कलाकृति - Louise Bourgeois
असीमा भट्ट की पहचान रंगमंच और अभिनय से है, वह एक समर्थ कवयित्री भी हैं. असीमा भट्ट की कविताएँ भरपूर हैं. इन कविताओं में स्त्री होने का अहसास है और इस अहसास पर आक्रामक तमाम मनुष्य विरोधी ताकतों की पहचान है. ये कविताएँ मंच पर प्रस्तुत की जा सकती हैं इनमें एक तरह की कथात्मकता है. अनुभव और अनुभूति की गहराई और प्रमाणिकता है. स्त्री चेतना का खरा स्वर यहाँ है जो सिर्फ किताबी नहीं है. उनकी कुछ नई कविताएँ.
असीमा भट्ट की
कविताएँ
तुम्हारी बांहों के फंदे होने लगे थे धीरे धीरे और भी ज़्यादा मज़बूत
मैंने कहा- खुल कर सांस लेना चाहती हूं
तुमने कहा था - 'पूरा घर तुम्हारा है जो मर्ज़ी चाहे करो लेकिन घर के अंदर रहो'
मैं बहलाती रही अपनेआप को
तुम बार बार अपनी प्रेमिका का हवाला देते हुए कहते थे -
खिड़की पर खड़ी होकर आसमान भी देखना कितना अजनबी लगता था
ओह! तुम्हारी सोच में तुम्हारी दुनिया कितनी जकड़ी हुई और निर्मम थी
"सच्चा प्यार नहीं मिला जीवन में ...
बहुत सयाने हैं वो लोग !
कौसली ने उठा लिया पूरा गांव अपने सर पर
बाहर मत जाओ
बाहर मत जाओ
कहते हुए तुमने मुझे जकड़ लिया था
अपनी बाहों में
कहा था - बहुत भयावह है बाहर की
दुनिया
सुरक्षित नहीं बचोगी कतई
मैंने जाना था तुम्हें ही अपनी
पूरी दुनिया
सर्वस्व
तुम्हारी बांहों के फंदे होने लगे थे धीरे धीरे और भी ज़्यादा मज़बूत
कसमसाने लगी थी मैं
घुटने लगा था मेरा दम
मैंने कहा- खुल कर सांस लेना चाहती हूं
थोड़ी हवा चाहिए मुझे
तुमने कहा था - 'पूरा घर तुम्हारा है जो मर्ज़ी चाहे करो लेकिन घर के अंदर रहो'
कहते हुए जड़ दिये दरवाज़े पर सबसे
भारी ताले जिसकी चाभी न जाने कहां फेंक
आये किसी मंदार की गुफ़ाओं में या
अरब सागर की खाड़ी में
मैं बहलाती रही अपनेआप को
चारदीवारी को अपना संसार समझती
जहां पर्दे भी मेरी पसंद के नहीं
थे
मुझे नहीं था अधिकार अपनी पसंद का
रंग चुनने का जो थे चटख और जीवंत
तुम कहते थे - बहुत घटिया है
तुम्हारी पसंद
तुम बार बार अपनी प्रेमिका का हवाला देते हुए कहते थे -
उनसे पूछो, उन्हें साथ ले
जाओ, वो पसंद करेंगी, वो हैं तुमसे
ज़्यादा अनुभवी
जहां तुम मेरे ख्यालों में भी
किसी को नहीं देखना चाहते थे वहीं तुम्हारी
'वो' तीसरी की उपस्थिति मुझे उपेक्षा और हीन भावना से भर देता था
नहीं था कुछ भी वहां मेरा
जिसे मेरा घर और दुनिया कहा सकता
था
वहाँ मेरी सहमति-असहमति कोई मायने
नहीं रखती थी
रसोई से बिस्तर तक, सब पर था
तुम्हारा एकाधिकार
खिड़की पर खड़ी होकर आसमान भी देखना कितना अजनबी लगता था
चांद से भी कम होने लगी थी बातें
और मुलाक़ातें
जबकि तुम अच्छी तरह जानते थे
कितना अच्छा लगता था मुझे चांद
मन मसोस कर जीते और तितली की तरह
फड़फड़ाते घर की चहारदीवारी में लहूलुहान
था मेरा मन
घर की जंज़ीरे कितनी भयानक थी
रियायत में मिली ज़िन्दगी मुक्ति के
लिए छटपटा रही थी
तुमने और घने कर दिये थे अपने
बाड़े यह कहते हुए - 'तुम मंगलेश डबराल की
कविता की वह नायिका हो जो पूरी
दुनिया को समझती है अपनी गोद में बैठा हुआ
बच्चा'
ओह! तुम्हारी सोच में तुम्हारी दुनिया कितनी जकड़ी हुई और निर्मम थी
अब जबकि तोड़ आयी झटके से तुम्हारी
टैंक जैसी दीवार
मैं जानती हूं खुले आसमान और खुली
चांदनी में सांस लेने का अहसास
सचमुच यह दुनिया मेरी गोद में
बैठा हुआ बच्चा है.
