परख : हमन हैं इश्क़ मस्ताना (विमलेश त्रिपाठी)











विमलेश त्रिपाठी के नये उपन्यास 'हमन हैं इश्क़ मस्ताना' की समीक्षा विनोद विश्वकर्मा की कलम से.











हमन हैं इश्क़ मस्ताना
मोहब्बतों की  चाहत की कथा                      

विनोद विश्वकर्मा




'हमन है इश्क़ मस्ताना' (उपन्यास),
लेखक - विमलेश त्रिपाठी,
प्रकाशक : 
हिन्द-युग्म 201 बी, पॉकेट ए, मयूर विहार फ़ेस-2, दिल्ली-110091,
पहला संस्करण : 2018,
मूल्य - 130,



कोई मुझसे यह प्रश्न करे कि यह दुनिया कैसे चलती है? तो मैं उसके उत्तर  में  कहूंगा कि - प्रेम से. वास्तव में यदि इस दुनिया से प्रेम मिट जाए तो यह दुनिया ही समाप्त हो जाय. बहुत साल पहले जब मैं आचार्य रामचंद्र शुक्ल का निबंध 'श्रद्धा और भक्ति' पढ़ रहा था तो उसमें यही जाना था कि प्रेम में एकाधिकार होता है, और श्रद्धा में प्रेम का विस्तार होता है, अर्थात जिससे हम प्रेम करते हैं वह चाहता है कि हम उसी से प्रेम करें, उसी के आगे पीछे घूमें, और किसी से प्रेम न करें, और हम यदि ऐसा करते हैं तो जिससे हम प्रेम करते हैं उसे दुःख होता है, साथ ही प्रेम की मूल भावना को चोट पहुँचती है, आचार्य शुक्ल बड़े आदमी हैं, उनकी इस धारणा को मैं कहाँ तक समझ पाया यह तो नहीं कहता हूं, लेकिन प्रेम की अवधारणा को जरूर समझ गया था कि प्रेम करो तो भैया एक ही से करो, दूसरे की और न देखो.
  
जब मैं 'शेखर : एक जीवनी' पढ़ रहा था तो प्रेम के मनोविज्ञान को पढ़ा. वह यह था कि जीवन में प्रेम एक बार नहीं होता, वह बार-बार होता है, अज्ञेय ठीक-ठीक समझा देते हैं कि प्रेम का यदि जन्म होता है, तो वह मरता भी है, अर्थात प्रेम एक बार उगता है, डूबता है और फिर उसी तरह का वातावरण पाकर पुनः उगता है. प्रेम करने के बाद यह प्रश्न सदियों से बना रहा है कि क्या वह एक ही बार किया जाय. समाज में इस एकनिष्ठ प्रेम ने कितनो की जान ली है, और कितने ही परिवारों को तोड़ा है, फिर भी आज भी हम यही चाहते हैं कि 'तुम्हारा चाहने वाला इस दुनिया में, मेरे सिवा कोई और न हो' और यदि हो जाय तो क्या हो? इसी प्रश्न को लेकर के लिखा गया है विमलेश त्रिपाठी का उपन्यास 'हमन हैं इश्क़ मस्ताना'. मैं इस उपन्यास को अज्ञेय के 'शेखर:एक जीवनी' का अगला भाग मानता हूँ, लेखक ने प्रेम और उसके मनोविज्ञान को बखूबी पकड़ा है, हालाँकि यह निर्णय देना सही नहीं होगा लेकिन मैं फिर भी कहता हूँ की यदि अज्ञेय पुनः इस विषय पर विचार करते तो वह इसी तरह का होता जैसा कि 'हमन हैं इश्क़ मस्ताना' में विमलेश त्रिपाठी ने किया है.
       

यह उपन्यास वर्तमान जीवन और उसके अन्तर्विरोधों को बखूबी बयान करता है, आज के समय में प्रेम जीवन से कब चला जाय और कब आ जाय यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है, पहले हम गाँव में रहते थे, अब विश्व गाँव में रहते हैं, और विश्व गाँव में संपर्क के जो हथियार हैं, -मेल, यारकुट, फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, ट्वीटर, और इन सबके  संपर्क  केंद्र हैं, कम्प्यूटर और मोबाइल. पहले प्रेम आँखों के रास्ते आता था, अब एक ट्वीट या फेसबुक पर एक पोस्ट या एक सन्देश से भी आ जाता है.     
       

