कथा- गाथा : मुस्कराती औरतें : मैत्रेयी पुष्पा










मानसिक, शारीरिक और अनुकूलित हिंसा के ये तीनों रूप आपको परिवार रूपी संस्था में स्त्री के प्रति एक साथ देखने को मिलते हैं. इसमें सबसे खतरनाक है हिंसा का अनुकूलित रूप जिसमें पीड़िता यह खुद स्वीकार करने लग जाती है कि यह उसके ‘हित’ के लिए है.

घरेलू हिंसा और परिवार-समाज में स्त्री की स्थिति को लेकर कहानियाँ लिखी गयी हैं पर जब मैत्रेयी पुष्पा जैसी सिद्धहस्त कथाकार इस विषय को उठाती हैं तब यह अपने पूरे हिस्र और बनैले रूप में हमारे समाने एक दारुण यथार्थ बनकर समक्ष हो जाता है, जिसे हम आर्थिक स्वतन्त्रता कहते हैं वह भी अंतत:  यातना का सबब बन जाता है.


मैत्रेयी पुष्पा की कहानी मुस्कराती औरतें.



कहानी
मुस्कराती औरतें                          
मैत्रेयी पुष्पा




‘बेपरवाह यौवन’
ऐसे शीर्षक के साथ हमारी तसवीर अखबार में छपी है. अखबार गांव में आया. प्रधान के चबूतरे पर लोग देख रहे हैं. कह रहे हैं स्वर में स्वर मिलाकर- आवारा लड़कियां. मेरे सामने बरसों पुराना यह दृश्य है.

आवारा लड़कियों की ले-दे हो रही थी. आवारा लड़कियों को पता न था कि आवारा कैसे हुआ जाता है? मुरली ने अपनी मां से पूछ लिया कि हम आवारा कैसे हुए. मां ने मुंह से नहीं, मुरली की चोटी को झटके दे-देकर बताया था और बीच-बीच में थप्पड़ मारे थे, कहा था - भीगकर तसवीर खिचाने वाली लड़कियां आवारा नहीं हुईं तो क्या सती सावित्री हुईं?

मुरली जरा ढीठ किस्म की लड़की थी क्योंकि अक्सर ऐसा कुछ कर जाती, जिसकी सजा पिटाई के रूप से कम न होती. अपनी धृष्टता को बरकरार रखते हुए बोली-  “न भीगते तो हम सती सावित्री हो जाते. तुम हमें मुरली न कहतीं, सती या सावित्री कहतीं?

“जवाब देती है, चोरी और सीनाजोरी” कहते हुए मां ने अबकी बार मुरली को अपनी जूती से पीटा क्योंकि उनके हाथों में चोट आ गई थी. मुरली के सिर से किसी के हाथ टकराएं और जख्मी न हों, ऐसा कैसे हो सकता है?

“अम्मां, सलौनी और चंदा भी तो भीगी थीं. बरसात हो तो गांव में कौन नहीं भीग जाता? सबके पास तो छाता होता नहीं है. फिर लड़कियों को तो छाता मिलता भी नहीं.” मुरली मार खाकर रोई नहीं, बहस करने लगी.

मां ने अबकी बार अपने माथे पर हथेली मारी, विलाप के स्वर में बोली- “करमजली, तू भइया का छाता ले लेती. बहुत होता मेरा लाल भीगता चला आता. ज्यादा से ज्यादा होता तो उसे जुकाम हो जाता, बुखार आ जाता पर तेरी बदनामी तो अखबार के जरिए दुनिया-जहान में जाएगी. भीगकर फोटू खिचाई, बाप की मूंछों को आग लगा दी. हाय, जिसकी बेटी बदफैल हो जाए, उससे ज्यादा अभागा कौन?” अम्मां ने मुंह पर पल्ला डाल लिया और मुरली अपने खींचे गए बेतरतीब बालों को खोलकर कंघी से सुलझाने लगी.

सामने भइया आ गया, तेरह साल की मुरली अपनी तंदुरुस्ती में भइया की पंद्रहवर्षीय अवस्था से ज्यादा विकसित, ज्यादा मजबूत और ज्यादा उठान शरीर की थी. भाई से बोली- “तू भीगता, तेरी फोटू कोई खींच लेता, अखबार में छाप देता, तू आवारा न हो जाता. छाता इसीलिए साथ रखता है.”

भइया माता-पिता के अपमान को अपनी तौहीन समझ रहा है, मुरली को पता न था. जब उसने कहा- “मैं लड़का हूं सो मर्द हूं. मेरी फोटू कोई कैसे खींचता? खींचकर करता भी क्या? कोई उसे क्यों देखता? सब लोग तेरी और रेनू की फोटू देख रहे थे आंखें फाड़-फाड़कर और फिर आवारा कहकर एक दूसरे को आंख मार रहे थे. मुझसे सहन नहीं हुआ, मैं भाग आया.”
मैंने, यानी रेनू ने एक अलबम बनाई थी उन्हीं दिनों.

मेरी अलबम में मैं हूं और मुरली है. तसवीर में हम दोनों भीगे हुए हैं. उस दिन वर्षा हो रही थी और हम घर से निकल पड़े थे. पेड़ों के नीचे छिपते फिरे. लेकिन पेड़ तो खुद ही भीग रहे थे. वे चिडि़यों तक को वर्षा से नहीं बचा पा रहे थे. गिलहरियां न जाने कहां छिप गई थीं, देखने पर भी नहीं दिखीं. एकमुश्त आकाश था, हमको नहलाता हुआ. दूर सामने चंदो कुम्हार का खच्चर था ध्यानावस्था में भीगता हुआ. हां, तालाब में बगुलों की पांतें थीं, भीगे पंखों से किलोलें करती हुईं. बारिश में उजागर दुनिया यही थी, हमारे साथ.

अचानक एक छाताधारी आता दिखाई दिया. अपने जूते भिगोता हुआ चर्रमर्र की आवाज करता हुआ चला आ रहा था. हमारे पास चला आ रहा है, मैं और मुरली अपने शरीरों से भीगे हुए चिपके कपड़ों से बेखबर उसे टकटकी बांधकर देख रहे थे.

उसने अपना कैमरा खोला और हमारी तसवीर खींच ली. हम कैमरे को देखकर नहीं, छाते वाले बाबू को देखकर हंस पड़े. हमारे हंसने का मकसद क्या था, हम भी नहीं जानते थे, मगर वह मुस्कराया, जैसे सब कुछ समझ रहा हो. उसने एक तसवीर और खींची.

जब हमें थप्पड़ और बाल खिचाई के बीच अखबार दिखाया गया तो हम उसमें खिलखिलाकर हंस रहे थे.

उसके बाद---मैं कई दिन तक डरी रही. बारिश भी कई दिनों तक बंद रही. मेरा दिल ऐसे ही सूख गया था, जैसे बादल सूखे-सूखे---मुरली भी अपने भीतर पनपते रूखे-सूखेपन को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी. वह अकसर ही मुझसे कहती- “ चल, बाहर चलते हैं. देखना हम हंसेंगे तो बादल बरसेंगे. बादल बरसेंगे तो छातेवाला आएगा. वह आएगा तो हमारी तसवीर खींचेगा. तसवीर खींचेगा तो अखबार में छापेगा. हम अखबार में होंगे तो दूर दुनिया तक जाएंगे.”

“यह तुझसे किसने कहा मुरली?
“उसी ने, जो फोटू खींच रहा था.”
“उससे तू मिलती है?
“मैं नहीं मिलती, वही मिल जाता है. ताल में नहाती चिडि़यों की तसवीर खींचता है. अखबार में छापता है, तब कोई नाराज क्यों नहीं होता? चिडि़यां भी तो लड़कियां ही होती हैं.”
“हाँ, होती हैं. मगर वे उड़ सकती हैं, हम कैसे उड़ें?” ऐसी बातें करते- सोचते हम बड़े होने लगे.

