मेघ -दूत : महमूद दरवेश की डायरी : यादवेन्द्र



































निर्वासन और प्रतिरोध के कवि महमूद दरवेश (१३, मार्च १९४१ , अगस्त २००८) को फिलस्तीन के राष्ट्रीय कवि के रूप में भी जाना जाता है. ३० कविता संग्रह और ८ गद्य पुस्तकों के लेखक दरवेश कई साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे.

A River Dies of Thirst उनका अंतिम (डायरी) संकलन है जो उनकी मृत्यु से आठ महीने पहले प्रकाशित हुआ था. अरबी से अंग्रेजी में इसका अनुवाद Catherine Cobham का है.  इसके कुछ अंशों का हिंदी में अनुवाद यादवेंद्र ने आपके लिए किया है.

दरवेश की मृत्यु के दस वर्ष हो गए हैं और दुनिया वैसी ही है, और डरावनी हुई है.



महमूद   दरवेश  को याद करते हुए                         
यादवेन्द्र 





काश हमारे बच्चे पेड़ होते

पेड़ पेड़ की बहन होती है, या फिर अच्छी भली पडोसी. बड़े पेड़ छोटों का बहुत ख्याल रखते हैं, जब जरूरत होती है उन्हें छाया देते हैं. लंबे पेड़ ठिगने पेड़ों के प्रति दयालु होते हैं, रात के समय अपने पास से परिंदों को उन पर भेज देते हैं जिस से वे अकेला न महसूस करें. कोई पेड़ कितना भी बड़ा और बलशाली हो छोटे पेड़ों के फल नहीं छीनता.

यदि कोई बाँझ रह जाए तो दूसरा बाल बच्चों वाला पेड़ उसका उपहास नहीं करता. कोई पेड़ दूसरे पर आक्रमण नहीं करता और न ही लकड़हारे जैसा बर्ताव करता है. जब एक पेड़ को काट कर नाव बना दिया जाता है तो वह पानी पर तैरना सीख लेता है. जब उससे  दरवाजा तराश दिया जाता है तो वह सीख लेता है कैसे बरतनी है अंदर की गोपनीयता. जब पेड़ से कुर्सी बना दी जाती है वह फिर भी नहीं भूलता कि उसके सिर पर पहले आकाश हुआ करता था. जब उसे काट कर टेबल बना दिया जाता है तो वह बैठ कर लिखने पढ़ने वाले कवियों को सिखाता है कि कभी भी कठफोड़वा नहीं बनना. पेड़ में क्षमाभाव और चौकन्नापन होता है.

वह न तो कभी सोता है न सपने देखता है बल्कि सपने देखने वालों के राज अपने आगोश में छुपा कर सुरक्षित रखता है. दिन भी रात भी, वहाँ से गुजरने वालों का सम्मान करते हुए और जन्नत की हिफाजत करते हुए. पेड़ और कुछ नहीं एक जीती जागती दुआ है  जिसके हाथ आसमान में ऊपर उठे हुए हैं. आंधियों में जब हवा इसको  धक्का देती है तो यह बड़ी अदा से हौले से झुक जाता है जैसे झुकी होती है हरदम ऊपर ताकती हुई कोई नन. कवि पहले कह चुका है : "काश हमारे बच्चे पत्थर होते.

दरअसल उसको कहना चाहिए था : "काश हमारे बच्चे पेड़ होते."
      



मुझे डर लग रहा है

वह डरा हुआ था, जोर से सुना  कर बोला: "मुझे डर लग रहा है." खिड़कियों के दरवाजे कस कर बंद किये हुए थे सो उसकी आवाज़ गूँजती हुई चारों ओर फ़ैल गयी : "मुझे डर लग रहा है." 

उसके बाद  वह खामोश था पर दीवारें दुहरा रही थीं : "मुझे डर लग रहा है." दरवाजेकुर्सियाँ, टेबलपरदे, कम्बल, मोमबत्तियाँ, कलम और फ्रेम में जड़ी तस्वीरें सब कहने लगीं : "मुझे डर लग रहा है." 

डर डरा हुआ था, जोर से बोला : "अब बस भी करो, बहुत हो गया." पर प्रतिध्वनि ने नहीं कहा: "अब बस भी करो,बहुत हो गया." 

