(कृष्णा सोबती के साथ क्रमश: असद जैदी, रवीन्द्र त्रिपाठी और मंगलेश डबराल )
2017 के लिए साहित्य का
प्रतिष्ठाप्राप्त सम्मान ‘ज्ञानपीठ’ हिंदी की महत्वपूर्ण लेखिका
कृष्णा सोबती को कल प्रदान किया गया जिसे
उनकी तरफ से अशोक वाजपेयी ने ग्रहण किया. अस्वस्थ होने के कारण वह समारोह में
उपस्थित नहीं हो सकी थीं. सोबती को
साहित्य अकादमी, पद्मभूषण, व्यास
सम्मान, शलाका सम्मान आदि से भी सम्मानित किया जा चुका है.
उनका रचना संसार विस्तृत है जिसमें ‘डार से बिछुड़ी’,
‘मित्रों मरजानी’, ‘सूरजमुखी अँधेरे के’, ‘दिलोदानिश’, ‘ज़िंदगीनामा’, ‘ऐ लड़की’, ‘समय
सरगम’, ‘जैनी
मेहरबान सिंह’ , ‘हम हशमत’, ‘बादलों के
घेरे’ आदि शामिल हैं. इस वर्ष राजकमल से उनकी दो किताबें
प्रकाशित हुई हैं –‘मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही की तलाश
में’ तथा ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात
हिंदुस्तान’
18 फरवरी 1925 में जन्मी
कृष्णा सोबती ने बड़ा जीवन जिया है. वह भारत ही नहीं विश्व की बड़ी लेखिका हैं. यह
अवसर है उनके कार्यों के आकलन का, उन्हें समझने और प्रसारित करने का.
रवीन्द्र त्रिपाठी ने इस
अवसर पर कृष्णा जी के लेखन का विस्तृत विवेचन किया है. उनकी रचनाशीलता को समझने की
एक गम्भीर कोशिश यहाँ दिखती है.
कृष्णा सोबती : 'पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे कोई’
रवीन्द्र त्रिपाठी
और ‘डबल रोल’ वाला का दूसरा रोल ये है
कि वे हिंदी और विश्व कविता की घनघोर मगर आलोचनात्मक पाठक हैं. हिंदी और विश्व के
कई कवियों को उन्होंने विधिवत पढ़ा है. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, नरेंद्र शर्मा प्रवासी, नजीर अकबराबादी, फिराक गोरखपुरी की रचनाएं
उनके लेखों में कई बार आई है. बर्टोल्ट बेष्ट और पाब्लो नेरूदा से लेकर फर्नांदो
पेसोवा की कविताएं भी हिंदी अनुवाद में
उनके लेखों में उद्धृत होती है. उनकी कई कथेतर रचनाओं में प्रयाग शुक्ल, लीलाधर जगूड़ी, मंगलेश डबराल, असद जैदी जैसे हिंदी कवियों और उनकी रचनाओं के उल्लेख होते हैं. पर इस प्रसंग में सबसे अहम बात ये है कि उन्होंने हिंदी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध पर एक
किताब ही लिखा डाली है. और हैं, त्रिलोचन शास्त्री पर एक लंबी कविता भी, जो कवि के देसीपन और साधारणत्व में निहित असाधरणत्व को तो
रेखांकित करती ही है. उस कविता में एक बहस तलब सवाल भी उठा है-
कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘दिलो दानिश’ में एक प्रसंग आता है
जिसमें इस रचना की मुख्य चरित्र महक बानो से एक जगह उसकी मां कहती है-
‘जानती हो, मेरे गुरु, तुम्हारे पिता क्या कहा करते? कहते नसीम बानो, दुनिया की एक ही राह पर दिल जमाए रखोगी तो क्या देखोगी? गवैये के लिए एक राग की, एक तान की, एक सुरताल की फिदाई काफी नहीं. ऊपरवालों को देखो उसके हजार जलवों में. हर मौसम में नया दौर, नया शोर, नया रंग, नया रंग. हजारों तो फल और हजारों ही पात. सूरज है तो चांद भी. चांद है तो सितारे भी. आसमान है तो बादल भी. बादल है तो बिजुरी भी. धूप है तो बरखा भी. धरती है तो समुद्र भी. पर्वत है तो नदियां भी. हरियाली है तो रेतीला भी. रेत है तो कटीला भी. तपिश है तो बर्फ भी. नसीम बानों, इतने ही सुरों में हम अपनी उम्र को क्यों न गा लें.’
मोटे तौर पर यही बात कृष्णा सोबती
के रचना संसार पर लागू होती है. उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में जिंदगी
को हजार जलवों में देखा और दिखाया है. उनके यहां किसिम किसम के चरित्र हैं. सिर्फ ‘जिंदगीनामा’ को लीजिए. कितने प्रकार
के लोग हैं वहां और कितनी स्मृतियां? इतिहास के कितने
किस्से और कैसे कैसे वाकये? कितनी किंवदंतियां?
पूरा
उपन्यास एक मेला लगता है. ऐसा मेला जिसमें
किसी एक खास चीज या शख्सियत की प्रमुखता नहीं. इसमें बच्चों की किलकारियां हैं, तो जवानों का इश्क भी. डकैती है तो अदालती दांवपेंच भी.
साहूकारों की मौज है तो किसानों का दर्द भी. अंग्रेजी राज का जुल्म है तो उससे
विद्रोह और आजादी की आवाजें भी. दूसरी
रचनाओं की तरफ बढ़ें तो ‘दिलो दानिश’ की महक है जो बरसों वकील कृपानारायण से रिश्ता रखने के बाद उनसे
अलग होकर अपनी शख्सियत पाती है. महक से भिन्न
‘मित्रो मरजानी’ की मित्रो है जो अकुंठ शारीरिकता को अभिव्यक्त करती है. ‘डार से बिछुड़ी’ की पाशो है जिसके ‘थिरकने’ पर पाबंदी है मगर विडंबना है कि थिरकने के लिए उसकी जिंदगी
में कुछ है ही नहीं. ‘सूरजमूखी अंधेरे के’ की रत्ती भी कृष्णा जी की बनाई एक चरित्र है जो बचपन में ही
ऐसे हादसे से गुजरी है कि उसकी अंधेरी
छाया से निकल नहीं पाती.
कृष्णा सोबती के उपन्यासों में
सनातनी हिंदू भी है, और मुसलमान एवं सिख भी.
