मीमांसा : मार्क्स की प्रासंगिकता और हमारा वर्तमान : अच्युतानंद मिश्र



कार्ल मार्क्स मूलतः दार्शनिक थे, जिनकी चिंता समाज को समझने के साथ उसे बदलने की थी. धर्मों के उदय, प्रभाव और प्रभुत्व के बाद  मार्क्स की सोच ही वह संगठित विचारधारा थी जिसने पूरे विश्व को गहराई से प्रभावित किया. समाज के विकास को उसकी अर्थनीति से समझने के उनके फलसफे ने मनुष्य निर्मित प्रत्येक वस्तु पर तार्किक पुर्नविचार की जरूरत पैदा कर दी थी. श्रमिकों के जीवन में बदलाव के उनके उद्देश्य ने पूंजी और श्रम के शोषणमूलक रिश्ते को हमेशा के लिए बदल दिया.   
आज मार्क्स होते तो २०० वर्ष के होते. वह तो नहीं हैं पर उनकी विचारधारा है. पूंजीवाद अब दलाल पूंजीवाद में बदलकर हमारे सामने खड़ा है और अंधधार्मिकता तथा अंधराष्ट्रवाद के साथ मिलाकर इस धरती के अस्तित्व के लिए खतरा बन चुका है.
क्या हमारी वर्तमान चुनौतियों का सामना करने के लिए मार्क्स के बाद के दार्शनिकों ने मार्क्सवाद का विकास इस दिशा में किया है.
साहित्य और दर्शन के गम्भीर अध्येता अच्युतानंद मिश्र ने इसी विकास प्रक्रिया को इस आलेख में परखा है.       


मार्क्स  की  प्रासंगिकता  और  हमारा  वर्तमान                           
अच्युतानंद मिश्र




र्ज़ कीजिये कि एक शख्स जिसकी उम्र तक़रीबन 200 वर्ष हो, और वह जीवित हो. उसकी आँख से इस दुनिया को देखना और समझना किस तरह का होगा? उसके अनुभव हमारे अनुभवों से कितने भिन्न होंगे? क्या वह इस दुनिया में किसी उम्मीद के साथ अपने दिन गिन रहा होगा? क्या वह बेहद उदास होगा? गुजरे हुए समय के विषय में वह किस तरह बहस करेगा? क्या वह कुछ वर्षों को, कुछ घटनाओं को अपनी स्मृति से बाहर कर देगा? क्या वह उन्नीसवीं सदी को बीसवी सदी से अलग कर बयाँ करेगा?


इन सवालों के कोई ठोस जवाब नहीं दिए जा सकते. ये सवाल एक कल्पनात्मक शख्स के अस्तित्व पर आधारित हैं. बावजूद इसके ये ठोस सवाल हैं. ये वो सवाल है जो हर समकालीन मनुष्य की चेतना से जुड़े हैं. वह मनुष्य जो इतिहास और वर्तमान को बार बार अलगाना चाहता है. वह अपने तमाम दुस्वप्नों को अतीत बना देना चाहता है. वह वर्तमान को एक साकार स्वप्न-समय में बदल देना चाहता है. लेकिन यथार्थ का बोध उसे ऐसा करने से रोकता है. आधुनिक मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि उसके अंतर्जगत पर भी उसका नियंत्रण नहीं रहा. वह स्वतंत्र होना चाहता है, लेकिन वह स्वतंत्रता के स्वाद को भूल चुका है. उसने अपनी स्मृति पर यकीन करना छोड़ दिया है. उसने अपने वर्तमान को इस कदर फैला दिया है कि वह अतीत और भविष्य को बहुत दूर महसूस करता है. लेकिन आधुनिक मनुष्य की इन विडंबनाओं को महज़ इन उत्तर-आधुनिक व्याख्याओं तक ही महदूद कर देखा जाना क्या उचित है?

दुनिया के बड़े हिस्से में मनुष्यता कई युगों को एक साथ जीने को अभिशप्त है. वास्तव में मनुष्यता का अधिकांश उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के विभाजन में नहीं जी रही है. वह उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के संक्रमण में जी रही है. ऐसी स्थिति में उत्तर-आधुनिकता क्यों? क्या वह महज़ एक धूप का चश्मा भर है या उससे सचमुच कुछ दिखाई देता है. यह सवाल इसलिए भी कि बीसवीं सदी में तमाम राजनीतिक खेमों से उत्तर-आधुनिकता को अस्वीकार किये जाने के लिए ये तर्क दिए गयें. ये तर्क गलत भी नहीं थे, लेकिन इन तर्कों के विश्लेषण का उद्देश्य बार-बार खुद को सही प्रमाणित करना भर था. अगर बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दुनिया थोड़ी अमूर्त, अबूझ और वायवीय हुई, थोड़ी आध्यात्मिक हुई तो उसके मूल में उद्देश्य क्या था? उसके मूल में उद्देश्य था, दुनिया के बड़े हिस्से में वक्त को रोक देना.  वक्त की गतिहीनता से निर्मित चेतना में प्रतिकार अर्थहीन होता जाता है. 


संभवतः यही वजह है कि बीसवीं सदी के अंतिम दशकों के आते-आते हर प्रतिरोध एक विराट शून्य में जाता नज़र आने लगा और यह शून्य ही था कि जिसके धरातल पर तिरछी इमारतों का एक युग स्थापित किया गया. दुनिया के एक हिस्से में लोगों ने एक बार फिर धरती की शक्ल को बदलने की कोशिशें की. एक पीढ़ी आई जिसने यह घोषणा की कि वह अतीत और भविष्य से मुक्त महज़ वर्तमान के लिए जीना चाहती है. और वर्तमान भी कितना, महज़ क्षण भर का. इस तरह युगों में बदलने वाली दुनिया के विषय में यह भ्रम रचा गया कि दुनिया अब हर क्षण में बदल रही है. हर क्षण आगे बढ़ रही. आबादियों का एक रेला पीछे छूटता नज़र आता. लेकिन उत्तराधुनिकता के धूपी चश्मे में उनके स्याह चेहरों को नज़रंदाज़ करना आसन था, किया गया.

