मेघ - दूत : उपवास करने वाला कलाकार : फ़्रैंज़ काफ़्का





१९२२ में प्रकाशित फ़्रैंज़ काफ़्का की कहानी "A Hunger Artist" (German: "Ein Hungerkünstler") काफ़्का की कुछ बेहतरीन कहानियों में से है जिसमें उनका अपना काफ्काई करिश्मा मुखर होकर सामने आया है.

इस कहानी में यंत्रणा की लम्बी सुरंग से गुज़रता एक कलाकार है जो दरअसल बदले हुए समय और रुचियों में अपनी कला की प्रतिष्ठा के संघर्ष में मुब्तिला है.

अंग्रेजी से इसका हिंदी अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है. अनुवाद जटिल कार्य और श्रमसाध्य कला है. किसी भी कृति के तमाम अनुवाद संभव है. उम्मीद है यह अनुवाद आपको समुचित लगेगा.



 फ़्रैंज़ काफ़्का
उपवास करने वाला कलाकार                 
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय




पिछले कुछ दशकों में उपवास करने वाले कलाकारों के प्रति लोगों की रुचि बहुत कम हो गई है. जबकि पहले के समय में प्रबंधकों द्वारा इस आयोजन से काफ़ी रुपये कमाए जाते थे, आजकल यह असम्भव है. वह ज़माना कुछ और ही था. उन दिनों उपवास करने वाला कलाकार पूरे शहर के ध्यान का केंद्र होता था. जब तक उसका उपवास जारी रहता, उसे देखने के लिए प्रतिदिन आम जनता की भीड़ बढ़ती जाती. हर आदमी उपवास करने वाले कलाकार को कम-से-कम एक बार प्रतिदिन देखना चाहता था. बाद के दिनों में शुल्क दे कर टिकट लेने वाले कुछ लोग सारा दिन उस छोटे से पिंजरे के सामने बैठे रहते. यहाँ तक कि रात में भी उपवास करने वाले कलाकार को देखने के लिए समय नियत किया जाता. टॉर्च की तेज रोशनी में उसका प्रभाव और बढ़ जाता.

अच्छे मौसम वाले दिनों में पिंजरे को घसीट कर बाहर निकाल लिया जाता था, और तब उपवास करने वाले कलाकार को प्रदर्शन के लिए सबके सामने, विशेष करके बच्चों के सामने रखा जाता. बड़े लोगों के लिए उपवास करने वाला कलाकार महज़ चुटकुलों का केंद्र था. वे इस कार्यक्रम में इसलिए भाग लेते थे क्योंकि यह प्रचलित था. किंतु खुले मुँह वाले बच्चे सुरक्षा के लिए एक-दूसरे का हाथ पकड़े आश्चर्यचकित हो कर उपवास करने वाले कलाकार को देखते थे. वह कुर्सी को ठुकरा कर बिखरे हुए पुआल पर बैठा रहता था. चुस्त काले कपड़े पहने हुए वह निस्तेज लग रहा होता था. उसकी पसलियाँ स्पष्ट रूप से बाहर निकली होती थीं. कभी-कभी वह शिष्टता से अपना सिर हिलाता था और प्रश्नों के उत्तर देते हुए ज़बर्दस्ती मुस्कराता भी था. अन्य अवसरों पर वह अपनी बाँह को पिंजरे की सलाखों में से बाहर निकाल कर लोगों को उसे छूने देता था ताकि लोग यह महसूस कर सकें कि वह कितना कृशकाय था. लेकिन फिर वह जैसे वापस खुद में ही डूब जाता था. तब वह किसी भी चीज़ पर ध्यान नहीं देता था. यहाँ तक कि घंटा बीतने पर घड़ी के बजने की उसके लिए महत्त्वपूर्ण घटना पर भी उसका ध्यान नहीं जाता था. पिंजरा केवल इसी एकमात्र चीज़ से सुसज्जित था. उपवास करने वाला कलाकार जब ऐसी अवस्था में होता तो वह अपनी लगभग बंद आँखें लिए सामने पिंजरे से बाहर देखता रहता. बीच-बीच में अपने होठ गीले करने के लिए वह एक छोटे-से गिलास से पानी की चुस्कियाँ लेता रहता.

वहाँ दर्शकों के लगातार बदलते समूहों के अलावा जनता द्वारा चुने हुए पर्यवेक्षक भी होते थे -- हैरानी की बात यह थी कि सामान्यतः वे कसाई होते थे -- जिन्हें हमेशा तीन की संख्या में उपवास करने वाले कलाकार पर रात-दिन निगाह रखने की ज़िम्मेदारी दी जाती थी, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह कलाकार गुप्त रूप से कुछ भी न खा सके. हालाँकि यह एक औपचारिकता मात्र थी, जिसे जनता को आश्वस्त करने के लिए रखा गया था. जो सारी बातें समझते थे वे अच्छी तरह जानते थे कि उपवास की अवधि में उपवास करने वाला कलाकार किसी भी हालत में अन्न का कण भी ग्रहण नहीं करेगा. यदि उसे खाने के लिए विवश किया जाए, तो भी वह ऐसा नहीं करेगा. उसकी कला की प्रतिष्ठा उसे कुछ भी खाने नहीं देगी. हालाँकि उस पर निगाह रखने वाले पर्यवेक्षक यह बात नहीं समझते थे.

