मेघ - दूत : शंख घोष की कविताएँ (अनुवाद :उत्पल बैनर्जी)








२०१६ का ५२ वां ज्ञानपीठ पुरस्कार आधुनिक बांग्ला साहित्य के जानेमाने कवि शंख घोष को दिए जाने की घोषणा हुई है. इससे पहले बांग्ला लेखकों में ताराशंकर, विष्णु डे, सुभाष मुखोपाध्याय, आशापूर्णा देवी और महाश्वेता देवी को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा चुका है.

शंख घोष  की  कविताओं का मूल बांग्ला से  हिन्दी में अनुवाद सुपरिचित कवि और अनुवादक उत्पल बैनर्जी ने किया है. 



शंख घोष (শঙ্খ ঘোষ)
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6 फ़रवरी 1932 को चाँदपुर (वर्तमान बांग्लादेश) में जन्मे शंख घोष ने बंगला साहित्य में कोलकाता विश्वविद्यालय से एम. ए. की उपाधि प्राप्त की.

शंख घोष समकालीन बंगला कविता में एक श्रेष्ठ नाम हैं, इसके साथ ही वे अप्रतिम गद्यकार और आलोचक भी हैं. बंगला साहित्य में अमूमन रचनात्मक लेखक और कवि ही आलोचक होता है. 60 से अधिक पुस्तकों के रचयिता शंख घोष अपनी अनूठी बिम्ब योजना, काल सापेक्ष कथ्य और कविता की अपनी विशिष्ठ बनक के लिए अपार लोकप्रियता अर्जित कर चुके हैं. वे जीवन भर विभिन्न शिक्षा प्रतिष्ठानों में अध्यापन करते रहे. 1992 में आप जादबपुर विश्वविद्यालय से सेवामुक्त होकर सम्प्रति पूर्णकालिक लेखक के रूप में कार्य कर रहे हैं.

1960 में आप अमेरिका के आयोवा में आयोजित लेखकों की कार्यशाला में शामिल हुए थे. आपने दिल्ली विश्वविद्यालय, विश्वभारती विश्वविद्यालय और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज, शिमला में भी अध्यापन किया है. आपको नरसिंहदास पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, देशिकोत्तम सम्मान,  रवींद्र पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, डी. लिट्. की मानद उपाधि, साहित्य अकादमी का अनुवाद का पुरस्कार प्राप्त हो चुका है. 2016 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से आपको विभूषित किये जाने की घोषणा हुई है.  2011 में आपको भारत सरकार ने पद्म भूषण से नवाज़ा था. `आदिम लता गुल्ममय', `विज्ञापनों से ढँक जाता है चेहरा', `निरा मूर्ख, दुनियावी नहीं', `कवि का अभिप्राय', `बाबर की प्रार्थना' आदि आपकी अत्यंत लोकप्रिय रचनाएँ हैं.
9 खण्डों में आपका गद्य प्रकाशित हुआ है.





शंख घोष की कविताएँ                                     


इसीलिए इतनी सूख गई हो

बहुत दिनों से तुमने बादलों से बातचीत नहीं की
इसीलिए तुम इतनी सूख गई हो  
आओ मैं तुम्हारा मुँह पोंछ दूँ

सब लोग कला ढूँढ़ते हैं, रूप ढूँढ़ते हैं   
हमें कला और रूप से कोई लेना-देना नहीं
आओ हम यहाँ बैठकर पल-दो-पल
फ़सल उगाने की बातें करते हैं

अब कैसी हो
बहुत दिन हुए मैंने तुम्हें छुआ नहीं
फिर भी जान गया हूँ
दरारों में जमा हो गए हैं नील भग्नावशेष

देखो ये बीज भिखारियों से भी अधम भिखारी हैं
इन्हें पानी चाहिए बारिश चाहिए
ओतप्रोत अँधेरा चाहिए

तुमने भी चाहा कि ट्राम से लौट जाने से पहले
इस बार देर तक हो हमारी अंतिम बात
ज़रूर, लेकिन किसे कहते हैं अंतिम बात!
सिर्फ़ दृष्टि के मिल जाने पर
समूची देह गल कर झर जाती है मिट्टी पर
और भिखारी की कातरता भी
अनाज के दानों से फट पड़ना चाहती है
आज बहुत दिनों के बाद
हल्दी में डूबी इस शाम
आओ हम बादलों को छूते हुए
बैठें थोड़ी देर ....