तीसरी दुनिया में वक्त के पहिये को रोके रखने के लिए जरुरी था कि विकसित देशों में तर्कहीनता की एक नई संस्कृति विकसित की जाए. यही उत्तराधुनिकता की संस्कृति का आधार था.

फिर भी प्रश्न यही है कि यह उत्तर-आधुनिकता क्या है, क्यों है? उत्तर-आधुनिकता बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में विकसित देशों में धर्म यूटोपिया और मनुष्यता का एक नया विकल्प बनने की कोशिश है. आप उससे सवाल नहीं कर सकते क्योंकि सवालों के पूछे जाने से पहले वह गायब हो जाएगा. जब आप उसकी शिनाख्त जीवन स्थितियों में करेंगे, आपको वह भाषा से खेलता नज़र आएगा. आप संगीत में उसके प्रभाव को तलाशेंगे वह सीडी के कवर पर इतराता मिलेगा. ऐसे में क्या इस आँख-मिचौली की कोई सार्थक व्याख्या संभव है?

बीसवीं सदी में मार्क्सवादियों ने संस्कृति के प्रश्न को नये सिरे से समझने की कोशिशें की. ऐसा करते हुए उन्होंने सत्रहवीं सदी से वर्तमान तक के इतिहास की अलग-अलग दायरों से व्याख्या प्रस्तुत की. इन व्याख्याओं में समाज और मनुष्य के बदलते सम्बन्ध, समाज और सत्ता के नये बनते समीकरण, वस्तु और मनुष्य के बीच उत्पादन और उपभोग के द्वैत का बदलना और सबसे ज़रूरी मनुष्य के रूप में स्व की पहचान को बनाये रखने के लिए मनुष्य का किया जाने वाला सामुदायिक संघर्ष शामिल था. इन रास्तों से भी उत्तर-आधुनिकता की एक समझ बनती है. यह रास्ता उत्तर-मार्क्सवाद का है. उत्तर-मार्क्सवाद का अभिप्राय मार्क्सवाद को नकारना नहीं, बल्कि बीसवीं सदी में मार्क्सवाद के नये आयामों की तलाश है.

फ्रेंच क्रांति ने दुनिया के बड़े हिस्से में वक्त की गति को बदल दिया. सामंती वर्चस्व के प्रतिकार के लिए सामूहिक विवेक निर्माण का रास्ता विकसित होने लगा. यह जरुर है कि फ्रेंच क्रांति ने जो मूल्य दिए वह समाज की अपेक्षा व्यक्ति के मूल्य थे. लेकिन यह पहलीबार संभव हुआ कि लोग अपने इर्द गिर्द, अपने भीतर और बाहर को लेकर जिज्ञासा व्यक्त करने लगे. यह वही समय था जब कांट शुद्ध तर्क का विवेक विकसित कर रहे थे. कांट चिंतन और जीवन दोनों को एक-साथ देखने की वकालत कर रहे थे. उनके लिए तर्क महज़ विचार तक सीमित नहीं था बल्कि वह जीवन व्यवहार के लिए भी जरुरी था. कांट का स्वयं का जीवन इसकी मिसाल थी. विद्यार्थी उनकी कक्षाओं में उनके आने और जाने के समय के अनुसार अपनी घड़ियों के समय को मिलाया करते थे. हो सकता है, आज यह सब पढ़ने सुनने में थोडा विचित्र लगे, कांट को हम इस अर्थ में एक शुष्क और नीरस दार्शनिक भी मान सकते हैं. 


लेकिन अठारहवीं सदी के आखिरी दशक में यह तार्किकता उन सामंती मूल्यों के समक्ष एक बड़ी बात थी. सामन्ती संस्कृति शोषण की प्रक्रिया को विस्तारित कर सकने में इसलिए भी सक्षम थी क्योंकि लोगों के विवेक में समय की कोई वास्तविक गणना मौजूद ही नहीं थी. हम यह भी कह सकते है कि लोगों की चेतना के निर्माण में समय की गति का विशेष महत्व नहीं था. ऐसे में कांट का समय का इस कदर पाबन्द होना, यह बताता है कि परिवर्तन को लेकर वे किस हद तक सचेत थे. वे दर्शन को सिद्धांत और व्यवहार के द्वंद्व में देखने की कोशिश कर रहे थे. एक तरह से फ्रेंच क्रांति के निष्कर्षों का सैद्धान्तिकरण. उन्होंने और उनके बाद के दार्शनिकों ने जिस दर्शन की बुनियाद रखी उसे हम जर्मन आदर्शवाद के रूप में जानते हैं.


जर्मन आदर्शवाद की उपलब्धि यह थी कि उसने दर्शन की विभिन्न शाखाएं जैसे कि तर्क, आध्यात्म, ज्ञान मीमांसा, राजनीतिक चिंतन, नैतिकता, सौंदर्य बोध आदि के बीच मौजूद अन्तःसूत्रों की तलाश की. 

चिंतन की एक व्यवस्थित प्रणाली, जिसके अंतर्गत इन सभी को समेटा जा सके की खोज हो और इसे दर्शन के मुख्य उद्देश्य के रूप में देखा जाए. इसी संदर्भ में कांट की कोशिश यह थी कि वे एक ऐसे केंद्रीय सूत्र की तलाश कर सके जिसके अनुरूप इन तमाम शाखाओं को समेटते हुए किसी भी वस्तु की समुचित दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत की जाए. यह एक नई परिकल्पना थी. 


मनुष्य की चेतना को अधिक संगत और सम्यक बनाने की कोशिश, सौन्दर्य के नये बोध को रचने की कोशिश. हम यह कह सकते हैं कि जर्मन आदर्शवादियों ने एक ऐसे आदर्श की परिकल्पना को रचा जिसके दायरे में दुनिया के अधिकांश लोगों के विवेक को समाहित करना संभव हो सका. पहली बार दुनिया के विषय में यथार्थ और आदर्श की साझा जमीन की तलाश संभव हुई. मनुष्यता की मुक्ति के लिए एक नये स्वप्न की रचना संभव हुई . इस समूचे दार्शनिक अंतर्द्वंद्व की उपलब्धि थी, उन्नीसवीं सदी में मार्क्स का चिंतन.