मुरली मुझसे बिछुड़ गई.

उसका ब्याह हो गया मेरी अलबम में. ब्याह के बाद एक तसवीर मुझे मुरली के भाई से मिली. मुरली उसमें आधा घूंघट किए गेहूं की रास की उड़ाई कर रही है. बांहें ऊपर उठी हुई हैं क्योंकि डलिया हाथ में है. फोटो के पीछे लिखा था-‘आर्थिक गुलामी की शिकार औरत
मेरा जी धक् से रह गया. मुरली और आर्थिक गुलामी- नहीं-नहीं---वह तो आवारा थी.

मैंने मुरली की यह तसवीर अपनी अलबम में लगा ली. समाजसेवी संस्था की सदस्य का दिया शीर्षक काट दिया. उसके नीचे लिख दिया-‘आवारा औरत’-क्योंकि मुझे दासी, गुलाम और सेविका से आवारा औरतशब्द ज्यादा ताकतवर लगता है.

इसके बाद, अलबम के तीन पृष्ठ खाली छोड़ दिए, मुरली के लिए. मगर बहुत दिनों तक कोई तसवीर मिल नहीं पाई. हां, खबर मिलती रही कि मुरली अपने घर है. लड़ाई-झगड़ा करती है, सो भइया भी उसकी ससुराल नहीं जाता. पिता जब भी बुलाए जाते हैं, मुरली से अपनी इज्जत रखने का कौल देकर आते हैं. मुरली मेहनत करती है, खेत-खलिहान उसी के दम पर आबाद हैं, यही माता-पिता का सहारा है और ऐसी कल्पनाओं से मायके वाले आश्वस्त रहते हैं.

मेरी मां कहती हैं- “गाँव की औरत गुलामी और मुक्ति का अंतर क्या जाने? अज्ञान और चेतनाहीन होती हैं. अपने श्रम को मुफ्त लुटाती रहती हैं, आर्थिक पराधीनता से जोड़कर देख नहीं पातीं. अनाज-गल्ले को खलिहान में देखकर खुश हो जाती हैं, बस.”
मुरली क्या करती होगी? मैंने एक पन्ने पर सवालिया निशान (?) लगा दिया है.

अगले पन्ने पर तसवीरें लगी हैं, मेरे साथियों, सहपाठियों की. उनके ब्याहों की---इसके बाद की तसवीर में मेरा ब्याह हो गया है. शादी की प्रमुख फोटो में मेरे साथ वर है और मां है. दूसरी तसवीर में मां के साथ महिला मंडल की वे स्त्रियां हैं, जो सामाजिक स्तर पर अपनी आधुनिक पहचान के साथ हैं. मां ने इन तसवीरों को मेरी अलबम में खास तौर पर क्यों लगवाया? ये सामाजिक कार्यकर्ता और अफसर औरतें ससुराल तक मेरे साथ अलबम के जरिए आई हैं, मां का क्या मकसद है? क्या इसलिए कि मैं गंवार मुरली के खयालों में न खोई रहूं? उसके उजड्ड-से व्यवहार को भूल जाऊं. उसकी आवारा प्रवृत्तियां मेरी शिष्टता का नाश करती हैं. अतः मुझे पढ़ी-लिखी भद्र महिलाओं, जिन्होंने अपने लिए प्रगति-पथ चुने हैं, उनसे आधुनिकता की ऊर्जा प्राप्त करके पुनर्नवा होना है. मेरी मां ममता और लाड़ का ऐसा खजाना नहीं कि मुझे कैसे भी खुश रखने की सोचे और मेरे लिए अन्य मांओं जैसा अधिक से अधिक दुलार उमड़ता आए ब्याह के बाद.

तसवीर वाली मेरी मां की आंखों में वह चुनौती रहती है, जिसे उन्होंने मेरे लिए खास तौर से रख छोड़ा है. जब भी फोटो देखती हूं, वे कहती नजर आती हैं- “गौर से देख, ये औरतें वे हैं, जो अपने पांवों खड़ी हैं. ये स्त्रियां पढ़- लिखकर घर से निकलीं, नौकरी कीं. आर्थिक स्वतंत्रता पैदा कर लीं. स्त्रियों के लिए आर्थिक पराधीनता बेडि़यों का काम करती है. तू समझ रही है न? कि अब भी तुझ पर मुरली सवार है? अनपढ़ लड़की---बेशर्म जात.”

हां, मैं मुरली की तरह ही अपने घर में हूं. कॉलेज की कई लड़कियों की तरह मैंने ब्याह को ब्याह के रूप में सुरक्षा कवच माना है. मां के हिसाब से मैंने ब्याह के किले में खुद को बंद कर लिया है. गृहस्थिन की तरह चारदीवारी में गुम होकर रह गई हूं. अगर मैंने नौकरी नहीं की तो निरंतर प्रताडि़त (?) होती रहूंगी. पराधीन की तरह मेरा शोषण किया जाता रहेगा.

क्या मैं यहां से निकलने का निर्णय भी ले सकती हूं? मैं अपने बूते रहने- खाने की सुविधा-साधन जुटा सकती हूं? मैं निरी गुलाम औरत, मां का वह मंत्र नहीं माना, जिसके चलते स्त्री कुछ कमाकर आत्मनिर्भर होती है. अपनी आजादी का बिगुल बजा सकती है. साथ में मर्यादा और शील का पालन करती है.

“आपका मंत्र अचूक नहीं है मां.” यह बात मैं आज तक इसलिए नहीं कह पाई क्योंकि नौकरीपेशा न होकर आश्रितों में शुमार की जाती हूं. बिना मुझसे
पूछे ही आश्रितकी चिप्पी मेरे वजूद पर मां ने चिपका दी है. बिना यह समझे कि मेरे घर में मेरी हैसियत क्या है, समझ लिया है कि मेरी आर्थिक पराधीनता ही मेरे दासत्व भरे गुणों की खान है.
मां ने कहा था- “उन औरतों को देख जो कामकाजी महिला होने के लिए, नौकरीपेशा बनने के लिए विवाह-बंधन तोड़ गईं. या उन्हें देख, जिन्होंने अपना कैरियर पहले अर्जित किया उसके बाद विवाह.”

मैं जानती हूं कि मां को ब्याह के पक्ष में लिया गया मेरा फैसला रास नहीं आया था. क्या मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती तो उनकी विवाह वाली राय में कोई अंतर आता? जबकि आर्थिक रूप से आज मेरा उन पर कोई वजन नहीं. सोच-विचार में डूबी थी, अनायास ही अलबम का पन्ना पलट गया.
अरे!

फूलकली मैडम-विकास खंड मोंठ की सहायक विकास अधिकारी (महिला) यानी कि ए- डी- ओ- (डब्ल्यू). इनकी उम्र अट्ठाइस से ज्यादा नहीं. फोटोजैनिक चेहरा ही नहीं, वे खासी लावण्यमयी स्त्री हैं. अच्छी लंबाई उन्हें और भी आकर्षक बनाती है. साड़ी पहनें या सलवार-कमीज, उन पर सब फबता है.