उस घर में रहने में उसको डर लगने लगा था सो दरवाजा खोल कर वह बाहर सड़क पर निकल आया. बाहर उसकी नजर एक क्षत  विक्षत पॉप्लर के पेड़ पर चली गयी और उसको देख कर वह और घबरा गया ... जाने क्यों?

तभी वहाँ से दनदनाती हुई एक फौजी गाडी निकल गयी, वह उसको देख कर इतना डर गया कि सड़क उसको असुरक्षित लगने लगी. पर घर के अंदर जाने से भी वह डर रहा था ... 


अब करे क्या, उसे  कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. उसे ध्यान आया बदहवासी में वह अपनी चाभी घर के अंदर ही छोड़ आया ...पर जब जेब टटोलते हुए उसको चाभी मिल गयी तो थोड़ी तसल्ली हुई. उसे लगा बिजली काट दी गयी है  सो उसका डर अंधेरे  की तरह और घना हो गया.... पर जब सीढ़ियों के पास आकर स्विच दबाने पर बत्ती जल गयी तो उसके जान में जान आयी. 


उसके मन में शुबहा  हुआ कि  सीहियाँ चढ़ते हुए फिसलने पर उसकी टाँग टूट सकती है पर जब ऐसा कुछ नहीं हुआ तो मन बेहतर और मजबूत हुआ. दरवाजे में लगे ताले में चाभी लगते हुए उसका मन बार-बार कह रहा था यह चाभी लगेगी  नहीं पर चाभी घुमाने पर दरवाजा खुल गया - उसको गहरी तसल्ली मिली. 


अंदर घुसते ही डर कर वह धप से कुर्सी पर बैठ गया. जब उसे यह भरोसा हो गया कि अपने घर के  अंदर घुसने वाला शख्स कोई और नहीं बल्कि वह स्वयं था तब वह आईने के सामने खड़ा होकर उसमें दिखती शक्ल को निहारने लगा - जब अपना चेहरा पहचान कर उसको सौ फीसदी तसल्ली हो गयी  तो उसने चैन की साँस ली. उसे  घर के अंदर पसरी हुई ख़ामोशी साफ़ साफ सुनाई दे रही थीइसके सिवा कुछ और नहीं - यह भी नहीं  : "मुझे डर लग रहा है."

वह आश्वस्त हुआ. अब उसको डर लगना किस कारण बंद हो गया था, मालूम नहीं.




भूलने की जद्दोजहद करते हुए

अंधेरा, मैं बिस्तर से यह सोचते सोचते गिर पड़ा कि कहाँ हूँ मैं ? मैं टटोल कर अपनी देह को महसूस करने की कोशिश कर रहा था और मालूम हुआ मेरी  देह भी मुझे तलाश कर रही है. मैं नजरें दौड़ा कर बिजली का स्विच ढूँढ़ रहा था कि देख सकूँ क्या हो रहा है पर स्विच कहीं दिखा नहीं. बदहवासी में मैं कुर्सी से टकरा गया या कुर्सी मुझसे टकरा गयी सही सही नहीं मालूम हो पाया. जैसे कोई अंधा  व्यक्ति अपनी उँगलियों से छू कर महसूस करता है मैं भी दीवार को टटोल कर देख रहा था कि कपड़ों की आलमारी से जा टकराया. मैंने अलमारी खोली, उँगलियाँ वहाँ रखे कपड़ों से छू गयीं - मैंने कपडे उठा कर नाक से लगाए, उनमें  मेरे शरीर की गंध थी. मुझे तसल्ली हुई मैं सही और अपनी जगह पर ही हूँ पर वहाँ से अलग जहाँ पहुंचना चाहता था. मैं चारों ओर बिजली का स्विच ढूँढ़ रहा था जिस से पता चले कहाँ हूँ .... तभी मुझे स्विच दिखाई पड़ गया.


मैं अपनी चीजों को पहचान गया था : अपना बिस्तर, किताबें, सूटकेस और पाजामा पहने इंसान जो कमोबेश मैं ही था. खिड़की का दरवाजा खोला तो गली में कुत्तों का भौंकना सुनाई दे रहा था. मैं समझ नहीं पाया कब कमरे में लौटा, यह भी नहीं याद आया कि  थोड़ी देर पहले मैं पुल पर खड़ा था. मुझे लगा यह सच नहीं है और मैं बस सपना देख रहा हूँ ..... 