उनके यहां गांव भी है और शहर भी. वहां पाकिस्तान में चला गया गुजरात भी और भारत का
गुजरात भी. उनके उपन्यासों की भाषा हिंदी है. हालांकि उर्दू और पंजाबी का भी साथ
है. वे हिंदी की एक ऐसी बड़ी लेखक हैं जिन पर पंजाबी और उर्दूवाले भी अपना दावा
ठोक सकते हैं और कह सकते हैं कि ये तो हमारी हैं. उनका भाषाई वेश (जिसे अंग्रजी
में लिग्विस्टिक रजिस्टर कहते हैं) भी एक नहीं है. ‘जिंदगीनामा’ की भाषा में खेतिहरों की पंजाबी है तो ‘दिलो दानिश’ में पुरानी दिल्ली वाली
उर्दूपन वाली हिंदी. ‘समय सरगम’ जैसी कुछ रचनाओं में संस्कृतनिष्ठ तत्समता है. कह सकते हैं कि कृष्णा सोबती की हिंदी में
कई तरह की ‘हिंदियां’ हैं. हिंदी भी हजार जलवों में है. उनके यहां कहानी है तो
कविता भी. वाक्यों में बीच बीच में
चुप्पियां भी हैं. उनको पढ़ते हुए ठहरना पड़ता है और सोच के अनुमान लगाना पड़ता है
कि क्या इंगित किया जा रहा है. उनके यहां
प्रकट प्रेम भी है और प्रकट भी. इन अप्रकटों में कई तरह की अर्थ-ध्वनियां है.
बुल्ले शाह और शाह लतीफ से लेकर गजाजन माधव मुक्तिबोध तक उनके यहां मौजूद हैं.
मित्रो मरजानी : देह का अध्यात्म
‘मित्रो मरजानी’
1966 में
प्रकाशित हुआ और इसी के साथ हिंदी और उत्तर भारतीय समाज का साबका एक ऐसे चरित्र से
पड़ा जिसने उसके संस्कारी मन को झकझोर दिया. भारतीय पारिवारिक नैतिकता के ढांचे
में मित्रो जैसी चरित्र सहज स्वीकार्य नहीं थी. मित्रो (जिसका पूरा नाम मूल रचना
में सुमित्रावंती है) एक जगह अपनी भाभी से कहती हैं- ‘देवर तुम्हारा मेरा यह रोग नहीं पहचानता.. बहुत हुआ हफ्त
पखवाड़े – और मेरी इस देह में इतनी प्यास है, इतनी प्यास है कि मछली सी तड़पती हूं’. यौनिकता (सेक्सुअलिटी) से स्पर्शित इस तरह के कई और
संवाद ‘मित्रो
मरजानी’ में हैं.
ऐसी बहू घर में आ जाए तो परिवार
का क्या हो? परिवार के सदस्य असहज हो जाएंगे.
मित्रो के ससुराल में यही होता है. और यही हिंदी साहित्य में भी हुआ. पर धीरे धीरे
मित्रो हिंदी रचना संसार में स्वीकार कर ली गई. आज वह हिंदी कथा संसार की सबसे
धाकड़ चरित्रों में है. एक कथाकार का आकलन इस बात से भी होता है कि उसने
किस तरह के नए पात्र साहित्य को दिए. ऐसे पात्र जो सामूहिक चेतना के हिस्सा बन
जाएं. आज मित्रो के बिना हिंदी कथा साहित्य की कल्पना की ही नहीं जा सकती. मित्रो
में नयापन है ये तो सर्वस्वीकृत हो चुका है. पर इस नएपन का ऐतिहासिक सारतत्व .या
उसकी सैद्धांतिकी क्या है? क्या उसका वृहत्तर
परिप्रेक्ष्य भी है. या वह शारीरिकता भर है?
विश्लेषण करें तो मित्रो का
व्यवहार मनोविज्ञान के नजरिए से असामान्य नहीं है. सुधीर कक्कड़ ने ‘कामसूत्र’ के रचयिता पर जो
औपन्यासिक कृति लिखी है उसमें कहा है कि कामशास्त्रियों में वात्स्यायन पहले थे
जिन्होंने ये कहा और पहचाना कि स्त्रियों में भी कामेच्छा होती है. पहले के
कामशास्त्री ऐसा नहीं मानते थे. ये वात्स्यायन की क्रांतिकारी अवधारणा थी यौनिकता
के बारे में. उन्होंने समाज को वह दृष्टि
दी जिस पर परदा पड़ा था. फिर भी समाज में
तो क्या साहित्य में भी औरतों को कामेच्छा व्यक्त करने की आजादी नहीं रही. आज भी
नहीं है. ‘मित्रो
मरजानी’ हिंदी में पहली कथा-रचना है
जिसमें एक ऐसी औरत दिखी जो अपनी शारीरिक आकांक्षा और चाहत को सहज ढंग से अभिव्यक्त
करती है. ये भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह सिर्फ कल्पित पात्र भर नहीं है. वह
समाज में है. कृष्णा जी ने एक जगह कहा भी
है कि जिस शख्स को देखकर उन्होंने मित्रो
का चरित्र गढ़ा वह सचमुच की एक औरत थी. राजस्थान की. ये प्रकरण इस तरह आता है-
‘बरसों पहले एक झलक में मित्रो को राजस्थान में देखा था. डूंगर के पास, सिर पर बोझा उठाए वह जीती जागती काया हरियाली क्यारी-सी दीखी थी. आंखों में ललक, आंचल तले उभार, लहंगे और ओढ़नी में मढ़ा हुआ गेहुंआ गदराया बदन- हाड़ मांस की अनोखी देह, रूपहले धूपिया पानी से कसी हुई. तनिक गर्दन घूमी. ठेकेदार को आते देखा तो कांकरी मार दी. हंस हंस कर कहा- इधर तो देखना मति ठेकेदारजी. लहंगड़ूं की मांद में अट गए तो गए काम से’
अर्थात् मित्रो अपनी पूरी समग्रता, जीवंतता और अल्हड़ता के साथ हमारे बीच थी. अपने नैतिक मानदंडों के साथ. सदियों से. बस
हिंदी साहित्य ने उसे देखा या महसूस नहीं
किया था. कृष्णा सोबती का योगदान ये है
कि उसे साहित्य के प्रवेशद्वार से भीतर
लाया. इस बोध के साथ कि जो वह कर रही हैं
उसमें किसी तरह की अतिरिक्त साहसिकता नहीं है. बल्कि लेखक का सहज कर्म है.
आखिर जो समाज में है, मानव मन की चेतना में है, उसके लिए साहित्य में ‘नो
इंट्री’ का बोर्ड क्यों टांगा जाए? हां, उन्होंने अपने किए की एक
वैचारिकता भी सृजित की और मित्रो के व्यवहार को ‘देह
का अध्यात्म’ कहा. उनकी स्थापना इस तरह है - ‘धर्म है देह का, देह का अध्यात्म भी
और देह से उभरा शास्त्र भी.’
ये हिंदी कथा साहित्य में एक नई स्थापना थी कि देह का भी अध्यात्म होता है. ये अध्यात्म की अवधारणी की परिधि का भी विस्तार था और देह के प्रति नए दृष्टिकोण की प्रस्तावना भी. आकस्मिक नहीं कि मित्रो अपने में एक परिघटना यानी फेनोमेना भी बन गई है. कई साल पहले जब रंगकर्मी बीएम शाह ने ‘मित्रो मरजानी’ नाटक किया तो दर्शकों ने उसे सराहा. नाटक के कई शो हुए और ये राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल की बेहद लोकप्रिय प्रस्तुतियों में मानी जाती है. मित्रो अब कथाकृति से निकलकर समाज में पहुंच चुकी है. उसके कई संस्करण हो गए हैं और जो कहानियों, टीवी सीरियलों और हिंदी फिल्मों मे दिखते है. मित्रो एक थी और अब अनेक हो गई है.