सबसे सुंदर, सबसे प्यारा
जीने की तमाम तमन्नाओं से भरपूर.
पोस्ट मॉडर्ननिज्म वाला इश्क़
कौन थे वे लोग
जिन्होंने मोहब्बत की ख़ातिर जान
दी
यह भोगने का युग है
भोगिये और ख़ुश रहिये !
अब प्रेम किसे चाहिए
किसी को नहीं
अब सिर्फ़ जिस्म होगा जिस्म
देह ....देह ....
सिर्फ़... देह... !
और प्रेम सिसक रहा होगा
पड़ा किसी कोने में .
"सच्चा प्यार नहीं मिला जीवन में ...
किसी ने नहीं चाहा शिद्दत से
..."
अक्सर यह शिकायत करते वही लोग
पाये जाते हैं
जो कपड़ों की तरह रिश्ते बदलते हैं
यहाँ भी दर्द प्रेम का नहीं,
देह को भोगने का ही होता है ...
ज़िन्दगी में रिश्ते के आकड़े बताते
हुए अकड़ दिखाते हुए
पूछते हैं - स्कोर क्या है ?
अब प्रेम किसी को नहीं चाहिए
वह क्या होता है जनाब ?
देह! जब पूरी की पूरी देह है
आपके पास..
आपके बिस्तर पर
देह ! बिलकुल खोखली, नंग-धडंग
खुली देह, खाली देह
बेजान ... !
जो दिखाई देती है
खुली खुली आँखों से
प्रेम-प्यार तो दिखाई भी नही देता
इसे देखने के लिए सूक्ष्म से
सूक्ष्म
संवेदनशील दिल चाहिए
महसूस करने वाला
दिल
देह, देख रहे हैं,
देह, ख़रीद रहे हैं
देह, भोग रहे हैं
थोड़ी चालाकी से
थोड़े लालच से
थोड़ी मक्कारी से
थोड़े धोखे से
थोड़े झूठ से
और थोड़े पैसों से
जैसे ख़रीदते हैं कोई ऐशो आराम का
सामान
मंहगी जींस, जूते, पर्फुम, महंगी कार और 'शराब'
यह जिस्म प्यार करना नहीं जानता
जानता है तो सिर्फ़ भूख
जिस्म की भूख...
प्रेम पाना और देना उसके बस की
बात कहाँ !
जो उम्र भर तड़पते हैं सच्चे प्यार
के लिए
और आह भरते हैं
अकेलेपन का रोना रोते हुए हमसफ़र, सोलमेट तलाशते
हैं
जिंदगी में कभी जब सच्चा प्यार
मिल भी जाता है तो
पाना भी नहीं चाहते
मुकर जाते हैं
मर्लिन मुनरो एक स्वछन्द चिड़िया
लुटाना चाहती थी अपना प्रेम
दोनों हाथों से
दुनिया में
बदले में उसे मिली नींद की
गोलियां
अंतहीन नींद ...
