मीमांसा : हर्बर्ट मार्क्युज़ :अच्युतानंद मिश्र


जर्मन-अमेरिकी दार्शनिक, समाजशास्त्री और राजनीतिक चिंतक हर्बर्ट मार्क्युज़ (Herbert Marcuse, July 19, 1898 – July 29, 1979) फ्रैंकफर्ट स्कूल के सिद्धांतकार  माने जाते हैं. मार्क्सवाद से उनका लम्बा सार्थक संवाद चला था. शुरू में तो उन्हें मार्क्सवाद विरोधी मानकर तिरस्कृत ही किया गया पर बाद में उन्हें पूरक की तरह देखा जाने लगा. वैचारिक असहमतियों की विचार के विकास में अहम भूमिका होती है. इसे आज सबसे अधिक समझने की जरूरत है.

युवा अध्येता अच्युतानंद मिश्र ने विस्तार से इसकी चर्चा की है. आज के समय को समझने में यह आलेख सहायक है. और हर्बर्ट मार्क्युज़ पर एक मुकम्मल पाठ तो है ही.


मार्क्सवाद पर एक खुली बहस                             

अच्युतानंद मिश्र



ठारहवीं – उन्नीसवीं सदी के दौरान पूंजीवाद ने जो आधारभूत ढांचा निर्मित किया, क्या वह अब भी मौजूद है? वर्तमान दौर के पूंजीवाद को क्या पुराने पूंजीवाद के क्रमिक विकास के तौर पर देखना उचित होगा? इतिहास की जो चेतना मार्क्सवादी चिंतन ने उन्नीसवीं सदी के मध्य विकसित की क्या आज भी  हम उसी चेतना से संचालित हो रहे हैं?

वर्तमान से सम्बद्ध ये कुछ गंभीर और जरुरी प्रश्न थे. जर्मन और फ्रेंच दार्शनिकों ने लगातार इन प्रश्नों पर अलग अलग कोणों से विचार किया. उनके निष्कर्ष एक दूसरे से भिन्न हैं, लेकिन इस विविधता से एक नई समग्रता निर्मित होती है. इस समग्रता में मौजूद आत्मचेतना को उस बाह्य वस्तुपरकता के क्रिटीक के तौर पर भी देखा जा सकता है, जो बीसवीं सदी के पूंजीवादी विकास के मूल में मौजूद रहा. 20 वीं सदी के मध्य तक दार्शनिकों ने इस आत्मचेतना को एक बहुलतावादी दृष्टिकोण में बदलने का प्रयत्न किया. यही वजह है कि एक से लगते हुए प्रश्नों पर भिन्न- भिन्न रास्तों से जवाबों की तलाश की गयी. इस क्रम में एक नये तरह की विषयवत्ता की प्रस्तावना जर्मन दार्शनिक हर्बर्ट मार्क्युज़ करते हैं.

मार्क्युज़ का जन्म जर्मनी में हुआ. वे प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल रहे और उसके पश्चात् उन्होंने अकादमिक अध्ययन से खुद को दुबारा जोड़ा. आरंभिक अकादमिक जीवन और चिंतन में उनपर हाईडेगर का बहुत प्रभाव पड़ा. हाईडेगर के अस्तित्ववादी अवधारणा से मार्क्सवादी अवधारणा के जुड़ाव की संभावनाओं पर विचार करते हुए उन्होंने अपने अकादमिक जीवन की शुरुआत की. 30’ के दशक में हाईडेगर का जुड़ाव नाज़ी आन्दोलन से हुआ. वे उसके सिद्धांतकार बने. मार्क्युज़ ने इसी बिंदु पर हाईडेगर से अपना नाता तोड़ लिया. मार्क्युज़ के आरंभिक चिंतन पर गैर-मार्क्सवादी चिंतकों का प्रभाव अधिक है. तीस के आरंभिक वर्षों में मार्क्स की अप्रकाशित पांडुलिपियाँ प्रकाशित हुयी. इन पांडुलिपियों के प्रकाशन से मार्क्युज़ के लिए चिंतन और विश्लेषण की एक नई दुनिया का दरवाज़ा खुला. यहाँ से उन्होंने मार्क्सवाद की अविकसित संभावनाओं पर विचार किया.

मार्क्युज़, मार्क्सवाद और जर्मन आदर्शवाद के मध्य सम्बन्धों की तलाश करते हैं. कांट ने तर्क की महत्ता स्थापित की. इस तर्क के मूल में मनुष्य की मुक्ति का संकल्प मौजूद था. मुक्ति का व्यवहारिक संकल्प फ्रेंच क्रांति में देखा जा सकता था. जर्मन आदर्शवादी मुक्ति का सिद्धांत गढ़ रहे थे. हीगेल और मार्क्स के समक्ष फ्रेंच क्रांति और जर्मन आदर्शवाद यानि व्यवहार और सिद्धांत दोनों के द्वैत में मुक्ति की चेतना का स्वरूप निर्मित हो रहा था. एक नया समाज और एक नई सामाजिक चेतना विकसित हो रही थी. हीगेल इसी विकसित चेतना में व्यक्ति की तलाश एक बुद्धिवादी मनुष्य के रूप में करते हैं. वे द्वंदवाद को मनुष्य के आत्मविकास के रूप में चिन्हित करते हैं. इसे ही आगे चलकर मार्क्स ने सामाजिक विकास की परिकल्पना से जोड़ दिया.

क्रांति जर्मनी में नहीं हुयी वह फ्रांस में हुयी. इस संदर्भ में अपनी आरंभिक पुस्तक रीज़न एंड रिवोल्यूशन में मार्क्युज़ लिखते हैं . जर्मनी की अर्थव्यवस्था फ्रांस और इंग्लैंड की अपेक्षा काफी कमज़ोर थी.जर्मन मध्यवर्ग बेहद कमजोर और विश्रृंखलित था. ऐसे में जर्मनी में क्रांति संभव नहीं थी. फ्रांस में जो कुछ वास्तव में घट रहा था, वह जर्मनी में आदर्श के तौर पर मौजूद था. वहां सबकुछ एक दार्शनिक विवेक के स्तर पर समाज में घटित हो रहा था लेकिन फ्रांस में वास्तव में वह होता नज़र आ रहा था.1

कान्ट, फ़िक्टे और शेलिंग से होते हुए जर्मन आदर्शवाद जब हेगेल के समक्ष आया तो उन्होंने उसे व्यवहार और दर्शन के द्वैत में विकसित किया. मार्क्युज़ का मानना था कि हीगेल मनुष्य की स्वतंत्रता को नये सिरे से समझने और व्याख्यायित करने का जो प्रयत्न करते हैं, वह बेहद महत्वपूर्ण है. हीगेल के अनुसार मनुष्य की स्वायत्त चेतना का निर्माण तर्क द्वारा ही संभव है. उनका स्पष्ट मानना था कि तर्क द्वारा ही हम सही गलत के निर्णय पर पहुँचते हैं. फ्रांसिसी क्रांति ने मनुष्य के विवेक के समक्ष क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया. मनुष्य अपने विवेक पर नये सिरे से यकीन करने लगा. उसका यह यकीन दरअसल उसकी स्वायत्त और आधुनिक चेतना थी. हीगेल का कहना था कि जो कुछ मनुष्य के विवेक से बाहर है वह तर्क से परे है. हीगेल की इस दृष्टि में भविष्य की दुनिया का स्वप्न था. मार्क्युज़ हीगेल के इस दृष्टिकोण को अपने चिंतन के केंद्र में लाते हैं. संभवतः वे 20 वी सदी के अकेले दार्शनिक है जो मनुष्य की स्वायत्त आत्मचेतना की परिकल्पना को कभी नहीं छोड़ते. सरल भाषा में कहा जा सकता है कि मनुष्य की आत्मचेतना की स्वायत्ता ही मार्क्युज़ के चिंतन एवं लेखन का केंद्रीय पहलु है. मार्क्युज़ लिखते हैं - मनुष्य एक चिंतनशील प्राणी है. उसका विवेक उसे अपनी क्षमताओं और दुनिया के प्रति आस्वस्ति देता है. इस तरह वह महज़ अपने इर्द गिर्द मौजूद तर्कों पर ही आश्रित नहीं है, बल्कि वह अपने इर्द गिर्द को नये सिरे से तर्कों द्वारा विकसित भी करता है ..वह स्वतंत्रता के लिए इतिहास में संघर्षरत रहा है. वह अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है. इसी प्रक्रिया में वह पूर्णता की तलाश करता है और मानवीय गुणों को निर्मित करता है .हालाँकि अधीनता और असामनता मौजूद है .अधिकांश लोगों के पास स्वतंत्रता नहीं है. वे सम्पत्ति के आखिरी टुकड़े से भी वंचित हैं. इसलिए इस अतार्किक वास्तविकता को बदला जाना चाहिए. उसे तर्क के अनुरूप ढाला जाना चाहिए तभी वर्तमान स्थिति में मौजूदा सामाजिक यथार्थ का पुनर्संयोजन हो सकता है. सर्वसत्तावाद और सामन्तवाद के अवशेषों को पूरी तरह नष्ट किया जाना चाहिए 2

मार्क्युज़ के लिए हीगेल के बुद्धिवाद से मनुष्य की मुक्ति का नया दायरा विकसित होता है. अपनी वर्तमान स्थिति पर विचार करने के लिए वह सामाजिक यथार्थ से टक्कर लेता है. वह अपने विवेक को अपनी स्वायत्त चेतना के नये अस्त्र के रूप में विकसित करता है. हीगेल ने यह कहा कि हर मनुष्य का विवेक भिन्न हो सकता है, लेकिन उन भिन्नताओं से निर्मित सार्वभौमिकता की पहचान की जानी चाहिए. प्रगतिशील सामाजिक विवेक का निर्माण उसी सार्वभौमिकता के द्वारा किया जा सकता है . हीगेल यहाँ यथार्थ के निर्माण में आत्मचेतना के महत्व को इंगित कर रहे थे.

आत्मचेतना के इस नये बोध का प्रसार हीगेल और जर्मनी तक ही सीमित नहीं था. 19 वीं सदी के पूर्वार्ध में वह भारतीय नवोदित मध्यवर्ग की चेतना से भी टकराने लगा. राजाराममोहन राय जिस सामाजिक परिकल्पना को रख रहे थे उसमें भी इस आत्मचेतना की केंद्रीय भूमिका देखी जा सकती है. अगर हम थोड़ा ध्यान से देखें तो वे जिन प्रश्नों को उठा रहे थे उनसे एक आधुनिक भारतीय मनुष्य की परिकल्पना निर्मित हो रही थी. वे मनुष्य की मुक्ति को नई तार्किकता की पहचान के रूप में देख रहे थे. इस आत्मचेतना में सामन्ती अतार्किकता का निषेध मौजूद था. यह कहना अधिक प्रासंगिक होगा कि राजरामोहन राय की आधुनिकता का मूल सरोकार समाज की उस अतार्किकता से था, जिसमे व्यक्ति की पहचान का निषेध मौजूद था. व्यक्ति की पहचान से उनका तात्पर्य व्यक्तित्व निर्माण से था. यहाँ से हम नये भारतीय आत्मनिर्माण या आत्मबोध के लिए विकल मन की पहचान कर सकते हैं.

यह विकलता भारतीय स्वाधीनता संग्राम कि एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी. आत्म के पहचान और खोज की यह कोशिश राजाराम मोहन राय से होती हुयी गांधी तक आती है. आधुनिक भारत की परिकल्पना का निर्माण दरअसल इसी आत्म के वैविध्य में विकसित हो रहा था. जर्मन आदर्शवाद और यूरोपीय नवजागरण की चेतना का द्वैत जिस आधुनिकता की परिकल्पना को प्रस्तुत कर रहा था, वह मानवीय विवेक का एक वैश्विक दृश्य रच रहा था. हीगेल और मार्क्स को मार्क्युज़ इसी परपरा के सबसे उज्ज्वल पक्ष के रूप में व्याख्यायित करने का प्रयत्न करते हैं. इस अर्थ में मार्क्युज़ एक क्रांतिकारी काम कर रहे थे, वे हीगेल और मार्क्स के अंतर्विरोधों को उभारने की बजाय उनमें मौजूद चिंतन की क्रमिकता की तलाश कर रहे थे. मार्क्युज़ का मानना था कि हीगेल की दार्शनिक चिंताएं बहुत ठोस होती नज़र आती हैं. उनके अनुसार हीगेल एक ऐसे दर्शन का आधार निर्मित कर रहे थे, जिसके मूल में मनुष्य और उसकी परिस्थितियाँ थी. अमूर्त विचार नहीं. इस तरह हीगेल तर्क और विवेक के रास्ते मनुष्य के अस्तित्व की पहचान कर रहे थे. मार्क्स हीगेल की इस आत्मचेतना को सामाजिकता प्रदान कर प्रासंगिक बना देते हैं. इस अर्थ में हीगेल के आत्म की अवधारणा को मार्क्स सामाजिकता के दायरे में ले आते हैं. यही वह बिंदु है जहाँ मार्क्स का दार्शनिक अवदान एक क्रांतिकारी भूमिका अदा करता है. वे चेतना की गतिशीलता और समाज की गतिशीलता के बीच मनुष्यता की पहचान करते हैं. वह मनुष्यता जो दुनिया को बदल कर अधिक मानवीय बनाना चाहती है.

