भारतरत्न भार्गव का दूसरा कविता संग्रह ‘घिसी चप्पल की कील’ संभावना प्रकाशन से इसी वर्ष (२०१८) प्रकाशित हुआ है. उनका पहला संग्रह 'दृश्यों की धार' १९८६ में प्रकाशित हुआ था.
नए संग्रह को परख रहे हैं आलोचक ज्योतिष जोशी
धार से कील तक
ज्योतिष जोशी
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समकालीन हिन्दी कविता में भारतरत्न भार्गव अपरिचित कवि नहीं
हैं क्योंकि कवि के रूप में उनकी सक्रियता भले ही कम रही हो लेकिन अपनी
काव्य-वस्तु, शिल्प और समय को
देखने की उनकी अपनी युक्ति उन्हें एक ऐसे कवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है
जिसमें कविता को जीने की और उसकी यातना को सह पाने की क्षमता है. श्री भार्गव का
पहला कविता संग्रह ‘दृश्यों की धार’
1986 में प्रकाशित हुआ था
जिसमें 30 कविताएँ संकलित थीं. इस
संग्रह में 1955 से लेकर 1986 तक की कविताएँ शामिल थीं. संग्रह में शामिल
कविताओं को देखें तो आश्चर्य होता है कि कवि में अपने समय को लेकर कितनी संजीदगी
है और व्यवस्था के प्रति कितना गहरा असंतोष से भरा क्षोभ है. यह सचमुच विचारणीय है
कि इतने बड़े फलक के कवि ने कविता-सृजन को वर्षों तक स्थगित क्यों रखा?
श्री भार्गव ने बाद के दिनों में भी कविताएँ लिखनीं जारी
रखीं लेकिन उन्हें प्रकाशित कराना या संग्रह के रूप में लाना कतिपय कारणों से संभव
न हुआ. यह देख-जान कर किंचित दुःख होता है कि अगर श्री भार्गव की प्राथमिकताएँ न
बदलीं होतीं और वे लगातार लिखते रहते तो हिन्दी कविता में उनकी विशेष जगह होती.
बहरहाल, यह सुखद है कि उन्होंने
कविताओं पर पिछले कुछ वर्षों से पुनः ध्यान देना आरंभ किया है और ऐसी कविताएँ दी
हैं जो अपनी निर्मिति में विशेष हैं. इस वर्ष उनका दूसरा संग्रह ‘घिसी चप्पल की
कील’ प्रकाशित हुआ है. दोनों संग्रहों पर यहाँ विचार किया गया है.
‘दृश्यों की धार’ शीर्षक अपने पहले संग्रह की कविताओं में श्री भार्गव नई
कविता के साथ दूसरे काव्यान्दोलनों में भी सक्रिय दिखते हैं और कविता को एक ऐसी
अन्तर्लय में उठाते हैं जिसमें तत्कालीन समय दृश्य हो जाता है. इन कविताओं का
मुहावरा जीवन-व्यवहार के निकट है और इनमें व्यक्त आक्रोश अपने समय के स्वप्न-भंग
से जुड़ा है जिसकी शुरुआत ‘दर्द : एक
व्याख्या’ में दिखती है-
‘अनजाना, अपरिचित दर्द
अनदेखा, अनछुआ दर्द
मीत तुम्हें पता क्या
कैसा है?
कहो तो बताऊँ?
लो सुनो-
दर्द एक नीम की निम्बोली सा
कच्चा तो कड़वा है,
पकने पर मीठा है,
गुणकारी है.’
1955 में लिखी यह कविता जितनी व्यष्टि की है,
उतनी ही समष्टि की भी. सिफत यह है कि यह दर्द न
तो अनजाना है और न ही अपरिचित. यह कवि की अभिव्यक्ति का ढंग है जिसमें हम देख पाते
हैं कि दर्द कच्चा रहने पर कड़वा हो जाता है और पकने पर मीठा! क्या यह उस उम्मीद या
सपने की पीड़ा नहीं है जिसकी प्रतीक्षा में इस देश की जवान नस्लों ने आँखें खोली
थीं? 1959 में लिखी कविता ‘भवितव्य’ इस दर्द की जैसे कुंजी बनकर आती है-
‘गहराने लगी है रात!
पश्चिमीय रक्तकुंड में
बलित सूर्य की
छितराई हुई आँत!!
हाय,
अब कैसे होगा प्रात.
रात गहराने लगी है और सूर्य की आँत भी पश्चिमीय रक्तकुंड में छितराने लगी है. यह
चिन्ता वाजिब है कि ऐसे में सुबह किस तरह हो सकेगी.