अन्ना केरेनिना प्रेम की तलाश में
भटकती हुई चली गई
रेल की पटरियों पर
जिंदगी और प्यार की वजाय उसे मिली
वीभत्स मौत
"वीर-ज़ारा" तो भी कोई
कोई ही होता है
बिना किसी वादे के एक दूसरे के
लिए तमाम उम्र गुज़ार देना
'पोस्ट मॉडर्निज़्म'
है
प्रेम हो गया है 'आउट डेटेड'
'ना वो इश्क में
रहीं गर्मियां, ना वो हुस्न में रहीं शोखियाँ'
ढूढने वालो !
ढुढोगे प्यार
तो पाओगे
ग़ालिब और निजामुद्दीनऔलिया की
मज़ार पर
पागल थे वे लोग
जिन्होंने प्यार किया और पत्थर
खाये
और कहा -
"उम्र भर एक मुलाक़ात चली
जाती है ..."
मेरे सबकुछ *
ओ मेरे सबकुछ !
लिखना चाहती हूँ तुम्हे
मेरे 'सबकुछ' ,
मेरे प्यारे
मेरे अच्छे
मेरे अपने
"मेरे सबकुछ ...."
चलो ! मैं ले चलूँ
तुम्हें चाँद के उस पार
ना जाने, क्या हो वहां ...
बचपन से सुनती आयी हूँ.
"चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो
....."
चलो मेरे 'सबकुछ' हम हैं तैयार चलो ....
चलो कि चलें रेगिस्तान की सेहराओं
में
जहाँ रेत चमकती है 'हीर' की नाक के नगीना
की तरह
और मालूम होता है, पानी ही पानी हो
हर तरफ
बुझा लूं, मैं उसमें अपनी बर्षों की प्यार
की प्यास
जो लोग समझते हैं कि वो रेत
मृगतृष्णा है
और मृगतृष्णा से प्यास कहाँ बुझती
है ...
बहुत सयाने हैं वो लोग !
हम नहीं होना चाहते
उतने सयाने
मैं अपनी प्यास को बुझाने की तलब
और तलाश बरकरार रखना चाहती हूँ
तुम्हें पाने के लिए
"मेरे सबकुछ"
मैं झूम जाना चाहती हूँ तुम्हारी
दोनों बाँहों में
सावन के झूले की तरह
- कि छु लूं आकाश का एक कोना
तुम्हारी बाँहों के सहारे
और लिख दूं आकाश के उस हिस्से पर
तुम्हारा नाम
'मेरे सबकुछ'
चलो. कश्मीर चलें
गर धरती पर जन्नत है तो - यहीं है, यहीं हैं,
यहीं है...
मर कर जन्नत किसने देखा है ...!
चलो, मैं बना दूं लाल
चिनार के पत्तों से तेरा सेहरा
और बना लूं तुम्हे अपना
"मेरे सबकुछ"
'मेरे सबकुछ'
मुझे ले चलना समुद्र के पार
जहाँ देखना है समुंद को अपनी सतह
से ऊपर उठते हुए
कि लहरों को रौंद कर,
कर देती है
सबकुछ एक बराबर
समुन्द्र और आसमान का फर्क मिट जाता है
पता ही नहीं चलता कि समुद्र में आसमान है या
आसमान में समुद्र
तुम्हारे साथ जाना है मुझे
ज़र्रे ज़र्रे में
हद बेहद से पार
हम तुम पार कर आयें उम्र की हर
धुरी
पार कर लीं हर लकीरें
जहां खत्म हुई उम्र की सीमा और
शुरु हुआ हमारा प्यार
मैंने खुद को पाया तुममें
मेरे सबकुछ...