एक नई दुनिया के यथार्थ को रचने की कोशिशें आरम्भ हुई. हीगेल का यह कहना कि -जो कुछ भी मनुष्य के विवेक से बाहर है, वह तर्क से परे है- महत्वपूर्ण बात थी. यह सदियों में बनी मनुष्यता के आदर्श और अनुभव के बीच की खाई को पाटने में क्रांतिकारी साबित हुई.

हीगेल का महत्व यह था कि उन्होंने दुनिया को देखने के द्वंद्वात्मक नज़रिए को केंद्रीय नज़रिए में बदल दिया. यह भविष्य की दुनिया को समझने के लिहाज़ से एक बड़ी उपलब्धि थी. कांट की तार्किकता और हीगेल के द्वंद्ववाद ने दुनिया को बदल दिया. दुनिया के अबूझ प्रश्नों को अब दैवीय कहकर ठुकराया नहीं जा सकता था. मनुष्य की प्रश्नाकुलता और जिज्ञासा ने दुनिया की पुनर्रचना कर दी, यह कोई साधारण परिघटना नहीं थी.यह मनुष्यता के मध्यकाल से आधुनिक युग में प्रवेश करने की कुंजी साबित हुई. 

लेकिन अब भी एक आयाम यह था कि इस आधुनिक ज्ञान, जिज्ञासा और प्रश्नाकुलता का उद्देश्य क्या है? क्या इस नये और आधुनिक मनुष्य से एक नये समाज की रचना की जा सकती है? क्या व्यक्ति के लिए अनिवार्य ये स्वतंत्रता, समानता और न्याय किन्हीं सामाजिक स्वतंत्रता, न्याय और समानता के आधार स्तम्भ बन सकते हैं? क्या समाज समग्र तौर पर इन आदर्शों को अपने भीतर समाहित कर सकता है? अगर नहीं तो ये सब महज़ एक कोरे आदर्श में बदलकर रह जायेंगे. 


इस प्रश्न का उत्तर उन्नीसवीं सदी के मध्य मार्क्स ने दिया. मार्क्स ने स्वतंत्रता, समानता और न्याय की सामाजिक पृष्ठभूमि की तलाश वर्ग संघर्ष की चेतना में की. मार्क्स ने इस बात को सामने रखा कि आखिर दुनिया को देखने का हमारा क्रांतिकारी नजरिया क्या हो? 



व्यक्ति से समाज की अवधारणा दरअसल वर्गीय चेतना के रूपांतरण की अवधारणा है. इसलिए यह जरुरी है कि वर्ग चेतना से समाज को क्रांतिकारी समाज में बदल दिया जाए. जर्मन आदर्शवाद की बहस का समापन करते हुए मार्क्स ने कहा कि सवाल दुनिया की व्याख्या का नहीं बल्कि सवाल है दुनिया को बदलने का और दुनिया के इस परिवर्तन में सर्वहारा की भूमिका निर्णायक होगी .मार्क्स ने दुनिया को बदलने के लिए दर्शन को क्रांति के दर्शन में बदलने का प्रयत्न किया. मार्क्स ने समाज की अवधारणा को वर्गीय दृष्टिकोण में बदल दिया. मार्क्स ने इस बात पर विशेष बल दिया कि समरसता का समाज वर्ग संघर्ष के रास्ते ही निर्मित होगा. मार्क्स ने यह भी भविष्यवाणी की कि विकसित पूंजीवादी देशों में सर्वहारा क्रांति का नेतृत्व करेगा और उसे अंजाम तक पहुंचाएगा.


मार्क्स ने दुनिया को देखने का एक अधिक सम्यक और तार्किक दृष्टिकोण दिया. मार्क्स ने जर्मन आदर्शवाद की समग्रता की अवधारणा को अधिक वस्तुगत बनाया. उन्होंने राजनीति दर्शन, समाज-विज्ञान, अर्थशास्त्र आदि की समान जमीन की तलाश की. मार्क्स की अवधारणाओं ने दुनिया को अधिक परिपक्व बना दिया. सर्वहारा की चेतना अधिक निर्णायक भूमिका अदा करने लगी. आदर्शवादियों को दुनिया के वास्तविक यथार्थ से चुनौती मिलने लगी. स्वप्न और यथार्थ के अंतर्सम्बन्धों पर लोग बात करने लगे.

उन्नीसवीं सदी को समझने में मार्क्स के सिद्धांतों ने बड़ी भूमिका अदा की. उन्नीसवीं सदी में भी यूरोप के अन्तर्विरोध सामने आने लगे. दुनिया का मानचित्र तेज़ी से बदलने लगा. कच्चे माल की खोज ने दुनिया को संघर्ष की नयी जमीन पर ला दिया. ज्ञान और तर्क की जमीन पर खड़ा यूरोप, वर्चस्व और दमन की जमीन पर उड़ान भरने लगा.यह एक नया आगाज़ था. 



यहाँ से एक नये इतिहास का पाठ आरम्भ हुआ. यूरोप का ज्ञान, ताकत के इतिहास में तब्दील होने लगा. पश्चिम ने पूरब को गढ़ना शुरू किया. वहां की संस्कृति, समाज और जीवन शैली की नई व्याख्याएं आरम्भ हुई. इस बात को बार –बार प्रमाणित करने की कोशिशें की गयी कि पूरब में आधुनिकता तभी आ सकती है जब पश्चिम उसमे निर्णायक भूमिका अदा करे. यह निर्णायक भूमिका क्या थी? यह थी पूरब में साम्राज्य की स्थापना. जिसे उन्नीसवीं और बीसवीं सदी ने साम्राज्यवादी क्रूरता के रूप में देखा.


यूरोप ने स्वतंत्रता, समानता और न्याय की जो परिकल्पना रची, क्या वह उनके साम्राज्यवादी मंसूबों से नहीं टकराई? यह प्रश्न बीसवीं सदी के तमाम दर्शिनिकों के लिए सबसे जरुरी प्रश्न था कि आखिर अपने लिए स्वंत्रता समानता और न्याय के लिए संघर्ष करने वाला आधुनिक यूरोप दूसरों की स्वतंत्रता, समानता और न्याय की राह में स्वयं ही बाधा किस तरह बन गया? आखिर यूरोपीय नवजागरण का एशिया और अफ्रीका के देशों में निर्मित साम्राज्यवाद से क्या सम्बन्ध था? एशिया और अफ्रीका के साम्राज्यवादी संघर्ष में यूरोप की जनता ने क्यों स्वयं को शामिल नहीं किया? आखिर स्वतंत्रता, समानता और न्याय की परिकल्पना वैश्विक क्यों नहीं बन सकी?