कभी-कभी वहाँ पर्यवेक्षकों के रात्रिकालीन समूह मौजूद होते थे जो अपने पहरे में शिथिलता बरतते थे. वे जान-बूझ कर दूर-दराज़ के कोनों में बैठ जाते और अपना पूरा ध्यान पत्ते खेलने में लगा देते. उनका मक़सद यह होता था कि कलाकार थोड़ा-बहुत कुछ खा ले. उनका सोचना था कि कलाकार खाने-पीने की चीज़ों का गुप्त रूप से प्रबंध कर सकता था. उपवास करने वाले कलाकार के लिए ऐसे पर्यवेक्षकों से अधिक यंत्रणादायी और कोई नहीं होता था. वे उसे विषाद से भर देते थे. उनकी वजह से उसका उपवास बेहद मुश्किल हो जाता.

कभी-कभार वह अपनी कमज़ोरी से ऊपर उठ कर उस समय गीत गाता जब लोग उस पर नज़र रखे होते. जब तक सम्भव हो, वह तब तक गीत गाता रहता. यह उसे देख रहे लोगों को यह बताने का उसका तरीका था कि उसके प्रति उनकी शंकाएँ निर्मूल थीं. किंतु उससे कोई फ़ायदा नहीं होता, क्योंकि तब लोग इस बात पर हैरानी प्रकट करते कि उपवास करने वाला कलाकार गीत गाते हुए  भी गुप्त रूप से खाना खा सकने में कितना सक्षम था. वह उन प्रेक्षकों का साथ ज़्यादा पसंद करता जो उसके पिंजरे के ठीक सामने आ कर बैठ जाते और कमरे की मद्धिम रोशनी से असंतुष्ट हो कर उस पर तेज़ रोशनी डालते जिसका प्रबंध संचालक कर देता था. तेज़ रोशनी उसे ज़रा भी परेशान नहीं करती थी.

आम तौर पर वह बिल्कुल नहीं सो पाता था, हालाँकि रोशनी कितनी भी हो या कोई भी पहर हो, कभी-कभी उसे झपकी लग जाती थी. ऐसी झपकियाँ तो उसे शोर और भीड़ से भरे सभागार में भी लग जाती थीं. ऐसे पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में वह खुशी-खुशी सारी रात बिना सोए गुज़ार देता था. वह कभी उन्हें चुटकुले सुनाता था, कभी अपने ख़ानाबदोश जीवन के क़िस्सों के बारे में बताता था. बदले में वह उनकी कहानियाँ भी सुनता था. वह यह सब उन्हें जगाए रखने के लिए करता था. ऐसा करके वह उन सभी पर्यवेक्षकों को दोबारा यह दिखा सकता था कि उसके पास पिंजरे में खाने के लिए कुछ भी नहीं था, और वह वाकई उपवास कर रहा था जो वे सब नहीं कर सकते थे.

उसे सब से ज़्यादा प्रसन्नता तब होती थी जब सुबह के समय सभी पर्यवेक्षकों के लिए प्रचुर मात्रा में नाश्ता लाया जाता था. इस नाश्ते की क़ीमत वह अदा करता था. सारी रात मेहनत करने और जगे रहने के बाद वे सब उस नाश्ते पर स्वस्थ, भूखे लोगों की तरह टूट पड़ते थे. हालाँकि यह सही है कि कुछ लोग इस नाश्ते को भी पर्यवेक्षकों को प्रभावित करने वाला अनुचित आयोजन बताते थे, लेकिन यह आरोप कुछ ज़्यादा ही अस्वाभाविक था. दूसरी ओर यदि उन लोगों से पूछा जाता कि क्या वे बिना सुबह का नाश्ता लिए पर्यवेक्षकों की रात्रिकालीन भूमिका निभाएँगे, तो वे इसके लिए साफ़ मना कर देते. जो भी हो, कलाकार के उपवास को लेकर वे अपनी शंकाएँ छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते थे.

आम तौर पर ऐसी शंकाएँ कलाकार के साथ ऐसे जुड़ी होती थीं कि उनसे बचना असम्भव था. वास्तव में कोई भी व्यक्ति उपवास करने वाले कलाकार पर लगातार दिन-रात बिना व्यवधान के निगाह नहीं रख सकता था. इसलिए कोई भी आदमी अपने अवलोकन के आधार पर यह नहीं बता सकता था कि क्या यह मामला सचमुच बिना ऐब लगातार चलने वाले उपवास का था. केवल उपवास करने वाला कलाकार ही यह बात जानता था, और केवल वही ऐसा दर्शक था जो अपने उपवास से पूरी तरह संतुष्ट होने की क्षमता रखता था. किंतु उसके असंतोष का कारण कुछ और ही था.

कुछ लोग चाह कर भी उसका यह प्रदर्शन नहीं देख पाते थे क्योंकि वे उसे इस क्षीण अवस्था में देखना नहीं सह पाते थे. पर शायद उसकी यह अवस्था उपवास के कारण नहीं थी. दरअसल वह अपने प्रति असंतोष के भाव की वजह से ही इतना कृशकाय हो गया था क्योंकि केवल वही एक ऐसी बात जानता था जिसके बारे में दीक्षित लोगों को भी कोई जानकारी नहीं थी. वह बात यह थी -- उपवास करना कितना आसान काम था. यह दुनिया का सबसे आसान काम था. इसके बारे में वह चुप नहीं रहा, लेकिन लोग उसकी बात पर विश्वास नहीं करते थे. वे सोचते थे कि वह विनम्र बन रहा था. पर अधिकांश लोग उसे प्रसिद्धि की तलाश में लगा हुआ व्यक्ति या ठग मानते थे जिसके लिए उपवास करना एक आसान काम था. उनके अनुसार ऐसा इसलिए था क्योंकि वह जानता था कि उपवास करने को कैसे आसान बनाया जा सकता था, लेकिन फिर भी वह इसके आसान होने की बात को पूरा नहीं मान रहा था.

