भूमंडलोत्तर कहानी – १५ (कफन रिमिक्स - पंकज मित्र) : राकेश बिहारी)





कथा-सम्राट प्रेमचंद की कालजयी कहानी ‘कफन’ उनकी अंतिम कहानी भी है. यह मूल रूप में उर्दू में लिखी गयी थी. जामिया मिल्लिया इस्लामियाकी पत्रिका जामियाके दिसम्बर, १९३५ के अंक में यह प्रकाशित हुई, इसका हिंदी रूप ‘चाँद’ के अप्रैल, १९३६ में प्रकाशित हुआ था. यह हिंदी की कुछ बेहतरीन कहानियों में से  एक है.

इस कहानी की पुनर्रचना का विचार ही ज़ोखिम भरा है और ऊँचे दर्जे की कहानी- कला और सामाजिक संरचनाओं में आये बदलावों की गहरी समझ की मांग करता है. 

कथाकार पंकज मित्र ने यह साहस दिखाया है. ‘कफन रिमिक्स’ समकालीन घीसू माधव की कथा कहने का दावा  करती है. ८२ साल बाद क्या ‘घीसू’ ‘माधव’ की संताने इसी तरह विकसित हो रही हैं ? आदि आदि.

समालोचन में कथा–आलोचक राकेश बिहारी का स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ पिछले लगभग तीन वर्षो से नियमित प्रकाशित हो रहा है जिसमें अब तक १४ कहानियों की विवेचना आप पढ़ चुके हैं. यह अब पुस्तकाकार शीघ्र प्रकाश्य है.

कहानी आपके समक्ष है. विवेचना साथ में है. पहले आप कहानी पढ़ें, गुनें, विचारें. फिर विवेचना पढ़ें. देखें कथाकार ने कहानी को कहाँ तक आगे बढ़ाया है? और विवेचना में कथा की कैसी पड़ताल की गयी है.

समालोचन यह समझता रहा है कि जब तक पाठक का पाठ सामने नहीं आता पाठ पूरा नहीं होता.




भूमंडलोत्तर कहानी – 1५
घीसू-माधव के प्रतिरोध का विस्तार                
(संदर्भ: पंकज मित्र की कहानी कफन रिमिक्स’)

राकेश बिहारी 



चना समय के कहानी विशेषांक (२०१६) की परिकल्पना करते हुये कुछ कालजयी हिन्दी कहानियों का पुनर्लेखन करवाने की बात भी मेरे दिमाग में थी. मैंने इस बावत कुछ कथाकार मित्रों से चर्चा भी की. पर कुछ तो सैद्धान्तिक रूप से इस पुनर्लेखन की योजना से सहमत न होने के कारण तो कुछ अन्य कारणों से, उनमें से कोई इसके लिए तैयार नहीं हुआ. इतिहास में दर्ज हो चुकी बड़ी कहानियों के साथ उनकी आभा किसी साये की तरह चलती है जिससे मुक्त होकर उनका पुनर्लेखन सचमुच एक मुश्किल कार्य है. अतः मैंने भी मान लिया था कि उक्त विशेषांक में यह संभव नहीं हो पाएगा. लेकिन पंकज मित्र ने जब उस अंक के लिए मेरे आग्रह पर कहानी भेजी तो सबसे पहले उसके शीर्षक ने मुझे चौंकाया. कहानी के आरंभिक दृश्य ने ही यह जता दिया कि कफन रिमिक्समें पंकज मित्र ने प्रेमचंद की सर्वाधिक चर्चित और विवादित कहानियों में से एक कफनकी पुनर्रचना की है. समकालीन संदर्भों के बीच कफनकी इस पुनर्रचना के प्रथम पाठ का प्रभाव मुझपर इतना गहरा था कि कुछ हिस्सों से गुजरते हुये आँखें भी नम हो आईं. इस तरह अनजाने में ही इस कहानी ने पुनर्लेखन वाली मेरी परिकल्पना को भी साकार कर दिया था. तब से आजतक इस कहानी को कई बार पढ़ चुका हूँ. इस कहानी को कफनसे मुक्त होकर नहीं पढ़ा जा सकता लिहाजा इस टिप्पणी तक पहुंचने के पहले कफनसे भी फिर-फिर गुजरना पड़ा.

