'गाँव भीतर गाँव' उपन्यास से चर्चित कथाकार सत्यनारायण पटेल का चौथा कहानी संग्रह 'तीतर फांद' इस वर्ष आधार प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. इसमें उनकी सात कहानियाँ शामिल हैं.
परख रहीं हैं रीता राम दास.
वक़्त
से आँख मिलाता ‘तीतर
फांद’
रीता दास राम
प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान और वागीश्वरी सम्मान से सम्मानित समकालीन कहानीकार सत्यनारायण पटेल की कहानी संग्रह ‘तीतर फांद’ यथार्थ की कसौटी पर खरी ही नहीं उतरती बल्कि समाज को यथार्थ की कसौटी पर खरी-खरी सुनाती भी है.
संग्रह की पहली कहानी ‘ढम्म ...ढम्म...ढम्म’ में आज के माहौल
की गूंज साफ सुनाई देती है. घटनाएँ हमारे साथ साथ चलती ही रही है लेकिन जो शब्द
गूँज रहा है जिससे व्यवस्थाएं भी सहमी हुई है. कहानी उसका परिपेक्ष्य प्रस्तुत
करती है. असंभव वक्त में कलम भी शब्द के बदले गूँज में घोषित अनुगूँज को दर्शाना
चाहते है क्योंकि शब्दों के मायने भी बदलाव लिए विस्तारित ही नहीं अर्थों के गूढ़
रहस्य को उद्घाटित करने में असमर्थ है. दहशत की व्याख्या खौफ़ और डर लिख देने से
पूरी नहीं होती और लिख देने से बहुत कुछ रह जाता है अधूरा जिसे पूरा होना होता है
जैसे अंत के पहले अंतिम हो जाना. फिर भी सुनिए कहानी की पंक्ति कुछ कहती है,
“मेरी अर्ध बेहोशी कायम है. कराह और बढ़ रही है. और मैं सुन रहा हूँ—भाssरत माँ की ! भा ss रत की माँ की ! भा ss रत की माँ की ...! खच्च...खच्च...खच्च...ढम्म...ढम्म...ढम्म !”
समाज और समय को दृष्टि की नोक पर रख देखते घड़ी की टिक टिक
में लेखक इंसानियत को ख़त्म होते देखते ही नहीं नैतिकता को रोपने की चाहत भी रखते
हैं. ईमान का जर्जर मकान जो गिर रहा है लोगों पर और जबान फिर भी बत्तीस पहरेदारों
के बीच सुरक्षित कहने,
सुनाने को आतुर है. जहाँ आवाज़ चीलों के शोर और गिद्दों की हँसी में दबती जा रही है.
देश में संहार युक्त दर्दनाक बदलाव जिसे बदलाव कम कत्लेआम की संज्ञा देती कहानी ‘ढम्म ढम्म ढम्म’ अपने लहूलुहान शब्दों में अपना हाल, देश का हाल, देशवासियों का हाल बयान करती है. देश
में आतंकवाद का आगमन हुआ है. जिसके आने से विकास, गति, भविष्य रुका पड़ा है. कारण हर ओर अर्ध-बेहोशी, कराह, चीख़ कायम है और हम सुन रहे है खच्च खच्च खच्च के साथ ढम्म ढम्म ढम्म और
जैय ....... .