इनके बारे में मां ने ही बताया था- एम. ए. करने के बाद ट्रेनिंग के लिए चुनी गईं. नियुक्त हुईं बबीना ब्लॉक में और तबादला होकर आईं मोंठ ब्लॉक. योग्यता के बल पर पद नहीं मिलता तो योग्यता किस काम की? मां ऐसा मानती हैं. पद का आधार ही है कि ब्लॉक के रिहाइशी क्वार्टरों में शानदार घर मिला है. फूलकलीमैडम को. साथ में एक अर्दली भी. ग्रामीण इलाकों में दौरा करना होता है तो जीप भी मिलती है. मां, फूलकली मैडम को आजाद भारत की आदर्श स्त्री के रूप में देखती हैं. आदर्श रूप में खास बात यह भी है कि फूलकली मैडम किसी मजबूरी के कारण घर से नहीं निकलीं और न लड़की की नस्ल में पैदा हुई लड़की की तरह उन्होंने ब्याह किया. कैरियर सबसे पहले. आर्थिक आत्मनिर्भरता जन्मसिद्ध अधिकार की तरह हासिल की. ब्याह का क्या, ब्याह भी कर लिया अपनी सुविधा को देखते हुए एक ग्रामसेवक (वी. एल. डब्लू.) से. मेरी मां ने उनका यह निर्णय भी जी भरकर सराहा. पुरुष हमीं को अब कमजोर मानकर प्रताडि़त नहीं करेगा. ऊंचे स्तर पर न सही, बराबरी से सम्मान देगा. ऐसे फैसलों को देखकर ही तो मां मुझसे और भी खफा हो जाती हैं क्योंकि मैंने अपने लिए उनके बताए वरों को नजरअंदाज किया क्योंकि वे मुझे अयोग्य लगे.

मां खफा हो जाए, तब क्या वह मां नहीं रहती? मैं उनकी बेटी समय- समय पर खुद ही उनके पास पहुंच जाती हूं. माना कि नौकरी के कारण उन्हें मेरे पास बैठने का पर्याप्त समय नहीं मिलता, मगर मैं चाय बनाने और उनके लिए खाना तैयार करने को ही अपना मां-बेटी का निकटतम संबंध मानकर वहां बनी रहती. कपड़े धोना, रसोई की सार-संभाल करके क्वार्टर को घर बना देना, मेरी कला का नमूना मां के सामने पेश होता, मां चिढ़ जातीं.

मुझे नहीं पता था बिटिया कि मैंने तुझे पलोथन पीटने (रोटी बनाने) को ही पढ़ाया था. तू महाराजिन और कहारिन से ज्यादा क्या है? मुरली की संगत का असर देख लो कि पढ़ी-लिखी लड़की की योग्यता पर काली रंगत चढ़ी है.”
फूलकली मैडम मां से मिलने आईं.

हे भगवान्, करेला और नीम चढ़ा. मां मुझे मैडम के नाम की नसीहत दे- देकर हलकान कर देगी. कहीं मां ने उन्हें खास तौर पर मेरे रहते तो नहीं बुलाया? वे ही मुझे समझाएं, मैं अपने पांवों खड़ी हो जाऊं. यहीं ज्वाइन कर लूं, अनट्रेंड की तरह. ट्रेनिंग अगले साल हो जाएगी. बच्ची गोद में है तो क्या हुआ, नौकरी वाली औरतों के बच्चे क्या पलते नहीं?

फूलकली मैडम- मां ने उन्हें किन उम्मीद भरी नजरों से देखा है, मैं समझ गई और दहलने लगी. बच्ची को पालने से गोदी में उठा लिया.
खाना-पीना क्या कि दावत का शानदार नजारा, मां ने दिल खोल दिया और बेडरूम में उनके लिए नई चादर बिछाकर तकिया लगाकर आराम का बंदोबस्त किया.
अधलेटी मुद्रा में फूलकली मैडम मां से बतियाने लगीं- कुसुम बहन, मैं आज यहां आई इसलिए कि झांसी आई थी. इलाइट सिनेमा हॉल में बहुत पुरानी फिल्म लगी है, उसी को देखने आई.
मैंने पूछ लिया- “कौन सी पुरानी फिल्म?
“साधना.”
“यह कौन सी पिक्चर है?
“है, बड़ी अच्छी है. मुझे यह फिल्म अपने हस्बेंड को दिखानी थी खास तौर पर.”
“दिखाई?
“हाँ, दिखाई.”
“कैसी लगी उन्हें?
फूलकली मैडम चुप थीं. कुछ ही क्षणों में वे उदास हो गईं और फिर धीरे-धीरे अधिक से अधिक उदास---
मैडम गुनगुना रही थीं-

औरत ने जनम दिया मरदों को
मरदों ने उसे बाजार दिया
जब जी चाहा, मसला-कुचला
जब जी चाहा, दुतकार दिया---

गला भर आया था. आगे की लाइन गातीं, तब तक आंखें डबडबा आईं. “मैडम, यह बहुत रोने वाली पिक्चर है क्या? अपने हस्बेंड के साथ क्यों देखीं?” फूलकली मैडम अपनी आंखों को रूमाल से दबाए हुए---मगर रुलाई ने ऐसा रूप धारण किया कि उन्होंने अपना मुंह घुटनों में गाड़ लिया. दमा के रोगी की तरह उसांसें भरने लगीं. पीठ फफक रही थी.
मां ने उनकी पीठ पर हाथ रखा. मैं अनकहे भय से आक्रांत---

पूरे क्वार्टर में मौन शोकगीत-सा बजने लगा. मां कभी कमरे के बाहर जाएं कभी कमरे के भीतर आएं, मगर कहीं भी रुककर खड़ी न हो पाएं. उनका विश्वास, आश्वस्ति और भरोसेमंदी भूचाल के-से झटके झेल रहे हैं, यह चेहरे से जाहिर हो रहा था. क्या मां फूलकली मैडम का दुःख जानती हैं? या एकदम नहीं जानतीं? झटके-से क्यों खा रही हैं?

बीच-बीच में अब सुबकी आ रही थी, फिर भी मैडम ने मुझसे पूछा, “बड़े शहरों  में नौकरीपेशा स्त्रियों की दशा कैसी है?

मेरा खाली-खाली चेहरा, रीती-रीती नजर,---फिर कहा- “मैडम, नौकरीपेशा औरतों का दर्जा हमसे हर हाल में ऊंचा होगा. वे जब बाहर निकलती हैं, शानदार कपड़ों की ही नहीं, शाही चाल की भी मालकिन होती हैं. हम जैसियों से बातें ही कहां करती हैं कि हमें उनकी थाह हो. हमें ऐसे देखती हैं, जैसे हम ठलुआ हों. पति की पगार पर पैरासाइट की तरह जीने वाले पति की सेवा करते हुए जीवन बिताते हैं और वे बराबरी की भागीदारी करती साथिन.”

फूलकली के चेहरे के भाव मैं कैसे पढ़ूं? फिर भी लगा उनकी आंखों में विचित्र सी दुनिया फैली है. नजरों में आंधी-सी उठती है, जिसके झोंकों से खुद ही हिल जाती हैं और टूटी हुई डाल-सी तकिए पर गिर जाती हैं.

मां ने मेरे लिए धरती पर चटाई डाल दी, बच्ची के शू-शू, पॉटी का डर था. खुद भी पटरा डालकर बैठ गईं क्योंकि फूलकली मैडम ने उन्हें हाथ पकड़कर अपने पास बिठाना चाहा था.
चुप्पी के गहरे सन्नाटे के बाद वे नाक सिनकने बाहर नाली पर गईं. पानी से मुंह धोकर तरोताजा-सी हुईं.

मां से कहने लगीं“कुसुम बहन, मुझे नहीं पता था कि शादी की शर्तें पत्थर पर खुदी लकीरों की तरह होती हैं. उन लकीरों को कौन मिटा सकता है, जबकि अपना भविष्य ही पत्थर हो गया हो. कुसुम बहन, यह तो ब्याह के बाद ही पता चलता है कि पति को जीवनसाथी कहना कितना बड़ा झूठ है. शादी के बाद किसी भी लड़की को नया जन्म मिलता है, जीवन उसको अपनी तरह नहीं, दूसरों की इच्छा से ढालना होता है.”