उसे यह सब स्वीकार करना पड़ता था. अब काफ़ी बरस बीत जाने के बाद उसे इस सब की आदत हो गई थी. लेकिन असंतोष का यह भाव उसे सारा समय भीतर से कचोटता रहता. उसे इस बात का श्रेय दिया जा सकता था कि आज तक वह कभी भी अपनी मर्ज़ी से उपवास ख़त्म करके उस पिंजरे से बाहर नहीं आया था. संचालक ने उपवास करने की सर्वाधिक अवधि चालीस दिनों की तय की थी. वह कलाकार के उपवास को कभी भी इस अवधि से अधिक दिनों के लिए नहीं होने देता था, यहाँ तक कि विश्व के महानगरों में भी नहीं. असल में उसके पास एक सही वजह थी. अनुभव से यह पता चला था कि किसी भी शहर के नागरिकों की रुचि को आप लगातार चालीस दिनों तक उत्तेजित अवस्था में रख सकते थे, किंतु उसके बाद जनता का जोश समाप्त हो जाता था. और उपवास की लोकप्रियता में आई भारी कमी को देखा जा सकता था. ज़ाहिर है, इस संदर्भ में विभिन्न शहरों और देशों में छोटी-छोटी भिन्नताएँ थीं, किंतु एक नियम के रूप में यह बात सच थी कि उपवास के लिए नियत सर्वाधिक अवधि चालीस दिनों की ही थी.

इसलिए फूलों से ढँके पिंजरे का दरवाज़ा चालीसवें दिन खोल दिया जाता था. जोश से भरी जनता जैसे रंगभूमि में दाख़िल हो जाती. सेना का एक बैंड सैनिक धुनें बजा रहा होता. दो डॉक्टर उपवास करने वाले कलाकार की जाँच करने के लिए पिंजरे में घुसते. एक भोंपू के माध्यम से नतीजों की घोषणा कर दी जाती. अंत में दो युवतियाँ वहाँ आतीं. वे इस तथ्य के कारण प्रसन्न होतीं कि उन्हें अभी-अभी लॉटरी की पर्ची निकालने के तरीके से चुना गया था. उन्हें उपवास करने वाले कलाकार को पिंजरे से बाहर कुछ क़दम ले कर आना होता, जहाँ एक छोटी-सी मेज पर ध्यान से चुना गया अस्पताल द्वारा निर्दिष्ट भोजन रखा होता.

ऐसे समय में उपवास करने वाला कलाकार हमेशा अड़ कर अपना विरोध दर्ज कराता. हालाँकि वह अपनी दुर्बल बाँहें उस पर झुकी उन युवतियों की मदद करने वाली आगे बढ़ी हथेलियों के हवाले कर देता, पर वह खड़ा होने से इंकार कर देता. चालीस दिनों तक चलने के बाद ठीक अभी इस उपवास को क्यों रोक दिया गया? वह अपना उपवास अभी एक असीमित समय के लिए जारी रख सकता था. उपवास को अभी रोकने का क्या मतलब था जब वह अपनी सर्वश्रेष्ठ दशा में आ भी नहीं पाया था. लोग उसे और अधिक समय तक उपवास करने की कीर्ति से क्यों वंचित करना चाहते थे? वह आदि-काल से अब तक का सर्वश्रेष्ठ उपवास करने वाला कलाकार बन सकता था. वास्तव में तो वह ऐसा था भी. किंतु यदि उसे मौक़ा दिया जाता तो वह किसी कल्पनातीत तरीके से खुद को भी मात दे कर और आगे बढ़ सकता था. उसे लगता था कि उपवास करने की उसकी क्षमता की कोई सीमा नहीं थी.

यह भीड़, जो उसे इतना चाहने का नाटक करती थी, उसमें और अधिक आस्था क्यों नहीं दिखाती थी? यदि वह और अधिक समय तक उपवास करना चाहता था तो ये लोग उसे क्यों बर्दाश्त नहीं करते थे? जब वह थका होता था तो उसे नीचे पुआल पर बैठना अच्छा लगता था. पर ऐसे समय में भी उससे उम्मीद की जाती थी कि वह तन कर सीधा खड़ा हो और जा कर कुछ खाए, जबकि कुछ खाने की कल्पना मात्र से उसे उल्टी जैसा महसूस होता था. उन दोनों युवतियों के सम्मान को मद्देनज़र रखते हुए उपवास करने वाले कलाकार ने बड़ी मुश्किल से खुद को यह बात कहने से रोका. 

उसने युवतियों की आँखों में देखा -- देखने में इतनी मित्रवत् किंतु वास्तव में इतनी क्रूर. उसने अपने दुर्बल गर्दन पर टिका अपना बहुत भारी सिर हिलाया. लेकिन तब वही हुआ जो अक्सर होता था. बिना एक शब्द कहे संचालक आगे आया. बजती हुई तेज़ धुनों की वजह से बातचीत कर पाना असम्भव था. उसने उपवास करने वाले कलाकार के ऊपर अपने हाथ उठाए, गोया वह स्वर्ग-लोक को पुआल पर किए गए उसके उपवास के काम का साक्षी बनने के लिए वहाँ बुला रहा हो . इस अभागे शहीद को देखिए -- उपवास करने वाला कलाकार वाकई वही था -- लेकिन ऐसा वह बिल्कुल अलग ही अर्थ में था.

संचालक ने उपवास करने वाले कलाकार को उसकी पतली कमर से पकड़ा, लेकिन इस प्रक्रिया में भी वह बढ़ा-चढ़ा कर सावधानी दिखा रहा था ताकि लोगों को यह विश्वास हो जाए कि वह एक बेहद दुर्बल व्यक्ति से पेश आ रहा था.