‘तीतर फांद’ संग्रह है ऐसी कहानियों का जो
नैतिकता का आगाज़ है. समाज़ को आईना दिखाता है. मूल्यों को सहेजती भारतीय संस्कृति
स्तब्ध है. आज मूल्य बिखर रहे हैं. समाज में हर ओर एक रोष फैला हुआ है. मनमानी और
अराजकता का बोलबाला है. ऐसे समय में लेखक ‘न्याव’ द्वारा ऐसी कहानी बतौर उदाहरण पेश करते हैं जो संस्कृति और परिवार नामक
सामाजिक संस्था के समक्ष प्रश्न खड़ा करती है. माता-पिता परिवार के प्रमुख और
महत्वपूर्ण सदस्य हैं जो परिवार की जड़ें होते हुए घर को बनाएँ रखने में अपना
सर्वस्व लगा देते हैं. ‘न्याव’ ऐसी माँ
की कथा कहती है जो एक बलात्कारी पति और बाद में बेटे के कुकर्मों से क्षुब्ध है. जिसके
लिए लड़कियों की अस्मत से खेलना ही जिंदगी का मक़सद था. पकड़े जाने पर लोगों द्वारा
हुई पिटाई के बाद बाप के नक्शेकदम पर चलने वाले अपने बेटे के अंडकोष काट डालना, यही माँ का न्याय है. यह ऐसे भ्रूण पनपने देने का विरोध दर्ज करती है जो
बलात्कारी बनाते हैं. पति की इन्हीं हरकतों की वजह से पैंतीस साल की उम्र में ही उनकी
हत्या कर दी गई थी. रंगे हाथों पकड़े गए बेटे के लिए माँ को समाज से इस बुराई को
हटाने के लिए इससे बेहतर कोई न्याय नहीं सूझता. वह कहती है ह्त्या से कुछ नहीं
होता.
लेखक के शब्द कहते है बलात्कारी माँ की कोख से नहीं जन्मता, जन्मता है तो व्यवस्था की कोख से. स्पष्ट
है परिवार वह इकाई है जो समाज की धरोहर है. समाज के हलचल की छाप हम परिवार में देखते
है. समाज में रहते हुए व्यवस्था से दूर नहीं हुआ जा सकता. इसका असर समाज के हर
बंदे पर होता ही है. समाज में परिवर्तन के लिए हमें अगर शुरुआत परिवार नामक इकाई
से करनी होगी तो व्यवस्था में सुधार और परिवर्तन भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते है.
जैसे कानून और कचहरी से उठ चुका भरोसा सदाचार की जड़े हिला रहा है. बलात्कारी में
हुए अच्छे परिवर्तन ने भी समाज में माँ बेटे को जीने नहीं दिया. स्पर्धा बड़े से
बड़े हादसे करा देती है जहाँ न ईमान बचता है ना इंसानियत. स्थानीय भाषा की छांव में
‘न्याव’ न्याय का भाषिक बिगड़ा हुआ रूप
है.
भारतीय समाज की स्थिति और परिवार नामक संस्था की दुर्गति का
दृश्य ‘मैं यहीं
खड़ा हूँ’ में देखने मिलता है.
आज जहां स्त्री-पुरुष समानता की बात की जाती है नारी की स्थिति दुखद और शोचनीय है.
बलात्कार इस आतंक से बेटी का पिता आज भी त्रस्त है. विकास और शिक्षित समाज होने के
बावजूद आज भी अमानवीय व्यवहारों और त्रासदी से दो-चार होना पड़ रहा है. मानव समाज
में पशुवत व्यवहारों की बड़ोत्तरी एक चिंताजनक मुद्दा है. आज भी समाज में ऐसा वर्ग
मौजूद है जिसे व्यावहारिक शिक्षा की जरूरत है या हम विक्षिप्तता जी रहे हैं यह
विमर्श का विषय है. ‘मैं यहीं
खड़ा हूँ’ कहानी में एक पिता ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती
सायकिल से बारिश में भीगती आती बेटी के इंतजार में चौराहे पर खड़ा है. बिटिया
चौराहे की लालबत्ती क्रासिंग की लाईट तक आती है. फिर भीड़ के बीच हरी बत्ती का
सिग्नल होने पर सब निकल जाते है. बिटिया कहीं दिखाई नहीं पड़ती. जाने कहाँ गायब हुई
बिटिया आज ढाई साल हुए न वापस लौटी ना ही उसका कोई पता चला. लेखक कहते है,
“हमारा इतना सामूहिक पतन हो गया है कि भरोसे का पंछी व्यवस्था के खंडहर से जाने कब से जा उड़ा था. व्यवस्था के सभी खंबों पर कालिख पुत चुकी थी. सदियों से भरोसे की सबसे बड़ी खान रहा बाप का सीना भी टिड़कने लगा था. कभी बाप की गोदी खुदा के घर से भी कहीं ज्यादा महफूज़ समझी जाती थी, जिसमें बेटी सिर रखकर सो जाया करती थी---बेफिक्र. लेकिन अब यदा-कदा बाप की गोदी में भी वासना गंधाने लगती.”
