रंग-राग : मंटो : नीम का कड़वा पत्ता : सत्यदेव त्रिपाठी





























नंदिता दास की फ़िल्म मंटों पर आपने यादवेन्द्र का विचारोत्तेजक आलेख पढ़ा, आज प्रस्तुत है सत्यदेव त्रिपाठी की यह विवेचना जो इस फिल्म की मुकम्मल पड़ताल करती है. 
सत्यदेव त्रिपाठी हिंदी में रंगमंच और फिल्मों पर लिखने वाले कुछ बेहतरीन लोगों में एक हैं. 


  
मंटो : नीम का कड़वा पत्ता                          
सत्यदेव त्रिपाठी








“मैं अपनी कहानियों को एक आईना समझता हूँ, जिसमें समाज अपने को देख सके.”
“और यदि सूरत ही बुरी हो, तो आईने का क्या...?”
“मैं सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो पहले से ही नंगी है !”
“यदि आप मेरी कहानियों को बर्दाश्त नहीं कर सकते, तो यह ज़माना ही नाक़ाबिलेबर्दाश्त है...”
आदि-आदि.



ये तेवर हैं फिल्म ‘मण्टो’ में’ उर्दू के सरनाम अफ़सानानिग़ार सआदत हसन मंटो साहब के, जिसे बर्दाश्त न कर सके पिछली सदी के चौथे-पाँचवें दशक के मर्द, मज़हबी, हुक़्मरान, और फ़नकार व अदीब भी – उसी दौर के प्रगतिशील शायर फैज़ तक ने ‘ठण्डा गोश्त’ के ताल्लुक से मंटो की कहानियों को फ़ाहिश (अश्लील) न सही, साहित्य के दर्ज़े का नहीं माना. याने मंटो का पूरा समय उसे सह न सका.... लिहाज़ा मण्टो की कहानियों के आईने ही उसकी मरणांतक त्रासदी के सबब बने.... तो क्या आज मंटो पर जीवनीपरक फिल्म बनाकर नन्दिता दास यही तो नहीं पूछना चाह रहीं कि ऐसे तेवर को क्या बर्दाश्त कर सकेगा आज का समाज, सत्ता, साहित्य और कला – याने वही, आज का समय?

लेकिन इससे बडा सवाल यह कि क्या ऐसा तेवर आज बचा है लेखकों में? क्योंकि वे सच तो  वैसे ही हैं..., बल्कि आज कई गुना बडे गये हैं.... बडे होकर जीवन को झिंझोड भी रहे और झुलसा भी रहे हैं. जबकि आज जंग-ए-आज़ादी जैसी नृशंसता एवं मुल्क के बँटवारे जैसी वीभत्सता का कोई ऐतिहासिक हादसा भी नहीं है. तो क्या मण्टो का इतनी मरणांतक पीडा सहकर भी तीखे तेवर को बनाये रखने के ज़रिए नन्दिताजी आज के लेखकों को भी तो नहीं ललकार रही हैं?? जी हाँ, यही है इस फिल्म का सबब.... खराद पर हैं इसमें आज के सच और उसके मुक़ाबिल सत्ता भी, समाज भी और रचनाकार भी. यही है फिल्म ‘मण्टो’ के मौजूँ होने की धनक. 


फिल्म की संरचना इतनी सांकेतिक है कि 71 साल पहले के समय को आज से जोडने वाले सूत्र फिल्म के परिवेश में भी टँके मिलते हैं - पुरानी शैली की इमारतें – पत्थर और खपरैल की बनी भी, पुराने काट के कपडे, मुम्बई की लोकल, आज भी कहीं-कहीं दिख जाती घोडा गाडियां, पारसी-ईरानी होटेल्स, तब के बागीचे...आदि.