मार्क्युज़ के अनुसार मार्क्सवाद महज़ ज्ञान या आधुनिक विज्ञान भर नहीं है. वह एक ऐसी क्रांतिकारी विचारधारा है जिसके तहत बुर्जुआ समाज का विश्लेषण एवं उसकी आलोचना की जा सकती है. वे हीगेल की चेतना की अवधारणा को 20 वीं सदी के आत्म की हाईडेगर की अवधारणा के समकक्ष लाते हैं. इसी संदर्भ में बीसवीं सदी में मार्क्सवाद की नई संभावनाओं की तलाश करते हैं. वे दृष्यप्रपंच विज्ञान और ऐतिहासिक भौतिकवाद के द्वंद्व को विकसित करते हैं. मार्क्युज़ का स्पष्ट मानना था कि मार्क्सवाद के दार्शनिक परिपेक्ष्य को विकसित किये जाने की आवश्यकता है. 1932 में उन्होंने मार्क्सवाद की अर्थशास्त्र और दर्शन सम्बन्धी पांडुलिपियों पर The Foundation Of Historical Materialism’ शीर्षक लेख लिखा.

इस लेख में मार्क्युज़ मार्क्स की आर्थिकी पर अधिक बल देने का विरोध करते हैं. वे कहते हैं कि इसका प्रभाव यह पड़ा कि लोगों ने मार्क्सवाद को एक आर्थिक विज्ञान के तौर पर लेना आरंभ किया. मार्क्युज़ के अनुसार मार्क्स की दर्शन सम्बन्धी मान्यताएं आधिक कारगर हैं जों उनके बाद के लेखन में अधिक व्यवहारिक नज़र आता है. मार्क्युज़ मार्क्स को दार्शनिक संदर्भ में पढने की वकालत करते हैं. मार्क्युज़ मार्क्स के आलोचनात्मक चिंतन को महत्व देते हैं और नये संदर्भ में विकसित करने की बात करते हैं. नये संदर्भ में इसलिए भी कि मार्क्सवाद की सीमाओं की पहचान के बगैर उसे आगे बढाया नहीं जा सकता है. मार्क्युज़ के अनुसार मौजूदा मनुष्य के तमाम संकटों को समझने के लिए मार्क्सवाद के दार्शनिक आयामों के विस्तार की जरुरत है. ऐसा क्यों ?

मार्क्युज़ चिंतन के केंद्र में मनुष्य की मुक्ति के सवाल को रखते हैं. वे पूछते है कि ऐसा क्यों होता है कि हर बार शोषितों का संघर्ष उन्हें वर्चस्व के नये और विकसित रूपों के समक्ष ला खड़ा करता है. क्रांति के दौरान हर बार ऐसे मौके आते हैं, जब यह लगता है कि अब जीत हासिल की जा सकती है लेकिन ऐसे मौके गुजर जाते हैं. मार्क्युज़ इस प्रश्न को अहम् मानते हैं. वे कहते हैं हर बार इस मौके का गुजर जाना क्रांति की गतिशील प्रक्रिया को ही प्रश्नांकित कर देता है. अगर क्रांति एक वैज्ञानिक चेतना का प्रतिबिम्ब है तो हर बार उसके परिणाम अपेक्षित गतिशीलता की तरफ इंगित करेंगे. परन्तु ऐसा नहीं होता. मार्क्युज़ इस न होने का विश्लेषण करते हैं. वे बताते हैं कि यह जरुरी है कि क्रांति की प्रक्रिया से सम्बद्ध  शक्तियों पर पुनर्विचार किया जाए. इसी प्रक्रिया के तहत वे मार्क्सवाद को फ्रायड के चिंतन से जोड़ते हैं.

शोषितों का संघर्ष जब किसी क्रांतिकारी प्रक्रिया को जन्म देता है तो उनका आत्म नये सिरे से रूपांतरित होता है. इस रूपांतरण की प्रक्रिया के साथ-साथ समाज की चेतना भी रूपांतरित होती है. लेकिन क्रांति के पश्चात् जब पराजय का सामना शोषितों को करना पड़ता है तो ऐसी स्थिति में शोषितों को ‘आत्म विघटन’ की स्थिति से गुजरना होता है. क्या इस ‘आत्म विघटन’ के बाद सर्वहारा उसी चेतना के स्तर पर खुद को और और समाज को ला पाता है जहाँ से उसने आरम्भ किया था? क्या इस पराजय के बाद जो दमन की प्रक्रिया तीव्र होती है वह शोषितों को कहाँ ले जाती है? क्या आत्म के विघटन के बाद वे क्रांति की प्रगतिशील चेतना के वाहक बने रह जाते है? क्रांति की अगली अनेक कारवाइयों से पूर्व शोषितों द्वारा कोई आत्म संघर्ष चलाया जाता है? मार्क्युज़ के अनुसार मार्क्सवादियों ने अब तक क्रांति की प्रक्रिया तक ही विचार किया है.

क्रांति के पश्चात् आत्म विघटन की प्रक्रिया से उबरने का रास्ता अब तक निकालने की बात नहीं सोची गयी. ऐसा इसलिए कि मजदूर वर्ग की चेतना का सरलीकरण कर दिया गया है. यह मान लिया गया है कि सर्वहारा की चेतना हमेशा उसे प्रगतिशीलता के नये आयामों की तरफ ले जाती है. इन प्रश्नों को समझने के लिए मार्क्युज़ फ्रायड की आत्म चेतना की अवधारणा से मार्क्सवाद को जोड़ते हैं. आत्म विघटन के बाद नये सिरे से आत्मबोध का निर्माण, मार्क्युज़ इस प्रश्न को अपनी पुस्तक ‘एरोस एंड सिविलाइजेशन’, में उठाते हैं.

मार्क्युज़ क्रांति के लिए नये विषय की तलाश करते हैं. वे बताते हैं कि पराजय के बाद जब हम विषय में परिवर्तन की बात को अनिवार्य नहीं बनाते तो मार्क्सवाद की समूची चेतना अपनी दार्शनिकता से कट जाती है. वह एक अधिकारिक मार्क्सवाद का रूप ले लेती है. इस अर्थ में हम देखें तो मार्क्युज़ आरम्भ से ही हीगेल हाईडेगर और फ्रायड को मार्क्सवाद से जोड़ कर एक नये विषय की प्रस्तावना रखते हैं.  यह 19 वीं सदी के मार्क्सवाद की विषय प्रस्तावना से भिन्न है.

पराजय के बाद आत्मविघटन की स्थितियों से दुनिया के तमाम देशों में मार्क्सवाद को गुजरना पड़ा. 70’ के दशक के बाद इस तरह के आत्मविघटन के दौर से भारतीय कम्युनिष्ट पार्टियाँ भी गुजरी. उन्होंने अपने विश्लेषण में हार के कारणों का विश्लेषण किया. यह भी समझने की कोशिश कि की भारतीय समाज की विविधता के मध्य कम्युनिष्ट पार्टियों को किस तरह काम करना चाहिए. लेकिन वे क्रांति के  पश्चात रूपांतरित आत्म की पहचान नहीं करते. परिणाम स्वरुप हम पाते हैं कि तमाम कम्युनिस्ट पार्टियाँ एक गहरे नैतिक संकट का शिकार होने लगती हैं. यहाँ यह याद करना विषयांतर नहीं होगा कि हिंदी के कवि मुक्तिबोध एक सच्चे कम्युनिष्ट के लिए आत्म संघर्ष को क्यों इतना बहुत महत्व देते थे. वे अस्तित्व की उलझनों से किनारा नहीं करते बल्कि उससे जूझते हैं. लेकिन मुक्तिबोध के इस आत्मसंघर्ष के पहलू को समाज के आत्म विघटन से उबारने की दिशा में उठाये गये कदम की तरह नहीं देखा गया. यहाँ से मुक्तिबोध की बेचैनी और उलझनों को समझने का नया रास्ता खुलता है.



(दो)
मार्क्युज़ मार्क्स के श्रम के सिद्धांत को विशेष महत्व देते हैं. उनके अनुसार श्रम की अवधारणा ही मार्क्सवाद को अनिवार्य और मानवीय बनाती है. यह बात जर्मन आदर्शवाद सम्बन्धी बहसों में भी देखी जा सकती है. मार्क्स इस बहस का समापन करते हुए कहते हैं कि ‘सवाल दुनिया को बदलने का है’  यानि उसे मानवीय बनाने का है. अब तक के दार्शनिकों ने सिर्फ दुनिया की व्याख्या की है लेकिन बदलने की चेतना के साथ दुनिया की व्याख्या नहीं की गयी है. मार्क्स इसकी जरुरत महसूस करते हैं. अपने दार्शनिक चिंतन की प्रक्रिया में वे इसे अनिवार्य मानते हैं. मार्क्स के यहाँ दुनिया के मानवीय बनने की परिकल्पना के केंद्र में मनुष्य का श्रम ही है. मार्क्स इस बात को मानते है कि श्रम के द्वारा ही मनुष्य स्वायत्त होता है.

मार्क्युज़ मार्क्स के श्रम की अवधारणा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि अन्य दार्शनिकों के ठंडेपन की अपेक्षा मार्क्स का दर्शन अधिक संवेदनशील और गरिमामय नज़र आता है. उनके अनुसार ऐसा इसलिए क्योंकि मार्क्स श्रम को महज़ आर्थिक प्रक्रिया के रूप में नहीं देखते. वे उसे मनुष्यता की रचनात्मक शक्ति के रूप में भी देखते हैं. इसलिए उनका मानना है कि श्रम के शोषण के द्वारा मनुष्य की रचनात्मक शक्ति को क्षीण किया जाता है और श्रमिक एक विलगाव की स्थिति में पहुँच जाता है. मार्क्युज़ कहते हैं कि मनुष्य का श्रम न सिर्फ उसे अपितु परिदृश्य को भी रचता है. अपने परिदृश्य से जुड़कर ही कोई मनुष्य बना रह सकता है. यह जुड़ाव वह श्रम द्वारा हासिल करता है.

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूंजी का स्वरुप पूरी तरह बदल जाता है. बीसवीं सदी को हम दो अलग अलग सदियों के तौर पर देख सकते हैं. पहला हिस्सा वह, जिसे हम उन्नीसवीं सदी के विस्तार के रूप में पाते हैं. यह विस्तार 1928 तक यानि आर्थिक मंदी तक देखा जा सकता है. आर्थिक मंदी के बेहद गंभीर प्रभाव समूची दुनिया पर पड़े. एक तरफ फासीवादी उभार तीव्र हो गया तो दूसरी तरफ साम्राज्यवादी लूट की संस्कृति चरम पर पहुँच गयी. इसके परिणामस्वरूप समाज और मनुष्य के अन्तर्सम्बन्धों में तीव्र परिवर्तन आया. मार्क्युज़ पूंजीवाद के इस नये युग के आरम्भ की विशिष्टताओं को चिन्हित करते हैं साथ ही मार्क्सवाद की असफलताओं को समझने की समकालीन मार्क्सवादी दृष्टिकोण की रुपरेखा भी विकसित करते हैं. मार्क्युज़ मार्क्सवाद की बुनियादी अवधारणाओं को वर्तमान के परिपेक्ष्य में व्याख्यायित करने का प्रयत्न करते हैं. मार्क्युज़ देखते हैं कि पूंजीवाद ने मार्क्स के श्रम के सिद्धांत को विकृत कर दिया है.

मार्क्स के लिए श्रम की भूमिका मनुष्य की सामाजिक प्रकृति के निर्माण में अहम् थी लेकिन श्रम को लालच से जोड़ दिया गया है. यहाँ मार्क्युज़ मार्क्स की अवधारणा को फ्रायड के सिद्धांत से जोड़ते हैं और पाते हैं कि श्रम को कामेच्छा में बदल दिया गया है. श्रम की भूमिका का यह रूपांतरण व्यक्तित्व के रास्ते समाज के चरित्र को बदल रहा है. मार्क्स के अनुसार उत्पादन की द्वंद्वात्मकता में श्रम की भूमिका निर्णायक थी. लेकिन श्रम के इस रूपांतरण ने उसे वर्चस्वादी द्वंद्व में रूपांतरित कर दिया है. इतिहास का संघर्ष एक नये वर्चस्व में बदल रहा है. समाज की क्रांतिकारी ताकतें जाने अनजाने इस वर्चस्व का हिस्सा बनती जा रही हैं. वे प्रश्न उठाते हैं क्या ऐसी स्थिति में श्रमिक के संघर्ष का कोई निर्णायक अर्थ रह जाता है? यही वह बिंदु है जहाँ से मार्क्युज़ मार्क्सवाद को नये सिरे से व्याख्यायित करते हुए नए सवालों और नये प्रस्थान बिन्दुओं की तलाश करते हैं.



