सबद भेद : ‘गोदान’ से ‘मोहन दास’ तक : संतोष अर्श





















प्रेमचंद के ‘गोदान’ और उदय प्रकाश के ‘मोहन दास’ के बीच समय का बड़ा फासला है पर इन कृतियों के पात्रों के जीवन स्तर में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है. तमाम तरह  के सामाजिक, धार्मिक, शासकीय, वैश्विक प्रपंचों में ये अब भी हलकान हैं लहूलुहान हैं.

अपनी  तीक्ष्ण और तार्किक दृष्टि से कृतियों की विवेचना के कारण चर्चा में आए संतोष अर्श का यह विवेचनात्मक आलेख उनकी आलोचना दृष्टि के सुगठित होने का प्रमाण देता है. इस आलेख में होरी और मोहनदास के बीच फैला हुआ हमारा ही समय है.


गोदान से मोहन दास तक किसानों की त्रासदी                       

संतोष अर्श 


‘Farming is a profession of hope.’ ____Brian Brett


गोदान (मुंशी प्रेमचंद- 1936) और मोहन दास (उदय प्रकाश- 2006) के प्रकाशन वर्षों के मध्य सत्तर वर्षों का फ़ासला है. गोदान औपनिवेशिक भारत के किसान जीवन पर लिखी गई तीन सौ से अधिक पुस्तकीय पृष्ठों की महाकाव्यात्मक औपन्यासिक कृति है. निर्विवाद रूप से यह हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठ उपन्यास है जो औपनिवेशिक भारतीय किसान जीवन का रचनात्मक यथार्थ प्रस्तुत करता है. वहीं भूमंडलीकृत भारत की रचना मोहन दास लगभग अस्सी-नब्बे पृष्ठों की लंबी कहानी है जिसे उपन्यासिका कहने में कोई हर्ज़ नहीं होनी चाहिए. मोहन दास का कथानक क्षेत्र मध्य प्रदेश जिला अनूपपुर का है. गोदान का कथानक क्षेत्र अवध के सीतापुर-शाहजहाँपुर जनपदों को माना जाता है जिस पर मतांतर हो सकते हैं. गोदान के दूसरे प्रकरण में लेखक ने स्वयं लिखा है:
“सेमरी और बेलारी दोनों अवध-प्रांत के गाँव हैं. जिले का नाम बताने की कोई ज़रूरत नहीं.”  (गोदान)  

गोदान का नायक होरीराम महतो है. अवध में महतो (अवधी में महतव) लक़ब उपाधि के रूप में दो ही जातियों के साथ जुड़ता है एक कुर्मी और दूसरी अहीर. गोदान के पात्र भोला के साथ लेखक ने ग्वाला और अहीर शब्द का प्रयोग किया है इसलिए होरी का कुर्मी होना पुष्ट हो जाता है. गोदान के शीर्षस्थ और बेहतरीन व्याख्याकार गोपाल राय ने होरी महतो को कुर्मी जाति का नायक होना स्वीकार किया है. मोहन दास के नायक मोहना की जाति भी उदय प्रकाश ने स्पष्ट की है. उन्होंने अपनी कृति मोहन दास के नायक का बंसोर होना स्वीकार किया है. संजीव खुदशाह ने अपनी पुस्तक आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग में बंसोर को अति-पिछड़ी उत्पादक जाति के रूप में वर्गीकृत किया है. मोहनदास का परिचय उपन्यास में इस तरह दिया गया है:
“मोहनदास बल्द काबा दास जाति विश्वकर्मा, साकिन पुरबनरा, थाना और जिला अनूपपुर, मध्य प्रदेश.” (मोहन दास)

उत्तर-मण्डल रचना होने के बाद भी मोहन दास की जाति को लेकर एक अस्पष्टता कथानक में दिखाई देती है. वास्तव में ऐसा इसलिए है कि भारतीय समाज हज़ारों जातियों में विभक्त रहा है, और संवैधानिक उपचारों के दायरे में लाने के उपक्रम में बहुत सी जातियाँ इधर-उधर हो गईं. उदय प्रकाश ने मोहन दास के कथानक में एक अन्य स्थान पर लिखा है:
“गाँव में वैसे भी कबीरपंथी बंसहर-पलिहा नीची जात के माने जाते थे. वे अनुसूचित जाति के हैं या आदिवासी या आदिम जनजाति, अभी तक सरकारी गजेट में यह स्पष्ट नहीं था. दस साल पहले हुई जन-गणना में उनकी जाति के आगे सिर्फ़ बंसोर या पलिहा लिखा हुआ था. दूसरे कागज़ात में धर्म हिंदू और राष्ट्रीयता भारतीय.”    (मोहन दास)       

जाति के आधार पर समाज का बँटवारा नितांत अवैज्ञानिक है, किंतु भारतीय समाज की संरचना जाति आधारित है. जिसमें परंपरागत रूप से उत्पादक और अनुत्पादक जातियों को चिह्नित किया जा सकता है. गोदान और मोहन दास में लंबा समयान्तर होने के बावज़ूद दोनों ही रचनाओं में ब्राह्मणवादी पूँजीवाद के चंगुल में फँसा हुआ भारत का बृहत् उत्पादक समाज है. एक ओर औपनिवेशिक ब्राह्मणवादी महाजनी सभ्यता का मारा हुआ होरी है, दूसरी तरफ़ भूमंडलीकृत ब्राह्मणवादी पूँजीवाद का मारा हुआ मोहन दास है. होरी की तबाही के पीछे ब्रिटिश राज और ब्राह्मणवादी महाजनी सभ्यता की अत्यंत शोषणकारी व्यवस्था है और मोहन दास की किसान आइडेंटिटी चोरी करने में वैश्विक अमरीकी अर्थव्यवस्था और भारतीय ब्राह्मणवाद का मणिकांचन योग है.     