फ्रैंकफर्ट स्कूल के दार्शनिकों ने जब उन्नीसवीं और बीसवीं सदी को समझने का प्रयत्न किया तो उनके सामने सबसे बड़ी बाधा थी कि फ़्रांसीसी क्रांति और साम्राज्यवाद को क्या एक दूसरे की क्रमिकता में  देखा जाना चाहिए? अगर यह क्रमभंग है तो वह कौन सा बिंदु है जहाँ से इस क्रमभंग की पहचान की जा सकती है?  एडोर्नो और होर्खाइमर ने सर्वप्रथम इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया. प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता में उन्होंने इस प्रश्न को समझने का प्रयत्न किया है कि आखिर प्रबोधन की चेतना वर्चस्व की चेतना में क्यों बदल गयी? प्रबोधन ने समाज को मुक्त क्यों नहीं किया? एडोर्नो इसे द्वंद्वात्मकता की नकारात्मकताके रूप में व्याख्यायित करते हैं. एडोर्नो एक दार्शनिक निष्कर्ष की ओर बढ़ते हैं, उनका मानना है कि द्वंद्वात्मकता की इस चेतना में प्रबोधन के मूल्य नहीं अपितु वर्चस्व के मूल्य विकसित होने लगते हैं. 


ज्ञान मुक्ति की ओर नहीं वर्चस्व और ताकत की ओर ले जाता है. यही वह ताकत की चेतना थी जिसने उन्नीसवीं सदी में साम्राज्यवाद को अनिवार्य बना दिया. अगर हम साम्राज्यवाद की अवधारणा को फ़्रांसीसी क्रांति के विस्तार के रूप में देखें तो क्या वह एक असफल क्रान्ति नहीं ठहरती? मनुष्यता के जिन मूल्यों का उसने संधान किया, वह इतने क्षणिक और आत्मकेंद्रित क्यों साबित हुए? यूरोप का ‘आत्म’ शेष दुनिया की मनुष्यता के नकार को क्यों प्रश्रय देता है? ये जरुरी प्रश्न थे. हिंदी में रामविलास शर्मा ने साम्राज्यवाद की अवधारणा की खूब व्याख्या की है, लेकिन वे इन प्रश्नों से नहीं टकराते. वे साम्राज्यवाद की समूची परिकल्पना को राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व तक सीमित कर देखते हैं.वे साम्राज्यवादी वर्चस्व की चेतना की पड़ताल ज्ञान की अवधारणा में नहीं करते हैं.


‘ज्ञान की संस्कृति’ का ‘वर्चस्व की संस्कृति’ में बदलना ही वह बिंदु था जिसने प्रबोधन की चेतना को साम्राज्यवाद की अवधारणा में बदल दिया. इसे समझे बगैर हम गाँधी के वास्तविक महत्व को रेखांकित नहीं कर सकते. 

गांधी के महत्व को अमूमन इसलिए स्वीकार किया जाता है कि उन्होंने साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में सत्य और अहिंसा को निर्णायक बना दिया. गांधी के विषय में ये बातें सही थी परन्तु गांधी का महत्व इसलिए भी था कि उन्होंने पश्चिम के प्रबोधन के मूल्यों को अस्वीकार कर दिया. उन्होंने साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष को पश्चिम की चेतना के विरुद्ध संघर्ष में बदल दिया. उनका अस्वीकार उस वर्चस्व का अस्वीकार था जो ज्ञानोदय युग की परम्परा के भीतर से विकसित हुई थी. गांधी आत्म-विस्तार की बात करते हैं. 



वे एक ऐसे ‘आत्म’ की तलाश करते है जिसमें विश्व के हर मनुष्य के लिए स्थान सुनिश्चित किया जा सके. वे उस ज्ञान को नकारते हैं जिसमें किसी की छाती पर पैर रख खड़े होने की तमीज विकसित की जाती है. गांधी द्वारा आवश्यकता की पूर्ति के लिए दिया गया आत्मनिर्भरता का सिद्धांत यूरोप के अति उत्पादन की अवधारणा को नकारता है. गांधी सीमित साधनों में जीवन बसर करने के सिद्धांत की बात इसलिए भी करते हैं ताकि अंतिम आदमी तक अनिवार्य जरूरतों की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके. गांधी उपभोग को अतिरिक्त की बजाय एक नैतिक उपभोग में बदलने का सामूहिक दर्शन विकसित करते हैं.

क्या वाकई यूरोप को इतनी अधिक मात्रा में कच्चे माल की जरुरत थी कि दुनिया के आधे से अधिक हिस्से को गुलाम बना लिया जाए? यूरोप की जितनी आबादी थी, उसके अनुरूप वहां उत्पादन अधिक था. बावजूद इसके यूरोप ने उत्पादन की गति को और तीव्र करने के लिए साम्राज्यवादी विस्तार का सहारा लिया. अतरिक्त उत्पादन ही वह साधन था जिसके दम पर यूरोप अपने वर्चस्व को निर्मित कर सकता था. ऐसे में जरुरत इस बात की थी कि ज्ञान और विज्ञान को अधिक उत्पादन की दिशा में मोड़ा जाए. लोगों के भीतर अतरिक्त उपभोग की चेतना को ही ज्ञान बना दिया जाए. इस तरह न सिर्फ दुनिया के शासक वर्ग दो हिस्से में बंट गये बल्कि सामान्य जनता भी दो भागों में विभक्त हो गयी. 