कहानियों के आईने में नुमायां उन सचों की चर्चा पर आने के पहले दो बातें और... पहली यह  कि काश, यह ललकार ‘संजू’ के हीरानी (हीरा+नी) भी सुनते और समझ पाते ‘बायोपिक’ का सही मतलब और मक़सद...!! दूसरी यह कि जीवनी पर बनी फिल्म कल्पना से बनी कथा (फिक्शन) नहीं, किसी जीवन का सच होती है, इसलिए कौन सी घटना या चरित्र कैसा और क्यों हो गया या वह कैसा होता, तो क्या सरोकार बनते, की समीक्षा यहाँ बेमानी होती है.


फिर जब 5-6 सालों से फ़िदाई की तरह इस फिल्म की पटकथा में डूबी नन्दिताजी जैसी प्रतिबद्ध व ज़हीन फिल्मकार के बर-अक्स तो ‘मण्टो’ में उकेरी सआदत हसन सम्बन्धी घटनाओं पर शक़ की गुंजाइश ही नहीं बनती – ये हौसला मुझको तेरे ‘कामों’ ने दिया है. बतौर उदाहरण मुम्बई के प्रेम में आकण्ठ डूबे मण्टो ने महज अपने गहरे हिन्दू मित्र की टिप्प्णी के नाते पाकिस्तान जाने का फैसला कर लिया, जो उनकी जिन्दगी के बर्बाद होने की प्रमुख वजह बना और फिल्म तथा मण्टो की जिन्दगी का निर्णायक मोड भी...; तो इतनी-सी बात पर जीवन भर का संत्रास ले लेने के लिए फिल्म ‘मण्टो’ या निर्देशिका पर शंका नहीं, इसे सआदत हसन की शख़्सियत का ख़ुलासा समझना होगा.


मित्र की भूमिका में श्याम बने ताहिर राज भसीन ने ‘मर्दानी’ में जो छाप छोडी, वह यहाँ छूटी नहीं. इसी तरह फिल्म का हर टुकडा मण्टो के सोच व जिन्दगी के पट खोलता सिद्ध हुआ है और सिर्फ़ चार सालों (1946 से 50) पर अधारित यह बायोपिक मण्टो ही नहीं, आज तक के भारत-पाकिस्तान के सफर के लिए भी कितने अहम साबित हुए हैं, क्या बताने की ज़रूरत है?

(नंदिता दास)

यूँ तो फिल्म जगत में हमेशा ही कोई न कोई चलन (ट्रेण्ड) चलता रहता है और आजकल जीवनीपरक (बॉयोपिक) फिल्में चलन में हैं, जिसमें सबसे हिट है खेल और खिलाडियों का जीवन, जिनकी उपलब्धियां अधिकांशत: बाह्य होती हैं, साफ दिखती हैं- उनके श्रम में व उनकी सफलता में. लेकिन किसी लेखक-कवि पर फिल्म बनाना बहुत जटिल काम है, क्योंकि उनका जीवन जितना और जैसा बाहर से दिखता है, उससे कहीं अधिक अंतस् में पैठा रहता है, जिसके लिए मुहावरा बन गयी है बच्चनजी की पंक्ति – ‘कवि का पंथ अनंत सर्प-सा, बाहर-भीतर पूँछ छिपाये’.... और इसी जटिलता को साधने, मण्टो के अन्दरूनी पक्ष को खोलने की चुनौती के तोड के तहत नन्दिता ने उस काल के ज्वलंत इतिहास के साथ मण्टो की रचनाओं–ख़ासकर पाँच कहानियों- को भी जोड लिया है, जो फिल्मकार का ब्रह्मास्त्र साबित हुआ है. और बह्मास्त्र की ख़ासियत होती है- सब पर जीत की गैरण्टी और सबसे अकेला कर देना. 


