कथा - गाथा : संझा : किरण सिंह









कथाकार किरण सिंह की कहानी ‘संझा’ दो लिंगों में विभक्त समाज में उभय लिंग (ट्रांसजेंडर) की त्रासद उपस्थिति की विडम्बनात्मक कथा है.  इसे ‘रमाकांत स्मृति पुरस्कार’ और प्रथम ‘हंस कथा सम्मान’ से सम्मानित किया जा चुका है.  इस कहानी पर आधारित कुछ  रंगमंचीय प्रस्तुतियाँ भी हुई हैं.

कथा- आलोचक   राकेश बिहारी ने अपने चर्चित स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी”  के १८ वें क्रम में इस कहानी का चुनाव विवेचन – विश्लेषण के लिया किया है. अपने इस श्रृंखला में उन्होंने कहानियों के चयन में अलग- अलग विषय वस्तुओं का  ख्याल रखा है.  

‘उभय लिंग’  मनुष्य सभ्यता के ही ‘अंग’ हैं. मनुष्य ज्यों ज्यों ‘सभ्य’ होता गया वह इस ट्रांसजेंडर के प्रति उतना ही क्रूर होता गया.  राकेश बिहारी ने  इस कथा से होते हुए गम्भीरता से इस निर्मित मन: स्थिति को समझा है, परखा है. 

यह स्तम्भ अब पुस्तक आकार में आधार –प्रकाशन से प्रकाशित होने वाला है.





कहानी :
संझा                                                         

किरण सिंह




(तुम लोगों में से कोई बुड्ढा कह गया है कि दुख कई तरह के होते हैं. खालिस बकवास. दुख एक है- बिछड़ना. धन हो कि स्वास्थ्य कि अपने लोग...इन तीन से बिछड़ना. तो करोड़ों साल से एक ही तरह के दुख और एक ही तरह से दुखी लोगों को देखते-देखते मैं ऊब गया हूँ. तुम्हें बताऊँ, मैंने इस बार, एक नये किस्म का दुख रचा है. आओ मेरे साथ. क्या ? तुम लोग दूसरों के दुख में मजा नहीं लेते! दाई से पेट छिपाते हो बे!)



हमान खेड़ा गाँव के लोग नदी के तीर-तीर बसते चले गए. इस तरह चार गाँव बन गए-बंजरपुर, मुरसीभान, गुलरपुर और रहमानखेड़ा  तो पहले से था ही. चारों गाँवों में कुल मिला कर सौ घर होंगे. यह इलाका तीन तरफ पठार, एक तरफ छिछली नदी और चारों तरफ बेर के जंगलों से घिरा है. यहाँ न कारखाने लग सकते हैं, न जमीन में पैदावार है न पनबिजली परियोजना बैठाई जा सकती है. इसलिए यह इलाका गरीब है. बेदखल है. और स्वायत्त है.

चारों गाँवों में एक-एक परिवार ही बढ़ई, धोबी, दर्जी,कुम्हार और लुहार हंै. और एक ही वैद्य जी हैं. वह चैगाँवा के सबसे इज्जतदार आदमी हैं. इसलिए इज्जत उतारने के लिए उन्ही को चुना गया है. इन्ही वैद्य महाराज के घर आठ बर्ष बाद संतान जन्म ले रही है.

ये मूड़ी बाहर निकली...चेहरा...पेट...नाभि...वैद्य जी ने साँस रोक ली...लड़का है कि लड़की. एक चीख....निकलने से पहले ही वैद्य जी ने दोनों हथलियों से मुँह दाब लिया है- ‘‘रात-बिरात कोई दवा के लिए दरवाजे पर ठाढ़ होगा. सुन लेगा!’’


‘‘ पूत है कि धिया ? बोलते काहे नहीं ?’
दर्द से थकी बैदाइन सोना चाहती थीं.

‘‘ पता नाहीं!’’

‘‘ पता नाहीं ? पता नाही! पता नाहींऽऽ’’


सौरी के दरवाजे पर रखी बोरसी के गोइठे से भभका उठा. सपनों के कपाल क्रिया की चिराईंध गंध कोठरी में भर गई.

संतोख रखो वैदाइन! आठ बरस बाद कोई पानी को पूछने वाला तो आया घर में.’’ आज वैद जी के काटने से नाल खींच रही थी. वैदाइन को दर्द का भान नहीं था.

सुबह चैगाँव रंग में था. ‘‘बेटी सतमासा भइ ह तो का ! बंस तो आगे बढ़ा! परती धरती का कलंक तो छूटा! हलवाई बैठाना पड़ेगा बैद जी! खुसी का मौका है.’’

छठी-बरही दोनों दिन सबको न्योतना पड़ा. गाँव भर बेटी को गोद में खिलाने की हठ पर अड़ा था. वैद्य जी ने सबके प्रेम का सत्कार करते हुए हाथ जोड़ा और कहा-

‘‘सतमासी लड़की बहुत कमजोर है. बाहर निकालने पर हवा-बतास लग जाएगी. दो चार रोज ठहर जाइए.’’

वैद-वैदाइन ने बेटी का नाम रखा है-संझा.

(संझा! हुँह!इनकी बेटी में दिन और रात, दोनां का मिलन है. इसलिए वह सिर्फ दिन और सिर्फ रात से अधिक पूर्ण-पहर है.)

संझा के जन्म से पहले बैदाइन दिन भर घर से बाहर रहतीं थीं. हवा खाओं नाहीं तो दवावैद्य जी के टोकने पर उनका जवाब होता. अब बैदाइन ने अपने को एक कोठरी में समेट लिया था.

‘‘एक कोठरी से काम नहीं चलेगा बैदाइन! संझा ठेहुन-ठेहुन चलेगी तो जगह चाहिए.’’ वैद्य जी ने पिछवाड़े के खेतों को घेरते हुए जेल जितनी ऊँची मिट्टी की चहारदीवारी उठवा दी.

‘‘भला काम किया आपने बैद महराज. मैं रोज पानी छिड़क दूँगी. घर ठंडा रहेगा. सोधी गंध उठेगी.’’ बईदायिन ने लंबी साँस भरी. खुली हवा की साँस जैसे मिले न मिले.

‘‘सियार चाहे भेडि़ए दीवार पर चढ़के भीतर कूद जाएँगे. हमारी बेटी को उठवा ले जाएँगे.’’ आँगन के ऊपर और घर की खिड़की में बैद्य जी ने जाली लगवा दी.

‘‘ठीक महराज! मैं इस पर लतर फैला दूँगी. मेरी बेटी के साथ-साथ बढे़गा.’’ बैदाइन ने आसमान को जी भर देखते हुए कहा.

सखियाँ-सहेलियाँ बैदाइन को संदेशा भिजवाती कि ‘‘तुम छौड़ी के जनम के बाद गरबीली हो गई हो.’’ बैदाइन बिना मन के सखियों से मिलने बाहर निकलती. ‘‘बिटिया को काहे नहीं लाई. हमने उसे देखा तक नही.’’ सबके पूछने पर बैदाइन कहतीं-ं संझा सुरु के साल दुआर पर भी नहीं निकली न! अब बाहर निकलते ही रोने लगती है. आप के नजीक दो घड़ी हम बैठ भी न पाते. फिर सतमासा के नाते बहत सुकुवार हैं.’’

(मैं चाहता था कि संझा को प्रेम न मिले. जिससे वह किसी को प्रेम दे भी न पाए. और हर तरह से बंजर रहे. लेकिन कोई बात नहीं. सतरंगा संसार देख लेने के बाद, आँखो की रोशनी छिन जाए, तो जन्मांध से अधिक पीड़ा होगी.)

चहारदीवारी में बन्द बैदाइन पीली पड़ती जा ही थीं. ‘‘मेरी संझा का क्या होगा ! मेरी संझा का क्या होगा बैद जी!’’वह संझा को गोद मे लिए यही रटती रहतीं.

( कितना भी पढ़े हों, परीक्षा में सफलता का तनाव लेने वाले फेल हो जाते हं. )

तीन बरस की संझा सोच रही थी कि माँ सोई है. वह माँ की बाँह पर लेट गई थी. बैद जी बड़बड़ा रहे थे-
‘‘बैदाइन धोखा दे गई तुम. तुमने भँवर में साथ छोड़ा है बैदाइन! बस कहने को बैद जी महराज, कहने को संझा रानी ! मन में न मेरी चिन्ता थी न बेटी की!’’

‘‘बेटी की चिन्ता! रात में चिता नहीं जलती. नरक मिलता है. लेकिन कल सुबह बैदाइन को जलाया तो संझा को किसी के पास छोड़ना पड़ेगा. गाँव वाले बेटी को श्मशान नहीं जाने देंगे.’’

‘‘जो जिन्दा है, उसे देखना है.’’ उसी समय बैद्य जी ने बैदाइन को महावर सिंदूर लगाया. लाल साड़ी में लपेटा.
खटिया पर बाँधा. सोई हुई संझा को कंधे पर लादा. एक हाथ से खटिया घसीटते, हाँफते हुए श्मशान पहुँचे. सुबह गाँव वालों से कहा- ‘‘बरम्ह मुहूर्त में एक घड़ी के लिए मुक्ति का पुन्य योग बन रहा था. आप लोागें को जगाता तब तक समय बदल जाता.’’

( अच्छे भले बच्चे को तो पिता सँभाल नहीं पाते संझा तो... अब भेद खुलने ही वाला है. वे लोग भी दाहिनी पहाड़ी पर पहुँचने लगे हैं. )

वैद जी मुँह-अँधेरे उठ जाते. बेटी को बुकवा-तेल मलते, नहलाते-धुलाते. बेटी की इलास्टिक लगी कच्छियाँ मोरी में बहा दी थी. वैदाइन की कुछ सूती साडि़यों से लँगोट बना लिये थे. सूने घर में भी बेटी को लँगोट पर पैजामी फिर लंबी फ्राक पहनाते. थुल थुल वैद्य जी, बेटी के साथ बड़े से आँगन में दौड़-दौड़ कर खेलते जिससे वह थक जाए. संझा के सोने के बाद उसकी कोठरी में बाहर से ताला बन्द करते और गद्दी पर औषधि देने के लिए बैठ जाते. लौट कर आते तो संझा टट्टी, पिशाब और आँसुओं में लिपटी मिलती.

