स्वप्निल श्रीवास्तव : सात कविताएँ

(पेंटिग : Anjolie Ela Menon : After the Party : 2017)

आज मजदूर दिवस है. हिंदी का साहित्यकार अब भी कलम का मजदूर ही है. वे और भाषाएँ  होंगी जिनके लेखक कलम से जी लेते होगे. संसार की कथित सबसे बड़ी भाषा में लिखने वाला कलमकार दूसरे पेशे में भी साथ-साथ न कर्मरत रहे तो उसका जीना मुहाल है. आज हिंदी में न कोई फुलटाइम लेखक है न निकट भविष्य में उसके होने की संभावना दिखती है.

कला, साहित्य, संस्कृति विहीन यह कैसा समाज  बन रहा है ? यह जो निष्ठुरता अराजकता बढ़ी है उसका एक कारण यह भी है कि हम साहित्य से दूर होते जा रहे हैं. 

आज वरिष्ठ कवि स्वप्निल को पढ़ते हैं जो सच्चे  कलम (मेहनत) कश हैं. उनकी कविताओं में परिश्रम का पसीना खूब चमकता है.  



स्वप्निल श्रीवास्तव की  सात कविताएँ                                



 १.
शिकारी –परिवार

एक संग्रहालय की  तरह थी  उनकी  हवेली
दीवार पर ट्‌गी  हुई थी  जंग खायी  हुई  तलवार
जानवरों  की  सींग को  कायदे से सजाया  गया था

घर के लोग  बाघ के  खाल के  जूते पहने हुये थे
ओढ़े हुये  थे  बनपखा
उनके दांत  किंचित  बढ़े  हुये  थे
नाखूनों  के  साथ  छेड़ छाड़ नही  की  गयी  थी

एक  पारिवारिक  तस्वीर  में  मूंछे  चेहरे  से
बाहर थी
कंधें  पर  झूल  रही  थी  बंदूक
हमे  बताया  गया  कि  इसमें  ज्यादातर  लोग
निशानेबाज  हैं
वे  शब्द भेदी बाण चलाने में  निपुण थे
उनके  निशाने  पर  अक्सर जानवर  की  जगह
आदमी  आ  जाते  थे
पुरुष पुरुष की  तरह  नही  थे
न  स्त्रियां  स्त्रियां की  तरह  थी
बच्चों  के  भीतर  गायब थी  अबोधता

इस  शिकारी  परिवार  की  नस्ल  अलग थी
अभी  इन्हे  मनुष्य  होना  था.


  
२.

बूढ़ा  बैल

अभी  अभी  कजरारी  हैं  बूढ़े बैल  की  आंखे
अंधेरें  में  चमकती  हैं  उसकी  पुतलियां
दांतों के  पतन  के बावजूद उसके  चारा  खाने  की
क्षमता  कम  नही  हुई  है
वह  अपनी  चौभढ़ से  फोड़ सकता  है
गन्नें  की  गांठ
कोई  उसकी  पूंछ  पकड़ेगा तो  वह  हूंफेगा
गुस्से  में  मार  सकता  है  सींग

बस  इस  उम्र  में  खूंटा  तुड़ा  कर  भाग
नही  सकता
किसी  गाय  को  देखकर उसके  भीतर नही  उमगता
पहले  जैसा  प्रेम

उसके  कंधें  से  उतर  चुका  है जुआ
वह  कृषि –कार्य  से  निवृत्त  हो  चुका  है
खाली  समय  में  करता  रहता  है जुगाली
फेंकता  रहता  है  फेन

वह  हौदी  से  मुंह  उठा कर लहलहाती  हुई
फसलों  को  देखते  हुये  चरने  की  इच्छा  को
स्थगित  करता  है

बछड़ों  का  पूर्वज  है  यह  बैल
गाये  जाते  है  उसके  कारनामे
बछड़े  उसे  घेरे  हुये  है
उससे  कुछ न  कुछ  पाना  चाहते  हैं

बछड़ो  में  वह  दम  कहां-  वे  उसकी  लीक पर
चल  सके
बस  पूंछ  उठाये बू‌ढ़े बैल  की  परिक्रमा
करते  रहते  हैं.
  