यूं तो मोटे तौर पर कफनऔर कफन रिमिक्सदोनों ही कहानियाँ एक जैसी हैं एक जैसे बाप-बेटे, प्रसव वेदना से कराहती एक जैसी स्त्रियाँ, प्रसव से पहले उसी तरह उनका मर जाना और उनकी अंतिम क्रिया के लिए कफन का न मिलना.... बावजूद इन मोटी समानताओं के जो चीजें कफन और कफन रिमिक्स को एक दूसरे से अलग करती हैं, वे भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं. गौर किया जाना चाहिए कि घीसूऔर माधवयहाँ क्रमशः जी रामऔर एम रामहो चुके हैं तो बुधियाबुधवंती में बदल चुकी है. हाँ, मृतक यानी बुधिया और बुधवंती के स्वर्गारोहण की चिंता दोनों कहानियों के बाप-बेटे को है-

घीसू तेज हो गया – ‘मैं कहता हूँ उसे कफन मिलेगा. तू मानता क्यों नहीं?’
कौन देगा बताते क्यों नहीं?’
वही लोग देंगे जिन्होने अबकी दिया. हाँ वो रुपये हमारे हाथ न आएंगे.‘”
(‘कफनकहानी से)

एम. राम “लेकिन हमरा से पूछेगी कि हमारा किरिया-करम भी नहीं किए तो हम का जवाब देंगे?
जी. राम “किरिया-करम तो होगा बस थोड़ा दूसरा तरीका से. देख, माटी का शरीर माटी में मिलना है. चाहे जैसे मिले. गफ़ूरवा का बाप मरा था तो सरग गया होगा कि नहीं. एतना एकबाली आदमी था.
(‘कफन रिमिक्सकहानी से)

गौरतलब है कि दोनों ही कहानियों के अंत में बाप-बेटे दार्शनिक मुद्रा में आ जाते हैं. लेकिन अपनी तमाम दार्शनिकताओं के बीच बैकुंठ और स्वर्ग की बात करने के बावजूद कफ़नके घीसू-माधव जहाँ कफन के अनिवार्य कर्मकांड से बाहर नहीं आ पाते वहीं जी राम और एम राम कफन की सामाजिक घेरेबंदी को पीछे छोड़ जाते हैं. आर्थिक अभाव और शोषण की अंतहीन श्रृंखलाओं ने घीसू और माधव को कामचोर और अमानवीय बनाया था वहीं बुधवंती के नाम कुआं के आवंटन में प्राप्त होने वाली संभावित सरकारी धनराशि का लोभ अर्थाभाव का दंश झेल रहे जी राम और एम राम को चैतन्य और भविष्योन्मुखी तो बनाता ही है मजबूरी में ही सही कर्मकांड और रूढ़ियों के जंजाल से भी एक बार मुक्त कर देता है. यानी तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद जहाँ प्रेमचंद के पात्र कफन के अनिवार्य कर्मकांड में उलझ कर रह जाते हैं, वहीं पंकज मित्र के पात्र संभावना से भरे अगले पल की आस में क्रिया कर्म की वैकल्पिक व्यवस्था का हवाला देते हुये कफन की अनिवार्यता से ही मुक्त हो जाते हैं. घीसू-माधव का प्रतिरोध कफन खरीदने के लिए इकट्ठा सहायता राशि को उड़ाने तक ही सीमित है. कहानी के समकाल को देखते हुये तब यह भी कम नहीं था, बल्कि उस पर यथार्थ से विलग होने के आरोप भी लगते रहे हैं. आवंटन राशि की उम्मीद में बुधवंती के शव को दफनाने का दृश्य रचकर पंकज मित्र जी राम और एम राम के चरित्र में घीसू-माधव के प्रतिरोध का ही विस्तार रचते हैं. 