तो यह रूपक यूँ सही उतरता है फिल्म पर कि मण्टो का अच्छा पाठक तो इस सिने-प्रक्रिया को, मण्टो की ज़हनियत को समझेगा और फिल्म का भरपूर लुत्फ़ उठायेगा, पर आम दर्शक से दूर हो जायेगी फिल्म. और इस रूप में फिल्म एक ख़ास समुदाय (क्लास) के लिए हो गयी है. नतीजा दिखा भी- बहुत कम सिनेमाघरों में लग पायी. कई छोटे शहरों में लगी ही नहीं – पूछ-ताछ होती रही. वितरकों के हवाले से इसी आशय की टिप्पणी की नन्दिता ने भी. और मुम्बई जैसे विराट नगर में जिन थोडी-सी जगहों पर लगी भी, उनमें पहले दिन (डे वन) से ही आलम यह रहा कि तीन-साढे तीन सौ लोगों की क्षमता वाले ‘जेमिनी’ (बान्द्रा - पश्चिम) में बमुश्क़िल 50-60 दर्शक थे.

इस मुद्दे पर कहना होगा कि दर्शक से भी थोडी-सी तैयारी (होम वर्क) की माँग करती है फिल्म – कम से कम इतनी कि निर्देशिका ने पाँच साल तैयारी की, तो दर्शक पाँच कहानियां तो पढे.... और उन 50-60 में 10-12 का एक समूह था, जो जानकार था और मण्टो के संवादों व अन्य पुरज़ोर अवसरों का लुत्फ़ ले ही नहीं रहा था, टिप्पणियों, क़हक़हों और तालियों आदि से सबके लिए लुत्फ़ लुटा भी रहा था.       

अब आइए, समय और हालात के साथ कहानियों को जोडने की प्रक्रिया का जायज़ा लें. दो ख़ास सच हैं मण्टो के लेखन में – स्त्री का तमामो रूपों में दैहिक शोषण और बँटवारे की मर्मांतक पीडा. यही दोनो सच मण्टो को मण्टो बनाते हैं. इतने रूप और चेहरे हैं इसके मण्टोनामे में कि क्या कहने... और एक से एक तंज लिए हुए तेज से तेजतर.... 


फिल्म में दो कहानियां खाँटी तौर से स्त्री पर हैं. शुरुआत ‘दस रुपये’ से होती है, जिसमें किशोरी लडकी को वेश्या के रूप में ढाल दिया है घर वालों ने ही. और वह कार में ग्राहकों के साथ जाती है, समुद्र-तट पर पानी में खेलती है. खेलने की उम्र में खेल का यह विद्रूप!! फिर ‘सौ वॉट का बल्व’ में शायद पति है, पर औरतों का दलाल (परेश रावल) है.

चौराहे पर ग्राहक को पटाने में जितना विनम्र और दयनीय, कमरे में जाकर उतना ही पेशेवर. सोने-खाने का समय भी नहीं देता उस बेजान-सी काया को. अपनी बेबसी बताने पर खुशामद और संवेदना से मनाता है, पर न मानने पर उस मरेली-सी को मारपीट कर भी धन्धे के लिए भेजने में शातिर. इतना ही है फिल्म में- यह सवाल उठाता हुआ कि उसी धन्धे से खाने वाला यह मुस्टण्डा ख़ुद क्या करता है? इस तरह स्त्री के दो मुख्य पालक व पवित्र रिश्तों वाली कहानियां को चुनकर नन्दिताजी ने मण्टो के सोच का एक मुकम्मल आईना रखा है.