ये हिंदी कथा साहित्य में एक नई स्थापना थी कि देह का भी अध्यात्म होता है. ये अध्यात्म की अवधारणी की परिधि का भी विस्तार था और देह के प्रति नए दृष्टिकोण की प्रस्तावना भी. आकस्मिक नहीं कि मित्रो अपने में एक परिघटना यानी फेनोमेना भी बन गई है. कई साल पहले जब रंगकर्मी बीएम शाह ने ‘मित्रो मरजानी’ नाटक किया तो दर्शकों ने उसे सराहा. नाटक के कई शो हुए और ये राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल की बेहद लोकप्रिय प्रस्तुतियों में मानी जाती है. मित्रो अब कथाकृति से निकलकर समाज में पहुंच चुकी है. उसके कई संस्करण हो गए हैं और जो कहानियों, टीवी सीरियलों और हिंदी फिल्मों मे दिखते है. मित्रो एक थी और अब अनेक हो गई है.
‘ज़िंदगीनामा’ एक वृहत्कथा है
‘ज़िंदगीनामा’ कृष्णा सोबती की सबसे
बड़ी रचना है. इसमें एक गांव डेराजट (तब
के पश्चिमी पंजाब के गुजरात जिले का, जो अब पाकिस्तान में है)
में घट रही घटनाओं का वृंतात है. उपन्यास में कोई केंद्रीय चरित्र नहीं है. नायक
या नायिका नहीं है. साहूकार शाहजी का घर
है जो गांव के कार्यकलाप का केंद्र है. मगर शाहजी या उनके परिवार के दूसरे लोग भी
इसके मुख्य चरित्र नहीं है. कई चरित्रों में से हैं. एक पंजाबी शब्द का उपयोग करें
तो कह सकते हैं कि पूरा ‘पिंड’ ही इसका नायक है. कई तरह के चरित्र यहां हैं. हिंदु और
मुसलिम. खत्री और सिख. जाट. गूजर, पंडित. औरतें, पुरुष और बच्चे. इसमें कोई एक केंद्रीय कथा भी नहीं
है. दरअसल ये एक वृहत्कथा है. कई कथाएं
हैं और आपस में गुंथी हुई. ज्यादातर छोटी और अधूरी. पर अपने भीतर विस्तार की
संभावना लिए हुए. मिसाल के लिए चाची महरी की कथा.
चाची महरी सिख परिवार में जन्मी और ब्याही थी. लेकिन
विधवा हो जाने के बाद उसका प्रेम शाहों को खत्री परिवार के एक सदस्य के साथ होता
है. वह उससे शादी भी करती है. यानी विधवा विवाह का मामला है. ये शादी आसान नहीं
थी. सामाजिक बाधाओं से भरी थी. जिंदगीनामा’
का कालखंड 1902 से 1915 के आसपास का है. यानी आज के एक सौ सोलह-सत्रह
साल पहले का.
चाची महरी अदालत में जाकर कहती है
कि वह अपनी इच्छा से दूसरी शादी कर रही है और उस पर किसी तरह का दबाव नहीं
है. ये बड़ा साहस है. लेकिन चाची महरी
मात्र साहस भर नहीं है. वह कुछ और भी है. उसका पहली शादी के वक्त के सबसे छोटे
देवर साहिब सिंह से भी गहरा स्नेह है.
अदालत के उस फैसले के बाद जो उसके पक्ष में दिया गया, जब चाची महरी शाहों के घर जाने लगती है तब भी छोटी उम्र का
साहिब सिंह उसे रोकता है और कहता है उसके बिना घर सूना सूना लगेगा इसलिए मत जाओ.
चाची महरी के मन में भूचाल जैसा आता है. उथलपुथल कि क्या करे?
आखिरकार वह शाह परिवार के कहने पर उनके घोड़ों पर सवार हो जाती है. कई साल बीत जाते हैं और चाची महरी को एक दिन मालूम होता है कि साहिब सिंह बेहद बीमार है. लंबे समय से बिछावन पर है. उसके मन में फिर से बेचेनी होती है साहिब सिंह के लिए. और वह इतने बरसों के बाद अपने छोटे देवर की खैरियत जानने उसके घर जाती है. जिस देहरी को वह लांघ गई थी उसके अंदर फिर से जाती है. साहिब सिंह के प्रति उसके मन में विशेष तरह का वात्सल्य है जो दूसरी शादी के बाद भी बना रहता है. मानव मन की जटिलता! चाची महरी संबंधित ये दो अहम प्रसंग ही इस उपन्यास में हैं पर स्मरणीय हैं. चाची महरी की याद पाठक में खूब जानेवाली है. ये अपने तरह का एक प्रेमाख्यान है. मगर इस उपन्यास अकेला प्रेमाख्यान नहीं है. दूसरा प्रेमाख्यान भी इसमें है.
आखिरकार वह शाह परिवार के कहने पर उनके घोड़ों पर सवार हो जाती है. कई साल बीत जाते हैं और चाची महरी को एक दिन मालूम होता है कि साहिब सिंह बेहद बीमार है. लंबे समय से बिछावन पर है. उसके मन में फिर से बेचेनी होती है साहिब सिंह के लिए. और वह इतने बरसों के बाद अपने छोटे देवर की खैरियत जानने उसके घर जाती है. जिस देहरी को वह लांघ गई थी उसके अंदर फिर से जाती है. साहिब सिंह के प्रति उसके मन में विशेष तरह का वात्सल्य है जो दूसरी शादी के बाद भी बना रहता है. मानव मन की जटिलता! चाची महरी संबंधित ये दो अहम प्रसंग ही इस उपन्यास में हैं पर स्मरणीय हैं. चाची महरी की याद पाठक में खूब जानेवाली है. ये अपने तरह का एक प्रेमाख्यान है. मगर इस उपन्यास अकेला प्रेमाख्यान नहीं है. दूसरा प्रेमाख्यान भी इसमें है.
वह है बड़ी उम्र के शाहजी और बहुत
कम उम्र की राबयां के बीच. राबयां एक मुसलिम गरीब परिवार की. वह बहुत अच्छा गाती
है. ज्यादातर समय शाहजी के घर ही रहती है. शाहजी के बेटे लाली का लालन पालन वही
करती है. धीरे धीरे उसके भीतर शाहजी के प्रति एक लगाव भी पनपता है जो क्रमश:
गहराता जाता है. शाहजी के मन में भी उसे लेकर एक गहरा आकर्षण है. जब भी देखते हैं
भीतर प्रेमघटा घहराने लगती है. उपन्यास के अंत में इतना आता है कि जब राबयां की
शादी उसका पिता अधेड़ उम्र एक आदमी से तय
करता है तो वह अपने भीतर के झंझावात को रोक नहीं पाती. वह शाहजी को कह देती है- ‘शाह साहब, मैंने आपको दिल में ऐसे
धार लिया जैसे भगत मुरीद अपने साईं को धार लेते हैं.’
