परख : जलावतन (लीलाधर मंडलोई) : मीना बुद्धिराजा

जलावतन
लीलाधर मंडलोई
प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
प्रथम संस्करण : 2018
मूल्य :रू.200













वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई इधर पेटिंग और फोटोग्राफी में भी सक्रिय हैं. लेखन, अनुवाद, संपादन का बहु अनुभव है. 

जलावतन उनका नया कविता संग्रह है जो विस्थापन को केंद्र में  रखकर रचा गया है. मीना बुद्धिराजा इसे देख-परख रहीं हैं.











विस्थापित मानवता का त्रासद आख्यान : जलावतन             
मीना बुद्धिराजा












क रचनाकार-कवि के लिए रचना से बाहर जो दुनिया है वह बेहद संश्लिष्ट है और अधिक दुरूह. यह हमारे समय का भयावह सच है कि समकालीन साहित्य की मध्यवर्गीय संवेदना, दृष्टि और सरोकारों को लेकर बन गई रूढ़ि भी अपनी सीमाओं का विश्वसनीय अतिक्रमण नहीं करती. कविता भी इस सीमा से अछूती नहीं रही है. वस्तुत: एक सच्चे कवि को सर्वोत्कृष्ट प्रेरणा जीवन से ही मिलती है जो उसकी आधार भूमि होती है और जिसमें उसकी सृजनशीलता की जड़ें समाहित होती हैं. कला का कोई भी छद्म आवरण विषयवस्तु की प्रतिबद्धता के निर्वाह में जीवन-यथार्थ की जगह नहीं ले सकता. इस कसौटी पर समकालीन हिंदी कविता में उपस्थित सशक्त और प्रतिष्ठित कवि लीलाधर मंडलोई की कविता जीवंत, आत्मीय और मानवता के पक्ष में बोलने वाली कविता है.

उनकी कविता न्याय और अधिकारों से वंचित समाज और जीवन के संघर्ष में अंतिम पायदान पर खडे मनुष्य की पीड़ा की आवाज़ है. अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में उनका कहना है-

मैं कविता में एक पर्यटक होने की जगह प्रथमत: और अंतत: एक संवेदनशील मनुष्य होने का स्वप्न देखना चाहता हूँ. मैं अंतिम उपेक्षित, वंचित और शोषित मनुष्य को अपनी भाषा में रचने के लिए प्रतिबद्ध हूँ  अपने सरोकार को मूर्त करने के लिए मैं भाषा की तहों में जाता हूँ. अस्वीकार किए जाने के जोखिम के बावज़ूद मैं ऐसा ही कुछ करना चाहता हूँ यानि भाषा, फॉर्म, वाक्य रचना, कहन आदि में यथासंभव तोड़-फोड़.”


लीलाधर मंडलोई की कविता अपनी बहुआयामिता में संवेदना की एक नयी दुनिया गढ़ती है. वे अपनी रचनाओं में अपने से बाहर उस दुनिया में ले जाना चाहते हैं जो उनकी कविता में हमेशा से उपस्थित है और जिसे कविता से हटाना असंभव है. अपने जीवन के अदम्य संघर्षों में पगे और बचपन में ही आदिवासियों और मजदूरों को विस्थापन के दुख, गरीबी और अभावों से जूझते हुए उन्होनें देखा. एक सम्मानजनक जीवन जीने के लिए प्रकृति के मूल रहवासियों को विस्थापित और निर्वासन की जिन दुश्वारियों और व्यथा से गुजरते हुए उन्होने अनुभव किया. इन स्मृतियों के प्रभाव से अन्याय और शोषण के प्रतिकार, आक्रोश और प्रतिरोध के जो बीज उनकी सृजनशीलता में पनपे वही आगे चलकर मडंलोई जी की सम्पूर्ण कविता की आधारभूमि बने.

मेरे लिखे में अगर दुक्ख है
और सबका नहीं
मेरे लिखे को आग लगे.