गोदान और मोहन दास दोनों में गाँधीवाद की व्यंग्यात्मक अनुगूँज भी है. गोदान का नायक होरी अपने खेत गँवा कर मजूर बनता है और मज़दूरी करते हुए मर जाता है. सुतली कात कर कमाए गए बीस आने पैसे से उसका गोदान करा के प्रेमचंद यह बता देते हैं कि गाँधीवाद से मोहभंग हो गया है. उदय प्रकाश अपने नायक मोहन दास का नामकरण गाँधीवाद की व्यंजना के लिए करते हैं क्योंकि मोहन दास के परिवार का नाम उन्होंने राष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गाँधी के परिवार के नाम पर किया है. मोहन दास में लेखक ने मोहन दास के पिता का नाम काबा दास, माता का नाम पुतली और पत्नी का नाम कस्तूरी रखा है. उदय प्रकाश अपनी रचनाओं के शिल्प को और चमकाने के लिए पात्रों के नामकरण में लक्षित सजगता बरतते हैं. जबकि प्रेमचंद धनिया, झुनिया, सिलिया, चुहिया कुछ भी नाम दे देते हैं. होरी की त्रासदीपूर्ण मौत मोहन दास में जा कर और भी बड़ी त्रासदी बन जाती है. मोहन दास की नौकरी और उसकी पहचान छीन कर उसे विक्षिप्त अवस्था में पहुँचा दिया गया है. होरी और मोहन दास दोनों ही उत्पादक जाति के नायक हैं. जिस प्रकार कर्ज़ में डूबा हुआ होरी कभी बाँस बेच कर या सुतली कात कर मामूली अर्थोपार्जन के प्रयास करता है उसी प्रकार मोहन दास भी सब्जियों की खेती करके या बाँस की टोकरियाँ और चटाई बुन कर आर्थिक उत्पादन के यत्न करता है. 


(प्रेमचंद)

फ़र्क़ यह है कि होरी धर्मभीरु अशिक्षित किसान है और मोहन दास फर्स्ट क्लास बी.ए. पास है. बी.ए. पास मोहन दास नौकरी भी प्राप्त कर लेता है, लेकिन वह नौकरी दसवीं फेल विश्वनाथ तिवारी (जिसे व्यंजना में उदय प्रकाश बिसनाथ लिखते हैं) ब्राह्मणवादी नेक्सस के बल पर हड़प लेता है और फ़र्ज़ी मोहन दास बन कर आपराधिक ढंग से उसकी नौकरी करते हुए सुख-सुविधाएँ भोगता है. बी.ए. पास मोहन दास को पुनः जीविका के लिए अपनी छोटी सी जोत की कृषि की ओर लौटना पड़ता है. जो कठिना नदी के पानी के ऊपर निर्भर है. अपने साथ हो रहे अन्याय और नौकरी हड़प लिए जाने के कारण मोहन दास की ज़िंदगी तनाव में गुज़र रही है. उस तनाव में भी वह ज़िंदा रहने के लिए कृषि करता है:
“मोहन दास उस रात खाना खाने के बाद घर में नहीं सोया. कस्तूरी से सुबह लौटने की कह कर, कंधे पर कुदाल और रोपा टाँग कर वह कठिना नदी के तट पर चला आया और सारी रात किसी पागल प्रेत की तरह मतीरा, खरबूज, लौकी, तरबूज, टमाटर, भाँटा, ककड़ी लगाने के लिए पलिया बनाने में लगा रहा. सुबह साढ़े चार बजे के आस-पास, जब उत्तर में ध्रुव तारा पूरी आभा में, दूसरे तारों के एक-एक कर निष्प्रभ होकर बुझ जाने के बावजूद, चमक रहा था, मोहन दास ने अपने ललाट और छाती के पसीने को पोंछा और धीरे-धीरे रेंगता हुआ कठिना की धार में खड़ा हो गया. अंजुली में पानी भर कर उसने अपने सिर पर छींटा मारा और दोनों हाथ जोड़ कर भरे गले से कहा- बस तुम भर आंखी मत काढ़ना कठिना माई. तुम्हें मलइहा माई की किरिया. मेरे बेटे देव दास की किरिया....मेरे पसीने की उपज से अपने पेट की जठर आगी मत बुझाना कठिना माई...! नहीं तो...दयऊ की कसम, बीच असाढ़ तुम्हारी धार में बाल-बच्चा समेत कूद कर तुम्हारा पेट मैं भरूँगा...!” (मोहन दास)

मोहन दास का यह प्रसंग अत्यंत मार्मिक और त्रासदीपूर्ण है जब फर्स्ट क्लास स्नातक युवा किसान एक नदी से प्रार्थना कर रहा है कि अगर उसने उसकी फ़सल का ध्यान नहीं रखा तो परिवार के साथ उसी में कूद कर आत्महत्या कर लेगा. यह 2005 का किसान है. यहाँ किसानी और शिक्षा दोनों में नाकाम होने की आयरनी है. मोहन दास के उपर्युक्त मनोवैज्ञानिक उद्धरण से पता चलता है कि, किसान किन परिस्थितियों में आत्महत्या करता है. गोदान का होरी कातर होता है, क़र्ज़ में फँसा हुआ छटपटाता है किन्तु आत्महत्या करने की नहीं सोचता. संभवतः सोचता, लेकिन उसकी त्रासद मृत्यु हो जाती है.

