया. आठ आने फी जिल्द क़ीमत ठहरी. पचास जिल्दें मुंशी उम्मीद सिंह ने लीं. पचीस रूपये छापेखाने में बतरीके हुंडवी भिजवा दिए. साहबे मतवाने (प्रयत्नों के साथ) बशुमूले (प्रसन्नता पूर्वक) सई ए मुंशी हरगोपाल तफ़्ता ने छापना शुरू किया. आगरे के हुक्काम को दिखाया. इजाज़त चाही. हुक्काम ने बकमाले खुशी इजाज़त दी. पान सौ जिल्द छापी जाती है. उस पचास जिल्द में शायद पचीस जिल्द मुंशी उम्मीद सिंह मुझको देंगे. मैं अज़ीज़ों को बाँट दूँगा. परसों खत तफ़्ता का आया था. वो लिखते हैं कि एक फरमा छापना बाकी रहा है. यक़ीन है के इसी अक्टूबर में क़िस्सा तमाम हो जाए.”[3]

दस्तंबू बस उम्मीद सिंह के चलते छप पायी. मसविदा पढ़ कर उम्मीद सिंह ने पचास प्रतियां खरीदने के वचन दिए और उनके मूल्य पचीस रुपये छपने के पहले ही दे दिए. इन्ही पचीस रुपयों की पेशगी से दस्तंबू की छपाई शुरू हुई. उम्मीद सिंह आगरा जाने वाले थे. ग़ालिब ने उनके मार्फ़त तफ़्ता को दुबारा लिखा,

“तुमको यह मालूम रहे के रायसाहब मुकर्रम व मुअज्ज़म राय उम्मीद सिंह बहादुर ये रुक्का तुमको भेजेंगे. तुम इस रुक्के को देखते ही उनके पास हाज़िर होना और जबतक वहाँ रहें तबतक हाज़िर हुआ करना और दस्तंबू के बाब में जो उनका हुक्म हो बजा लाना. उनको पढ़ा भी देना और फी जिल्द का हिसाब भी समझा देना. पचास जिल्द की कीमत इनायत करेंगे, ले लेना. जब किताब छप चुके, दस जिल्दें राय साहब के पास इंदौर भेज देना और चालीस बमुजिब उनके हुक्म के मेरे पास इरसाल करना, और वो जो मैंने पाँच जिल्द की आराइश (सजावट) के बाब तुमको लिखा है, उसका हाल मुझको जरूर लिखना.”[4]

दस्तंबू में 11 मई 1857 से 31 जुलाई तक की कहानी है. इसमें बादशाह की दिल्ली से रवानगी का ज़िक्र नहीं मिलता. इसकी वजह ग़ालिब ने बतायी है,
“मुंशी उम्मीद सिंह इंदौर जाने वाले थे. अगर खत्म कर मसविदा उनके सामने आगरे न भेज देता तो फिर छपवाता कौन?

दस्तंबू की शुरुआत, जैसी परम्परा है, परमेश्वर के स्मरण से होती है. ग़ालिब ब्रह्माण्ड की विविधता और ग्रह-नक्षत्रों की चर्चा करते हुए ईरान पर हुए अरब आक्रमण पर आते हैं. इस आक्रमण के समय कहा जाता है शनि और मंगल कर्क राशि में थे. वही स्थिति, ग़ालिब ने कहा, आज है –
“वही उत्पात, क्रूरता, नरसंहार और वही अधोगति. किंतु ईरान पर एक दूसरे देश ने आक्रमण किया था. हिंदुस्तान में फ़ौज ने अपने सरदारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया. ईरान के आक्रमण के पीछे धर्म था. अज्ञानी ईरानियों ने अपना ज्ञान और अपनी बुद्धि खो कर अपने देश को बियाबान कर डाला था. इस्लाम के ईश्वरी प्रभाव से बियाबान में फूल खिले और अग्निपूजक भी एकेश्वरवाद के दामन में आये. लेकिन खूंखार जानवरों के दाम (जाल) में फंसने के लिए हिन्दुस्तानियों ने न्यायप्रिय शासकों के दामन को छोड़ दिया. सच्चाई यह है, कि अंग्रेजों को छोड़ किसी से न्याय की अपेक्षा नहीं की जा सकती”[5].
साथ ही, ग़ालिब ने अपनी स्थिति भी स्पष्ट की है,
“मैंने इनका नमक खाया है, और मेरे बचपन से इन विश्व विजेताओं ने अपने दस्तरख्वानसे मुझे खाना खिलाया है.”[6]
यह अनुच्छेद दस्तंबू की मूलगत विचारधारा को स्पष्ट करने के लिए यथेष्ट हैं.