इस बीच उसने उपवास करने वाले कलाकार को गुप्त रूप से झकझोर भी दिया जिससे कि उसके पैर और उसकी देह का ऊपरी हिस्सा अनियंत्रित रूप से काँपने लगे. फिर संचालक ने उसे उन युवतियों के हवाले कर दिया, जिनके चेहरे मृत्यु-से ज़र्द हो गए थे.
(Jonathan Levin in A Hunger Artist. Photo by Kelly Stuart.)


इस समय उपवास करने वाला कलाकार सब कुछ सह रहा था. उसका सिर उसकी छाती पर पड़ा था. ऐसा लगता था जैसे उसका सिर बिना किसी स्पष्टीकरण के लुढ़क कर वहाँ जा कर रुक गया था. उसकी देह पीछे की ओर तनी हुई थी. अपने को बचाए रखने के लिए उसकी टाँगें जैसे आवेग के साथ घुटनों से मुड़ गई थीं , किंतु वे ज़मीन के साथ रगड़ खा रही थीं. उसकी देह का समूचा भार  -- जो कि बहुत कम ही था -- पूरी तरह एक युवती पर टिका हुआ था . वह युवती साँस फूल जाने की वजह से किसी को मदद के लिए बुला रही थी, क्योंकि उसने कल्पना भी नहीं की थी कि जिस सम्मान के लिए उसे चुना गया था, वहाँ यह भी करना पड़ेगा. इस बीच जहाँ तक सम्भव हुई, उसे अपनी गर्दन उतनी दूर करनी पड़ी ताकि वह उपवास करने वाले कलाकार की देह के सम्पर्क में आने से बच सके. किंतु जब वह उपवास करने वाले कलाकार को अकेले नहीं सँभाल सकी और उसकी अधिक भाग्यशाली सहयोगी उसकी मदद के लिए आगे नहीं आई बल्कि काँपी और उस कलाकार का केवल हाथ पकड़ कर खड़ी रही, तो पहली युवती रो पड़ी. यह देखकर पूरे सभागार में हँसी की ख़ुशनुमा लहर दौड़ गई. अंत में वहाँ कुछ देर से खड़े परिचारक ने उस युवती की मदद की और स्थिति को सँभाला.

फिर भोजन की बारी आई. संचालक ने थोड़ा-सा खाना उपवास करने वाले कलाकार के मुँह में रखा. कलाकार को झपकी आ रही थी जिसके कारण ऐसा लग रहा था जैसे वह बेहोश हो गया हो. उधर संचालक कलाकार की हालत पर से लोगों का ध्यान हटाने के लिए चहकते हुए कुछ-न-कुछ बोलता जा रहा था. फिर जनता के नाम एक जाम प्रस्तावित किया गया और माना गया कि यह बात उपवास करने वाले कलाकार ने ही संचालक के कान में कही थी. वहाँ मौजूद ऑर्केस्ट्रा ने धूम-धाम से धुनें बजा कर जैसे सारी कार्रवाई की पुष्टि की. फिर धीरे-धीरे लोग छँटने लगे और किसी के भी इस आयोजन से असंतुष्ट होने का सवाल ही नहीं था. किंतु उपवास करने वाला कलाकार इसका अपवाद था -- हर बार ऐसे आयोजन केवल उसे ही असंतुष्ट छोड़ जाते थे.

दरअसल उपवास करने वाला कलाकार बरसों तक इसी तरह जीता रहा था. हर थोड़े अंतराल के बाद वह फिर उपवास की ओर लौटता. वह फिर से लोक-प्रसिद्धि का केंद्र बन जाता. विश्व द्वारा सम्मानित किया जाता. किंतु इस सब के बावजूद विषाद उसे घेरे रहता. धीरे-धीरे यह विषाद और गहरा होता चला जाता, क्योंकि कोई यह नहीं समझ पाता कि इसे गम्भीरता से कैसे लिया जाए. पर उसे सांत्वना कैसे मिलनी थी? इच्छा करने के लिए अब बचा ही क्या था ? और यदि नेक स्वभाव का कोई आदमी, जो उसके प्रति अफ़सोस व्यक्त करता था, कभी उसे समझाना चाहता कि उसकी निराशा उपवास करने की वजह से ही उपजी है, तो यह सम्भव था कि चालीसवें दिन के उपवास के आस-पास वह कलाकार उसे गुस्से से आग-बबूला हो कर अपना प्रत्युत्तर देता. सम्भव था कि तब गुस्से के आलम में वह किसी बाड़े जैसे अपने पिंजरे को किसी ग़ुस्सैल जानवर की तरह ज़ोर-ज़ोर से हिला कर सबको डरा देता.

लेकिन संचालक ऐसे अवसर पर दंड देना जानता था, और वह ऐसा करके प्रसन्न होता था. वह एकत्र जनसमूह से उपवास करने वाले कलाकार की ओर से क्षमायाचना करता. वह कहता कि कलाकार बहुत दिनों तक उपवास करने की वजह से चिड़चिड़ा हो गया है. यह बात तीनों समय भोजन करने वाले लोग नहीं समझ सकते. इसलिए वह लोगों से निवेदन करता कि वे उपवास करने वाले कलाकार के बुरे व्यवहार के लिए उसे क्षमा कर दें. फिर वह चालाकी से उपवास करने वाले कलाकार के उस दावे पर आता जिसमें कलाकार ने कहा था कि वह चालीसवें दिन के बाद भी उपवास जारी रख सकता है. वह इस उदात्त उद्देश्य की सराहना करता, और इस सदिच्छा और आत्म-त्याग की महानता की भी प्रशंसा करता. किंतु इसके बाद वह विभिन्न प्रकार की तस्वीरें दिखा कर इस पूरे दावे का खंडन कर देता. ये तस्वीरें बिक्री के लिए उपलब्ध होतीं इनमें कलाकार के उपवास की चालीसवें दिन की तस्वीरें होतीं जिनमें उसे दुर्बलता की वजह से पुआल पर लगभग मरणासन्न स्थिति में पड़ा हुआ दिखाया जाता.

