मोनिका कुमार की कविताएँ










“खुद को ज़िंदा रखने के लिए
इतने रतजगों के बाद
उसे प्रेम से अधिक नींद की ज़रूरत है.”

२१ वीं सदी की हिंदी कविता का युवा चेहरा जिन कवियों से मिलकर बनता है इसमें मोनिका कुमार शामिल हैं. उन्होंने अपना एक मुहावरा विकसित किया है और संवेदना के स्तर पर उनमें एक नयापन है.


मोनिका कुमार की कुछ नयी कविताएँ   




मोनिका कुमार की कविताएँ              
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आगंतुक

आगंतुक के लिए कोई पूरे पट नहीं खोलता
वह अधखुले दरवाज़े से झांकता 
मुस्कुराता है

आगंतुक एक शहर से दूसरे शहर
जान पहचान का सुख तज कर आया है
इस शहर में भी
अमलतास के पेड़, गलियाँ, छज्जे और शिवाले हैं
आगंतुक लेकिन इन्हें ढूँढने यहाँ नहीं आया है

क्या चाहिए ?
अधखुले दरवाज़े के भीतर से कोई संकोच से पूछता है
निर्वाक आगंतुक एक गिलास ठंडा पानी मांग लेता है

पानी पीकर
आगंतुक लौट जाता है
जबकि किसी ने नहीं कहा 
भीतर आयो
कब से प्रतीक्षा थी तुम्हारी
और तुम आज आये हो
अब मिले हो
बिछुड़ मत जाना.



चंपा का पेड़

चंपा के पेड़ से बात करना धैर्य का अभ्यास है
ख़ुद आगे बढ़ कर यह पेड़ बात नहीं करता
पत्तियां खर खर नहीं करेंगी कि शरद द्वार खड़ा है
सीत हवाओं के निहोरे से अलबत्ता चुपचाप झरता है
इतना दूर नहीं उगा 
कि संकल्प करके इसे कोई ढूँढने निकले
इसके नाम से नहीं होता एक प्रांत अलग दूसरे प्रांत से
मिल जाता है धूर भरी सड़कों के किनारे शहर दरबदर 
कतार में एकांत में 
स्वांत सुखाय
गलियों बागों बगीचों में
रास्तों को रौशन करता
प्रतीक्षा मुक्त
न मधु न भ्रमर

चंपा के पेड़ पर कुछ भी उलझा हुआ नहीं है
पत्तियां मुश्किल से एक दूसरे को स्पर्श करतीं  
फूल खिले हुए टहनियों पर विरक्त
ऐसी निस्पृहता !
जीवन है तो ऐसी निस्पृहता क्यूँ मेरे पेड़ !
कौन है तुम्हारे प्रेम का अधिकारी
सर्वत्र तो दिखते हो
मन में किसके बसते हो ?

उत्तर मिला धीरे से
निस्पृहता मेरा ढब है
प्रतीक्षा में रत हूँ उस पथिक की
जो जानता है
सत्य पृथ्वी परायण होते हुए भी उभयचर है
निर्द्वंद है पर करुणा से रिक्त नहीं
मैं उस पथिक के प्रण पर नहीं उसकी उहापोह पर जान देता हूँ
जो सत्य की प्रतिष्ठा ऐसे करता है
जैसे आटे को सिद्ध करती स्त्री
परात में
कभी पानी और डालती
कभी आटा और मिलाती है.

 
 
एकांत के अरण्य में

अंततः यह संभव हुआ
दो जीवों की असमानता के बीच
संबंध का संयोग जगा

इस घर में मैं सामान से अधिक बोझ लेकर आई थी
फिर यहाँ खिलने लगा एकांत का अरण्य
इस घर में रहती थीं छिपकलियाँ
जिन्हें मैनें असल में पहली बार देखा
न्यूनतम सटीक देह
चुस्त लेकिन शांत मुख
छिपकलियाँ एकांत के पार्षद की तरह घर में रहतीं
और मैं व्याकुलता की बंदी की तरह   
निश्चित ही आसान नहीं था
छिपकलियों से प्रार्थना करना
इनके वरदान पर भरोसा करना
पर इससे कहीं मुश्किल काम मैं कर चुकी थी
जैसे मनुष्य से करुणा की उम्मीद करना

दूरियां बनी हुई हैं जस की तस
अतिक्रमण नहीं है अधिकारों का
छिपकलियाँ दीवारों पर हैं
और मैं अपने बिस्तर में
फिर भी एक दीवार अब टूट चुकी है 
एकांत के अरण्य में
आत्मीय एक फूल खिल गया है.