ये प्रसंग उपन्यास में यहीं खत्म हो जाता है. लेकिन बाद में कृष्णा सोबती ने ‘उत्तरार्ध’ शीर्षक से जो एक रचना लिखी (जो उनके संग्रह ‘शब्दों के आलोक में’ संकलित है) जिसमें ये प्रेमाख्यान आगे बढ़ता है. (शायद ये ‘ज़िंदगीनामा’ के उस दूसरे भाग का हिस्सा है जो पूरी तरह से लिखा नहीं गया.)
ये प्रसंग उपन्यास में यहीं खत्म हो जाता है. लेकिन बाद में कृष्णा सोबती ने ‘उत्तरार्ध’ शीर्षक से जो एक रचना लिखी (जो उनके संग्रह ‘शब्दों के आलोक में’ संकलित है) जिसमें ये प्रेमाख्यान आगे बढ़ता है. (शायद ये ‘ज़िंदगीनामा’ के उस दूसरे भाग का हिस्सा है जो पूरी तरह से लिखा नहीं गया.)
होता है ये है कि शाहजी एक दिन
अपने घोड़े पर निकलते हैं और बारिश-बिजली और बवंडर में नदी में गिर जाते हैं. राबयां ये देखती है. वह भी पीछे नदी में कूद
जाती है. शाहजी को बचाने के लिए. पर दोनों मझदार में फंस जाते हैं. शाहजी के भाई
काशीशाह और गांव के लोग दोनों को बचाकर लाते हैं. शाहजी की तबीयत बिगड़ जाती है.
राबयां की भी. हकीम के कहने पर राबयां को शाहजी घर में रखा जाता है इस आशा के साथ
कि शायद उसे देखने- पुकारने से शाहजी बच जाएं. किंतु शाहजी नहीं बचते. अब राबयां
क्या करे? शाहजी के बिना जीना कैसा? साईं के बिना भगत कैसे जिए?उनको
याद करते हुए राबयां भी नदी छलांग लगा देती है और अपने साईं से जा मिलती है. ‘उत्तरार्ध’ का ये अंतिम अंश राबयां
और शाहजी के इस रिश्ते को अमर प्रेमाख्यान बना देता है.
‘पूरे चांद की रात होनी अनहोनी दोनों ने मिलकर पुराना कथा प्रसंग रचया और राठी को घेर वह उसे पुराना खेल खिला दिया जिसकी गंध आदम के लहू में बहती आई है. अराइयों की कंवार राबयां जाने किस होश बेहोशी में अडोल पलंग पर से उठी और कच्ची राह मापती दरिया के किनारे जा पहुंची. शाहों के घर की सुच्ची ओढणी उतार कंडे पर रखी और उस पर टिका दिए सोने के दो कंगन. ऊपर चांद को निरख, ‘शाहजी, पहुंचती हूं आपके पास’.
फिर बांहे फैलाकर कहा, ‘आप पकड़िए मेरा हाथ. क्यों डरूंगी, आप हैं मेरे साथ’. रेत से पांव उखड़े- छप्प
और खेल ही ओझल हो गया. ऊपर चांद ने पलक न झपकी. चमकता रहा. नीचे चनाब बहता रहा और
राबयां कंवार सब झगड़े-झमलों से दूर पुराने किस्सों में जा मिली.’
(कृष्णा जी ने ही बताया कि इस अंश में जो ‘राठी’ शब्द आया है पहाड़ी में
उसका अर्थ इतिहास होता है.)
किन किस्सो में जा मिली राबयां? अलग से कहने की जरूरत नहीं कि वह हीर-रांझा, लैला-मजनूं और सोहणी-महिवाल जैसे किस्सों में जा मिली. ये एक
ऐसा प्रेमाख्यान है जिसमें सूफीपन भी है.
‘ज़िंदगीनामा’ का क्या कोई सांस्कृतिक-
राजनैतिक आशय भी है? बेशक. लेकिन ऊपर से जितना दिखता है उससेअ अधिक ध्वनित होता है. ‘ध्वन्यालोक’ में आनंदवर्धन ने ध्वनि
का अर्थ अणुरणन बताया है. यानी जब कविता
मन के भीतर लगातार गुंजित होती
रहती है, उसे ही ध्वनि समझना चाहिए. ‘ज़िंदगीनामा’ से क्या ध्वनित होता है? उसके भीतर क्या चीज है जो
पाठक के अंदर लगातर बजती रहती हैँ? क्यों हिंदी उपन्यास जगत
में उसका लगातार उल्लेख होता है? क्या उसके चरित्र मन में बैठ जाते हैं? या उसकी औपन्यासिक
बनावट ऐसी है जो आज भी नई लगती है ? ये
भी कारण भी हैं. शिल्प के लिहाज से ये एक अनूठी रचना है. पर जो प्रमुख आवाज उसके
भीतर से आती है वह ये है- कि कई जातियों और धर्मों के लोग हिंदुस्तान में कभी साथ
रहते थे; हिंदू और मुसलमान, अपनी अपनी विभिन्नताओं को लिए हुए. मतभेदों के बावजूद वे एक जीते मरते थे. उल्लास
के साथ.
एक साक्षात्कार में कृष्णा सोबती उस दौर के बारें कहती हैं-
एक साक्षात्कार में कृष्णा सोबती उस दौर के बारें कहती हैं-
'सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल पर दोनों समुदाय एक दूसरे के बेहद करीब थे. मैं एक बार फिर दोहराना चाहूंगी कि इस सियासी शोर के बावजूद हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों ने ख्वाजा खिदर, बाबा फरीद और दूसरे संतों के प्रति आदर दिखाना जारी रखा. ख्वाजा खिदर को ज़िंदगी के पीर समझा जाता था. ऐसा कहा जाता था कि उनकी शाश्वत नाव, हालांकि वह अदृश्य थी, हमेशा नदी में बहती रहती है और नदी पार करने में लोगों की मदद करती है. हमारा परिवार बाबा फरीद पर बहुत श्रद्धा रखता था और उनके आशीर्वाद के बिना कुछ भी नहीं किया जाता था.... आशीर्वाद लेने के लिए हिंदू हमेशा ही मुसलमानों के पवित्र स्थल पर जाते थे. गर्भवती स्त्रियां पीरों के मजार पर जाती थीं.’
‘ज़िंदगीनामा’ पढ़ने के बाद मन में ये
प्रश्न लगातार गूंजता रहता है कि हिंदु और
मुसलमान एक वक्त में ऐसा कर सकते थे तो आगे क्यों नहीं? ये सामासिक भारतीय
संस्कृति की पक्षधरता का उपन्यास है. ये
भारत के विभाजन के बाद की त्रासदी पर नहीं है. ये भारत के विभाजन के पीछे की
राजनीति और विचारधारा का अस्वीकार है. यही इसका ध्वनित अर्थ है.