हालाँकि उपवास करने वाला कलाकार सत्य की इस विकृति से अवगत था, पर यह सब दोबारा देखने पर वह व्यग्र और अधीर हो उठता. समय से पहले उपवास बंद कर देने का जो नतीजा था, उसे अब लोग उपवास के कारण के रूप में प्रस्तावित कर रहे थे ! विश्व की इस नासमझी और ग़लतफ़हमी से लड़ना असम्भव था. सदाशयता की वजह से वह हमेशा पिंजरे की छड़ों को पकड़कर संचालक की बातों को उत्सुकता से सुनता था, पर तस्वीरों के दिखाए जाने पर हर बार वह पिंजरे की छड़ों को छोड़ कर आह भरता थ, और वापस नीचे पुआल पर जा बैठता था. तब आश्वस्त जनता फिर से पिंजरे के क़रीब आ कर उसे देख सकती थी.

जिन लोगों ने ऐसे दृश्य देखे थे, जब वे कुछ वर्षों के बाद उनके बारे में सोचते थे तो अक्सर वे खुद ही यह सब नहीं समझ पाते थे. ऐसा इसलिए होता क्योंकि इस बीच वह बदलाव आ चुका था जिसका ज़िक्र पहले किया गया था. यह बदलाव लगभग तत्काल हुआ था. इस बदलाव के और भी गम्भीर कारण हो सकते थे , पर वे कारण क्या थे, इसे जानने की भला कौन चिंता कर रहा था? कुछ भी हो , बहुत लाड़-प्यार से रखे जाने वाले उपवास करने वाले उस कलाकार का एक दिन दर्शकों की उस भीड़ ने परित्याग कर दिया जो नित दिन नए मज़े ढूँढ़ती रहती थी. लोग अब अन्य आकर्षणों की ओर जाने लगे. संचालक उपवास करने वाले कलाकार को लेकर एक बार और आधे यूरोप के दौरे पर गया ताकि लोगों में उसके प्रति दर्शकों की पुरानी रुचि को यहाँ-वहाँ फिर से जगाया जा सके. किंतु सब बेकार गया. ऐसा लग रहा था जैसे उपवास करने वाले कारनामे के विरुद्ध हर जगह कोई गुप्त समझौता हो गया था.

ज़ाहिर है, सच्चाई यह थी कि ऐसा अचानक इतनी तीव्र गति से नहीं हुआ होगा. बाद में लोगों ने मादक कामयाबी के उन दिनों की कुछ चीज़ों को याद किया जिन पर उन्होंने पूरा ध्यान नहीं दिया था. जैसे कुछ अपर्याप्त रूप से दबा दिए गए संकेत. किंतु अब उन्हें रोकने के लिए कुछ भी कर पाना असंभव था क्योंकि अब बहुत देर हो चुकी थी. यह निश्चित था कि उपवास की लोकप्रियता एक दिन वापस लौट आनी थी, किंतु जो लोग आज जीवित थे, यह सोच उन्हें सान्त्वना देने वाली नहीं थी.

उपवास करने वाला कलाकार अब क्या करता ? जिस व्यक्ति के कारनामों को हज़ारों लोगों ने सराहा था, वह अब छोटे-मोटे मेलों में प्रदर्शनी लगा कर नहीं बैठ सकता था. उपवास करने वाला कलाकार न केवल अब अपना पेशा बदलने के लिए बहुत बूढ़ा हो चुका था, बल्कि वह कुछ और करने की बजाए उपवास करने के प्रति कट्टरता से समर्पित था. इसलिए उसने संयोजक से विदा ली जो कि उसके जीवन की सड़क पर एक अतुलनीय साथी था, और उसने खुद को एक बड़े-से सर्कस को किराए पर दे दिया. अपनी भावनाओं की अनदेखी करते हुए उसने अनुबंध की शर्तों को भी नहीं पढ़ा.

एक बड़े सर्कस में बहुत ज़्यादा संख्या में लोग, जानवर और खेल-तमाशे होते हैं. इनमें से कुछ लगातार सर्कस छोड़ कर जा रहे होते हैं और उनकी जगह नए लोग आ रहे होते हैं. ऐसा सर्कस किसी का भी, यहाँ तक कि उपवास करने वाले कलाकार का भी इस्तेमाल कर सकता है. शर्त सिर्फ़ यह है कि उसकी माँग संतुलित होनी चाहिए.

हालाँकि इस मामले में न केवल उपवास करने वाले कलाकार की सेवा ली गई बल्कि किसी जमाने में लोकप्रिय रहे उसके नाम का भी इस्तेमाल किया गया. दरअसल उसकी कला की विशेषता उसकी बढ़ती हुई उम्र से बाधित नहीं हुई थी. कोई यह नहीं कह सकता था कि एक घिस चुका कलाकार, जो अब अपनी योग्यता की पराकाष्ठा पर नहीं था, किसी सर्कस के शांत माहौल में पलायन कर जाना चाहता था. इसके ठीक विपरीत उपवास करने वाले कलाकार ने यह घोषणा की कि वह उतनी ही शिद्दत से अब भी उपवास कर सकता था जैसे वह पहले किया करता था. यह वाकई एक विश्वसनीय बात थी. उसने तो यहाँ तक दावा किया कि यदि लोग उसे उसके मन की करने दें तो वह वाकई पहली बार पूरे विश्व को चकित कर देगा. दरअसल उसे इस बार भरोसा दिलाया गया कि इसमें कोई मुश्किल नहीं होगी. किंतु समय का मिज़ाज इसके विपरीत था और उपवास करने वाले कलाकार ने अपने उत्साह की वजह से इस तथ्य की अनदेखी कर दी थी. इसलिए उसके दावों की बात सुनकर विशेषज्ञों के चेहरों पर मुस्कान आ गई.