(दो)
बूढ़े  बैल  जब  अनुपयोगी  हो  जाते  है
उन्हें  दरवाजे  पर  बांध  दिया  जाता  है
ताकि  लोग  जान  सके –यह  वही  बैल  है
जिसने  बंजर  धरती  के  अहंकार  को  तोड़ कर
उसे  उर्वर  बनाया  था

बूढ़े बैल  को  देख  कर  कसाई  की  आंखों  में
चमक आ  जाती  है
वह  खुंजलाता  है अपनी  दाढ़ी और  बधस्थल को
याद  करता  है

हम  बैलों  के  आभारी  हैं
वे  फसलों  के  लिये  तैयार  करते  है जमीन
वे  दंवनी  करते  हैं
खींचते है  हमारे  जीवन के  रहट
बैलगाड़ी  में  नथ कर  हमे  गंतव्य तक
पहुंचाते हैं

कुछ  बैल  मरकहे  निकल  जाते  हैं
वे  हुरपेटने  की  कोशिश  में  लगे रहते  है
वे  विफल सांड़ है
इसलिये  कुंठित  रहते  हैं

उनके  पुरूषार्थ  को  कूंच  दिया  गया  है
संकुचित  हो  गयी  है  उनकी  कामनायें
उनके  पास  से  गुजरना  ठीक नही  है
वे  हमे  रगेद सकते  हैं

सोचिये  जब  बैल  नही  रहेगें
कितना  सूना -  सूना  लगेगा  घर
दुआर  पर  बाघ  की  तरह बैठे  हुये बैलो की  डकार
सुनने  को  तरसता  रहेगा  मन.







३.
दस्तकें 

जब  दरवाजे पर  नही  लगी  थी  कालबेल
दस्तक  देने  का  अपना  मजा  होता  था
हम अपने – अपने ढ़ंग  से देते  थे  दस्तक
और  अपने  आने  की  धुन  बजाते  थे

संगीतकार  दरवाजे  को  तबले  की  तरह
बजाते  थे
गायक  मित्रों को दस्तक  से  ज्यादा  अपनी  आवाज़  पर
भरोसा  होता  था
उनकी  आवाज़  दस्तक  से  काफी  तेज
होती  थी

दरवाजे  हमारे  आने  की  आहट  को ‌‌आंक
लेते  थे
वे  धीमें—धीमें  खुलने  लगते  थे

वे  क्या  दिन  थे -  जब  दरवाजों   पर
परदे  नही  थे
नही  थी  कर्कश घंटियां
कितनी  आसान  थी  हमारी  आवाजाही

घंटियों  ने  हमारी  आदत  को  बदल
दिया.




४.
बांकपन

जीवन में  कुछ  भी  न  बचे
बांकपन  बचा  रहना  चाहिये

थोड़ी  तिर्छी पहननी  चाहिये  टोपी
चींजों  के  देखने  का  हुनर  आना  चाहिये
चलने  के  लिये  आम  रास्तो  का  चुनाव
ठीक  नही
खुद  अपना  रास्ता  बनाना  चाहिये

जीने  के  लिये  जुनून और  लड़ने  के  लिये
चाहिये  हौसला
प्रेम के लिये  होना  चाहिये पागलपन

गाने  के  लिये  हो  गीत
याद  करने  के  लिये  दृश्य
और  बुरी  चींजों  को  भूलने  की हिकमत
होनी  चाहिये

जीवन की  आधाधापी  में ठहर  कर निकाल
लेना  चाहिये  थोड़ा  समय
उस  तानाशाह  के  बारे  में  सोचना चाहिये
जो  हमारे  चैन  को  धीरे -  धीरे  छीन
रहा  है.






५.
तुम्हारा  नाम

खजुराहो  के  मंदिरों में  मैंने  लिखा  है
तुम्हारे  नाम  के  साथ  अपना  नाम
ओरछा  के  राय-प्रवीन महल  में  दर्ज  है
यही  इबारत

कुशीनगर  के  बौद्ध स्तूप  के  दायी  ओर एक  कोने  में
हम  दोनो  का  नाम साथ–साथ  अंकित  है
जब  कभी इन  जगहों  पर  जाना  तो इन अक्षरों  को
जरूर  पढ़ना
इन  हर्फों  के  बीच  दिखाई  देगा
हमारा  चेहरा

पेड़ों की  त्वचा पर  चट्टानों पर  दिल  और  दिमाग में
पहले  से  खुदा  हुआ  है  तुम्हारा  नाम
मैं  जहां  भी  जाता  हूं  तुम्हारे  नाम  के  साथ
जाता  हूं
हमारा  पीछा  करता  है  तुम्हारा  नाम

क्या  मैं  तुम्हारे  नाम  के  साथ
पैदा  हुआ  हूं ?




६.