मनुष्यता के प्रति गहरे रागात्मक लगाव और हाशिये की अस्मिताओं से जुड़ी उनकी कविता एक प्रखर स्वर बनकर मानव और प्रकृति की एकजुटताप्रेम और संघर्ष के अनेक पहलुओं को अभिव्यक्त करती है. उनके लिए रचना सरोकार से अधिक एक चुनौती है जिसमें उनकी परछाई धूप में जलते हुए भी एक क्षतिग्रस्त समाज में मानवीय उपस्थिति का पुनर्वास करती है. अपने परिवेश के सुख-दुख, प्रेम-घृणा और यथार्थ को अधिक मौलिक और विश्वसनीय तरीके से सचेत- जुझारु शिल्प में पाठक के सामने लाती है. मंडलोई जी की काव्य संवेदना कृत्रिमता से बिल्कुल अलग जिस तलछट में निवास करती है वह उन्हें एक नयी मानवीय भाषा में रचने के लिए विवश करती है. यह कविता कठिन और निर्मम होते वैश्विक परिदृश्य में मनुष्य विरोधी शक्तियों को पहचानने का प्रयास करती है.
 
समकालीन कविता में लीलाधर मडंलोई की कविता अपनी विशिष्ट पहचान रखती है. किसी एक पूर्वनिर्मित ढांचे में बंधकर न चलते हुए वह स्वनिर्मित जीवन की विविध स्थितियों में अदम्य जिजीविषा की प्रक्रिया का साक्षात्कार कराती है। एक प्रतिबद्ध  कवि के रूप में अपनी कविता में अनुभव-वस्तु को इतना प्रधान रखते हैं कि कला-कौशल अपरोक्ष हो जाता है. मनुष्य की चेतना और परिवेश के अन्तर्विरोध का संघर्ष यहां मूल्य-दृष्टि का व्यापक स्वरूप ले लेता है. अपने प्रमुख कविता- संग्रहो जैसे- घर-घर घूमा, रात-बिरातमगर एक आवाज़, लिखे में दुक्खएक बहुत कोमल तान, उपस्थित है समुद्र, काल बांका तिरछाक्षमायाचना, हत्यारे उतर चुके हैं क्षीर सागर में शीर्षक रचनाओं में अपनी लोकसंस्कृति की पृष्ठभूमि से  गहरे जुड़े होने पर भी मानव जीवन के नानाविध विस्तार को अपनी कविता के अनुभव में उन्होनें समेटा है. उनकी कवि-दृष्टि वैश्विक स्तर और संवेदना के धरातल पर मानवता के लिए न्याय और समानता के संघर्ष से जुड़ी है.

आज दुनिया में फैलती आक्रामक और हिंसक शक्तियों ने मनुष्य जाति का जो व्यापक उन्मूलन किया है उसे अपनी कविता की अनुभव-वस्तु में बदलकर प्रतिष्ठित कवि लीलाधर मंडलोई का नवीनम कविता-संग्रह जलावतन शीर्षक से भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन संस्थान दिल्ली से अभी प्रकाशित हुआ है जो समकालीन  हिंदी कविता की सार्थक उपलब्धि है. यह पुस्तक विस्थापन की एक वैश्विक ज्वलंत त्रासदी का अंतरंग साक्षात्कार है. सत्ता-लोलुप वैश्विक राजनीतिक शक्तियों की हिंसक विनाश-लीला का भयानक आघात और परिणाम दुनिया में व्यापक स्तर पर हुआ मानवीय विस्थापन है. विस्थापन और निर्वासन की यह दारुण विडंबना विश्व कविता में फिलीस्तीनी कवियों में स्वाभाविक और मार्मिक रूप से दिखाई देती है जिस त्रासदी को उन्होनें स्वयं भोगा है. विस्थापन और अपनी जड़ों से उन्मूलन क्या हमारे समय का केंद्रीय सच है ? लेकिन एक कवि के लिए यह विस्थापन सिर्फ भौतिक ही नहीं आत्मिक भी होता है. विश्वविख्यात फिलीस्तीनी कवि महमूद दरवेश ने एक जगह कविता के बारे मे जो लिखा है वह कवि के रूप में उनके अनुभवों और सरोकारों को स्पष्ट करता है-