यूरोप की जनता का उत्पादन और उपभोग के बीच का अनुपात एशिया और अफ्रीका की जनता के मुकाबले काफी भिन्न था. साम्राज्यवाद की प्रक्रिया ने सामान्य लोगों से जरुरत के लायक उपभोग का अधिकार भी छीन लिया. उन्नीसवीं सदी जहाँ एक ओर यूरोप में अकूत सम्पदा के संचयन का गवाह बना वहीँ एशिया और अफ्रीका ने भुखमरी और अकाल को बार-बार झेला. इन परिस्थितियों में एशिया-अफ्रीका के देशों के सामान्य जन विलगाव की स्थिति में पहुँच गये. वहां का उच्च वर्ग बहुत तेज़ी से यूरोपीय प्रभाव में ढलने लगा. आज भी जब हम एशियाई और अफ़्रीकी मुल्कों के सामान्य जन की संस्कृति से यूरोप की तुलना करते हैं तो हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि यहाँ के लोगों ने वर्चस्व की संस्कृति को यूरोप की संस्कृति के रूप में पहचाना है. 


उन्होंने शासक वर्ग को यूरोप मान लिया. यह चेतना किसी न किसी रूप में आज भी इन मुल्कों में कायम है. साम्राज्यवाद का बाहरी शोर भले वर्तमान में नज़र न आता हो लेकिन आज भी यहाँ के शासक वर्ग की चेतना साम्राज्यवादी ही है. यह समाज के हर हिस्से में मौजूद है. अगर किसी को किसी पर रौब ग़ालिब करना हो तो वह सामान्य हिंदी से एकदम टूटी फूटी अंग्रेजी में चला आता है. यह साबित करता है कि एशिया-अफ्रीका के सामान्य जन के लिए आज भी औपनिवेशिक संस्कृति से निर्णायक संघर्ष करना शेष है.

एडोर्नो की प्रबोधन सम्बन्धी मान्यताओं की विभिन्न व्याख्याएं हुई. ये व्याख्याएं परस्पर विरोधी थी. बहुत से दार्शनिकों का मानना है कि एडोर्नो की दार्शनिक मान्यताओं से उत्तर-आधुनिकता का आरम्भ होता है. जर्मन दार्शनिक हेबरमास जो फ्रैंकफर्ट स्कूल के दूसरे दौर से सम्बद्ध रहे, इससे इनकार करते हैं. वे आधुनिकता और एडोर्नो के संदर्भ में जटिल व्याख्या को प्रस्तुत करते हैं. वे एडोर्नो की प्रबोधन सम्बन्धी मान्यताओं की नई व्याख्या प्रस्तुत करते हैं. हेबरमास बुर्जुआ संस्कृति और पूंजीवादी वर्चस्व के बीच भेद करने पर बल देते हैं. वे आधुनिकता के मूल्यों को समाज और सत्ता के नये तनाव के रूप में व्याख्यायित करते हैं. आधुनिकता के भीतर सतत् आलोचनात्मक बने रहने की संभावनाओं को समाज की नई मुक्ति के रूप में देखते हैं. 


हेबरमास के अनुसार प्रबोधन में वर्चस्व के मूल्य पहले से मौजूद नहीं थे. उन मूल्यों को विज्ञान और तकनीक के द्वारा उत्तरोत्तर विकसित किया गया. प्रबोधन ने व्यक्ति की चेतना को सामाजिक मुक्ति की अवधारणा से जोड़ा. समाज के भीतर सतत् आलोचनात्मकता का विकास हुआ. निजता की बहुलता से सामाजिक यथार्थ का निर्माण हुआ. ये यथार्थ अपने मूल में सत्ता के साथ एक तनाव रचते थे. इस तरह सतत् आलोचनात्मकता की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति की चेतना समाज के साथ एक द्वंद्वात्मक सम्बन्ध बनाती थी. लेकिन विज्ञान और तकनीक ने वैयक्तिक तार्किकता को तकनीकी तार्किकता में बदल दिया. यही वह बिंदु है जहाँ प्रबोधन के मूल्यों को वर्चस्व के मूल्यों में रूपांतरित कर दिया गया. द्वंद्वात्मकता की रचनात्मक भूमिका नष्ट होने लगी और एडोर्नो के शब्दों में द्वंद्वात्मकता नकारात्मक भूमिका अदा करने लगी.

फ्रैंकफर्ट स्कूल के दार्शनिकों ने वर्चस्व की चेतना को विभिन्न आयामों से समझने का प्रयत्न किया है. एक आयाम मनुष्य और प्रकृति के बीच बदलते सम्बन्धों द्वारा भी विकसित होता है. मनुष्य और प्रकृति के बीच सम्बन्धों में मौज़ुद द्वंद्वात्मकता का विनष्ट होनाएक बड़ी परिघटना थी. 

यह कम दिलचस्प नहीं है कि जिन यंत्रों के द्वारा उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में मनुष्य ने प्रकृति पर वर्चस्व कायम करने की कोशिशें की, वे ही यंत्र उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरम्भ तक आते -आते मनुष्य पर वर्चस्व कायम करने लगते हैं. 

उन्नीसवीं सदी में साम्राज्यवादी लूट से जितनी सम्पदा यूरोप ने अर्जित की उसका अधिकांश हिस्सा उसने दो विश्वयुद्धों में नष्ट  भी कर दिया. लेकिन सवाल सम्पदा के नष्ट होने भर का नहीं था. सवाल था कि इन युद्धों के अनुभवों ने मनुष्य को अधिक क्रूर और हिंसक बना दिया. 


यह बर्बरता 1928 की आर्थिक मंदी के बाद और वीभत्स रूप धारण करती है. समाज के मूल में मौजूद स्वंत्रता और न्याय की अवधारणा कमजोर होने लगती है. क्या जर्मनी में हिटलर का उदय महज़ एक इत्तेफाक भर था? क्या सामाजिक, सांस्कृतिक और वैश्विक परिदृश्य ने हिटलर के आगमन को अनिवार्य नहीं बना दिया था? उन्नीसवीं सदी में जिस वर्चस्व का आरम्भ साम्राज्यवादी नृशंसता के रूप में हुआ था क्या हिटलर का आगमन उसकी निर्णायक परिणति नहीं थी? सबसे अहम सवाल यह कि आखिर जर्मनी की जनता ने हिटलर के आगमन का समर्थन क्यों किया? क्या यह ठीक उसी क्रम की पुनरावृत्ति नहीं थी जिसके तहत यूरोप की जनता ने एशियाई-अफ़्रीकी देशों में न सिर्फ साम्राज्यवाद का विरोध नहीं किया बल्कि वे इस प्रक्रिया का हिस्सा भी बने. फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों के लिए सबसे बड़ी पहेली जनता की अवधारणा थी. वर्चस्व की अवधारणा ने जनता की समूची अवधारणा को ही बदल दिया था. प्रतिरोध की संस्कृति और जन संस्कृति के बीच विकसित हो रही फांक को समझे बगैर बीसवीं सदी को नहीं समझा जा सकता था.