“आप ऐसा कह रही हैं तो फिर आम औरत?” मां ने पूछा.
“आम औरत, जो पति पर आर्थिक रूप से निर्भर है, कम से कम अपनी खुद्दारी का भ्रम तो नहीं पालती. वह सहयोग चाहे न चाहे, सेवा करती जाती है. इसी काम को अपना जीवन मानती है.”

मैडम की बात पर मुझे मुरली याद आई. मुरली केवल पति-सेवा करके रोटी, कपड़ा और सिर पर छत पा गई होगी, इसी में संतुष्ट---मां ऐसे जीवन को धिक्कार की नजर से देखती हैं और मुझे भी, जबकि मैं पति को साधनाफिल्म विशेष रूप से दिखाने कभी नहीं लाई. हो सकता है अज्ञान ही हमारा कवच हो.

फूलकली मैडम कह रही थीं- “नौ’करी करके रुपए कमाने और धन को घर लाने का यह मतलब नहीं कुसुम बहन कि पति तुम्हें गैरमर्दों से मिलने- जुलने की सहमति दे देगा. उनके साथ मीटिंग में जाने देगा या रूरल टूरों पर जाने से पहले हंगामा न करेगा. एक चौकन्नी निगाह का घेरा मेरे इर्द-गिर्द रहता है और जब मैं दूर से थकी-हारी लौटती हूं तो पति की आंखों में फांकें पड़ी होती हैं. भाषा में व्यंग्य, गालियां और कटीले ताने-फ्किस यार के संग रात बिताई?

“क्या कह रहे हो? ऐसा बोलते हुए शर्म नहीं आती?
“शर्म! हा हा हा---रंडी होकर हमें शर्म सिखा रही है.”
“एक रात अकेले क्या रहे, दिमाग खराब हो गया?


“तेरी छिनाल की, साली जुबान लड़ाती है. चार पैसे क्या ले आई, कायदा भूल गई.” 


कहकर कमर की बेल्ट खोलने लगे. ऐसी मारपीट कि चेहरे पर नीले-काले निशानों को लेकर ऑफिस कैसे जाऊं? जाऊं तो अपनी चोटों को कैसे छिपाऊं! नहीं छिपें तो उनके बारे में क्या बताऊं? कटी ठोड़ी, सूजी हुई नाक, खून में लिपटे दांत---कुसुम बहन ये सजाएं मेरे रूरल टूरों पर उतरती हैं, जिनका ब्योरा मैं किसी को क्या दूं?

एक बार कह दिया-अगर ज्यादा परेशान करोगे तो यहां के लोग ही
तुम्हें---फिर क्या था, कहर टूटने लगा.
“कौन लोग हैं यहां के? बता कौन से आशिक तेरे, आए कोई साला, टांग पर टांग धरकर चीर दूंगा.”
मैं चुप रही. मैं फिर ऑफिस के लिए चल दी.
“कहाँ जा रही है?” बांह पकड़कर ऐसा झटका दिया, लगा कि कंधा ही उखड़ जाएगा.
एक क्षण को सोचा, क्यों नहीं लड़कियों के स्कूल में नौकरी कर ली?

और तभी उसने बांह पकड़कर ऐसे खींचा कि मैं गिरते-गिरते बची और खुद को साधते-साधते गिर ही गई. वह टांग पकड़कर घसीटने लगा. बाहर तक खिचेड़ता चला गया. कैंपस के भीतर सड़क पर---साड़ी कहां गई? पेटीकोट बचा था, खिचड़ते हुए वह भी फटने लगा. तार-तार चीर-चीर---लोग तमाशा भी नहीं देख पा रहे, अपने बरामदों में कहीं कोने या आड़ में छिपकर खड़े हैं. जो सामने पड़ गया, उसने आंखें मीच लीं. चेहरा घुमा लिया. विकास ऑफिस के इर्द-गिर्द एक खामोश भगदड़-सी---क्या सब चुप हैं? सब डर रहे हैं या पति के किए पर किसी को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं? औरतें भी नहीं रोक रहीं मेरी फजीहत को---इन औरतों के लिए मैं काम करती हूं.

अब मैं तकलीफों के बीच अकेली, अपने अंगों की रगड़ खाने वाली आवाज मुझे सुनाई देने लगी. पति के हाथ में इस समय मेरी टांग है, मुझे बेइज्जत करने के नाना तरीके हैं. मैं लुढ़कती हुई मर्दाने फूत्कारों से घिरी हूं.

कोई कह रहा है-आदमी है इसका, कोई और नहीं. बीच में पड़ेगा जो, उसी को इलजाम लगा देगा.
उफ, यह इलजाम नाम की माला लेकर क्यों रहते हैं पति लोग? जब भी कुछ मन मुताबिक न हो, इस हथियार को दे मारते हैं, पत्नी के सिर पर. मेरी हड्डियां ताबड़तोड़ चटकने लगीं. मांस छिलते-छिलते सुन्न हो गया.

दूर खड़े लोगों के घेरे भयभीत हो रहे हैं क्योंकि मेरे शरीर से बहता खून धूप में चिलक रहा है. देखते ही देखते टांगों और जांघों के बाल झड़ गए.
“बस बस बस,” मां ने फूलकली मैडम का हाथ पकड़ लिया. उन्हें अपने कंधे से सटा लिया. मैडम फूट-फूटकर रोने लगीं जैसे वे अभी, इसी समय कुचली-मसली गई हों और बाजार में नुमाइश के लिए रख दी गई हों.
अंतिम वाक्य कराह-कराहकर निकला- मैं चारों दिशाओं में गरदन मोड़-

मोड़कर देख रही थी. जमीन की रेत को ही टटोल रही थी कि धरती ही मुझे सहारा देकर उठाए.
“मैडम, पति से पूछा नहीं कि वे आखिर ऐसा कसाईपना क्यों करते हैं? इलजाम लगाकर बेरहमी से छूट क्यों ले लेते हैं, क्या आनंद आता है इसमें?” जो शिकायत है, साफ-साफ कहें तो फिर उसका निपटारा भी हो. कोर्ट-कचहरी किसलिए है?” मां ने अपना हृदय उड़ेल दिया.

फूलकली मैडम की आंखों का खालीपन आंसुओं से लबरेज था, बमुश्किल रुंधे गले से बोलीं- कहते हैं, मैं तुम्हें इतना प्यार करता हूं कि किसी के साथ तुम्हें बांट नहीं सकता. यहां तक कि इस महिला मंगल योजना के साथ भी नहीं. तुम्हारी कमाई पर अपनी मर्दानगी नहीं बेच सकता. हरगिज नहीं. तुम कल नौकरी छोड़ दो.”

मां अब नीचा मुंह किए बैठी थीं और फूलकलीमैडम की उघड़ी बांहों पर पड़े निशानों से उनकी नजर गुजर रही थी. मुझे बराबर मुरली याद आ रही थी, जो अब तक मां के हिसाब से मेरे खाते में अप्रिय निशानी---न जाने मेरे सामने कभी किस रूप में प्रकट होगी वह आर्थिक रूप से पराधीन लड़की.

मां ने अपनी पूरी हमदर्दी दिखाते हुए मैडम को सलाह दी-‘आप सबको छोडो, सीधा रिजनल डायरेक्टर मैडम मनीषा चौहान से मिलो. कमाल है. महिला मंडल की महिलाओं पर ऐसे भयानक अत्याचार- वे जरूर कुछ न कुछ उपाय सोचेंगी. बड़ी से बड़ी महिला संस्था के सामने आपकी बात रखेंगी. हम सब आपस में ही एक-दूसरे के दुःख-दर्दों के सहभागी हैं.