वहीं देश ऐसे बाबाओं की गिरफ्त में हैं जो बेटियों के लिए
खतरा है. दरअसल भेड़ियों के धड़ पर भक्तों के चेहरे लगे हैं और वे पकड़ और पहचान से
परे हो चुके है. शहर जंगल में बदल रहा है. मूल्य दरकिनार होते जा रहे हैं.
बलात्कार के किस्से सरेआम होने लगे है. ऐसे समय में बेटियों के प्रति माता-पिता की
ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है जिसे लेखक पेड़ के द्वारा कहलवाते हैं कि तुम्हें धूप और
बूँदा-बाँदी से बचाना मेरी ज़िम्मेदारी थी. मैंने निभाई. तुम अपनी निभाओ. बाबाओं के
पोल खुल रहे हैं. लोग देख रहे हैं. किस तरह लोगों के आँखों पर अंध विश्वास की
पट्टी पड़ रही है और आँखों के सामने बच्चियाँ गायब हो रही है. यह प्रतिकात्मक कठोर
कटाक्ष है कि चौरास्ते पर गाँधी के पीठ पीछे से बेटी कहाँ गई. सड़क निगल गई कि किसी
भक्त कि गाड़ी ने दबोच ली. आज समाज का हर पिता अपनी बेटी के लिए शंकित और डरा हुआ
है.
लेखक की दृष्टि समाज में उन बारीकियों को तलाशती है जिस पर
कोई कुछ कहना नहीं चाहता बल्कि यूँ कहिए कोई कुछ कहने से भी डरता है. वहीं लेखक
बेखौफ़ अपनी लेखनी चलाते हैं. विरोध जताते हैं. हो रहे शोषण पर कटाक्ष अंकित करते
हैं. सत्ता में काबिज शक्तिशालियों के नाकाबिल ए बर्दाश्त व्यवहार एवं अराजकता से
जनता त्रस्त है. चाँद,
सूरज, मानवीय दैत्य और रंगों की चेतना द्वारा वे कहानी में
अपनी बात कलात्मक रूप से प्रस्तुत करते हैं. उनका कहना है आम जनता जुल्मों से दबती
जा रही है. आज इक्कीसवीं सदी में भी हम धर्मांधता की बातें कर रहे हैं जबकि सही
गलत सबके सामने है.
‘नन्हा खिलाड़ी’ सामाजिक माहौल एवं
व्यवस्था की चल रही मनमानी पर प्रतिकात्मक कटाक्ष प्रस्तुति है. लेखक जो कुछ समाज
में देख रहे है वह उनके भीतर आंतरिक वेदना बन रिस रहा है. उदाहरण देखिए,
समाज में कुछ वर्ग समूह चाँदनी का मज़ा ले रहे हैं तो कुछ लोग घनघोर अँधेरी रात याने संघर्ष और भीषण कठिनाई को जीने के लिए अभिशप्त हैं. धर्म संप्रदाय की ऐसी सड़ाँध फैली हुई है कि अँधेरी रात के प्रशंसा गीत गाए जाते हैं जिसके पीछे अन्यों का लुप्त होना भविष्य बताया जा रहा है. समाज में चलने वाले कृत्यों से उठती शौच सी गंध से पूरी कहानी गँधाती है जिसमें लोग जीने को प्रतिबद्ध है. मिलजुल कर रहना, एकजुटता, भाईचारा अघोषित रूप से प्रतिबंधित है. सामाजिक वातावरण की विभत्सिता गाली स्वरूप लगती है. लोग मानवीय दृष्टि को तरस रहे हैं. गूँगी औरतों के उदाहरण बताते हैं औरतों को चुपचाप जीना होगा और वें इसकी अभ्यस्त हो चुकी है. इंसान श्वान होता जा रहा है. गंदगी के दलदल में उतर कर जिंदगी खोजने को मजबूर है. उम्मीद नन्हें खिलाड़ी की तरह हर ओर मौजूद है जो बदलाव की प्रतीक्षा कर रही है जिसमें समाज बेहतर जीवन की आशा के लिए लालायित है.