गोदान का होरी केवल औपनिवेशिक महाजनी सभ्यता का और मोहन दास का मोहना केवल भूमंडलीकृत पूँजीवाद का मारा नहीं है. वे दोनों ब्राह्मणवाद के मारे भी हैं. सूद सहित अपना रुपया वसूलने के लिए पंडित नोखेराम एक ओर होरी की तीन बीघे ज़मीन पर नज़र गड़ाए हुए था और अंततः बेदख़ली का मुकदमा ही कर देता है. दूसरी तरफ़ पंडित दातादीन है जो होरी की बेटी रूपा का ब्याह होरी की उम्र के अधेड़ रामसेवक से कराने के लिए लोमड़ी की तरह घात लगाए हुए है क्योंकि उसमें उसे दलाली की राशि मिलने का स्वार्थ है. तनावग्रस्त होरी को बरगलाने और अपना मंसूबा पूरा करने के लिए पंडित दातादीन जब होरी के यहाँ आता है तो उसे समझाने में धर्म और राम कथा का पूरा प्रयोग करता है. तमाम सामाजिक आंदोलनों और फूले-अम्बेडकर-पेरियार जैसी विभूतियों के होने के बाद भी भारत की पिछड़ी जातियाँ आज तक धर्म के ब्राह्मणवादी शोषक पंजों से बच नहीं पाईं. धर्म के नाम पर वे हमेशा अमानवीय शोषण का शिकार रहे हैं. आज भी ठगे जा रहे हैं. गोदान में पंडित दातादीन होरी की बेटी का ब्याह बूढ़े रामसेवक से करवाना चाहता है क्योंकि उसके इसमें निहित स्वार्थ हैं. इन निहित स्वार्थों को पूर्ण करने हेतु अपने वाग्जाल में धर्मभीरु होरी को फाँसने और उसका ब्रेनवॉश करने के लिए वह धर्म और रामकथा को टूल बनाता है. प्रेमचंद ने दातादीन के मुँह से क्या ख़ूब कहलाया है, निश्चित ही यह व्यंग्य है:
“निराश होने की कोई बात नहीं. बस, इतना ही समझ लो कि सुख में आदमी का धरम कुछ और होता है, दु:ख में कुछ और. सुख में आदमी दान देता है, मगर दु:ख में भीख तक माँगता है. उस समय आदमी का यही धरम हो जाता है. शरीर अच्छा रहता है तो हम बिना असनान पूजा किए मुँह में पानी भी नहीं डालते; लेकिन बीमार हो जाते हैं, तो बिना नहाये-धोए, कपड़े पहने, खाट पर बैठे पथ्य लेते हैं. उस समय का यही धरम है. यहाँ हममें-तुममें कितना भेद है; लेकिन जगन्नाथपुरी में कोई भेद नहीं रहता. ऊँचे-नीचे सभी एक पंगत में बैठ कर खाते हैं. आपत्काल में श्रीरामचंद्र ने सेवरी के जूठे फल खाये थे, बालि का छिपकर बध किया था. जब संकट में बड़े-बड़ों की मर्यादा टूट जाती है, तो हमारी तुम्हारी कौन बात है ? रामसेवक महतो को तो जानते हो न ?  (गोदान)

पंडित दातादीन अपने काम की बात कहने के लिए धर्म, सुख-दु:ख, जगन्नाथपुरी और रामकथा की लंबी भूमिका बाँधता है और अंत में अपने निहित स्वार्थ की बात कहता है- रामसेवक महतो को तो जानते हो न ? फूले, अम्बेडकर से लेकर उत्तर-आधुनिक विचारकों तक ने ब्राह्मणवाद को दुनिया की सबसे अश्लील और ख़तरनाक विचारधारा इसीलिए कहा है. जिस वक़्त कर्ज़ग्रस्त होरी अपने परिवार की जीविका का एकमात्र आधार तीन बीघे ज़मीन की बेदख़ली का मुक़दमा और घोर विपन्नता का तनाव झेल रहा है, उस समय पंडित दातादीन उसकी बेटी का ब्याह एक अधेड़ से कराने के लिए उसे धर्म और रामकथा पर प्रवचन दे रहा है. वह अपने निहित स्वार्थ पूर्ण करने में कामयाब होता है, और अपनी बेटी रूपा का ब्याह होरी दो सौ रुपए लेकर अपनी उम्र के बूढ़े रामसेवक के साथ कर देता है. यह भारत के किसान जीवन का औपनिवेशिक यथार्थ था.

औपनिवेशिक काल का यह ब्राह्मणवाद भूमंडलीकृत इक्कीसवीं सदी में और अश्लील हो जाता है. मोहन दास की नौकरी विश्वनाथ हड़प लेता है और किस तरह हड़प लेता है, इसका बेहतरीन वर्णन उदय प्रकाश ने अपनी रचना में किया है. गोदान के ब्राह्मणवादी नेक्सस को इक्कीसवीं सदी में बेहद जीवंत ढंग से प्रस्तुत करने में उदय प्रकाश की यह रचना अत्यंत सफल हुई है, और यह इसकी बहुत बड़ी सफलता है. गोदान का होरी अपनी तीन बीघे ज़मीन और मरज़ाद गँवा कर एक बुरी, ट्रैजिक मौत मरता है लेकिन मोहन दास मरता नहीं है, वह इक्कीसवीं सदी के भारत के पूरे तंत्र को अपनी नंगी आंखों से देख कर विक्षिप्त हो जाता है. होरी की ज़मीन, मरज़ाद और ज़िंदगी छीनी जाती है, जिसका कारण अर्थशास्त्रीय दृष्टि से गोदान के कई आलोचकों ने औपनिवेशिक महाजनी व्यवस्था को माना है. प्रेमचंद का भी यही ख़याल था. मोहन दास अपनी नौकरी और आइडेंटिटी गँवाता नहीं है, उसे भी एक तंत्र छीन लेता है, लेकिन अब कारण बताने के लिए औपनिवेशिक व्यवस्था भी नहीं है. अब भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था का वह परिवेश है, जहाँ प्रत्येक नियंत्रण राष्ट्र-राज्य के हाथों से निकल कर विश्व बैंक के पास पहुँच चुका था. नेचर ऑफ सोसाइटी बताने के लिए उदय प्रकाश मोहन दास के विषय में बताते हैं:
“मोहन दास के बारे में लोग कहते हैं कि वह हमेशा कोई न कोई काम पकड़ कर रखता है क्योंकि उसे पानी पीने के लिए हर रोज एक नया कुआँ खोदना पड़ता है और खाने के लिए हर रोज़ रोटी की नयी फसल पैदा करनी पड़ती है.” (मोहन दास)

दूसरी ओर मोहन दास की नौकरी हड़पने वाले बिसनाथ का सपरिवार विवरण उदय प्रकाश देते हैं :
“बिछिया गाँव के बड़े किसान और जीवन बीमा निगम में बाबूगीरी करने वाले नागेन्द्रनाथ की कलेक्टर से लेकर मंत्री तक पहुँच और साख-रसूख है. दो बार ग्राम पंचायत के सरपंच और एक बार जिला जनपद के उपाध्यक्ष रह चुके हैं. बिसनाथ प्रसाद, जिसके एक साल के बेटे को शारदा संभालती है, इन्हीं नगेंद्रनाथ  के पाँच में से एक बेटा है. हालाँकि उसका असली नाम विश्वनाथ प्रसाद है, लेकिन गाँव के लोग उसे बिसनाथ ही बुलाते हैं और पीठ पीछे कहते हैं- असल करैत है, बिसनाथ. गज़ब का बिसधारी.”  (वही)