सर्दियों की बारिश

भले ही बाहर ठंड है
सर्दियों की बारिश फिर भी जल रहे माथे पर रखी ठंडे पानी की पट्टी है
इस बारिश में भीगने पर जुकाम लगने का डर आधा सच्चा और आधा झूठा है

उस भीगे हुए को मैनें सड़क पार करते हुए देखा
बारिश की गोद से उचक उचक जाते देखा
जब उसे कोई नहीं देख रहा था
उसे अपने आप को गुदगुदाते हुए देखा

बारिश की आवाज़ में वह ख़लल नहीं डालता
बाहर बारिश हो तो
पायदान से पैर रगड़ता
पाँव में लगी बारिश और मिट्टी को झाड़ कर
दबे पाँव कोमल कदमों से अपने घर में घुसता है
भीगा हुआ
पर अंदर से खुश
जैसे कोई धन लेकर घर लौटता है

मैनें देखा उसे
लौट कर घर वालों से बात करते हुए
अभी जो बारिश में सड़क पार की
इस बात को रोजनामचे से काटते हुए
निजी और सार्वजानिक राए को अलग करते हुए
बारिश के सुख को राज़ की तरह छुपाते हुए
तौलिए से बालों को पोंछता
वह सभी से बताता है
आज बहुत बारिश थी
सड़कें कितनी गीली
रास्ते फिसलन भरे
पर वह सही सलामत घर पहुँच कर बहुत खुश है. 




शहरज़ादी उनींदी पड़ी है

शहरज़ादी उनींदी पड़ी है
मृत्यु से बचने के लिए
क्या कोई अनवरत कहानी कह सकता है ?

कथा पर सवार काफ़िले
अक्सर गंतव्य से आगे निकल जाते हैं 
उन्हें कहानियों का अंत ज़िंदा नहीं रखता
धीरे धीरे वे कथानक से जुतने लगते हैं
हमारे मरने की मामूली कहानी
हमें मरने तक ज़िंदा रखती है
कहानियाँ दोहरा रही हैं खुद को
हर कहानी किसी और कहानी में है
घटनाएं इसलिए भी बेतहाशा घट रही हैं
क्यूंकि हम मानने लगे हैं
गति के दौर में विश्राम अपराध है

एक हज़ार एक रातें बीतने वाली हैं
शहरज़ादी को आभास हो गया है
कि अनवरत कहानी के अंत से पहले
सुलतान को उससे प्रेम हो जाएगा
पर शहरज़ादी का दिल जानता है
खुद को ज़िंदा रखने के लिए
इतने रतजगों के बाद
उसे प्रेम से अधिक नींद की ज़रूरत है.




धोखा होना चाहता है

पीठ पर बस्ते लादे
भेड़ों जैसा झुण्ड बनाकर
हम सुबह स्कूल में दाखिल होते थे
नीम आँखों से क़दम नापकर प्रार्थना सभा में पहुँच जाते

प्रार्थना सभा में हमने कनखियों से संसार को देखा 
हमारे भीतर एक मशीन तैयार हो चुकी थी
जो हमारी जगह पर रोज़ नेकी पर चलने और बदी से टलने की प्रार्थना कर देती थी
मज़ा तो बिल्कुल नहीं आ रहा था
पर ऐसा भी नहीं कि कोई धोखा हुआ हो

फिर एक दिन
मैं अकेले और खुली आँख से स्कूल पहुँची
रिश्तेदार के घर से हम सुबह देरी से घर लौटे थे
देरी से स्कूल आने की अग्रिम आज्ञा लेकर
माँ ने वर्दी पहना कर तुरंत स्कूल रवाना कर दिया

स्कूल में मध्यांतर का उत्सव था
पर मैं आज उत्सव का हिस्सा नहीं थी
स्कूल इतना अजनबी लग रहा था
कि मैं रोते रोते घर लौटना चाहती थी
जिन सीढ़ियों को रेल समझकर हम इससे उतरा करते थे  
वह जादुई गुफ़ा लगने लगी
जैसे कि हम जब सौर मंडल के दूसरे ग्रह के बारे में पढ़ रहे होंगे
पृथ्वी पर हमारी पकड़ कम हो जाएगी  
और कोई पत्थर से सीढ़ियों को बंद कर देगा   