पश्चिम में ही नहीं अब भारत के
अकादमिक जगत में, यानी विश्वविद्यालयो में, स्मृति- अध्ययन शुरू हो गया है. स्मृतियां किस तरह बनती
बिगड़ती रहती है ये एक जटिल मामला है. हम
कुछ चीजें याद रखते हैं और कुछ भूल जाते हैं. क्यों भूल जाते हैं? जानबूझकर या परिस्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि हम भूलने की तरफ जाने-अनजाने बढ़ते रहते हैं. स्मृति को लेकर चेक उपन्यासकार
मिलान कुंदेरा का एक वाक्य अक्सर उद्धृत किया जाता है जो अंग्रेजी में इस तरह है – ‘द स्ट्रगल ऑफ मैन अगेंस्ट पॉवर इस द स्ट्गल ऑफ मेमेरी
एगेंस्ट फोरगेटिंग’ (‘द बुक ऑफ लॉफ्टर एंड फोरगेटिंग’ से). हिंदी में इसे इस तरह कह सकते हैं- ‘ताकत के खिलाफ मनुष्य का संघर्ष विस्मृति के खिलाफ स्मृति
का संघर्ष है.’ कुंदेरा यहां सर्वसत्तावादी ताकतों की ओर संकेत कर रहे हैं
और उनका एक आशय ये भी है कि सत्ता कई बातें भुलाने के लिए दबाव बनाती है और मनुष्य
को इसके विरुद्ध लड़ना पड़ता है. सत्ताएं
कई तरह की होती हैं. राजनैतिक भी और सांस्कृतिक भी. सामाजिक और धार्मिक भी. एक
लेखक इन सभी तरह की सत्ताओं के ‘विस्मृति अभियान’ के विरुद्ध खड़ा होता है. ‘ज़िंदगीनामा’ भी उस विस्मृति अभियान के प्रतिपक्ष में है.
‘ज़िदगीनामा’ की भाषा पर भी निगाहें
उठी हैं. इसकी भाषा वह पंजाबीपन लिए हुए है जो
पंजाबी किसानों की होती है. इसमें शहरी पंजाबी नहीं है. इसलिए सामान्य
हिंदीभाषी पाता है कि कुछ शब्दों के मायने समझने के लिए मशक्कत करनी पड़ती है.
पंजाबी शब्दकोश का सहारा लेना जरूरी लगता है.
इस कृति को एक तरफ काफी सराहा गया तो दूसरी तऱफ कुछ लेखकों और आलोचकों को
ये लगा कि ‘ये
तो हमारी हिंदी नहीं है.’ ऐसे लोगों को मिर्जा
गालिब के इस शेर का मर्म समझनी जरूरी है-
हुस्न- ए- फरोग़- ए- सुखन दूर है, असद
पहले दिल- ए- गुदाख्ता पैदा करे
कोई
(‘हुस्न-ए-फरोग़ ए सुखन’
का मतलब है-
काव्य के दीपक की प्रभा और ‘दिल-ए-गुदाख्ता’ का मतलब है -पिघला हुआ दिल.)
निश्चित रूप से ‘जिंदगीनामा’ का भरपूर आस्वाद करने के लिए एक अलग तरह की तैयारी करनी
पड़ती है. ये बात और भी बड़ी कृतियों पर लागू होती है. साहित्य का आस्वाद एक साधना
भी है. हिंदी के ज्यादातर पाठकों के लिए’जिंदगीनामा’ का रसास्वाद बिना इस साधना के संभव नहीं. पहले ‘दिल ए गुदाख्ता’ पैदा कीजिए फिर ‘ज़िंदगीनामा’ पढिए. तब लगेगा एक अपूर्व
रस का पान कर रहे हैं.
‘मित्रो मरजानी’ से लेकर ‘डार से बिछुड़ी और अन्य रचनाओं को नारीवादी नजरिए से भी
देखा गया है और ऐसी व्याख्याएं भी की गई है. ये स्वाभाविक भी है. कृष्णा जी ने
जितने तरह के – अपनी शख्सियत और शारीरिकता को लेकर सजग, खुद
मुख्तार, आत्म विश्वास से भरी, पितृसत्ता को चुनौती देनेवाली, समाज में लांछित, शारीरिक शोषण का शिकार
बनी- स्त्री-चरित्र में हिंदी में दिए हैं
वैसे हिंदी में किसी और लेखक ने नहीं. ऐसे
चरित्रों को सिरजनेवाली की रचनाओं का नारीवादी विश्वेषण न हो तो आश्चर्य होगा.
वैसे भी नारीवाद का जन्म खास
ऐतिहासिक कारणों से हुआ है और उसने नारी
मुक्ति के साथ साथ दूसरी स्वतंत्रताओं के
लिए भी दरवाजें खोले हैं. नारीवाद सिर्फ औरतों को मुक्त नहीं करता पुरुषों को भी
इतिहास और समाज की नई समझ देता है. संवेदनशीलता भी. इसलिए उसके महत्त्व को कमतर
करके नहीं आंका जा सकता.
लेकिन ये मानना भी सही नहीं होगा
कि कृष्णा सोबती नारीवादी हैं. वे खुद भी ऐसा नहीं मानतीं. वे खुद को महिला लेखिका
भी नहीं कहलवाना चाहती. ये उनके कृति व्यक्तित्व का अन्य पक्ष है और उसकी गंभीर
चर्चा होनी चाहिए. सिर्फ इसलिए नहीं कि वे
ऐसा चाहती है. बल्कि इसलिए भी कि साहित्य और कला की दुनिया में लेखकीय
पहचान कैसे निर्धारित हो ये भी एक गंभीर मसला बनता जा रहा है. क्या लता मंगेशकर और
किशोरी अमोनकर को स्त्री गायकी की परंपरा में रखकर देखा जाता है?
क्या अमृता शेरगिल और अर्पिता सिंह का अवदान मात्र स्त्री कलाकार के रूप में ही. है? फिर क्यों हिंदी आलोचना में किसी महिला लेखक को महादेवी वर्मा की परंपरा में रख कर एक अलग श्रेणी बनाई जाती है? क्या कृष्णा सोबती भी प्रेमचंद और फणीश्वर नाथ रेणु की परंपरा में नहीं है? बेहतर होगा कि अब हम लेखक (या कवि को) पुलिंग समझना छोड़े और उसमें स्त्रीलिंग और उभयलिंग को भी समाविष्ट करे. इसलिए कृष्णा सोबती या दूसरी ‘महिला लेखिकाओं’ को भी लेखक ही कहा जाना चाहिए. यहां हमें कुंवरनारायण की इस पंक्ति को भी याद करना चाहिए जो उन्होंने कृष्णा जी के बारे लिखीं थी- वह पारंपरिक अर्थ में स्त्री-लेखन नहीं है, स्त्री के अर्थ को नई तरह सामाजिक प्रतिष्ठा देता हुआ लेखन है.’