फूलकली मैडम असहाय बकरी-सी जिसे अपने खात्मे के लिए गंड़ासे वाला कसाई सामने दिख रहा हो. मौत के सिवा अब कुछ नहीं.
“कुसुम बहन, छोड़ो सब कुछ, अच्छा हो हम मर जाएं. आत्महत्या कर लें. बेशर्मी की भी हद होती है. कभी न कभी हया आकर खुद ब खुद लिपट जाती है. बहुत कुछ सहने का माद्दा पैदा कर लिया, लेकिन कभी न कभी कुछ धारदार नेजे की तरह कलेजे में घुप जाता है. आखिर इंसान हैं हम भी.”

फूलकली मैडम अब देर से चुप हैं. मैं और मां उनके चेहरे पर मामूली सी हरकत की तलाश में हैं, मगर कहीं कुछ नहीं.
मां ने अपना साहस बटोरा और उनका हाथ थाम लिया. पूरे आत्मविश्वास के साथ बोलीं- “चिंता मत करो आप. मैं जाऊंगी मनीषा मैडम के पास. जरूर जाऊंगी.”
“मनीषा मैडम के पास,” वे बुदबुदाईं.
“हाँ, मैडम, हां. जाना जरूरी है. कुछ करें आपके लिए. औरत ही औरत को समझेगी.”
“कुसुम बहन, नहीं जाना वहां. क्या करेंगी वहां जाकर?” बेहद कमजोर- सी आवाज ने हमारे कान खोल दिए.
“बता तो दिया, क्या करूंगी? क्या कहूंगी?
“हमारी मैडम मनीषा चौहान, रिजनल डायरेक्टर महिला विकास संस्थान तो बेशक हैं, मगर हैं तो वे औरत ही---” कहकर चुप्पी में फिर से गायब हो गईं फूलकली मैडम.
सब चुप थे. अपने भीतर गुम. कहीं अपनी ही परतें चाहते हुए---मैं उन परतों से मुरली को खोज रही थी. वह भी ऐसे ही पिट-कुट रही होगी?

मैं अपनी अलबम के पन्ने जल्दी-जल्दी पलटने लगती हूं. एक पृष्ठ पर मुरली अपने दो बच्चों के साथ खड़ी है. छोटे बच्चों के कंधों पर नन्हे-नन्हे स्कूल-बैग हैं. इस फोटो को देते हुए उसके भाई ने मुझसे कहा था- “मुरली ने खास तौर पर तसवीर तुम्हारे लिए भेजी है. कहा है कि रेनू शहर में ब्याही है, अच्छी तरह रहती होगी. मैं भी यहां खेती-किसानी में रमी हूं, नदी-तालाब और बाग से अभी भी ऐसा ही नाता है, जैसा बचपन में था. हवा और बादलों की तासीर और रुख पहचानना और ज्यादा आ गया है.”

मेरा ध्यान अचानक टूटा क्योंकि फूलकली मैडम भयानक-सी हंसी हंस रही हैं. क्या मेरा और मुरली का मौन-वार्तालाप सुन लिया मैडम ने? मुरली के ज्ञानरूपी अज्ञान पर हंस रही हैं? शायद उसके आवारा खयालों पर हंसी आ गई हो मैडम को.

फूलकली मैडम, आपकी हंसी का दुःख आपके होंठों पर फैल रहा है. अरे, धीरे-धीरे यह दुःख बढ़ता ही जा रहा है---पूरा चेहरा अपनी गिरफ्रत में ले लिया. नीला-नीला अवसाद आंखों से झरता हुआ---कुछ बोलना चाहती है? संताप मुखर नहीं होने देता?

वे प्रयत्नपूर्वक अपनी आवाज को सम करके बोलीं-कुसुम बहन, अपनी रिजनल डायरेक्टर मनीषा चौहान साधारण औरत नहीं. वे सौ सतियों की सती, पति से लड़ने-भिड़ने की सोच भी नहीं पातीं. पति ने उनके बाहर आने-जाने (शहर से बाहर टूर) पर जब कभी एतराज किया, उन्होंने छुट्टी ले ली. जाना जरूरी हुआ और पति ने रायफल का मुंह उनकी ओर ताना, वे खड़ी की खड़ी रह गईं. रायफल का फायर पति ने दीवार पर किया, सामने छेद बन गया. ऐसे कई-कई छेद---. अपनी रिजनल डायरेक्टर योग्यता प्राप्त और क्षमतावान कुशल औरत हैं. जब-जब वे घर से बाहर निकलती हैं, चैस्टिटी बेल्ट (लोहे का योनि कवच जिसमें ताला लगाने का प्रावधान रहता है) पहनकर ही निकलती हैं. बेल्ट की चाबी पति को थमाकर आगे बढ़ती हैं. वे जानती हैं, आर्थिक स्वतंत्रता की कीमत.”

मां हतप्रभ-सी उन्हें देख रही थीं. मैंने अलबम एक ओर सरका दिया. चैस्टिटी बेल्ट मेरा वजूद कसने लगी हो जैसे, मैं बेचैन, विकल---

फूलकली मैडम का सर्वांग थरथरा रहा था. मां ने दहशत के मारे मेरी बांह कसकर पकड़ ली. मैडम अब भयानक रूप में अपना सिर हिला रही थीं, उनके बाल चारों ओर बिखर चुके थे. बिलकुल ऐसे जैसे उन पर किसी चुडै़ल का साया उतर आया हो या हाथ-पांवों में देवी भर आई हों, वे अपनी छाती में बेशुमार मुक्के मारने लगीं और फिर प्रलाप-

“नहीं जाऊंगी इस कमीने को पिक्चर दिखाने. नहीं जाऊंगी महिला आयोगों के चक्कर लगाने. नहीं खाऊंगी अपने अक्षत शील की कसम. फिर कभी नहीं धरूंगी अपनी हथेलियों पर अंगारे”
इतने जोशो-खरोश के बाद फिर जैसे सारी ताकत चुक गई हो, धीरे-धीरे निढाल होने लगीं फूलकलीमैडम. आंखें खुद ब खुद बंद हो गईं. बंद पलकों की झिरी कहां खुली कि पतनाले बहने लगे.

“सब कुछ फेल हो गया कुसुम बहन---सब कुछ बेकार-व्यर्थ,” कहते हुए सारे शब्द आंसुओं में भीग गए.

धीरे-धीरे फुसफुसा रही थीं मैडम“कुसुम बहन, अपनी रिजनल डायरेक्टर लोहे की चैस्टिटी बेल्ट पहने रहती हैं, हमें वह हद से ज्यादा कमजोर औरत लगी, हमसे भी ज्यादा---मगर क्यों लगी वह कमजोर? हम सबके सब चैस्टिटी बेल्ट पहने रहते हैं कुसुम बहन. लोहे से भी ज्यादा मजबूत निगाहों की बेल्ट के घेरे में बंधे रहते हैं. मैं, तुम और यह रेनू---सबके सब. इसमें कुंआरी, ब्याही और विधवा के लिए कोई मोहलत-रियायत नहीं. यहां सारी औरतों को एक ही नियम के नीचे जीवन-निर्वाह करना पड़ता है. तुम्हारा पति नहीं है कुसुम बहन, तो परिवार और समाज निगरानी रखता है. रेनू के पति को यहां का राह-रत्ती पता रहता होगा. वह जहां-जहां जाएगी, मालिक की आंखें पीछा करेंगी.”

मां अब झुंझला गई थीं. लग रहा था वे जल्दी ही उनसे पीछा छुड़ाना चाहती हैं. फंदा काटने के लिए कह दिया-फिर  तो आप तलाक ले लो.”
मैडम ने गौर से देखा मां को.
क्या कह रही हो, तलाक?” फिर हंसने लगीं मैडम.