चाहे वह पात्रों के नाम का अंतर हो या उनकी दार्शनिक नियतियों के बीच का फासला या फिर कफन रिमिक्समें नाम मात्र को ही सही, एक अस्पताल का होना... ये बातें सिर्फ दोनों कहानियों को एक दूसरे से अलग भर नहीं करतीं बल्कि इनके बीच पसरे लगभग  अस्सी वर्ष लंबे समयान्तराल के बीच खड़े भारतीय समाज के जातिगत ढांचे में आए में बदलाव और ठहराव दोनों को एक साथ रेखांकित करती हैं. कफनका प्रकाशन जहां 1936 में हुआ था वहीं कफन रिमिक्स’ 2016 में प्रकाशित हुई है. दोनों ही कहानियों के प्रथम दृश्य में बुधिया और बुधवंती अपने कमरे में दर्दे-ज़ह से पछाड़ें खा रही हैं और उसका पति और ससुर बाहर देशी शराब पी रहे हैं. लेकिन कफनमें घीसू-माधव बुधिया के कमरे के बाहर जैसे उसके मरने की प्रतीक्षा में ही बैठे हैं वहीं कफन रिमिक्समें एम राम गांव के एकमात्र प्राथमिक सेवा केंद्र के बेरंग और बंद दरवाजे पर कई लातें जमा कर लौटा है. आज़ादी हासिल हुये लगभग सत्तर वर्ष बीत गए. इस बीच हमारा देश सामंती मूल्यों के बरक्स सरकार और शासन की व्यवस्था में हुये बदलावों का गवाह रहा है. कहने की जरूरत नहीं की सामंती मूल्यों द्वारा संचालित व्यवस्था और राष्ट्र राज्य की अवधारणा के तहत दी गई शासन व्यवस्था के बीच का अन्तर ही इन दोनों कहानियों के बीच के अंतर का बड़ा कारण है. 

व्यवस्था और उसके अनुरूप प्रतिरोध की चेतना में आए अंतर को समझने के लिए कफन रिमिक्समें जी राम के शब्दों पर गौर किया जाना चाहिए अभी तो कम से कम छोटका हस्पताल के उजाड़, बेरंग बंद दरवाजा में लात मारनेका भी उपाय है. तब तो वह भी नहीं था. निःसन्देह तब और अब के बीच उल्लेखनीय अंतर हुआ है, लेकिन सवाल यह है कि अस्सी बरस के बीच आया यह बदलाव पर्याप्त है? पंकज मित्र इस प्रश्न का जवाब अपनी कहानी की शुरुआत में ही कुछ इस तरह देते हैं-

शायद घीसू ही रहा हो या गनेशी या गोविंद- नाम से फर्क भी क्या पड़ना था. एक चीज एकदम नहीं भूलते थे दोनों बाप-बेटे नाम के साथ रामलगाना, बल्कि माधो या मोहन जो भी नाम रहा हो, एकदम छोटा करके बतलाता था- एम राम. बाप का नाम?- जी राम. पीठ पीछे  गरियाते थे लोग ऊँह! काम न धाम, नाम एम राम! सामने हिम्मत नहीं होती थी क्योंकि जमाना इनलोगों; का था या कम से कम ऐसा समझा जाता था.  किसी खास वर्ग के लोगों का समय होना या ऐसा समझा जाना के बीच चाहे जितना बड़ा अंतर हो इसने इतना तो किया ही है कि अब किसी के सामने आप उसकी जाति के नाम पर गालियां नहीं दे सकते हैं.