विश्वनाथ तिवारी भारतीय समाज के एक जहरीले नेक्सस या विचारधारा का प्रतीक है. होरी को अपने नेक्सस में फँसाकर उसका घर-बार, ज़मीन, मरजाद, जिंदगी छीन लेने वाला पंडित नोखेराम कारकुन, पंडित दातादीन, झिंगुरी सिंह, लाला पटेश्वरी जैसों का गिरोह ही मोहन दास को भी अपने नेक्सस के बल पर उसकी आइडेंटिटी और नौकरी न केवल छीन लेता है, उसे विक्षिप्तावस्था में पहुँचाने तक प्रताड़ित भी करता है. गोदान का वह नेक्सस मोहन दास में और विकसित हुआ है. यह भारतीय व्यवस्था का वह तंत्र था जिसमें वर्ग और जाति-विशेष के लोगों ने प्राथमिकता से अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था, जिसे समझ लिए जाने के बाद सवर्णतंत्र कहा जाने लगा. गोदान और मोहन दास के ये दोनों तरह के नेक्सस यह सिद्ध करते हैं कि भारतीय समाज सांस्कृतिक स्तर भी भ्रष्ट है और सांस्कृतिक स्तर का यह भ्रष्टाचार ही आर्थिक, राजनीतिक और तंत्र-आधारित भ्रष्टाचार में तब्दील हो जाता है.


इन दोनों रचनाओं में हम देखते हैं कि औपनिवेशिक भारत भी उतना ही भ्रष्ट था जितना इक्कीसवीं सदी का भूमंडलीकृत है. वास्तव में यह भारतीय समाज का सांस्कृतिक भ्रष्टाचार है जिसका ग़ुलामी, आज़ादी से कोई संबंध नहीं है. भारत के सांस्कृतिक भ्रष्टाचार की व्युत्पत्ति मनुवादी, ब्राह्मणवादी व्यवस्था से होती है. मोहन दास से हमें यह भी पता चलता है कि इन सत्तर वर्षों के भीतर भारत में और कुछ भी परिवर्तन हुए हों, किन्तु ब्राह्मणवाद का स्वरूप वैसा ही है. सत्तर वर्षों में नेचर ऑफ सोसाइटी में जो फ़र्क आया वो इतना था कि पंडित दातादीन जो उस वक़्त खुल कर कह सकते थे कि नीच जात लतियाए अच्छा अब विश्वनाथ तिवारी बन गया है, जो उल्टे बंसोर मोहन दास पर ही जातिवाद का आरोप लगा रहा है. यह दिलचस्प है कि भारतीय समाज का सबसे जातिवादी हिस्सा उनके जातिवाद के लंबे समय तक शिकार रहे लोगों पर जातिवादी होने का आरोप लगाता है. गोदान का दातादीन होरी की पत्नी धनिया के बारे में कहता है:
“मेरी आदत किसी की निंदा करने की नहीं है. संसार में क्या-क्या कुकर्म नहीं होता; अपने से क्या मतलब ? मगर वह राँड धनिया तो मुझसे लड़ने पर उतारू हो गई. भाइयों का हिस्सा दबाकर हाथ में चार पैसे क्या हो गए, तो अब कुपंथ से सिवा और क्या सूझेगी ? नीच जात, जहाँ पेट-भर रोटी खाई और टेढ़े चले, इसी से तो सासतरों में कहा है- नीच जात लतियाए अच्छा.”  (गोदान) 

गोदान का लाला पटेश्वरी मोहन दास में ओरिएंटल कोल माइंस का वेलफ़ेयर ऑफिसर ए. के. श्रीवास्तव बन गया है. जिसे अपनी पत्नी परोस कर विश्वनाथ तिवारी ग़लत जांच करवा लेता है और पकड़े जाने से बच जाता है. न केवल गलत जाँच करा लेता है बल्कि जाँच करने आए श्रीवास्तव से कहता है:
“मैं जानता हूँ किसकी कारस्तानी है ये. जातिवाद बहुत फैल रहा है आज कल. ये लोग अब सिर पर बैठेंगे. मैं जानता हूँ किसका किया कराया ये सारा खेल है, लेकिन जाने दीजिए. साँच को आँच क्या ? आप अपनी इंक्वायरी करिए बिल्कुल निष्पक्ष होकर.”    (मोहनदास)

सत्तर सालों में नेचर ऑफ सोसाइटी में यह बड़ा परिवर्तन है. नीच जात लतियाये अच्छा, ये लोग अब सिर पर बैठेंगे में बदल गया, यह परिवर्तन भी कुछ कम नहीं है. इस परिवर्तन के पीछे दलित-पिछड़ी जातियों और उनके नेताओं का राजनीतिक संघर्ष है. यद्यपि मोहन दास एक उत्तर-आधुनिक रचना है, तिस पर भी गोदान और मोहन दास में भाव-साम्य पैदा करने वाले प्रचुर तो नहीं, किन्तु कुछ तत्त्व अवश्य हैं. वस्तुतः दोनों रचनाओं में कुछ बुनियादी अंतर के साथ-साथ समय का भी बड़ा फ़र्क है. मोहन दास के सबइंस्पेक्टर विजय तिवारी का चरित्र देख कर गोदान के दारोगा गण्डा सिंह का अनायास ही स्मरण गंभीर पाठक को होना चाहिए. यह संयोग ही है कि उदय प्रकाश मोहन दास के ब्यौरों के मध्य प्रेमचंद का स्मरण कर उनका उल्लेख करते हैं. जो यों है:
“यहीं ठहरिए एक मिनट. आपको लग रहा होगा मैं हिन्दी के कथा सम्राट् मुंशी प्रेमचंद की सवा-सौवीं जयंती के अवसर पर समकालीन कहानी के बहाने आपको कोई सवा सौ साल पुराना किस्सा सुना रहा हूँ. लेकिन सच तो यह है कि ऐसी पिछड़ी हुई शैली, शिल्प और भाषा में जो ब्यौरा आपके सामने प्रस्तुत है, वह उसी समय का है जब 9-11 सितंबर हो चुका है और न्यूयार्क की दो इमारतों के गिरने की प्रतिक्रिया में एशिया के दो सार्वभौमिक, संप्रभुता संपन्न राष्ट्रों को धूल और मलबे में बदला जा चुका है.”   (वही)         