“तलाक से हमारा मसला हल हो जाएगा? अरे कुसुम बहन, ‘तलाकशुदाशब्द दूसरा सांप है, जो खुद नहीं डसता, लोगों की निगाहों से विष चढ़ाता जाता है कि औरत नीली पड़ती चली जाए. डायवोर्सीएक गाली है कि घबराकर औरत फिर किसी मर्द की खोज में हलकान होने लगती है और शादी उसे जरूरी कवच लगने लगता है. विद्यावती शुक्ला की हालत देखी थी न? तलाक क्या लिया, मुजरिम हो गईं. चरित्रहीन मानी गईं. अपमान के कोड़ों का दर्द पति की पिटाई से ज्यादा सालता था उन्हें क्योंकि घर-बाहर के सामाजिक समारोहों में वे जहरीली सर्पिणी और राक्षसिनी के सिवा कुछ नहीं थीं. यदि कुछ थीं तो विमला के इस-उस मर्द से फंसी हुई---

“कुसुम बहन, हम सोशल वर्कर नहीं, सेक्स वर्कर की तरह देखे जाते हैं. हम जहां भी जाते हैं, सेक्स के पैमाने से मापे जाते हैं. बैंक हो, अस्पताल हो, प्रशासनिक विभाग हो---यही नहीं, घर-आंगन हो, नातेदारी-रिश्तेदारी हो.” मैं क्या देख रही हूं? ‘ईश्वर की सुंदरतम कलाकृतितुम्हारा हाल क्या है? वही, जैसी पुरानी औरतें, पराधीन स्त्रियां---पुरुषों की काम्या और रमणीया के रूप में अपनी सार्थकता सिद्ध करती थीं. उफ! मैडम का अपना मूल्यांकन भविष्य की आशंकाओं से जकड़ा हुआ है.

मां के पास घबराहट की पूंजी के सिवा कुछ नहीं. और मैडम की आंखों में खामोश लपटों के जलजले---चिनगारी-सी छिटकी.
“ऐसे क्या देख रही हो कुसुम बहन? फैसला तो कुछ न कुछ लेना ही होगा. क्यों? चैस्टिटी बेल्ट या तलाक? है न?

अब फूलकली मैडम की आवाज में बेकली से ज्यादा बेकसी थी. और फिर दोनों शब्द चैस्टिटी बेल्ट या तलाकउनके कंठ की लय में समा गए. वे बुदबुदा रही थीं या गा रही थीं. आंखों में अश्लील आतंक-सा घिर आया. पुतलियों के आसपास तरलता में तैरते लाल-नीले डोरे और छाती में घुमड़ती सांसें हिलोरों में हिलने लगीं. इस सबके बावजूद चेहरे पर पीला-सा साहस उभरने लगा.

“मैं तुम्हें बेहद प्यार करता हूं वह कहता है. क्या वह अलग रहने के नाम पर मरने-मारने को उतारू न हो जाएगा? शायद उसे अपनी तकलीफों का अभी अहसास नहीं, या इतना हृदयहीन हो गया है कि खुद को भी---” बुदबुदाने वाली मैडम ठंडी-सी पड़ने लगीं. लगा कि वे अपने सामान्य व्यवहार में लौट आई हैं.

“मैं भी उसे अपने साथ कहीं चाहती हूं क्या? नहीं तो उसकी कड़ी से कड़ी इच्छा को अपने ऊपर क्यों छोड़ देती हूं? मैं अपनी वफा की परीक्षा देती हूं. देती हूं न?
मां रसोई में पानी लेने चली गई थीं, मैडम की हालत खराब जो हो रही थी. हो सकता है शरबत बनाकर लाएं.

मैडम मुझसे मुखातिब थीं- "रेनू, मैं जानती थी कि मेरे शरीर के हर हिस्से पर पति का अधिकार है. वह जब चाहे---जैसे चाहे मुझे प्यार कर सकता है. मैं आंख से आंख मिलाकर देखने की हकदार नहीं,--- फिर मैंने नौकरी छोड़ क्यों नहीं दी?” अपनी बातों, अपने सवालों पर प्रतिक्रिया देने वाली भी फूलकलीमैडम खुद ही थीं क्योंकि उनकी हालत पर कुछ कहने के लिए मेरे पास असमंजस के सिवा कुछ न था.

“क्या मैंने खुद से एक पोस्ट नीचे पद वाला पति इसलिए खोजा था कि वह मेरी दिनचर्या पर सवाल न करे. लेकिन रेनू पति कोई पदवी नहीं होता, एक संस्कार होता है, किसी भी पद-पदवी से बहुत बड़ा संस्कार---जड़ और मजबूत. तभी तो आज्ञा-पालन में कोताही होते ही संगीन से संगीन सजा देता है. रेनू, मैंने तो यही माना कि समाज को व्यवस्थित रखने का सेहरा पति के सिर है, तभी वह पहले दिन औरत के पास सेहरा बांधकर आता है.” कहकर फूलकलीमैडम हंस दीं. हंसी जंजीरों से जकड़ी हुई पालतू ढंग की थी.


वे फिर खटिया पर तनकर बैठ गईं, लेकिन रीढ़ सीधी कर लेने में किसी विरोध का आभास न था. फिर भी कुछ बोलने के पहले होठों में बांकपन आया- रेनू, हम भी क्या करें? बड़ा अच्छा लगता है, जब घर से बाहर निकलते हैं. लगता है सारे ठप्पे मोहरें फेंककर खुले में आ गए हैं. बंद फाटक का दरवाजा हमने ही तोड़ा है और हमारी असली शक्ल निकल आई है. जिन लोगों के साथ हम काम करते हैं, उठते-बैठते हैं, खाते-पीते हैं, वे मित्र हैं, पति नहीं, यही सोचकर मुक्त हो जाते हैं. लेकिन वह क्या है कि हम तब भी पति की छाया अपने आसपास महसूस करते हैं. क्या हम इस मुक्ति को चाहते नहीं? सोचने लगते हैं, दिन भर की दुनिया नकली थी. असल संसार पति का है, जो हमारे ऊपर शासन करता है क्योंकि वही हमारी चिंता करता है. सावधान करता है तब हम मान लेते हैं, वही हमें बचाएगा भी. यह सब भावना हो या भ्रम, हम समर्पित होते जाते हैं. जितनी निष्ठा से गुलामी करते हैं, उतने ही खुद को सुरक्षित समझते हैं.

मगर फिर क्या हो जाता है मुझे कि मैं अपनी आस्था से डिगती हूं. लोगों के बीच आजादी के खुशगवार मौसम से गुजरती हूं. आज बाहर क्या-क्या हुआ, इसका ब्योरा उसे नहीं देती. लेकिन यह सब भी मेरे लिए असहनीय-सा---कि मैं पति के सामने अपराधिनी की तरह पेश आती हूं. उनकी तुनकमिजाजी, क्रूरता और नफरत के लिए खुद को हाजिर कर देती हूं. क्या मैं यह भी मान लेती हूं कि मेरे पुरुष के पास दिव्यदृष्टि है, उसने सब कुछ देख लिया है. मेरे पापों का अनुमान लगा लेता है वह---सच रेनू, मैं अपने अपराधबोध पर संगीन से संगीन सजा पाती हूं, जैसे घर के बाहर जाने वाले इस तन-मन का इलाज ताड़ना- प्रताड़ना ही हो. कहने वाली मैडम गहरे श्वासों से गुजर गईं.

