कृष्णा
सोबती : मृत्युलोक के नश्वर
कृष्णा
सोबती ने मुक्तिबोध के लिए इस शीर्षक के नीचे लिखा है – “मुक्तिबोध के लेखकीय
अस्तित्व में ब्रह्माण्ड
के विशाल, विराट विस्तार का भौगोलिक अहसास और उससे उभरती, उफनती,
रचनात्मक कल्पनाएँ अन्तरिक्ष, पृथ्वी और घनी आबादियों के शोरगुल-कोलाहल के अलावा
उनके ध्वनि- संसार में से उठ खड़े होते हैं – कुटुंब, कबीले, व्यक्ति, नागरिक,
जातीयता, सामाजिक समूह और राजनीतिक दलों के अखाड़े.”
यह
खुद कृष्णा सोबती के लिए भी सटीक बैठता है.
बीसवीं सदी के विश्व के महत्वपूर्ण लेखकों में से एक कृष्णा सोबती आज नहीं हैं पर उनके सकर्मक जीवन की स्मृतियाँ और उनका विस्तृत लेखन रहेगा, वे इस मृत्युलोक की नश्वर हैं.
बीसवीं सदी के विश्व के महत्वपूर्ण लेखकों में से एक कृष्णा सोबती आज नहीं हैं पर उनके सकर्मक जीवन की स्मृतियाँ और उनका विस्तृत लेखन रहेगा, वे इस मृत्युलोक की नश्वर हैं.
ज़िंदगीनामा
के बहाने कवयित्री अनुराधा सिंह उन्हें याद कर रहीं हैं.
बक़ा बलूच
कृष्णा सोबती चली गयीं लेकिन कुछ यूँ गयीं जैसे पूरी की पूरी यहीं हों, हमारे बीच. वे सचमुच इस फ़ानी दुनिया का एक जावेदाँ (अमिट) नाम हैं. पिछले साल उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान मिलने पर ज़्यादा उल्लास इस बात का हुआ था कि सम्मान एक ऐसी महिला को मिला जिसने अपने लेखन की ज़मीन पर किसी दूसरे आसमां की सरमायेदारी कभी नहीं चाही, वे लेखक के तौर पर एक बसे हुए नगर की तरह, जंगल की तरह, जीवन की तरह विस्तृत और मौलिक थीं. उनकी हर रचना एक मुकम्मल दुनिया है. जिंदा धड़कती हुई दुनिया. जिंदा चरित्र, जिंदा पृष्ठभूमि. उन्हीं की सामर्थ्य थी कि अपनी हर कृति में वे एक समूचे गांव को एक साथ समेट लेती थीं. एक भी पात्र धुंधला या फोकस के बाहर नहीं होता, सब मंच पर सामने खड़े होकर अपनी भूमिका निबाहते थे, फिर भी कहीं दुहराव या बिखराव नहीं. उनकी कहानियों में उनके भाषाई प्रयोग, विशेष तौर पर पद्य का समावेश उन्हें बहुत सजीव बना देता था.
‘तेरा हुस्न गुलज़ार बहार बनया
‘ज़िंदगीनामा’के बहाने याद कृष्णा सोबती
(पंजाब के सूफी व लोक संगीत का वैभव)
अनुराधा सिंह
जिस्म अपने फ़ानी हैं जान अपनी फ़ानी
है फ़ानी है ये दुनिया भी
फिर भी फ़ानी दुनिया में जावेदाँ तो
मैं भी हूँ जावेदाँ तो तुम भी हो.”
बक़ा बलूच
कृष्णा सोबती चली गयीं लेकिन कुछ यूँ गयीं जैसे पूरी की पूरी यहीं हों, हमारे बीच. वे सचमुच इस फ़ानी दुनिया का एक जावेदाँ (अमिट) नाम हैं. पिछले साल उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान मिलने पर ज़्यादा उल्लास इस बात का हुआ था कि सम्मान एक ऐसी महिला को मिला जिसने अपने लेखन की ज़मीन पर किसी दूसरे आसमां की सरमायेदारी कभी नहीं चाही, वे लेखक के तौर पर एक बसे हुए नगर की तरह, जंगल की तरह, जीवन की तरह विस्तृत और मौलिक थीं. उनकी हर रचना एक मुकम्मल दुनिया है. जिंदा धड़कती हुई दुनिया. जिंदा चरित्र, जिंदा पृष्ठभूमि. उन्हीं की सामर्थ्य थी कि अपनी हर कृति में वे एक समूचे गांव को एक साथ समेट लेती थीं. एक भी पात्र धुंधला या फोकस के बाहर नहीं होता, सब मंच पर सामने खड़े होकर अपनी भूमिका निबाहते थे, फिर भी कहीं दुहराव या बिखराव नहीं. उनकी कहानियों में उनके भाषाई प्रयोग, विशेष तौर पर पद्य का समावेश उन्हें बहुत सजीव बना देता था.