चुल्लू में ठंडा पानी ले मैंने अपना चेहरा धोया जिससे यह तसल्ली कर सकूँ कि सपना नहीं देख रहा बल्कि पूरी तरह जगा हुआ हूँ. किचन में जाकर देखा तो ताज़े फल और बिन धुले बर्तन बासन दिखाई दिए - यह इस बात का सबूत था कि शाम को मैंने यहाँ बैठ कर खाना खाया था. पर यह कब की बात है?

मैंने अपना पासपोर्ट उलट पलट कर देखा - उसी दिन तो वहाँ पहुँचा था. आने के बाद कहीं गया हूँ यह याद नहीं आया - क्या मेरी स्मृति में कोई दरार  बन गई  है? क्या मेरा शरीरी अस्तित्व मानसिक भावों से छिटक कर अलग हो गया है - दोनों के बीच कोई दरार ? 


मेरे मन में डर समा गया और देर रात हो जाने की परवाह न करते हुए मैंने अपने एक दोस्त को फोन किया: 

"मेरी स्मृति के साथ कहीं कुछ गड़बड़ हो गयी है दोस्त, समझ नहीं पा रहा हूँ मैं कहाँ हूँ?

"और कहाँ, तुम रमल्ला में हो."
"पर मैं यहाँ कब आया ?"
"अरे आज ही ... याद  नहीं, हम दोनों वाटचे गार्डन में साथ ही तो थे."
"पर यह बात मुझे क्यों याद नहीं आ रही? तुम्हें क्या लगता है मेरी तबियत ठीक नहीं है?"
"यह ऐसी कोई बीमारी नहीं है दोस्त, बस तुम  भूलने की जद्दोजहद कर रहे हो. और कुछ नहीं."






मातृभूमि

वास्तविक मातृभूमि न तो साबित की जा सकती है न दिखलाई जा सकती है, मेरे लिए मातृभूमि का मतलब यह जानना है कि बारिश की बूँदों के गिरने पर यहाँ की चट्टानों से किस तरह की महक उठती है !

यहाँ मैं न तो एक नागरिक हूँ
न तो अस्थायी तौर पर रह रहा निवासी 
तो फिर मैं क्या हूँ
और कहाँ हूँ ?

ताज्जुब होता है कि सारे नियम कानून उनके हक में खड़े हैं और ऐसे में आपको साबित करना होता है कि आपका वजूद है. 

आपको गृह मंत्री से पूछना पड़ता है : क्या मैं यहाँ मौजूद हूँ .... या कि अनुपस्थित ?
आप किसी दर्शनशास्त्री का जुगाड़ करो जिसके सामने मैं अपना अस्तित्व साबित कर सकूँ.

कौन हो तुम ?
आप देह के सभी अंग प्रत्यंग छू कर देखते हो  
फिर तसल्ली होने पर कहते हो : मैं यहाँ उपस्थित तो हूँ !
पर तुम्हारे होने का सबूत कहाँ है ?..... वे सवाल करते हैं
आप कहते हैं - यहाँ हूँ तो !
यह पर्याप्त नहीं है ... हम कोई कमी ढूँढ़ रहे हैं, उन्होंने कहा
मैं सम्पूर्ण भी हूँ और कम भी - दोनों हूँ एकसाथ .....


आपको बार बार लगता है कि आप यहाँ के नागरिक नहीं हो, और आपका अतीत उन सपनों की तरह है जो किसी पुराने अखबार की चिन्दियों सा हवा में उड़ कर बिखर गया है, और तो और हर सपना दूसरे से बड़ा हादसा है. 
आप युद्ध के बाहर हो न ही जीत के जश्न में हो .... 

यहाँ तक कि हार भी आपके नाम नहीं लिखी है ... पूरी मनुष्यता के दायरे में  भी आपका नामो निशान नहीं है. सो आप इंसान की परिभाषा में नहीं बँधते.... आप दरख़्त हो जाते हो या चट्टान ...या कि कोई कुदरती सामान !