टलमल पहाड़

जब चारों ओर दरारों से भर गया है पर्वत
तुम्हारी मृत आँखों की पलकों से
उभर रहा है वाष्प-गह्वर
और उसे ढँक देना चाहता है कोई अदृश्य हाथ,

दृष्टिहीन खोखल के प्रगाढ़ अंचल में
अविराम उतरते रहे हैं कितने ही कंकड़
और हम लोग पीली पड़ चुकी
सफ़ेद खोपड़ी के सामने खड़े हैं, थिर --
मानो कुहासे के भीतर से उठ रहा हो चाँद
हालाँकि आज भी संभव नहीं शिनाख़्त करना कि
इतने अभिशापों के भीतर-भीतर
विषैले लताबीज की परम्परा
किसने तुम्हारे मुँह में रख दी थी उस दिन
तन्द्रालस जाड़े की रात!

जब इस नील अधोनील श्वास के प्रतिबिम्ब में
बिखरी हुई पंक्तियाँ
काँपती रहती है वासुकि के फन पर
और मर्म के मर्मर में हाहाकार कर उठते हैं
तराई के जंगल
मैं तब भी जीवन की ही बात करता हूँ

जब जानवरों के पंजों के निशान देखते-देखते
दाखि़ल हो जाता हूँ
दिगंत के अँधेरे के भीतर-भीतर
किसी आरक्त आत्मघात के झुके कगार पर
मैं तब भी जीवन की ही बात करता हूँ

जब तुम्हारी मृत आँखों की पलकों पर से
अदृश्य हाथ हटाकर
मैं हर खोखल में रख जाता हूँ
मेरा अधिकारहीन आप्लावित चुम्बन --
मैं तब भी जीवन की ही बात करता हूँ

तुम्हारी मृत आँखों की पलकों से
उभर रहा है वाष्प-गह्वर
और उसे ढँक देना चाहता है
कोई अदृश्य अनसुना हाथ ... यह टलमल पहाड़!





सैकत

अब आज कोई समय नहीं बचा
ये सारी बातें लिखनी ही पड़ेंगी, ये सारी बातें
कि निस्तब्ध रेत पर
रात तीन बजे का रेतीला तूफ़ान
चाँद की ओर उड़ते-उड़ते
हाहाकार की रुपहली परतों में
खुल जाने देता है सारी अवैधता
और सारे अस्थि-पंजर की सफ़ेद धूल
अबाध उड़ती रहती है नक्षत्रों पर
एक बार, सिर्फ़ एक बार छूने की चाहत लिए.

और नीचे दोनों ओर
केतकी के पेड़ों की कतारों के बीच से होती हुई
भीतर की सँकरी-सी सड़क जिस तरह चली गई है
अजाने अटूट किसी मसृण गाँव की ओर
वह अब भी ठीक वैसी ही है यह कहना भी मुश्किल है
फिर भी यह सजल गह्वर पूरे उत्साह से
रात में यह विराट समुद्र जितनी दूर तक
सुनाता है अपना गर्जन

वहाँ तक मत जागना सोते हुए लोगो!
तुम सोए रहो, सोए रहो
उस गाँव पर बिखर जाए निःशब्द सारी रेत
और तुम्हें भी अलक्षित उठा ले निःसमय
अंक में रख ले अँधेरे या फिर
अँधेरे-उजाले की जलसीमा पर
रख ले पद्म के कोमलभेद में
जन्म के होंठ छूकर धमके मृत्यु

आज अब और समय नहीं है
सारी बातें आज लिखनी ही पड़ेंगी
ये सारी बातें, ये सारी ...!