गोररक्षक

जो  आदमी  की  हत्या  में  वांछित  थे
वे  गोहत्या  के  जुर्म  में  पकड़े  गये
आदमी  के  मारे  जाने  से  बड़ा  गुनाह  था
गाय  को  मारा  जाना
पुराणों  में  गाय  कामधेनु  थी
वह  गोरक्षको  की  हर  इच्छा  को पूरा
करती  थी

गोरक्षक  बछड़ों  के  हिस्से  का  दूध  पीकर
बड़े  होते  थे
उन्हे  बैल  बना  कर  हल  में
नांधते  थे
और  अन्न उपजाते  थे

बूढ़ी  गायें  ऋषियों  को  उपहार  में  दी
जाती  थीं
जो  इस  प्रथा  का  विरोध  करता  था
उसे  शास्त्र  विरोधी  कह कर  समाज  से
बाहर  कर  दिया  जाता  था

कलयुग  में  गाय  का  बड़ा  महातम  है
उसकी  पूंछ  पकड़  कर  पार  की  जा
सकती  है  बैतरणी
उसके  चारे को  खाकर  मिटायी  जा  सकती है
अदम्य  भूख
उसकी  परिक्रमा  करके  हासिल  की  जा
सकती  है  सत्ता

सबसे  बड़ा  दान  है – गोदान
लेकिन  गायें  पुरोहितो  के  पास  नही
पहुंच  पा  रही  हैं
उन्हें  कसाई  के  ठीहे  के  पास
देखा  जा  रहा  है.    


  


   ७.
स्त्रियां

प्राय: सभी  स्त्रियां  अच्छी  होती  हैं 
लेकिन  जो  स्त्रियां  गाती  हैं 
वे  भिन्न  होती  हैं
वे  दु:ख  को  सुख  की  तरह
गाती हैं 

उनके  गाने  से  होता  है
बिहान
उनके  स्वर  में  कलरव  सुनाई
पड़ता  है
ऐसे  एक  गायक  स्त्री  ने  मुझे
दिया  था  जन्म
मुझे  बनाया  था  गीत और  तल्लीन
होकर  गाया  था

उसके  जाने  के  बाद  मुझे
गाया  नही  गया

किसी  के  पास  नही  था  वैसा  कंठ
किसी  के  पास  नही  थी  गाने  की  धुन
और  मैं  खुद  को  गा  नही  सकता  था.

 _______________
स्वप्निल  श्रीवास्तव

ईश्‍वर एक लाठी है(1982), ताख पर दियासलाई(1992), मुझे दूसरी पृथ्‍वी चाहिए(2004) जिन्‍दगी का मुकदमा(2010), जब तक ही जीवन (2014) कविता संग्रह प्रकाशित

510—अवधपुरी  कालोनी –अमानीगंज
फैजाबाद -224001
मो...09415332326

17/Post a Comment/Comments

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  1. अब न जाने कितने किसान परिवारों के द्वार से बैल गायब हो चुके हैं और वो जुड़ाव भी ख़त्म होने की कगार पर है।जहाँ किसान अपनी कलेवे की थाली की पहली रोटी बैल के मुँह में डालता था,,फिर करता था खुद कलेवा ।अच्छी कविताएं।

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  2. जैसे दरवाजे की सांकल कानों में बजने लगी, अब कोई दस्तक नहीं देता।

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  3. Akhileshwar Pandey2 मई 2017, 8:14:00 am

    वाह। एक से बढ़कर एक कविताएं हैं।

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  4. मेरे स्टार कवि की दिलों पर दस्तक देती कविताएँ।

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  5. Premshankar Shukla2 मई 2017, 11:48:00 am

    बहुत महत्वपूर्ण कविता । बेहतरीन । प्रस्तुति भी उम्दा । कवि और अरुण जी को बधाई ही बधाई

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  6. कविता (बांकपन) की शुरुवात जबरदस्त है और कविता बढ़ती भी बेहतरीन है किंतु अंतिम चरण में कविता की रूमानियत ठहर गई..

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  7. Jai Narain Budhwar2 मई 2017, 8:23:00 pm

    स्वप्निल जी इधर बहुत अच्छी कविताएं लिख रहे हैं।बधाई।

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  8. Shiv Kishore Tiwari2 मई 2017, 8:24:00 pm

    बूढ़ा बैल के बारे में मन नहीं बना पाया पर बाक़ी कविताएँ अच्छी लगीं।

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  9. Kapildev Tripathi2 मई 2017, 8:25:00 pm

    पहली लाइन के आखिरी चार शब्‍द और अखीर का पूरा पैरा हटा दिया जांय तो यह कविता (बांकपन) चूमने लायक है।

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  10. बहुत बढ़िया कविताएं। जरूरी।
    स्वप्निल जी का आभार