क्या अमृता शेरगिल और अर्पिता सिंह का अवदान मात्र स्त्री कलाकार के रूप में ही. है? फिर क्यों हिंदी आलोचना में किसी महिला लेखक को महादेवी वर्मा की परंपरा में रख कर एक अलग श्रेणी बनाई जाती है? क्या कृष्णा सोबती भी प्रेमचंद और फणीश्वर नाथ रेणु की परंपरा में नहीं है? बेहतर होगा कि अब हम लेखक (या कवि को) पुलिंग समझना छोड़े और उसमें स्त्रीलिंग और उभयलिंग को भी समाविष्ट करे. इसलिए कृष्णा सोबती या दूसरी ‘महिला लेखिकाओं’ को भी लेखक ही कहा जाना चाहिए. यहां हमें कुंवरनारायण की इस पंक्ति को भी याद करना चाहिए जो उन्होंने कृष्णा जी के बारे लिखीं थी- वह पारंपरिक अर्थ में स्त्री-लेखन नहीं है, स्त्री के अर्थ को नई तरह सामाजिक प्रतिष्ठा देता हुआ लेखन है.’
कृष्णा सोबती और कविता
कृष्णा जी के लेखन और संवेदना में
कविता की केंद्रीय उपस्थिति है. वे हिंदी की अकेली कथाकार हैं जिनमें काव्यात्मकता
भी है और दूसरों की लिखी कविताओं के प्रति
लगाव भी. काव्यात्मक कथाएं और भी लेखकों ने लिखी हैं पर कविता के प्रति इस
का उत्कट प्रेम किसी और में नहीं हैं. एक
लोकप्रिय मुहावरे का प्रयोग करें तो कह सकते हैं कि कृष्णा सोबती के यहां
कविता का ‘डबल रोल’ है. यानी एक ओर तो उनका गद्य काव्यात्मक है. ‘बादलों के घेरे से’ लेकर ‘ए लड़की’ और ‘समय सरगम’ में तो अनेक ऐसे अंश हैं
जहां पाठक को ठिठककर, मन ही मन, कहना पड़ता है – ‘क्या कविता है!’ ‘यहां बादलों के घेरे’
का एक
छोटा-सा अंश दिया जा रहा है जो इस बात की पुष्टि करता है-
‘कैसे सरसते दिन थे. तन-मन को सहलाते-बहलाते उस एक रात को मैं आज के इस शून्य में टटोलता हूं. सर्दियों के एकांत मौन में एकाएक किसी का आदेश पाकर मैं कमरे की ओर बढ़ता हूं. बल्ब के नीले प्रकाश में दो अधखुली थकी थकी पलकें जरा-सी उठती हैं और बांह के घेरे तले सोये शिशु को देखकर मेरे चेहरे पर ठहर जाती हैं. जैसी कहती हों तुम्हारे आलिंगन को तुम्हारा ही तन देकर सजीव कर दिया है. मैं उठता हूं, ठंडे मस्तक को अधरों से छूकर सोचते सोचते उठता हूं कि जो प्यार तन में जगता है. तन से उपजता है. वही देह पाकर दुनिया में जी भी उठता है. पर कहीं, एक दूसरा प्यार भी होता है जो पहाड़े के सूखे बादलों की तरह उठ उठ आता है और बिना बरसे ही भटक भटक कर रह जाता है.’
ये भी याद रहे कि ‘ज़िंदगीनामा’ की शुरुआत ही कविता से
होती है. और वह कविता मूल रचना में इस तरह विन्यस्त है कि उसके बिना रचना का
संपूर्ण स्वाद असंभव है.
‘ऐसे में त्रिलोचन जैसा भारतीय
मुख्यधारा का कवि अंतरराष्ट्रीय
स्वरूप कैसे धारण करे!
यह सोचते हुए एकाएक दिल्ली की
दीवानगी सवार हो गई.
अगर त्रिलोचन साफ-सुथरा हो तो
उसका सजीला सयाना चेहरा लेखकीय
भेंट के लिए
किसी भी बढ़िया क्लब में किसी भी
शाम प्रस्तुत किया जा सकता है
सोच सोच कर दिल में खीज उठने लगी
कि
कविता लिखने के लिए
घिस्सी घिसाई चप्पल पहननी क्यों
जरूरी है
अगर त्रिलोचन डेनिम की पैंट पहने
तो
एक पूरी पीढीं उसके साथ सद्भाव
कायम कर सकेगी.
पर नहीं.
उसके जैसा कवि अपनी पोशाक
और अदा में काफी फक्कड़ होता है
क्योंकि वह अख्कड़ होता है
वह जल्दी जल्दी बदलता नहीं
उनकी तरह जो अपने को तेजी से
बदलते हैं
हर मौसम में, हर हाल में
हर मंच पर फड़फड़ाते रहते हैं
पर त्रिलोचन लंबे दशकों को लादे
अपनी ऊनी पट्टी में –डटोनी
मुद्रा में डटा रहता है..’
वात्सल्य बोध
बतौर कथाकार कृष्णा जी के एक और
कृति व्यक्तित्व की तरफ हमारा ध्यान जाना चाहिए. अब तक हिंदी आलोचना का ध्यान इस
तऱफ गया नहीं है. वह पक्ष है वात्सल्य भाव या वात्सल्य बोध. उनके उपन्यासों में
बच्चों और बचपन की सजीव उपस्थिति है. उन्होंने अलग से बच्चों के लिए तो नहीं लिखा
है लेकिन बच्चे उनके उपन्यासों में अहम स्थान रखते हैं. ‘ज़िंदगीनामा’ के शुरूआती हिस्से
में बच्चों को कहानियां सुनाई जा रही है
और वे इनको सुनते हुए तरह के सवाल और शरारते करते हैं. फिर आगे चलकर जब शादी के
बहुत समय बाद शाह और शाहनी को एक बेटा
होता है जिसका नाम लाली रखा जाता है, तो उसके बढ़ने और मदरसे
जाने के अलग अलग दौर की घटनाएं विस्तार से बखानी गई हैं..
वह प्रसंग याद कीजिए जिसमें लाली शाह अपनी पढाई शुरू करने के पहले अपने इलाके के रिवाज के मुताबिक अपने आसपास के घरों में भिक्षा मांगने जाता है. ऐसे में उसका नटखटपन जिस अंदाज में सामने लाया गया है वह भी यही प्रमाणित करता है कि क्यों ‘ज़िंदगीनामा’ एक वृहत्कथा है. बड़ों के ही नहीं बच्चों के कार्यकलापों को कृष्णा जी बारीकी से पकड़ती हैं और चित्रित करती हैं. ऐसा सिर्फ ‘ज़िंदगीनामा’ में नहीं है. ‘दिलो दानिश’ में सालगिरह वाला प्रकरण याद कीजिए जिसमें कृपा नारायण के घर पर उनके बड़े बेटे राज नारायण का जन्मदिन मनाया जा रहा है. वहां वकील कृपानारायण की पत्नी कुटुंब से जन्मे बच्चे भी हैं और बाद में साथी बनी महक से जन्मे बदरू और मासूमा भी. इस मौके पर बच्चो में ल़ड़ाई भी होती है और सुलह भी. जिस तरीके से ये सब ‘दिलो दानिश’ में आया है वह बाल हरकतों के सूक्ष्म पर्यवेक्षण के बिना संभव नहीं है.