अब हो कोई भी राह, कोई भी डगर,
कोई भी मोड़
कभी अकेली मत छोड़ना मुझे
थक गई हूं इस अकेलेपन से
उम्र से लंबा मेरा संघर्ष
अकेलापन, तन्हाई, सूनापन
डर लगता है इससे
जैसे डरता है बच्चा
अंधेरे से
और घबरा कर रोते हुए पुकारता है
-मां.........
वैसी ही पुकारती हूं तुम्हें
मेरे सबकुछ...
मेरे सबकुछ! यह दुनिया हो या वो
दुनिया
मैं हमेशा साथ रहूँगी.
अगर मर भी गयी
तो मैं तुम्हें फिर मिलूंगी
मैं तैनू फिर मिलांगी
मैं तैनू फिर मिलांगी ...
(अमृता प्रीतम, इमरोज़ को
"मेरे सबकुछ" बुलाती थीं. यह कविता उन तमाम 'अमृता'
के लिए, जो अपने अपने 'इमरोज़'
की तलाश में है)
यह कविता नहीं सच्ची घटना है
१.
यह कविता नहीं सच्ची घटना है
या यूं भी कह सकते हैं कि यह
कविता सच्ची घटना पर आधारित है
संथालपरगना के एक छोटे से गाँव
में रहती थी
काली संथाली लड़की कौसली
जो काम करती थी बाबूघर ज़मीदार के यहाँ
ज़मीनदारी चली गयी थी ठाट बाक़ी बचा था
सूरज से पहले जग जाती थी
ओस से भींगी ज़मीन पर नंगे पाँव ठिठुरती जाती थी महुआ चुनने
और साथ लेकर लौटती
गाय दुहने के लिए हरी घास
चढ़ जाती थी पीपल की सबसे ऊँची
फुनगी पर टूंगने नये कोमल पत्ते और गाती
कोयल जैसी मीठे कंठ से प्रेमगीत
‘पिया से मोहके
भेंट न भेअलेS, मोरा मन अकुलाय गेले रे...’
एक दिन गांव के बाबूघर घर आया एक मेहमान
कौसली घर के अहाते में गोयठा
(उपले) पार रही थी
हाथ पकड़ लिया उसका उस ‘किशोर आदमी’
ने जो पूरा मर्द भी नहीं बना था
दाढ़ी मूंछ ठीक से उगी नहीं
थी लेकिन ज़ोरू पर ज़ोर आज़माना सीख गया था
कौसली ने उठा लिया पूरा गांव अपने सर पर
बैठी पंचायत
मेहमान बाबू पर लगा पांच हज़ार
रूपये का ज़ुर्माना और कभी न उस गांव में आने की बंदिश
कौसली से उसी गांव के किसुन ने की
शादी
किसुन और पांच बच्चे के साथ साथ
अपनी खेती और गाय-बैलों के साथ रहती है ख़ुशी ख़ुशी
आज भी पीपल की फुनगी पर गाती है प्रेमगीत
जो गूंजता है हवाओं के साथ दसो
दिशाओं में
२.
महानगर के एक महाविद्यालय में
पढ़ाते थे दोनों पति-पत्नी
दोनों थे बुद्धिजीवी
पत्नी जब थी उम्मीद से
देखभाल के लिए गांव से मंगवाई एक
आदिवासी लड़की
जबतक पत्नी माँ बनती उस मासूस को
भी बना दिया माँ
जबकि तब वह नहीं जानती थी कैसे बनते हैं माँ
उसे मारा-पीटा, कोसा
धक्का देकर घर से बाहर निकाल दिया
३.
पत्नी फेसबुक पर अपने जीवन साथी
की तस्वीर टांग रही है
दोनों खुश दिख रहे हैं
लिखते हैं ‘आज हमने ख़ुशहाल
वैवाहिक जीवन के पचीस साल पूरे किये’
बिना यह जाने कि वह काली मासूम
लड़की
कैसी होगी कहाँ होगी किस हाल में
होगी
क्या हुआ उसका जिसके पेट में था
उसके ही बड़े बेटे के बराबर का बच्चा....