(तीन)
जर्मन आदर्शवाद ने समाज में आलोचनात्मक विवेक को महत्वपूर्ण माना था. हीगेल ने तर्क को मानवीय विवेक में ढाला. हीगेल एक ऐसे आत्म निर्माण की बात करते हैं जो तर्क से संचालित होता था. मार्क्स के लिए मानवीय विवेक का निर्माण किन्हीं व्यक्तिगत प्रयत्नों के तहत नहीं बल्कि सामाजिक प्रक्रिया के तहत संभव था. इस सबके मूल में जो लक्ष्य था, वह था समाज का आलोचनात्मक विवेक निर्माण. मार्क्युज़ यह सवाल उठाते हैं कि बीसवीं सदी में आलोचनात्मक विवेक की पहचान किस तरह संभव है? वर्चस्ववाद का हमला महज़ बाहरी सत्ताओं तक सीमित नहीं रहा गया है, बल्कि वह हमारी मनोवैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक चेतना पर भी काबिज हो चुका  है. समाज के भीतर क्या किसी किस्म की द्वंद्वात्मकता बची रह गयी है? ऐसे में क्या यह जरुरी नहीं कि हम द्वंद्वात्मकता को नये सिरे से समझने की कोशिश करें.

फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने आलोचनात्मक विवेक और द्वंद्वात्मकता की चेतना के भिन्न आयामों को नये सिरे से समझने की कोशिश की. ऐसी ही एक कोशिश की योजना होर्खाइमर एडोर्नो और मार्क्युज़ के बीच 40’ के दशक में बनी. उन्होंने द्वंद्वात्मकता को नये संदर्भ में विशेषकर फासीवादी क्रूरता के पश्चात् समझने और व्याख्यायित करने की अनिवार्यता को महसूस किया. मार्क्युज़ निजी जीवन की व्यस्तताओं के कारण इस परियोजना में शामिल नहीं रह सके. होर्खाइमर और एडोर्नों ने इस परियोजना को पूरा किया. Dialectics Of Enlightenment शीर्षक से 40 के दशक में यह पुस्तक छपकर आई. इस के तक़रीबन दो दशक बाद मार्क्युज़ की पुस्तक One Dimensional Man (एक आयामी मनुष्य) का प्रकाशन हुआ. इस पुस्तक को उसी योजना के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है जो 40 ‘ के दशक में होर्खाइमर ,एडोर्नो और मार्क्युज़ के मध्य बनी थी.

एक आयामी मनुष्य में मार्क्युज़ समाज में मौजूद द्वंद्वात्मकता की पड़ताल करते हैं. उस दौर में इस पुस्तक के निराशावादी निष्कर्षों की मार्क्सवादी हलकों मैं तीखी आलोचना हुयी थी. दुनिया भर के कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों ने इस पुस्तक को मार्क्सवाद विरोधी माना था. कुछ इसे  सी.आई.ए की करवाई के रूप में देख रहें थे. लेकिन 68’ के पेरिस छात्र आन्दोलनकारियों ने यह स्वीकार किया कि उनके लिए मुक्ति की अवधारणा का वर्तमान परिप्रेक्ष्य इस पुस्तक के द्वारा ही संभव हुआ है.

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् पूंजीवाद में जो आमूलचूल परिवर्तन आया एक आयामी मनुष्य में मार्क्युज़  उसकी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं. व्याख्या के लिए जो आधार मार्क्युज़ चुनते हैं, वह है समाज की गतिकी. मार्क्युज़ मानते हैं कि विकसित देशों का पूंजीवाद अपने पिछले दौर के पूंजीवाद से अलग हो चूका है. वे इसे विकसित औद्योगिक पूंजीवाद के तौर पर चिन्हित करते हैं. एक तरह से यह उत्तर पूंजीवाद की आहटों से भरा दौर है. मार्क्युज़ लिखते हैं  तकनीकी प्रगति के मूल्य के तौर पर एक सहज आसान, तार्किक लोकतांत्रिक परतंत्रता ने विकसित औद्योगिक सभ्यता को अपने गिरफ्त में ले लिया है. यांत्रिक सामाजिक अनिवार्यता की खातिर कष्टपूर्ण कारवाइयों के इस दौर में व्यक्ति के दमन से अधिक संगत कुछ भी नहीं. उत्पादन समूहों के बीच व्यक्तिगत प्रतिष्ठानों का महत्व बढ़ा है. असमान आर्थिक विषयों के मध्य स्वतंत्र प्रतियोगिताएं आरम्भ हुयीं हैं. विशेषाधिकारों और राष्ट्रीय संप्रभुत्ता में की गयी कटौती के परिणाम स्वरुप अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के संसाधनों में कमी आई है. हालाँकि इस तकनीकी क्रम विकास में राजनीतिक और बौद्धिक सहभागिता की आलोचना की जा सकती है लेकिन यह उसका एक निर्णायक पक्ष था3

यहाँ मार्क्युज़ विकास के नये मॉडल का चित्र खींचते हैं. वे यह बताने की कोशिश करते हैं कि सामाजिक दमन की प्रक्रिया को पूंजी के नये रूप ने किस तरह अर्जित किया है. इस संदर्भ में दिलचस्प है कि व्यक्ति बनाम समाज की पूंजीवादी अवधारणा को बड़े पैमाने पर मार्क्सवादी अवधारणा के रूप में स्वीकार किया गया. समाज की समूची अवधारणा को संस्थानीकृत कर व्यक्तिगत दमन की कारवाइयों का आरम्भ किया गया. परिणामस्वरूप हर वह व्यक्ति जो खुद को समाज का हिस्सा मानता है, अपने ऊपर हो रहे दमन को सामाजिक अनिवार्यता मानकर स्वीकार करता गया. मार्क्युज़ कहते है इस दमन के द्वारा समाज में व्यक्ति के निषेध को ही क्रांतिकारी चेतना के रूप में बदल दिया. आरम्भ में समाज में व्यक्ति के मूल्यों का इस तरह निषेध नहीं था.

बोलने की आज़ादी, विचारों की स्वतंत्रता, राजनीतिक विरोध की स्वतंत्रता आदि को लोकतान्त्रिक मूल्यों के तौर पर स्वीकार किया गया. धीरे-धीरे इनमें अंतर्निहित मूल्यों को इनसे निथार लिया गया. तीव्र संस्थानीकरण की प्रक्रिया द्वारा इन्हें समाज के विरोध में बताकर लोगों से इसे छीन लिया गया. मार्क्युज़ कहते हैं कि लोकतंत्र को एक तकनीक में बदलने की प्रक्रिया आरम्भ हुयी. इसके लिए लोकतंत्र के मूल्यों के बरक्स संस्थाओं का निर्माण किया गया. इन संस्थाओं की स्वायत्ता को मुख्य रूप से चिन्हित किया गया. कहा गया कि इनकी स्वायत्ता में ही लोकतंत्र की सार्थकता है. इस प्रक्रिया का परिणाम यह हुआ कि लोग इन संस्थाओं की मनमानियों को अस्वीकार करने की स्थिति में खुद को नहीं पाते थे. 

मार्क्युज़ लिखते हैं कि स्वतंत्रता का अर्थ न सिर्फ काम करने की स्वतंत्रता से था बल्कि उसमें भूखे मरने की स्वतंत्रता भी अंतर्निहित थी. जनसामान्य के बड़े हिस्से पर इस बात ने असुरक्षा के बोध को भरा. अगर व्यक्तियों को स्वतंत्र आर्थिक विषय के रूप में बाजार में खुद को साबित न करना होता तो इस तरह की स्वतंत्रता का चला जाना ही बेहतर था. यह सभ्यता के लिए एक बड़ी उपलब्धि होती. इसे व्याख्यायित करते हुए मार्क्युज़ लिखते हैं कि यांत्रिकीकरण और सर्वमान्यीकरण की तकनीकी प्रक्रिया व्यक्तिगत उर्जा को अनिवार्यता से परे एक अनुपयोगी स्वतंत्रता में बदल देती है. इस प्रक्रिया के फलस्वरूप मानवीय अस्तित्व की संरचना ही प्रभावित होने लगती है. दुनिया के दवाबों के बीच व्यक्ति का काम से मुक्त होना उसकी जरूरतों और संभावनाओं दोनों से ही उसे काट देता है. व्यक्ति इस स्वायत्ता को अपने अस्तित्व के विरोध में महसूस करने लगता है और अगले स्तर की परतंत्रता को बिना प्रतिरोध के स्वीकार लेता है. यहाँ मार्क्युज़ एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि अगर उत्पादन की संस्थाओं को अनिवार्य जरूरतों को पूरा करने के लिए निर्देशित किया जाता तो यह स्वतंत्रता मनुष्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती. मनुष्यता की  नई संभावनाएं प्रकट होती.

मार्क्युज़ यह सवाल उठाते हैं कि विकसित औद्योगिक समाजों में जो उत्पादन का ढांचा है वह किस किस्म की स्वतंत्रता को निर्मित करता है. क्या स्वतंत्रता का लक्ष्य व्यक्ति को अधिक परतंत्र बनाने में है? यह स्वतंत्रता जरूरतों को श्रम की प्रक्रिया से काटकर उसे एक अनुर्वर यंत्र में बदल देती है. मार्क्युज़ कहते हैं कि समकालीन औद्योगिक समाजों में तकनीक को विकास के पैमाने में ढालकर स्वयं को सर्वसत्तावादी बना डाला. मार्क्युज़ राजनीति के बदलते स्वरुप और तकनीकी विकास प्रक्रिया के अन्तर्सम्बन्धों पर विचार करते हैं. वे कहते हैं कि लोकतंत्र में राजनीतिक विरोध का सामाजिक आलोचनात्मक विवेक निर्माण में बहुत महत्व होता था. लेकिन विकसित औद्योगिक समाजों में राजनीतिक अंतर्विरोधों तकनीकी एकीकरण ने अप्रभावी बना दिया है.

राजनीति की भूमिका उस तकनीक को कायम रखने भर की है. इसे हर राजनीतिक पार्टी को अंजाम देना है. मार्क्युज़ यह बताते हैं कि तकनीकी तार्किकता ने समाज की चेतना में नये तरह का वर्चस्व कायम किया है. यह वर्चस्व राजनीतिक और वैचारिक अंतर्विरोधों को अर्थहीन बना सकने में सक्षम है. 90’ के बाद भारतीय राजनीति की दिशा भी इसी तरफ जाती नज़र आती है. सत्तारूढ़ तमाम पार्टियों के कार्यान्वन की नीतियों में एक अद्भुत साम्य नज़र आता है. राजनीति विचारधारा और कार्यनीति के बीच किसी तरह की संगती बची नहीं रह गयी है. भूमिका में सिर्फ विकास की तकनीकी अवधारणा की मौजूदगी देखी जा सकती है. मार्क्युज़ इस बात को रखते हैं कि मशीन और मनुष्य के संघर्ष में जीत मशीन की होती है. समाज में यंत्र एक प्रभावी शक्ति के रूप में विकसित होने लगता है. इस प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि उत्तरोत्तर समाज का ही यांत्रिकीकरण होने लगता है. समाज में सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति के रूप में यंत्र की भूमिका बची रह जाती है. मार्क्युज़ लिखते हैं वर्तमान औद्योगिक सभ्यताएं इस बात को दर्शाती हैं कि वे उस स्तर पर पहुँच गयी हैं जहाँ स्वतंत्र समाज को पारम्परिक आर्थिक राजनीतिक और बौद्धिक स्वायत्ता के रूप में चिन्हित करना प्रासंगिक नहीं रह गया है. यह इसलिए नहीं कि ये स्वायत्तायें अप्रासंगिक हो गयीं हैं बल्कि इसलिए कि पारम्परिक रूपों में वे अत्यधिक प्रासंगिक हो गयी हैं . ऐसे में नई व्याख्याओं की जरूरत है जो कि समाज की वर्तमान संभावनाओं को रेखांकित करे.4

ये नये रूप क्या हैं ? मार्क्युज़ के अनुसार इनमें पुराने रूपों का नकार छिपा है. आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ है अर्थव्यवस्था से मुक्ति. अस्तित्व के लिए रोजमर्रा के संघर्ष से मुक्ति का तात्पर्य है जीवित रहने के लिए कमाने से मुक्ति. राजनीति से मुक्ति का अर्थ है राजनीतिक विचारधारा से मुक्ति और राजनीति का व्यक्तिगत उद्योग में बदल जाना. इसी तरह बौद्धिक स्वतंत्रता का अर्थ होगा व्यक्तियों की मान्यताओं का जनसंचार माध्यमों पर हावी होना ताकि सामान्य जन के आलोचनात्मक विवेक को एकायामी दृष्टिकोण में बदला जा सके. ये बातें मार्क्युज़ अमेरिकी और यूरोपीय समाज को ध्यान में रखकर भले 50’ और 60’ के दशक के अपने अनुभवों के आधार पर कह रहे हों लेकिन इनमें विकसित पूंजीवाद की अंतर्वस्तु पर विशेष बल था. यही वजह है कि इस तरह के सामाजिक एवं राजनीतिक रूपांतरण को 90’ के बाद भारतीय समाज में भी बखूबी देखा जा सकता है.