इस अर्थ में बीसवीं सदी उन्नीसवीं सदी से अलग होने लगती है. बीसवीं सदी परस्पर अंतर्विरोधों की सदी साबित हुई. इसमें किसी केन्द्रीयता की तलाश लगभग असंभव है. यह जरुर है कि बीसवीं सदी ने मनुष्य को हर अर्थ में बदल दिया. लेकिन क्या इन परस्पर विरोधी चेतनाओं के मध्य किसी संगती की तलाश करना उस पुरानी दुनिया की अवधारणा को बीसवीं सदी पर आरोपित करने जैसा नहीं होगा जो कि वास्तव में वह नहीं था. क्या यथार्थ की विश्रृंखलता के रूप में इस सदी को पहचाना जा सकता है? इन विश्रृंखलताओं के मध्य भले किसी संगती की तलाश करना संभव न हो लेकिन क्या इनमें किसी समग्रता के बोध को चिन्हित किया जा सकता हैं? बीसवीं सदी में मौजूद यही समग्रता वास्तव में ताकत का रूप ले लेती है. फूको के अनुसार यह ताकत ज्ञान और संस्थाओं की संरचना के द्वारा विकसित हुई है. फूको के अनुसार मनुष्य का तार्किक होना, दरअसल उस ताकत निर्माण की प्रक्रिया में शामिल होना है जो बीसवीं सदी के युद्धों से होती हुई फासीवाद और मानव बम तक चली आई. फूको बीसवीं सदी के मध्य क्रूरता के तमाम आयामों की पहचान करते हैं. 


फूको तमाम संस्थाओं जैसे कि विश्वविद्यालय, अस्पताल, न्यायालय, कारावास आदि की संरचना में मौजूद समाज की अवधारणा और इन अवधारणाओंके तहत निर्मित होने वाले मनुष्य को रेखांकित करते हैं. फूको इस बात को सामने रखते हैं कि बीसवीं सदी में तमाम संस्थाओं के मध्य्यम से एक ऐसे व्यक्ति का निर्माण किया जा रहा है जो न सिर्फ दमन की बाहरी शक्तियों से घिरा हुआ है बल्कि वह स्वयं दमन की प्रक्रिया का अंग बन चुका है. संस्थाओं की चेतना उसके भीतर प्रविष्ट हो चुकी है. उन्होंने उसे भीतर से जकड़ लिया है. उसपर हर वक्त न सिर्फ बाहरी संस्थाएं निगरानी रख रही हैं, बल्कि वह खुद स्वयं पर निगरानी रख रहा है. इस नई स्थति ने उसे पहले से अधिक ग़ुलाम बना दिया है. सवाल है ऐसे में मुक्ति की क्या कोई अवधारणा बची है. 


तो क्या यह अंत की अवधारणा इसी  निराशा से जन्मी है? फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने समाधान के सरलीकरण की तलाश की बजाय विश्लेषणों के आयामों पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया. फूको के काम को फ्रैंकफर्ट स्कूल के दार्शनिकों द्वारा किये गये कार्यों के समानांतर देखा जा सकता है. यह दिलचस्प है कि फूको द्वारा निकाले गये कई निष्कर्ष फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों द्वारा निकाले गये निष्कर्षों से मिलते हैं. लेकिन दोनों के चिंतन की प्रक्रिया भिन्न है. यह भिन्नता बीसवीं सदी के मध्य फ्रेंच और जर्मन पद्धत्ति के बीच दर्शन की भिन्नता भी है.

द्वितीय विश्वयुद्ध यूरोप की समूची चेतना पर गहरा आघात बनकर लगा. द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् यूरोप की बहुत बड़ी जनसंख्या का लहू बहता रहा. यूरोप की समूची जनचेतना पर एक ख़ामोशी हावी हो गयी. यूरोप का इतिहास एक त्रासदी की तरह नज़र आने लगा. लोग इतिहास से पीछा छुड़ाने लगे. इतिहास की क्रमिकतायें टूटने लगी. फ्रैंकफर्ट स्कूल के दार्शनिकों ने इस सवाल को रखा कि आखिर हर नई अवधारणा, हर नया यूटोपिया एक वर्चस्व में क्योंकर बदलने लगता है. 


इतिहास का संघर्ष वर्तमान के दमन से किस तरह जुड़ जाता है? क्या यह इतिहास की क्रमिकता की वजह से है? क्या इतिहास की शक्तियां मनुष्य को हर बार बेबस और लाचार बना देती है? आखिर उस इतिहास का अर्थ ही क्या है, जो अंततः एक दमन में बदल जाता है? क्या हम इतिहास से मुक्त होके मनुष्य की परिकल्पना रच सकते हैं?


कई बार इतिहास में ऐसे मोड़ आते हैं जो क्रमभंग को रचते हैं. दो विश्वयुद्धों ने यूरोप में एक ऐसा ही क्रमभंग रचा. समय की अवधारणा का नया बोध विकसित हुआ. द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् यूरोप में एक नये युग का आरम्भ होता है. यह आरम्भ कई अर्थों में पिछले का अंत भी था. यह अनायास नहीं हैं कि एक साथ बहुत सारी परिघटनाओं एवं प्रवृत्तियों के अंत की बात कही जाने लगी. बहुत सारी कलाओं एवं दर्शन में क्रमिकता के अंत की पहचान की जा सकती है. बर्गमैन की मशहूर फिल्म ‘वाइल्ड स्ट्रॉबेरीज’ को याद करें. उम्र के ढलान पर जाता हुआ उसका नायक महसूस करता है कि उसकी चेतना स्वप्न और यथार्थ दोनों में समय को ठीक-ठीक समझ सकने में असमर्थ है. 