किसानों के शोषण में नौकरशाही की ख़ासी भूमिका होती है. गोदान की औपनिवेशिक नौकरशाही में भारतीय हैं, लेकिन वे ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में हैं. मोहन दास की उत्तर-आधुनिक ब्यूरोक्रेसी एक स्वतंत्र, विकासशील, संप्रभु राष्ट्र की ब्यूरोक्रेसी है, लेकिन किसानों के प्रति बर्ताव में दोनों में कुछ अधिक अंतर नहीं है. मोहन दास का सकारात्मक या उम्मीद पैदा करने वाला हिस्सा वह है, जिसमें दंडाधिकारी जी.एम. मुक्तिबोध जैसा चरित्र है. यानी इंसानियत पर भरोसा बना हुआ है. प्रेमचंद स्वयं कहते थे कि, प्रगतिशील होने की पहली शर्त इंसानियत पर भरोसा करना है. गोदान की औपनिवेशिक भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से कृषि पर निर्भर है, इसलिए नौकरशाही की सभी तरह की अतिरिक्त आय और सुविधाएँ भी किसान ही का ख़ून चूस कर पूर्ण होती थीं. मोहन दास की नौकरशाही पूँजीपति से नक़द रुपए लेकर कर्तव्य, न्याय और नैतिकता का गला घोटने वाली है. इस संदर्भ में इन दोनों रचनाकारों की सूक्ष्म समाजशास्त्रीय दृष्टि विशेष रूप से आलोच्य है. लेखक के ऐसे ऑब्जर्वेशन का नमूना कम दिखता है. गोदान में प्रेमचंद लिखते हैं:
“यहाँ जो किसान है, वह सबका नर्म चारा है. पटवारी का नज़राना और दस्तूरी न दे, तो गाँव में रहना मुश्किल. जमींदार के चपरासी और कारिंदों का पेट न भरे तो निबाह न हो. थानेदार और कानसिटिबल तो जैसे उसके दामाद हैं. जब उनका दौरा गाँव में हो जाए, किसानों का धरम है, वह उनका आदर-सत्कार करें, नज़र-नयाज़ दें, नहीं एक रिपोर्ट में गाँव का गाँव बंध जाए. कभी कानूनगो आते हैं, कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी कभी जंट, कभी कलक्टर, कभी कमिसनर. किसान को उनके सामने हाथ बाँधे हाज़िर रहना चाहिए.”  (गोदान)

मोहनदास में भी विश्वनाथ तिवारी रुपयों के बल पर पूरे सिस्टम को ख़रीद लेता है. पुलिस से लेकर गवाह तक. इस प्रसंग पर उदय प्रकाश ने भी भारतीय नौकरशाही के चरित्र का विवरण दिया है:
“विजय तिवारी खुद पुलिस की गाड़ी में बिसनाथ को बिठा कर पटवारियों को घूस पहुंचाने गया था. दरअसल, जैसी प्रशासनिक परिपाटी थी, उसमें कलेक्टर उर्फ जिलाधीश उर्फ़ डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट की इंक्वायरी का असली मतलब ही होता था- संबंधित तहसील या परगना के पटवारी द्वारा जाँच. अगर कोई अदालत कलेक्टर को किसी जाँच का आदेश देती थी, तो कलेक्टर नोट लगाकर उस आदेश को अपने मातहत, संबंधित इलाके के एस.डी.एम. को भेज देता था. एस.डी.एम. उसे तहसीलदार और तहसीलदार उसे नायब तहसीलदार के सुपुर्द कर देता था. इस तरह, रेवेन्यू इंस्पेक्टर उर्फ कानूनगो से होते हुए आखीर में वह आदेश पटवारी के पास पहुँच जाता था. यानी अंततः पटवारी ही कलेक्टर का आँख-नाक-कान बन जाता था.”   (मोहन दास)   

आज भी नौकरशाही का किसानों के प्रति रवैया बहुत बदल नहीं पाया है. अब जब इंजीनियरिंग और प्रबंधन पढ़ कर आने वाले ज़िलाधीश आने लगे हैं, तब समस्या और भी बढ़ गयी है. अंग्रेज़ी शिक्षित ये उच्चमध्यवर्गीय नौकरशाह खेती-किसानी के बारे में कितना जानते होंगे ? और इनमें भी तमाम उस वर्ग-वर्ण के होते हैं जिनके दादों-परदादों के समय से हल की मूठ छूने की मिथकीय मनाही है. रियल स्टेट के बिज़नेस और भू-माफ़ियाओं के उद्भव के साथ किसानों की स्थिति मछ्ली जैसी हो गई, जिसमें नौकरशाहों के साथ मिलकर, कांटें में केंचुआ लगाकर उन्हें फंसाया जाने लगा. कृषि योग्य भूमि की प्लाटिंग के लिए राजस्वकर्मियों से लेकर जिलधीशों तक को भूमाफ़ियाओं ने ख़रीदना शुरू किया और कृषि योग्य भूमि धड़ाधड़ आबादी की ज़मीन में बदली जाने लगी. 

भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद से निजीकरण तीव्र हुआ और SEZ के तहत भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया भी किसानों के लिए एक चुनौती साबित हुई. इसका परिणाम छोटे-छोटे किसान आंदोलनों के रूप में सामने आया. हम आए दिन सुनते रहते हैं कि फलाँ स्थान पर किसानों पर गोली चल गयी और इतने किसान मर गए. अपने देश के किसानों पर गोली चलाने का आदेश देने वाले नौकरशाह भले ही सत्ता के नुमाइंदे हों लेकिन भारतीय किसानों की ज़मीन की देशी-विदेशी लूट में वे भी उत्साह से शरीक़ हैं. शहर से लगे हुए गाँवों के पास कृषि योग्य ज़मीन की जैसी ख़रीद-फ़रोख्त पिछले एक दशक में हुई है, वह नौकरशाहों और भू-माफियाओं की संयुक्त लूट रही है. जिसमें छोटा किसान मजूर में बदल कर विलुप्त हो गया. शहर विस्तृत होते रहे और महानगरों में विस्थापित मजूरों, फुटपाथ पर सोने वालों की आबादी बढ़ती गयी.