कहानी की शुरुआत में ही अपने नाम के आभिजात्यीकरण के प्रति एम राम का  विशेष आग्रह हो कि बंद पड़े अस्पताल के दरवाजे पर लातें जमाना, सदियों से समाज के हाशिये पर जीने को मजबूर दलित वंचित समूह के लोगोंके भीतर धधक रही प्रतिरोध की आग को ही दिखाता है. और हाँ, कहानी का पहला वाक्य – ‘शायद घीसू ही रहा हो या गनेशी या गोविंद- नाम से फर्क भी क्या पड़ना था.कहानीकार की इस मंशा को भी स्पष्ट कर जाता है कि वह किसी चरित्र विशेष की कहानी नहीं कहने जा रहा बल्कि उसका उद्देश्य वर्ग विशेष के चरित्र को केंद्र में रखना है.

प्रेमचंद कफनमें जहां बिना हिचक चमारों का कुनबा कह जाते हैं, या शोषण की प्रतिक्रिया में घीसू-माधव को कामचोर तक दिखा जाते हैं वहीं पंकज मित्र का रचना-कौशल लगातार चैतन्य और युगीन सामाजिक बोध से संचालित होता दिखता है. यह उसी का नतीजा है कि जाति की सूचना के अवसर पर वे मौन या अप्रकट की तकनीक का सहारा लेते हैं तथा जी राम और एम राम कामचोर नहीं बल्कि बेकार हैं. स्पष्ट है कि पंकज मित्र न सिर्फ दलितों-वंचितों के अस्मिताबोध के प्रति जागरूक और चैतन्य हैं बल्कि कफनकहानी के दलित-पाठ से भी पूरी तरह वाकिफ हैं. गौर किया जाना चाहिए कि कफनमें चमारों का कुनबा और घीसू-माधव के  कामचोर होने की बात सीधे नैरेटर के हवाले से कहानी में दाखिल होती है. यही कारण है कि तमाम सदाशयताओं के बावजूद दलित चिंतकों और विमर्शकारों ने कफनकहानी के दलित विरोधी होने की बात की है. इसके विपरीत कफन रिमिक्स में पीठ पीछे लोगों का काम न धाम, नाम एम राम कहना हो या फिर जी राम का यह कहना कोय काम देता नहीं कहता है कामचोर कुछ ऐसी गवाहियाँ हैं जो वर्चस्ववादी वर्णव्यवस्था की लीक पर चलने वाले लोगों की कुंठा और उच्चताबोध को पुष्ट करती हैं. मुझे यकीन है कि कफन रिमिक्सको आज यदि ओमप्रकाश बाल्मीकि पढ़ते तो इसे कफनकी तरह सनातनी मूल्यों का ध्वजवाहक नहीं कह पाते.

कफन कहानी जहां पूरी तरह सामंती मूल्यों के प्रति दलित-प्रतिरोध की कहानी है वहीं कफन रिमिक्स दलित चेतना और प्रतिरोध को रेखांकित करने के साथ-साथ सरकारी शासन-व्यवस्था में व्याप्त संगठित लूट के समानान्तर तंत्र को भी बेपरदा करती चलती है. आज़ादी प्राप्त होने के बाद न सिर्फ देश में सदियों से फलफूल रही सामंती व्यवस्था की चूलें हिलीं बल्कि दलितो-दमितों की प्रतिरोधी राजनैतिक चेतना का उल्लेखनीय विकास भी हुआ. पर इस दौरान सरकारी तंत्र के साये में एक ऐसी व्यवस्था ने अपनी जड़ें जमाईं, जिसका मुख्य चरित्र मूल्यहीनता ही है. परिणामतः चोरी-बेईमानी एक व्यवस्थाजनित मूल्य की तरह स्थापित होता गया. राष्ट्र राज्य की कल्याणकारी योजनाओं के तहत सरकार ने योजनाएँ तो खूब बनाईं लेकिन उनका अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया जा सका. परिणामतः बेईमानी, कामचोरी और भ्रष्टाचार  इस नई व्यवस्था के अपरिहार्य उपोत्पाद की तरह फलने-फूलने लगे. न्यूनतम मजदूरी की गारंटी का कानून वास्तविकता के धरातल पर सरकारी खजाने के न्यूनतम बंदरबाट का सूचकांक हो कर रह गया तो सूचना का अधिकार ब्लैकमेलिंग व्यवसाय का पर्याय बन गया और मनरेगा जैसी लोककल्याणकारी योजनायें लूट-महोत्सव में थिरकने के लिए गा रे मन गाकी धुन तैयार करने का जरिया बन गया और इन सब के बीच विकास की आड़ में ठहराव या ऋणात्मक विकास की कहानियाँ रची जाने लगीं.