नई सदी में तो एशियाई समाजों में यह प्रक्रिया और तेज़ हुयी है. पिछले कुछ वर्षों में हमारे यहाँ जो सामाजिक एवं राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं, उसकी ठीक-ठीक पहचान पूंजीवाद की पुरानी व्याख्याओं द्वारा संभव नज़र नहीं आता.  समूची भारतीय राजनीति को जनसंचार माध्यमों द्वारा प्रभावित किया जा रहा है. जन संचार माध्यमों की भूमिका इस हद तक हो गयी है कि लोगों के चेतन अवचेतन में मौजूद अंतर्विरोधों को भी अप्रासंगिक बना दिया गया है. जनता के प्रश्नों को जनता की राय के बजाय विशेषज्ञों की व्याख्याओं द्वारा समझाया जाता है. इस तरह समाज में एक अनुकूलन पैदा किया जाता है. फिर उस समझ को बड़े पैमाने पर और आक्रामक प्रचार माध्यमों द्वारा इस तरह प्रचारित किया जाता है कि हर व्यक्ति अपनी ही नज़र में खुद को झूठा मान ले. सत्ता की राय को ही वह सामूहिक विवेक मानकर उसके पक्ष में हो लेता है.

मार्क्युज़ कहते हैं कि विकसित औद्योगिक समाजों में जरूरतों और संतुष्टि की चेतना को रचा जाता है. वर्गों के विलोप की काल्पनिकता को जनता के सहज विवेक का हिस्सा बना दिया जाता  है. संस्थाएं समाज के ढांचे को इस तरह बदलती हैं कि उसमें वर्गों का भेद खत्म होता सा प्रतीत होने लगता है. ऐसा करने के लिए वस्तुओं के उपभोग की एकता को मुद्दा बनाया जाता है. उपभोग की वस्तुओं का साम्य हमारे विवेक में एक प्रकट तर्क को बुनता है. हम सोचते हैं कि मालिक और नौकर तो एक ही टेलीविज़न देख रहे हैं, टाइपिस्ट और मालिक की लड़की ने एक से ही कपडे पहन रखें हैं या तमाम लोग एक से ही अख़बार पढ़ रहे हैं तो यह सब कुछ पुराने अंतर्विरोधों की अपेक्षा कितना अधिक आधुनिक है. निचले पायदान पर जीने वाली जनता का कितना विकास किया गया है. वह अब ऊपरी वर्ग के साथ एक समरस जीवन व्यतीत कर रही है. इस तरह समाज में वर्गीय एकता और समरसता का मिथ बुना जाता है. सामान्य बातचीत में भी लोग यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि पहले के शोषण की अपेक्षा शोषण कितना कम हुआ है. संसाधनों के सामूहिक उपभोग की संभावनाएं अप्रत्याशित तौर पर समाज में बढ़ी हैं.

यहाँ मार्क्युज़ यह सवाल उठाते हैं कि क्या वर्गों की चेतना का अर्थ उपभोग की स्वायत्ता भर है? उपभोग के परे भी वर्गों का अस्तित्व होता है, क्यों हम इस बात से अनभिज्ञ होने लगते हैं. यहाँ एक बात और महत्वपूर्ण है कि वर्ग साम्य वस्तुओं के उपभोग द्वारा जब अर्जित किया जाता है तो हमारे भीतर यह बात बैठ जाती है कि हम उपभोग की क्रमिकता द्वारा ही अपने को समाज में सम्मान जनक बनाये रख सकते हैं. हर व्यक्ति वस्तुओं के उपभोग के अपरिमत संसार का नागरिक हो जाता है. उपभोग की नकली आकांक्षाओं को रचा जाता है. उसे हमारे विवेक में अनिवार्य बनाया जाता है. हम यह मान बैठते हैं कि उन्हें पा कर ही हम संतुष्टिदायक जीवन जी सकते हैं. उत्पादन की इस तर्कहीनता को पूंजी के पुराने रूप से नहीं समझा जा सकता. इस बेतहासा उत्पादन का परिणाम होता है दमन के नये स्तरों का निर्माण. शोषण के अनुकूलित तरीके विकसित किये जाते हैं. उपभोग के असंतोष को इस स्तर पर पहुंचा दिया जाता है कि हर व्यक्ति उसे पाने के लिए कोई भी कीमत अदा करने को तैयार नज़र आता है.  

मार्क्युज़ कहते हैं कि समाज के अतिविकसित दायरे में सामाजिक का वैयक्तिक में बदलना इतना सूक्ष्म  एवं तकनीकी है कि उनके बीच के अंतर्विरोधों को आसानी से उभारा नहीं जा सकता. उनके बीच का अंतर महज़ एक सिद्धांत के रूप में ही नज़र आता है. इसी तरह जनसंचार माध्यमों द्वारा दिखाए गये कार्यक्रमों में सूचना और मनोरंजन के दायरे को स्पष्ट कर सकना आसान नहीं लगता. गाड़ियों की भूमिका में शोर और सुविधा के बीच फर्क किस तरह किया जा सकता है? राष्ट्रीय सुरक्षा और कॉर्पोरेट लाभ के बीच भी वर्तमान में फर्क करना लगभग असंभव सा हो गया है. ऐसे में हम एक गैर आलोचनात्मक संस्कृति के प्रवेश द्वार पर खुद को खड़ा पाते हैं. मार्क्युज़ कहते हैं इस तरह हमारा सामना विकसित औद्योगिक समाज के एक बेहद चिंतित करने वाले पक्ष से होता है. उसकी अतार्किकता का तार्किक पक्ष. उत्पादकता और गुणवत्ता को उपभोग की चेतना में बदलने की पीछे क्रियाशील शक्तियाँ इस तर्क को बुनती हैं. सामान्य आदमी इस संरचना में उलझता जाता है. वह इस तर्कहीनता के पीछे के तर्क को नहीं देखता.

इस तरह उत्तरोत्तर तकनीकी यथार्थ के द्वारा समाज की संरचना को बदल दिया जाता है. मार्क्युज़ कहते हैं कि कई बार ऐसा महसूस होता है कि इस बाहरी बदलाव के विरुद्ध लोग एकजुट होंगे. वे अपनी अन्तःचेतना को उद्भाषित करेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. तो क्या हमारी अन्तः चेतना में भी एक संकुचन निर्मित किया जा रहा है? बाहरी परिवर्तनों को देखने और समझने के मध्य हमारे बोध में क्यों कोई अन्तर्विरोध पैदा नहीं होता. मार्क्युज़ इन सवालों को एकायामी मनुष्य की स्थिति से जोड़ते हैं. वे पूछते हैं आखिर इन स्थितियों की एकरूपता के विरुद्ध हमारी बहुलता संघर्ष क्यों नहीं करती ? क्या कोई बहुलता बची नहीं रह गयी है? मार्क्युज़ के अनुसार बाहरी बदलावों के द्वारा हमारी अन्तः चेतना को बदला जा रहा है. मार्क्युज़ इसके लिए .... (अन्तःक्षेपण) शब्द का इस्तेमाल करते हैं. वे कहते हैं यह शब्द अब अपनी पारम्परिक भूमिका में नहीं रह गया है. मार्क्युज़ बताते हैं कि मनुष्य का अन्तः करण बाह्य यथार्थ के उन पक्षों  का पुनरुत्पादन करता था जिसपर उसका नियंत्रण नहीं था. यह अन्तःक्षेपण की प्रक्रिया होती थी. अन्तःक्षेपण द्वारा बाह्य का आंतरिकीकरण किया जाता था. लोग जिसे अन्तः प्रेरणा के रूप में देखते थे वस्तुतः वह हमारी चेतना की द्वंद्वात्मकता ही थी. यही वह पक्ष था जिसके प्रभाव में आकर लोग बाह्य को नकार देते थे. वे यह कहते हुए कि हमारा मन नहीं मान रहा, अस्वीकार के सहस का परिचय देते थे. अन्तःक्षेपण हमारे अंतःकरण को बाह्य के प्रति बाह्य से मुक्त बनता था. व्यक्तियों का यही अन्तःक्षेपण उन्हें सामाजिक प्रतिरोध के लिए एकजुट करता था.

मार्क्स ने चेतना के निर्माण में जिस द्वंद्वात्मकता कि बात स्वीकार कि थी वह इसी अन्तःक्षेपण के रास्ते संभव था. मनुष्य की यह आन्तरिक स्वायत्ता महज़ उसकी निजता को ही उद्भासित नहीं करती थी बल्कि सामाजिक कड़ी में वह अपने अस्तित्व को भी प्रमाणित करता था. एक तरह से कहें तो इसी अन्तःक्षेपण के रास्ते मनुष्य बहुलताओं के संयोग से गतिशील एकात्मकता का निर्माण करता था. मार्क्युज़ कहते हैं तकनीकी यथार्थ ने उसकी इस आन्तरिकता को नष्ट कर दिया है. व्यापक स्तर पर किये गये उत्पादन वितरण और उपभोग के द्वारा उसकी इस निजता को निगल लिया जाता है. मार्क्युज़ कहते हैं उद्योगों का मनोविज्ञान महज़ फैक्ट्रियों तक ही सीमित नहीं रह गया है. वह अपने दायरे का अतिक्रमण करता है. इसके परिणामस्वरूप  अन्तःक्षेपण की प्रक्रिया ठहर गयी है. उसकी द्वंद्वात्मकता नष्ट हो गयी है. बाह्य सामाजिक गतिशीलता के अनुरूप आतंरिक बोध के निर्माण में अन्तःक्षेपण के स्थान पर यांत्रिक अनुकरण प्रभावी हो गया है. समाज और व्यक्ति के सम्बन्ध में जो द्वंद्वात्मकता थी, वह नष्ट हो गयी है. यही वजह है कि व्यक्ति का महत्व घटा है. वह यांत्रिक अर्थों में समाज का प्रतिबिम्ब नज़र आने लगा है.

मार्क्युज़ कहते हैं कि समाज के स्वाभाविक प्रतिबिम्ब के रूप में इस व्यक्ति की पहचान विकसित औद्योगिक समाजों में भली भांति की जा सकती है, लेकिन इसके वैविध्य को पहचानना कठिन होता जा रहा है. वैज्ञानिक प्रबंधन और संगठन के द्वारा बेहद बारीक़ तरीकों से यह सब किया जा रहा है. मनुष्य के मन के रूप में मौजूद यह आंतरिक आयाम किन्हीं बाह्य नियंत्रों द्वारा संचालित हो रहा है. ऐसे में आलोचनात्मक विवेक के निर्माण की स्थिति नहीं रह जाती. मार्क्युज़ कहते हैं यह आलोचनात्मक विवेक जिस नकरात्मक चिंतन से आरम्भ होता था समाज में अब उसी गुंजाईश कम रह गयी है.

व्यक्ति और समाज के मध्य क्या बचा रह गया है, अपरिमित वस्तुओं के संसार के अतिरिक्त? व्यक्ति से समाज के बीच मौजूद द्वन्द्वाताम्कता में ही व्यक्तित्व का निर्माण होता था. उसमें तमाम तरह के नकार और स्वीकार के द्वारा एक आलोचनात्मक विवेक निर्मित होता था. लेकिन वस्तुओं के बेतहाशा उत्पादन और तर्कहीन उपभोग ने इस सम्बन्ध को बदल दिया है. जिस आलोचनात्मक विवेक के द्वारा व्यक्ति समाज का आंतरिकीकरण करता था वह कहाँ बचा है? मार्क्युज़ कहते हैं इस आंतरिक आयाम के नष्ट होने ने विवेक को बहुआयामी नहीं रहने दिया. मनुष्य अब एकायामी विवेक का प्रतिबिम्ब हो गया है. प्रश्न यह भी है कि क्या हम इसे विवेक कह सकते हैं?

मार्क्युज़ हायडेगर के अस्तित्वाद की चेतना के साथ मार्क्स के विलगाव की चेतना की पड़ताल करते हैं ? वे विलगाव की अवधारणा में मौजूद स्थिरता की बाबत सवाल उठाते हैं. वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि वर्गीय सामान्यीकरणों के बावजूद अस्तित्व का वैविध्य, मनुष्य के आलोचनात्मक विवेक की सतत गतिशीलता को नष्ट नहीं होने देता है. ऐसे में सर्वसत्तावादी ताकतें इस तरह के सामान्यीकरणों द्वारा वर्चस्व के नये रूपों को विकसित करती हैं. वे वर्गीय अंतर्विरोधों को वर्गीय उत्पादन और उपभोग की चेतना में सीमित कर देखने पर बल देती हैं. मार्क्युज़ कहते हैं क्या विलगाव हर किसी का समाज में एक ही स्तर का होता है. मार्क्युज़ के अनुसार ऐसा नहीं होता. एक ही वर्गीय दायरे में रहने के बावजूद हर मनुष्य अपने व्यक्तित्व और स्व के साथ मौजूद रहता है. इसलिए विलगाव का स्तर भी सभी का  भिन्न होगा. विलगाव की स्थिति के भीतर भी यह गतिशीलता बनी रहती है. मार्क्युज़ इसे भी मनुष्य की बहुआयामिता के रूप में देखते हैं. उत्पादन के माध्यम जब श्रमिक को एक विलगाव की स्थिति में पहुँचाया जाता है तो वह इसी गतिशीलता के रास्ते यानि अपने स्व की चेतना के माध्यम से स्वयं को पुनःअर्जित करता है.