श्री भार्गव की कविताओं में निजता और सार्वजनिकता के बीच
कोई फाँक नहीं है. निज का जीवन जैसे समष्टि में समाहित है, और इसी तरह निजता का संघर्ष सामाजिक संघर्ष में शामिल हो
जाता है. इन कविताओं में आक्रोश का स्वर है तो गहरी निराशा का भाव भी; लेकिन इनकी अच्छाई यह है कि यह निराशा नये
संकल्प के साथ तनकर खड़े होने को तैयार करती है, खामोशी से बैठने नहीं देती. इन कविताओं में ‘पश्चाताप होता है’ शीर्षक कविता अपनी निर्मिति में श्री भार्गव के पहले चरण भी
कविताओं में श्रेष्ठ कविता बनकर आती है जिसका स्वर राजनीतिक है और स्वप्नभंग से
उपजी वेदना, क्षोभ का रूप
धारण कर सामने आती है.
इसे हिन्दी की समकालीन कविता का निर्बल पक्ष ही कहेंगे कि
भारतरत्न भार्गव जैसे अनेक कवि कविता-सृजन की निरंतरता से दूर हुए और यथार्थवादी
कविता की जो बुनियाद मुक्तिबोध ने डाली थी, उसकी परम्परा में गति नहीं आ पाई. कविता कैसे हमारे जीवन और
जगत को तय करती है, कैसे वह हमारे
अन्तर की पुकार बनती है, कैसे वह हमारी
करुणा, चीख, प्रतिकार और क्षोभ का प्रतिरूप भी है; इसे देखना हो तो श्री भार्गव की कविताएँ उदाहरण
बन सकती हैं; क्योंकि इनमें
अपनी ही यात्रा है, अपने अन्तर की
यात्रा; जिसमें बाहर का सत्य अपनी
विभीषिकाओं के साथ प्रकट होता है और हमें भयाक्रांत करता है.
श्री भार्गव के दूसरे संग्रह की कविताएँ अपने स्वभाव में
पहले चरण की कविताओं से किंचित भिन्न हैं. इनमें क्षोभ और आक्रोश का पहले जैसा भाव
नहीं है और न ही फैन्टेसी के ताने-बाने में यथार्थ को भेदने की आक्रामकता; पर कविता को बरतने और जीने की वही लय यहाँ भी
दिखती है जिसके लिए श्री भार्गव की पहचान है. इस चरण की कविताओं में बदले हुए दौर
का बारीक पर्यवेक्षण है और अपनी भूमिका की पहचान करती दृष्टि भी. यही कारण है कि
इनमें संयत भाषा, सुगठित शिल्प और
बिम्बों की अर्थगर्भी युक्ति हैरत में डालती है. इनमें जीवन-व्यवहार और स्मृतियों
में लौटकर झाँकने का प्रयत्न तो है ही, नाउम्मीदी को नियति मान लेने की कातर विवशता भी है-
‘सिरहाने उगी झाड़ी से निकलकर
एक काली चिड़िया
सदियों पुराने
बरगद पर जा बैठी कुछ पल,
फिर वीरानों
खंडहरों को लांघती
सुलगती आकृतियों
को विचारती
शून्य की
हथेलियों से चिपक गई !
शून्य से चिपकी
उस काली चिड़िया
का नाम है
अपेक्षा !’ (अपेक्षा, - ‘घिसी चप्पल
की कील’)
इन कविताओं में ‘कथात्मकता’ के साथ
दार्शनिकता भी जुड़ी दिखाई देती है जिसमें कवि प्रश्नाकुल होता है और ‘जीवन’ को तांडव तथा ‘मृत्यु’ को क्रीड़ा कहता है. जीवन में मृत्यु को देखने की कोशिश पहले
से ही चली आ रही है, पर ‘धुआँ-धुआँ करते जीवन में शिखर तक पहुँचने की ‘निष्काम चेष्टा’ को आँकने की युक्ति यहाँ नई है. ‘प्रपात’ कविता की इन पंक्तियों को देखें-
‘असंख्य जल-बिन्दु
जीवन को धुआँ-धुआँ करते
हाथ उठा कर सूर्य को पुकारते
शिखर तक पहुँचने की निष्काम चेष्टा
विस्फरित नेत्रों से देखती हरीतिमा
जीवन तांडव
मृत्यु क्रीड़ा.’
हाँ जलबिन्दु जीवन का प्रतीक है जो भाप बनकर उड़ जाता है.