अंग्रजों को न्याय की प्रतिमूर्ति और अपने को उनका पुराना साथी बता देने के बाद ग़ालिब ने मुग़ल दरबार के साथ अपने संबंध की चर्चा की है. दस्तंबू के अनुसार सात या आठ वर्ष पहले बादशाह ने उन्हें तिमूरी खानदान का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया था, फिर ज़ौक की मृत्यु पर बादशाह की शायरी के इस्लाह का काम भी उनके जिम्मे आ पड़ा. इनके सिलसिले में वे हफ्ते में दो दिन किला जाते थे, यदि बादशाह कभी चाहते तो वह उनके साथ कुछ समय बिताते, यदि नहीं तो दीवाने खास में कुछ घड़ी उनका इंतज़ार कर ग़ालिब अपने घर वापस आ जाते थे.

शायद कभी ऐसी बात रही हो, पर 1856 आते आते तो ग़ालिब बादशाह के बहुत प्रिय होगये थे और उन्हें दोनों शाम किले जाने के हुक्म मिले थे. एक पत्र में वे लिखते हैं,
“बीस-बाईस दिन से हुज़ूरवाला (बादशाह) रोज़ दरबार करते हैं. आठ-नौ बजे जाता हूँ, बारह बजे आता हूँ. या रोटी खाने में ज़ुह्र (दोपहर की नमाज़) की अज़ाँ होती है या हाथ धोने में. सब मुलाज़मीन का हाल यही है. और कोई रोटी खाकर जाता होगा. मुझसे बाद खाना खाने के चला नहीं जाता. ये तो जो कुछ था सो था. परसों से अज़्र राहे इनायत हुक़्म दिया है कि शाम को रेत में लबे दरिया (नदी, यमुना, के किनारे) पतंगबाज़ी होती है, तू भी सलीमगढ़ पर आया कर. खुलासा ये कि सुबह को जाता हूँ, दोपहर को आता हूँ. खाना खा कर पाँच घड़ी दम लेकर जाता हूँ, चिराग़ जले आता हूँ. भाई तुम्हारे सर की क़सम …”[7]

1856 के पहले भी ग़ालिब प्रायः बादशाह के साथ हो रहते थे. 1851 में लिखा है,
“भाई साहब को बंदगी पहुंचे. इनदिनों में हुज़ूरवाला ख़्वाजा साहब की दरगाह गए थे और अहक़रुल इबाद (तुच्छ सेवक) भी साथ गया था.”[8]

दिल्ली में विद्रोह की शुरुआत बताते हुए ग़ालिब लिखते हैं,

ग्यारह मई के दिन मेरठ से वे नमकहराम सिपाही दिल्ली आये. शहर के पहरेदार भी शायद उनसे मिले हुए थे. शहर में नमक (अंग्रेजों) के प्रति वफादार लोग भी थे पर वे अलग अलग गलियों में थे और लड़ पाने में सर्वथा अक्षम. “मैं भी उन्ही लोगों में था, अपने घर में बंद, बस बाहर का हो हल्ला सुनता था – सैनिकों की आवाजें, घोड़ों के दौड़ने की आवाजें और बाहर देखने पर मिटटी को खून से सनी पाता था. … हाय, वे विद्वान अंग्रेज – विद्वता और न्याय के मूर्तरूप, उनकी तन्वंगी, चंद्रमुखी औरतें, हाय हाय गुलाब और लाला (ट्यूलिप) के समान उनके निर्दोष बच्चे – सभी मौत के उस भंवर में फँस गए और खून के उस समुद्र में डूब गए. … हिन्दुस्तान की दुर्दशा पर कोई हृदय जो पाषाण का नहीं हो, द्रवित हो जाएगा, कोई आँख जो निर्जीव नहीं हो, बहने लगेगी.”[9]

पूरी किताब इसी रंग में लिखी गयी है.