“आदमी एक जगह जन्म लेता है हालांकि मरने के लिए उसके पास अलग-अलग जगहें हैं- निर्वासन, जेलखाने या अपनी मातृभूमि जिसे अतिक्रमण और उत्पीड़न ने एक भयानक दु:स्वप्न में बदल डाला है. कविता शायद हमें सिखाती है कि हम अपने भीतर एक खूबसूरत स्वप्न को ज़िंदा रखें ताकि बार-बार हम अपने भीतर ही जन्म लेते रहें और एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए शब्दों का इस्तेमाल करते रहें. एक ऐसी दुनिया जिसमें स्थायी और व्यापक शांति के लिए हम जीवन के साथ किसी करारनामे पर हस्ताक्षर करते हैं.”

इसलिए उनकी कविताएँ भी व्यापक अर्थों में विस्थापन के दु:स्वप्न और संकीर्ण घेराबंदी के बीच मनुष्य की किसी खोई हुई पहचान और स्मृतियों के बीच उसके पुनर्वास की कविताएं हैं.


इस दृष्टि से जलावतन समकालीन हिंदी कविता में वैश्विक-विस्थापन के गंभीर विषय पर पहली पुस्तक के रूप में एक उपलब्धि है. विस्थापन पर लीलाधर मंडलोई जी की नज़र पहले से रही है जो उनके रक्त में और सृजन के मूल में भी है. इसीलिए दुनिया में जहां भी यह समस्या सामने आती है, एक कवि के रूप में उसे अनुभव कर उस पर संवेदनशील होते हैं अपना रचनात्मक दायित्व मानते हुए. जब पहले ही उन्होने यह कहा था कि-

सतपुड़ा के कंधे हैं मेरे पास
इसी पहाड़ से गुज़र कर पैदल आये थे माँ-बाप
कोसों का फासला अपनी पिंडलियों के भरोसे फलांगते.

तब वास्तव में अपने माता-पिता के माध्यम से कवि ने विस्थापन की सामूहिक सामाजिक प्रक्रिया के भुक्तभोगी की पीड़ा व्यंजित की थी. जिसका अगला चरण किसी और जगह जाकर विस्थापितों का बसना है.लेकिन जलावतन का विस्थापन और निर्वासन इसकी तुलना में बहुत भिन्न धरातल का अनुभव है. कवि ने जिस गहराई और पीड़ा के साथ इस वैश्विक समस्या पर विचार किया वह आज की दुनिया की अलग तस्वीर पेश करती है.

अरब के एक बड़े भू-भाग में संस्कृतियों की टकराहट और देशों के तनाव के बीच संकीर्ण और नस्ली घृणा से भरे समय में मनुष्यता को बचाए रखने का यह संघर्ष जटिल और बहुआयामी है. जलावतन की कविताएँ उन हज़ारों-लाखों खामोश लोगों की आवाज़ हैं जो विस्थापन का चेहरा हैंअपने ही घर से बेघर- निर्वासित हैं और लगातार त्रास, अपमान और अनिश्तिताओं का कठिन जीवन जी रहे हैं-

हम शरणार्थी हैं
हमारी कोई दुनिया, कोई देश नहीं
कहते हैं वे कि हम पुकार लें अपने आपको
चाहे तुर्की, सीरियाई, ईराकी, फिलीस्तीनी या कुछ और
हम उनकी भाषा में  जलावतन हैं , शरणार्थी नहीं
और शरण मिलने का मतलब यह नहीं कि आपको
जीवन मिल ही जाए

आज के समय में  जब कोई भी विवाद या प्रश्न अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और राजनीतिक फायदे के बिना समझा-सुलझाया नहीं जा सकता. तब विस्थापन भी विश्व में एक तरफा अन्याय की वैश्विक परिघटना बन कर आती है. इस लिए यहां देश-दुनिया से विस्थापितों के लिए कवि की मानवीय पक्षधरता भी अनिवार्य हो जाती है. मंडलोई जी इस समस्या के मानवीय बिंदु को पहचानते हैं और दुनिया के अंतर्विरोधों के बीच साहस के साथ उन शक्तियों के कुटिल प्रपंच को सामने रखना चाहते हैं जिन्होनें यह अमानवीय परिस्थिति उत्पन्न की है-

मैं जिनकी वज़ह से शरणार्थी हूँ
यहीं हैं वे जो एक ओर
ढोल बजा रहे हैं शरण का और
दूसरी ओर  खड़ी हैं सेनाएँ सरहद पर.