इस उपन्यास के नायक अमरेश विश्वाल के जीवन में प्रेम आँखों के रास्ते तो आया ही है, लेकिन सोशल मीडिया के माध्यम से भी आया है, और इसी ने उसके जीवन में हलचल पैदा कर दी है, वह जो शांत और निश्चित जीवन में अपनी पत्नी अनुजा के साथ जी रहा था, किसी ने नहीं सोशल मीडिया ने उसके जीवन के तालाब में अनेक पत्थर फ़ेक दिया है, अब यह पत्थर हैं, या नहीं इसका निर्णय आपको उपन्यास पढ़कर के लेना पड़ेगाअमरेश अपनी पत्नी के अलावा काजू दे, शिवांगी, और मंजरी से प्रेम करता है, यह तीनों लड़कियां या प्रेम उसे सोशल मीडिया से मिले हैं, समय के साथ कुछ छूट जाते हैं और कुछ साथ रहते हैं.
  

जब हम किसी दूसरे से प्रेम करने लगते हैं तो जिससे पहले प्रेम करते हैं उसके अधिकार में बाधा आती है, आमतौर पर ऐसा होता है कि घरों में तनाव बढ़ जाता हैं, झगड़े शुरू हो जाते हैं, हमें सोशल मीडिया की लत लग जाती है, हम वहां भी तलाशते हैं प्रेम, और वहां प्रेम हमें मिल भी जाता है. अनेक रूपों में.

  

जब प्रेम टूटता है तो न किताबें  अच्छी लगती हैं, न ही कुछ और अर्थात काम करने का भी मन नहीं करता है. प्रेम करना इतना कठिन है कि प्रेम के साथ ही मृत्यु हमारे आस-पास आ जाती है, यह मृत्यु उस तरह की नहीं होती है जो शरीर को नष्ट कर देती है, बल्कि समाज के डर होते हैं, जो सदियों से निर्मित हो गए हैं. शक, संशय और डर के बावजूद लेखक अमरेश प्रेम करता है, प्रेम में तो पास होने की आकांक्षा होती है, अमरेश अपने प्रेम को विस्तार देता है, जो कलकत्ता - अनुजा और काजू दे, दिल्ली - शिवांगी, भोपाल - मंजरी में, विस्तार पा जाने के कारण नायक अपने प्रेम को साध पाया है, या नहीं इसी की कहानी है, यह उपन्यास 'हमन हैं इश्क़ मस्ताना'.
     

कुछ लोग प्रेम को पवित्रता और अपिवत्रता के धरातल पर रखकर भी देखते हैं, वह यह मानते हैं कि यदि आपने एक बार प्रेम करने के बाद  किसी और से प्रेम किया, लड़का या लड़की के रूप में तो आपका प्रेम अपवित्र हो जाता है, नायक अमरेश जब शिवांगी से मिलता है, वह और शिवांगी यह मानते हैं कि उनका मिलन पवित्र है. शिवांगी यह जानती है कि अमरेश एक परिवार वाला आदमी है, उसकी पत्नी है, एक बच्चा भी है, फिर भी वह उससे प्रेम करती है, वह अट्ठाईस की है और अमरेश बयालीस के आस-पास, वह उससे कहती है कि अपने परिवार का ख्याल रखो, अनुजा दीदी से प्रेम करो, शिवांगी के अंदर एक गुस्सा, एक ठहराव और खालीपन है, वह है समाज और अपने परिवार के प्रति - यथा 


"मेरे अंदर एक ठहराव है, एक ख़ालीपन है. ढेर सारा ग़ुस्सा है- अपने परिवार के लिए और इस समाज के लिए भी. इसलिए मुझे समाज का और परिवार का कोई भी वह नियम मान्य नहीं है, जो मुझे घेरता-बाँधता."( खंड - बारह

वह स्वतंत्र जीवन और प्रेम की आकांक्षी है, वह प्रेम में बाधा को नहीं मानना चाहती है. वहीँ जू दे अशरीरी प्रेम को मानती है, और जैसे ही वह अमरेश के बारे में जान जाती है कि अमरेश की शादी हो चुकी है, उससे अलग हो जाती है.
        