“तारों सितारों से भरी विशाल आसमानी परात को चाट पोंछ कर यूँ साफ़ किया था कि जैसे जर्मन शेफर्ड कुतिया ने प्लेट से नॉन वेज़ साफ़ किया हो या किसी उद्योगपति ने बैंक लोन चाट लिया हो.”
समाज में कुछ वर्ग समूह चाँदनी का मज़ा ले रहे हैं तो कुछ लोग घनघोर अँधेरी रात याने संघर्ष और भीषण कठिनाई को जीने के लिए अभिशप्त हैं. धर्म संप्रदाय की ऐसी सड़ाँध फैली हुई है कि अँधेरी रात के प्रशंसा गीत गाए जाते हैं जिसके पीछे अन्यों का लुप्त होना भविष्य बताया जा रहा है. समाज में चलने वाले कृत्यों से उठती शौच सी गंध से पूरी कहानी गँधाती है जिसमें लोग जीने को प्रतिबद्ध है. मिलजुल कर रहना, एकजुटता, भाईचारा अघोषित रूप से प्रतिबंधित है. सामाजिक वातावरण की विभत्सिता गाली स्वरूप लगती है. लोग मानवीय दृष्टि को तरस रहे हैं. गूँगी औरतों के उदाहरण बताते हैं औरतों को चुपचाप जीना होगा और वें इसकी अभ्यस्त हो चुकी है. इंसान श्वान होता जा रहा है. गंदगी के दलदल में उतर कर जिंदगी खोजने को मजबूर है. उम्मीद नन्हें खिलाड़ी की तरह हर ओर मौजूद है जो बदलाव की प्रतीक्षा कर रही है जिसमें समाज बेहतर जीवन की आशा के लिए लालायित है.
‘गोल टोपी’ नाम से ही इशारा समाज
के एक खास वर्ग की ओर जाता है. आज समाज में अल्पसंख्यक दहशत के दौर से गुजर रहा है.
आतंक का माहौल पूरे समाज पर छाया है. कुछ आतंकवादी घटनाएँ पूरे कौम को कटघरे पर
खड़ा करती है. ‘गोल टोपी’ मुस्लिम समाज
पर पड़ती शंकित दृष्टि की गाथा प्रस्तुत करती है. देश पर हुए आतंकवादी हमले और पकड़े
जाते रहे मुस्लिम वर्ग के लोगों के कारण हर मुसलमान को शक की नज़र से देखा जाता है.
यह बात सुर्खियों में रही कि हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं पर हर आतंकवादी मुसलमान है.
इस कारण मुसलमानों से सचेत रहने की एक वैचारिक दृष्टि फैलती जा रही है और अच्छे
भले मुस्लिम जनता का जीना मुहाल हो गया है. कहानी में लेखक ने देश में युवाओं की
स्थिति, जीने का ढंग, उनमें आते बदलाव
का चित्रण किया है. युवा पीढ़ी अपनी जिंदगी में मनचाहा परिवर्तन चाहती है. किसी भी
कार्य की प्रतिबद्धता नहीं चाहती. शादी के बंधन को झंझट और जंजाल समझती है. अपनी
सुरक्षा, मनमर्जी और आजादी सभी को पसंद है. कहानी चाय वाले,तोता, मैना से होते हुए मुस्लिम वर्ग पर ठहरती है.