(चार)
मार्क्युज़ व्यक्ति और समाज के अन्तर्सम्बन्धों पर कई आयामों से विचार करते हैं. इसी संदर्भ में वे मार्क्सवाद की अवधारणा में बदलाव की अनिवार्यता पर बल देते हैं. मार्क्युज़ के बहुत से समकालीन दार्शनिक सीधे-सीधे मार्क्सवाद को ख़ारिज कर रहे थे. बड़े जोर शोर से उसकी अपर्याप्तता की चर्चा कर रहे थे. वहीँ मार्क्युज़ मार्क्सवाद के समकालीन परिप्रेक्ष्य एवं उसके समाज दर्शन को विकसित कर रहे थे. 19 वीं सदी सिद्धांतों की सदी थी. 20 वीं सदी कार्यान्वन की.  इन दोनों के फांको के बीच मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर नये प्रश्न उठ रहे थे. मार्क्युज़ न सिर्फ 20 वीं सदी बल्कि 19 वीं सदी को भी नये तरह से देखने की बात करते हैं. वे हीगेल के द्वंदवाद को नये परिप्रेक्ष्य में देखने की बात कहते हैं और इस पर बल देते हैं कि समाज के तर्क निर्माण में हीगेल के द्वंदवाद की भुमिका बहुत महत्वपूर्ण है.

मार्क्युज़ का स्पष्ट मानना था कि मार्क्सवाद की मौजूदा समझ और दृष्टि द्वारा विकसित औद्योगिक समाज को व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. यही वजह है कि वर्तमान दौर में मार्क्सवाद समाज के नज़रिए को आलोचनात्मक बनाये रखने में सफल नहीं हो सका है. मार्क्युज़ मार्क्सवाद के लक्ष्य को राजनीतिक परिवर्तन तक महदूद कर नहीं देख रहे थे. उनका मानना था कि बगैर सामाजिक परिवर्तन के मार्क्सवाद को लोगों की चेतना का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता. समाज की इकाई व्यक्ति है और व्यक्ति को बदले बगैर समाज को नहीं बदला जा सकता है. इसके विपरीत पारम्परिक मार्क्सवादियों का मानना था कि समाज वर्गों के द्वारा बनता है, इसलिए सिर्फ वर्गीय अंतर्विरोधों की पहचान के द्वारा समाज को जरुरी तौर पर परिवर्तित किया जा सकेगा. प्रत्यक्ष रूप में भूमिका व्यक्ति की बजाय वर्ग की होगी. मार्क्युज़ पारम्परिक मार्क्सवाद की इस समझ से इत्तेफाक नहीं रखते थे. उनका मानना था कि व्यक्तियों को रूपांतरित कर ही समाज को रूपांतरित किया जा सकता है. समाज स्वयं में किसी एक दिशा में अग्रसर नहीं होता. आलोचनात्मक विवेक द्वारा ही समाज के सामूहिक विवेक को निर्मित किया जा सकता है. अगर आलोचनात्मक विवेक को प्रश्रय न दिया गया तो सामूहिक विवेक एक वर्चस्ववाद की चेतना में बदल जाएगा.

पूंजीवाद ने व्यक्तियों को प्रभावित करने के तरीकों को बदला है. विकसित औद्योगिक समाजों में पूंजीवाद कई स्तरों पर व्यक्ति को अपना निशाना बनाता है. न सिर्फ राजनीति बल्कि मनोविज्ञान , वस्तुओं के उत्पादन ,वितरण, खपत, जन संचार, यातायात, शिक्षा, चिकित्सा, कला एवं मनोरंजन, इन तमाम माध्यमों से पूंजीवाद व्यक्ति को रूपांतरित करता है. व्यक्तियों के इस रूपांतरण से अनुकूलित एकायामी समाज निर्मित होता है. पूंजीवाद के अनुकूल व्यक्तियों की अगली खेप तैयार होती है. इस प्रक्रिया और क्रमिकता से उत्तरोत्तर हम इस बात को स्वीकार करने लगते हैं कि पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया, सामजिक जीवन और संस्कृति बोध ही हमारे सहज बोध के अनुकूल है. ये इस हद तक स्वचालित हैं जैसे कि पानी का नीचे गिरना. ऐसे में इस सब के प्रति हमारा किसी किस्म का विरोध मानवीय प्रकृति के अनुरूप नहीं होगा.

मार्क्युज़ जब फ्रैंकफर्ट स्कूल से जुड़े तो उनके लिए सबसे बड़ा संकट था फासीवाद का आगमन. 30’ के आरम्भिक वर्षों में ही फासीवाद ने समूचे समाज को अपनी गिरफ्त में ले लेना आरम्भ कर दिया. मार्क्युज़ ने इंस्टिट्यूट फॉर सोशल साइंस रिसर्च के कार्यों द्वारा फासीवाद के चरित्र को समझना आरम्भ किया. एडोर्नो, होर्खाइमर और मार्क्युज़ के लिए यह पहेली से कम नहीं था कि जब फासीवाद विकसित हो रहा था, समाज में अपनी गहरी जड़ें जमा रहा था तो समाज के भीतर से ही उसे चुनौती क्यों नहीं मिली. सत्ता का फासीवादी विस्तार कहीं समाज के फासीवादी विस्तार तक तो नहीं जाता? मार्क्युज़ ने इस प्रश्न को एक चुनौती की तरह स्वीकार किया. सबसे अहम् सवाल यह था कि समाज की पारम्परिक परिभाषा से मुक्त किस तरह हुआ जाए. पारम्परिक मार्क्सवादी दृष्टिकोण के तहत समाज वर्गों में बंटा हुआ है. वर्गीय अन्तर्विरोध ही समाज को नियंत्रित करते हैं. लेकिन फासीवादी सत्ता के समक्ष समाज का दूसरा चेहरा नज़र आ रहा था. ऐसे में मार्क्युज़ नये संदर्भों में समाज को विश्लेषित करते हैं. इस विश्लेषण के मूल में यह बात थी कि फासीवाद की सामाजिक आलोचना की चेतना का निर्माण कैसे हो.


मार्क्युज़ ने इस बात पर बल दिया कि समाज को सिर्फ वर्गीय अंतर्विरोधों के दायरे से देखने पर उसका आन्तरिक स्वरुप स्पष्ट नहीं होता. दमन की शक्तियों ने समाज को गहरे तक बदल दिया है. ऐसे में वर्गीय अंतर्विरोधों के साथ-साथ किसी समय विशेष में व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों को भी समाज के विश्लेषण में शामिल किया जाना चाहिए. समाज बनाम सत्ता की एकहरी समझ से 20 वीं सदी की दुनिया की वास्तविक पहचान संभव नहीं है. मार्क्युज़ इसे स्पष्ट करने के लिए बार -बार उत्पादन संबधों में आये परिवर्तन के साथ उपभोग की संस्कृति के रूपांतरण की तरफ भी इंगित करते हैं. वे कहते हैं उपभोग और लालच की संस्कृति के रास्ते सत्ता ने समाज के विरोध को एक हद तक कम कर दिया है. समाज में एक नई संस्कृति विकसित की गयी है और इस संस्कृति में जाने अनजाने सत्ता का आंतरिक समर्थन छिपा हुआ है. मार्क्युज़ इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि फासीवाद महज़ सत्ता का बदले हुए स्वरुप के तौर पर मौजूद नहीं था बल्कि वह समाज की सोच का भी हिस्सा बन चूका था. इसके मूल में समाज में आलोचनात्मक विवेक और विपरीत चिंतन के घटते प्रभाव को मार्क्युज़ रेखांकित करते हैं. मार्क्युज़ ने लिखा कि फासीवादी सत्ता ही फासीवादी समाज में बदल गयी.

डगलस केलनर ने मार्क्युज़ की तमाम पुस्तकों का संपादन किया है . वे फ्रंकफर्ट स्कूल की अगली कड़ी के चिंतकों में गिने जाते हैं. उनका मानना है कि मार्क्युज़ की पुस्तक एकायामी मनुष्य को पढने के दो तरीके हैं. पहला यह कि समाज का जो एकायामी तकनीकीकरण हुआ है उसके परिणामों के विषय में विचार किया जाए. केलनर के अनुसार यह स्वीकार किया जा सकता है कि इस रास्ते सर्वसत्तावाद की समाज में स्थापनी हुयी हो. ऐसी स्थिति में एक नये तरह के समाज से हमारा सामना होता है. इस समाज में पूंजीवादी अंतर्विरोधों की आलोचना के लिए व्यक्तिवादी दृष्टिकोण या वैविध्यता की कोई गुंजाईश नहीं रह जाती. एकयामिता का अर्थ यह हुआ कि ऐतिहासिक विकास को ही वर्चस्ववादी विवेक में बदल दिया जाए. ऐसे में हर तरह का विरोध ही संदेहास्पद और अर्थहीन हो जाएगा. हालाँकि केलनर का मानना है कि यह संभव है कि एक आयामी मनुष्य का एक पाठ इस तरह से किया जाए, लेकिन मार्क्युज़ एक आयामिता को सर्वसत्तावादी रूपांतरण में नहीं देख रहे थे. केलनर के अनुसार मार्क्युज़ इसे द्वंद्वात्मकता के विरोध में देख रहे थे. यह ज्यादा खतरनाक स्थिति थी. मार्क्युज़ इसे सामाजिक चेतना  में सिकुड़ रही द्वंद्वात्मकता से जोड़कर देख रहे थे.

वे इसे विकसित औद्योगिक समाज का एक महत्वपूर्ण आयाम कह रहे थे. एक ऐसा आयाम जिसने अन्य तमाम पक्षों को अर्थहीन बना डाला है. मार्क्युज़ इसे ही सत्ता के आयाम के रूप में रखते हैं. इसमें किसी तरह के अन्तर्विरोध की कोई संभावना बची नहीं रह जाती है. सत्ता के इस एकायामी चरित्र को सामाजिक विकास की प्रक्रिया में ढाल दिया जाता है. हम अगर ध्यान से देखें तो द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् दुनिया की तमाम सरकारें एक ही बात को दोहराती रहीं , उन सबका एक ही लक्ष्य था - वह लक्ष्य था विकास. सरकारें इस प्रश्न को नहीं रखती कि यह विकास किसके लिए. वे सिर्फ विकास की बात करती हैं. इस विकास के नारे के तहत ही समाज को अंतर्विरोधों से मुक्त कर दिया जाता है. सत्ताएं यह आश्वाशन देती हैं कि हर किसी का विकास संभव है, इसलिए जरुरत सत्ता के विरोध की नहीं सहयोग की है. यह कहा जाता है कि विरोध करने वाले विकास विरोधी है. वे तेज़ रफ़्तार वक्त की दौड़ में पिछड़ जाने को अभिशप्त हैं. इस पूरी प्रक्रिया का एक ही उद्देश्य था समाज को एकायामी विकास की अवधारणा में जकड़ना. ऐसे में समाज की चेतना और सत्ता की चेतना के बीच किसी किस्म का भेद नहीं रह जाएगा.

मार्क्युज़ के अनुसार एकायामी समाज में वस्तु और विषय के बीच का द्वंद्व समाप्त होने लगता है. विषय के रूप में समाज का वस्तुकरण होने लगता है. समाज की समूची चेतना पर वस्तु चेतना का वर्चस्व बढने लगता है. यहाँ तक कि मनुष्य की आत्म सत्ता का ही लोप हो जाता है. स्वायत्ता की जो चेतना उसके बोध का स्वाभाविक अंग होती थी नष्ट होने लगती है. मनुष्य की आत्मसत्ता में ही उसकी शक्ति का बोध अंतर्निहित है. इसी शक्ति के बोध से वह स्वतंत्रता और ज्ञान की ओर उन्मुख होता है. जैसे ही उसकी आत्म सत्ता वस्तु सत्ता में बदलने लगती है उसकी यह स्व चेतना भी विनष्ट होती जाती है. ऐसे में यह जरुरी है कि वह अपनी आत्मसत्ता के इस रूपांतरण के विरुद्ध संघर्ष करे. संघर्ष की चेतना वह जिस इतिहासबोध से ग्रहण करता था वह स्वयं में ही वर्चस्ववादी शतियों में बदल गयी है.