जब बैदाइन थीं, भोर होने से दूसरे पहर तक, वैद्य जी जंगल में जड़ी छाँटते थे. अब वे संझा को अकेले छोड़ कर इतनी देर के लिए कैसे जाएँ ? उसे साथ लेकर तो बिलकुल नहीं जा सकते. गाँव वाले उसे गोद में लेने के लिए झपटने लगेगें. कही संझा ने पेशाब कर दिया और स्त्रियाँ उसकी पैजामी बदलने लगीं तो ?

औषधि के बिना चैगाँव के लोग निराश हो-हो कर लौटने लगे. एक दिन वैद्य जी के दरवाजे पर पंच इकट्ठा हुए -‘‘बैद महराज सिरफ अपनी छौड़ी को देख रहे है. हम सब भी तो आपके ही भरोस पर हैं. आप संझा बिटिया की देख भाल के लिए दूसरा लगन कर सकते हैं. हम दूसरा बैद कहाँ से पाएँगें ?’’

वैद्य जी ने बहुत सोच कर जवाब दिया- ‘‘बात संझा की बिलकुल नहीं है. बात ये है कि बैदाइन के जाने के साथ ही मेरे हाथ से जस भी चला गया. दवा फायदा नहीं करे तो इलाज से क्या फायदा. आप लोग पहाड़ी पार के कस्बे में जाइए.’’

(जब जान जाने लगती है तो बंदरिया भी अपने बच्चे को फेंक कर तैरने लगती है.)

रोगी आने बन्द हो गए. वैद्य जी के घर का एक-एक सामान, गाँव वालों के हाथ, जोन्हरी और कोदो के बदले बिकने लगा. आज वैद्य जी ने जाँत में फँसे जौ के आटे को झाड़ कर इकट्ठा किया. भून कर संझा को पिला दिया था.

‘‘मैं भी मर गया तो! नहीं, नहीं! ... मुझे जीने की सारी शर्तें मंजूर हैं.’’
उन्होंने सोच लिया-‘‘लोगों का मुझ पर से भरोसा उठ गया तो क्या! मैं उन्हें खुद पर भरोसा करने की औषधि दूँगा.’’ संझा ने देखा कि उसके बाउदी खड़े होने पर गिर रहे हैं. फिर साँप की तरह रेंगते हुए जंगल की दिशा में जा रहे हैं.

पेड के नीचे सुस्ताते, रहमान खेड़ा के किसान से वैद्य जी ने कहा- ‘‘ मुझे कुछ खाने को दो, तुरन्त. बदले में मैं तुम्हें मर्दाना ताकत की शर्तिया कारगर औषधि दूँगा.’’ उसकी स्त्री से कहा-‘‘इससे तुम्हारा बाँझपन भी दूर होगा.’’

महीना भीतर, सूरज निकलने से पहले ही, वैद्य जी के ओसारे में लोग जगह छेका कर बैठने लगे. जंगल से बहुतायत में उगी मुसली तोड़ने में वैद्य जी को समय न लगता और इसे लेने वाले पैसे भी तुरन्त दे देते. कभी, मरते हुए आदमी के सभी अंगों में जुंबिश भर देने वाले वैद्य जी, एक अंग तक सीमित हो कर रह गए थे.

‘‘बाउदी! आप की फंकी में फफूँद लग रही है. इमाम दस्ते में दवा कूटते समय आपके आँसू गिरते रहते हैं ! अपने मन भर जड़ी नहीं बटोर पाते इसलिए न! आज से जंगल में औषधि के लिए मैं जाऊँ बाउदी!’’


‘‘नहीं! नहीं! बाहर निकलते ही तुम्हें छूत लग जाएगी. एकदम भयंकर! लाइलाज बीमारी! मैंने कितनी बार तुम्हें समझाया है.’’
‘‘कौनो बीमारी नहीं लगेगी. मैं बहुत ताकतवर हूँ.’’
बैद हम हैं कि तुम. फिर चैगाँवा में लड़कियाँ बाहर नहीं निकलती.’’
‘‘आपने मुझसे तीली माँगी थी. जब मेरी उमिर की लड़की की उँगली कट गई थी. वह बन में चरी काटने गई थी न! ’’
‘‘तुम बूटियाँ नहीं पहचान पाओगी. बिलकुल नहीं. ’’
‘‘बाबूजी! आपने मुझे औषधि बनाना सिखाया हैं. पढ़ना लिखना सिखाया है...मैंने लाल जिल्द वाली किताब में पढ़ा है...सर्पगंधा की झाड़ से साँप नहीं गोबर की बास आती है. मजीठी..”
‘‘बाहर की दुनिया बहुत खतरनाक है संझा!’’
‘‘आप भी बाउदी! आप जब औषधि देते हैं, मैं दरवाजे की झिर्री से झाँकती रहती हूँ. सब आदमी- औरत आपके आगे हाथ जोड़े रहते है...सब पीड़ा में कराहते हैं. बेचारे लोग...आप झूठ्ठे डर रहे हैं बाउदी ?’’
‘‘मैं तुमको इस संसार के बारे में कैसे समझाऊँ बेटी!’’
‘‘आपने मुझे दुनियादारी सिखाने के लिए कितनी सारी कहानियाँ सुनाई तो हैं... बृहन्नला की... शिखंडी की...
अर्धनारीस्वर की... कृष्ण के चूडि़हारिन बनने की....’’


बैद्य जी उठ कर बाहर चले गए. वह समझ गए कि समय आ गया हैं.

वैद्य जी ने बारह साल से बन्द खिड़की की, जंग लगी सिटकनी खोल दी. उस खिड़की पर, वह पतली जाली लगी हुई थी, जिससे भीतर से बाहर सब कुछ देखा जा सकता था किन्तु बाहर से भीतर का कुछ भी नहीं दिखाई देता था. वैद्य जी ने दूसरा काम यह किया कि पानी की कमी वाले उस इलाके में, खिड़की से पचास कदम की दूरी पर, खूब गहरी बोंिरंग का हैण्डपम्प लगवा दिया.

‘‘रोटी बनाने के बाद यहाँ से दुनिया देखना बेटी.’’
कहते हुए बैद्य जी बाहर निकल गए.
वैद्य जी को आज, अपनी बारी की प्रतीक्षा में बैठे रोगी टोक दे रहे थे-‘‘ बैद्य जी! अपना भी दवा-दारु कीजिए. आपके हाथ से फंकी गिर-गिर जा रही है.’’

‘‘हाँ-हाँ.. वो सूरत भाभी होंगी, जो मस्से निकलने से परेशान है. खूब लंबी...वो तो बाउदी की मीना बहिनी ही हैं. खाँसते-खँासते जिनका चेहरा लाल हो जा रहा है वो कमलेसर चाचा होंगे. गुलबतिया...हाँ, वही है, जिसके घुटने पर बड़े फोडे का दाग है. वो रमजीत्ता होगा, बैल जैसे कंधों वाला.’’
वैद्य जी, संझा को गाँव के हरेक आदमी का नक्शा बता चुके थे. एक दूसरे पर गीली मिटटी फेंकते, नहाते, बतियाते, पुट्ठे पर हाथ मार कर हँसते लोग-‘‘बाप रे! सब कितना अच्छा है...मेरी अम्मा जैसा.’’

संझा ने बाउदी से चहक-चहक कर सब कुछ बताया, कई बार बताया- ‘‘देखा बाउदी! कहाँ लगी छूत की बीमारी! नहीं लगी न! सब मेरे फुआ, चाचा, बाबा, आजी ही तो थे. मैं औषधि लेने जंगल में निकल सकती हूँ.’’

‘‘अभी रुको बिटिया!सँभल के संझा! महीने भर तक तुम्हें कोई बीमारी नहीं लगी तब सोचूँगा.
खिड़की खुलने के बाद, बाउदी के झुकते जाते कंधे, संझा अपनी ख़ुशी के आगे देख नहीं पा रही थी.

दूसरे दिन, सूरज निकलने से पहले ही, हैण्डपम्प चलने की आवाज आने लगी. उनींदी संझा झट खिड़की पर जा बैठी. माएँ नहा रही थीं. खिड़की के नीचे उसकी उम्र की आठ दस लडकियाँ, फ्राक उठाए, उकडू़ बैठी थीं. वे बातें करती हुई खिसकती जा रही थीं. उनके छोटे भाई उसकी दीवार पर पिशाब कर रहे थे.

‘‘ये छौड़े-छौड़ी इसी धरती के हैं न ! फिर इनका सब कुछ मेरे जैसा क्यों नहीं है ?
‘‘हो सकता है मैंने अँधियारे में आँखें फैलाकर देखा हो तो चीजें बड़ी दिखी हों.’’



(अपाहिज माँ का इकलौता बेटा मर जाए तो वह असंभव बातें कहती है- उसकी साँस चल रही थी. लोग अपना काम खतम करने के लिए हड़बड़ी में दफना कर घाट से लौट आए.)

‘‘ऐसा तो नहीं कि मुझ में ही गड़बड़ी हैं. वो चीज उन सबकी की एक जैसी थीं. मैंने बाउदी की किताबों में ऐसी फोटुएँ देखी तो थीं. लेकिन ये क्या हैं, तब मैं बूझ नहीं पाई थी.

... नहीं! बाउदी ने बताया है कि मैं चैगाँव की सारी छौडि़यों में सबसे अच्छी हू. फिर उमिर के साथ सारे अंग बढ़ते हैं. याद है, अँगूठेभर का मुखिया का लड़का बाउदी की दवा से एकदम से खींच गया था. इसके बढ़ने की भी कोई दवा जरुर होगी. मेरे बाउदी तो मरते आदमी को जिन्दा कर देते हैं.’’

सब कुछ ठीक है. तब संझा की रोटियाँ क्यों जलने लगी थी और हाथ भी. बाउदी के सामने बिना बात उसकी नजरें हत्यारिन जैसी झुकी क्यों रहने लगीं थीं.
वैद्य जी चुपचाप अपनी टूटी-फूटी संझा के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे.