क्लास में जाने से पहले मुंडेर पर खड़े नीम का पेड़ देखा
इसकी चिंदी चिंदी पत्तियां 
मुझे डराने लगी
बेमौसमी ठंड से पैर ठंडे हो गए

घंटी बजते ही
मध्यांतर में उगने वाली सैंकड़ों आवाज़ें
मंद पड़ने लगीं

मेरी क्लास के लड़के
पसीने से भरी हुई कमीज़ों में
अभी अभी पाताल से आए बौने लग रहे थे
गलबहियां डाले डोलती हुई लड़कियाँ
जो आज मेरी सहेलियाँ नहीं थी  
हल्के चुटकुलों पर लहालोट हो रही थीं

उस दिन से मेरे दो हिस्से हुए
एक जो स्कूल जाता रहा
और दूसरा जो सदा सदा के लिए अकेला हो गया.



__________________________

मोनिका कुमार
अंग्रेज़ी विभाग
रीजनल इंस्टीच्यूट ऑफ इंग्लिश
चंडीगढ़.
09417532822 /turtle.walks@gmail.com

19/Post a Comment/Comments

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  1. बहुत खूबसूरत कवितायेँ . सहस्त्र रजनी चरित्र से निकली शहरज़ादी लाजवाब है. बधाई और शुभकामनायें निरंतर अच्छे लेखन के लिए.

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  2. "एकांत के अरण्य में "और "धोखा होना चाहता है " ख़ूबसूरत कवितायें ।

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  3. Prem ka adbhut tana bana apne buna. Prem Aisa hi answar hota hai. Meri badhai accept kare

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  4. सुरेन सिंह22 जुल॰ 2017, 10:05:00 am

    बहुत दिनों बाद मोनिका कुमार की कविताएं पढ़ी , वही तेवर ...कुछ और अमूर्तता की ओर पर पैनापन कुछ कम ।

    शुक्रिया अरुण भाई

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-07-2017) को "शंखनाद करो कृष्ण" (चर्चा अंक 2675) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  6. एक जो स्कूल जाता रहा और दूसरा जो सदा सदा के लिए अकेला हो गया। मोनिका यह पंक्ति जैसे फ्लैशबैक है। आत्मविवेचन के लिए दिया गया अंतराल है। चुनांचे भीतर तक नस्ब हो जाने वाली..
    अपर्णा

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  7. उस दिन से मेरे दो हिस्से हुए
    एक जो स्कूल जाता रहा
    और दूसरा जो सदा सदा के लिए अकेला हो गया

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  8. मोनिका,

    तुम्हारी कविताओं की मैंने सदा प्रतीक्षा की है. इस प्रतीक्षा के फल को तुरत- फुरत नहीं खाया जा सकता. तुम्हारी कविताएँ जितने धीमे-धीमे आती हैं, उतने ही धीमे पढ़ कर उनका पाठकत्व अर्जित किया जा सकता है. इन्हें जल्दी पढ़ कर कुछ कह बैठना तुम्हारे कवि-कर्म के साथ आधा न्याय ही होगा. कविता में तुम्हारी उपस्थिति मेरे इस विचार को बल देती है कि धीमापन गुण है, दक्षता है, सिद्धि है. तुम मोनिका ! इस गुण की पारंगत हो. धीमापन ! यह धीमापन क़ायम रहे.

    सब कविताएँ स्कूल में बैठ कर पढ़ीं मैंने. पर जैसा कि कहा कि अभी और पढूँगी,कई बार पढ़ जाऊँगी और तुम यह जानना कि पहली बार पढ़ कर इतना कहना हो पा रहा है. जितना तुम्हारी कविता में जाऊँगी, कहना कम हो जाएगा, डूब ज़ियादह रहेगी. यह तुम्हारी कविताओं का ही चुम्बकत्व है जो पहली बार पढ़ने पर इतना कह गुजरने में विवश करती हैं.

    ' चंपा का पेड़' में परात में आटे को पानी के साथ सिद्ध करना एकदम कुँवारा बिम्ब हुआ है. अनोखा ! 'शहरज़ादी' पढ़ते हुए ख़ुद से मुलाक़ात मुमकिन हुई और 'धोखा हुआ है' का तिलिस्मी भाषा-विधान संकेत देता है कि हर बार वहाँ नई बात खुलने की संभावना है.