ज़िंदगीनामा ऐसी कालजयी कृति है जिसके
कथानक के बिरवे के लिए पंजाब के गाँवों की आंचलिकता से छलकते सूफी और लोक गीत उपजाऊ
ज़मीन का काम करते हैं. इन गीतों में पंजाब के साहित्य और संस्कृति की सौंधी खुशबू
ही नहीं जट्ट बाँकुरा इतिहास और रूमान भी है. इन्हीं गीतों के जरिये कृष्णा सोबती
अपनी पंजाबियत के सूफी वैभव से हिंदी साहित्य को समृद्ध बना गयीं हैं. उपन्यास में
शामिल देशज गीत और कवित्त पंजाब के मतवाले इश्किया और बलिष्ठ पौरुष से भरपूर तेवर रचने में
महती भूमिका निबाहते दीखते हैं. उपन्यास के पूर्वार्ध में ही जहाँ शाह शाहनी के घर
पर त्रिंजन (तीज) मनाई जा रही है गाँव की लड़कियाँ चरखा कातने आती हैं और वारिसशाह
की हीर ‘उठाकर’ हवेली गुँजा डालती हैं.
‘डोली चढ़दया मारियाँ हीर चीकाँ
मैनू लै चल बाबला लै चलो वे’
और चाची महरी कहती है, “रब्ब रखवाला न हो आशिकों का तो मुहब्बतें तोड़ नहीं चढ़तीं. चनाब पार
करने वाले घड़े ही गल जाते हैं.” गाने में पारंगत गाँव की बेटियाँ बाबो और फातमा सुहाग और भाई के
ब्याह की रसूलवाली घोड़ी भी उसी दैदीप्य से गाती है कि दसों दिशाएं गूँज उठें.पंजाब
की धरती के सब मिथक रस्मो रिवाज़ जाग उठते हैं इन सुरीले बोलों में -
‘मेरे वीर का सहरा आया
कोई माली गूंथ ले आया
उत्ते छत्र नबी का सोहवे
सालयात या अली .”
गाँव के अलिये की बेटी फ़तेह, रावी पार के
धाड़ीवालियों के शेर अली के इश्क में गोते खा बैठी, मौके पर शेरा ने ‘हीर’ उठाई-
“चढ़िये डोली प्रेम की दिल धड़के मेरा
हाजी मक्के हज्ज करन मैं मुख देखूं तेरा .”
और तमाम इंतजाम सरंजाम के बाद जब फ़तेह की
बारात आयी तो सखियों ने ठेठ हिन्दुस्तानी रिवाज़ के तहत सिठनी (गालियाँ) उठाईं-
“चाचा न पढ़या तेरा दादा न पढ़या
पुत्तर हराम का मसीती न चढ़ाया
यह बात बनती नहीं!”
शादी ब्याह में वर पक्ष को सुना कर
गालियाँ गाने का चलन बुंदेलखंड से पूर्वांचल तक प्रचलित है. जब यह समूची भारतीय
संस्कृति का अभिन्न अंग ठहरा तो पंजाब ही क्यों पीछे रहे.
पंजाब में उत्तर भारत के टेसू झेंझी जैसा
एक चलन है. तीज पर जिन घरों में शादी ब्याह हुआ हो, नई नवेली आई हों, संतानें पैदा
हुई हों बच्चे उनके दर पर जाकर धेला, पैसा, दमड़ी माँगते हुए गाते हैं :
“भरी मिले भई भरी मिले
लाड़लों की भरी मिले.”