वैद्यजी देख रहे थे कि उनकी बेटी सो नहीं रही है. वह, उनके बाहर निकलने का इंतजार करती है और खिड़की पर बैठ जाती है. हैण्डपम्प पर नहाते लोगों के एक-एक अंग को खा जाने वाली निगाह से देखती है. रात में वैद्य जी जल्दी ही आँखों पर हाथ रख कर लेट जाते. संझा तुरन्त उठकर ढिबरी की बत्ती चढ़ा लेती. आयुर्वेद की पोथियों के अक्षर जोड़ कर रात-रात भर पढ़ती. चैथे पहर फिर खिड़की पर.

छः महीने बीतने को आ गए. संझा के बाउदी ने तो संझा को यही बताया हैं कि चरक, सुश्रुत, धनवन्तरि से कुछ भी छूटा नहीं है. बाउदी अपनी संझा से झूठ थोड़े कहेंगे. लेकिन जो तकलीफ संझा को है, कहीं उसकी चर्चा नहीं, नाम निशान कुछ नहीं. जबकि बहुत-बहुत घिनौनी बीमारी के बारे में तक तो लिखा है.

‘‘कहीं इस कमी को पाप तो नहीं मान लिया गया है, जिसकी चर्चा तक छिः मानुख है. बाउदी हो !’’
...कुछ नहीं. बाउदी ने जो दवा मुखिया के लड़के को दी थी, उस दवा को खाते हैं. दो-चार महीने बीतते-बीतते
सब अच्छा हो जाएगा. बाउदी से बात करने की.... कौन जरुरत ? वो भी यही औषधि देंगे.’’

छः महीने और बीतने के साथ ही संझा का चैदहवाँ साल लग गया. उसके साथ की लड़कियों के अंग जब मुलायम और गदरारे हो रहे थे. उस समय संझा का बदन तेल पिए हुए लाठी की तरह लंबाई नाप रहा था, ऊँचाई के नाम पर सिर्फ गाँठें उभर रही थीं. उसकी नसें बैगनी और त्वचा मोटी हो रही थी. उसकी ठुड्डी और होठों के ऊपर भूरे रोंएँ उग रहे थे. गालों की हड्डियाँ उभर रही थीं और चेहरा तिकोन में लंबा हो रहा था. किन्तु एक अंग वैसा ही था, सुई की नोक के बराबर. वह शीशे के सामने खड़ी रहती. गिरने-गिरने को होती तो बैठ जाती. एक छेद उसके दिल में होता जा रहा था जिससे वह बन्द कोठरी में कपड़े पहनना भूलने लगी थी.

एक आखिरी उपाय. उसके बाद वह बाबा से बात करेगी. बाबा ने वरदराज की कथा सुनाई थी. उसके हाथ में बिद्या की रेखा नहीं थी तो उसने हथेली चीर कर बिद्या रेखा बना ली थी. वह भी अपनी किस्मत बदल देगी.

(बिल में पानी भरने से चूहे बाहर निकलते हैं. साँिपन को निकालना हो तो बिल में आग लगानी पड़ती है.)

संझा उन्माद में थी. उसने ढिबरी की लौ धीमी कर दी. आँगन में लगी, नीम-तुलसी की पत्ती पीस कर रख लिया. बन्द कोठरी में जमीन पर लेट गई है और दोनों पाँव दीवार पर फैलाकर टिका लिया. शरीर को धनुष की तरह तान लिया. अम्मा की धोती फाड़ कर मुँह में ठूँस लिया. भगवान के नाम पर बाउदी की तस्वीर उभरी और चाकू वहाँ रख लिया. लंबी साँस ली. साँस रोकी. और चाकू की फाल धँसा लिया. वह लंबान में चीर देने के लिए ताकत लगाना चाहती थी. लेकिन चाकू धँसने के साथ ही बदन निचुड़े कपड़े की तरह ऐंठने लगा. आँखें, साँस लेने बाहर निकली मछली के मुँह की तरह खुलने-झपकने लगी. मुँह में ठुँसी हुई माँ की धोती निकाल कर, वहाँ रखते हुए, लहराती आवाज में कहा-‘‘बाऽउऽदी बाऽउऽदी’’

वैद्यजी को लगा कि वह तो संझा को लेकर सपने में भी डरे रहते हैं. हंर समय लगता है कि बेटी पुकार रही है. दुबारा-तीबारा वही आवाज सुनकर कोठरी की ओर भागे.

‘‘संझा आँख खुली रखना. सोना मत संझा! संझा! संझा सोना मत!’’ वैद्यजी चिल्लाते हुए पिछवाड़े के जंगल की दिशा में दौड़ रहे थे. मूसली के सिवाय घर में रखी शेष औषधियों में फफूँद लग चुका था.
वैद्यजी बेटी को गोद में लिए नित्य क्रिया कराते. नीम के पानी से घाव धोते. लेप लगाते और संझा के दोनों पाँव जाँघ के पास से बैदाइन की धोती से बाँध देते जिससे दरार जुड़ती चली जाए.

सातवें दिन वैद्य जी ने संझा से कहा- ‘‘तुमको ऐसा नही करना चाहिए था बेटी. तुम्हारी जिन्दगी चली जाती.’’
‘‘बाउदी क्या अगला जनम होता है.’’
‘‘क्या तुमने मेरे मुँह से कभी सुना है कि तुम मेरे पिछले जन्म के पाप की सजा हो.’’
‘‘नहीं बाउदी’’
‘‘जब पूर्व जन्म नहीं होता तो पुर्नजन्म भी नहीं होता.’’
‘‘क्या कोई रास्ता नहीं बाउदी !’’
‘‘किस्मत ने एक जरुरी अंग हटा कर तुमको पैदा किया है, बेटी!”
जीवन के लिए सबसे जरुरी तो आँख हैं. जोगी चाचा अंधे पैदा हुए. जरुरी तो हाथ है. बिन्दा बुआ का दाहिना हाथ कोहनी से कटा है. रामाधा भइया तो शुरु से खटिया पर पड़े हैं, रीढ़ की हड्डी बेकार है. बिसम्भर तो पागल है, जनम से बिना दिमाग का. क्या.. वो..वो आँख, कान, हाथ, पाँव, दिमाग से भी बढ़ कर होता है ?


‘‘ तुम बंस नहीं बढ़ा सकती.’’
‘‘गाँव में ऊसर औरतें भी हैं, मान से रहती हैं.’’
‘‘बाउदी आप चुप क्यों हैं. क्या मैं किसी के काम की नहीं.’’
‘‘.इस धरती के बासिन्दों ने तुम्हारी जाति के लिए हलाहल नरक की व्यवस्था की है. उस नरक के लोग पहाड़ी पर तुम्हारे जन्म के सात साल बाद आ कर बस गए हैं. वे लोग कपड़े उठा कर नाचते हैं और भीख माँगते हैं. लोग उन्हें गालियाँ देते हैं, थूकते हैं, उनके मुँह पर दरवाजा बन्द कर लेते हैं, उन्हें घेर कर मारते हैं. वे जिस इलाके में बसे हों, वहाँ कोई भी अपराध हो, इन पर ही इलजाम लगता है. वे डरे और जले हुए लोग अपनी बिरादरी बढ़ाना चाहते हैं. तुम्हारे बारे में पता चल गया तो वो लोग तुम्हें छीनने आ जाएँगे और चैगाँव के लोग तुम्हें घर से खींच कर उनके साथ भेज देंगे.”
‘‘मुझे छूत की बीमारी नही लगेगी. मैं इस समाज के लिए अछूत हूँ...घिन्न खाने लायक हूँ.’’
‘‘तुम्हें जिन्दगी भर अपने आप को छिपाना है संझा!’’
‘‘मैं बाहर निकलना चाहती हूँ बाउदी! मै औषधि की पत्तियाँ छूना चाहती हूँ. बहता पानी...गीली मिट्टी...जंगल..आसमान देखना चाहती हूँ! बाउदी! मैं दौड़ना चाहती हूँ... खूब जोर से हँसना चाहती हूँ....सबके जैसे जीना चाहती हूँ. आपके कहने से मैं ऐसे रह तो जाऊँगी लेकिन दो चार दिन की ही रह जाऊँगी बाउदी!’’
‘‘मेरी गुडि़या! तुम आज रात से बाहर निकलोगी. मैं उपाय करता हूँ.’’

वैद्य जी दो रात पहले संझा बिटिया का नाम लेकर चिल्लाते हुए क्यों भाग रहे थे ? वे गद्दी पर क्यों नहीं बैठ रहे हैं ? चैगाँव के सवाल का जवाब तैयार था-‘‘तुम लोग गँवई ही रहे. बूढ़ा बैद कुछ सोच कर दो दिन से दम साधे है. पास आओ, उस रात डकैत आए थे. ’’ ‘‘डकैत!’’


‘‘हाँ!’’ अपने चोटिल साथी को लेकर. मेरी खिड़की के नीचे बैठे थे. संझा बिटिया ने उन्हें देख लिया. मैं ने छोड़ा नहीं, उनको दौड़ लिया. बिटिया का नाम इसलिए ले रहा था जिससे उसे हिम्मत बनी रहे और तुम सब जाग भी जाओ. अरे हाँ सुनो! भागते-भागते वे कह गए कि सारा जंगल छोड़ कर, मेरे घर के ठीक पीछे वाले जंगल में छिपे रहंेगे. मुझसे बदला लिए बिना वहाँ से नहीं जाएँगे. इसलिए तुम लोग सब दिशा में जाना, मेरे घर के पीछे के जंगल की ओर मुँह करके मूतना भी मत.’’

‘‘धन्न! बैद महराज! आपकी दवा-पट्टी से ठीक होकर वे हमें ही लूटते. आपने अपने पर जोखिम लेकर हमको बचाया.’’
(बुड्ढा वैद्य सती बाप है.)

संझा के घर के पिछवाड़े से, जंगल तक की, बेर के कांटों भरी पगडंडी, राजपथ बन गई. जिस पर वह दो-चार दिन अपने बाउदी की ऊँगली पकड़ कर लड़खड़ाते हुए चली. उसके बाद उड़ने लगी.