याद रहे यह कविता नहीं सच्ची घटना
है !
(9 जून, बिरसा मुंडा के शहादत दिवस पर लिखी गयी)
________________
असीमा भट्ट
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय
से स्नातक और फिल्म एंड टेलिविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया
(एफटीआईआई) से फिल्म एप्रेसियेशन पाठ्यक्रम उपाधि प्राप्त असीमा भट्ट का
कार्यक्षेत्र फिल्मों एवं मंच पर अभिनय के
साथ साथ लेखन है. अपने एकल नाटकों एवं
प्रस्तुतियों- एक अनजान औरत का खत,
द्रौपदी, शहर के नाम, मीरा नाची, नाजिम हिकमत की कविताएँ, एलेक्जेंडर पूश्किन की कविताएँ आदि के कारण विशेष
रूप से चर्चित रही हैं. आत्मजा,
मोहे
रंग दे, बैरी पिया, हीरोइन,
रिश्तों
से बड़ी प्रथा तथा तुम देना साथ मेरा आदि उनके द्वारा अभिनीत कुछ प्रमुख धारावाहिक हैं.
उन्होंने अमेरिकन डे लाइट, महोत्सव, स्ट्रिकर, देख भई देख आदि फिल्मों में भी अभिनय किया है. इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक लघु फिल्मों
में प्रमुख भूमिकाएँ निभाई हैं.
असीमा नियमित रूप से पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ, संस्मरण, और लेख आदि लिखती रही हैं.
असीमा नियमित रूप से पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ, संस्मरण, और लेख आदि लिखती रही हैं.
asimabhatt@gmail.com
सुन्दर कविताएँ
जवाब देंहटाएंअसीमा की कविताये पहली बार पढ़ी और लगा कि इनके भीतर कई तरह की संवेदना है , जिसे जीवन संग्राम में लड़ कर बचाया गया है ।
जवाब देंहटाएंपिंजरा चाहे सोने का हो या लौहे का
जवाब देंहटाएंहैसियत तो गुलामों की ही होती है
Awesome Asima Bhatt ji
सुधा अरोड़ा जी के`कथादेश `में स्तम्भ `औरत की दुनियाँ ` में असीमा के बारे मे पढ़ा था। मैं उस श्रम को समझ सकतीं हूँ जिस श्रम से दुनियाँ को गोद में लिया बच्चा बनाना पड़ता है ---सुन्दर कविता उन जैसी ही।
जवाब देंहटाएंअसीमा को तब ही जाना जब सुधा दीदी के कथादेश के स्तम्भ में पढा और बहुत समय तक परेशान रही। बहुत हिम्मत और संवेदनशीलता की जरूरत होती है इस तरह रचने के लिए। सलाम।
जवाब देंहटाएंअसीमा बेहद प्यारी और संवेदनशील इंसान हैं और यह बात उनकी कविताओं में भी दिखती हैं। शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंसचमुच बहुत प्रभावी कवितायेँ ...और खुद उनकी तस्वीर किसी महाकाव्य सी
जवाब देंहटाएंबहुत ही सवेनदनशील कवितायें ।
जवाब देंहटाएंअसीमा की कविताओं में उनका व्यक्तित्व झांकता है। घटनाएं उन्हें झकझोरती हैं, वे संवेदनशील तो है ही पर अभिव्यक्ति का भी अलग अंदाज है। प्रतिरोध में फसाद नहीं वो उन्हें किस्सेनुमा तरीकों में बड़े मुलायम तरीके से दर्ज करती हैं और पाठकों के सामने एक सवाल खड़ा कर देती हैं । समालोचन को धन्यवाद इन कविताओं को साझा करने के लिए
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