रंग तो कितने हैं कृष्णा सोबती की भाषा के
इन्द्रधनुष में और इन गीतों कवित्तों ने तो कदम कदम पर उन्हें इतना चटख कर दिया है
की पाठक के आनंद कोष में समा ही न सकें. अनगिनत हीरें, कवित्त, गीत, बोलियाँ,
घोड़ियाँ और सिठनियाँ फैली हैं पूरे उपन्यास में. अर्थ ठीक ठीक पूरा समझ में न आते
हुए भी भावार्थ हो जाता है. और बात सीधे कलेजे में लगती है. ये कवित्त देखने में
छोटे होते हुए भी गंभीर घाव करते हैं.खेतों में नहाती ठिठोली करती युवतियों को देख
गबरू जट्ट सिकंदर ने ऊँची आवाज़ में ‘हीर’ के सुर उठा लिए:
‘तेरा हुस्न गुलज़ार बहार बनया
अज हार श्रृंगार सब भाँवदा री
अज ध्यान तेरा आसमान ऊपर
तुझे आदमी नज़र न आँवदा री.”
इन चार पंक्तियों में छेड़छाड़, मनुहार,
प्रणय निवेदन सब कुछ है. इन्हें सुनकर हँसती-हँसाती एक दूसरे पर छींटे मारती
लडकियाँ पोखर से भाग खड़ी हुईं.
बरसों बाद शाहनी की ऊसर कोख हरी हुई है,
पीर फकीरों से माथा टेक कर, दरिया में स्नान कर लौटती है तो अकस्मात बुल्लेशाह का
बारहमासा गा उठती है –
“फागुन फूले खेत ज्यों बन तन फूल श्रृंगार
होर डाली फुल पत्तियाँ गल फुल्लां के हार
मैं सुन-सुन झुर-झुर मर रही
कब आवे घर यार.”
इन कवित्तों में भारतीय जीवन दर्शन भी है,
साखियाँ भी,जीवन के शाश्वत नियम भी -
“गए वक़्त ते उम्र फिर नहीं मुड़दे
गए करम ते भाग न आँवदेने
गई लहर समुद्रों तीर छुटा
गए मौज मज़े न आँवदेने
गई गल ज़बान थी नहीं मुड़दी
गए रूह कलबूत न आँवदेने”
( ..........न वक्त वापस लौटता है न उम्र,
न कर्म, न भाग्य, न बढ़ी हुई लहर, न धनुष से छूटा हुआ तीर, न जा चुके मौज मजे, न
जुबां से निकली बात, न देह से निकली आत्मा.)
मौलवी भी बच्चों को कवित्त में ही पाठ पढ़ाते
हैं –
“पक्षियों में सैयद: कबूतर
पेड़ों में सरदार:सीरस
पहला हल जोतना: न सोमवार न शनिवार
गाय भैंस बेचनी: न शनीचर न इतवार
दूध की पहली पांच धारें: धरती को
नूरपुर शहान का मेला: बैसाख की तीसरी
जुम्मेरात को”
तो बच्चे भी तुकबंदी में ही शरारतें करते
हैं:
“लायक से बढ़िया फ़ायक
अगड़म से बढ़िया बगड़म
हाज़ी से बड़ी हज्ज़न
मूत्र से बड़ा हग्गन”
सार यह है कि कृष्णा सोबती की इस अमर कृति
में गुंथे हुए ये सूफी और लोक गीत उसका दुर्बल पक्ष भी हैं और सबल भी. सबल इसलिए
क्योंकि इनका प्रयोग न केवल उपन्यास को वास्तविकता के धरातल पर खड़ा करता है, बल्कि
पाठक को पात्रों की भावनाओं और पंजाब की मस्तमौला संस्कृति से भी परिचित करवाता
है. दुर्बल पक्ष यह कि ये इतनी क्लिष्ट, ठेठ पंजाबी और डोगरी भाषा में कहे गए हैं
कि गैर-पंजाबी पाठक के लिए इनका अर्थ समझना दुष्कर है. लेखक और प्रकाशक ने कहीं भी
इन दुरूह कवित्तों और बोलियों का अर्थ या सन्दर्भ सूत्र देने की आवश्यकता नहीं
समझी है. इस तरह पाठक को उसके अनुमान और विवेक के भरोसे छोड़ दिया गया है.