उपवास करने वाला कलाकार वास्तविकता को भूला नहीं था. इसलिए वह यह मानकर चला कि सर्कस में भी लोग उसके पिंजरे को मुख्य आकर्षण बना कर बीचोंबीच नहीं रखेंगे, बल्कि वे उसके पिंजरे को बाहर कहीं आसानी से पहुँच सकने वाले पशुओं के बाड़ों के क़रीब डाल देंगे. उसके पिंजरे के चारों ओर मौजूद चमकीले रंगों में रंगे सूचना-पट्ट इस बात की घोषणा कर रहे थे कि वहाँ क्या मौजूद था. मुख्य प्रदर्शन और और तमाशों के बीच हुए मध्यांतर के समय जब आम जनता पशुओं के बाड़े देखने के लिए बाहर निकलती, तो वह उपवास करने वाले कलाकार की अनदेखी नहीं कर सकती थी. वे वहाँ कुछ पल रुकते थे . शायद वे उसके पिंजरे के सामने कुछ पल और बिताते, पर उस तंग रास्ते में पीछे खड़े लोग आगे वालों को धकेलते रहते थे क्योंकि वे जानवरों के बाड़े देखना चाहते थे और उन्हें बीच में आई रुकावट के कारण के बारे नहीं पता था. पीछे वाले लोगों द्वारा आगे वाले लोगों को धकेलने की वजह से किसी के लिए भी उपवास करने वाले कलाकार को देर तक शांति से देख पाना सम्भव नहीं होता था. यही कारण था कि उपवास करने वाला कलाकार दर्शकों के आने के लिए तय किए गए घंटों के समय काँपने लगता था, हालाँकि अपने जीवन के मुख्य उद्देश्य के रूप में वह इन दर्शकों की प्रतीक्षा किया करता था.

शुरुआती दौर में वह अधीर हो कर मुख्य तमाशों के बीच हुए मध्यांतर का इंतज़ार करता था. वह बेहद प्रसन्नता से भीड़ के अपने पिंजरे के चारो ओर खड़े होने की प्रतीक्षा करता था. लेकिन बाद में जल्दी ही वह इस बात को समझ गया कि भीड़ में मौजूद लोग दरअसल पशुओं के बाड़ों को देखने के लिए आए थे. उनके इरादे से यह स्पष्ट था, और उपवास करने वाले कलाकार का अनुभव भी यही कहता था. वह अड़ियल हो कर जान-बूझ कर खुद को धोखे में नहीं रख सकता था, हालाँकि दर्शकों से घिरे उसके पिंजरे का यह दृश्य उसका सबसे सुखद पल होता था. 

जब वे उसके पिंजरे के बिलकुल पास आ जाते तो वह लगातार बढ़ते जाते दो समूहों के चीख़ने और गालियाँ देने के शोर को सुनने के लिए मजबूर हो जाता. एक समूह वह होता जो वहाँ रुक कर उपवास करने वाले कलाकार को थोड़ी देर और देखना चाहता. ऐसा वे लोग अपनी समझ की वजह से नहीं करते बल्कि केवल एक सनक या अवज्ञा भरी चुनौती के कारण करते थे. कलाकार के लिए जल्दी ही ऐसे लोग सिर-दर्द का कारण बन जाते. दूसरी ओर वह समूह था जिसकी एकमात्र माँग जल्दी-से-जल्दी जानवरों के बाड़ों तक पहुँच जाने की होती थी.

जब भारी भीड़ आगे चली जाती तो देर से आने वाले लोग पहुँचते. हालाँकि इन लोगों को वहाँ काफ़ी देर तक ठहरने से रोकने वाला कोई नहीं होता, पर वे बिना उस ओर देखे, लम्बे-लम्बे डग भरते हुए आगे निकल जाते क्योंकि उन्हें जानवरों के बाड़ों तक पहुँचने की जल्दी होती. उपवास करने वाले कलाकार के लिए यह अच्छी किस्मत की बात होती जब एक परिवार का पिता अपने बच्चों के साथ वहाँ पहुँचता. वह अपनी उँगली से बच्चों को उपवास करने वाला कलाकार दिखाता और यहाँ क्या हो रहा है, इसके बारे में उन्हें विस्तार से बताता. वह अपने बच्चों को उस पुराने समय की बात भी बताता जब वह स्वयं ऐसे ही किंतु इससे अधिक भव्य प्रदर्शनों के दौरान मौजूद था. तब बच्चे पिंजरे के पास इस तरह खड़े रहते जैसे उन्हें कुछ भी समझ नहीं आया हो. ऐसा इसलिए होता क्योंकि इन बच्चों को स्कूल और जीवन की जटिलताओं के लिए सही ढंग से तैयार नहीं किया गया होता. उनको भला उपवास से क्या लेना-देना होता ? किंतु उनकी कुछ ढूँढ़ती-सी आँखों में बसी चमक यह बताती थी कि नया और अच्छा समय आने वाला था.

