परख : चौंसठ सूत्र, सोलह अभिमान (अविनाश मिश्र) : प्रभात कुमार














अविनाश मिश्र का  दूसरा कविता संग्रह 'चौंसठ सूत्र, सोलह अभिमान' इसी वर्ष वसंत में राजकमल प्रकाशन से खूब सज धज के साथ प्रकाशित हुआ है. प्रभात कुमार इसे देख-परख रहें हैं.








चौंसठ सूत्र, सोलह अभिमान
रति का नया पाठ                                      
प्रभात कुमार





शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार-सी गिरी है अभी
            

चौंसठ सूत्र, सोलह अभिमानहिंदी के विशिष्ट युवा हस्ताक्षर अविनाश मिश्र का दूसरा काव्य-संग्रह है. जैसा कि कवि ने स्वयं स्वीकार किया है, ‘यह संग्रह कामसूत्र से प्रेरित है. इसमे शामिल कविताओं को पढ़कर लगता है कि यह कई मायनों में हिंदी कविता की एक नई जमीन तैयार कर रहा है.

इस संग्रह की कविताओं की विषय-वस्तु को स्पष्ट करने के लिए इसी में शामिल एक कविता की दो पंक्तियाँ देखिए-

बहुत रूप हैं तुम्हारे
रंग सिर्फ मेरा"

इस  संग्रह की कविताओं के कई-कई रूप हैं, पर रंग है सिर्फ एक-  रति. संग्रह के मुखपृष्ठ पर कामसूत्रसे प्रेरितलिखकर सम्भवतः इसी बात की ओर इशारा किया है कवि ने, अर्थ यह है कि  कवि ने इस संग्रह की कविताओं की विषय-वस्तु में विविधता नहीं रखी है, उसको व्यापक नहीं बनाया है, उसे मानव-जीवन के एक विशेष आयाम तक ही सीमित रखा है. किन्तु, ऐसा करने के कारण कवि को एक बहुत बड़ा फायदा यह हुआ कि वह निश्चिन्त व एकाग्र होकर इस एक विषय- रति के विभिन्न रूप, रंग, आभा, छवि, यति, गति, लय, छंद की गहराईओं में उतर कर इनकी बारीकियों को शब्दों में  अत्यंत काव्यात्मक ढंग से उकेर सका है.

इस संग्रह की कविताओं में व्यापकता की बजाय गहराई को वरीयता देकर इसे ही साधने की कोशिश की गई है.  आलिंगन’, ‘चुम्बन’, ‘नखक्षत’ , ‘दंतक्षत’, ‘संवेशन’, आदि कविताओं के जरिये रति के ही विभिन्न आयामों की अतल गहराइयों में उतरता दिखता है कवि.

आज हिंदी कविता में ऐसा कम ही दिखता है. अमूमन कविता-संग्रहों में विषय-वस्तु में विवधता तो बहुत होती है पर गहराई कम... विजयदेव नारायण साही ने अपनी एक कविता में इसी प्रवृति को प्रतीकात्मक एवं शिकायत भरे शब्दों में कुछ यूं रेखांकित किया है-

इस बस्ती में अब कोई गोताघोर नहीं रहा
हम सब समतल पगडंडियों के मुसाफ़िर हैं

लेकिन, अविनाश मिश्र का यह संग्रह इस बात का गवाह है कि समतल पगडंडियों के मुसाफिरों की भीड़ में आज भी कुछ गोताखोर मौजूद हैं.

अशोक वाजपेयी ने अपने वक्तव्य में कहा है कि साहित्य का देवता ब्योरों में बसता है. और, आद्यंत एक ही विषय-वस्तु होने के कारण कवि काफी तसल्ली से रति के ब्योरों को अत्यंत काव्यात्मक ढंग से उकेर सका है. एक उदाहरण देखें-

खुद को तुम्हें देकर
तुम्हें बड़ा और गहरा किया मैंने

मैं भरता हूँ तुम्हारी नाभि में जल
भरती नहीं मेरी प्यास

तुम्हारा अभाव नष्ट हुआ
मेरा स्वभाव.                  
(‘तनुता’)