स्त्री लेखन को यदि विमर्श की चौहद्दी में
बाँधने का आग्रह न किया जाये तो आज स्त्री लेखन के एक युग का अंत हुआ है. वे
स्त्री थीं तो सृजन उनके शब्द-शब्द में खिलता-फूटता, सरसब्ज़ होता था. भाषा को समय
के गर्भ से नयी देह में जन्म लेने के लिए बार-बार कृष्णा सोबती जैसे सृजनहार की
दरकार रहेगी.
_____________
अनुराधा सिंह
मुंबई
anuradhadei@yahoo.co.in/ 9930096966
कृष्णा सोबती पर यहाँ और पढ़े.
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सुंदर
जवाब देंहटाएंथोड़ी और लंबी होती यह टिप्पणी।
कृष्णा सोबती का जाना दुखद है । पंजाब की सूफियाना तबीयत पंजाबियत की सब बड़ी अदबी ताकत है और वारिस शाह की हीर तो जैसे अपने आप में इस पंजाबियत , रूमानियत और रूहानियत का पूरा सांग रूपक metaphor है । लेकिन - ये पंक्तियां
जवाब देंहटाएं‘डोली चढ़दया मारियाँ हीर चीका
मैनू लै चल बाबला लै चलो वे’
मैं ने सुना है वारिस के आधिकारिक ग्रंथ का हहिस्सा नहीं है । शायद प्रक्षिप्त हैं । कनफर्म करें । वारिस शाह की नायिका यों भी रौंदू नायिका नहीं , धाकड़ और सशक्त जट औरत है ।
यह दीगर बात है कि हीर की यही पंक्ति सब से लोकप्रिय है जनता में
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर टिप्पणी
जवाब देंहटाएंकृष्णा सोबती जी को नमन
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (27-01-2019) को "गणतन्त्र दिवस एक पर्व" (चर्चा अंक-3229) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
गणतन्त्र दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को ७० वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 26/01/2019 की बुलेटिन, " ७० वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं“ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बढ़िया पोस्ट।
जवाब देंहटाएंहिंदी साहित्य में जिस तरह अंडरसेलिब्रेटेड लेखकों की एक एक सुदीर्घ परंपरा रही है, ठीक उसी तरह ओवरसेलिब्रेटेड लेखकों की भी एक समृद्ध उपस्थिति रही है. ज़ाहिर है, जो सायास रूप से उपेक्षित किए गए उनके हिस्से की प्रतिष्ठा और अन्य देय भी उन्हें ही मिला जो कारण विशेष से (और कई बार अकारण भी) उसके अधिकारी या पात्र नहीं थे. मात्रा की दृष्टि से इतना कुछ लिखने के कारण कृष्णा सोबती के रचना-कर्म को हरगिज़ खारिज़ नहीं किया जा सकता लेकिन गुणवत्ता की दृष्टि से क्या उन्होंने वाक़ई इतना प्रभावी लेखन किया कि उन्हें एक कालजयी अथवा देश-काल की प्रतिनिधि रचनाकार माना जा सके? मेरे देखे विचार और भाषा दोनों ही दृष्टि से वे शायद इतनी समर्थ लेखिका नहीं थीं. उनके रुख़सती पर शोकाकुल होना हमारी साहित्यिक संवेदना का प्रतीक है लेकिन इस क्रम में यह बात भी गौरतलब है कि साहित्य, समाज और राजनीति के दर्शन और विधान दोनों ही में कोई भी व्यक्ति न तो संपूर्ण होता है और न ही त्रुटिविहीन.
जवाब देंहटाएंकृष्णा सोबती क्या सचमुच स्त्री-मुक्ति की पैरोकार थीं? दॉस्तोएव्स्की ने लिखा है - "Every character and in particular the central character of a novel is basically extension of the personality of the writer itself." इस कसौटी पर अगर देखें तो मित्रो मरजानी को पढ़ते हुए कृष्णा सोबती के स्त्री-सरोकारों का पता मिलता है. क्या एक स्त्री के रूप में मित्रो का चरित्र हमारी सामाजिक-व्यैक्तिक संरचना के अनुकूल है? तो, फिर क्या यह एक उत्तर-आधुनिक चरित्र है? इस उपन्यास को लिखे हुए पचास से भी अधिक साल गुज़र चुके हैं लेकिन एक स्वस्थ मानसिकता के मनुष्य के लिए मित्रो आज भी अबूझ है और हमेशा बनी रहेगी. एक आयातित और आर्टिफिशियल क़िरदार ऐसा ही होता है. वस्तुतः देह की मुक्ति के बहाने उन्होंने स्त्री को एक देह में रिड्यूस करने की ही कोशिश की. बोल्ड लेखन यदि विचारों से जुड़ा नहीं है तब वह सनसनीखेज लेखन के खांचे में रखा जाएगा. हैरत की बात नहीं कि मित्रो कृष्णा जी के समस्त लेखकीय जीवन का सिग्नेचर कैरेक्टर है.