वह बन की रात में, जुगनओं से भरी ओढ़नी, माथे पर टार्च की तरह बाँध लेती. वह रात भर की राजकुमारी के सिर पर हीरों का ताज था. पके हुए कटहल से कोया निकाल कर पखेरुओं के खाने के लिए बिखेर देती. कटहल की खोइलरी में छेद कर के बरगद की जटाएँ फँसाती और कमर से लटका लेती. यह औषधि का थैला था. पाँवों में चप्पल की तरह पुआल बाँध लेती और हरेक पेड़ को छूते हुए, कांटों पर बेधड़क दौड़ती. युवा पेड़ों का पानी, संझा के छूने से, देर तक काँप कर ठहरता. बूढ़े और बच्चे पेड़ों को, अपनी नींद के लिए, संझा की थपकियों की आदत पड़ चुकी थी. ‘‘देखें डाँट खाने पर कैसा लगता है!’’ वह बरगद की डाल को झकझोर देती. अधेड़ कौए उस पर मिल कर चिल्लाते. सोए हुए जानवर आँखें खोल कर संझा को देखते, मुस्कुराते और ऐसे सो जाते जैसे माँ को बगल में देख कर बच्चे सोते हैं.

जंगल  में, कोई संझा को देख लेता तो सबसे यही कहता- ‘‘ मैंने कल रात उड़ने वाली हरियल साँपिन को देखा है.’’

संझा महसूस करती कि रात में हवा सम पर चलती है क्योंकि सोए हुए पेड़ बराबर से साँस लेते हैं. पेड़ों को झकझोरने पर, रात में सन्नाटा रहता है तब भी, दिन जितनी आवाज नहीं होती. हरा रंग, काले रंग से गाढ़ा होता है. तभी तो, दूर अँधेरे में, पेड़ की मोटी जड़ नहीं दिखाई देती, किन्तु नन्हीं पत्ती दिखती है.

तीसरे पहर वह औषधि बटोरती. ‘‘कल हैण्ड पम्प चलाते समय सहचन दादा की नकसीर फूट गई थी. उसकी नाक में टपकाने के लिए दूब का रस और लेप के लिए नदी की मिट्टी ठीक रहेगी. बुन्नू दादी की गठिया के लिए नागरमोथा...अर्जुन...अरे वही जो बृहन्नला बना था...उसकी छाल करेजे की औषधि है ? बहुत अच्छा! आज तो मधु के लिए मधुमाखी के भी हाथ जोड़ना है भाई ! बाउदी ने कहा था.....कतरो की माहवारी नहीं साफ आ रहा है...माहवारी ? ये कौन सी बीमारी हैं ? उँह! बीमरियों के बारे में जितना कम जानो अच्छा.’’

वह थकने लगती तब पानी में उतर जाती. चिडियाँ जब संजा को चेताना शुरु करतीं कि सुंबह होने को है, संझा पानी से खेलना छोड़े और घर जाए, तब वह अध्र्य देती और कहती- ‘‘हे सूर्ज हे! हे जंगल! हे जल! मुझ अछूत को ऐसी सिफत देना कि मेरे छूने से औषधि अमरित बन जाए. ’’

संझा और उसके साथ की लडकियाँ कपड़े पहने हुए ही नहाने लगी हैं.


अन्तर शर्म और शर्मिन्दगी का है. उसके साथ की लड़कियों के पास, भौंरो वाले सूरजमुखी से लदी चोटियाँ थीं, उस समय वह पठार का पठार ही रह गई. बदन पर कड़े होते बाल, पठार पर सूखी घास की तरह थे. वह इतनी लम्बी है कि माँ की साडि़याँ छोटी पड़ती हैं. बैगनी नसों और अँगूठे पर उगे रोएँ वाला पाँव छिपाने के लिए उसे कमर से बहुत नीचे साड़ी बाँधनी पड़ती थी. ठुड्डी और होंठों के ऊपर की रोमावली ढकने के लिए वह पल्लू को सिर से लेने के बाद, नाक के नीचे से उस कान तक, तर्जनी-अँगूठे से पकड़े रहती. चेहरे पर सिर्फ आँखें दिखती और पीछे पूरी कमर खुली रहती.

संझा कभी नही जान पाएगी कि लंबाई के कारण उसकी कमर में, नदी के अचानक मुड़ जाने जैसा कटाव बनता है. उसकी उभरी-चिकनी रीढ़ की घिर्रीयाँ, नदी में उतरती सीढि़याँ लगती हैं.

(ये संझवा हरियल नाहीं, पनियल साँपिन है. काहें कि साली की लचक से मेरे मन में ऐसी लहरें उठने लगी हैं
जइसे पनियल साँपिन के चलने से पानी में उठती हैं.)

संझा की समझ में यही आया कि उसे हम उमिर लड़कियों को देख कर घबराहट होती है. इस कारण, उसे लड़कों को देखना अच्छा लगने लगा है.

‘‘बाउदी! वो हर शनिचर पहाड़ी से औषधि लेने उतरता है, कौन है ?
‘‘ललिता महाराज का गोद लिया हुआ बेटा है. तुमने देखा होगा ललिता महराज को. भक्ति में नाचते-बजाते पहाड़ी पर चले आते हैं.”
‘‘नाचने-बजाने की आवाज से कँपनी चढ़ने लगती है बाउदी! ’’
‘‘तुम्हारे साथ की लड़कियाँ ब्याही जा रही हैं. सारे गाँव में रोज ढोल घूमेगा. अपने को थामे रहना बेटी!’’



चैगाँव की बेटियों के बाप हल्दी और अच्छत लेकर सबसे पहले वैद्य जी को न्योतने पहुँचते. उस समय वैद्य जी का चेहरा पीला-सफेद पड़ जाता.
(मैं वर्तमान के भय से, भविष्य के भूत पैदा करता हूँ)


चैगाँव आपस में बात करने लगा कि संझा बिटिया को हल्दी नही लगेगी क्या ?
‘‘वैद्य जी साँसे-ढेकार नही ले रहे हैं.”
‘‘संझा बिटिया के भाग से बूढ़ा बैद कोठिला भर-भर धन-जस कमा रहा है. तो काहें ब्याह करेगा. ’’

चार पंच जन वैद्य जी के दरवाजे पहुँचे-‘‘संझा के साथ की सब लड़कियाँ ब्याह दी गई हैं बैद जी!’’

‘‘अरे हाँ! बैदाइन होती तो ध्यान दिलातीं...मैं आज से ही बर खोजने निकलता हूँ.’’ बैद जी जवाब देकर बैठ गए.

‘‘संझा के साथ की लड़कियाँ बाल-बच्चेदार हो गई हैं बैद जी! वे नाती-पोतों वाली हो जाएँ तब संझा को बियाहिएगा का ?’’

‘‘देख रहा हूँ. यहाँ-वहाँ गया था. पनही टूट गई...’’

छठें-आठवें साल बैद्य जी आजिज आ गए-‘‘मेरी गुनवन्ती बेटी जोग दामाद भी तो जोड़ का मिले. मेरी बेटी मछरी तो है नही जो सड़ रही हो! उठा कर गड़ही में फेंक दूँ.’’

चैगाँव के लोग तिलमिला गए.‘‘ हमारी बेटिया सड़ी मछरी थीं और इनकी संझा में सुरखाब के पंख जड़े हैं." 

‘‘इसका कहना है कि हमने अपनी बेटियों को गड़ही में फेंक दिया.’’
‘‘चैबासे में तो लेन-देन भी नहीं चलता.’’
‘‘फिर बैदा संझा का ब्याह क्यों नही करना चाहता ?’’
‘‘बैद ने वैदाइन के मरने के बाद अपना ब्याह भी क्यों नहीं किया. जबकि हमारे यहाँ की कई उनके साथ बैठने को तैयार थी ?’’
‘‘बैद...बैदाइन के मरने के बाद औषधि छोड़ कर मूसली क्यों बेचने लगा ?
‘‘कहीं बाप ही...’’

‘‘संझा को इसलिए बाहर नहीं निकलने देता कि वह सब बता न दे!’’

(संझा को जन्म लिए सत्ताइस साल हो गए. बूढ़ा वैद्य पहले ही संझा को घर से निकाल देता, तो मुझे आज अपने खरबों बर्ष के जीवन मे, पहली बार इतना पतित न होना पड़ता. खैर! दुनिया तक यह फरमान जाना ही
चाहिए-‘‘किस्मत से लड़ा जा सकता है. हराया नहीं जा सकता.’’)

वैद्य जी दाहिनी पहाड़ी पर चढ़ते. उधर किन्नरों की बस्ती थी. दूसरे दिन बाएँ हाथ की पहाड़ी पर चढ़ते. जिधर चैगाँव देवता का मन्दिर था. वह दोनों ओर हाथ जोड़ते और लौट आते.

‘‘बेटी! तुमने एक दिन कहा था-अपनी जिन्दगी बनाए ंरखोगी, किसी भी हाल में.’’
‘‘मैं अपनी जिन्दगी नहीं खतम कर रही हूँ बाउदी! आप मुझे आदमखोरों के बीच भेज रहे हैं.”
‘‘मैं मजबूर हूँ.’’
‘‘मुझे बचाने से बढ़ कर क्या मजबूरी हो सकती है बाउदी!
‘‘मै बता नहीं सकता.’’
‘‘मेरी बात मुझसे ही नही बता सकते ?’’
‘‘मैं ने देखा कि तुम हर शनिवार....वो पहाडि़यों से उतरता हुआ लड़का...कनाई...अच्छा मानुख है...’’
‘‘वो लड़का और आप लोग मानुख हैं. मैं छिः मानुख हूँ बाउदी!’’

वैद्य जी ने आज पहली बार संझा को जोर से बोलते हुए सुना था. वे चैंक गए-‘‘ तुम बिदाई के समय चुप रहना. रोना मत बेटी!’’


वैद्य जी दीवार के सहारे पीठ टिकाए बैठे रहते . चैगाँव की परिपाटी के अनुसार, बेटी के ब्याह में सभी जुट कर काम कर रहे थे -‘‘वैद्य जी को ललिला महराज जैसे नचनिया का घर ही मिला था ब्याह के लिए. कनाई उनका सगा बेटा भी नहीं है. वृंदावन के मन्दिर में फेंका मिला था.’’
‘‘ संझा की उमिर भी तो बैद ने घर में बैठा कर बढा़ दी. कैसा भी सासुरा हो लड़की को अपना घर तो मिला.’’
‘‘देखों कैसा हाथ डाले बैठा है बैदा! कुछ नहीं कर रहा पापी!’’