चाय वाले के कारण खोए हुए मोबाईल के चोरी के शक की सुई गोल टोपी वाले पर घूमती है
लेकिन वे ईमानदार बंदे अपने कौम पर दाग लगने नहीं देते और मोबाईल लौटा कर इस बात
का सबूत देते हैं कि हर मुसलमान आतंकी नहीं होते. यह कहानी समाज में मुस्लिम वर्ग
के प्रति पनपती गलत धारणा में परिवर्तन देखना चाहती है जो सामाजिक सरोकार से जुड़ा
दृष्टिकोण है.
भ्रष्टाचार,
धांधलेबाजी और व्यवस्था में पनपती गंदगियाँ कुछ मुट्ठी भर लोगों का ही फायदा कराती
हैऔर समाज में निम्न वर्ग एवं मासूम लोगों की जिंदगी नरक में तब्दील होती जा रही
है. जिससे भोगता इंसान विक्षिप्तता झेलने पर मजबूर होता जा रहा है. ‘मिन्नी, मछली और साँड’
सामाजिक व्यवस्था, नियम, कानून-क़ायदे
की तोड़-फोड़, गलत तरीके से फ़ायदा उठाना आदि कारणों से आहत
होते लोगों की दास्तान है जो मासूमियत से अपने जीवन को ईमानदारी के रास्ते चलाते
हुए जंग जीतना चाहते हैं किन्तु उच्चासीन पदों पर बैठे सत्ताधारी सरकार के
नुमाइंदों के हाथों बर्बाद हो जाते हैं. विश्वस्तरीय खेल की प्रतियोगिताओं का सच
उसमें निहित धोखा-धड़ी और जालसाज़ी ज़हीन व उम्दा खिलाड़ियों का साथ नहीं देते. उनकी
उपलब्धि पर मिले उपहार और आर्थिक लाभांश को भी निगल जाने का मौका नहीं छोड़ते. लेखक
इस कहानी द्वारा देश के योग्य,बेहतरीन व स्तरीय खिलाड़ियों के
प्रति होते दुर्व्यवहार के प्रति समाज और व्यवस्था का ध्यानाकर्षण चाहते है.
खिलाड़ियों के कोच और अपनों के सपने खिलाड़ियों की जीवन को यांत्रिक बना देते हैं. खेल मंत्रालय की भ्रष्ट होती राजनीति के कारण कई महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त खिलाड़ी एक दिन दाने-दाने को मुहताज़ हो जाते हैं. चयन समिति के सदस्यों की मनमानी खिलाड़ियों के भविष्य एवं उनकी उपलब्धियों के रास्ते का रोड़ा बन जाती है. उनके हक का पैसा उन तक पहुँचने नहीं दिया जाता. भविष्य में उन्हें कोई मदद भी नहीं मिलती. देश के लिए गौरान्वित सफलता का उपहार लाते हुए खिलाड़ियों के प्रति लेखक,सरकार एवं समाज का संज्ञान लेना चाहते है कि किस तरह खिलाड़ी अपनी जिंदगी को ख़तरे में डालकर जोशीले उत्साह के साथ खेलते है.खिलाड़ी को एक दुर्घटना कहाँ से कहाँ पहुँचा देती है. वें पूरी जिंदगी अपाहिज बनकर जीने को मजबूर हो जाते है. ऐसे सफलता प्राप्त और चोटिल हुए खिलाड़ी के प्रति सरकार ने सचेत होकर अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए. यह समाज की आशा नहीं बल्कि सरकार का दायित्व भी है.