स्वतन्त्रता पश्चात भारतीय किसानों के मद्दे-नज़र तीन पड़ाव महत्वपूर्ण हैं. पहला आज़ादी के बाद जमींदारी उन्मूलन. दूसरा हरित क्रान्ति. और तीसरा भू-मंडलीकरण और उदारीकरण. ज़मींदारी उन्मूलन का सौ फ़ीसदी पूर्णता के साथ क्रियान्वयन नहीं हो सका. इसमें सवर्णों और कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों के हाथ ही लंबी जोतें लगीं. मोहन दास के मोहना बंसोर जैसी अतिपिछड़ी जातियों के हिस्से में छोटी-मोटी तालाब या नदी के किनारे की जोतें आयीं. हम देखते हैं कि मोहन दास कठिना नदी के किनारे सब्ज़ी की खेती करता है. नदी में थोड़ी सी बाढ़ आई कि सारी मेहनत बह गई. इस पर अदम गोंडवी ने कभी बेहतरीन शेर कहा था-
“खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में.”
(उदय प्रकाश)



असल में मोहन दास जैसे लोगों को पट्टे की सनद ताल (तालाब) में या नदी की तराई में मिल रही थी. उन्हें उसी में मर-खप जाना था. हरित क्रान्ति के बाद खाद्यान्न संकट समाप्त हो गया और उत्पादन भी बढ़ गया. किन्तु भूमंडलीकरण के बाद से स्थिति बिगड़ गयी और मोहन दास बंसोर या होरी जैसे छोटी जोत वाले किसान पटापट आत्महत्या करने लगे. नवंबर 2005 में विख्यात पत्रकार पी. साईंनाथ ने दि हिन्दू की अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि, वर्ष 1997 से 2005 के मध्य प्रत्येक आधे घंटे में एक भारतीय किसान आत्महत्या कर रहा था. यह ख़बर संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्वबैंक तक पहुँची थी. इन किसानों में अधिकतर मामूली कर्ज़दार होते थे. यह तथ्य उछाले जाने पर कि ये किसान महाजनों से महँगे सूद पर कर्ज़ लेते हैं, इंडियन एक्सप्रेस ने रिपोर्ट लगाई कि आत्महत्या करने वाले किसानों में से 80 प्रतिशत राष्ट्रीय बैंकों के कर्ज़दार होते हैं.

भारतीय इतिहास में किसानों की सर्वाधिक आत्महत्या वाला वर्ष 2004 है. आँकड़ों के अनुसार इस वर्ष 18,241 किसानों ने आत्महत्या की थी. यह मोहन दास के रचनाकाल के आस-पास का समय भी है. मोहन दास कहानी के रूप में 2005 में हंस में छप चुका था. 2006 में पुस्तकाकार छप कर आया. वह रचना कालजीवी होती है जिसमें अपने समय की अभिव्यक्ति होती है. उससे एक बारीक़ किन्तु साफ़ इतिहासबोध उत्पन्न होता है. उदय प्रकाश अपने समय की नब्ज़ पकड़कर चलने वाले रचनाकार हैं. मोहन दास में किसान आत्महत्याओं का उद्धरण मिलता भी है:
“घनश्याम ऐसे ही लोगों में से एक था. जात से कुर्मी था. हालाँकि वह ग़रीब नहीं था. तीस बीघे की खेती थी. बैंक से किस्तों पर उसने ट्रैक्टर ले रखा था. शाक-सब्ज़ी वगैरह उगाने के अलावा वह अपना ट्रैक्टर किराये पर उठाता. तब भी हर महीने साढ़े साथ हज़ार की किस्त पटा पाना उसके लिए मुश्किल होता. खेत में पैदा होने वाले अनाज और दूसरी फसलों की क़ीमत ही बाज़ार में नहीं रह गयी थी. पास के गाँव बलबहरा का बिसेसर, जिसने ग्रामीण बैंक से कर्ज़ लेकर सोयाबीन की खेती की थी, दो महीना पहले अपने खेत की नीलामी से बचने के लिए बिजली के खंभे पर चढ़ कर नंगी तार से चिपक कर मर गया था. छोटे किसान और खेत मज़दूर गाँव छोड़-छोड़ कर शहर भाग रहे थे.”  (मोहन दास)   

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि ज़मींदारी उन्मूलन के बाद कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों के हिस्से अच्छी और बड़ी जोतें आईं. लेकिन भूमंडलीकरण के बाद बिसेसर जैसे किसानों ने ख़ुदकुशी करनी शुरू कर दी. वर्ष 2004 में 18241 किसानों की आत्महत्या सही मायनों में केंद्र की तत्कालीन एनडीए सरकार की भयानक निजीकरण की नीति का परिणाम थी. भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया छोटे किसान के लिए मरीचिका जैसी थी. वैश्विक अर्थव्यवस्था ने भारतीय कृषि को पीट दिया था. 2004 में सत्ता परिवर्तन होता है और यूपीए-1 सरकार किसानों की ओर ध्यान देना शुरू करती है. 2005 में मनरेगा (राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना) एक्ट बनता है और फरवरी 2006 में उसे लागू कर दिया जाता है. दिलचस्प तथ्य है कि 1991 में ही नरेगा का प्रस्ताव पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में रखा जा चुका था. जिसे 2014 की डबल्यूडीआर (विश्व विकास रिपोर्ट) में विश्व बैंक ने “Stellar example of rural development” (ग्रामीण विकास की उत्कृष्ट योजना) कहा था. जिसे 2014 में भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री ने कांग्रेस की असफलताओं का स्मारक कहा था, भले ही उनके सामने इस योजना को ज़ारी रखने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था और उनके कार्यकाल में किसानों की आत्महत्या में 42 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई.

नवंबर 2007 में पी. साईनाथ ने पुनः दि हिन्दू में लिखा कि महाराष्ट्र राज्य किसानों की क़ब्रगाह बन गया है, जहाँ एक दशक में लगभग 30000 किसानों ने आत्महत्या की. इसी क्रम में यूपीए-2 सरकार ने 2008-9 के बजट में 60000 करोड़ रुपए की क़र्ज़माफ़ी का प्रावधान किया जिससे लगभग 3 करोड़ होरी और मोहन दास जैसे छोटी जोत के किसानों को लाभ पहुँचने का अनुमान था. लेकिन यह प्रयास नाकाफ़ी हुए. एनसीआरबी की मानें तो कृषि क्षेत्र में वर्ष 2013 में 11,772, 2014 में 12360 और 2015 में 12602 किसान आत्महत्याएँ हुईं. सरकारों की क़र्ज़माफ़ी और किसानों की आत्महत्या बदस्तूर ज़ारी है. इन दिनों किसानों की आय दोगुनी करने की बात भी राजनीतिक परिवेश पर छायी हुई है.