वह प्रसंग याद कीजिए जिसमें लाली शाह अपनी पढाई शुरू करने के पहले अपने इलाके के रिवाज के मुताबिक अपने आसपास के घरों में भिक्षा मांगने जाता है. ऐसे में उसका नटखटपन जिस अंदाज में सामने लाया गया है वह भी यही प्रमाणित करता है कि क्यों ‘ज़िंदगीनामा’ एक वृहत्कथा है. बड़ों के ही नहीं बच्चों के कार्यकलापों को कृष्णा जी बारीकी से पकड़ती हैं और चित्रित करती हैं. ऐसा सिर्फ ‘ज़िंदगीनामा’ में नहीं है. ‘दिलो दानिश’ में सालगिरह वाला प्रकरण याद कीजिए जिसमें कृपा नारायण के घर पर उनके बड़े बेटे राज नारायण का जन्मदिन मनाया जा रहा है. वहां वकील कृपानारायण की पत्नी कुटुंब से जन्मे बच्चे भी हैं और बाद में साथी बनी महक से जन्मे बदरू और मासूमा भी. इस मौके पर बच्चो में ल़ड़ाई भी होती है और सुलह भी. जिस तरीके से ये सब ‘दिलो दानिश’ में आया है वह बाल हरकतों के सूक्ष्म पर्यवेक्षण के बिना संभव नहीं है.
ये भी आकस्मिक और संयोग नहीं है
कि बच्चों के बीच लोकप्रिय कविताएं
ज़िंदगीनामा और ‘दिलो दानिश’ में कई जगहों पर आती है. आइए, जरा
‘दिलो दानिश’ में शामिल नजीर अकबराबादी
इस कविता पर निगाह डालिए जो बदरू और मासूमा बहुत प्यार से पढ़ते हैं
कल राह में जाते जो मिला रीछ का
बच्चा
ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा
सौ नेअमतें खा खा के पला रीछ का
बच्चा
जिस वक्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का
बच्चा
जब हम भी चले साथ
चला रीछ का बच्चा
था हाथ में इक अपने सवा-मन का जो
सोंटा
लोहे की कड़ी जिसपे खड़कती थी
सरापा
कांधे के पड़ा झोलना और हाथ मे
प्याला
बाजार मे ले आए दिखाने को तमाशा
आगे थे हम और पीछे था रीछ का
बच्चा
हशमत और कृष्णा सोबती
‘हम हशमत’ के बिना कृष्णा सोबती की
चर्चा हो नहीं सकती. ‘हशमत’ उनका ही गढ़ा एक चरित्र है.’ हम
हमशत’
नाम
से दो पुस्तकें आ चुकी हैं और तीसरी आनेवाली है. कौन है ये हशमत? जाहिर है-कृष्णा जी का ही एक अन्य व्यक्तित्व. पर इसे क्यों
सृजित किया गया है?
हशमत लेखकों के बारे में भी बताता है और उनकी रचनाओं पर कभी मीठे तो कभी नमकीन कटाक्ष भी कर देता है. निर्मल वर्मा भीष्म साहनी, कृष्ण बलदेव वैद और प्रयाग शुक्ल से लेकर असद जैदी जैसे कई लेखकों को हशमत मियां अपने तराजू पर तौल चुके हैं. किस लेखक के साथ किस रेस्तरां में हशमत ने कॉफी पीते हुए क्या बातें की और किसकी पत्नी से किस अंदाज में मिले – ये सब रोचक और दिलचस्प है. हशमत-श्रृंखला की रचनाओ में तिरछे वार भी कई जगह हैं. हशमत कैरम के उस खिलाड़ी की तरह हैं जो अपने स्ट्राईकर से ‘टैंजेंट’ मारकर दो या तीन गोटियां एक ही बार में पिला देता है. यानी हमशत ने जिस व्यक्तित्व को तौला उस पर बलिहारी भी गए और लगे हाथ चिकोटी भी काट ली.
हशमत लेखकों के बारे में भी बताता है और उनकी रचनाओं पर कभी मीठे तो कभी नमकीन कटाक्ष भी कर देता है. निर्मल वर्मा भीष्म साहनी, कृष्ण बलदेव वैद और प्रयाग शुक्ल से लेकर असद जैदी जैसे कई लेखकों को हशमत मियां अपने तराजू पर तौल चुके हैं. किस लेखक के साथ किस रेस्तरां में हशमत ने कॉफी पीते हुए क्या बातें की और किसकी पत्नी से किस अंदाज में मिले – ये सब रोचक और दिलचस्प है. हशमत-श्रृंखला की रचनाओ में तिरछे वार भी कई जगह हैं. हशमत कैरम के उस खिलाड़ी की तरह हैं जो अपने स्ट्राईकर से ‘टैंजेंट’ मारकर दो या तीन गोटियां एक ही बार में पिला देता है. यानी हमशत ने जिस व्यक्तित्व को तौला उस पर बलिहारी भी गए और लगे हाथ चिकोटी भी काट ली.
कृष्णा जी एक जबरदस्त प्रयोगवादी
है. हिंदी में ऐसा अनूठा प्रयोग सिर्फ उन्होंने ही किया है. हशमत मिया के कारनामें
पढ़ते हुए ये सवाल तो झटका देता ही है कि आखिर कृष्णा जी ने इस पात्र को क्यों रचा? मेरे मन में भी ये सवाल उठा और उनसे पूछ भी लिया. उनका जवाब
कुछ इस तरह था- ‘मैंने अनुभव किया है कि जहां
औरतें पुरुषों के साथ काम करती हैं वहां उनकी भाषा भी कुछ कुछ पुरुषों जैसी हो
जाती है. इसी प्रतीति के बाद मेरे भीतर ये चरित्र जन्मा.’ इस तरह हशमत सिर्फ एक
चरित्र भर नहीं है. बल्कि सामाजिक- सामुदायिक विकास की उस प्रक्रिया के बारे में
भी बताता है जिसमें भाषा-व्यवहार बदलता रहता है.