वह अपने वर्तमान को एक ऐसे अंधे मोड़ पर पाता है जहाँ उसकी चेतना में देश और काल गायब है. उसकी नियति युद्ध में मारे गये लोगों से भी बदत्तर है, उसे लगातर जीते हुए मरना होगा. वह महसूस कर  रहा था कि इस जीवन में जीने लायक उसके पास कुछ भी बचा नहीं रह गया है. एक ठंडी दीवार पर अपना सीना चिपकाये वह अपनी धडकन की प्रतिध्वनियों को सुन रहा है. वक्त उसके लिए बस इतना ही रह गया है.

50’ के दशक में यूरोप की दुनिया गहरे नकार और निराशा की ओर रुख कर रही थी. दूसरी तरफ पूंजीवाद अपनी डोलती नाव को बचाने की हर संभव कोशिश में लगा था. कल्याणकारी राज्य और उदार लोकतंत्र की अवधारणा एक ऐसा मुखौटा था, जो उसकी शक्ल को छिपा सकती थी. प्रकट तौर पर उसके समक्ष दो तरह खतरे थे. एक उन देशों की ओर से जहाँ साम्यवादी शासन की स्थापना हो चुकी थी. दूसरे तीसरी दुनिया की ओर से जहाँ नई सत्ताएं निर्मित हो रही थी. इन खतरों से मुकाबला करने के लिए पूंजीवाद के लिए जो चीज़ सबसे जरूरी थी ,वह ये कि हर तरह की केन्द्रीयता को विनष्ट कर दिया जाए. संस्कृति के रास्ते वर्चस्व की चेतना का पुनर्निर्माण किया जाए और समाज में वर्ग सामंजस्य का भ्रम फैलाया जाए.

60’ के दशक के बाद दुनिया की तमाम पूंजीवादी ताकतें इस कार्य नीति पर अमल करती नज़र आती हैं. समाज की अवधारणा का नये सिरे से अवमूल्यन होता है. समाज की इकाई के रूप में व्यक्ति का वस्तुकरण पूंजीवाद की नई अवस्था है. लेकिन यहाँ सबसे जरुरी सवाल यह है कि क्या पूंजीवाद की इस कार्यनीति को दुनिया भर की कम्युनिष्ट पार्टियों ने समझने का प्रयत्न किया? सामान्य तौर पर दुनिया भर की कम्युनिष्ट पार्टियाँ पुरानी दुनिया की परिकल्पना में मौजूद संघर्ष की अवधारणा को ही विकल्प के रूप में स्वीकार करती रही हैं. वे इक्कीसवीं सदी की जटिलताओं को शास्त्रीय मार्क्सवाद से व्याख्यायित करने का प्रयत्न करती हैं. ऐसा करते हुए, वे हर बार सर्वहारा की अवधारणा को उन्नीसवीं सदी की सर्वहारा की अवधारणा में महदूद कर देखने की कोशिश करने लगती हैं. जबकि सर्वहारा की चेतना में निर्णायक बदलाव आये हैं. 



उपभोग की संस्कृति और कल्याणकारी राज्य की सुविधाओं ने क्रांतिकारी स्थितियों को अमूर्त बना दिया है. लालच और उपभोग ने उनके अवचेतन को बदलना आरम्भ कर दिया है.कम्युनिष्ट पार्टियों ने इन परिवर्तनों का ठोस अवलोकन किया हो, ऐसा नज़र नहीं आता .इसका परिणाम यह हुआ कि वे मार्क्स के इस निष्कर्ष से ही विमुख हो गयी कि सवाल दुनिया को बदलने का है. दुनिया बदल रही थी लेकिन यह बदलाव एकायामी था. किसी किस्म की मुक्कमिल क्रांतिकारी चेतना के न होने से कम्युनिष्ट पार्टियों से जुड़े लोगों को गहरे नैतिक अंतर्विरोधों से गुजरना पड़ा. कहना न होगा कि यह क्रम आज भी जारी है. मार्क्सवादी व्याख्याओं ने दुनिया को ठोस और मूर्त साबित किया था. इस मूर्तन के मूल में श्रम की अवधारणा थी. 60’ के दशक के पश्चात् एक ऐसी दुनिया की परिकल्पना विकसित की गयी जिसमें श्रम का अमूर्तन किया जा सके. 


दुनिया को प्रकट तौर पर अधिक वायवीय बनाने की कोशिशें हुई.हत्याओं को दुर्घटनाओं की तरह प्रस्तुत किया गया. असुरक्षा के बोध को मनुष्य की चेतना का स्थायी भाव बनाने की कोशिशें हुई. मनुष्य के रूप में अस्तित्वान होने का अर्थ महज़ उपभोग की क्षमता के तौर पर निर्धारित कर दिया गया.बाज़ार के रूप में एक नई चेतना विकसित की गयी. समाज में व्यक्ति की पहचान महज़ एक उपभोगकर्ता के तौर पर निर्धारित कर दी गयी. वस्तुओं के क्रम और उनके निर्माण को शिक्षा और ज्ञान के श्रोत के रूप में विकसित किया गया.मनुष्य की समस्त ज्ञानात्मक संवेदनाओं को कोरी भावुकता के रूप में नकार दिया गया.फ्रेंच समाजशास्त्री बौद्रिया इन स्थितियों की पहचान करते हैं. श्रमविहीन उत्पादन से एक नये युग का आरम्भ होता है.

नये पूंजीवाद ने एक नये बाज़ार को स्थापित किया. बाज़ार को महज़ एक आर्थिक पद्धत्ति के रूप में चिन्हित करना भारी भूल होगी. बाज़ार ने अर्थशास्त्र के तमाम नियमों और तर्कों से खुद को मुक्त कर लिया है. अब वह प्रकट तौर पर उस राजनीतिक अर्थशास्त्र के नियमों से संचालित नहीं होता जिसकी खोज उन्नीसवीं सदी में मार्क्स ने की थी. एक ही समय में वह प्रतिरोध और समर्थन दोनों को व्यवसायिक मूल्य के रूप में विकसित कर उपभोग में बदल सकता है.