मार्क्युज़ कहते हैं कि स्वायत्ता और आत्मचेतना के लिए यह जरुरी है कि वस्तु चेतना से मुक्त हुआ जाए. जब स्वायत्त विषय वस्तु को नियंत्रित करती है तो समाज में रचनात्मक निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ होती है. अंतःकरण का आयतन विस्तृत होता है .लेकिन इसके विपरीत जब वस्तु विषय को नियंत्रित करती है तब समाज एक विध्वंस की ओर जाता है. परतंत्रता बढती है. अंतःकरण का आयतन संकुचित होता जाता है. यही एकायामी समाज की विडंबना है. वस्तु द्वारा विषय पर जो वर्चस्व हासिल किया जाता है, वह समाज की रचनात्मक शक्ति को नष्ट कर देता है. हीगेल ने वस्तु और विषय के बीच एक तनाव की बात कही थी. एक आयामी समाज में यह तनाव नष्ट होने लगता है. वस्तु के समक्ष विषय का आत्मसमर्पण उसके वस्तुकरण का वायस बनता है. मार्क्युज़ के अनुसार विकसित औद्योगिक समाजों में स्थिति यहीं नहीं ठहरती बल्कि विषय के वस्तुकरण के पश्चात् उसके भीतर से ही वस्तु के विकास की संभावनाएं विकसित होने लगती हैं. उदाहरण के तौर पर मध्यवर्गीय उपभोक्ता के भीतर जो वस्तुकरण हुआ है उसने उसे आत्म से निर्वासित कर दिया है. यह स्थिति पिछले कुछ वर्षों में खासकर महानगरों में देखी जा सकती है. जहाँ मध्यवर्गीय जीवन मूल्य उपभोग के मूल्य बनकर रह गये हैं .

जीवन से तमाम तरह की संस्कृति पठन-पाठन गीत -संगीत आदि को निकाल कर उसे 24 घंटे के उपभोक्ता में बदल दिया है. मध्यवर्ग का यह हिस्सा किसी तरह के अन्तर्विरोध को सह नहीं पाता. उसके राजनीतिक विचार, जीवन मूल्य, स्त्री सम्बन्धी आचरण सबमें एक खास तरह की एकरूपता है. यह एकरूपता उसके आत्म के वस्तुकरण के द्वारा निर्मित हुयी है. महानगरों के बंद दायरों में कैद यह वर्ग न तो व्यवसायिक विविधता, न तो भाषिक सांस्कृतिक विविधता और न ही धार्मिक विविधता को स्वीकार करता है. वह हर तरह की विविधता के विरुद्ध हिंसक हो जाता है.

मार्क्युज़ कहते हैं एकायामी मनुष्य के भीतर प्रबोधन की चेतना नष्ट होती जाती है. वह स्वतंत्रता को खोने लगता है. स्वतंत्रता का अर्थ है ज्ञान, इच्छा शक्ति. यह जान सकना कि हम क्या चाहते हैं. चुन सकने की क्षमता, रुकावटों का विरोध कर सकने का साहस. एकायामी मनुष्य स्वतंत्र मनुष्य के इन मूलभूत गुणों से विमुख होने लगता है. क्या इस तरह कि स्थिति भारतीय मध्यवर्ग के एक बड़े दायरे में विकसित होती नज़र नहीं आती? मध्यवर्ग का यह हिस्सा किस तरह की सामाजिक भूमिका का निर्वाह कर रहा है? उसके लिए चुनने का अर्थ क्या है? क्या वह अपनी मर्ज़ी से अपना पेशा चुन सकता है ? क्या वह अपने काम के अतिरिक्त घंटों का हिसाब मांग सकता है? अगर ऐसा नहीं है तो क्या ज्ञान ने उसके भीतर स्वायत्ता का बोध विकसित किया? भारतीय समाज के वर्तमान दौर में मध्यवर्ग की भूमिका बदलते दौर की आहटों को हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है .अगर समाज में संवाद की स्थिति कम हो रही है, आलोचनात्मक विवेक क्षीण हो रहा तो इस विषय पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए.




(पांच)
मार्क्स की परिकल्पना के अनुसार 20 वीं सदी को क्रांति की सदी होना था. पूंजीवाद के गहरे होते अंतर्विरोधों पर सर्वहारा की निर्णायक चोटें पड़नी थी. मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद के खात्में के मूल में सर्वहारा की क्रांतिकारी चेतना का अनिवार्य विष्फोट अवश्यम्भावी था. इसे 20 वीं सदी में संभव होना था. मार्क्स यह भी मानते थे क्रांति विकसित पूंजीवादी देशों में होगी, क्योंकि वहीं पर सर्वहारा अपने सबसे अधिक क्रांतिकारी रूप में मौजूद होगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 20 वीं सदी के मध्य दार्शनिकों ने इसे अलग -अलग आयामों से व्याख्यायित करना आरभ किया. मार्क्युज़ के लिए यह महज़ व्याख्या से जुड़ा प्रश्न नहीं था. यह मार्क्सवाद और क्रांति के भविष्य से जुड़ा प्रश्न था. मार्क्युज़ का मानना था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत तकनीक एवं तकनीकी तार्किकता, प्रशासन और प्रशासनिक संस्थाएं, पूंजीवादी सरकारें एवं संचार माध्यम, उत्पादन एवं उपभोग की तर्कहीनता इन सबने मिलकर सर्वहारा की क्रांतिकारी चेतना एवं व्यक्ति की स्वायत्ता पर नकरात्मक प्रभाव डाला है. उसकी धार को कम किया है. यह कैसे संभव हुआ? मार्क्युज़ के अनुसार विकसित औद्योगिक समाजों में विवेक और स्वतंत्रता की ताकत में कमी आई है. राजनीति अर्थव्यवस्था और संस्कृति में बहुलता के स्थान पर एकाधिकारवादी नियंत्रण बढ़ा है. यहाँ तक कि तर्क की भूमिका भी बदल गयी है. वह अब हमे स्वायत्त नहीं करती बल्कि हमारे ऊपर नये तरह का वर्चस्व स्थापित करती है.

मार्क्युज़ इस बात पर बल देते हैं कि सर्वहारा की अवधारणा की पड़ताल की जानी चाहिए. क्या बीसवीं सदी के इस तकनीकी दौर में हम सर्वहारा की उन्नीसवीं सदी की समझ से ही काम चलायेगे. मार्क्युज़ के अनुसार 20 वीं सदी में सर्वहारा पूंजीवाद का विलोम नहीं रह गया. पूंजीवाद के विकासक्रम ने सर्वहारा ई चेतना पर भी प्रभाव डाला है. वह वास्तव में पूंजीवाद के विरुद्ध समग्र क्रांति को अंजाम देने की अवस्था में खुद को नहीं पाता. मार्क्युज़ के अनुसार सर्वहारा की चेतना पूंजीवाद के अंतर्विरोधों को समझने की दिशा में अग्रसर नहीं हो सकी. यह किस तरह संभव हुआ? मार्क्युज़ इसका विश्लेषण करते हुए लिखते हैं - जब मार्क्स ने विकसित औद्योगिक समाजों में समाजवादी रूपांतरण की बात की थी तो उसके मूल में न सिर्फ उत्पादन सम्बन्धों की परिपक्वता की बात थी उनके गैर रचनात्मक उपयोग की भी बात थी . पूंजीवाद के विरोधों के गहरे होने और उसके विनष्ट होने की आकांक्षा इसके मूल में थी. परन्तु शताब्दी के नये दौर में विकसित औद्योगिक देशों में आंतरिक अंतर्विरोधों का बढ़ना ही एक कुशल संतुलन में बदल गया. सर्वहारा की क्रांतिकारी चेतना कुंद होने लगी. न सिर्फ श्रमिकों का एक छोटा आरामपसंद तबका बल्कि श्रमिक वर्ग का एक बड़ा हिस्सा समाज की मूलधारा के पक्ष में खड़ा हो गया.5

उत्पादन की तीव्र गति के समानांतर सर्वहारा की क्रांतिकारी चेतना को भी तेज़ धार होना था. लेकिन पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया ने सर्वहारा की क्रांतिकारी चेतना के विकास को अवरुद्ध कर दिया. तकनीकी प्रगति ने संतुष्टि और जरुरत को कई गुणा बढ़ा दिया है.

ट्रेड यूनियन के संदर्भ में मार्क्स ने माना था कि उनकी बड़ी भूमिका मजदूरों के असंतोष को एकत्र करने में होगी. श्रमिक के श्रम का जब अवमूल्यन होगा तो ट्रेड यूनियन इस दिशा में श्रमिकों की मांगों को तेज़ करेंगे . 20 वीं सदी में ट्रेड यूनियनों के द्वारा श्रमिकों पर नियंत्रण रखा जाने लगा. धीरे -धीरे ट्रेड यूनियनों ने अपना दायरा उदारवादी मांगों तक सीमित कर लिया. वृहद् उत्पादन के ठिकानों के रूप में शहरों के विकास ने लालच और अधीनता का नया जाल बुना. कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को एक नये विकल्प की तरह पूंजीवादी देशों में प्रस्तुत किया गया. ट्रेड यूनियनों की मांग कल्याणकारी राज्य के दायरों में आकर सिमटने लगी. श्रमिकों के लिए आवास , चिकित्सा और शिक्षा की व्यवस्था तक वे सहमत होने लगे. बड़े पैमाने पर हो रहे उत्पादन के अनुकूल श्रमिकों को कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत ये सुविधाएँ आसानी से दी जा सकती थी. लेकिन इन्हें पाने के लिए उन्हें अपने काम को घंटों को बढ़ाना पड़ता था. ट्रेड यूनियन की राजनीति सर्वहारा की राजनीति की बजाय बुर्जुआ की राजनीति में बदल गयी. 70’ के दशक के आसपास समूची दुनिया में ट्रेड यूनियन कमजोर हुए और उन पर प्रति क्रांतिकारी ताकतों का कब्ज़ा हो गया. भारत जैसे देश में आज की तारीख में सबसे बड़ा ट्रेड यूनियन भारत मजदूर संघ है जो कि दक्षिणपंथी शक्तियों द्वारा संचालित किया जाता है.

यहाँ यह समझना दिलचस्प है कि मार्क्स जिस सर्वहारा को क्रांति के अग्रिम दस्ते के तौर पर उन्नीसवीं सदी में देख रहे थे, बीसवीं सदी में उसके चरित्र और चेतना में निर्णायक बदलाव आ चूका था. मार्क्युज़ इस बदलाव को चिन्हित करते हुए लिखते हैं – तकनीकी प्रगति ने सामाजिक शक्तियों के संतुलन में मौलिक परिवर्तन ला दिया है. नियंत्रण और विध्वंस की सरकारी मशीनरियों ने सघर्ष के शास्त्रीय रूपों को पुरातनपंथी और रूमानियत से भरा साबित कर दिया है. इस मोर्चेबंदी ने अपने क्रांतिकारी मूल्य को कुछ उसी तरह खो दिया है जिस तरह हड़तालों ने अपनी क्रांतिकारी अंतर्वस्तु को . 6

मार्क्युज़ इस बात पर विशेष बल देते हैं कि सर्वहारा की परिकल्पना में आये परिवर्तन ने मार्क्सवाद की दिशा को मोड़ दिया है. मार्क्युज़ कहते हैं विकसित औद्योगिक पूंजीवादी युग को सीधे सीधे आदर्श पूंजीवादी युग के विकास या विस्तार के तौर पर नहीं देखा जा सकता. इतिहास की क्रमिकता मेंi आये इस व्यवधान को व्याख्यायित किये बगैर हम आगे नहीं बढ़ सकते. उन्नीसवीं सदी में पूंजीवाद की मूलभूत विशेषताओं को आत्मसात करते हुए मार्क्स ने सर्वहारा की परिकल्पना को व्याख्यायित किया था. मार्क्स के अनुसार सर्वहारा की अवधारणा के तीन आधार प्रमुख थे-

(1) उत्पादन सम्बन्धों में उसकी भूमिका
(2) बहुसंख्य जनता का सर्वहारा होना
(3) उत्पादन के वर्तमान स्वरुप में खुद को बचाए रखने के लिए किये जा रहे उसके संघर्ष में उसका स्वयं के जीवन को मनुष्य के जीवन के रूप में नकारना.

यह तीसरा आधार ही उसे विलगाव की चेतना तक ले जाता था क्योंकि जीवन स्थितियों की क्रूरता के मध्य वह अपनी मनुष्यगत उपस्थिति को भूलता जाता था. मार्क्युज़ के अनुसार उत्पादन की गति में बेतहाशा वृद्धि ने इस समूची अवधारणा को बदल दिया है. स्पष्ट है कि उत्पादन कि इस बेतहाशा गति के मूल में तकनीकी विकास की भूमिका अहम् है. इन नई परिस्थितियों में सर्वहारा के दायरे को नये सिरे से परिभाषित किये जाने की जरुरत है. संघर्ष के आग्रिम दस्ते को नये सिरे से परिभाषित और व्याख्यायित करने की बात मार्क्युज़ कहते हैं.