शेष तीनो कहानियां बहुत-बहुत मशहूर हैं, जिनमें अगली दो कहानियों ‘खोल दो’ ‘ठंडा गोश्त’ में बँटवारे के क़ाफिरेपन में स्त्री की शर्मनाक त्रासदी है. ‘ठण्डा गोश्त’ सर्वाधिक कुख्यात हुई. यही फिल्म का चरम (क्लाइमेक्स) है. पाकिस्तान में इसी पर मुक़दमा चलता है, जहाँ अदीब भी बेपर्द होते हैं. मरहूम फ़ैज़ की अदबी छबि उघडती है, तो आबिद अली आबिद बने चिरंजीव जावेद अख़्तर अपने अदा-ओ-अन्दाज़ में ठस्स होकर रह जाते हैं. फिल्म वहीं मण्टो के कहे को मण्टो बने नवाजुद्दीन से कहलवा कर अपने कला-कर्म को अंजाम देती है कि ऐसा करने वाला पूरा समाज (पति व माँ-बाप तक) आज़ाद है, पर इस घृणित सच को आईना दिखाने वाले लेखक पर केस चलता है.


इस चरम के बाद अंत होता है विभाजन की ख़ाँटी कहानी से. फिल्म के लिए सबसे धारदार व कई-कई मर्म भरे संकेतों से युक्त संयोजन में फिल्म-रूपायन की कला पाती है अपनी चरमरति (और्गाज़्म) के क्षण.... विभाजन में देश ही नहीं बँटा दो भागों में, वरन मण्टो का जीवन जहाँ गुज़रा, जहाँ दोस्त-यार रहे, जहाँ अफ़सानों के साथ हिन्दी फिल्मों आदि के लिए भी कहानियां लिखते हुए नाम-दाम पाया...और जहाँ माँ-पिता व बेटा भी दफ्न रहे, ऐसी बहुत-बहुत प्यारी, अज़ीज और दिलकश अपनी बम्बई (अब मुम्बई) ...जिसके छूटने और लाहौर जाकर ठौर पाने में मण्टो भी दो भागों में बँट गया था. और इस मुक़ाम पर आकर उसी का आईना बनते हुए फिल्म भी दो भागों में बँट गयी है.

फिर ऐसा कैसे सम्भव है कि बनाने वाली साबुत रह गयी हो? फिर फाँक होने से कैसे बच सकेगा कोई ज़हीन दर्शक भी? अंतिम हिस्से तक जाते-जाते इस फाँक का आईना तब फिल्म के आदमक़द हो जाता है, जब कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ का सन्दर्भ जुडता है. देश के बँटवारे के बाद किसी आम आदमी की समझ में यह कानून नहीं आया और उसका पालन कराने वाले फौजियों का सलूक समझ में नहीं आया कि कल तक जो घर सात पुस्तों से अपना था, जो पडोसी सदियों से दुख-सुख के साथी थे, वह घर पराया और पडोसी अज़नवी कैसे हो सकते हैं. 


इसी आम आदमी का प्रतिनिधि है वह सरदार टोबाटेक सिंह. मरता है दोनो देशों की सरहद पर – किसी की ज़मीन में नहीं (नो मैन्स लण्ड में). पर मरता कौन है? क्या सिर्फ सरदार? या सिर्फ़ मण्टो का प्रतिनिधि सरदार? महाभारत के कृष्ण ने ‘अन्धायुग’ में कहा है – हर सैनिक के साथ मैं ही तो मरा हूँ.... लेकिन यहाँ कोई कृष्ण नही है – सबके देश   तय हो गये थे.... सो, मरते हैं दो देश...!!

(मंटो का परिवार)