(लीलाधर मंडलोई)


यही विडंबना है कि जो अमरीकी हैंजर्मन हैं फ्रांसीसी हैं जन्म से और दुनिया की वे जन्मना जातियाँ जिन्होने नहीं भोगा विस्थापन.’ इस तरह एक विश्वव्यापी संघर्ष और एक मानवीय विभाजन सभ्यता को अपदस्थ कर रहा है. इस समस्या की असाधारण चुनौती को कवि ने स्वीकार किया है.जिनको अपने स्थान, परिवेश और संस्कृति से बाहर धकेल दिया गया जिनसे उनके देश और शहर छिन गये. अस्मिता विहीन लोगों के लिए वह खोया हुआ शहर उनकी स्मृतियों में जीवित है जिनसे एक भावात्मक लगाव का गहरा रिश्ता है. इसलिए कवि संवेदना- सहानुभूति से आगे बढ़कर अपनी आवाज़ को उनकी आवाज़ और पहचान में शामिल करना चाहता है. यह स्वर किसी राजनीतिक नारेबाजी और चालू साहित्यिक मुहावरों का मोहताज नहीं. वह उन मर्मांतक बेचैनियों, निर्वासन और उत्पीड़न के उन हालातों से निकला है जो हमारे समय का सबसे बड़ा सच बन गए हैं और जिसकी तीक्ष्ण अनुभूति पूरे विश्व में हो रही है. कवि का संपूर्ण मानवता से प्रेम का स्वपन सामूहिक संघर्ष के बिना पूरा नहीं हो सकता-

मैं जो बोलता हूँ वह मेरा बोला नहीं
उसमें उनकी आवाज़ शामिल है
जो मेरी तरह बोलते हैं
मेरी आवाज़ में उनके क्रोध की समवेत चीख है
और नफरत में खौलते ज्वालामुखी की आग
मैं उनके साथ हूं इसलिए मेरी आवाज़ में उनका बोलना है
मैं अपने से अधिक उनके बोलने को प्रेम करता हूँ

इन कविताओं में विस्थापन के जो दृश्य हैं वे काल्पनिक नहीं वास्तविक प्रतीत होते हैं. विषय-वस्तु में विवरण कम लेकिन जो टूटन, व्यथा और बिखराव है वह भी स्थापित कला-शिल्प के ढांचे का निषेध करते हुए विस्थापन का भाषिक शिल्प बनकर संवेदना और रूप को एकात्म कर देती है. कवि को गहरा अह्सास है कि ये जलावतन लोग बहुत अकेले हैं बेसहारा जिनके साथ न कोई सरकार हैं न कोई खुदा’ .युद्ध और विस्थापन की भयावहता का अनुभव व्यक्ति के अस्तित्व को नष्ट कर देता है. ऐसे बच्चे जिन्हें मारे गये माँ-बाप का चेहरा तक याद नहीं और जो कहता है- मुझे नफरत के साथ वे फिलीस्तीनी पुकारते हैं.’ यातना की पराकाष्ठा यह है कि पुरुष ही नहीं स्त्रियाँ भी जीवन के इस युद्ध में योद्धा हैं जो आत्महत्या के इरादे से निकलती हैं और पकड़ी जाती हैं एक और बलात्कार के लिए। औरइस विनाश में ही उन्हें एक नयी शुरुआत करनी है.-