यह ध्यातव्य है कि ग़दर के दिनों में ग़ालिब अपने घर में बंद नहीं रहते थे, जैसा उन्होंने लिखा था. मुंशी जीवन लाल का रोज़नामचा ग़ालिब की इस बात को नकारता है. जीवन लाल विद्रोह के पहले बादशाह और अंग्रेजी हुकूमत के बीच एक महत्वपूर्ण मध्यस्थ था. उसके ऊपर अंग्रेजों की तरफ से बादशाह के परिजनों को मिलती पेंशनों की देख रेख का जिम्मा भी था और उसे किले आने जाने की पूरी छूट मिली हुई थी. विद्रोह के दौरान दिल्ली में रहते हुए वह अंग्रेजों के लिए मुखबिरी कर रहा था और विद्रोह के बाद मुंशी जीवन लाल ‘ग़दर का दलाल नाम से जाना गया. अपने रोज़नामचे में 13 जुलाई 1857 के दिन, जिस दिन आगरा के अंग्रेजों के हाथ से निकल जाने की खबर दिल्ली आयी थी, जीवन लाल ने लिखा है,
“मिर्ज़ा नौशा (ग़ालिब) और मुकर्रम अली ने बादशाह की (आगरे पर) फतह का जश्न मनाते कसीदे पढ़े थे”[10]
दस्तंबू के अपने अंग्रेजी अनुवाद के परिचय में ख्वाजा अहमद फ़ारुक़ी ने लिखा है कि 11 अगस्त 1857 के दिन भी ग़ालिब ने बादशाह की खिदमत में एक क़सीदा पढ़ा था और उस दिन ज़फ़र ने उन्हें एक खिलत दी थी[11]. इसका सन्दर्भ जीवन लाल के रोज़नामचे में नहीं मिलता. 11 अगस्त के दिन बागियों ने ज़फ़र के सबसे प्रमुख सलाहकार हकीम अहसनुल्लाह खाँ का घर लूट कर जला दिया था और इसकी कम उम्मीद है कि ज़फ़र को उसदिन कसीदे सुन पाने की फुर्सत या इच्छा रही हो. 

दस्तंबू में दूर दराज के शहरों की भी चर्चा है– बरेली के पथभ्रष्ट सरदार ने बादशाह को सोने के कितने मुहर भेजे, रामपुर के नवाब ने क्या किया, लखनऊ में क्या हुआ – आदि आदि. अपने घर में बंद ग़ालिब ने यह सब कैसे जान लिया इसकी कोई चर्चा नहीं है. ग़ालिब ने इसे अपनी डायरी बतायी है, गोया वे रोज इसे लिखते रहे थे. इसे पढ़ने पर वैसा कुछ नहीं लगता. यदि हर रोज वे कुछ लिखते भी रहे होंगे तो भी अगस्त 1858 के बाद उन्होंने अवश्य इसकी पूरी समीक्षा कर परखा होगा – यह गोरे साहबों को कितना प्रिय लगेगा और उसके बाद ही इसके प्रकाशन की वे सोच पाये होंगे.

दिल्ली की मार-काट के बाद ग़ालिब ने रिज (दिल्ली के पश्चिम स्थित अरावली श्रृंखला का पहाड़ी हिस्सा) पर अंग्रेज बैटरी (तोपों की लाइन) का वर्णन करते हुए लिखा है, न्यायमूर्तियों ने रिज को शान्ति के एक द्वीप में बदल दिया था. कई रोज़ की भारी गोला-बारी के बाद 14 सितम्बर के दिन अंग्रेज कश्मीरी दरवाजे से दिल्ली के अंदर आ पाए थे. दिल्ली के गली कूचे में हुई घमासान लड़ाई के बाद शहर से लोगों के पलायन की चर्चा भी है. लेकिन ग़ालिब लिखते हैं,
“मेरे हृदय में कोई भय नहीं था, न मेरी टांगें डर से काँप रहीं थीं. मैंने खुद से कहा था, मैं कोई मुजरिम तो नहीं जिसे कोई सजा मिलनी चाहिए और अंग्रेज निर्दोष को नहीं मारते. दिल्ली मेरे लिए बुरी जगह नहीं थी और मैंने तय किया कि मुझे भागने की नहीं सोचनी चाहिए. अब मैं अपने घर के एक कोने में अकेला बैठा हूँ, साथी के नाम बस यह कलम है मेरे साथ. मेरी आँखों से आँसू निकलते हैं हैं मेरे कलम से दुःख भरे शब्द.”[12]