किसानों की आत्महत्या के पीछे सांस्कृतिक और सामाजिक कारण भी होते हैं. जैसा कि हम गोदान और मोहन दास में देखते हैं. तीन बीघे की जोत वाला औपनिवेशिक किसान होरी अपने बेटे गोबर को शिक्षा नहीं दे पाया और वह लखनऊ भाग कर मजूर बन गया. उन दिनों होरी के लिए उसको पढ़ा-लिखा सकना मुमकिन भी नहीं था. किन्तु कठिना नदी की तराई में सब्ज़ी उगाने और बांस की टोकरियाँ बनाने वाला काबा दास जिसे टीबी हो गई है, वह किसी तरह मोहन दास को पढ़ा लेता है. यह दीगर बात है कि काबा दास के जीते जी उसका बेटा नौकरी नहीं पा सका, और क्षयग्रस्त, निराश काबा दास खून खाँसते-थूकते मर गया. यह होरी से भी बुरी और त्रासद मृत्यु है. मोहन दास प्रतिभाशाली है और वह प्रथम श्रेणी में स्नातक होने के बाद एक कोल माइंस कंपनी में क्लर्क की नौकरी की लिखित परीक्षा भी पास कर लेता है और उसकी नियुक्ति होती इसके बीच में ब्राह्मणवाद घुस कर उसकी नौकरी हड़प लेता है. यदि हम कालक्रम और वर्ग की दृष्टि से देखें तो मोहन दास होरी के बेटे गोबर के बेटे मंगल के बेटे का बेटा होगा. क्योंकि इनके बीच में सत्तर सालों का फ़र्क है. लेकिन जाति के आधार पर देखें तो मोहन दास उस बंसोर चौधरी की पीढ़ियों का निकलेगा जिसे होरी अपने बांस बेचता है और मारते-मारते छोड़ता है.

प्रेमचंद लिखते हैं कि, किसान पक्का स्वार्थी होता है. इस बात से असहमत होने के बहुत से तार्किक कारण हैं. यह प्रेमचंद का एक लूज़ स्टेटमेंट है. इसे प्रेमचंद के किसान वर्ग से न होने की विवशता माना जा सकता है. सत्य यह है कि उत्तम खेती, मद्धम बान की संस्कृति वाला भारतीय किसान स्वाभिमान और आत्मसम्मान से भरा होता है. इसका उदाहरण हम तब देखते हैं जब मजूर बन गए होरी से पंडित दातादीन मजूरी करवाता है. होरी जो कभी किसान था, उससे दातादीन बँधुआ मजूरों जैसा बर्ताव करता है और उसकी बातों के आघात से होरी की हालत बिगड़ जाती है. तब एक हलवाहा दातादीन से कहता है:
“मालिक, तुम्हें ऐसी बात न करनी चाहिए, जो आदमी को लग जाए. पानी मरते ही मरते तो मरेगा.”  (गोदान)

भारतीय किसान सांस्कृतिक रूप से पानीदार होता है. इससे पहले जब पंडित दातादीन होरी की पत्नी धनिया से कहता है कि, यही हाल रहा तो भीख भी मँगोगी. तब धनिया ब्राह्मण दातादीन से कहती है कि, भीख मांगो तुम, जो भिखमंगे की जात हो. हम तो मजूर ठहरे, जहाँ काम करेंगे वहीं चार पैसे मिल जाएँगे. एक तरफ़ धनिया का कृषक-स्त्री स्वाभिमान है, जो ब्राह्मण दातादीन को तमक कर जवाब देता है, दूसरी ओर होरी का ग़मखोर स्वाभिमान है जिसे हालात की चोट मरणासन्न कर देती है. यह किसान से मजूर बनने की भयानक त्रासदी है.

होरी जैसे बहुत से किसानों ने भारत में आत्महत्या की होगी. धीरे-धीरे तो छोटी जोत वाले किसानों का कृषि से मोहभंग ही हो गया. वैश्विक अर्थव्यवस्था ने छोटे किसान के जीवन का अंत कर दिया. लेकिन वे मजूर बनने के सिवा करेंगे क्या ? मोहन दास जैसे कुछ कृषक-युवा पढ़-लिख कर नौकरी लेने जाएँगे तो बिसनाथ रूपी तंत्र नौकरी के साथ उनकी आइडेंटिटी भी छीन लेगा. मोहन दास पर हंस में आई किसी टिप्पणी में किसी ने लिखा था कि मोहन दास किसी भी जाति का हो सकता है, केवल बंसोर पलिहा जाति का नहीं. इससे असहमति जताई जा सकती है. भूमंडलीकरण के बाद से जैसे-जैसे निजी क्षेत्रों में रोज़गार की समृद्धि आई और मध्यवर्गीय लोगों की क्रय क्षमता में बढ़ोत्तरी हुई, गाँवों में रहने वाली सवर्ण आबादी शहरों की ओर भागने लगी. 

और अब इक्कीसवीं सदी का डेढ़ दशक बीतने के बाद सवर्ण आबादी शहरों में पूरी तरह स्थापित हो चुकी है. खेती जैसा घाटे का सौदा करने और गाँवों में रहने वाले मोहन दास जैसे छोटी जोत के किसानों के लिए अवसर अब बहुत कम हो चुके हैं. नौकरियाँ निजी क्षेत्रों में अधिक हैं जहाँ मोहन दास की एंट्री नहीं हो सकती. सार्वजनिक क्षेत्र का सिस्टम बिसनाथ है, जहाँ उसकी अस्मिता ही लील ली जाएगी. इसलिए अभी मोहन दास बंसोर पलिहा जाति का ही होगा. और उसके सामने आत्महत्या करने या विक्षिप्त हो जाने की त्रासदी खड़ी होगी. 
(संतोष अर्श)

