सिद्धेश्वर सिंह की कविताएँ





















मनुष्य जब मनुष्यता से गिर जाता है, उसकी तुलना पशुओं से हम करते हैं. पर क्या पशु कभी अपनी ‘पशुता’ से गिरा है ? 

आख़िर मनुष्य ने सभ्यता की इस दौड़ में क्या हासिल किया है? कठुआ और उन्नाव में जो कुछ हुआ है उससे तो आदमी होने पर शर्म आने लगी है. सबसे बर्बर कृत तो यह है कि इस क्रूरता के समर्थन में भी लोग बाहर आए. क्या हमारा समाज मनोरोगी हो गया है ?

इतना न गिरो कि तुम्हारा गिरना देखकर सभ्यता शर्मसार हो जाए.


कहते हैं कि कविता मनुष्यता की आवाज़ है. वही हमारी अंतिम शरणस्थली है. हमारी सामूहिक चेतना की उदात्त प्रार्थना.  आज सिद्धेश्वर   सिंह   की   कविताएँ प्रस्तुत हैं.

“दिख रहा है 
कि चुपचाप खड़े हैं पुरखे
और मैं अपराधी की तरह सिर झुकाए 
कुरेद रहा हूँ जमीन
जिस पर वास करता रहा हूँ एक स्त्री के साथ”






सिद्धेश्वर   सिंह   की   कविताएँ                                     







लिखना एक स्त्री पर


एक कविता लिखनी है मुझे स्त्री पर
और देखा तो
लगा कि छूँछा हो गया है समूचा शब्द भंडार

अनुभव हो रहा है  कि किताबों की लिखावट 
उड़ गई है भाप बनकर
और आसमान में 
घुमड़ रहे हैं कलछौंहे मेघ

दिख रहा है 
कि चुपचाप खड़े हैं पुरखे
और मैं अपराधी की तरह सिर झुकाए 
कुरेद रहा हूँ जमीन
जिस पर वास करता रहा हूँ एक स्त्री के साथ

पृथ्वी की पीठ को छू रहा हूँ
हाथों में उभर आए हैं कुछ नीले निशान
समुद्र में डुबो देना चाहता हूँ भाषा को
जो कि उफन रहा है आँसुओं से लगातार

आज का यह दिन है  
शुभकामनाओं के भार से श्लथ
और मेरे हाथ में एक कलम है दर्प से भरी
कवि होने के गुरूर से चूर 

शब्द अदृश्य हैं
विचारों की वीथी में कोई हलचल भी नहीं
फिर भी
कविता लिखनी है मुझे स्त्री पर

एक अजब ज़िद है यह भी
पिछली हर बार की तरह ही
कितनी बेतुकी कितनी अश्लील !




शब्दकोश 

गर्मियों में लगभग सूख जाती है नदी
पुल पर खड़े होकर देखो तो
एकसार दिखाई देते हैं दोनों ओर के दो पाट
जहाँ होना चाहिए था जल वहाँ अब रेत है
जहाँ होना चाहिए था जलचर को विहार करते
वहाँ अब काँस है सरपत है और उड़ती हुई धूल है

यह लगभग सूखना शब्द भी इतना क्रूर है 
कि इसे मान लिया जाना चाहिए सूख जाने का पर्याय
मैं चुपचाप शब्दकोश उठाता हूँ 
और काट देता हूँ सदानीरा शब्द को लगभग निर्दयता से
कागज की काया पर फैल जाती है एक लाल लकीर
जैसे कि धीरे -धीरे रिस रहा हो रक्त

नदी को सबसे ज्यादा प्रतीक्षा रहती थी कभी बारिश की
बारिश को देख कर कभी उमगता था नदी का मन
अब जबकि शुष्क होते चले गए  हैं सारे कुएं
पाट कर मकान बना दिए गए हैं सब ताल - पोखर
तबसे बारिश है कि वह हो गई है लगभग बारिश
मेघ हो गए हैं लगभग मेघ
और मैं  चिंतित हूँ कि किसी दिन अचानक ही
कंठ में अटकी हुई भाषा भी न हो जाय लगभग भाषा

मैं एक सूखी हुई हुई नदी के बेमकसद पुल पर
उम्मीद की पतंगों का गट्ठर लिए खड़ा हूँ
यह एक आदिम ज़िद की अकड़ है या कि कुछ और
आसमान में पूरी बेशर्मी से 
चमक रहा है दोपहर का दर्प भरा सूर्य
हवा ठिठकी हुई है किसी अनिष्ट के भय से
फिर भी नदी है कि बार - बार दे रही है दिलासा 

मैं फिर से उठाता हूँ शब्दकोश
नदी शब्द का एक और अर्थ दिखता है - आशा





चाँद

कुल कितने पर्यायवाची हैं
चाँद शब्द के?

देर हुई
खंगाल रहा हूँ पोथियाँ
बांच रहा हूँ पत्रा - पुरान
कलम पकड़ने वाले हाथों से
उलीच रहा हूँ 
भाषा के पोखर को बार - बार।

आर्द्र होती जा रही है गहराती हुई रात
झर कर हल्का हो गया  है हरसिंगार
जो अब भी हरा है स्मृति के उपवन में।

बंद कमरे में 
करता हूँ अनुमान
कि चलते - चलते चंद्रमा ने भी 
नाप लिया होगा आधा आकाश
और मैं हूँ  
कि लिख नहीं पा रहा हूँ 
एक बस एक  छोटा -सा नाम।






शोले

वह बार - बार बताती है अपना नाम
बगैर पूछे भी
बार - बार पूछता है जय -
     तुम्हारा नाम क्या है बसंती ?