खिलाड़ियों के कोच और अपनों के सपने खिलाड़ियों की जीवन को यांत्रिक बना देते हैं. खेल मंत्रालय की भ्रष्ट होती राजनीति के कारण कई महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त खिलाड़ी एक दिन दाने-दाने को मुहताज़ हो जाते हैं. चयन समिति के सदस्यों की मनमानी खिलाड़ियों के भविष्य एवं उनकी उपलब्धियों के रास्ते का रोड़ा बन जाती है. उनके हक का पैसा उन तक पहुँचने नहीं दिया जाता. भविष्य में उन्हें कोई मदद भी नहीं मिलती. देश के लिए गौरान्वित सफलता का उपहार लाते हुए खिलाड़ियों के प्रति लेखक,सरकार एवं समाज का संज्ञान लेना चाहते है कि किस तरह खिलाड़ी अपनी जिंदगी को ख़तरे में डालकर जोशीले उत्साह के साथ खेलते है.खिलाड़ी को एक दुर्घटना कहाँ से कहाँ पहुँचा देती है. वें पूरी जिंदगी अपाहिज बनकर जीने को मजबूर हो जाते है. ऐसे सफलता प्राप्त और चोटिल हुए खिलाड़ी के प्रति सरकार ने सचेत होकर अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए. यह समाज की आशा नहीं बल्कि सरकार का दायित्व भी है.
समाज में चल रहे अव्यवस्था के आतंक से होते उतार-चढ़ाव, बेईमानी, धोखेबाज़ी, कमजोरों को दबाने, उनका फायदा उठाने, के प्रति आवाज़ बुलंद करती कहानी है ‘तीतर फांद’ जो देश में हो रहे सत्ताधारियों
की मनमानी पर सीधा कटाक्ष है. देश की स्थिति का बयान है. दुर्दशा सर चढ़ कर बोल रही
है. देश की बेटियाँ बेहाल है. कहानी लेखक की भीतरी चीख है. समाज, असंभव से माहौल में पसरती आवाज़ है जिसकी गूँज दिलों में सुनी जा सकती है.
पूंजीपतियों और कॉरपोरेट की दुनिया ने देश को अपने हाथों की कठपुतली बना रखा है.
पूरा समाज यांत्रिकता का शिकार हो चुका है. इंसान इंसान न रह कर पशु-पक्षी तुल्य
हो गए है. न किसानों की आह कोई सुन रहा है न जनता की तड़प. लोग गिनती में यूँ ही कम
होते जा रहे है. देश देश न होते हुए महाजंगल हो चुका है. महाराजा अपनी नज़र में महा
सेवक है जबकि धाराओं की रस्सियाँ जंगलद्रोह का फंदा बुनती है. तीतर, कबूतर, बटेर, दलित, आदिवासी, किसान, छात्र जो
महाराजा की आरती न गाए फंदा उन्हें स्वतः कसता जाएगा. पंक्तियाँ देखिए,
“सिर्फ़ तीतर के भक्षक ही नहीं बढ़ रहे, मजदूर, किसान, असुर और छात्र भी निशाने पर. जैसे हम सब इंसान नहीं, बल्कि किसी महाठग के महाझोले में बंद सवा अरब तीतर. महाठग ही महाराजा. महाठग ही महासेवक. महाठग ही महायात्री. महाठग धरती में फैले जंगलों की महा यात्रा कर रहा है. अनेक राजाओं को, शिकारियों को महाजंगल में आने का आमंत्रण दे रहा. कोई राजा, कोई शिकारी,अपनी खातिरदारी में कमी पेशी की आशंका जाहीर करे, महाठग हमारे सिर पर हाथ रख कर सौगंध खाए---किसान मेरे खीसे में. मजदूर मेरे खीसे में. व्यापारी मेरे खीसे में. दलित, असुर, आदिवासी और छात्र मेरे खीसे में. आप तो पधारो म्हारा देश. खुलकर करो इन्वेस्ट. कानून सब शिथिल कर दूंगा. लाल गलीचा बिछा दूंगा.”