मित्रो मरजानी एक नए आस्वाद का उपन्यास हो सकता है लेकिन समय से आगे कतई नहीं माना जा सकता. विचारों से मुक्त चरित्रों की कोई समय-आबद्धता हो भी नहीं सकती. टोबाटेक सिंह को अपवाद मान लें तो मंटो इस तथाकथित बोल्ड लेखन की दूसरी मिसाल हैं. उनके लेखक का एकमात्र प्रबल पक्ष उनका एक माहिर किस्सागो होना है. वर्ना स्त्रियों का ऑब्जेक्टिफिकेशन उनके यहाँ भी कमोबेश बतौर एक देह ही दिखता है. बू और ठंडा गोश्त की स्त्रियाँ तो विभाजन और फ़साद की विक्टिम्स नहीं थीं! लेकिन जैसे मंटो के क़िस्सागो का 'गेज' था वैसे हर लेखक का होता है. कृष्णा सोबती का भी है. और, गहरी पड़ताल के बाद आप देखेंगे कि उनका गेज सामंती था और इसीलिए पितृसत्ता का पोषक भी था.
अब भाषा की बात रही, तो उनकी लिखी जो चीज़ें अब तक मैं पढ़ पाया हूँ, उनकी बिना पर बहुत विनम्रतापूर्वक कहना चाहूंगा कि उनके लेखन में कोई विरल भाषिक जादू तलाश करना मुझे एक अतिशयपूर्ण बौद्धिक दुराग्रह लगता है. मंटो, कृश्न चन्दर, इस्मत चुगताई, राजेंदर सिंह बेदी, अजीत कौर, मोहन राकेश, बलवंत सिंह, अमृता प्रीतम, मनजीत कौर टिवाणा आदि अनेक हिंदी, उर्दू और पंजाबी के रचनाकार हैं जो भारत-पाकिस्तान के सरहदी इलाक़ों से अपने ताल्लुकात की वज़ह से भाषा के इस नैसर्गिक विट से समृद्ध थे. आप चाहें तो इसे पंजाबियत से नवाज़ी हुई खिलंदड़ ज़ुबान भी कह सकते है.
बेशक़ कृष्णा सोबती ने जी भर कर जिया, और जी भर कर लिखा. उनका नहीं होना एक बड़ी शून्यता होने का पर्याय है. यद्यपि आलोचकों की उन पर ख़ास नज़रे-इनायत रही लेकिन जिस एक वज़ह से उनका सर्वाधिक सम्मान किया जाना चाहिए वह यह थी कि एक लेखक और एक मनुष्य दोनों ही रूपों में उन्होंने अपने मूल्यों और शर्तों से समझौता नहीं किया.
इसके बावज़ूद मुझे लगता है कि उनके लेखन का समग्र पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए. समालोचन में उनपर लिखे आलेखों में यह परहेज़गारी दिखती है. मूर्तिपूजा की इस चिरन्तर और जर्जर परंपरा से मुक्ति ही नए प्रतिमानों की दिशा का प्रस्थान-बिंदु बन सकेगी. मात्रा की दृष्टि से उन्होंने विपुल लेखन किया, गुणवत्ता पर नए सिरे से विचारने की ज़रूरत है. एक पुरखे शब्द-शिल्पी के साए से वंचित होने का गहरा दुःख है. लेकिन हर चीज़ की मियाद होती है. पत्तों के हरेपन की भी मियाद होती है, मिट्टी में बीज के दबे होने की भी मियाद होती है.
सादर.
आपने कृष्णा जी की सब रचनाएँ पढ़ी नहीं हैं ऐसा लगता है।
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