विदाई के समय, संझा अपनी कोठरी से निकलने को तैयार नहीं हो रही थी. उसने कई दिन से खाना छोड़ दिया था और जमीन पर लस्त पड़ी थी. लाल साड़ी में बँधी हुई संझा को, कंधे में हाथ देकर चैगाँव की स्त्रियाँ, घसीटते हुए, डोली में बैठाने के लिए बाहर ला रही थीं.

वैद्य जी संझा को एकटक देख रहे थे. उन्हें लगा कि वह लाल कफन से ढकी, खटिया पर घिसटती वैदाइन हैं. ‘‘अरे वैदाइन हो ! सब छोड़ चले!’’ अपने बाउदी का कलपना सुन कर संझा का बन्द मुँह खुल गया.
‘‘ऐसे ही करना था तो अपने हाथ से माहुर दे दिए होते बाउदी! बली खातिर बकरी सयान किए बाउदी! आखिरी भंेट! हे बुन्नू चाची! तिल्लो मौसी! सुब्बू भइया! मेरे बाउदी का खयाल रखिएगा. अरे बाउदी हो बाउदी!’’ भूखी संझा कराहते हुए, छाती पीटते हुए रो रही थी.

पिता-पुत्री के प्रेम को देख कर सभी आपस में कहने लगे-‘‘हमारी बेटियाँ भी बिदा र्हुइं. ऐसा कलेजा बेध देने वाला बिलाप तो चैगाँव में आज तक नहीं सुना. बाप की कितनी चिन्ता! इसी मारे संझा ही ब्याह नहीं करना चाहती होगी. हाँ, येही बात थी. ’’


ललिता महाराज के मन में उसी समय से संझा के लिए गाँठ पड़ गई. ‘‘ऐसा चिग्घाड़ रही है जैसे मेरे घर रेतने ले जाई जा रही है. आवाज देखो इसकी-मर्दाना.’’

‘‘संझा! मैंने रोने को मना किया था न! जिस दिन से ब्याह तय हुआ है, इतना रोई है कि गला फट गया है.’’ वैद्य जी ने ललिता महराज और गाँव को सुना कर कहा.

(आज मैंने बूढ़े वैद्य के हाथ से संझा को छीन लिया है. आज वह अकेली है. आज मेरे खेल का चरम है. आज कनाई संझा के वस्त्र उतारेगा. फिर उसे कपड़े पहनने का मौका नहीं देगा. संझा गिड़गिड़ाएगी, बाप की इज्जत की भीख माँगेगी. उसी हालत में बालों से खींचता-कूटता-लतियाता हुआ, दाहिनी पहाड़ी से उन लोगों की ओर ढकेल देगा. जिस औरत का रोया रोया रो रहा हो उस औरत का नृत्य देखा है कभी, एक अलग मजा मिलता है. कोठे हर शहर में होते है, बीबियाँ होती हैं, प्रेमिकाएँ होती हैं फिर भी बलात्कार होते है कि नहीं. इसी मजे के लिए. )

संझा जमीन बैठी थी. वह खटिया का पावा पकड़े थी. ताखे नुमा रोशनदान से चाँदनी, प्रोजेक्टर की रोशनी की तरह, संझा के बदन पर पड़ रही थी. रोशनी में, लाखों धूल के कण, बेचैन गति से इधर-उधर दौड़ रहे थे. ढिबरी की लौ संझा के बाएँ वक्ष पर पड रही थी. हवा साँस थामे थी. फिर भी ढिबरी की लौ बुझने-बुझने को होकर लपलपा उठती थी.

‘‘धोखा हुआ है! ’’ कनाई पाटी पर बैठ चुका था.
खून बहने से खून सूख जाने का दर्द ज्यादा ठंडा होता है.
‘‘मैं तुम्हें सब कुछ बता देना चाहता हूँ. तुम मेरी बात सुन रही हो न ?’’
स्ंाझा ने हाँ में सिर हिला दिया- ‘‘ये तो कोई अपनी बात बता रहा है.’’
‘‘जनमास्टमी का दिन था. बसुकि के चारों भाइयों ने मुझे मन्दिर के पीछे वाली चट्टान पर चित्त पटक दिया. तीन भाई मुझे लात से दबाए हुए थे. उसका चचेरा भाई, पहवारी नाम है उसका, वही लाठी से मेरी ढोढ़ी (नाभि)से नीचे की नसों को तोड़ने लगा. जइसे मूसल से चिउड़ा कूट रहा हो. वे चारों चीख रहे थे कि मैं एक नचनिया की गोद ली हुई औलाद हूँ. बेर खाकर गुजारा करता हूँ. मेरी औकात कैसे हुई उनकी बहन को छूने की.’’ देवथान में गोपिका गीत, झाल-करताल, मँजीरा, अपने उठान पर था. चिरई भी मेरी बचाने की पुकार-गुहार नहीं सुन सकी.

....जान चली जाती तो भी मैं बसुकि को नही छोड़ता. लेकिन उस दिन के बाद मैं किसी काम लायक नही रह गया .

...तुम्हारे बाउदी के पास मैं हर शनिचर अपने जिन्दा रहने की आस लेने जाता था. इधर कुछ दिनों से मैने निराश होकर जाना बन्द कर दिया था. वैद्य जी ने इसका यह अरथ निकाल लिया कि मैं ठीक हो गया हूॅ. मैं भी सबसे अपनी बात छिपाना चाहता था. इसके लिए विवाह करना जरुरी था, सो चुप रहा.
... तुम दिन में मेरे साथ दिखावे के लिए बनी रहना. रात में अपने जिस प्रेमी के पास कहोगी, मैं खुद पहुँचा कर आऊँगा. मैंने तुम्हें धोखा दिया है. मैं बधिया कर दिया गया हूँ.’’कनाई संझा के पाँव पर अपना माथा रख चुका था.
स्ंाझा ने अचकचा कर कनाई को सीने से लगा लिया.

कनाई को संझा की खपच्चियाँ उस पिंजरे की तरह लगीं, जहाँ बसान करके, वह उड़ान भले न भर पाए लेकिन सुरक्षित है-‘‘मैं बेर और लाख की रखवारी के लिए बन के मचान पर ही रहता हूँ. सुबह के पहर यहाँ आता हूँ, दो-तीन घण्टे देवथान का काम करना होता है. तुम यहाँ मेरी अम्मा की कोठरी में रहोगी या मेरे साथ चलोगी ?’’

संझा ने कनाई की हथेली में अपनी सकुच-हथेली रख दी.

(प्रेम करने वाले का दिमाग संसार का सबसे तेज दिमाग होता है. मैं सोच रहा था कि मैं उस बुड्ढे बाप की पीठ पर चढ़ा हूँ. वह चुप इसलिए था कि क्योंकि उसको मुझे पीठ पर चढ़ा कर तगड़ा धोबी पाट देना था.)

मचान पर, कनाई के नाक बजने की आवाज सुन कर संझा ने घूँघट उठाया. वह एक पहर तक कनाई को देखती रही. कोई उसके इतने पास है, उसका सगा है- ‘‘बाउदी ने गोपाल को उसके फाड़ (आँचल) में डाला है. वह जान लगा लग़ा देगी उसमें जान डालने के लिए.’’


उस रात की सुबह, बेर के कांटों भरे जंगल में, हरी पत्तियों के बीच पीले-सिन्दूरी बेर थे. भूरी डालियों पर की लाख, सुहागी लाल थी.

मचान पर औधें लेटा हुआ कनाई, दूर नदी की ओर देख रहा था. नदी से उठते कोहरे की कमर पर भृंगराज की पत्तियाँ कैसे लिपटी है ? ओह यह तो संझा है जो नदी में खड़ी डुबकी ले रही थी. रात के तीसरे पहर संझा ने भृंगराज और कोइन यानी महुए के बीज को कूँच कर तेल बनाया, गोपाल की पीठ पर बैठ कर उसकी मालिश की, उसे केले की जड़ का रस पिलाया था. चैथे पहर नदी की ओर निकल गई थी.


‘‘संझा! देर हो गई, देवथान चलो जल्दी. तुम्हारे छूने से जो आराम मिला है वो ललिता महराज कुटम्मस करके बढा़ देगे.’’

“संझा ने आँचल से हाथ बाहर निकाल कर बरजने का इशारा किया-‘‘मुझे यही छोड़ दीजिए. ’’

‘‘नहीं!नही! तुम, चलो!’’ गोपाल ने संझा की पीपल के पत्तों जैसी नसों वाली काँपती हथेली थाम ली और खींचता हुआ ले आया.


संझा ने बाहरी दुनिया का एक अनुमान लगाया था. उसकी ससुराल का, उसके अनुमान की दुनिया से, कोई मेल नहीं था. उसकी ससुराल में तीन पत्थर की कोठरियाँ थीं. जिसके दरवाजे जान बूझ कर छोटे बनाए गए थे कि गर्दन झुकानी पड़े. एक कोठरी में चैगाँव देवा स्थापित थे. दूसरी कोठरी में उसके ससुर के उतारे कपड़े रखे थे. तीसरी कोठरी में सास ने अपनी लाठी रख दी थी. महाराज जी ‘‘गिरा कर मारुँगा’’ कहते हुए उनके हाथ से जब तब लाठी छीन लेते थे. कम उम्र में ही उसकी सास झुक-झूल गईं थीं. आँगन के कोने में रखे फूटे बर्तनों में बरसात का पानी भरा था, जिसमें मुर्दा मकड़ी तैर रही थी.

‘‘कनइवा की माई!’’

संझा वैदाइन की साडि़याँ ही पहनती थी. वे पुरानी-सूती साडि़याँ, बदन और सिर से चिपकी रहती, फिसलती नहीं थी. उसका घूँघट उसके लिए मायके की खिड़की की तरह था. उस खिड़की से उसने आवाज की दिशा में देखा. उसकी आँख पत्थर की आँख की तरह पलक झपकाना भूल गई.

उसके ससुर के हाथ पैर चेहरे पर एक भी बाल नहीं था. उनकी आँख में अमावस की रात में बनाया गया चैडा़ काजल था. होंठों पर अढ़उल की पंखुरियों को मसल कर तैयार की गई लाली थी. नाक से लगायत माँग के आखिरी छोर तक, अभ्रक मिला सिन्दूर रगड़ा हुआ था. वह राधानामी घाघरा और कुर्ता पहने थे. लाल गमछे को सिर पर ओढ़नी की तरह लपेटे हुए थे. उनका बदन, सिन्दूर से टीके गए मुगदर जैसा था.