कवि उस भाप में शिखर तक पहुँचने की निष्काम चेष्टा देखता है. प्रश्न है कि उसकी
सार्थकता क्या है? उसका शिखर तक
पहुँचना कैसे सिद्ध हो सकता है? प्रश्न अनुत्तरित
है, ठीक उसी तरह जैसे जीवन का
मृत्यु में परिवर्तित होना अनुत्तरित है. जीवन में मृत्यु को देखने का यह विरल
प्रयत्न है.
इसी तरह के, बल्कि इससे कुछ
सघन भाव को व्यक्त करती कविता ‘अमर्त्य सुख’ भी है जिसमें एक
पत्ते के प्रतीक से कवि ने ‘मृत्यु’ पर जीवन की विजय को देखा है. कवि का अपना
निष्कर्ष है कि ‘मृत्यु’ जीवन को सौंपती है. जीवन एक देह से निकलकर अनेक
देहों, वनस्पतियों और दिशाओं में
फैल जाता है. मरना समाप्त होना नहीं होता क्योंकि संसार को चलते रहना होता है-
‘पीले शिथिल पत्ते ने देखा
शाख को
टूटते टूटकर धूल में मिलते
सुबकते कराहते
ढलते दिनकर की थपकियों से
खामोश होती सिसकियाँ
ध्यानस्थ सौंपने लगा पत्ता
अपनी त्वचा अस्थियाँ और विचार
दिशा-दिशा समृद्ध होती हवाएँ
गुनगुनातीं पत्ते के गीत
तालियाँ बजाते किसलय
देह से विदेह होते जाने का अनुभव
अमर्त्य सुख देता
अतीव आनन्द निरानंद होता है पत्ते का.’
पीले शिथिल पत्ते का प्रकृति के संचरण में अपने जीवन का
त्याग करना वस्तुतः मृत्यु में जीवन को पुनः पाना है और मृत्यु पर विजय भी.
अपने उत्तरार्द्ध की कविताओं में श्री भार्गव कविता को
अन्तर-संवाद की तरह बरतते हैं और उसमें अपनी यात्रा के गुजरे पड़ावों को भी देखते
हैं. ‘अपने होने या न होने के
बारे में आकाश पर इबारत लिखते’ श्री भार्गव ‘शोर के समन्दर में खामोशी तलाशते पत्थर’
भी बनते हैं तो ‘मोहभंग’ कविता में अपनी
ही जिजीविषा से प्रश्न करते हैं. इन कविताओं में बेपनाह पसरे दुःख में सुख के दौर
को देखने-पाने की विकलता है तो ‘आत्मदाह’ को उत्सव बनाकर प्रस्तुत करती परंपरा पर क्षोभ
भी है-‘जीवन का विकल्प मृत्यु तो
है पर मृत्यु का कोई विकल्प नहीं’ कहता हुआ कवि
षड्यंत्रकारी समय को प्रतिपक्ष करार देता चित्कार भी करता है. यह कविता बहिर्लोक
से मनोलोक तक को भेदकर ऐसे प्रश्नों पर टिक जाती है जहाँ ठहरने पर विस्मय होता है.
मृत्यु के पूर्व कोई व्यक्ति यदि शिशू सूक्त पढ़ना चाहे और
वह वांछित ‘नवांकुर’ एक नया व्याकरण रचते हुए समूची सृष्टि को अपने
मस्तिष्क में संजोए तो यह कामना स्वाभाविक भी है तो विरल भी. कविता में ऐसी ही
मानवीय जिज्ञासाओं को रखते श्री भार्गव कविता को आज की आपाधापी और शोर से निकालते
हैं. यहाँ एक मानवीय राग की गहन उत्कटता है जो हर तरह की मलिनता को दूर कर मनुष्य
को निर्मल करना चाहती है. कवि में इस दुनिया के नई होने की कामना है, लगता है जैसे यह दुनिया रहने लायक तभी बन सकेगी
जब नई दुनिया का दरवाजा खटखटाया जा सके. कवि घिसते हुए जूते के बिम्ब से देखिये
क्या कहना चाहता है-
‘एक नई दुनिया की चौखट तक
पुराने जूते देते हैं नए पाँव बार-बार
हर बार पाँव हो जाते हैं हरे-भरे
हाथ और सिर कभी-कभी
घिसते हुए जूते समूची सृष्टि का लगाते चक्कर
रक्षा करते पाँवों की
ताकि एक नई दुनिया का दरवाजा खटखटा सकूँ
अभी या फिर कभी.’