ग़ालिब ने दस्तंबू में अपने विक्षिप्त भाई की मृत्यु का भी वर्णन किया है. 1857 में ग़ालिब ने उसे साठ वर्ष का बताया है– निश्चित ही उन्होंने हिजरी वर्ष गिने होंगे जैसा उर्दू या फारसी लेखन में रिवाज था. तीस वर्ष (हिजरी) की उम्र में उनका भाई मिर्ज़ा युसूफ अली विक्षिप्त हो गया था.
“पिछले तीस वर्षों से वह शांतिपूर्वक मेरे घर से दो हजार डेग पर अपने घर में रह रहा है. उसकी पत्नी, बेटियाँ और उनके बच्चे, अपनी दाइयों के साथ दिल्ली से निकल चुके हैं, घर के विक्षिप्त मालिक को एक (वृद्ध) दरबान और (वृद्धा) दासी के भरोसे छोड़ कर. अगर मुझमें जादुई ताकत रहती, तो भी मैं इस हालात में उन तीनो को अपने घर नहीं ला सकता, और यह गम मेरे दिल को साल रहा है.”[13]

अंग्रेजों के शहर में प्रवेश करने के कुछ दिनों बाद कुछ सैनिक ग़ालिब के भाई के घर में लूट पाट करने घुसे थे. ख्वाजा अहमद फ़ारुक़ी का दस्तंबू का अंग्रेजी अनुवाद कुछ इस तरह पढता है: 


“बुधवार, इकत्तीस सितम्बर, फतह के सतरह दिनों बाद …”[14]  मगर सितम्बर में इकत्तीस दिन नहीं होते. तीस सितम्बर 1857 एक बुधवार था, इससे यही लगता है, ग़ालिब ने इसी तिथि को लिखना चाहा होगा. लेकिन उस दिन तक दिल्ली की फतह को सतरह दिन पूरे नहीं हुए थे. दिल्ली पर अंग्रेज ब्रिगेडियर जेनेरल निकलसन का कब्जा 21 सितम्बर के दिन हो पाया था, वैसे 14 सितम्बर को आक्रामक दिल्ली में घुस चुके थे और 14 से 21 सितम्बर तक दिल्ली की गलियों में घमासान युद्ध होता रहा था. यदि 14 सितम्बर से दिन गिनें तो 30 सितम्बर सत्रहवाँ दिन बनता है और एक मामूली सुधार के बाद ग़ालिब की बात मानने लायक दिखती है.  बुधवार 30 सितम्बर के दिन ग़ालिब को मिर्ज़ा यूसुफ़ के घर में सैनिकों द्वारा लूट-पाट करने की खबर मिली. लेकिन यह भी कि उनका भाई और उसके दोनों वृद्ध अनुचर सुरक्षित थे. 
        
आगे ग़ालिब ने लिखा है,
“सोमवार, 19 अक्टूबर को दैनिन्दिनी से हटा देना चाहिए. … सुबह सुबह अभागे दरबान ने मेरे भाई को (इस दुनिया से) मुक्त करती उसकी मृत्यु की खबर दी. उसने कहा कि (मिर्ज़ा यूसुफ़ को) पाँच दिनों से तेज बुखार था और आधी रात के करीब वह चल बसा.”[15]और वहीँ मिर्ज़ा यूसुफ़ की मौत पर मोइनुद्दीन खां ने लिखा है, “मिर्ज़ा असदुल्लाह खां का भाई, मिर्ज़ा यूसुफ़ खां, जो लंबे अरसे से विक्षिप्त रहा था, गोलियों की आवाज सुन कर, यह देखने कि क्या हो रहा है, बाहर गली में निकला और मारा गया”[16].

मिर्ज़ा यूसुफ़ की मौत अंग्रेज (या शायद सिक्ख या गुरखा) सैनिकों की गोलियों से हुई होगी. ग़ालिब को यह सच्चाई लिखने में संकोच हो रहा होगा क्योंकि पूरा गुलदस्ता बन रहा था मलिका को देने के लिए और वे कैसे कह सकते थे कि मलिका के फौजियों ने उनके निरपराध भाई को गोलियों से उड़ा दिया.लिहाजन अपने भाई की मौत पर उन्होंने एक कहानी गढ़ दी! 