‘‘कनइवा की माई! ये नई दुलहिन है ? पुरानी मारकीन क्यों पहने है ? सजी-बजी काहें नही है ? इससे कह दो, परसों साइत है. उस समय इसकी मुँह दिखाई करुँगा. इस पर जल छिड़क कर इसका नया नाम रखूँगा-रास मणि.’’ संझा पर ललिता महराज की एक्सरे-नजर थी. वह देख रहे थे कि संझा एक हाथ से चुन्नट को जाँघों में दबा रही है. दूसरे हाथ से पल्लू को सीने पर कस रही है.

‘‘ये साडि़याँ इसके माँ की असीस की नाई इससे ढके रहती होगी...हैं न बहुरिया ! आओ मेरे साथ काम सीखो.’’ उसकी सास, उसेे ससुर के सामने से हटा ले गई थीं.

‘‘तुम्हारे ससुर माने ललिता महराज जी, किसुन लीला में राधा रानी बनते थे. वृन्दावन में राधा रानी इनके सिर पर्र आइं और महराज जी से कहा कि तुम मेरी सखी ललिता हो. जाओ चैगाँव देवता के मन्दिर में प्रान प्रतिसठा करो. वहीं रह कर हमारी सेवा करो.
...संजोग देखो उस बेरी ये अँगना में कह कर गए थे कि नौटंकी में घूमते-घूमते बदन को थाका मार गया है. अब यही चैगाँव में, एक असथान पर रहने का मन है. लेकिन बैठ जाऊँगा तो खाऊँगा क्या ? देखो देबी ने सब कैसे जान लिया ? सिद्ध पुरुख हैं महराज जी!’’  संझा की सास ने, जमीन पर जैसे ललिता महराज के पाँव हों, इस भाव से माथा टेकते हुए कहा.

‘‘नाहीं दुलहिन! अभी कौनो काम मत करो. चार रोज सो-बैठ लो. मचान पर निकलने से पहिले मन्दिर में हाथ जोड़ लेना. एक दम हउले से, महराज जी जाप में बैठे होंगें.’’

संझा को देख कर कनाई को बार बार भ्रम क्यों होता है. शाम की पहाडि़यों से उतरती, संझा को देखकर उसे लग रहा है कि वह अपना रंग आसमान को दे कर उतर रही है. सन्ध्या स्नान करती हुई संझा, नदी को अपनी सखी बना कर, उसके साथ अपना सिंदूर बाँट रही है.

संझा ने कनाई की दाढ़ी बनाने का इशारा करते हुए चोली से औजार निकाल लिया.
‘‘ये तुमको कैसे मिला.’’
संझा ने साँस खींच कर अपनी आँखें बन्द कर लीं और तर्जनीपर अँगूठा चढ़ा लिया.
‘‘अच्छा! ललिता महराज जाप में बैठे थे, तब तुमने चुरा लिया. वाह! मन से मस्त हो लेकिन जबान से नहीं बोलती, काहें ?’’ संझा ने नजरें झुका लीं.
(Kalki Subramaniam) अपनी एक पेंटिग के साथ.)
‘‘लाज लगती है ?’’


संझा ने सिर हिला दिया.
‘‘इसीलिए इतना ढके तोपे भी रहती हो अपने को. खानदानी घर की बेटी हो न! ’’


संझा ने कनाई से दाढ़ी बनाना सीख कर उसकी दाढ़ी बनाई. उसे मालिश करके नहलाया और औषधि देकर सुला दिया. इस दौरान कनाई बिना रुके-थके बोलता रहा. लगता था कोई पहली बार उसे सुनने वाला मिला है.

कनाई ने संझा को बताया कि ललिता महराज उससे कहते हैं -‘‘ तुम तो भूसा घास कुछ भी खा लोगे भगठी-छिनार की औलाद, लेकिन देवता को तो ये नहीं खिला दोगे. देवता के लिए असली घी की एक्इस पूड़ी और गाय के दूध का बड़ा कटोरा भर खीर का इंतजाम तो करना ही पड़ेगा, कहीं ले आओ.’’ दो चार भगत-साधु मन्दिर में बने ही रहते थे. जिनके लिए प्रसाद बढ़ा कर बनाना पड़ता है. कनाई और उसकी माँ के हिस्से में बेर बचता है. कनाई ने आमदनी बढाने के लिए दो साल से बेर बेचने के साथ लाख की खेती भी शुरु की है. लेकिन उसके पास बढि़या उपज योग्य न ताकत बची है न लागत है.



वह कनाई का सब कुछ लौटाएगी. ताकत भी लागत भी. ‘‘कहीं ठीक होकर कनाई उसी पर मर्दानगी दिखाने को उतावला हुआ तो! तो ? वह अपने को बचाने के लिए उसे ऐसे ही छोड़ दे ? नहीं, उसके बाउदी ने उसे धरम सिखाया है. जब कनाई ठीक जाएगा तब वह कनाई से कह देगी कि वह बरम्हचारी रहना चाहती है. वह बसुकि से ब्याह कर ले. वह कनाई के लिए इतना कर रही है तो कनाई बदले में उसकी हर बात मानेगा. हाँ ये सही है.’’

संझा को सबसे पहले कनाई, अपनी सास और अपने लिए भरपेट भोजन का इंतजाम करना था. उसकी समझ में यही आया कि वह लाख की खेती में मेहनत बढ़ा देगी. साथ-साथ जंगल में अपने काम-काज से आए लोगों को औषधि देना शुरु करेगी.

यही सब सोचती हुई संझा, अगली सुबह, दोनों हाथों में भरी-बड़ी बालटी लेकर मन्दिर धोने के लिए चढ़ रही थी. उसने देखा कि पहाड़ी पर खड़े ललिता महराज अचरज से उसे देख रहे हैं. उसने लड़खडा़ कर बाल्टी का पानी गिरा दिया. मानों उसने पानी भर तो लिया था लेकिन अब इतनी ताकत नहीं है कि लेकर चढ़ सके.

‘‘बइठो बहुरिया! माथ से आँचल तनिक पीछे सरका लो.’’

मुँह दिखाई के समय संझा की आँखें बन्द थी. उसे भान हो रहा था कि ललिता महराज की आँखें उसके चेहरे पर नाच रही हैं. ललिता महराज जो खोज रहे थे वह कल रात नदी तीरे गड्ढा खोद कर दफना दिया गया था-संझा के बदन,चेहरे के बाल, कनाई के मचान पर सो जाने के बाद.

संझा मनुष्यों की दुनिया में धीरे-धीरे शामिल हो रही थी.

शुरु के महीनों में वह, उजाला और आदमियों से इतना डरती थी, मानो वह इंसान नहीं कोई प्रेतात्मा हो. उजाले में उसके कपड़ों के पीछे तक का सब कुछ दिख जाएगा. आदमी उसे बोतल में बन्द करके नदी में फेंक देगे. जैसे उस रोग के कीटाणु को मारने के लिए उसी रोग के टीके लगाए जाते हैं, भयानक भय को जीतने, और अपने को बचाए रखने की धुन में संझा केे भीतर प्रेतीली ताकत पैदा हो रही थी. इसी प्रक्रिया में वह चैदह साल की उम्र से अपनी नींद भूल चुकी है. वह पेड़, थुंबी या दीवार के सहारे झपकी लेती है और प्रेत की तरह काम करती है.

अपने को जिन्दा रखने के लिए वह सबकी जरुरत बन जाना चाहती थी.

‘‘संझा! अपने को हवा क्यों नही लगने देती हो ? पल्लू हटा कर बैठ लो पल भर! तुमने गर्दन पीछे करके पानी में अपना ये हिस्सा देखा है कभी!” कनाई बहाने से संझा की कमर पर हाथ फेर रहा था. वह संझा के इतने पास आ गया कि उसकी साँस का महुआ संझा की साँस में चढ़ने लगा.

संझा ने नशा तोड़ने के लिए खट् से बेर की लक्खी डाल तोड़ दी. कनाई चैंक गया. संझा, बेर की लाख से भरी डालियों की गुल्ली काटती जा रही थी. अपने लंबे हाथों से बेर की ऊँची शाखाएँ झुका कर उनमें गुल्ली बाँधती जा रही थी. उसके बाद वह उन गुल्लियों पर पुआल लपेट देती. लाख बनाने वाले करियालक्का कीड़े गर्मी पाकर जल्दी बढ़ते हैं. उसने कनाई से इशारा किया कि आओ काम में हाथ बटाओ.

कनाई ने भी इशारे में जवाब दिया कि मैं मचान पर आराम से लेट कर तुम्हें देखूँगा. एक यही काम मुझे अच्छा लगता है.

कनाई जब सोकर उठा तब संझा नदी पर थी. कुल्थी का साग तोड़ती स्त्रियों को इशारे से बता रही थी.. ये किसी के ठेहुनों में दरद होतो...ये भूख न लगती हो तो. संझा उनके सामने ही जड़ या पत्ती का टुकड़ा तोड़ कर पहले खुद खा रही थी-

‘‘देखो माहुर नहीं दे रही हूँ. मैं बैद जी की बेटी हूँ. सही औषधि दे रही हूँ.’’ गाँव की स्त्रियाँ संझा के इशारे समझने की तकलीफ क्यों उठाए ? इसलिए संझा को औषधि देते समय बोलना पड़ रहा था.

‘‘तुम ? हमरे बैद महराज की बेटी हो!”

‘‘तबियत में सुधार हो तब आना-दो आना पैसा, चाहें पाव-आध पाव जोन्हरी-कोदो, जो तुम्हारी सरधा हो, लेती आना चाची. सिमरा फुआ का हाल अब कैसा है ?’’

‘‘ऊ चंगी हो रही हैं. बिदाई के समय रोते-रोते तुम्हारी आवाज फट गई थी वो अभी ठीक नहीं हुई क्या संझा ?’’
‘‘अरे चाची! अभी चैगाँव को मुझ पर भरोसा नहीं न! सबके सामने औषधि खानी पड़ती है. उसी में गलती से सिन्दूर का फल खा लिया. अब तो ये आवाज कबहु नहीं ठीक होगी.’’