बसंती को आदत नहीं है बेफिजूल बात करने की
उसके पास पड़े हुए हैं ढेर सारे काम
करना है अपनी आजीविका का ईमानदार उपाय
ध्यान रखना है मौसी और धन्नो का
खबर रखनी है  रामगढ़ की एक -एक बात की
बचना है गब्बर की गंदी निगाह से
और टूटकर प्रेम भी तो करना है बिगड़ैल बीरू से.

अपनी रौ में बीत रहा है वक़्त
कब का उजड़ गया सिनेमा का सेट
संग्रहालयों में सहेज दिए गए पोस्टर
इतिहास की किताबों में 
दर्ज हो गए घोड़े दौड़ाने वाले डकैत
टूट गई मशहूर जोड़ी भी सलीम जावेद की 
दोस्ती न तोड़ने की प्रतिज्ञा वाले गीत पड़ गए पुराने
और तो और अब कोई दुहाई भी नही देता नमक की।

उजाड़ हो गए जुबली मनाने वाले टॉकीज
घिस गईं पुरानी रीलें रगड़ खाकर
अब तो दर्शक भी बचे नहीं वे पुराने खेवे के
जो मार खाते गद्दार को देखकर 
बजाते थे तालियाँ जोरदार।

क्या करूँ
मुझे अब भी सुनाई देती है 
एक बूढ़े की  प्रश्नाकुल आवाज 
      - इतना सन्नाटा क्यों है भाई ?
अब भी रह - रह कर गुर्राता है कोई खलपात्र
      - ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर !
सहसा काँप जाते हैं मोबाइल थामे मेरे हाथ
और रात में कई - कई बार उचट जाती है नींद भी बेबात.




यूटोपिया


कोई बात तो हो 
जिस पर बना रहे यकीन
कोई विचार तो हो
जिससे सोच की धार न हो कुन्द
कोई तो हो 
जिससे मिला जा सके सहज होकर
कोई जगह तो हो
जहाँ पहुंचकर पछतावा न हो पैरों को.

बस
एक शब्द भर बना रहे संशय
और भाषा में 
अनुपस्थित हो जाय उसका इस्तेमाल.

सोचो कि ऐसा हो संसार
कहो  कि ऐसा हो संसार
करो कुछ 
कि सिर्फ सपना न हो यह संसार.


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सिद्धेश्वर सिंह
11  नवम्बर 1963, 
गाँव मिर्चा, दिलदार नगर, जिला गा़जीपुर (उत्तर प्रदेश)

  
प्रकाशन : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें , कहानियाँ, समीक्षा  व शोध आलेख प्रकाशित. भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण की टीम के सदस्य के रूप में उत्तराखंड की थारू भाषा पर कार्य. विश्व कविता से अन्ना अख़्मतोवा, निज़ार क़ब्बानी, ओरहान वेली, वेरा पावलोवा , हालीना पोस्वियातोव्स्का , बिली कालिंस और अन्य महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अनुवादकविता संग्रह ' कर्मनाशा' 2012  में प्रकाशित.
एक कविता संग्रह व अनुवाद  की दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य.   

फिलहाल : उत्तराखंड प्रान्तीय उच्च शिक्षा सेवा में एसोशिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत.  

संपर्क : ए- 03, आफीसर्स कालोनी, टनकपुर रोड
अमाऊँ, पो० - खटीमा
जिला - ऊधमसिंह नगर  ( उत्तराखंड ) पिन :262308 मोबाइल - 9412905632

sidhshail@gmail.com 



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  1. सिद्धेश्वर सिंह की कविताए उद्वेलित करती हैं ।
    आपकी समालोचना के शब्द हृदयवान को गहरे तक झकझोर देते हैं ।
    निश्चित ही यह कटृरता लोगों को मनोरोगी बना रही है ।

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  2. Atyant gahan kavitayen.aapki bhumika bahut sashakt aur praasngik hai. Sholay film ko yaad karke bhawuk hum bhi huey..aabhar samalochan

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  3. स्त्री, नदी, अर्थ, यकीन सब कुछ टूटने के कगार पर. ऐसे में शब्दों के सच्चे अर्थ केवल शब्दकोश में ही मिल सकते हैं. क्या हम एक ऐसी दुनिया गढ़ रहे हैं जिसमें स्त्री, नदी केवल कविता और कहानियों में मिलेगी. सिद्धेश्वर जी की कविताएँ सरल और आईने सी साफ़ हैं, यदि हम अपना चेहरा देखना चाहें.

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  4. बहुत खूबसूरत रचनाएँ ,दिल को छूने वाली शोले,स्त्री पर कविता,,यूटोपिया समस्त रचनाओं का भावपूर्ण चित्रण,,,सच्चे शब्द और सच्चे अर्थ

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  5. अच्छी कविताएं ऐसे लिखी जाती है । इनके भीतर विजन है । बधाई सिद्धेश्वर भाई ।

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  6. सिध्धेस्वर बड़ी मन्थरगति सी बहती नदी से अटकते कहते चलते हैं ।यही उनके कहन की सुंदरता है। और कहा आपको रोकता है टोकता है सीधा रास्ता नही देता ।

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  7. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-04-2017) को "बदला मिजाज मौसम का" (चर्चा अंक-2941) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  8. बहुत खूबसूरत रचनाएँ

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  9. बहुत सार्थक कवितायें:::::
    एक कवि की बेचैनी और बेबसी को जाहिर करती। इस दौर में मुझे इन कविताओं में कुछ राहत और आसरा दीखता है।

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  10. बहुत सुंदर कविताओं का संकलन

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  11. Pahali kavita bahut gahan..Stree ko ek maanviya ikkayi samajha jaaye aur uske astitw ko bhi.shukriya.

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