जब दस्तंबू छपने छपने को हो रही थी तो ग़ालिब ने एक क़सीदा लिखा, साठ शेर थे और उस क़सीदे को उन्होंने अंग्रेज साहबों को दी जाने वाली किताबों के ऊपर लगाने का विचार किया, जिससे “किताब को क़सीदे से इज़्ज़त और क़सीदे को किताब के सबब से शोहरत हासिल हो जाएगी”[17].  क़सीदे का शीर्षक था, “तहनियते फ़तहे हिंद और अमलदारी-ए शाही”, यानी हिंद पर विजय और शाही राज स्थापित होने पर अभिनन्दन. ग़ालिब की यह भी हिदायत थी कि क़सीदे के “पहले सफे पर, जिस तरह किताब का नाम छापते हैं, इस तरह ये भी छापा जाए के “क़सीदा दर मदहे मलिकाए इंग्लिस्तान ख़ल्दुल्लाह मुल्क हा”. (इंग्लिस्तान की मलिका की प्रशंसा में, ईश्वर उनके देश को सकुशल रखे.)

इन सब बातों से प्रतीत होता है कि ग़ालिब ने दस्तंबू लिखने की अपनी सुरक्षा के लिए सोची थी. उन दिनों मुसलमानों को दिल्ली में रहने की अनुमति नहीं थी. ग़ालिब गिने चुने संभ्रांत मुसलमानों में थे जो उन उथल-पुथल के दिनों में भी दिल्ली में रह गए. वे जानते थे कि बादशाह के साथ उनके नज़दीकी संबंध छुपे नहीं रह सकते. ग़दर के दिनों में वे किले जाते रहते थे और एक अवसर पर उन्होंने ज़फ़र के सम्मान में एक ‘सिक्का[18] भी लिखा था. फ़ारूकी के अनुसार जीवन लाल के रोज़नामचे में ग़ालिब के इस सिक्के की चर्चा है, पर मेटकाफ के अनुवाद में उसका उल्लेख नहीं है[19]:

बर ज़र-ए आफताब ओ  नुकरा-ए माह
सिक्का ज़द दर जहाँ बहादुर शाह
सूर्य के सोने और चंद्र की चांदी पर
बहादुर शाह ने अपने सिक्के छापे 

ग़ालिब डरे हुए थे. कभी उनके खिलाफ कोई बात उठ सकती थी. वे बादशाह के साथ यानी अंग्रेजों की नज़र में बागियों, के साथ रहे थे. एक बार रामपुर के नवाब को उन्होंने लिखा था, “ख़ुदा का शुक्र ये कि बावजूदे ताल्लुक़े क़िला किसी तरह के जुर्म का बनिस्बत मेरे एहतमाल भी नहीं”[20]. पर डर तो उन्हें रहता ही होगा, यदि किसी तरह फिर बात खुली तो नतीजा कुछ भी हो सकता था. शान्ति स्थापित हो जाने के इतने दिनों बाद सजाए मौत तो नहीं ही होती किंतु दिल्ली से निकाला जा सकता था, क़ैद हो सकती थी. उन्हें इस की भी चिंता रही होगी कि उनका 750 रूपये सालाना ‘पिंसन जो अंग्रेज सरकार से मिलती थी वह अब मिलेगी या नहीं. उनकी पेंशन मई 1857 यानी ग़दर की शुरुआत से बंद थी. अधिकतर लोग दस्तंबू को पेंशन पुनर्जीवित करने के लिए ग़ालिब के एक प्रयास के रूप में देखते हैं.

शहर में अंग्रेजों के प्रवेश के साथ वृहत स्तर पर दंगे हुए थे. ब्रिटिश सैनिकों ने घरों में घुस कर और छतों पर चढ़ कर सोये हुओं को भी मारना शुरू कर दिया था[21]. उन्हें सड़क पर दिखते हर वयस्क पुरुष को गोली से उड़ा देने के आदेश मिले थे. गुरखे और युरोपियन सैनिक भी लूट में संलग्न थे[22]. शहर के अशराफ मुसलमनों ने भागने में भलाई देखी थी. क्या उनके साथ अन्याय हुआ था? ग़ालिब उन्हें निर्दोष देखते हैं, जैसे अपने को भी. दस्तंबू के अनुसार ग़ालिब और उनके समाज के संभ्रांत मुसलमान व्यग्रतापूर्वक अंग्रेजों के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, जिससे शहर में फिर शान्ति स्थापित हो सके. यह सच है कि ज़फ़र के वास्तविक बादशाह बन पाने की संभावना से यानी कंपनी सरकार के गिरने की संभावना से वे बहुत खुश थे. बागियों की लड़ाई के लिए संभ्रांत वर्ग ने गाहे-बगाहे काफी धन भी दिए थे. पर यह भी सच है कि संभ्रांत मुसलमानों ने यूरोपियन बच्चों और महिलाओं की हत्या  में भाग नहीं लिया था. जहाँ तक हो सका था वे उन्हें अपने घरों के तहखानों में शरण दे रहे थे. यूरोपियन बच्चों और महिलाओं को विद्रोही सैनिकों ने और समाज के निचले वर्ग ने मारा था और जब अंग्रेज सेना घुसी तो यही वर्ग आक्रामकों को संभ्रांतों के छुपने की जगह बताने लग गया था.

दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो जाने के बाद मुसलमानों को शहर के अंदर रहने की मनाही हो गयी थी. उनकी संपत्ति जब्त कर ली गयी थी. कुछ दिनों तक उन्हें सड़क पर निकल सकने के लिए एक ‘टिकट भी लेना पड़ता था[23]. ग़ालिब ने एक पत्र में लिखा है, अपने नौकर कल्याण के अस्वस्थ होने के चलते वे अपनी चिट्ठी डाकखाने नहीं भिजवा पाए क्योंकि उनके मुसलमान नौकर सड़क पर नहीं निकल सकते थे[24]. शहर की हवेलियों के तोड़े जाने की खबर गर्म थी. ग़ालिब ने लिखा है, चौक में बेगम के बाग़ में दरवाज़े के सामने, हौज़ के पास, जो कुँआ था उसमे संगो खिश्त (पत्थर और ईंट) डालकर बंद कर दिया गया. बल्लीमारों के दरवाज़े के पास दुकाने ढाह कर रास्ता चौड़ा कर लिया गया.”[25] दिल्ली में रहते किसी मुसलमान की मनःस्थिति शोचनीय रही होगी.

दस्तंबू से ग़ालिब कितने लाभान्वित हुए होंगे यह कह पाना मुश्किल है. 24 फरवरी को दिल्ली के कमिश्नर सांडर्स से ग़ालिब को बुलावा आया. अगले दिन मुलाक़ात हुई. सांडर्स को पंजाब बोर्ड के प्रमुख मैकलिओड की चिट्ठी आई थी. ग़ालिब का हाल पूछा था.
“तुम ख़िलत क्यों मांगते हो? हक़ीक़त कही गयी. … फिर पूछा गया, तुमने किताब कैसी लिखी है? उसकी हक़ीक़त बयान की. कहा– एक मैकलिओड साहब ने मांगी है, और एक हमको दो. मैंने अर्ज़ किया, कल हाज़िर करुंगा. … 28 फरवरी को गया. … मैंने कहा, किताबें हाज़िर हैं. कहा मुंशी जीवनलाल को दे आओ.”[26]

जीवनलाल को शायद किताब इसी लिए दिलवाई गयी होगी कि वह इसके वाक़यात को जाँच-परख ले. इसमें कोई शक नहीं कि सांडर्स को और सभी हाकिमों को दस्तंबू में लिखी बात और ग़दर के दिनों, या उसके पहले के, ग़ालिब और किले के ताल्लुक़ात की असलियत का पता था. फिर भी हम देखेंगे कि एक साल बाद ग़ालिब की पेंशन मंजूर हो गयी और उसके तीन साल बाद दरबार में उनकी उपस्थिति और ख़िलत की स्वीकृति भी मिल गयी. 
 
मिर्ज़ा यूसुफ़ की मौत और किले के साथ अपने संबंध को छोड़ दस्तंबू में कोई बात नहीं है जो पूरे तौर पर गलत हो. पर तथ्य ध्यानपूर्वक बीनकर रखे गए हैं, चयन एकतरफा है; और अभिव्यक्ति स्तुति सदृश. यह इतिहासकार का ब्योरा नहीं है, यह किसी संवेदनशील शायर के हृदय से भी नहीं निकला है. यह एक भयभीत किंतु चौकस, अग्रसोची इंसान द्वारा अपनी सुरक्षा के लिए तैयार किया गया अभिलेख है.
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सच्चिदानंद सिंह
जन्म: १९५२, ग्राम- तेलाड़ी, ज़िला- पलामू, झारखंड