जैसा हर बार होता रहा है इस एयरपोर्ट पर भी आपको अवांछित व्यक्ति घोषित कर दिया जाता है - आपके हाथ में जो दस्तावेज़ हैं वे भूगोल के साथ नाम जोड़ कर  देखने के तर्क पर खरे नहीं उतरते : जिस देश का अस्तित्व दुनिया से खत्म हो गया उस देश का नागरिक होने का दावा करने वाला भला कैसे मौजूद हो सकता है


आप गैर मौजूद  देश के रूपक की बात करोगे तो उनका जवाब होगा : तो फिर जो देश गैर मौजूद है वह है ही नहीं. आप पासपोर्ट ऑफिसर को समझाने की कोशिश करो कि देश की गैर मौजूदगी ही तो निर्वासन होता है ... तो वह झल्ला कर झिड़क देता है : मुझे बहुतेरे काम निबटाने हैं कि तुम्हारी ही सुनता रहूँ .... अपनी बकवासबाजी अपने पास रखो और मेरी आँखों के सामने से दफ़ा हो जाओ.






यादवेन्द्र

बिहार से स्कूली और इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1980 से लगातार रुड़की के केन्द्रीय भवन अनुसन्धान संस्थान में वैज्ञानिक.

रविवार,दिनमान,जनसत्तानवभारत टाइम्स,हिन्दुस्तान,अमर उजाला,प्रभात खबर इत्यादि में विज्ञान सहित विभिन्न विषयों पर प्रचुर लेखन.

विदेशी समाजों की कविता कहानियों के अंग्रेजी से किये अनुवाद नया ज्ञानोदयहंस, कथादेश, वागर्थ, शुक्रवार, अहा जिंदगी जैसी पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं तथा ब्लॉगों में प्रकाशित.


मार्च 2017 के स्त्री साहित्य पर केन्द्रित  "कथादेश"  का अतिथि संपादन.  साहित्य के अलावा सैर सपाटा, सिनेमा और फ़ोटोग्राफ़ी  का शौक.
yapandey@gmail.com

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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (25-07-2018) को "कुछ और ही है पेट में" (चर्चा अंक-3343) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. दरअसल इन टिप्पणियों की ओर मुझे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाने वाले इस देश में एक एक कर अनेक व्यक्तियों और समाजों को धकिया कर हाशिये पर ठेल देने की सत्ता पोषित प्रवृत्ति ले गयी - दूसरे देश में शरणार्थी या निर्वासित होने की वास्तविकता धीरे धीरे इंसान आत्मसात कर लेता है पर निरन्तर बढ़ता जा रहा अपने देश में रहते हुए आंतरिक निर्वासन का जो माहौल बनाया जा रहा है वह बेहद खतरनाक है।
    महमूद दरवेश मेरे प्रिय कवि हैं और डराने वाली उनकी ये पँक्तियाँ हमें अपने अंदर झाँकने के लिए प्रेरित करेगी,ऐसी आशा है।

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  3. इस कविताओं/ डायरी टीपों की ओर कैसे आकर्षित हुए यह विवरण बड़ा रोचक है। पहले यादवेन्द्र जी ने महसूस किया कि इस देश में मुसलमानों की हालत बुरी है। दुनिया में इसकी मिसाल खोजने निकले तो इज़रायल के हाथों फिलिस्तीनियों की दुर्दशा याद आई।इसी क्रम में इस किताब से मुलाक़ात हुई। अगर मोदी का राज न होता तो यादवेन्द्र जी यह सब पढ़ने क्यों जाते?
    लिखने वाली प्रतिबद्धता के साथ पढ़ने वाली प्रतिबद्धता!
    इसके विपरीत अनुवाद की प्रस्तावना में रुथ पडेल कहती हैं, " A poet's first responsibility,however, is to poetry. No cause you write for is served well if you put it before poetry itself."
    ये मुश्किलें अनुवादक की अनावश्यक कैफ़ियत से पैदा हुई हैं। अनुवाद काफी अच्छे हैं। कविताओं को जितना अंग्रेज़ी में समझेंगे उतना ही इन हिंदी अनुवादों से भी समझ पायेंगे। अनुवाद इससे अधिक सफल क्या होगा!
    यह किताब मेरी नज़र में काव्य-संग्रह है। इस पर कोई और मत भी हो सकता है।