भूमंडलीकरण के पच्चीस वर्षों में या उससे पहले आत्महत्या करने वाले अधिकतर किसान किस जाति के रहे होंगे ? वे या तो तीन बीघे में ऊख-जौ-मटर बोने वाले, कर्ज़ग्रस्त, कुर्मी जाति के होरी महतो रहे होंगे या कठिना की तराई में ककड़ी, खरबूज और मतीरा बोने वाले बंसोर, पलिहा मोहन दास. अब भारतीय किसानों के जीवन और उनकी अस्मिता की चोरी में वैश्विक आर्थिक तंत्र और ब्राह्मणवादी भारतीय पूँजीवाद की समान भागीदारी है.    
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  1. बहुत ही उम्दा विश्लेशण है। इतने सारे आयामों पर रोशनी डालना सचमुच इन कृतियों की कई परतों को खोलता है। अक्सर मुझे लगता था कि हिंदी साहित्य अत्यधिक generalization का शिकार होता है इसलिए प्रभावी नहीं हो पाता। जैसा कि आपने लिखा ही है कि ज्यादा कुछ नहीं बदला। पर दरअसल मेरा आंकलन सही नहीं है। specific होने के लिए पंक्तियों और पैराग्राफों के मध्य बहुत कुछ पढ़ना पङता है, समझना पङता है।
    इस सारगर्भित लेख के लिए बधाई।

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  2. भारतीय दलित यथार्थ का यह भयानक त्रासद चेहरा है, जो बावजूद तमाम योजनाओं, आरक्षणों के अभी भी मौजूद है. दलितों की सामजिक आर्थिक उन्नति के लिए जिस ढांचे की जरुरत है, ब्राह्मणवादी, ब्राह्मणवर्चस्ववादी राज्य-सत्ता उसे अस्तित्व में लाना ही नहीं चाहती. सदियों के दमन और शोषण के बाद जो स्थिति बनी उसमें व्यक्ति की पहचान को गुम करके उसके अस्तिव को पूरी तरह मिटाने का काम आज भी जारी है. मौजूदा हिन्दुत्वादी-ब्राह्मणवादी राज्य-व्यवस्था ने प्रतिभा, योग्यता को छीनकर समाज की एक बृहद आबादी का जीवन निर्वासित करने की गहरी साजिश रच रखी है . एक समूचे जाति-समुदाय का सामाजिक आर्थिक अधिकार छीनकर उसे निर्जन, निर्वासन और गुमनामी का जीवन जीने को विवश करती यह राज्य-व्यवस्था 'मोहन दास' की ही कहानी दोहराती है दरअसल. 'मोहन दास' वास्तविक यथार्थ के साथ एक प्रतीक कथा भी है. भाई संतोष को हार्दिक बधाई इस आलेख के लिए .

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  3. एक अच्छे लेख के लिए बधाई | हमारे समाज की काली सच्चाई मनुवादी लेखकों को नहीं दिखाई देती वे हमेश स्वर्णिम साहित्य जो कि 'भक्ति से उदित होकर भगवान पर खत्म होता है |' की खोज परख करते रहते हैं |

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  4. हम जब पिछड़े जाति के विषय में लिखते हैं, तो मात्र लिखते ही नहीं कुछ समय के लिए संबंधित समय और पात्रों के बीच पहुंचते भी हैं। यह लेख अर्श सन्तोष जी का एक बेहतरीन उदाहरण है, जिमसें वे जाति, धर्म, किसान जीवन आदि की व्याख्या उनके बीच खड़े होकर करते हैं। किसानी उपज में लालफीताशाही आज भी कम नहीं हुई है। धान क्रय केंद्र पर जो शर्त रखी जाती है ब्रिटिश शासन की याद दिलाती है बस उसका आधुनिकीकरण हो गया है- 'गेहूं के लिये ऑनलाइन पंजीकरण कराईये उसके बाद खूब ओसा बना के केंद्र लेकर जाईये। वहां पर आपके धान में प्रति कुंतल 67 प्रतिशत चावल पड़ने चाहिए अनयथा वापस। इस प्रक्रिया में लगभग 90 प्रतिशत किसानों का धान वापस हो जाता है। वापस आने पर घर के लोग मायूस होकर पूछते हैं कि नहीं बिका? बैठ कर जोड़ौती करते हैं कि पंजीकरण, मजदूरी और लेकर जाने में भाड़े सहित कुल कितना खर्च हुआ, जिससे उधार लिए गए रुपये को वापस कर सकें। इन्ही कारणों से किसान आज भी गांव में ही सस्ती फसल बेचने पर मजबूर हैं।' इस विषय में सन्तोष जी का विचार संगत प्रतीत होता है कि-
    "किसानों के शोषण में नौकरशाही की ख़ासी भूमिका होती है. गोदान की औपनिवेशिक नौकरशाही में भारतीय हैं, लेकिन वे ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में हैं. मोहन दास की उत्तर-आधुनिक ब्यूरोक्रेसी एक स्वतंत्र, विकासशील, संप्रभु राष्ट्र की ब्यूरोक्रेसी है, लेकिन किसानों के प्रति बर्ताव में दोनों में कुछ अधिक अंतर नहीं है. "

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  5. किसान जीवन की त्रासद घटनाएं,विषम परिस्थितयां अनेक समस्याओं और मुश्किलो से लबालब हैं आज भी गाँव के किसान जीतोड़ मेहनत करने के बावजूद भी उचित मुनाफा नही प्राप्त कर पाते हैं बैंक से कर्ज लेकर ठेके पर फसल उगाते हैं, क्रेडिट कार्ड का लोन साल दर साल बढ़ता जाता है। जहां अपनी फसल को बेचने के लिये गाँव इतने पिछड़े हैं कि क्रय-विक्रय का सवाल ही नही बनता जिससे लालफीताशाही से बचा जा सके । जहां शिक्षा भी नाम मात्र की करायी जाती हैं ताकि सड़को पर चलना आ जाये,फसलों की कम कीमत किसानों को मजदूर बनाये रखती हैं हर साल।
    जहां चीनी मील भी गन्ना पर्ची अपनी मनमर्जी से लगाकर भेजती है हर साल नई गन्ना-वैराइटी की मांग की जाती है और कोई न कोई वैराइटी साल भर में फेल कर दी जाती है।जहां मीलों में 3-3 दिनों बाद पड़े रहने पर तुलाई करायी जाती हैं।
    ऐसी बहुत सी परेशानियां किसानों को लाचार बनाकर रखी हैं।

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