तुमने इस क़दर सताया मुझे
कि तुम्हें लगा तुम भी सता सकती हो

एक सतायी गई स्त्री भी सता सकती है
यह तुम बता सकती हो”                
('उन्माद')

मैं ऐसे प्रवेश चाहता हूँ
तुममें
कि मेरा कोई रूप न रहे
मैं तुम्हें ज़रा-सा भी न घेरूं
और तुम्हें पूरा ढंक लूँ”           

(‘इत्र’)


यद्यपि इस संग्रह की कविताएं काम सूत्र से प्रेरित हैं, किंतु रतिकर्म एवं स्त्री के प्रति एक नई संवेदनात्मक दृष्टि से युक्त भी है अतः  ये कविताएँ पुनरुक्ति नहीं हैं बल्कि पुराण हैं, जो पुराने को नया करती हैं. कुछ उदाहरण देखें-

अनैतिकताएँ
कुछ भी पहन लें
वासनाएं ही जगाती हैं :
प्रेम
प्रगतिशीलता
स्त्रीविमर्श     

औऱ,

एकल रहना है स्त्रीवाद
मुझे चंद चाहिएकहना है स्त्रीविरोधी
कौमार्य की चाह में न बहना है प्रगतिशीलता    

इस संदर्भ में सवर्णाशीर्षक से लिखी गयी कविता तो एकदम ही नई भावबोध पर आधारित स्तब्ध कर देने वाली कविता है. इस संग्रह की स्त्री-विषयक दृष्टि पर अलग से विस्तारपूर्वक बात होनी चाहिए.

इस संग्रह में कई कविताएँ ऐसी भी हैं जो उपदेशात्मक मुद्रा में हमें सीख देता है कि स्त्री के विभिन अंगों के प्रति किस प्रकार बरताव करना चाहिए. योनिरेखाकविता को देखें-

समय से पूर्व पहुंचना मूर्खता है
समय पर पहुंचना अनुशासन
समय के पश्चात पहुंचना अहंकार

स्त्री-अंगों की विशिष्ट प्रकृति को उजागर करने की यह तकनीक एक अभिनव प्रयोग है हिंदी कविता में.




रूपाकार

इस संग्रह की शिल्पविधि के संदर्भ में  सबसे स्पष्ट बात यह है कि इसमें शामिल सभी कविताएँ  रूपाकार में छोटी हैं. सवाल है कि ऐसा क्योंकर है? क्या इसलिए कि आधार ग्रन्थ स्वयं ही सूत्र पद्धति में लिखा गया है? या इसलिए कि कवि के चेतन-अवचेतन में यह समझ है कि आज के युग में विज्ञान और प्रौद्योगिकियों में परिवर्तन की गति अति तीव्र होने के कारण जीवन में, मूल्यों में और भावनाओं को महसूसने के तरीकों में भी काफी तेजी से बदलाव हो रहे हैं. 

आधुनिक समय में भावनाएं अधिक transient और ephemeral हैं….और इसलिए इनको पकड़ने के लिए छोटी कविताओं का रूपाकार ज्यादा उपयुक्त है या फिर, कवि के अवचेतन में यह बात थी कहीं न कहीं कि आज एक तो हिंदी साहित्यिक जगत पाठकों की संख्या के न्यूनीकरण से जूझ रहा है और, दूसरा यह कि सोशल मीडिया के कारण पाठकों के पढ़ने के तरीकों में कई बदलाव आये हैं, जिनमे एक है - limiting the grasping concentration to a very short span of time ऐसे में, लंबी कविताओं की प्रासंगिकता स्वतः कम होती जा रही है क्योंकि लंबी कविताएँ पाठक से जिस sustained धैर्य, एकाग्रता और involvement की मांग करती हैं वो आज हिंदी जगत के पाठकों में कम होती जा रही है ऐसे में हिंदी कविता को लोकप्रिय बनाने और इसके पाठक-जगत का विस्तार करने में लघु-कविताएँ महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं.