मार्क्युज़ का कहना है कि नये दौर में उत्पादन की प्रक्रियाओं को समझना आसन नहीं रह गया. भौतिक और गैर भौतिक दोनों तरह के उत्पादनों ने सर्वहारा के नये रूपों को हमारे समक्ष निर्मित किया है. ऐसे में उनके अनुसार तीसरी दुनिया के देशों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. मार्क्युज़ स्वीकार करते हैं कि मार्क्स ने सर्वहारा के जिन तीन गुणों का उल्लेख किया था विकसित औद्योगिक समाज से सम्बद्ध सर्वहारा ने उन विशिष्टताओं को लगभग खो दिया है. वह सिर्फ पहली विशेषता के गिर्द बचा रह जाता है लेकिन न तो वह आबादी का बहुसंख्य ही रह गया है और न ही उसकी आवश्यकतायें व्यवस्था परिवर्तन में क्रांतिकारी भूमिका अदा कर रही है. ऐसे में मार्क्युज़ कहते हैं कि भले वस्तुगत अर्थों में सर्वहारा क्रांतिकारी ताकत के रूप में नज़र आता हो लेकिन विषय के रूप में उसकी भूमिका क्रांतिकारी नहीं रह गयी है. मार्क्युज़ क्रांतिकारी विषय की तलाश करते हैं और एक नये मार्क्सवाद की परिकल्पना को रचते हैं. वे इसे नव मार्क्सवाद कहते हैं.

मार्क्युज़ इतिहास और वर्तमान के बीच नये सम्बन्धों की तलाश करते हैं. वे यह सवाल उठाते हैं कि पारम्परिक मार्क्सवाद की इतिहास चेतना वर्तमान को जिस तरह परिभाषित करती है, क्या उससे वर्तमान का प्रतिरोध निर्मित होता है? क्या वह हमारी चेतना में दमन के वास्तविक प्रतिकार का स्वरुप निर्मित करती है? मार्क्युज़ जब ये प्रश्न उठा रहे थे तो अधिकांश मार्क्सवादी इन सवालों को ख़ारिज कर रहे थें. उनका कहना था कि मार्क्युज़ की सारी स्थापनाओं के केंद्र में अमेरिकी समाज है. उनके सारे निष्कर्ष उसी समाज के अनुभव पर आधारित हैं. परन्तु तक़रीबन चार दशक बाद यह देखना कठिन नहीं रह जाता कि मार्क्युज़ के निष्कर्ष मूलतः पूंजी के नये स्वरुप को ध्यान में रखकर निकाले गये थे. ज्यों -ज्यों इस पूंजी का विस्तार होता गया, मार्क्युज़ के निष्कर्षों का दायरा विकसित होता गया.

फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने इस बात को रखने का प्रयत्न किया कि पूंजी का स्वभाव महज़ अर्थव्यवस्था और राजनीति तक महदूद नहीं है. वह संस्कृति विचार और जीवन पद्धति का भी अभिन्न अंग होता जा रहा है. यह पूंजी के पुराने स्वरुप के साथ संभव नहीं था. पूंजी की यह सर्वसत्तावादी और दमनकारी छवि यह बताती है कि नई पूंजी ने अपने स्वरुप में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है .मार्क्युज़ इस नई पूंजी के स्वरुप की पहचान और संघर्ष के नये तरीकों को चिन्हित करते हैं. मार्क्युज़ सर्वहारा की अवधारणा में परिवर्तन की बात कहते हैं. वे कहते हैं हाशिये के समाज की अवधारणा और प्रतिरोध के पारम्परिक और गैर पारम्परिक तरीकों के एकीकरण के द्वारा ,प्रतिरोध के नये रास्तों की तलाश संभव है. मार्क्युज़ जब ये बाते कह रहे थे, उस वक्त एक प्रखर और आक्रोश से भरी नई पीढ़ी उभर रही थी. वह पारम्परिक मार्क्सवाद के प्रतिरोध को भी परख रही थी और रूस में मार्क्सवादी शासन का मूल्याङ्कन भी कर रही थी.

रूस के मार्क्सवादी शासन को लेकर मार्क्युज़ ने एक पुस्तक लिखी- ‘सोवियत मार्क्सवाद एक आलोचनात्मक विश्लेषण’. इस पुस्तक के द्वारा सोवियत मार्क्सवाद की आलोचना मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत की गयी. उस समय के लिहाज़ से यह एक क्रांतिकारी कदम था और एक हद तक आत्मघाती भी. आत्मघाती इस अर्थ में कि समूची दुनिया में मार्क्युज़ की एक ऐसी छवि निर्मित करने की कोशिश की गयी कि वे बतौर सी.आई.ए के एजेंट यह सबकुछ लिख रहे हैं. ऐसी स्थिति में उनको पढने, समझने और उन पर विचार करने की जरुरत नहीं है. न सिर्फ हर्बर्ट मार्क्युज़ के संदर्भ में  बल्कि आज की तारीख तक दुनिया भर के मार्क्सवादियों का एक धरा इस बात को लेकर एकमत है कि फ्रैंकफर्ट स्कूल की अवधारणा और उसकी चिंतन पद्धति के मूल में अमेरिकी साम्राज्यवाद की भूमिका है. हालाँकि इस संदर्भ में यह भी कम दिलचस्प नहीं कि एडोर्नो और मार्क्युज़ के चिंतन को खारिज करने वाले पारम्परिक मार्क्सवादी विचारकों ने यह कहा कि उनका विश्लेषण सिर्फ अमरीकी समाज को केंद्र में रखकर है. अतः उन निष्कर्षों से कोई सर्वमान्य दमन की चेतना निर्मित नहीं होती इसलिए यह दुनिया के वर्तमान दौर में समझने में बहुत कारगर नहीं है. इस सबके बावजूद क्रांतिकारी चेतना से लैस युवाओं का बड़ा वर्ग, मार्क्युज़ की नव-मार्क्सवादी रुझानों के प्रभाव में आया. 60’ के दशक के उतरार्ध में मार्क्युज़ छात्रों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय सिद्धांतकार बन गये.

मार्क्युज़ ने सर्वहारा की अवधारणा को 60’ के दशक के मध्य नये सिरे से व्याख्यायित किया. उनके अनुसार पारम्परिक वाम की श्रमिक की अवधारणा को बदलते हुए क्रांतिकारी दस्ते में छात्रों, बेरोजगारों, अश्वेतों और अराजकतावादियों को शामिल करने की जरूरत है. मार्क्युज़ का मानना था कि इन्हें इसलिए शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि ये पूंजीवादी खेल का हिस्सा नहीं होना चाहते. वे उस सफलता की सीढ़ी पर नहीं चढ़ना चाहते जो पूंजीवादी लालच से निर्मित होती है. मार्क्युज़ के अनुसार वर्चस्व की चेतना के निर्माण में अर्थव्यवस्था, राजनीति, तकनीक,और सामाजिक संस्थाओं आदि के संयुक्त प्रभाव की भूमिका का आकलन किया जाना चाहिए. पारम्परिक मार्क्सवादी दायरे में वर्चस्व को उत्पादन के पूंजीवादी स्वरुप एवं वस्तुपरकता के दायरे में सीमित कर देखा जाता है. इसके विपरीत हाईडेगर या बेबर के अनुसार वह तकनीक, तकनीकी तार्किकता तथा दमनकारी राजनीतिक चेतना में अंतर्भूत है.

मार्क्युज़ इन दोनों व्याख्याओं से पुर्णतः सहमत नहीं थे. उनका मानना था कि वर्तमान परिस्थितियों में इन निष्कर्षों से आगे बढ़ने की जरुरत है. मार्क्युज़ कहते हैं कि सामाजिक वर्चस्व की चेतना समाज के बाहर के तत्वों में मौजूद नहीं है, बल्कि उसे समाज की आंतरिक बुनावट में प्रत्यारोपित कर दिया गया है. मार्क्युज़ इस बात पर जोड़ देते हैं कि समाज की पुरानी छवियाँ बदल चुकी है. समाज स्वयं में ही  वर्चस्व के अटूट क्रम में बदल गया है. ऐसी स्थिति में समाज की आलोचना के नये तरीके विकसित किये जाने चाहिए. मार्क्युज़ यह भी कहते हैं कि सत्ता की पहचान समाज के बहार की शक्तियों में नहीं की जा सकती बल्कि उसे सामाजिक दायरों के भीतर विकसित हो रही चेतना के रूप में व्याख्यायित किये जाने की जरुरत है. फासीवादी सत्ता के चरित्र के साथ जनता के गैर आलोचनात्मक विवेक का मिलान करते हुए मार्क्युज़ ने लिखा था ‘फासीवादी राज्य ही फासीवादी समाज है’.

फ्रैंकफर्ट स्कूल के सभी चिंतकों में सर्वाधिक राजनीतिक मार्क्युज़ नज़र आते हैं .एडोर्नो समूचे विमर्श को दर्शन में ले जाते हैं, लेकिन मार्क्युज़ के यहाँ दर्शन, राजनीति एवं समाजशास्त्र का एक संतुलन नज़र आता है. यही कारण है कि एडोर्नो को लिखे एक पत्र में मार्क्युज़ उन्हें सलाह देते हैं कि वे जब पूरब की बात करें तो इस बात का ख्याल रखें कि दुनिया पूरब बनाम पश्चिम में बदल चुकी है और आज की स्थिति में पश्चिम की आलोचना करना ज्यादा जरुरी है, ऐसे में पूरब के बारे में कोई बात करते हुए अतिरिक्त सावधान रहने की जरुरत है.

60 के दशक में मार्क्युज़ ने इस बात को समझने की जरुरत पर बल दिया कि मजदूर या श्रमिक की पहचान के नये तरीके इजाद किये जाने चाहिए, साथ ही उन रूपों की तलाश भी की जानी चाहिए, जहाँ पूंजीवादी चेतना के साथ मजदूर वर्ग की चेतना का अहम् हिस्सा खड़ा नज़र आता है. मजदूर वर्ग बाहरी दुनिया का प्रतिरोधी प्रतिबिम्ब नहीं रह गया है. वर्तमान की स्थिति में उसे पूंजीवाद के बाहरी रूपों के साथ ही संघर्ष नहीं करना है, बल्कि उस पूंजीवाद से भी लड़ना है जिसे उसके अवचेतन में प्रत्यारोपित कर दिया गया है. मार्क्युज़ का मानना था कि आत्म का रूपांतरण मजदूर वर्ग के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर आया है. ऐसे में वह क्रांति का विषय होकर भी क्रांतिकारी नहीं रह गया है. इसके लिए वे बीसवीं सदी में विकसित क्रिटिकल थ्योरी के साथ मार्क्सवाद को जोड़कर विकसित करने की बात कहते हैं.

मार्क्युज़ विरोध के व्यक्तिवादी तरीकों को भी महत्वपूर्ण मानते हैं. वे कहते हैं इस तरह की तमाम कोशिशें पूजीवाद का एक व्यापक क्रिटीक रचती हैं. मार्क्युज़ बार-बार समाज को व्यक्ति के रास्ते चिन्हित करने का प्रयत्न करते हैं. उनकी यह कोशिश उस पूंजीवादी प्रयत्न का जवाब बनती है, जहाँ वह स्वचालन की प्रक्रिया और तकनीक द्वारा हर किसी पर नियंत्रण काबिज करता है. मार्क्युज़ कहते हैं व्यक्ति का प्रतिरोध इस तकनीक और स्वचालन की प्रक्रिया को कमजोर करता है. इसी संदर्भ में एक आयामी मनुष्य समकालीन मनुष्य और उससे निर्मित समाज की आलोचना प्रस्तुत करती है, सिर्फ पूंजीवाद की नहीं. वे कहते हैं बीसवीं सदी के यथार्थ से हमने जाना कि हर तरह के विचार अंततः एक वर्चस्वादी विचार में बदल जाते हैं. समूचा समाज इस वर्चस्वाद के अनुकूल ढलता जाता है .. यहाँ तक कि सुविधाओं की आवश्यकता, राजनीतिक और नैतिक स्वतंत्रता का भी इस्तेमाल वर्चस्व को कायम रखने के तरीकों में बदल जाता है. ऐसे में विकल्प क्या है ? वे कहते हैं समग्र विध्वंस ही एकमात्र विकल्प के रूप में नज़र आता है. जब उनसे यह पूछा गया क्या वे छात्रों के अराजकतावादी आन्दोलन को वैचारिक रूप से सही मानते हैं तो मार्क्युज़ का कहना था ‘नहीं’ . लेकिन बावजूद इसके उनका मानना था कि छात्रों द्वारा उठाया जा रहा यह कदम एकदम सही है. मार्क्युज़ का कहना था हर तरह के हिंसक प्रतिरोध के परिणामस्वरूप दमन की संभावना बढ़ जाती है. लेकिन यह प्रतिरोध न करने का कारण कभी नहीं रहा है. अन्यथा हर तरह की प्रगति असंभव हो जायेगी.7 (पृष्ठ-१०३)

मार्क्युज़ कहते हैं कि समाज में विरोध की चेतना बहुमूल्य है. विरोध की चेतना में ही भविष्य की परिकल्पना मौजूद रहेगी. विरोध को किसी भी शर्त पर दमन के आतंक में छोड़ा नहीं जा सकता. मार्क्युज़ का मानना था कि छात्रों द्वारा किया जा रहा बलप्रयोग मूलतः आत्मरक्षात्मक है. छात्र आन्दोलनकारियों ने इस बात को स्वीकार किया कि मार्क्युज़ के रास्ते ही उन्होंने मार्क्स को नये रूप में पढना आरम्भ किया. मार्क्युज़ के समग्र चिंतन में नये के प्रति एक स्वागत का भाव नज़र आता है. एक तरह से कहें तो पारम्परिक मार्क्सवाद की जितनी खुली और क्रांतिकारी आलोचना मार्क्युज़ ने प्रस्तुत की उतनी अन्यत्र नज़र नहीं आती.