उपवास करने वाला कलाकार कभी-कभी खुद से यह कहता था कि सब कुछ पहले से बेहतर हो जाता यदि उसका पिंजरा जानवरों के बाड़ों के इतने पास नहीं होता. तब लोगों को चयन करने में आसानी हो जाती. दरअसल उपवास करने वाला कलाकार बेहद परेशान और उदास था. जानवरों के बाड़ों से उठती दुर्गंध, रात में जानवरों द्वारा मचाया गया शोर, मांसाहारी जानवरों के लिए उसके पिंजरे के सामने से घसीट कर ले जाया जाता कच्चा मांस और खाना खाते हुए जानवरों की दहाड़ों की वजह से उसका जीना हराम हो गया था. किंतु उसने सर्कस के प्रबंधन के सामने इस मामले को उठाने की हिम्मत नहीं की. कुछ भी हो, उसे तो इन जानवरों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए था क्योंकि उन्हें देखने आई भीड़ में से ही यदा-कदा कोई उसके पिंजरे को देखने में भी रुचि ले लेता था. और कौन जानता है, वे उसे किस उपेक्षित कोने में डाल देते यदि उसने उन्हें अपने अस्तित्व के बारे में कहा होता. देखा जाए तो वह भीड़ के जानवरों के बाड़ों की ओर जाने के मार्ग में एक बाधा ही था.

हालाँकि जानवरों के बाड़ों के पास उसकी उपस्थिति एक छोटी-सी बाधा ही थ. एक ऐसी बाधा जो नगण्य होती जा रही थी. लोगों को यह अजीब लगा कि आज के ज़माने में कोई उपवास करने वाले कलाकार पर भी अपना ध्यान केंद्रित करना चाहेगा. आदत की वजह से उपजी लोगों की इस जागरूकता ने जैसे उसके भविष्य के बारे में अपना निर्णय सुना दिया. वह जितनी अच्छी तरह चाहे, उपवास कर सकता था -- और वह ऐसा करता भी रहा -- किंतु अब कोई भी चीज़ उसे नहीं बचा सकती थी. लोग बिना उसकी ओर देखे उसके ठीक सामने से निकल जाते. आप किसी को उपवास करने की कला के बारे में बता कर तो देखें ! यदि कोई इस कला के महत्त्व को स्वयं महसूस नहीं कर सकता तो उसे कोई और इसके बारे में नहीं समझा सकता.

धीरे-धीरे पिंजरे के सामने टँगे सुंदर सूचना-पट्ट गंदे और अस्पष्ट होते चले गए. लोगों ने उन्हें तोड़-फाड़ दिया और किसी के ज़हन में नए सूचना-पट्ट लगाने का विचार नहीं आया. मेज पर उपवास के दिनों की संख्या बहुत दिनों से नहीं बदली गई थी. पहले प्रतिदिन यह संख्या बदली जाती थी. किंतु बाद में एक लम्बी अवधि तक इसकी उपेक्षा कर दी गई. दरअसल इसके लिए ज़िम्मेदार लोग शुरू के कुछ हफ़्तों के बाद अपने इस छोटे से काम से भी थक गए. इसलिए उपवास करने वाला वह कलाकार लगातार उपवास करता चला गया, जैसा उसने पहले चाहा था. कमाल की बात यह थी कि इतने अधिक दिनों तक उपवास करने के बारे में उसने पहले जो भविष्यवाणी की थी, उसे प्राप्त करने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई. लेकिन अब कोई भी उसके उपवास करने के दिनों की संख्या को नहीं गिन रहा था. यहाँ तक कि उपवास करने वाला कलाकार स्वयं भी यह नहीं जानता था कि इस समय तक उसकी प्राप्ति कितनी महान हो गई थी. इसलिए उसका मन अब भारी हो गया था.

कभी-कभार जब पिंजरे के सामने से टहल कर जाता हुआ कोई व्यक्ति उपवास के दिनों के धुँधले पड़ चुके आँकड़ों का मज़ाक उड़ाता और धोखे की बात करता तो वह दरअसल सबसे मूर्खतापूर्ण झूठ होता जो उपेक्षा और दुर्भावना गढ़ सकती थी. ऐसा इसलिए क्योंकि उपवास करने वाला कलाकार किसी को धोखा नहीं दे रहा था -- वह तो ईमानदारी से अपना काम कर रहा था, किंतु विश्व उसे उसका इनाम न दे कर उसे धोखा दे रहा था.

एक बार फिर बहुत से दिन बीत गए और इसका भी अंत हो गया. आख़िर एक निरीक्षक की निगाह उस पिंजरे पर पड़ी. उसने परिचारक से पूछा कि उन्होंने एक बढ़िया , उपयोगी पिंजरे को सड़ते हुए पुआल के साथ बिना उपयोग के वहाँ क्यों छोड़ दिया है ? किसी को इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी. जब एक आदमी ने मेज पर लिखी धुँधली संख्या देखी तो उसे उपवास करने वाले कलाकार की याद आई. जब उन्होंने डंडों से पुआल को उलट-पुल्टा कर देखा तो उन्हें उपवास करने वाला कलाकार वहाँ पड़ा मिला.