“फिर भी---मैं अपना फैसला लूंगी. औरत कमाए और काम आएहर हाल में पति का फैसला यही होगा तो मेरा निर्णय क्या होगा?
थकावट ने उनकी आंखों को ढक लिया. वे लेट गईं. सुस्त और ढीला शरीर था. धीरे-धीरे बेहरकत-सा---नस-नस में कोई नशा उतर गया हो जैसे. मां ने अभी शरबत पिलाया था, नशीली गोली साथ ही दे दी क्या?

लेकिन मां कह रही थीं- “इनको सोने दें तो अच्छा है. अपने दुःख-दर्दों से बेहाल हो गईं, सो बेहोश-सी---. होश में होती हैं, क्या-क्या करने की नहीं कहतीं. तड़पती ऐसी हैं, जैसे ज्वालामुखी पर बैठी हों. पर रेनू, ज्वालामुखी भी ठंडा हो ही जाता है न?

मैडम एक घंटे बाद उठीं. उठकर अपने सलवार-कमीज ठीक किए. दुपट्टा करीने से ओढ़ा. मुंह धोया, बाल संवारे. तांबिया चेहरा पाउडर से जरा उजला किया. वे ऊबड़-खाबड़ रास्ता पार करके आई हिरनी-सी, नरम घास वाले मैदान पर उतर गई हैं, भटकने की भीषण दशा में विश्रांति-सी थी.

वे हलके से मुस्कराईं, बड़ी खूबसूरत लगीं मुझे. फिर वे मुझे समझाने लगीं- “असल में हमारी तमन्नाएं हमें तबाह कर डालती हैं. सपने हैं कि जाल-जंजाल की तरह चिपट जाते हैं और हम पति की दुनिया को भूलने लगते हैं. बस बेवफा दिखाई देते हैं. छूटों की भी एक हद होती है न? आज के लिए माफ करना रेनू, पूरा दिन खराब हो गया.”

मैं चकित-सी---क्या मैडम अपनी छोटी-छोटी आजादियों के लिए पश्चात्ताप कर रही हैं? पति से मिली यातना जायज लग रही है, सो खुद को अपराधिनी मानकर प्रायश्चित्त पर आ गईं. मां की रोल मॉडल फूलकलीमैडम और रिजनल डायरेक्टर मनीषा चौहान चेतनासंपन्न और आत्मनिर्भर औरतों की मिसालों की तरह अपूर्व रही हैं. मगर आज ये शारीरिक और मानसिक अपमान को सहने वाली औरत की पारंपरिक छवि की पुतली हैं, नहीं तो फूलकलीमैडम क्यों कहतीं- पति अपनी बेरहम सूरत और कट्टर स्वभाव के साथ हमसे पेश न आए तो उसे पौरुषपूर्ण पुरुष कौन मानेगा? ऑफिस के मर्द ही हमें निगल जाएंगे. कुसुम बहन, मर्द, मर्द से ही खौफ खाता है.

मेरी अलबम, जिसका नामकरण शुरुआत में ही मैंने अपनी सखी के नाम पर मुरलीकिया था और इसी नाम की सार्थकता में मैंने इसे ऐसी स्त्री-छवियों का खजाना बनाना चाहा था, जो स्वतंत्र व्यक्तित्व और मुक्ति की चाहना करने वाली हों. मां ने भी कर्मठ, संघर्षशील और खुद्दार औरतों की तसवीरें मेरी अलबम के लिए जुटा दी थीं.

आज सोचती हूं विधायक, सांसद और मंत्री, इनके अलावा सिविल सेवा, पुलिस प्रशासन तथा एथलीट, निशानेबाजी, तैराकी, कला, साहित्य और समाजकर्मी स्त्रियों की सिरमौर छवियां, जो मेरी अलबम में समाहित हैं, इनमें से कितनी मुरली के साहस, उसकी गतिशीलता भरी हठ से समानता रखती हैं? और कितनी अपने स्व को मारकर सामंती समाज में प्रचलित स्त्री के लिए यातना को पति के हक का हिस्सा मानती हैं? मुझे इसकी गहराई में जाकर पड़ताल करनी होगी, नहीं तो मां समझेंगी कि मैं उनके विभाग की स्त्रियों का मखौल उड़ा रही हूं.

मां ने मेरी अलबम को घूरा और फिर कहने लगीं- “क्यों लगी रहती है यहां-वहां से तसवीरें इकट्ठी करने में? न तुझे ईश्वर से कोई वास्ता, न देवी-देवताओं की मूर्तियों से. तेरी अलबम में गांधी जी और जवाहरलाल जैसे महापुरुषों की तसवीरें नहीं. इंदिरा गांधी की फोटो लगाती तो हम भी समझते कि तू---कहां-कहां की औरतें जोड़ ली हैं.”

मां चिढ़ रही हैं. क्यों चिढ़ रही हैं? फूलकलीमैडम ने मां के भीतर अपनी स्वतंत्र छवि का ढांचा तोड़ दिया. मनीषा चौहान रिजनल डायरेक्टर की मूर्ति खंडित हो गई. ऊपर से मैंने यह कह दिया कि तसवीरें इकट्ठी करने का नहीं, विशेष छवियों से अलबम सजाने का चस्का मुझे उसी दिन लग गया था जब मैंने पहले-पहल बारिश में भीगते हुए मुरली के साथ फोटो खिचाई थी. तसवीर अखबार में आई थी. तसवीर के ऊपर लिखा था-बेपरवाह यौवन-सच हमें उसी दिन से बेपरवाह होना रास आ गया. हालांकि मुरली को मुरली की अम्मां ने उसके भाई के साथ मिलकर बुरी तरह पीटा था, लेकिन उस सजा के बाद ही फोटोग्राफर से जान-पहचान गाढ़ी होने लगी. दूसरी बार जब मैं फोटो खिचाने के लिए तैयार नहीं थी और मैंने कह दिया था- मुरली, ऐसी बातों की हमें छूट नहीं देगा कोई.”

मुरली ने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया और दृढ़ता से बोली-फ्कोई हमें छूट नहीं देगा तो क्या हम छूट लेंगे भी नहीं?

गांव में मुरली बेहाथ होती लड़की मानी गई. और मेरी अलबम में उसी बेहाथ आवारा लड़की की लोमहर्षक, रोमांचित कर देने वाली तसवीर पहले पन्ने पर लगी है. फूलकलीमैडम जैसी औरतों की जिंदगी---मुरली क्या कहती?

मैं अपने आप में डूबती-उतराती अपनी अलबम को मजबूत बनाने की धुन में थी. अखबारों और टेलीविजन में, इंटरनेट की वेबसाइट पर औरतों के कितने- कितने कीमती नाम---मगर वे कीमती औरतें कितनी साहसी होंगी? उनमें कितनी सलाहियत होगी? मैं भटक-भटक जाती हूं.
दुविधा भरे दिन, असमंजस की घडि़यां---कागज पलटते हुए एक कविता हाथ लग गई. किसने लिखी? किसी स्त्री ने? आं---यह कविता मेजर सरोज कुमारी (निशानेबाज) शूटर के नाम- कवि पवन करण की यह रचना-

जैसे ही खबर बताई गई तुमने जीत लिया है सोना
भीतर सुलगता यकायक ईर्ष्या से धधक उठा था वह
तुमसे दूर अपनी शिराओं में तुम्हारी उपस्थिति
महसूस करते हुए जुट गया था वह करने उत्पात
सफलता पर तुम्हारी नाचने की खुशी में
उतर आया नष्ट करने वह स्मृतियां
सरोज कुमारी तुम्हारी बातों से लगता है
तुम मंगलसूत्र और गोल्ड मेडल एक साथ पहने रहना चाहती हो
और गोल्ड मेडल है कि बार-बार ढक लेता है मंगलसूत्र को
वही नहीं होता उससे सहन
क्योंकि गोल्ड मेडल तुमने खुद जीता है
और मंगलसूत्र तुम्हें पहनाया गया है
मैं तुमसे कहता हूं मैलबर्न से लौटो
तो तुम्हारा निशाना अब वह सवर्ण छाती हो
जो कहलाती है पुरुष
तुम ऐसा कर सकती हो तुम्हें निशाना भी आता है साधना
तुम्हारे हाथ में पिस्टल भी है
और गले में झूलता हुआ गोल्ड मेडल