मेरी समझ में छोटी कविताएँ होने का एक और कारण हो सकता है, इस संग्रह की विषय-वस्तु सीमित है और चूंकि काम की भावना में तीव्रता बहुत होती है, बेधकता बहुत होती है पर बहुत लंबी समयावधि तक वह sustain नहीं की जा सकती है. और,  दूसरे यह कि रतिकर्म दरअसल monolithic नहीं होता है...यह भावनाओं की एक ऐसी श्रृंखला है जिसमें प्रत्येक भाव बड़ी तीव्रता और आवेग के साथ उत्पन्न होता है और एक विशिष्ट act के जरिये एक विशिष्ट आनन्द  प्रदान कर तिरोहित होता है एवम अगली भावना और act की उत्पत्ति हेतु जमीन तैयार करता है.

स्त्री के विभिन्न आभूषणों की बात करें तो रतिकर्म के दौरान विभिन्न आभूषणों की एक विशेष भूमिका होती है पुरुष के भीतर कामावेग उतपन्न करने,  उसे आगे बढ़ाने में और सुख देने में. लेकिन रतिकर्म में आभूषणों की ये भूमिकाएं भी दिक्-काल का अत्यंत लघु आयाम ही घेरती हैं. इसिलए इस संग्रह की कविताएं भी इसी पद्धति का अनुसरण करता है...इसमें शामिल हर कविता रतिकर्म की एक विशिष्ट भावना और उससे प्रेरित एक्ट और तज्जनित आनंद की कविता है. इसलिए रूपाकार में लघु हैं. अर्थात, कविता के लक्षित विषय ने अपना रूपाकार अपनी वास्तविक प्रकृति के अनुसार स्वयम ही निर्मित किया,और कवि ने इसमें कोई व्यवधान या हस्तक्षेप नही किया है.

यदि ऐसा है तो यह कहा जा सकता है कि कवि के रचना-कर्म की प्रकृति Democratic है.जिसमें कवि बस अपनी ही नहीं कहता-सुनता और अपनी ही नहीं चलाता है बल्कि कविता को कहने-सुनने और कविता को उसी के नैसर्गिक तरीके से रूपाकार इख़्तियार करने की पूरी छूट देता है.

कवि ने इस संग्रह की भूमिका में और अपने वक्तव्य में  यह कहा कि उसने कविता लिखीनहीं है, बल्कि कविता  स्वयं हुईहै, वह कविता तक नहीं पहुंच, बल्कि कविता स्वयं उस तक पहुंची है इसलिए कविताओं ने जो रूपाकार ग्रहण करना चाहा वही ग्रहण किया इसलिए कविताओं का रूपाकार छोटा है.

इस बात से कई तरह के सवाल उठ खड़े होते हैं.

एक  तो यह कि,  क्या कविताएँ दो तरह की होती हैं- एक वह जो स्वयं बनती हैं और दूसरी वह जो बनाई जाती हैं ?

दूसरा यह कि, कविता को होनेदेना क्या रचना प्रक्रिया के प्रति कवि के democratic होने का इशारा है?  मतलब, कविता दिक और काल  में जितनी जगह घेरना चाहती है उसे उतनी ही जगह लेने देना और अपनी तरफ से उसपर किसी तरह की बाध्यता या मांग नही थोपन....क्या द्रष्टा होना इसी को कहते हैं ?
क्या अज्ञेय के शब्दों में यही है आँचल पसार कर लेना ?

क्या रचना प्रक्रिया में कवि  मात्र द्रष्टा होता है, मात्र साक्षी भाव से उपस्थित रहता है,  और, इस प्रकार कविता को विशुद्धतम रूप में प्राप्त करता है ? तो क्या कविता अर्जित (earned) नहीं है, प्रदत्त (given) है? यदि ऐसा है, तो क्या यह रचना प्रक्रिया के प्रति एक रहस्यमयतापूर्ण दृष्टिकोण नहीं है? क्या यह  रचना-पक्रिया के वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ समझ की राह में बाधा नहीं है?

मुझे लगता है कि हिंदी साहित्य को  इन सवालों पर गंभीरता से विचार करना होगा.