मैं युद्ध के ऐन बीच पैदा हुई
मुझे मनुष्य से अधिक
हथियार से प्रेम करना सिखाया गया
जीवन में सुख से अधिक
दुख से और
जीवन की अनिश्तितता से अधिक
मृत्यु से हमें प्रेम करना सिखाया गया

यह जलावतनी प्रत्येक मनुष्य ही नहीं उसके सहचर प्राणी जगत तोता, बिल्ली, तितली फूल, पत्ते, पक्षी, हवा, धूप, रंग इन सभी के विस्थापन से भी सृष्टि का तादात्मय मंडलोई जी की सहज संवेदना और कवि-प्रवृत्ति का परिचय देती है जो संघर्ष और चरम संकट में भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती है. यह कविता अपने समय की पहचान करते हुए पंरपरा और अतीत के अनुभवों को वर्तमान और मानवता के भविष्य के स्वप्न से जोड़ती हैं तो वह कोई पलायन नहींबल्कि जीवन मूल्यों को बचाने की उम्मीद पर टिका है. इस दृष्टि से मंडलोई जी हिंदी के दुर्लभ कवि हैं जिन्होनें यह दायित्व निभाया है-

मैं याद करता हूँ और गाता हूँ पुराने गीत
मैं अपमानों को भूलता नहीं
न ही जीता हूँ हताशा की शरण में
मैं शरणार्थी होने की लज्जा में आपादमस्तक होने के बाद
मनुष्य होने की आभा को बचाये हूँ
मैं सिर्फ अपने हक़ की लड़ाई में हूँ

मनुष्य की जिजीविषा के साथ उसकी निर्माण शक्ति में विश्वास भी कवि को सृष्टि के हर तत्व और वस्तु से मिलता है जो अमानवीयता के विरुद्ध एक अदम्य शक्ति बनकर खड़ी होती है. इस आदिम राग में निजता और सार्वभौमिकता का समन्वय मंडलोई जी का उदात्त काव्य स्वर निर्मित करता है. ये कविताएँ केवल काव्यात्मक बिम्ब नहीं हैं लेकिन उनमें आज के विश्व की भयावहता और दहशत का बोध और प्रतिकार एक साथ है. जिस विराट सभ्यता को आततायियों ने उन्मूलित किया है उसको फिर से बचाने का संघर्ष और उम्मीद है- वर्तमान में उस दुनिया के भविष्य का स्वप्न है जहां अन्याय और मनुष्य की बेदखली नहीं है. जब कविता में यह प्रतिध्वनि सुनाई देती है-

कितना कुछ अचानक यह सब
अचानक कलह
अचानक मारकाट
अचानक युद्ध
अचानक मौतें
अचानक रुदन
इस तरह एक दिन अचानक हुआ बेघर
अचानक हुआ शरणार्थी
अचानक इस जीवन में
अचानक यह जीना मरना.

यह अचानक युद्ध का परिवेश और अप्रत्याशित परिस्थितियाँ उस परिवेश और यथार्थ का प्रासंगिक बयान हैं कि जिसमें जो निर्दोष-पीड़ित और निरपराध मानवता है उसकी यंत्रणा को कवि मार्मिकता और विश्वसनीयता से यहां संप्रेषित करने मे समर्थ है. यह मानव-विरोधी क्रूर मानसिकता आज भी विश्व स्तर पर एक चुनौती है जिसके प्रतिरोध में कवि का विवेक इतना सजग है कि वह साम्राज्यवादी देशों के कसीदे नहीं लिखता-

मैं उनका साहित्य पढता हूँ और
अपनी उस धरती के बारे में लिखता हूँ
जो घसीट ली गई है डायनामाईट के ढेर पर.