एकनिष्ठ प्रेम में और परिवार में यह होता है कि बच्चे अपना जीवन तनाव मुक्त जीते हैं, लेकिन यदि प्रेम एकनिष्ठ नहीं रहा और माता-पिता अलग हो जाएं तो बच्चों को दोनों का प्रेम नहीं मिल पाता है, इस उपन्यास में अंकु इसका उदहारण है. प्लेटो ने तो स्त्रियों के साम्यवाद में यहाँ तक कहा है कि बच्चे किसके हैं यह बच्चों को पता नहीं होना चाहिए, राज्य में बच्चों के पालन के अलग केंद्र होने चाहिए, लेकिन 'हमन हैं इश्क़ मस्ताना' का नायक अपने परिवार को बचाना चाहता है, पर अनुजा नहीं चाहती कि वह कहीं और प्रेम खोजे.
        
मंजरी अपनी इच्छा और पूरी जानकारी के साथ अमरेश से प्रेम करती है, अंतरंग होती, सहवास करती है, दूरी के कारण अमरेश उससे बार-बार मिल नहीं पाता है, वह यह मानती है कि जिस शरीर को मेरे प्रियतम अमरेश ने स्पर्श किया है, उसे और कोई नहीं छू सकता है, उसे नायक कहता है कि वह किसी से जहाँ उसके माता-पिता कहें, उससे शादी कर ले, पर वह नायक की बात नहीं मानती है. वह जो करती है, हमें अंदर तक हिलाकर रख देता है. एक जगह कथाकार लिखता है - मंजरी और अमरेश का संवाद है, यथा

"नहीं, अब तुम्हें सचमुच परेशान नहीं करूँगी. तुम्हारा एक घर है. मैं ज़बरदस्ती घुस आई वहाँ. तुम्हारा कोई क़सूर नहीं. सारी ग़लती मेरी है. दरअसल, मुझे सोचना चाहिए था कि तुम किसी और से प्यार कर ही नहीं सकते. तुम एक पुरुष हो जो अपनी देह तो किसी को भी दे सकता है, लेकिन अपना मन वह किसी को नहीं दे सकता. वह वहीं है- तुम्हारे पहले प्यार के पास. तुम दीदी को बहुत प्यार करते हो. इस बात को स्वीकार क्यों नहीं करते?”

“देखो, मैं देह के लिए तुम्हारे पास नहीं गया था. यह तुम भी जानती हो.”

“हाँ, तुम लेकिन अच्छे हो. मुझे तुम्हारे ऊपर कभी क्रोध नहीं आता. पता नहीं क्यों पर शायद इसलिए ही मैं तुम्हें अपना सब कुछ दे सकी. वह सब जो किसी और को नहीं दे सकती. न पहले दिया था और न अब.” 
(खंड - चौदह)
      
एकनिष्ट प्रेम तो ठीक है, लेकिन जो लोग किन्हीं कारणों से एकनिष्ठ नहीं रहना चाहते, उनका क्या हो? क्या उन्हें बहुनिष्ठ प्रेम करने की आजादी मिलनी चाहिए? क्या प्रेम को बांधकर रखा जा सकता है? आदमी को परिवार की जरूरत है, परिवार का टूटना मनुष्य को पागल कर देता है, इसमें एक पात्र ऐसा भी है, जिसकी पत्नी किसी दूसरे से प्यार करती थी तो उसने उसकी हत्या कर दी है, और अब पागल है, जिसके साथ अमरेश बीड़ी पिता है, तो क्या अनुजा को अमरेश की हत्या कर देनी चाहिए, क्योंकि वह किसी और लड़की से प्रेम करता है? प्रेम के टूटने का अगला पड़ाव है पागलपन, या एक नए प्रेम की तलाश. इन प्रश्नों से भी जूझता है यह उपन्यास. लेकिन जो सबसे बड़ा प्रश्न है, वह यह है कि - यथा