संझा को अपने पर अचरज हुआ. किसी ने उसके उसके बारे में कुछ पूछा नहीं कि दिमाग सन्न! हो जाता था. आज कैसे उसे अपनी भारी और फटी आवाज का हमेशा के लिए जवाब मिल गया ? कोई उसे जवाब भेज रहा है, बचा रहा है-बाउदी !

‘‘बहुरिया! आज महराज जी पूजा नहीं करेंगे. तुम्हें ही करना है.’’ अगली सुबह देवथान आने पर उसकी सास ने कहा.
‘‘क्यों ?’’ संझा की दो पल की चुप्पी में यह सवाल था.
‘‘महीना हुए हैं. तीन दिन असुद्ध रहंगे.’’



तीन दिन बाद संझा ने अपनी माँ की पुरानी साड़ी फाड़ी. उस पर सहतूत कूच कर लगाया. जहाँ ललिता महराज की माहवारी के कपड़े धोकर फैलाए गए थे, वहीं वो कपड़े फैला दिए. पेड़ पर धारी खींचने लगी कि सत्ताइसवाँ दिन याद रहे. वह तो कहो कि गाँव की स्त्रियों से उनकी पीड़ा के बारे में सीधे बात करने के बाद वह माहवारी के बारे में जान गई थी.

‘‘तुम तीन दिन मचान पर लेटी रहोगी तो त्राहि त्राहि मच जाएगी बहुरिया!’‘ चैगाँव की घसियारिनें कहने लगीं. संझा ने तीन दिन कनाई से फंकी कुटवाई और पुडि़या बँधवा कर जरुरतमंदों को दिया. सत्ताइस दिन बीतते न बीतते चैगाँव की स्त्रियाँ खुद कहने लगती-‘‘बहुरिया औषधि पहले ही बना कर रख लेना. कनाई से कहना तीन दिन कहीं जाए नहीं. ’’

‘‘ये लोग मुझसे नहीं, अपनी जरुरतों से प्रेम करते हैं. मैं अपनी असलियत भूल रही हूँ. मुझे बहुत अच्छा लग रहा है. मुझे प्रेम की आदत पड़ रही है. एक दिन सब कुछ छिन जाएगा. कनाई...चैगाँव... सबके प्रेम के बिना...सबकी घिन्न के साथ...उसे जिन्दा रहना पड़ेगा अगर !’’

संझा की झपकी उचट जाती. वह बदहवास सी, चैगाँव के बाकी किसानों की डालियों पर भी पाल बाँधने लगती. चैगाँव के लिए, कनाई के लिए, अपनी सास के लिए, इसको-उसको, सबको स्वस्थ रखने की औषधि तैयार करने लगती.

चैगाँव के लोग अगली सुबह अपनी पाल बँधी डालिया देखते तो कहते-‘‘संझा बिटिया के कारन यहाँ की हवा बदल रही है.

‘‘वह बन देबी है. कुँवारेपन से उसके लच्छन देबियो जैसे थे.’’
‘‘हम अपनी तकलीफ के लिए मुँह खोलते ही हैं कि आगे बीमारी का लच्छन वो खुद ही बताने लगती है.’’

‘‘मैं रात में उसके पास धावता हुआ गया तो क्या देखता हूँ कि पहले से ही औषधि लिए खड़ी है.’’

‘‘हाँ! हाँ! हमारे साथ भी ऐसे ही हुआ है.’’

चरी काटने, पाल बाँधने, बेर तोड़ने, लकड़ी बटोरने, नदी नहाने आई स्त्रियाँ, संझा से गाँव-जवार का एक-एक सुख-दुख बतियाती. हारी-बीमारी की चर्चा जरुर करती थीं. इससे संझा को अंदाज लग जाता था कि किसकी बीमारी रात के एकांत में हमलावर हो जाएगी. उसकी औषधि की जड़ी पत्तियाँ वह कूट-छान कर रख लेती थी.

कुछ और बीमारियाँ भी थी जिसकी दवा लेने वाले रात में ही आते थे.

‘‘मैं बसुकी!’’
‘‘हम आपको बिन देखे पहचानते हैं.’’

‘‘आप मेरी तकलीफ के बारे में कइसे जानती हैं.’’

‘‘क्योंकि तुम सुन्दर हो. गाँव की स्त्रियाँ तुम्हारी चुगली कर रही थीं. कह रहीं थी कि बसुकि संझा बनना चाहती है. तीन महीने से घर के बाहर नहीं निकली. यह सुन कर मैंने बुलवाया. तुमको इतनी देर नहीं करनी चाहिए थी.’’

‘‘दीदी! कनाई से मत बताइएगा.’’

‘‘नहीं, किसी को कुछ नहीं.’’

‘‘मेरी साड़ी पहनो. ये जड़ी खालो. मेरे साथ सोन नदी के किनारे चलो.’’

बसुकि के देह से खण्ड-खण्ड, कट-बह कर निकलता रहा. संजा उस पर मिट्टी डालती रही और बसुकि के बदन पर पानी. उजाला होने से पहले, बसुकि को सहारा देकर, उसके घर के दरवाजे तक छोड़ आई.


सात दिन की औषधि खत्म होने के बाद, बसुकि, रातों को संझा और कनाई से मिलने आने लगी. संझा उन दोनों को मचान पर छोड़ कर बहाने से उतर आती और चारों दिशाओं में पहरा देती.

भादो का महीना लग गया था. पीले बेर फटने लगे थे. बेर की अपनी आधी डालियाँ भूरी और लाख से लदी डालियाँ लाल हो चुकी थीं. लंबी-लंबे बास का गुलेल बनाकर लाख की डालियों को टिकाया जाने लगा था. लाख की लाली और पानी के बादलों के कारण जंगल दिन में भी शाम की तरह लाल-साँवला रहने लगा था. काँस छाती तक चढ़ आया था और गोजर-बिच्छुओं का मन बढ़ गया था.

हर साल भादों के कृष्ण पक्ष में ललिता महराज कृष्ण लीला करवाते थे. इस बार संझा के कारण घर में धन था. देश-देश से सखी और भक्त जन आए थे. चैगाँव से भी दो लोगों ने ललिता महराज से मन्त्र ले लिया था. दिन भर कीर्तन चलता. कई बार प्रसाद बँटता.

दिन भर सखी लोग सोती थीं. शाम से, संझा उसकी सास और चैगाँव की कई स्त्रियाँ सखी लोगों की सेवा करके पुन्य बटोरतीं. आठों सखियों को चिरौंजी का उबटन मला जाता, कुएँ की जगत पर बैठा कर नहलाया जाता, पीले-लाल रंग की पुडिया से रँगे बाडी,पेटीकोट, साड़ी, ब्लाउज,महावर, चूड़ी, बिन्दी चढ़ाव पर दिया जाता. चैगाँव के बच्चे भीड़ लगाकर उन्हें देखते और गरीब-गुरबा उनका जूठन खाकर जनम सुद्ध करने के लिए बैठेरहते.

शाम से कृष्ण लीला होती. रात्रि के दूसरे पहर सखी लोग भक्ति भाव में नाचती-गाती, रासलीला की झाँकी दिखातीं. तीसरे पहर मन्दिर का कपाट बन्द कर दिया जाता. बन्द कपाट के पीछे प्रकृति और पुरुष का चिरंतन नृत्य होता, जिसमें सिर्फ सखी लोग शामिल होतीं. नित्य लीला कोई भूल से भी देख ले तो अंधा हो जाएगा.

संझा की सास, ललिता महराज और सखी लोगों के कपड़े धोते हुए, पिछले चार दिनों की तरह, आज भी उलटी कर रहीं थी. संझा उन्हें काम करने से मना करते हुए उनके हाथ से कपड़े छीनने गई थी. वह देखने लगी कि गेरुए कपडों पर नाक बहने जैसा क्या लगा है ? उसी समय देवथान पठार के नीचे की समतल जगह से हल्ला उठा-


‘‘ललिता महराज! कनाई को बाहर निकालो! ये हमारी बहन बेटियों को खराब कर रहा है.’’

नीचे समूचा चैगाँव इकट्ठा था. ललिता महाराज नींद से उठकर बाहर निकले. हाथ के इशारे से शांत हो जाने को कहा लेकिन...

‘‘हम उस हरामी को हमेशा के लिए ठंडा करने आए हैं. बहुत गरमी चढ़ी है साले को. आप कनाई को हमें सौंप दीजिए.’’ ये बसुकि के भाई थे जिनमें पहवारी सबसे आगे था.
‘‘कनाई ने ऐसा क्या कर दिया ?’’
‘‘उसने हमारी बसुकि को... कहते जीभ कट रही है...गरभ ठहरा दिया था.’’
‘‘कनाई! कनाइवा! हमारे जइसे धरमी के साथ रह कर भी छिनार की औलाद ही निकला. आप लोग निचिन्त रहिए. ललिता महराज के दरबार में आए हैं. न्याय होगा. मैं कनाई को आप सब को सौंपता हूँ. कनाई! ’’



संझा की सास चैगाँव देवता से गुहार करती हुई जमीन पर लोटने लगी. दरवाजे की ओट में खड़ी संझा समझ नहीं पा रही थी कि कनाई को कैसे बचाए ? भीड़ के सामने जाने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी. वह बसुकि के बारे में सब को बता दे... नहीं बेचारी कितने लोगों के साथ बदनाम होगी.’’

‘‘सुनो कनाई! तुम कह दो कि ठीक है....पंच लोग आज ही बसुकि से तुम्हारा ब्याह कर दें. ’’ संझा ने किवाड़ की ओट से कहा.
‘‘नहीं! बसुकि के भाई लाठी के हुरे से मेरा कपार फाड़ डालेंगे. मैं सब सही-सही बता दूँगा.’’
‘‘कनाइवा! मैं तुम्हें लेने आऊँ कि तुम खुदे आ रहे हो ?’’ ललिता महराज क्रोध में चीख रहे थे.
‘‘मैंने कुछ नहीं किया है ललिता महराज! चैगाँव के लोगों.’’ कनाई ने देख लिया कि पहवारी उसे दिखा कर,अपनी लाठी से, मिट्टी को धान की तरह कूट रहा है.