यह लेखक की व्यथा है. ब्रह्मराक्षस सा महाराजा अपने भक्तों
को सपनों के बगीचे की सैर का आश्वासन देता है. लेखक कहते
हैं शिकारी तो बाज़ार है जिसने जगह-जगह लुभावने तीतर फाँद लगाए हुए हैं. लेखक का
सीधा कटाक्ष है कि पूरी व्यवस्था विकृत व्यवस्था है. लोगों के लिए यह एक कुरूप
फंदा है. लोग एक दूसरे का हक मार रहे हैं. लोग एक दूसरे को खा जाना चाहते है. लेखकचिंतातुर
है धर्मांध उन्मादी भीड़ लोगों को कुचलती जा रही है. भीड़ में लोग गायब हो रहे हैं. बेटियों
पर पहाड़ टूट रहे हैं. लेखक दुखी हैं कि प्यार से पाले पशु-पक्षी को लोग कैसे काट
कर खाते है. यह परंपरा और मान्यता की बात है जो उन्हें आश्चर्यचकित करती है. तीतर
के रूप में उन्होंने समाज में इंसानी हालात को तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत किया है.
यह लेखक का अपना अनुभव है जो कहानी के रूप में पेश है. वें अपना विरोध रखते हैं तो
आगाह भी करते हैं. दिशा भी दिखाना चाहते है तो वर्तमान स्थिति के लाभ और हानि से
भी अवगत कराते हैं.
देश की विपरीत परिस्थितियाँ,सामाजिक माहौल, राजनीतिक पैंतरे, रीति-रिवाज़, परंपरा,धर्मांधता, जातिवाद, परोपकार, नैतिकता, भ्रष्टाचार, गड़बड़-घोटालों पर अपने सशक्त विचार संग्रह
के विषय के केंद्रीय बिन्दु हैं जिसके द्वारा निडर होकर लेखक ने विरोध जताया है.
अपनी बात रखी है. जबकि पत्रकार लेखकों साहित्यकारों पर आत्मघाती हमले और हत्याएँ
खुलेआम हो रहे हैं. साहित्य समाज का आईना है यह बात इस संग्रह की कहानियाँ सिद्ध
करती है. सत्या बहुत आम फ़हम और खुले शब्दों में अपनी रचना को कलम बद्ध करते है.
कहानी में सच को कहने या प्रस्तुत करने का अंदाज़ प्रतिकात्मक है जो कथा को सरस
बनाता है. पशु, पक्षी, पेड़-पौधों, प्रकृति, चाँद, सूरज आदि की
गतिविधियों का अच्छा अध्ययन उनकी रचना में मिलता है. जिसका प्रतिकों के रूप में
उदाहरणार्थ प्रस्तुत करते है. लेखक धड़ल्ले से गाँव-ग्राम में प्रचलित बातों, आंचलिक भाषा व शब्दों का प्रयोग करते है जो उनमें रची-बसी है ऐसा प्रतीत
होता है. संस्कृति को वे खुलकर और पूरे सम्मान के साथ जीते हैं. पूरी आत्मीयता और अव्यक्त आक्रोश को साथ लिए कहानी में वे
अपना कहन पिरोते है.
वह पाठक से खुलकर बात करती है सामाजिक तौर पर उन्हें अपना बनाती चलती है. कहानियाँ बेधड़क वह सब कहती है जो समाज़ बुन रहा है गुन रहा है धुन रहा है. सत्यनारायण पटेल समय की धारा पर कलम की धार रखने वाले लेखक है जिनके पास वक्त से आँख मिलाने का धीरज़ भी है और साहस भी.
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reeta.r.ram@gmail.com
reeta.r.ram@gmail.com
आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (08-10-2018) को "कुछ तो बात जरूरी होगी" (चर्चा अंक-3118) पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक धन्यवाद रुपचन्द शास्त्री 'मयंक' सर आभार सादर।
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