जी राम और एम राम के अस्मितामूलक प्रतिरोध के समानान्तर सरकारी विकास की यह प्रतिकथा जिसमें व्यवस्था किस तरह एक आम नागरिक को भ्रष्ट और बेईमान बनाने पर मजबूर करती है, भी जारी रहती है. मर चुकी बुधवंती को जल्दी में दफना कर उसके नाम आवंटित कुआँ के लिए मिलने वाली धन राशि को जी राम और एम राम द्वारा हड़प लेने की चालाकी उसी का नतीजा है.
कफनहो या कि कफन रिमिक्सये दोनों ही कहानियाँ जाति और समाज की तमाम चिंताओं के बीच बुधिया और बुधवंती की कोई खास चिंता करती नहीं दिखतीं. उन दोनों की उपयोगिता मर कर भी अपने परिवारजन के लिए चंद रुपयों का जुगाड़ करवा जाने से ज्यादा की नहीं है. इस बात पर अलग से विचार किया जाना चाहिए कि अस्सी वर्षों के लंबे अंतराल के बावजूद कफन रिमिक्सकी बुधवन्ती के जीवन की छवियाँ बुधिया के जीवन की छवियों से कुछ खास अलग क्यों नहीं दिखतीं? जबकि एक जैसी स्थितियों के बावजूद जी राम और एम राम  घीसू-माधव  से बहुत अलग हैं.

ऊपर के अनुच्छेद में मैंने इस बात की चर्चा की है कि कफन कहानी के दलित पाठ और दलित प्रतिरोध के युगीन आलोक में पंकज मित्र का कथाकार दलित अस्मिता के प्रति एक अतिरिक्त सतर्कताबोध से युक्त रचनात्मक कौशल अर्जित करता है. स्त्री अस्मिता के प्रति उस तरह की चैतन्यता के अभाव का कारण कहीं कफन कहानी के उतने ही प्रखर स्त्री-पाठ का न होना तो नहीं? प्रश्न तो यह भी उठता है कि क्या कफनया कफन रिमिक्सको प्रेमचंद या पंकज मित्र के बदले किसी स्त्री कथाकार ने लिखा होता तो इन कहानियों में बुधिया और बुधवंतीका चरित्र कैसा होता? यह एक ऐसा विंदु है जहां से इन कहानियोंकों समझने की एक नई अर्गला खुल सकती है. कफनकहानी के एक और पुनर्लेखन के लिए मेरे आँखें अपनी समकालीन स्त्री कथाकारों की तरफ संभावना से देख रही हैं.  
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  1. कफन पर इतना विमर्श हो चुका है फिर भी संभावनाएं रीती नहीं हैं। पंकज मित्र की 'कफन रिमिक्स' पर लिखते हुए राकेश बिहारी ने जिन दूरियों को रेखांकित किया है वे ही 'रिमिक्स' को विशेष बनाती हैं। समय, परिस्थिति और चेतनागत परिवर्तनों के संबंध में कहानीकार की सजगता पंकज मित्र के समग्र रचना कौशल का हिस्सा है।
    अच्छे लेख के लिए राकेश बिहारी जी को साधुवाद।