बाज़ार की इस परिकल्पना के चपेट में समाज की अवधारणा है. ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’– नये बाज़ार ने इस अवधारणा को नष्ट करना आरम्भ कर दिया है. सवाल है बाज़ार के लिए यह सब संभव किस तरह होता है. 70’ के दशक में सूचना क्रांति के विस्तार से पूंजीवाद के पुनुरोदय का नया रास्ता खुलता है. सूचना क्रान्ति ने दुनिया के हर कोने को और हर वस्तु को उपभोग में बदल दिया. यह कितना अजीब है कि सूर्योदय को देखते हुए भी दरअसल हम उपभोग की प्रक्रिया में शामिल होते हैं. प्रकृति से हमारा सम्पर्क हर वक्त एक नये उपभोग को जन्म देता है. आने वाले दिनों में खासकर तीसरी दुनिया के देशों में पर्यावरण को अगले कई दशकों तक बेचा जाएगा. तमाम  हरित प्राधिकरणों की स्थापना को इस दिशा में देखा जा सकता है, जिसके तहत आरम्भ में सूचना माध्यमों के द्वारा हम जागरूकता को खरीदते हैं. 


इसके पश्चात् हम पर वस्तुओं को खरीदने का दबाव बनाया जाता है. यह दबाव कहीं और से नहीं हमारे भीतर आरोपित सूचनाओं के माध्यम से विकसित होता है. इन दबावों को हम स्वाभाविक मानने लगते हैं क्योंकि हम इन्हें अपने भीतर से विकसित हुआ पाते हैं. दरअसल सूचना माध्यमों ने वर्चस्व की समुची प्रक्रिया को अप्रत्यक्ष बना दिया है. यह एक नई स्थिति है, जिसे किसी भी अर्थ में प्रतिरोध के पारम्परिक तरीकों द्वारा नहीं समझा जा सकता. न ही उनकी क्रमिकता में इन्हें ठीक व्याख्यायित किया जा सकता है.

फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने और उत्तर-मार्क्सवादी चिंतकों ने इस अप्रत्यक्ष वर्चस्व की चेतना का विश्लेषण किया है. उन्होंने इस बात को समझने का प्रयत्न किया है कि किस तरह व्यक्ति के मनोविज्ञान को सामजिक मनोविज्ञान में बदला जाता है. तो क्या मनुष्य की आत्मचेतना को विकृत कर वस्तुचेतना में बदला जाना, इस बाज़ार के अरण्य में भटकते मनुष्य की अंतिम परिणति साबित होगी? आखिर इस वस्तुकरण के परे क्या? उत्तरमार्क्सवादियों का मानना है कि दुनिया को बदलने के लिए यह जरुरी है कि उसकी नई व्याख्याएं प्रस्तुत की जाए. सवाल सत्य की स्थूलता को तोड़ने का है, उस आत्म को नये संदर्भ में पुनर्परिभासित करने का है.

आज हमारे सामने इस नई दुनिया की मनुष्यता को समझने उसे व्याख्यायित करने की चुनौती है. अंत की घोषणाओं के मध्य उस नये आरम्भ के पहचान की चुनौती भी है. मनुष्य के सामने सूचना क्रांति ने एक अभूतपूर्व गति को ला पटका है. आज इस तार्किकता के समक्ष हमारा आत्म बेबस और लाचार नज़र आता है. हम 24 घंटे इस बाज़ार में खड़े हैं. रात के दो बजे गहरी नींद में सोता हुआ दिख रहा मनुष्य भी वास्तव में बाज़ार में खड़ा है. वह सहगल के मानिंद यह कह नहीं सकता कि बाज़ार से गुजरा हूँ खरीददार नहीं हूँ. न खरीदने के उसके विकल्प को उससे छीन लिया गया है. उसके समक्ष महज़ इस विकल्पहीनता का विकल्प है. 


यह बाज़ार उस बाज़ार से बहुत भिन्न है जिसे हमने विनिमय की संस्कृति के रूप में हजारो वर्षों में विकसित किया था. इसी संस्कृति से सामुदायिकता की संस्कृति विकसित हुई थी. इस अर्थ में बाज़ार की संस्कृति एकायामी नहीं थी. वह अपने में एक द्वंद्व की चेतना को आत्मसात किये हुए थी. लेकिन यह नया बाज़ार इन संदर्भों में भिन्न है. इस बाज़ार से मुक्ति की अवधारणा का रास्ता, इसके विश्लेषण से गुजरता है. आने वाले कठिन दिनों में मनुष्य को कई निर्णायक मुठभेड़ों से गुजरना है. 



ज्ञान की ताकत का विकल्प आत्म का विस्तार हो सकता है. लेकिन साथ ही उसके लिए यह जरुरी है कि इस लगातार बदलते हुए आत्म की पहचान की जाए. क्या हाइजेनबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धांत में मौजूद गतिशीलता की अवधारणा को समाज के संदर्भ में फिर से व्याख्यायित करने की आवश्यकता महसूस नहीं होती?

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  1. बीसवीं सदी में तमाम संस्थाओं के मध्य्यम से एक ऐसे व्यक्ति का निर्माण किया जा रहा है जो न सिर्फ दमन की बाहरी शक्तियों से घिरा हुआ है बल्कि वह स्वयं दमन की प्रक्रिया का अंग बन चुका है. संस्थाओं की चेतना उसके भीतर प्रविष्ट हो चुकी है. उन्होंने उसे भीतर से जकड़ लिया है. उसपर हर वक्त न सिर्फ बाहरी संस्थाएं निगरानी रख रही हैं, बल्कि वह खुद स्वयं पर निगरानी रख रहा है. इस नई स्थति ने उसे पहले से अधिक ग़ुलाम बना दिया है.

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  2. "उत्तर-मार्क्सवाद का अभिप्राय मार्क्सवाद को नकारना नहीं, बल्कि बीसवीं सदी में मार्क्सवाद के नये आयामों की तलाश है." यह टिप्पणी सही नहीं लगती। तथाकथित उत्तरमार्क्सवादी चिन्तकों ने काफी ज़्यादा हद तक मार्क्स और मार्क्सवाद को छोड़ दिया है, चाहे वह Badiou हो या ज़िज़ेक हो या जेम्ससन हो या कोई और।

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  3. बेहद तार्किक,सुचिंतित एवं ठोस वैचारिक लेख।सराहनीय श्रम के लिए लेखक और हम सब तक पहुचाने के लिए भी अरुणदेव समालोचन परिवार को बधाई।प्रासंगिक के साथ मार्क्सवाद के वैचारिक विकास का बेहतर रेखांकन।

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