‘‘मैं...मैं नपुंसक हूँ...’’

‘‘झूठ्ठे हो तुम! संझा जैसी ताकतवर औरत को तुम सँभाल न पाते तो वो कबका तुम्हें छोड़ कर किसी मर्द के साथ बैठ गई होती! ललिता महराज! इसे पहाड़ी से ढकेलिए ! हमें सौंपिए. आज सारा चैगाँव सबक सीखेगा.’’

‘‘नहीं रुकिए! मेरी बात सुनिए आप लोग... संझा मुझे इसलिए छोड़ कर नहीं गई कि....वो ....वो हिजड़ा है. एक दिन बिसेसर चाचा को नींद के लिए पोस्ता दाना देने से पहले इसने खुद चख लिया था. उस रात, मेरी जानकारी में ये पहली बार सो गई थी. इसकी साड़ी इसके सिर पर चढ़ गई थी और पल्लू हट गया था. तब मैंने देखा था-

‘‘...कि संझा का ऊपर बेर है और नीचे बेर का कांटा...’’
‘‘मुझको तो उसकी चाल और आवाज के कारन बिदाई के दिन से सुबहा था.’’
‘‘आदमियों से भी ज्यादा तो उसकी ताकत है तभी तो हमसे बढ़ कर काम कर लेती है.’’

‘‘उसके हाथ का छुआ पानी नहीं पीना चाहिए लेकिन उसने पूरे गाँव को अपने हाथ से औषधि पीस कर कई-कई दिन तक पिलाया है.’’

‘‘वह हम सबको अपने जैसा बनाना चाहती थी. इसलिए हम सबको असुद्ध कर रही थी.’’
‘‘वह तीस साल से सबको धोखा देकर हमारे बीच रह रही है.’’

‘‘उसने चैगाँव की माटी को...बन को...नदी को मैला किया है.’’

‘‘उसने मेरे देवथान को अपवित्तर किया है. इसको नग्न करके इसका बाल मूँड़ दो. मुँह पर कालिख पोत कर पूरे चैगाँव में मारते हुए घुमाओ. उसके बाद उन लोगों को खबर कर दो इसे आकर ले जाएँ. राधे!राधे! पूरे चैगाँव को सुद्ध करने के लिए जाप बैठाना पड़ेगा. सखी लोगों के रुकने की अवधि बढ़ानी पड़ेगी.’’

बसुकि के भाई संझा के केश पकड़ घसीटते हुए नीचे ले आ रहे थे. कंकड़ ओर बेर के यहाँ-वहाँ बिखरे काँटों पर रगड़ती हुई संझा कहना चाहती थी ‘‘चैगाँव देवा! रच्छा करो’’लेकिन उसके मुँह से निकला ‘‘बाऽऽउदी! बाऽऽउदी! ये लोग आपकी संझा को मार रहे हैं!’’ संजा की डेकरती हुई आवाज पहाडि़यों से टकराती हुई बैद्यजी की तक पहुँचती, उसके पहले ही बूढ़ा बाप बैचेन होकर, हाँफता हुआ संझा के ससुराल की दिशा में दौड़ चुका था.

चैगाँव के लोगों में संझा को नंगा करने की होड़ मची थी. उसकी माँ की सफेद धोती हवा में छोटे-छोटे टुकड़ों में उछल रही थी. चैगाँव के जवान मर्द, उत्तेजना मंे चिल्ला रहे थे कि देखें हिजड़े का कैसा होता है. संझा, सैकड़ों चोट करती हथेलियों के बीच जमीन पर पड़ी थी. उसकी आँखें माँ की चिन्दी-चिन्दी उड़ती साड़ी देख रही थी, अपनी स्मृति में वह मरी हुई माँ की बाँह पर सोई थी...बाबा से ससुराल के लिए बिदा ले रही थी. उसके कान में कनाई के संझा!संझा!कह कर रोने, ललिता महराज के ‘‘इसके खून से देवथान धुलेगा तब पवित्तर होगा’’ कहने और लोगों के हँसने की आवाज पड़ रही थी, लेकिन दिल और दिमाग को सिर्फ एक बात साफ तौर पर सुनाई दी-

‘‘संझा! मेरी गुडि़या...तुम्हारे जनम के बाद मैंने और तुम्हारी माँ ने तुम्हें पालने के अलावा कोई काम नहीं किया... हमारा प्रेम हारने मत देना मेरी बच्ची!’’ अपने ऊपर झुके हुए पाँवों की दरार से संझा को बाउदी की खुली हथलियाँ दिखार्द दी.

‘‘जिस सच्चाई को छिपाने के लिए तीस साल, मैं और मेरा बूढ़ा बाप, हर पल डरते रहे, उस सच्चाई के खुलने का ही डर था, खुल गई तो अब कैसा डर! अब कोई डर नहीं.’’

संझा ने पीठ के नीचे दबी, नुकीली कांटों वाली वह साख निकाल ली जो अब तक उसे धँस रही थी. उसने पूरी ताकत से उसे लहराया. आधी भीड़ चीखती हुई पीछे हट गई.

‘‘सुनो चैगाँव के बासिन्दों!’’ संझा की फटी आवाज की तरंगो से कंकड़ भरभरा कर लुढ़कने लगे.

पहाड़ी पर खड़ी संझा को देख कर चैगाँव जड़ हो गया. उसके बदन पर लँगोट बची थी. अगरबत्ती के धुएँ के रंग जैसी त्वचा पर, जगह-जगह काँटे और कंकड़ धँसे थे. कई जगह से रक्त की पतली-पतली धार बह रही थी, जिस पर लतर-पत्तियाँ चिपकी थीं. माथे का सिंदूर आधे गाल पर फैल गया था. उसके हाथ में बेर की फल-कांटेदार डाल थी.


वह अच्छा करने पर फल और बुरा करने पर कांटे देने वाली दिखाई दे रही थी. सभी देख रहे थे कि रक्त की धारियों को पोंछ दिया जाए, तो चैगाँव देवता की मूर्ति बिलकुल ऐसी ही है.

हवा को काटती संझा की भीगी आवाज ऐसी लग रही थी जैसे बहुत सारे जल पंछी, फड़फड़ा कर उड़े हों- 


‘‘एक पर सौ, तुम सब मर्द हो ? ये ललिता महराज आदमी है और मैं हिजड़ा ? ये कनाई जो अपनी प्रेमिका की थंभी नही बन सकता ? वो बसुकि का चचेरा भाई जो उसके साथ रोज जबरदस्ती करता था, जिसे डर था कि बसुकि कनाई के साथ भाग न जाए, वो बड़ामर्द है. मैं गर्भपात की औषधि लेकर रोज रात को न बैठूँ तो तुम मर्दो के मारे चैबासे की लड़कियों को नदी में कूदने के सिवाय क्या रास्ता है ? तुम सबों की मर्दानगी-जनानगी के किस्से नाम लेकर सुनाऊँ क्या ? उस रात जब मैं सोमंती के तीनों बच्चों को दवा देने आई थी...सोमंती ने ही अपने बच्चों को जहर दिया था अपने प्रेमी के साथ मिल कर ...उन्नइस साल की कुनाकी, जिसने झंझट खतम करने के लिए अपना गर्भासय निकलवा दिया...उसका आदमी खुद उसे लेकर कस्बे के साहबों के पास जाता था...जब खून नहीं रुक रहा था तब रोती हुई मेरे पास आई...चैगाँव के एक एक आदमी की जन्मकुडली है मेरे पास.

न मैं तुम्हारे जैसी मर्द हूँ. न मैं तुम्हारे जैसी औरत हूँ. मैं वो हूँ जिसमें पुरुष का पौरुष है और औरत का औरतपन. तुम मुझे मारना तो दूर, अब मुझे छू भी नहीं सकते, क्योंकि मैं एक जरुरत बन चुकी हूँ. सारे चैगाँव ही नही, आस-पास के कस्बे-शहर तक, एक मैं ही हूँ जो तुम्हारी जिन्दगी बचा सकती हूँ. अपनी औषधियों में अमरित का सिफत मैंने तप करके हासिल किया है. मैं जहाँ जाऊँगी, मेरी इज्जत होगी. तुम लोग अपनी सोचो. तो मैं चैगाँव से निकलूँ या तुम लोग मुझे खुद बाउदी की गद्दी तक ले चलोगे.’’


(मैं अब तक भाग्य था. लेकिन किसी मजबूर पर ताकत आजमाने वाला और किसी मजबूत की ताल से दुबका हुआ मैं, सबसे बड़ा हिजडा़ हूँ.)


(सभी पेंटिग Kalki Subramaniam के हैं जो खुद ट्रांसजेंडर कलाकार हैं)
_________________________________
किरण सिंह
kiransingh66@gmail.com

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इस कहानी पर आधारित राकेश बिहारी का आलेख पढने के लिए यहाँ क्लिक करें   :    कहानी के साथ एक बेतरतीब वार्तालाप उर्फ आत्मालाप या आत्म-प्रलाप...

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  1. अद्भुत कहानी है। ऐसी कहानियाँ कम ही पढ़ने को मिलती हैं। लेखक के विचार, कहानी का शिल्प सब कुछ बेहतरीन है।

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  2. मंजुला बिष्ट27 दिस॰ 2017, 6:44:00 am

    यह कहानी ने मुझे हिला कर रख दिया है,ऐसा मार्मिक व ओजपूर्ण अंत होगा ,कल्पनातीत था। इस उपेक्षित वर्ग को लेकर पढ़ी हुई यह पहली कहानी है जिसने इनकी जिंदगी व इनके पालकों के अंतर्द्वंद व हताशा को सजीवता से सामने लाकर खड़ा कर दिया।
    साँसें थम सी गई थी,,
    इस छिपे हुए दर्द को पढ़ाने के लिये,शुक्रिया सर

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  3. किरन सिंह ! कहां बसती हो बहन !
    कितने छोर अछोर तक।
    यह तो असंभव सी व्याप्ति है।
    कैसे रह लेती हो इतनी खौलती चीज़ों के साथ।

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  4. कहानी खत्म हुई तो अनुभूति हुई कि यह तो कहानी है. पढ़ते हुए तो लग रहा था जैसे सबकुछ आँखों के सामने घटित हो रहा हो. इतना अच्छा लेखन कम ही देखने को मिलता है.

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