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  2. आज़ादी प्राप्त होने के बाद न सिर्फ देश में सदियों से फलफूल रही सामंती व्यवस्था की चूलें हिलीं बल्कि दलितो-दमितों की प्रतिरोधी राजनैतिक चेतना का उल्लेखनीय विकास भी हुआ. पर इस दौरान सरकारी तंत्र के साये में एक ऐसी व्यवस्था ने अपनी जड़ें जमाईं, जिसका मुख्य चरित्र मूल्यहीनता ही है. परिणामतः चोरी-बेईमानी एक व्यवस्थाजनित मूल्य की तरह स्थापित होता गया. राष्ट्र राज्य की कल्याणकारी योजनाओं के तहत सरकार ने योजनाएँ तो खूब बनाईं लेकिन उनका अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया जा सका. परिणामतः बेईमानी, कामचोरी और भ्रष्टाचार इस नई व्यवस्था के अपरिहार्य उपोत्पाद की तरह फलने-फूलने लगे. न्यूनतम मजदूरी की गारंटी का कानून वास्तविकता के धरातल पर सरकारी खजाने के न्यूनतम बंदरबाट का सूचकांक हो कर रह गया तो सूचना का अधिकार ब्लैकमेलिंग व्यवसाय का पर्याय बन गया और मनरेगा जैसी लोककल्याणकारी योजनायें लूट-महोत्सव में थिरकने के लिए ‘गा रे मन गा’ की धुन तैयार करने का जरिया बन गया और इन सब के बीच विकास की आड़ में ठहराव या ऋणात्मक विकास की कहानियाँ रची जाने लगीं.
    उस पूरे अंश में कहानी का जीवंत सर राकेश बयान कर देते हैं प्रेमचंद जी की कफ़न कभी नहीं भूलती और कहानी पढ़े जाने तक मुझे भी विश्वास नहीं था कि ऐसा कोई प्रयास अपनी सार्थकता प्रमाणित कर सकता है ।लेकिन पढ़ लेने के बाद बहुत सार्थक तरीके से पंकज जी ने इसे विस्तार दिया है ।साथ ही इस कहानी का पाठ स्वयं पंकज जी की ओजस्वी वाणी और स्पष्ट उच्चारण के साथ भारत भवन भोपाल में सुनकर और भी आनंद आ गया और अब जब भी 'कफ़न' की बात उठेगी 'कफ़न रिमिक्स'की भी याद अनिवार्यत:आएगी
    समालोचन और राकेश जी और पंकज जी दोनों को वधाई ।

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  3. यह स्तंभ मेरा पसंदीदा है। मैं हर बार इसे पढ़ती हूं। इसकी ताकत राकेश बिहारी हैं जो किसी कहानी को रेशा-रेशा खोल कर नए सिरे से सोचने पर मजबूर करते हैं। एक कथाकार कहानी लिखता है तो वह अपनी कल्पनाएं जीता है। कभी-कभी इन कल्पनाओं में कुछ खो जाने की संभावनाएं भी होती हैं क्योंकि कथाकार अपने में लिपटा हुआ कहानी लिखता है। राकेश जी कहानी का दोबारा पाठ कर उन सभी तंतुओं को मिला कर कहानी का नया बिंब रच देते हैं। राकेश जी को एक बार फिर साधुवाद

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  4. पंकज मित्र की इस कहानी के ऊपर एक टिप्पणी देखिए-‘‘इस कहानी का पाठ स्वयं पंकज जी की ओजस्वी वाणी और स्पष्ट उच्चारण के साथ भारत भवन भोपाल में सुनकर और भी आनंद आ गया और अब जब भी 'कफ़न' की बात उठेगी 'कफ़न रिमिक्स'की भी याद अनिवार्यत:आएगी"।....हम तो रोने-बिसूरने की सोच रहे थे; जबकि आपलोग पढ़-सुन-लिख कर आनंदित हो रहे हैं।