    शुभकामनाएँ व प्रेम.
    बाबुषा

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  9. तुषार धवल22 जुल॰ 2017, 5:38:00 pm

    ये बहुत अच्छी कवितायें हैं जो संवेदना के निर्जन से चुपचाप निकल आई हैं। मन ऐसा, जो विवेचना करता है, सोचता है, महसूस करता है। भाव ऐसे जो होने के सुख से आकण्ठ उठते हैं, जीवन की अदृश्य बिन्दुओं को जोड़ते क्षितिज-पार ले जाते हैं पाठक को।
    मोनिका को इन कविताओं के लिये बधाई और शुभकामनायें।

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  10. शिरीष मौर्य22 जुल॰ 2017, 6:09:00 pm

    बहुत समय बाद नेट पर मोनिका कुमार की कविताएं आयी हैं। बहुत छुपी हुई बेचैनी, मद्धम बोलने वाली कविताएं। एक ख़ास लहज़ा जो उनमें विकसित हुआ है।

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  11. मोनिका कुमार को जब भी पढ़ा, प्रभावित हुआ। ये कविताएं भी बहुत अच्छी हैं- संवेदनशील।

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  12. एक लम्बे अरसे के बाद मोनिका कुमार को पढना किसी बीत चुके जादू से फिर फिर गुजरना है ...जादू से एक शिकवा यह भी होता है कि उम्र की हर दहलीज पर उसका प्रभाव एक जैसा समझ नहीं आता ....वह घटता है यां फिर बढता है ...कुछ तो ज़रूर है जोकि यहां कमा याकि बढ़ा है ..पर क्या कुछ, यह तय करना थोड़ा मुश्किल है ...हां एक बात है जो यहां ज़रूर तय है वह है इन कविताओं का संवेदन पक्ष जो कमा नहीं वरन और सान्द्र हुआ सा दीखता है . थोड़ा अधिक यथार्थ वादी , थोड़ा और अधिक गहन -

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  13. मोनिका कुमार की इन कविताओं में एक समानांतर दुनिया में जीने रहने का सुख है । ये कविताएं अपना समय अपनी जैविकता अपनी भाषा खुद रचती हैं। इसलिए इनमे सहजता है। सहजता ही इन कविताओं का सबसे बड़ा गुण है ।और शायद यही वजह है कि इन कविताओं का मन मिज़ाज़ ,ढर्रे पर लिखी जा रही कविताओं से एकदम भिन्न है ।

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  14. आगंतुक और सर्दियों की बारिश बहुत अच्छी लगीं। इनमें कई अनछुई संवेदनाऐं हैं जिन्हें हम शायद ही कभी रिकोग्नाइज करते हैं। अन्य कविताएँ कुछ ठहर कर पढता हूँ। मोनिका जी को बहुत बहुत बधाई।

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  15. आप सभी ने कवितायों के बारे में जो लिखा, मेरे लिए महत्वपूर्ण है. बेशक लिखने में लेखक की अपनी संवेदना, सोच और भाषा ही मुख्य होती है लेकिन पाठक की प्रतिक्रिया भी उसके सृजन का अंग बन जाती है. मेरा अनुभव है कि कई बार किसी का एक रिमार्क कवि की सृजन यात्रा को नई दिशा दिखा देता है. इस प्रभाव का क्या स्वरुप होगा, अभी कह पाना संभव नहीं लेकिन होगा, यह निश्चित है. अब मैं लिखने को सामूहिक प्रक्रिया मानने लगी हूँ भले ही अंततः यह लेखक की कृति के रूप में जाना जाता है. ये कवितायें पिछली कवितायों से निकलीं हैं और इनकी इमरजेंस में पिछली कवितायों से मिले रिमार्क्स भी हैं कुछ एनिकडॉट्स हैं जिन्होंने इन कवितायों को ट्रिगर किया. मेरे लिए आप सभी के लिखे हुए का बहुत मोल है. धन्यवाद.

    मोनिका कुमार

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  16. मोनिका कुमार जी की कविताएँ अच्छी होती हैं, गहरी होती हैं और चिन्तनपरक होती हैं। हार्दिक बधाई।
    सादर, प्रांजल धर

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