मार्क्युज़ के संदर्भ में विशेषकर उनकी पुस्तक एक आयामी मनुष्य के संदर्भ में बहुत से आलोचकों ने यह आरोप लगाया कि उनके दृष्टिकोण में एक खास तरह का निराशावाद है. उनका चिंतन हमे किसी ठोस नतीजे पर नहीं ले जाता. निराशावाद की बात मार्क्युज़ ने स्वीकार भी की. अपने जीवन के अंतिम दशक में वे नये विकल्पों की तलाश में नज़र आते हैं. मार्क्युज़ यथार्थ की जटिलताओं को लेकर कोई सरलीकृत समाधान प्रस्तुत नहीं प्रस्तुत करते और न ही कोई राजनीतिक अपरिपक्वता प्रदर्शित करते हैं.

वे समय के विवध आयामों को व्याख्यायित करते हैं. वे कहते हैं कि उत्पादन की प्रक्रिया को इस तरह मोड़ दिया गया है कि वह सिर्फ व्यर्थ की चीज़ें ही उत्पादित कर रही है. इसतरह श्रम की रचनाशीलता को नष्ट किया जा रहा है. इस व्यर्थ के उत्पादन ने बहुसंख्य लोगों की चेतना को अनुर्वर वर्तमान में बदल दिया है. वर्तमान का यह बोध हमे भविष्यहीनता की तरफ ले जा रहा है. इसमें आधुनिक ज्ञान विज्ञान सूचना और प्राद्यौगिकी की भूमिका निर्णायक है. एक तरह से कहें संस्कृति के समग्र रूपों को तकनीक ने आच्छादित कर लिया है. मार्क्युज़ के अनुसार यह जरुरी नहीं कि विज्ञान की भूमिका इतनी नकरात्मक ही हो या तकनीक मनुष्य विरोधी ही हो. वे कहते हैं कि टेलीविजन का काम लोगों को शिक्षित करना हो सकता था. इस शिक्षा का परिणाम यह होता कि लोग ऐसी चीज़ों की मांग नहीं करते जो व्यर्थ के उत्पादन से सम्बद्ध हों. परिणामस्वरूप शहरों में इस तरह के तमाम उत्पादन केंद्र नष्ट हो जाते. लोग अपने मूल स्थानों की तरफ लौट जाते और फिर वे उत्पादन की ऐसी प्रक्रिया का आरम्भ करते जिसमें बहुसंख्य लोगों की रचनात्मक भूमिका को सुनिश्चित किया जा सकता था. इस तरह उत्पादन और उपभोग के बीच एक व्यवहारिक संतुलन निर्मित होता. इसे स्पष्ट करते हुए मार्क्युज़ कहते हैं कि लोग जेनरल मोटर्स और फोर्ड द्वारा निर्मित की जा रही निजी आरामदेह गाड़ियों की बजाय जन परिवहन के काम आ सकने लायक गाड़ियों का निर्माण किया जा सकता था. जो बहुसंख्य के जीवन स्तर को प्रगति के रास्ते पर ला सकने के काम आती .




(छह)
लेनिन का  मानना था कि तीसरी दुनिया का मुक्तिकामी युद्ध पूंजीवाद के विनाश की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा. उनका कहना था कि पूंजीवादी कड़ी में सबसे कमज़ोर हिस्से को तोड़कर पूंजीवाद पर निर्णायक प्रहार किया जा सकता है. मार्क्युज़ लेनिन की इस स्थापना से सहमत नहीं थे. उनका कहना था कि पूंजीवाद से संघर्ष कर रही निर्णायक शक्तियों के साथ जब तीसरी दुनिया का संघर्ष एकजुट होगा तभी पूंजीवाद पर निर्णायक चोट हो सकेगी .क्योंकि पूंजीवाद हमेशा प्रतिक्रांतिकारी ताकतों के साथ हाथ मिलाकर मुक्तिकामी युद्धों की दिशा मोड़ने का प्रयत्न करता है. ऐसी स्थिति में पूंजीवाद से एकायामी नहीं बहुआयामी संघर्ष की जरूरत है. यह बात भारत के स्वंत्रता के लिए हुए संघर्ष और उसके परिणाम पर भी लागू होती है.

भारत ने तक़रीबन डेढ़ सौ वर्षों तक जो मुक्तिकामी युद्ध लड़ा, उसके परिणाम को किस तरह बदला गया यह हैरान करता है. क्या मुक्तिकामी युद्ध से जनता की चेतना में जो परिवर्तन आया, उससे भारत पाकिस्तान के विभाजन की कोई संगती बैठती है? यह कैसे संभव हुआ कि लाखों लोगों के बलिदान को अंतिम क्षणों में हुए भारत पाकिस्तान के विभाजन के द्वारा निगल लिया गया? क्या इसे महज़ एक राजनीतिक संयोग भर माना जा सकता है? तमाम राजनीतिक संयोग पूंजीवाद के पक्ष में ही भूमिका अदा करते हैं? जनता की सामूहिक स्मृति में, वहां के लोगों के संघर्ष की जो छवियाँ होती हैं वह वास्तव में हर तरह के दमन के प्रतिरोध की संभावना भी निर्मित करती है.

पूंजीवाद इतिहास की दिशा को बदलने के लिए जनता की सामूहिक स्मृति को प्रतिक्रांतिकारी शक्तियों के रास्ते उलझा देता है. यह कम दिलचस्प नहीं कि वह यूरोप जो फ़्रांसीसी क्रांति और जर्मन आदर्शवाद के गर्भ से निकला था, जिसने सामंतवाद के विरुद्ध एक निर्णायक लड़ाई लड़ी थी, वही एशियाई और अफ़्रीकी समाजों में दमन के लिए सामंती एवं प्रतिक्रांतिकारी ताकतों का समर्थन एवं संरक्षण प्राप्त करता है.

क्या मार्क्युज़ की परिकल्पना हमे एक निराशा से दूसरे निराशा की ओर धकेल देती है? आखिर इस नये पूंजीवाद कि व्याख्या और विश्लेषण के बाद आगे का रास्ता क्या है . दमन की यह अंतहीन प्रक्रिया जब समूचे समाज को अपना ग्रास बना लेगी तब हम किस दुनिया और मनुष्यता के लिए संघर्ष करेंगे. कौन सा सौन्दर्यबोध हमारे भीतर टिमटिमाता रहेगा? कौन सी स्मृतियाँ हमारे भीतर दीप्त होती रहेंगी? किनके सहारे हम भविष्य की ओर पहुंचेगे?

अगर यह दुनिया रहेगी दमन होगा तो संघर्ष भी बचा रहेगा. सवाल है संघर्ष का वास्तविक स्वरुप क्या हो? मार्क्युज़ के अनुसार वह रास्ता होगा वृहद् नकार (Great Refusal).  एकायामी मनुष्य की यह मन्थरता आगे जाकर टूटेगी. काम के प्रति बढ़ते असंतोष और आत्मसंघर्ष में प्रस्फुटित हो रहे रोजमर्रा के गुस्से में उसे चिन्हित किया जा सकता है. तनख्वाहों का छद्म, मुद्रास्फीति का बढ़ना बेरोजगारी में वृद्धि असंतुलित मुद्र्व्यवस्था, बाज़ार में मंदी पर्यावरण और उर्जा का संकट .ये सब स्थितियां मिलकर एक नई चेतना का निर्माण करती हैं. मार्क्युज़ के अनुसार यह चेतना है वृहद् नकार की.

मार्क्युज़ के अनुसार विकसित औद्योगिक समाज एक विशाल तकनीक द्वारा संचालित किये जाते हैं. यह तकनीक रोज़ बरोज़ मनुष्य से खाली होती जा रही है. हर दिन एक नई मशीन को कई लोगों की जगह स्थापित कर दिया जाता है, इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप शोषण और तीव्र होता जाता है.

लोग नाखुश होते हैं. परेशान होते हैं. वे चाहते हैं कि यह सब कुछ बंद हो .लेकिन यह रुकता नहीं. वे हताश होते हैं. पीछे हटते हैं. मर जाते है. फिर नये लोगों का रेला आता है. सबकुछ पूर्ववत चलता रहता हैं. इतिहास ,इतिहास की तरह नहीं एक वृत्त की तरह घूमता रहता है. जीवन -समय में वही सारी चीज़ें बार-बार दुहरायी जाती है. ऐसे में विकल्प क्या है ? मार्क्युज़ के अनुसार, यह जो लोगों के रोजमर्रा का संघर्ष है, यह जो उनके उनके छोटे छोटे नकार हैं ,भविष्य में वही जाएगा. इनमें एक उम्मीद है . उम्मीद यह कि ये तमाम नकार एक दिन वृहद् नकार बन जायेंगे. लोगों के न कहने से विरोध की ताकत बढ़ेगी. वे एक दिन सारी मशीनों को ठप्प कर देंगे. पूंजीवादी उत्पादन का घूमता पहिया हिचकोले खाने लगेगा. लय टूटने लगेगी. विध्वंस का एक दौर आएगा.इतिहास का यह चक्र थमेगा. हम एक नये समय नये युग में जायेंगे. हम भविष्य में प्रवेश करेंगे. नये और पुराने के बीच यह वृहद् नकार निर्णायक साबित होगा. मार्क्युज़ के अनुसार समाज की मुक्ति की दिशा में यह पहला कदम निर्णायक साबित होगा.   
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संदर्भ
1 Marcuse Herbert ,Reason And Revolution Hegel And The Rise Of Social Theory, Routledge And Kegan Paul, London and Henley, reprint - 1986,  page 4
2 Ibid 6
3 Marcuse Herbert , One Dimensional Man Studies In The Ideology Of Advanced Industrial Society     Routledge  London  Reprint 2012, Page 3
4 Ibid  6
5 Marcuse Herbert ,Reason And Revolution Hegel And The Rise Of Social Theory, Routledge And Kegan Paul, London and Henley, reprint - 1986,  page 436
 6 Ibid page 438
7 Marcuse Herbert, The New Left And The 1960s (collected papers of Herbert Marcuse vol 3 ) ed –Douglas Kellner , Routledge ,London 2005, Pg 103

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युवा अध्येता अच्युतानंद मिश्र लगातार समकालीन सामाजिक दार्शनिक अवधारणाओं पर लिख रहे हैं. 'विलगाव, आधुनिक विज्ञान और मध्यवर्ग',  'फूको' जुरगेन हेबरमास,  ‘बौद्रिला’, और एडोर्नो  पर उनके आलेख आप समालोचन पर  पढ़ चुके हैं.    

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  1. अच्युतानंद को चाहिए की वेस्टर्न फ़िलासफ़ी पर लिखें तो बेसिक ढंग से लिखें । वरना लोग अंग्रेज़ी में हाही क्यों नहीं पढ़ लेंगे।

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  2. मध्यकालीन भक्त कवियों से पाठ को जोड़े जाने की ज़रूरत

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  3. अच्युतानंद के लेखन का मैं प्रशंसक हूँ ।

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  4. अच्छा लेख है। मार्क्यूज़ नववामपंथियों में शुमार होते हैं। मुझे प्रिय हैं। लेकिन लेख में सरलता का अभाव है।

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  5. हर्बर्ट मार्कुज़ा पर बढ़िया लेख। वन डाइमेंशनल मैन पर और विस्तार से चर्चा होती तो अच्छा रहता।
    आदमी के कंज़्यूमर में रिड्यूस होने की नियति,वर्चस्ववाद के नए अधिनायकवादी स्वरूप और कुल जमा पुराने और नए के बीच का वृहद नकार समाज को मुक्ति की दिशा में ले जाएगा के नोट पर लेख समाप्त होता है। मार्कुज़ा की सीमाएं क्या हैं? दमन (जैसा कि फ्रॉयड इसे जरूरी मानता है)और संघर्ष के बीच का संतुलन क्या मुक्ति देगा? क्या यह सम्भव है कि हम यकायक मशीनों को नकार देंगे और पूंजीवाद का पहिया रुक जाएगा? क्या संघर्ष और नकार के लिए फिर कोई और अधिनायकवादी ताकतें बची नहीं रह जाएंगी? इतिहास क्या अपनेआप में कोई क्रमिकता या सातत्य रखता है या उसे क्रमिक बनाया जाता है? क्या विध्वंस ही बदलाव का अंतिम निर्णायक मानक है?

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