नागरिक कृष्णा सोबती
कृष्णा सोबती हिंदी की नहीं
समकालीन भारतीय साहित्य की एक बड़ी लेखक है इसमें संदेह नहीं है. पर उनका एक दूसरा
पक्ष भी है जो उनको और बड़ा बना देता है. वह है उनके द्वारा निभाया गया नागरिक
धर्म. कई कुछ बरसों में कई ऐसे मौके आए जब उन्होंने निर्भीकता और विनम्रता के साथ
वें आवाजें उठाई जो हर उस नागरिक को उठानी चाहिए जो भारत के संविधान में निष्ठा
रखता है और स्वतंत्रता को एक मूल्य मानता है. और उस लेखक को भी जो लेखकीय आजादी और
नागरिक आजादी के बीच कोई फर्क नहीं समझता है. दोनों उनके लिए एक ही दायित्व की तरह
है. कृष्णा सोबती किसी राजनैतिक दल या लेखक संगठन से कभी जुड़ी नहीं है. पर जब भी भारतीय नागरिक के किसी अधिकार को
अतिक्रमित करने का प्रयास हुआ कृष्णा जी ने उस अतिक्रमण का विरोध किया. कमाल अहमद के साथ हुई एक बातचीत के इस अंश को
याद करें-
‘लोकतांत्रिक भारत का नागरिक होने के नाते मैं अपने होने में न सिर्फ हिंदू हूं, न मुसलमान, न ईसाई, न सिक्ख, न पारसी. मुझमें, मेरे अस्तित्व और मेरी चेतना से जुड़े हैं लोकतांत्रिक देश के मूल्य और सिद्धांत भी जो मुझमें भारतीय होने का एहसास कराते हैं. एक स्वस्थ समाज की पहचान उसके इतिहास, संस्कृति और साहित्य से होती है. परंपरा और परिवर्तनों के फलस्वरूप उन पुराने की पड़ताल से भी उभरती है जो रूढियों और परिवर्तनों को फलस्वरूप जनमानस के राष्ट्रीय की सोच में लगातार बने रहते हैं और उसके स्वभाव, रूचि, और सोच के अटूट अंग बन जाते हैं. भारत जैसे लोकतात्रिक धर्मनिरपेक्ष देश में यही मूल्य हमारे राष्ट्रीय जीवन को प्रतिबिंबित करते हैं.’
वसंतपुत्री कृष्णा सोबती
कृष्णा सोबती का जन्म वसंत ऋतु
में हुआ. कहना चाहिए कि वे वसंतपुत्री
हैं. उनको ‘ज्ञानपीठ सम्मान’ भी वसंत के मौसम में
ही दिया जा रहा है. ये सुखद संयोग हो सकता है. लेकिन इस बात से शायद ही कोई
इनकार करेगा कि साहित्य में चिरस्थायी
मधुमास की तरह हैं. हमेशा नया सिरजती हुई.
93 साल की उम्र में भी वे लिख रही हैं और भारतीय साहित्य को नई कृतियां दे रही हैं. वे ऐसी लेखक हैं जिसके रचे किस्से हर ऋतु में, भविष्य के हर दौर में, दुनिया की कई भाषाओं में, पढ़े जाते रहेगें.
93 साल की उम्र में भी वे लिख रही हैं और भारतीय साहित्य को नई कृतियां दे रही हैं. वे ऐसी लेखक हैं जिसके रचे किस्से हर ऋतु में, भविष्य के हर दौर में, दुनिया की कई भाषाओं में, पढ़े जाते रहेगें.
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रवीन्द्र त्रिपाठी, टीवी और प्रिट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार,फिल्म-,साहित्य-रंगमंच और कला के आलोचक, व्यंग्यकार हैं. व्यंग्य की पुस्तक `मन मोबाइलिया गया है' प्रकाशित. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका `रंग प्रसंग' और और केंद्रीय हिंदी संस्थान की पत्रिका `मीडिया ' का संपादन किया है. कई नाट्यालेख लिखे हैं. जनसत्ता के फिल्म समीक्षक और राष्ट्रीय सहारा के कला समीक्षक. वृतचित्र- निर्देशक. साहित्य अकादेमी और साहित्य कला परिषद के लिए वृतचित्रों का निर्माण. आदि
tripathi.ravindra@gmail.com
रवीन्द्र त्रिपाठी, टीवी और प्रिट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार,फिल्म-,साहित्य-रंगमंच और कला के आलोचक, व्यंग्यकार हैं. व्यंग्य की पुस्तक `मन मोबाइलिया गया है' प्रकाशित. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका `रंग प्रसंग' और और केंद्रीय हिंदी संस्थान की पत्रिका `मीडिया ' का संपादन किया है. कई नाट्यालेख लिखे हैं. जनसत्ता के फिल्म समीक्षक और राष्ट्रीय सहारा के कला समीक्षक. वृतचित्र- निर्देशक. साहित्य अकादेमी और साहित्य कला परिषद के लिए वृतचित्रों का निर्माण. आदि
tripathi.ravindra@gmail.com
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंहिन्दी कथा-साहित्य में नारी चेतना के उन्मेष और स्त्री-अस्मिता के संदर्भ में जिन कथाकारों की उल्लेखनीय भूमिका मानी जाती है, उनमें कृष्णाे सोबती का नाम बहुत आदर से लिया जाता है। वे इस अर्थ में भी विशिष्ट हैं कि उनकी लेखनी स्त्री-अस्मिता से जुड़े सवालों से जूझने की नयी ताकत देती है। उनके स्त्री चरित्र जहां समाज के सड़े-गले नियमों और तौर-तरीकों को चुनौती देते हैं, वहीं अपनी सहज स्वतंत्रता के पक्ष में ऐसे सवाल खड़े करते हैं, जो स्त्री के संवैधानिक अधिकारों की मांग के साथ मानवीय सरोकारों का एक व्यापक परिदृश्य भी निर्मित करते हैं। रवीन्द्र त्रिपाठी ने अपने इस विवेचन में कृष्णा जी के साहित्यिक अवदान को समग्रता में देखने-समझने का सार्थक प्रयत्न किया है। उन्हें और समालोचन को दिल से साधुवाद।
जवाब देंहटाएंकृष्णा सोबती जी समय की अत्यंत महत्वपूर्ण रचनाकार हैं । पंजाबी , मुल्तानी, सरायकी लोकसंस्कृति तथा लोकसमाज की गहन अध्येता सर्जक सचमुच भारतीय उपमहाद्वीप की प्रतिनिधि साहित्यकार हैं । वर्षों पहले आकाशवाणी जलंधर मे उनसे हुई लंबी बातचीत व्यंग्य गुरु हरिशंकर परसाई जी द्वारा मुझे दिये मंत्र का जीवंत रूप थी-- " लेखक का अनुभव ही उसका ईश्वर होता है।'
जवाब देंहटाएंआदरणीया कृष्णा सोबती जी का सादर अभिनंदन।
भारतीय ज्ञानपीठ को साधुवाद ।
कृष्णा सोबती को सम्मानित करके कुछ मर्यादा इस सम्मान की ही बढ़ी है ।बहुत देर आयद भी दुरुस्त ही है ।सोबती के लेखन को सम्मानों से आँकना हमारी विवशता हो सकती है ख़ुद उनके लिए कभी भी नहीं रही ।काश,इसे अधिक गरिमापूर्ण ढंग से किया जा सकता ।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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