"क्या तुम अब भी उपवास कर रहे हो ?" निरीक्षक ने पूछा. "आख़िर तुम उपवास करना कब ख़त्म करोगे ?"
"इस सब के लिए मुझे क्षमा करें," उपवास करने वाले कलाकार ने फुसफुसा कर कहा. केवल निरीक्षक उसकी बात समझ पाया क्योंकि उसने अपने कान पिंजरे से लगा रखे थे.
"बेशक," निरीक्षक ने अपने माथे पर अपनी उँगली लगाते हुए कहा.
दरअसल वह अपने कर्मचारियों को उपवास करने वाले कलाकार की बुरी हालत के बारे में बताना चाहता था.
"हम तुम्हें माफ़ करते हैं."
"मैं हमेशा चाहता था कि आप लोग उपवास करने की मेरी क्षमता की प्रशंसा करें," उपवास करने वाले कलाकार ने कहा.
"पर हम वाकई तुम्हारी इस क्षमता की प्रशंसा करते हैं ," निरीक्षक ने कृपालु हो कर कहा.
"लेकिन आपको इसकी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए ," उपवास करने वाला कलाकार बोला.
"यदि ऐसी बात है तो हम इसकी प्रशंसा नहीं करते हैं ," निरीक्षक ने कहा ,"लेकिन हम इसकी प्रशंसा क्यों नहीं करें ?"
"ऐसा इसलिए है क्योंकि कुछ भी हो, मुझे तो उपवास करना ही था. मुझे और कुछ करना नहीं आता. "
"अपने -आप को देखो," निरीक्षक ने कहा. "तुम्हें कुछ और करना क्यों नहीं आता ?"
यह सुनकर उपवास करने वाले कलाकार ने अपना सिर थोड़ा उठाया, अपने होठों को इस तरह सिकोड़ा जैसे वह चुम्बन लेने जा रहा हो, और सीधा निरीक्षक के कान में यह कहा ताकि वह सारी बात सुन सके, "ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मुझे खाने की वे चीज़ें नहीं मिलीं जो मुझे स्वादिष्ट लगती थीं. यदि मुझे स्वादिष्ट खाना मिल जाता तो तो यक़ीन कीजिए, मैं यूँ खुद का तमाशा नहीं बनाता. तब मैं आपकी और अन्य लोगों की तरह जी भर कर स्वादिष्ट भोजन खाता." ये उसके अंतिम शब्द थे. गर्वीला न सही, फिर भी उसकी आँखों की मंद पड़ रही ज्योति में अब भी यह दृढ़ विश्वास था कि वह अब तक लगातार उपवास करने में सफल रहा.

"ठीक है, यहाँ की गंदगी अब साफ़ कर दो," निरीक्षक ने कहा. और उन्होंने उपवास करने वाले कलाकार को पुआल के साथ ही दफ़ना दिया. लेकिन उसके पिंजरे में उन्होंने एक युवा तेंदुए को डाल दिया. कोई मंदबुद्धि भी यह समझ सकता था कि पिंजरे में घूम रहे उस जंगली जानवर को देखना बड़ा स्फूर्तिदायक था क्योंकि वह पिंजरा बहुत समय से बड़ा नीरस था. अब वहाँ कोई कमी नहीं थी. बिना ज़्यादा सोचे पहरेदार तेंदुए के लिए खाना ले आए जिसका स्वाद उसे अच्छा लगा. उसे देखकर एक बार भी यह नहीं लगा जैसे वह अपनी खो गई आज़ादी का अभाव महसूस कर रहा हो. उसकी प्रभावशाली देह में जैसे सब कुछ फट पड़ने के कगार जितना मौजूद था. ऐसा लगता था जैसे उसकी देह आज़ादी को भी अपने साथ समेटे हुए थी. शायद यह आज़ादी उसके दाँतों में कहीं मौजूद थी. जीने की उसकी खुशी इतनी शिद्दत से उसके गले में से निकलती थी कि दर्शकों का उसे देर तक देखते रह पाना आसान नहीं था. लेकिन खुद को नियंत्रित करके वे सब उस पिंजरे के चारो ओर जुटे रहे और उन्हें वहाँ से आगे बढ़ जाने की कोई इच्छा नहीं हुई.
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सुशांत सुप्रिय
२८ मार्च १९६८

हत्यारे, हे राम , दलदल, पिता के नाम (कहानी संग्रह)
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  1. मुझे लगता है कि इस कहानी का शीर्षक 'अतृप्त कलाकार' होना चाहिए था. काफ्का की कहानियां एलेगरी की कहानियां हैं इसलिए उनके शीर्षक भी उनके कथा वाचक हैं. ये एक ऐसे अतृप्त कलाकार की कहानी है जो समाज से अपनेआप को कटा हुआ पाता है और अपनी क्षुधा को रिप्रेस करता चला जाता है. कलाकार का अभिमान है या उसकी अहमन्यता..कहानी में जो द्वंद्व पैदा होता है, वही उसके रूपक का आधार भी है. fast का सामान्यीकरण करके हम इसे उपवास की तरह मान रहे हैं -यहाँ मैं अनुवादक से सहमत नहीं हूँ.

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  2. मुझे अक्सर लगता है कि काफ्का कामू जैसे लेखक टूटती निष्क्रिय होती बीमार सामाजिकता का एक गहरा पाठ रचते हैं।यह केवल कलाकार का उदास विच्छिन्न एकांत नहीं है जो किन्हीं अतिक्रमणों का सामना करते हुए बौद्धिक और अकेला हुआ है।

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  3. अनुवाद इतना सहज है कि पता ही नहीं चलता कि यह अनुवाद है।

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  4. सुशांत के अनुवाद स्वाभाविक होते है । काफ़्का यह कहानी दुर्लभ अनुभव पर आधारित है । दिल को हिला देनेवाली कहानी ।

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  5. Yeh kahani maine bahut samay pehle angrzi mein padih thee. Hindi anuvaad chhapne ke liye aapko aur anuvaadik ko dhanyvaad.

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  6. फ़्रांज़ काफ़्का की कठिन कहानी का अनुवाद आकर्षक हुआ है। बधाई।

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  7. कहानी का बहुत खूबसूरत अनुवाद हुआ है. काफ्का मेरे प्रिय कथाकार हैं. अच्छी बात यह है कि मैंने उन्हें हिंदी में ही पढ़ा है. अंग्रेजी में काफ्का जैसे जटिल लेखक को मेरे लिए समझना मुश्किल है. मुझे लगता है, अगर कहानी अपना असर छोड़ती है तो साफ है कि अनुवाद अच्छा ही होगा. वैसे अनुवाद की बात करना बेमानी है, क्योंकि जिस भाषा में हम पढ़ रहे होते हैं, वही हमारे लिए मूल भाषा है. अरुण देव और सुशांत सुप्रिय का आभार.

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  8. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21 - 09 - 2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2734 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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