स्कूली शिक्षा: नेतरहाट विद्यालय, झारखंड
उच्च शिक्षा: सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली
ग़ालिब साहित्य में गहन रुचि के साथ बैंकर व मर्चेंट बैंकर रहे. वर्तमान में कृषिकर्म-रत.
दो वर्षों से कहानियाँ लिख रहे हैं.  जनवरी 2018 में पहले कथा संग्रह "ब्रह्मभोज" का प्रकाशन. (प्रकाशक: अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली)

बी-604, एसबेल, लोखंडवाला टाउनशिप,
कांदिवली पूर्वमुम्बई 400 001



[1]फ़ारसी का एक शब्दकोश
[2]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1959); मुंशी हरगोपाल तफ़्ता के नाम जुलाई 1858 में लिखे एक पत्र से
[3]पूर्वोक्त; मेहदी हुसैन मजरूह के नाम अक्टूबर 1858 में लिखे एक पत्र से.
[4]पूर्वोक्त;मुंशी हरगोपाल तफ़्ता के नाम 28 अगस्त 1858 को लिखे पत्र से.
[5]ख्वाजा अहमद फ़ारुक़ी (अनुवादक), दस्तंबू, मुंबई, 1971, पृष्ठ 28
[6]पूर्वोक्त, पृष्ठ 30
[7]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र (दूसरा भाग), इलाहाबाद (1963); 9 दिसंबर 1856 को मुंशी नबी बख्श हक़ीर के नाम  
[8]पूर्वोक्त;2 मार्च 1851 को मुंशी नबी बख्श हक़ीर के नाम लिखे पत्र से
[9]ख्वाजा अहमद फ़ारुक़ी (अनुवादक), दस्तंबू,मुंबई, (1971); पृष्ठ 32
[10]चार्ल्स थियोफिलस मेटकाफ़, टू नेटिव नैरेटिव्स ऑफ द म्यूटिनी इन देलही, वेस्टमिंस्टर, (1898); पृष्ठ 150  
[11]ख्वाजा अहमद फ़ारुक़ी (अनुवादक), दस्तंबू,मुंबई, (1971); पृष्ठ 11
[12]पूर्वोक्त, पृष्ठ 41
[13]पूर्वोक्त, पृष्ठ 46
[14]पूर्वोक्त, पृष्ठ 49
[15]पूर्वोक्त, पृष्ठ 53
[16]चार्ल्स थियोफिलस मेटकाफ़, टू नेटिव नैरेटिव्स ऑफ द म्यूटिनी इन देलही, वेस्टमिंस्टर, (1898); पृष्ठ 72. मेटकाफ़ ने इसमें जीवन लाल का रोज़नामचा और मोइनुद्दीन की रपट के अनुवाद प्रकाशित किये हैं. मोईनुद्दीन पहाड़गंज का थानेदार था और रोजनामचा लिखता था मगर रपट उसने कई वर्षों बाद लिखी.  
[17] श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र (दूसरा भाग), इलाहाबाद (1963); 22 सितंबर 1858 को मुंशी नबी बख्श हक़ीर के नाम
[18]खास मौकों पर रईस अपने बादशाह को खास सिक्के छपवा कर देते थे. शायर ऐसे सिक्कों पर लिखे जाने वाले मजमून देते थे. 
[19]ख्वाजा अहमद फ़ारुक़ी (अनुवादक), दस्तंबू, मुंबई, (1971), पृष्ठ 11
[20]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1959): 7 नवंबर 1858 को रामपुर नरेश नवाब यूसुफ़ अली खाँ के नाम
[21]ज़हीर देहलवी, दास्तान-ए ग़दर, राना सफ़वी का अनुवाद, नई दिल्ली, (2017) पृष्ठ 128   
[22]चार्ल्स थियोफिलस मेटकाफ़, टू नेटिव नैरेटिव्स ऑफ द म्यूटिनी इन देलही, वेस्टमिंस्टर, (1898), पृष्ठ 71
[23]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1959); 5 दिसंबर 1857 को मुंशी हरगोपाल तफ़्ता के नाम
[24]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1959); 5 मार्च 1858 को मुंशी हरगोपाल तफ़्ता के नाम
[25]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1959); 22 दिसंबर 1858 को मीर मेहदी हुसैन ‘मजरूह’ के नाम
[26]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1959); मार्च 1859 (तारीख नामालूम) में मीर मेहदी हुसैन ‘मजरूह’ के नाम
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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-03-2019) को "जूता चलता देखकर, जनसेवक लाचार" (चर्चा अंक-3268) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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