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  4. Tewari Shiv Kishore sir की बात से सहमत हूँ कि "अनुवाद काफी अच्छे हैं। कविताओं को जितना अंग्रेज़ी में समझेंगे उतना ही इन हिंदी अनुवादों से भी समझ पायेंगे। अनुवाद इससे अधिक सफल क्या होगा!" क्योंकि अभी कुछ दिनों पहले हिंदी अनुवादों पर आये इस संकट की ही चर्चा हो रही थी कि विश्व की अनेकों कालजयी कृतियों के ख़राब अनुवाद उनके लिए सांघातिक सिद्ध हुए हैं. पाठक सोचता है इतने बड़े लेखक ने इतनी रद्दी रचना क्यों लिखी, बिना यह जाने कि यह उस बिचौलिए की कारस्तानी है जिसे अनुवादक कहते हैं. यादवेन्द्र जी जैसे समर्थ अनुवादक की उपस्थिति विश्व साहित्य के पाठकों के लिए आश्वस्ति का विषय है.

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  5. यादवेंद्र26 जुल॰ 2018, 2:47:00 pm

    भाई साहब,आपके शब्द हाँलाकि भरमाते हैं पर मैं यह मान कर चल रहा हूँ कि आपको मेरा काम पसंद आया...अंग्रेजी अनुवाद जैसा आनंद मेरे हिंदी अनुवाद में आया - आपका आभार।हो सकता है मेरी समझ सही न भी हो।

    पर आपकी टिप्पणी के अग्र भाग पर कुछ कहना है...आपने मेरी सामग्री पर निराधार तौर पर अपने निष्कर्ष थोप दिए मुझे इसका सख़्त अफ़सोस ही नहीं एतराज भी है।जो मैंने न कहा न सोचा वह मेरे नाम पर आप बोल गए - मिसाल के तौर पर,मुसलमान की हालत बुरी सोचना और मोदी जी के आगमन के बाद मिसाल के तौर पर महमूद दरवेश को ढूंढ निकलना।

    बड़ी विनम्रता से एक शेर अर्ज करूँगा -

    मैं तो समझ रहा था सलमान का घर है

    वो कह रहे हैं मुसलमान का घर है!

    (असमय दुनिया छोड़ गए शायर नीरज कुमार का शेर)...मैं नहीं पूरी दुनिया के साहित्यप्रेमी महमूद दरवेश को विश्व कविता का बड़ा हस्ताक्षर मानते हैं और आपने दो शब्दों में उन्हें बस मुसलमान साबित कर के रख दिया।दुनिया में जब जब भी निर्वासन के साहित्यिक आधार की बात होती है एडवर्स सईद, महमूद दरवेश और नाज़िम हिकमत का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है - मैं क्या करूँ,इत्तेफ़ाक से ये क्रमशः सईद, महमूद और नाज़िम हैं।

    जहाँ तक महमूद दरवेश के हिंदी अनुवादों का ताल्लुक है मोदी जी के राष्ट्रीय पटल पर आगमन से पहले ही मैं पिछले दस बारह सालों में उनकी अनेक कविताओं और डायरी के अंशों के अनुवाद कर चुका हूँ और वे 'कथादेश' जैसी पत्रिका और 'अनुनाद' और अन्य साहित्यिक ब्लॉगों पर रिकॉर्ड के लिए उपलब्ध हैं।मेरी बात पर यकीन न हो और कहेंगे तो भेज सकता हूँ।

    भाई साहब, वास्तविकता यह है कि कुछ दिन से (व्यक्ति स्तर पर)निर्वासन(exile) और (सामूहिक स्तर पर) विस्थापन और साहित्य और सिनेमा के रिश्तों को केन्द्र में रख कर एक विस्तृत काम शुरू किया है - निर्वासन को मैं बाह्य और आंतरिक दोनों स्तरों पर देखता महसूस करता रहा हूँ - कोई अपने घर से भगा दिया जाए...या आसपास की वंचनाओं और अपमान के चलते घर छोड़ कर बाहर भाग जाने को मजबूर हो जाये - कारण न्यायोचित या अनैतिक अनुचित कुछ भी हो सकते हैं।

    और 'समालोचन' में प्रस्तुत सामग्री उस काम की पहली कड़ी है।उम्मीद है कि मेरे काम को आप मेरे नजरिये से एक बार फिर देखेंगे।

    सादर.....

    यादवेन्द्र

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