लेकिन इतने तीखे-कषैले-कडवे सचों को पालते-पालते और उनसे उबल-उबल कर उफनते-उफनते मण्टो बार-बार मर चुका था – जब-जब दुनिया ने इसके आईने में छबि अपनी देखी और पत्थर मण्टो को मारे...जब सम्पादक ने उसका कॉलम लौटाया, तो पन्ने फाडकर उसके मुंह पर फेंकते हुए मण्टो ही तो मरा... दोस्त के मुँह से अचानक ही सही, ताना सुनकर ‘इतना मुसलमान तो हूँ ही कि मारा जाऊं...’ कहते हुए... ‘ठण्डा गोश्त’ के पन्ने वापस लेकर सीढियां उतरते हुए...कोर्ट में लोगों के आरोप सुनते हुए...और बेहद आजिज़ी से अपनी तक़रीर करते हुए...और सबके बाद दवा तक के लिए बेबस होते हुए... लेकिन सबसे त्रासद मौत तब हुई होगी, जब पत्नी सफिया से सुनना हुआ – तुम्हारे लिखने के कारण ही हम मरेंगे, लेकिन यह कहते हुए इतनी उदार-शालीन-सहयोगी सफिया भी जिन्दा कहाँ रही होगी? इन रूपों को अत्यंत संयम व सलीके से साकार करती सुरूपवती रसिका दुग्गल दर्शनीय ही नहीं, चिरकाल तक स्मरणीय रहेंगी.... लेकिन ग़रज़ ये कि सच का आईना दिखाने में मण्टो ने कितनी बडी कीमत चुकायी!!

पर फिल्म की अतल गहराई से रिसती है यह बात भी कि मण्टो ने भी सिर्फ आईना ही दिखाया. स्त्री-बेचकों को आईना दिखाया, सम्पादक के मुँह पर पन्ने दे मारे, पर जब बडा फिल्म -निर्माता (ऋषि कपूर) किसी औरत की जिस्म-नुमाई कर रहा था, तो देखकर भी अनदेखा करते हुए जो लौट आया, वो मण्टो ही था. सारे असह्य को सहने के लिए पानी से भी ज्यादा शराब में डूबा, सिगरेट में फुँका, पर कुछ करने की पहलक़दमी नहीं की. बख़्शती नहीं फिल्म इस लत तक को. बच्ची से कहलवा ही देती है – तुम्हारे मुँह से बदबू आ रही.... याने फिल्मकार की ‘नज़रे-इनायत’ से बचता कोई नहीं, कुछ भी नहीं. लेकिन इतना सब करते हुए कुछ शेष नहीं छोडते नवाजुद्दीन भी...और मज़ा यह कि किसी दृश्य में नि:शेष होते भी नहीं दिखते – अभिव्यक्ति की भूख और सम्प्रेषण ऊर्जा का कोष इतना अजस्र है कि कितना भी उँडेलो, भरा-भरा ही रहता है.


शुरू में सुनगुन थी कि इरफान करेंगे यह भूमिका, पर नवाजुद्दीन को देखकर लगा कि इसी के लिए बने हैं वे – वे ही बने थे इसके लिए. बताया भी नवाज ने कि मण्टो जैसा चलना-बोलना-दिखना तो आसान है, पर उनकी विचार-चेतना (थॉट प्रोसेस) तक पहुँचना, उसे पाना आसान न था... मुहय्या कराया नन्दिता दास ने और इनके बनाये माहौल ने.... दास ने जो विधान रचा, उसमें मण्टो के आईने का रूपक यूँ फला-फूला कि सारे संवाद सांग रूपक (कम्पाउण्ड मेटॉफर) बन जाते हैं. फूहड-से दृश्यों में कला का सौन्दर्य झाँकने लगता है. और जो माहौल बना मण्टो के मुम्बई-जीवन का, उसमें इस्मत चुगताई (राजश्री देशपाण्डे) जद्दन बाई (इला अरुण) नरगिस (फरयाना वज़ैर) अशोक कुमार (भानु उदय)...आदि के मेले ने जो सतरंगी पृष्ठ्भूमि रची, उस पर आगे चलकर लाहौर का जो चिलचिलाता माहौल बरपा हुआ, वह खिला भले न हो विरोधाभास (कंट्रास्ट) में खुला है अवश्य ख़ूब.... और यह सब सृजित करने में नन्दिताजी तो ‘तरे, जे बूडे सब अंग’ हो गयी हैं. और इतना डूबने पर अभिव्यक्ति का जो परम सुख मिलता है, उसमें कहाँ ख्याल रह जाता है कि कौन देखेगा..., सो कोई समझौता नहीं. लेकिन वही संजीदा डूबना ही है कि पूरी फिल्म में कसकती-कराहती अभिव्यक्ति की त्रासदी से टकरा पाता है, उसे व्यक्त कर पाता है, उसे गहरा पाता है... ‘डूबकर हो जाओगे पार’ को सार्थक कर पाता है. 