भाषिक शिल्प

इस संग्रह की सबसे जरूरी बात मुझे कविताओं के भाषिक शिल्प के बारे में कहनी हैं. ये सारी कविताएँ रतिकर्म के अंतरंग क्षणों और भाव-भंगिमाओं की कविताएं है. और, आज पोर्नोग्राफी ने इस विषय को इतना नग्न और अश्लील बना दिया है कि इनपर बात करते हुए और खासकर कविता लिखते हुए नग्नता और अश्लीलता का खतरा निरन्तर मंडराता रहता है लेकिन मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि इस संग्रह की कविताएं इस खतरे  से बिल्कुल ही बच निकलती हैं और इसके लिए कवि साहित्य के जिस भाषिक उपकरण का उपयोग करता है, वह है- व्यंजना और ध्वन्यात्मक अर्थ (suggestive meaning).

इस संग्रह की कविताएं भाषा की व्यंजनात्मक शक्ति और suggestive meanings का अद्भुत, श्लाघनीय और इष्टतम दोहन करती हैं, और ऐसा करने में कविताओं के शीर्षकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है.  अर्थात, कवि ऐसा इसलिए कर सका क्योंकि उसने हर कविता के शीर्षक को एकदम अभिधात्मक रखा है.. पूर्णरूपेण अभिधात्मक शीर्षक के कारण कविता का संदर्भ/प्रसंग पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है और फिर कवि को यह अवकाश मिला कि वह कविता में व्यंजनात्मकता और suggestive meanings की गहराइयों में गोता लगाए.

प्रत्येक कविता का शीर्षक सुस्पष्ट एवम अभिधात्मक अर्थ की वह धुरी है जिसपर कवि व्यंजनात्मकता और suggestive meanings का अद्भुत संसार रचता है. और, इसी धुरी के कारण काव्य-भाषा के व्यंजनात्मक और suggestive होने के बावजूद इसकी सम्प्रेषणीयता और ग्राहकता में कोई व्यवधान उतपन्न नही होता है इस प्रकार, यह कविता में एक नए भाषिक शिल्प की खोज है. उदाहरण के लिए योनिरेखाकविता को देखें-

समय से पूर्व पहुंचना मूर्खता है
समय पर पहुंचना अनुशासन
समय के पश्चात पहुंचना अहंकार

यदि तीन पंक्तियों की इस अत्यंत व्यंजनात्मक कविता से शीर्षक को हटा दिया जाए तो कविता को समझना अत्यंत मुश्किल है.

सम्पूर्ण मानव-जीवन और रतिकर्म भी द्वंद्वात्मक है. इसलिए इनकी सच्चाइयों को पकड़ने वाली रचना में भी द्वंद्वात्मकता मिलेगी. इस संग्रह में हर कविता के भाषिक-शिल्प की प्रकृति द्वंद्वात्मक है. शीर्षक अभिधात्मक है और कविता  व्यंजनात्मक. इस प्रकार, अभिधा और व्यंजना के द्वंद्व से इस संग्रह की कविताओं का भाषिक-शिल्प निर्मित हुआ है.

चौंसठ सूत्रकी कविताएं अपनी भाव-भंगिमा, रूप-विधान और भाषिक शिल्प के जरिये कई नई बहसों को जन्म देती हैं.उम्मीद है हिन्दी साहित्य जगत में इन बहसों की शुरुआत जल्द ही होगी.
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प्रभात कुमार
अनुवादक
लोक सभा, संसद भवन
Mobile : 8527346671

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  1. बहुत बढ़िया... उत्कृष्ट..

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  2. बहुत सुन्दर कोलाज़ है कि जिसकी समीक्षा आपने बखूबी बयां किया है।

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  3. समीक्षा पढ़कर पुस्तक पढ़ने का मन हो आया है! अमेजन से तत्काल ऑर्डर की जा रही है। कविताएं पढ़कर एक बार फिर आपकी समीक्षा से गुज़रा जाएगा। फिलहाल समीक्षक और कवि दोनों को हार्दिक बधाई - अमित धर्मसिंह

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