यह एक प्रतिबद्ध कवि की निराशा नहीं, उम्मीद और भविष्य की सुखद कामना है. कविता यहाँ संवाद करती
है, प्रश्न भी करती है और
अन्तर्पुकार बनकर संदेश बन जाती है. आगत और विगत की जड़ताओं से विरत होकर कवि यहाँ
नई यात्रा चाहता है. घिसे हुए जूते पारंपरिक रुढ़ियों की तरह मनुष्यता को कष्ट भी
देते हैं तो संज्ञान भी और एक संकल्प भी कि हममें नूतनता की चाह जगे, हम नए रास्ते खोल सकें और थके-हारे होने के
बावजूद हार न मानें.
इस तरह हम देखते हैं कि श्री भारतरत्न भार्गव की कविताएँ
परिणाम में चाहे कम हों, पर अपनी संवेदना
और गहरे मर्मों के कारण खास जगह बनाती हैं. श्री भार्गव की कविता-यात्रा के छह दशक
यानी साठ वर्ष पूरे हुए हैं. इस दीर्घ-यात्रा में उनकी कविताएँ अनेक
काव्यान्दोलनों की साक्षी रही हैं जिनकी छाप उनमें सहजता से देखी जा सकती है. चाहे
वह नई कविता का आन्दोलन हो या प्रयोगवाद का या अकविता या समानांतर कविता का.
ध्यान देने की बात यह है कि इन काव्यान्दोलनों से गुजरते
हुए भी श्री भार्गव की कविताएँ (विशेषकर पहले चरण की) नई कविता के निकट हैं और
उनकी पूरी संरचना यथार्थवादी है. उस दौर की कविताएँ अपनी निर्मिति में कविता के
फलक को विस्तार देने के अलावा जिन नये मानकों को तैयार करती हैं, उनका बहुत महत्व है. चाहे वह यथार्थ को भेदने
की मर्मस्पर्शी दृष्टि हो, चाहे फैन्टेसी
में तद्युगीन व्यवस्था को बपर्द करती समझ हो-कवि की सृजनात्मकता मन पर उतरती है.
इनमें बिम्बों का प्रयोग और अपने समय की विडंबनाओं को उजागर करने की युक्ति बहुत
प्रभावित करती है.
दूसरे संग्रह की कविताओं में आक्रोश और क्षोभ का स्वर मंद है.
फैन्टेसी का वह प्रयोग भी शिथिल हुआ है तो व्यवस्था के विरुद्ध स्वर में भी नरमी
आई है, पर यह परिवर्तन श्री
भार्गव के काव्य-विकास में दिखता है; इसे उनके हृस के रूप में नहीं देखा जा सकता. बाद की कविताओं में शिल्प के रचाव
और संवेदनात्मक अनुभूतियों में जो परिवर्तन दिखता है, वह कवि की बदली मनोवृत्ति का परिचायक है. जीवन के अनुभव में
गुजरे दशक टीस बनकर उभरते हैं. कविता में जीवन-जगत के प्रश्न दार्शनिकता के विमर्श
बनते जाते हैं और अपने जीवन की इयत्ता पर चिन्तन करता कवि बार-बार अपने में लौटता
है. यह अकारण नहीं है कि जीवन और मृत्यु पर लिखी गई कविताएँ इस चरण में अधिक दिखाई
देती हैं. एक वरिष्ठ कवि के नाते, अपने लम्बे
जीवन-काल के संघर्षां में खुद को खपाकर हासिल की गई सीख कविता में इस तरह उतरती है
गोया हम एक प्रार्थना में शामिल हैं कि सब शुभ हो, ठीक हो, अनुकूल हो.
इस पूरी काव्य-यात्रा में नाट्यात्मक लाघव कविताओं को जो
दृश्यता देता है और जिस व्यूह से हम गुजरते हैं, उसका उदाहरण अन्यत्र खोजना मुश्किल है. ‘निश्चल होती लहरों पर डूबते सूरज का अवसाद’
महसूस करता कवि ‘वेदना की धड़कन पर घात-प्रत्याघात’ सहता कवि ‘तड़कती नसें
सहलाते हुए बार-बार स्पंदित अनुभव करने का तोष’ पाता है. कवि की पूरी काव्य-यात्रा एक बड़े संघर्ष का रूपक
है जिमसें गहरे जीवन मर्म से भरी वह दृष्टि है जो हमें जिए जाने को प्रेरित करती
है-कदाचित् ‘देह से विदेह
होते जाने का अनुभव’ ही इस
काव्य-यात्रा का आशय है.
सम्पर्क :
डी-4/37, सनसिटी अपार्टमेन्ट,
सेक्टर-15, रोहिणी,दिल्ली-110089
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (01-09-2018) को "आंखों में ख्वाब" (चर्चा अंक-3081) पर भी होगी।
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भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेई जी को नमन और श्रद्धांजलि।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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