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  5. मुंशी प्रेमचंद की 80 वर्ष पुरानी कहानी 'कफन' और आज के तथाकथित विकासशील युग की पंकज मित्र की कहानी 'कफन रिमिक्स' दोनों ही कहानियों के परिप्रेक्ष्य में आपने बहुत ही संवेदनशील और ज्वलंत सवाल किया है कि " ‘कफन’ हो या कि ‘कफन रिमिक्स’ ये दोनों ही कहानियाँ जाति और समाज की तमाम चिंताओं के बीच बुधिया और बुधवंती की कोई खास चिंता करती नहीं दिखतीं. उन दोनों की उपयोगिता मर कर भी अपने परिवारजन के लिए चंद रुपयों का जुगाड़ करवा जाने से ज्यादा की नहीं है. इस बात पर अलग से विचार किया जाना चाहिए कि अस्सी वर्षों के लंबे अंतराल के बावजूद ‘कफन रिमिक्स’ की बुधवन्ती के जीवन की छवियाँ बुधिया के जीवन की छवियों से कुछ खास अलग क्यों नहीं दिखतीं? जबकि एक जैसी स्थितियों के बावजूद जी राम और एम राम घीसू-माधव से बहुत अलग हैं." इस संवेदनशील और ज्वलंत सवाल के लिए आपको हार्दिक बधाई।

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  6. प्रश्न तो यह भी उठता है कि क्या ‘कफन’ या ‘कफन रिमिक्स’ को प्रेमचंद या पंकज मित्र के बदले किसी स्त्री कथाकार ने लिखा होता तो इन कहानियों में बुधिया और ‘बुधवंती’ का चरित्र कैसा होता? ' बेहद गहन समीक्षा। स्त्री दृष्टिकोण से एक नए 'कफ़न'की गुंजाइश और जिज्ञासा आपने पैदा की है। प्रतीक्षा है अब। किन्तु प्रेमचन्द की'कफ़न'तुलनात्मक अध्ययन में कहीं दब सी गई है।
    बहरहाल आपको बहुत बहुत बधाई व साधुवाद।

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  7. 'कफन रिमिक्स' जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह कहानी हमारे मशहूर अफसानानिगार मुंशी प्रेमचन्द की चर्चित कहानी कफ़न का करीब सौ साला बाद का वर्जन हमारे सामने रखती है, वह भी पूरी मार्मिकता और जरूरी तंज के साथ. दरअसल कफन के लिखे जाने के बाद के इन सौ सालों में हमारे गाँव और इनमें रहने वाले लोग कथित विकास के नाम पर सडक, मोबाइल, बाइक, अस्पताल जैसी चीजों से भले ही लैस हो गए हों लेकिन संवेदना और ईमानदारी के स्तर पर हम 'कफन' के समय से भी पीछे चले गए हैं.
    कफन कहानी में घीसू और माधू इस ताज़ा कहानी के जी राम और एम राम से कई मायनों में संवेदनशील और जिम्मेदार लगने लगते हैं. हमारे और खासतौर पर ग्रामीण समाज के पतन को यह कहानी जिस तरह एक -एक कपड़ा उतारते हुए नंग धडंग करती है कि हम विस्मित होने लगते हैं, विस्मित होते हैं लेकिन इसे अविश्वसनीय नहीं माना जा सकता. क्योंकि यही हम अपने आसपास देख -समझ पा रहे हैं. मनरेगा योजना में हिस्से की बात हो या गाँव -गाँव स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार होने के साथ बढती लापरवाही की बात हो, हितग्राहियों की सूची में नाम शामिल करने की बात हो या जननी सुरक्षा योजनाओं की बदहाली.. यह सब हमारे आसपास थोड़े -बहुत प्रकारंतर से करीब -करीब रोज देखने में आ ही रहा है.
    इस सार्थक कहानी के लिए पंकज मित्र जी को बधाई.

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