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  11. अरुण जी मैं ये बार-बार कहती रही हूँ और कहती रहूँगी कि समालोचन को वर्चूअल दुनिया भी दूषित नहीं कर सकी। आप जो भी समालोचन पर लाते हैं वो सिर्फ़ नयापन लिए ही नहीं होता, फिर-फिर पढ़े जाने योग्य भी है।
    स्वप्निल श्रीवास्तव जी की कविताएँ ऐसी ही हैं। शिकारी-परिवार, स्त्रियाँ, दस्तकें, गोरक्षक सभी कविताएँ एक ही चीज़ टटोलती दिखती हैं और वह है 'बाँकपन'। यह बाँकपन सिर्फ़ टोपी को थोड़े तिरछे पहनने का हुनर ही नहीं है, हिम्मत और हौसले के बीच बहती प्रेम की उस अजस्र धारा की तरह है जिसे धारण करना आना चाहिए। वो जो मनुष्य को कविता और गीत की तरह तरल कर सके और बची रह जाए तो केवल मनुष्यता। ' बूढ़े बैल' कविता का जोड़ा शानदार है। ढेर सारे नए शब्द (परिचय से छूटे हुए शब्द) वहाँ मिले। क्या बैलों को पहले इस तरह पढ़ा गया है? मुझे याद नहीं आता। कोई एक नया कोण कैसे कहन में बाँकपन ले आता है 'बूढ़े बैल' का जोड़ा बताता है।

    कैसी सोंधी महक है इन कविताओं में। स्मृतियाँ यहाँ बंद दरवाज़ों के ताले खोलती हैं, धूल झाड़ती हैं और धूप-हवा के आने-जाने का रास्ता बनाती हैं।इन रास्तों को बनाने की कला उन 'स्त्रियों' के गर्भ में है जो हमेशा ही से दुःख को सुख में ढाल कर नए गीत रचती रही।

    बधाई पहले दूँ या धन्यवाद बार-बार कहूँ।
    समालोचन पर आती हूँ तो मन सींच कर लौटती हूँ।

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  12. सभी , सातों कवितायें मेरी पसंदीदा है , धन्यवाद , हमेशा की तरह अच्छी कवितायें पढवाने के लिए

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  13. बेहतरीन वृतान्त प्रतिभा जी । बहुत ही साफगोई से सधी हुई भाषा में अपनी बात रखने का अद्भुत प्रयोग । यूँ ही आपके लेखनी की धार और धमक बनी रहे , यही कामना है ।

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  14. हर विषय पर लीक से हटकर लिखना... बहुत सुंदर व सार्थक

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  15. सबसे बड़ा दान है – गोदान। तुम्हारी कामधेनु पाठकों तक पहुँच गई है।

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  16. तुषार धवल29 जुल॰ 2017, 7:54:00 pm

    जीवन के मध्य खुद के घटित होने के अनुभवों की कितनी परतों को उधेड़ती हैं ये सहज-सादी कवितायें। 'स्त्रियाँ', 'बूढ़ा बैल', 'गोरक्षक', 'कॉल बेल' समकालीन यथार्थ की व्यंजनाओं से भरी पड़ी हैं। लेकिन इनका समकाल देश-काल को लाँघ कर अनन्त-समकाल में उद्भाषित होता है।
    हर एक कविता पर कितना कुछ लिखा जा सकता है !
    'कॉल बेल' पढ़ कर मन रोमांचित हुआ कि कितनी सही बात कह रहा है कवि ! मैंने कभी ऐसा क्यों नहीं सोचा। याद है, बचपन में किसी के दस्तक देने के अन्दाज़ से हम जान जाते थे कि फलाँ चचा आये हैं या फलनवाँ ठकठका रहा है, ऊहे खखार रहा है। कॉल बेल (तकनीक) ने व्यक्तिगत पहचान को मिटा कर हर दस्तक को चेहरा-हीन कर दिया है। मनुष्य होने की विविधता पर एकरूपता का यह लेप जीवन के कितने छोटे-छोटे रोमांच हमसे छीन गया है और हमें इसका एहसास तक नहीं हो पाता। तकनीक ने बहुत कुछ भला भी किया है मगर हमसे एक बड़ी कीमत भी वसूल की गई है!!

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  17. स्‍वप्निल जी की कविताएं हमारे मन-मिजाज को कोई साढ़े तीन दशक से उकेरती-जगाती और सहलाती-थपथपाती रही हैं। हमें उनकी पहली किताब 'ईश्‍वर एक लाठी है ' के प्रकाशन-पूर्व का वह विज्ञापन आज भी ठीक से याद है जो अग्रज रचनाकार भारत यायावर की पत्रिका में छपा था.. उन्‍हें कहीं भी पढ़ना शुरू करने से पहले वह संदर्भ कौंधता है और मन एक विशेष संवाद रचने लगता है। ..

    उनकी कविता जिस सरलता के साथ विरल काव्‍यात्‍मक ऊंचाई को छू लेती है, यह अद्भुत है :
    ऐसे एक गायक स्त्री ने मुझे / दिया था जन्म / मुझे बनाया था गीत और तल्लीन /
    होकर गाया था / उसके जाने के बाद मुझे / गाया नही गया..

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