मेरा अलबम - किसी तसवीर की जगह यह कविता होगी, तुम्हारे भीतर. समर्पित होगी उन औरतों को, जो नहीं जानतीं पिस्टल क्या होती है, लक्ष्य क्या होता है?
_______________

मैत्रेयी पुष्पा
30नवम्बर 1944 (सिकुर्रा) अलीगढ़

उपन्यास
बेतवा बहती रहीइदन्नममचाकझूला नटअल्मा कबूतरी,अगनपाखीविज़नत्रियाहठकही ईसुरी फाग
कहानी संग्रह
चिन्हारगोमा हंसती हैललमनियांपियरी का सपनाप्रतिनिधि कहानियां
आत्मकथा
कस्तूरी कुंडल बसेगुड़िया भीतर गुड़िया
कथा रिपोर्ताज
फायटर की डायरीचर्चा हमाराखुली खिडकियॉंसुनो मालिक सुनो
सम्मान
सार्क लिटरेरी अवार्डद हंगर प्रोजेक्ट का सरोजिनी नायडू पुरस्कारप्रेमचंद सम्मानवीर सिंह जूदेव कथा सम्मान,साहित्यिक कृति सम्‍मानकथा पुरस्‍कारकथाक्रम सम्‍मानसाहित्‍यकार सम्‍माननंजना गड्डू तिरूवालम्‍बा पुरस्‍कार,सुधा साहित्‍य सम्‍मान

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सी - 8सेक्टर 19नोएडाउ.प्र.

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  1. यह अति-साधारण कहानी है बेहद कमजोर शिल्प के साथ यह कहानी अपने समय से 'बहुत लेट' है. 1960 के समय की स्त्री और आज की स्त्री में तुलनात्मक रूप से बहुत फर्क आ चुका है यह बात इस कहानी को पढ़ते हुए महसूस ही नही होती है कहानी में गति-अभाव है. कहानीकार रचनाप्रक्रिया के दौरान कई बार यह भूलता हुआ दिखता है कि वह कहानी लिख रहा है यह आत्मकथात्मक डायरी ? कई जगह यह कहानी 'अखबारी बयान' में बदलती है. संवादों में कहीं से भी कोई ऐसी बात नही पढ़ने में आई जिससे कि यह लगे कि यह कोई नई बात है. सभी संवाद बार-बार सुने हुए से लगते हैं. किरदारों का गठन बेहद कमजोर किया गया है. मैत्रेयी पुष्पा जैसी रचनाकार से ऐसी चूक की अपेक्षा नही की जा सकती है. फूलकली का किरदार एक पढ़ी लिखी स्त्री का है पर उसके किरदार की बातों से एक पढ़ी लिखी स्त्री का सुलझापन गायब है. वह बार-बार भौचक होती है बार-बार भ्रमित होती है. आत्मनिर्भर होने के जिस आत्मविश्वास से आज की स्त्री अपना आकाश चुम रही है मैत्रेयी जी फूलकली के माध्यम से उस आकाश तक जाने का रास्ता बहुत धुंधला कर गयी हैं. पूरी कहानी के दौरान कहानीकार खुद भ्रम की शिकार लगती हैं मानो वह तय ही न कर पा रही हों कि वह किस स्त्री का आदर्श रूप समाज तक ले जाना चाहती हैं एक ग्रामीण कम पढ़ी लिखी स्त्री या एक उच्च पदासीन पढ़ी लिखी स्त्री ? विकल्प के अभाव में जब कहानीकार आत्मनिर्भर स्त्री के मुकाबले में गृहस्थ जीवन के 'बंधनों की श्रेष्ठता' दिखाने लगती हैं तब ऐसा लगता है कि कहानीकार भ्रमित हो कर खुद को मात्र कहानी का पैराग्राफ बढ़ाने तक ही सीमित कर रहा है और एक नीरस कहानी को जन्म दे रहा है. एक कमजोर 'आंतरिक रचना प्रक्रिया/बेस' के साथ कहानी के भीतर जाने पर ऐसी ही शिल्पगत और उलझाऊ किरदारो से भरी हुई कहानी सामने आती है. कहानी में एक फ़िल्म 'साधना' का भी जिक्र है. पाठक को नही पता कि यह कैसी फ़िल्म है जिस पाठक ने उसे देखा होगा वह तो संदर्भ समझ गया होगा पर जिन पाठकों ने 'साधना' फ़िल्म नही देखी, कहानीकार को उनके लिए दो-तीन वाक्यों का एक व्याख्यात्मक संवाद रखना चाहिए था ताकि पाठक खुद को उसके उल्लेख की प्रासंगिकता से आसानी से जोड़ सके. कहानी में ऐसी तकनीकी चूक खलती हैं जबकि बतौर कहानीकार मैत्रेयी जी के पास एक लंबा रचनात्मक अनुभव रहा है. कहानी के अंत मे कवि पवन करण की एक पूरी की पूरी कविता पाठको को पढ़वा देने का भी तुक समझ नही आया, हां कहानी में कविता की कुछ प्रासंगिक पंक्तियों का उल्लेख किया जा सकता था जिससे कि कहानी अपनी बात और भी अधिक स्पष्टता से कह सकती थी.

    हम इस कहानी में आज की स्त्री के लिए एक स्पष्ट संदेश का अभाव देखते हैं. ऐसा कहानी में रटे हुए फिल्मी डायलॉग जैसे संवाद रखने के कारण हुआ. कहानी बीच-बीच मे टूटती है बार-बार अपनी केन्द्रीयता हस्तांतरित करती है. मुख्य किरदार पर भी लगातार संदिग्धता बनी रहती है प्रारंभ में ऐसा लगता है कि 'मुरली' नामक किरदार ही इसका 'मुख्य पात्र' है फिर आगे 'फूलकली' का अतिविस्तार हमे कहानी के मार्ग बदलने का संकेत देता है और अंत मे मुरली की सहेली के 'सूत्रधार' होने की भूमिका से आगे बढ़ते हुए पवन करण की कविता के साथ अपने अंत को जाती है.

    एक सजग कहानीकार को खुद को बार-बार दुहराने से बचना चाहिए अन्यथा उसके द्वारा उठाये गए स्त्री-प्रश्न धारदार नही हो पाएंगे और फिर जाहिर सी बात है कि वह अपने उत्तरों तक भी नही जा सकेंगे!

    ( वी रु )

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  2. वाह...बेहतरीन कहानी...��

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  3. सजीव कहानी

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  4. सुरेश मिश्रा1 नव॰ 2017, 2:56:00 pm

    कहानी की प्रस्तुति लाजवाब है. घरेलू हिंसा सच्चाई है. मन बुरा सा हो गया.

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  5. नीलम शर्मा1 नव॰ 2017, 3:23:00 pm

    बहुत ही मर्मस्पर्शी यथार्थ आज के भी परिपेक्ष में����

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  6. पुरूष प्रधान समाज में कामकाजी महिलायें आज भी अपने व्यक्तित्व की पहचान के लिये संघर्षरत हैं .समाज की मानसिकता में बहुत ज़्यादा अन्तर नहीं आया .

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  7. इस कथा-यात्रा में पवन करण। यानी एक कवि की कविता के प्रभाव में उपजी कथा-यात्रा है यह।

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