"यह कैसा संस्कार था? यह कैसा नियम था जिसने उसे बाँध दिया था? कब ख़त्म होंगे ये नियम? कब हम इस शरीर की पवित्रता और शरीर की एकनिष्ठता से ऊपर उठ पाएँगे? आख़िर हम मिट्टी हैं- ख़ून और माँस हैं हम. तो फिर यह मोह क्यों? इस तरह के संस्कार क्यों?" (खंड - सोलह)
        
वास्तव में यह प्रश्न बहुत लाजमी है कि यदि हमने किसी एक से प्रेम कर लिया. तो दूसरे से प्रेम करने के लिए स्त्री या पुरुष का शरीर अपवित्र हो गया. क्या शरीर भी अपिवत्र होता है? क्या कुल्हड़ की भांति एक बार चाय पीकर के शरीर को भी नष्ट कर देना चाहिए? फिर प्रेम का क्या होगा, जो बार-बार जीता है, और मरता है, फिर उत्पन्न हो जाता है. प्रेम की स्वतंत्रता में ही जीवन की स्वतंत्रता है, और जीवन स्वतंत्र है तो सबकुछ स्वतंत्र है, प्रेम की मुक्ति की मांग ही इस उपन्यास का मूल लक्ष्य है, यही कारण है कि यह एक महा-आख्यान है, यह महा-आख्यान इसलिए भी है कि चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, किसी दूसरे से प्रेम करने से अपवित्र नहीं हो जाता है, शरीर मिट्टी का बना है, और अपनेपन में वह हर रूप में पवित्र है.
       
प्रेम की स्वतंत्रता परिवार से मुक्ति नहीं है, यदि स्त्री या पुरुष किसी और से प्रेम करते हैं तो भी साथ-साथ रह सकते हैं. परिवार को बचाना भी उनकी जिम्मेदारी है, जिसका प्रयास इस उपन्यास का नायक करता है, पर सफल नहीं हो पाता है.
       

भाषा, कला, प्रभाव, रस, मार्मिक स्थलों की पहचान इन सभी की  व्यापकता और  और गहराई हमें इस उपन्यास में मिलती है. यही कारण यह उपन्यास केवल अमरेश और उसके जीवन की दास्तां न होकर, अनुजा, शिवांगी, काजू दे, मंजरी की दास्तां न होकर हम सब की दास्ताँ हो जाती है, इस उपन्यास के बारे में मैं यह पढ़ता आ रहा हूँ कि यह सोशल मीडिया से प्राप्त प्रेम पर केंद्रित है, पर यह उपन्यास उससे कहीं बहुत ज्यादा फलक लिए है, पहले जब सोशल मीडिया नहीं था तब भी प्रेम होता था, एक ही स्त्री-पुरुषों का अनेक से एक बेहतरीन उपन्यास के लिए लेखक विमलेश त्रिपाठी  को हार्दिक बधाई.
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dr.vinod.vishwakarma@gmail.com
09424733246 

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  1. प्रेम होना और करना भी पड़ता है।कारण जिम्मेदारी है संतति और समाज का।प्रेम होना उसकी स्वतंत्रता है जो जीवन की जरुरत है, लेकिन समाज के लिए करना प्रेम की जिम्मेदारी सौंपी गई है।होना प्रकृति जरूरत है तो करना सामाजिक।द्वंद्व तो होगा ही जब दोनों को साथ जीना चाहते हैं।या तो होने से करनेवाला बनिए या फिर करनेवाले से मुक्ति चाहिए तो पागल, हत्यारा या संयासियों के साथ फकीरी का आनंद लीजिए।कहीं न कहीं तालमेल बैठाने के रास्ते तलाशने ही होंगे।
    अच्छी समीक्षा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

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  2. जीवन कैसे जिया जाया ये हमे प्रेम ही सिखाता है। विचारधारा,सौंदर्य,या रूपवादी नजरिया ही हमे किसी की ओर आकर्षित करता है।प्रेमी प्रेमिका के मन मे यह अनवरत सवाल घूमते रहते है,एक दूसरे को जानने,के समझने के,और यही जिघ्यसा बराबर दोनों को जोड़े रहती है।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-09-2018) को "योगिराज का जन्मदिन" (चर्चा अंक- 3083) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    श्री कृष्ण जन्मोत्सव की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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