यह मानवतावादी मूल्य-दृष्टि मंडलोई जी के इतिहास बोध और काव्य संवेदना को अपने आसपास और दूरदराज दुनिया में कहीं भी घटित होने वाले मानवीय संकट के प्रति जागरूक करती है.हिंदी के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने इस कविता-संग्रह के लिए आवरण पृष्ठ पर लिखा है-

 “मंडलोई ने इस लगभग वैश्विक भयावहता को कविता के शब्दों में खींच लिया है. ये कविताएँ करुणा का रस नहीं करुणा का कालकूट सा प्रभाव पैदा करती है. जलावतन की कविताओं को एक साथ पढें तो इसमें विस्थापन की एक गाथा भी उभरती है. मंडलोई जी की सर्जनात्मक प्रामाणिकता का लक्षण यह है कि इस विस्थापन दुख में उनका अपना विस्थापन अनुभव भी घुल-मिल गया है जो इन कविताओं की काव्य वस्तु को आत्मसात कर लेने का प्रमाण है. इस संकलन में मटमैले ताबीज़ वाले फिलीस्तीनी के साथ गोबर लिपा आँगनऔर माँ की नर्मदा-किनारवाली साड़ी की सिर पर पल्ले की याद याद भी नत्थी है. जलावतन हिंदी की काव्य वस्तु में नया जोड़ने वाली किताब है.”

एक कवि और रचनाकार होने के साथ संस्कृति प्रेमी, साहित्यक-पत्रकार,छायाकंन, साहित्यकारों पर डॉक्यूमेंट्री फिल्म-निर्माण, निर्देशन, संगीत और लैंडस्केप से लेकर अमूर्त चित्रकला में सक्रियऔर गहरीपरख रखने वाले मंडलोई जी की संवेदना और सरोकारों का कैनवास बहुत विस्तृत है.कविता के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित और सजग- संपादक रहने के साथअपनी कवि-कलाकार दृष्टि में न तो वे इस धरती- प्रकृति और मनुष्यता का कोई कोना छोड़ते हैं और बेहद निर्मम होते समय में मानवीय जीवन की वास्तविक छवियों को पकड़ते हैं. जीवन और साहित्य में घृणा का कोई स्थान नहीं होता और जीवन के द्वंद्वात्मक स्वरूप में एक संवेदनशील कवि प्रेम को ही बचाने का स्वप्न कविता में पूरा करता है. इस कविता-संग्रह के आखिर में कितना अमरशीर्षक कविता में महान कवि केदारनाथ सिंहको स्मरण करते हुए कवि की आस्था शब्दों में, प्रेम में है कि अंतत:-

वो गहता है अखंड मौन
अब लौटना है उसे
सुनते हुए.. अग्नि-राग
लौटना है
सूर्य में
जल में
पवन में
आकाश और
धरा में

जलावतनसंग्रह की कविताएँ भी हमारे समय की साक्षी बनकर वर्चस्ववादी और विनाशकारी महाशक्तियों के कारण तबाह और विस्थापित मानवता की त्रासदी की जीवंत गाथा बनकर भविष्य में सबको एक रचनाकार के दायित्व और प्रतिबद्धता के साथ जिम्मेदारी निभाने की चुनौती भी देती रहेंगी. इस सार्थक पुस्तक की समृद्ध भूमिका हिंदी के गंभीर विद्वत आलोचक अजय तिवारी ने लिखी है जो इस कविता-संग्रह के महत्व को स्थापित करती है. सुरेंद्र राजन के शब्दों में- 

“इस कविता-संग्रह में वैश्विक करुणा की इमेजेस हैं जो आज के महानगरीय पूँजीवादी परिवेश के हृदयहीन जगत में दुर्लभ हैं.”

समकालीन हिंदी पाठकों को विश्व इतिहास को प्रभावित करनेवाली एक परिघटना से साक्षात्कार कराने के लिए जलावतन की  मार्मिक कविताएँ बहुत समय तक हमारी चेतना को वैचारिक तौर से आंदोलित करती रहेंगी.
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मीना बुद्धिराजा 
संपर्क-9873806557

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  1. Very nicely written review
    Covering a vast canvas of different shades with one soul.

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (25-03-2019) को "सबके मन में भेद" (चर्चा अंक-3284) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. गहन शोधपरक समीक्षा बधाई मीना बुद्दिराजा जी।’जलावतन’ को समझने और आत्मसात करने का एक और अवसर ।शुभकामनाएँ आदरणीय ।

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