फिल्म के गीत ‘अब क्या बताऊँ हाल...(शुभा जोशी), नगरी-नगरी (स्नेहा खानवेलकर)...आदि सबकुछ को महकाते भले न हों, भीने-भीने भिगाते ज़रूर हैं. नन्दिताजी ने भले फिल्म का अंत किया हो ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे...’ से – न जाने क्यों – फैज़ के किंचित स्याह नज़रिये को दिखाने के बावजूद...पर मैं तो लेख को सम्पन्न करूंगा मण्टो के सच के आईने के मुतालिक इस कथन से – ‘नीम के पत्ते कडवे भले होते हों, ख़ून तो साफ़ करते हैं...!!”

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  1. अष्टभुजा शुक्ल3 अक्तू॰ 2018, 6:15:00 pm

    बहुत महत्वपूर्ण समीक्षा

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  2. "देखन में छोटे लगे और घाव करे गंभीर " और " यधौषधम स्वादु हिताम च दुर्लभ" मंटो के बारे में कहना बिल्कुल उपयुक्त हैं। समाज को नीम की दवा देते रहना जरूरी है। हां इनकी बातो को तसलीम करने में ज़माना बरसों लगा देता है।

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 4.10.18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3114 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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  4. Behad Maarmik sameeksha
    Film aur kirdaar k baarik se baarik reshe pe bhi dhyaan diya gayaa he.
    Manto ka vibhaajan, kahaaniyon pe tippani,... sab bedhad, kroor chalraha par lekhak pe case,
    Aur sabse maarmik Safia jaisi samvedansheel patni ka Marne ki baat kahne ka prasang ki ise sunane Wala aur kahne waali dono ko zindaa chhoda hi kab hoga.
    Bahut adhik prabhaavi sameeksha

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  5. बेहद संजीदगी से फिल्म के पैरहन,काया और अंतस को समीक्षक ने शब्द दिए हैंं।
    यादगार फिल्म की यादगार समीक्षा।

    शीर्षक ध्यानाकर्षक लगा।
    पत्ता तो पान का होता है।
    नीम की तो पत्ती या पत्तियाँ होती हैं!
    कवि केदार नाथ सिंह ने बहुबचन में 'पत्ते' लिखे हैं- झरने लगे नीम के पत्ते। बढ़ने लगी उदासी मन की।
    आज के राजनीतिक हालात के नीम अंधेरे में इस फिल्म का ऐसा रिव्यू उदासी को बढ़ाता तो है पर पढ़ने का सुख प्रदान करते हुए।
    समालोचन को धन्यवाद।

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  6. समालोचन का जवाब नहीं अरुण भाई साहेब। यह नित नई ऊंचाईयां छू रहा है। आप हरेक विषय को टच कर रहे हैं और वह भी बेमिसाल अंदाज में। हरेक वर्ग के लेखकों और पाठकों को भा रहा है समालोचन।

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  7. सकारात्मक समीक्षा ने आखिर फिल्म के पट सही तौर-तरीके से खोले।। बतर्ज त्रिपाठी जी नंदिता की मेहनत और विवेक के पूरे पंख खुले।
    समालोचन ने फिल्म समीक्षा की गुणधर्मिता की परख करना भी सहज कर दिखाया। वर्ना तो बड़ा घमासान मचा हुआ था। सभी किरदारों को केंद्र में रखकर इस फिल्म ने
    उनके लिए भी स्पेस निकाला, जो दबे रहते थे।बधाई।।
    प्रताप सिंह, वसुन्धरा ।

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