मत

इतने दिनों में क्या सीखा
एक-एक कर बता रहा हूँ, सुन लो.
मत किसे कहते हैं, सुनो
मत वही जो मेरा मत
जो साथ है मेरे मत के
वही महत, ज्ञानी भी वही
वही अपना मानुस, प्रियतम
उसे चाहिए टोपी जिसमें लगे हों
दो-चार पंख
उसे चाहिए छड़ी
क्योंकि वह मेरे पास रहता है
मेरे मत के साथ रहता है.
अगर वह इतना रहे?
अगर कभी कोई दुष्ट हवा लगकर
उसमें कोई भिन्न मति जाग जाए?
इसलिए ध्यान रखना पड़ेगा कि
वह दुर्बुद्धि तुम्हें कहीं जकड़ ले.
लोग उसे जानेंगे भी कैसे?
मैं बंद कर दूँगा सारे रास्ते -- हंगामे से नहीं --
चौंसठ कलाओं से
तुम्हें पता भी है मैंने कितनी कलाएँ सीख ली हैं?





काठ

एक दिन उस चेहरे पर अपरिचय की आभा थी.
हरी महिमा थी, गुल्म थे, नामहीन उजास
आसन्न बीज के व्यूह में पड़ी हुई थी आदिमता
और जन्म की दायीं ओर थी हड्डियाँ, विषाक्त खोपड़ी!
शिराओं में आदिगन्त प्रवहमान डबरे थे
अकेले वशिष्ठ की ओर स्तुति बनी हुई थी आधीरात
शिखर पर गिर रहे थे नक्षत्र और
जड़ों में एक दिन मिट्टी के अपने तल पर थी
हज़ारों हाथों की तालियाँ.
पल्लवित टहनियाँ सीने की छाल से दूर
स्वाधीन अपरिचय में झुककर एक दिन
खोल देते थे फूल.
और आज तुम सामाजिक, भ्रष्ट, बीजहीन
काठ बनकर बैठे हो

अभिनंदन के अँधेरे में!
_________

उत्पल बैनर्जी, 
जन्म 25 सितंबर, 1967,(भोपाल, मध्यप्रदेश)  
मूलतः कवि. अनुवाद में गहरी रुचि.

‘लोहा बहुत उदास है’ शीर्षक से पहला कविता-संग्रह वर्ष 2000 में सार्थक प्रकाशन,  नई दिल्ली से प्रकाशित.

वर्ष 2004 में संवाद प्रकाशन मुंबई-मेरठ से अनूदित पुस्तक ‘समकालीन बंगला प्रेम कहानियाँ’, वर्ष 2005 में यहीं से ‘दंतकथा के राजा रानी’ (सुनील गंगोपाध्याय की प्रतिनिधि कहानियाँ), ‘मैंने अभी-अभी सपनों के बीज बोए थे’ (स्व. सुकान्त भट्टाचार्य की श्रेष्ठ कविताएँ) तथा ‘सुकान्त कथा’ (महान कवि सुकान्त भट्टाचार्य की जीवनी) के अनुवाद पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित. वर्ष 2007 में भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली से ‘झूमरा बीबी का मेला’ (रमापद चौधुरी की प्रतिनिधि कहानियों का हिन्दी अनुवाद), वर्ष 2008 रे-माधव पब्लिकेशंस, ग़ाज़ियाबाद से बँगला के ख्यात लेखक श्री नृसिंहप्रसाद भादुड़ी की द्रोणाचार्य के जीवनचरित पर आधारित प्रसिद्ध पुस्तक ‘द्रोणाचार्य’ का प्रकाशन. यहीं से वर्ष 2009 में बँगला के प्रख्यात साहित्यकार स्व. सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास ‘चित्रगुप्त की फ़ाइल’ के अनुवाद का पुस्तकाकार रूप में प्रकाशन. वर्ष 2010 में संवाद प्रकाशन से प्रख्यात बँगला कवयित्री नवनीता देवसेन की श्रेष्ठ कविताओं का अनुवाद ‘और एक आकाश’ शीर्षक से पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित. 2012 में नवनीता देवसेन की पुस्तक ‘नवनीता’ का हिन्दी में अनुवाद ‘नव-नीता’ शीर्षक से साहित्य अकादमी, दिल्ली से प्रकाशित. इस पुस्तक को 1999 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. 

संगीत तथा रूपंकर कलाओं में गहरी दिलचस्पी. मन्नू भण्डारी की कहानी पर आधारित टेलीफ़िल्म ‘दो कलाकार’ में अभिनय. कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों के निर्माण में भिन्न-भिन्न रूपों में सहयोगी. आकाशवाणी तथा दूरदर्शन केंद्रों द्वारा निर्मित वृत्तचित्रों के लिए आलेख लेखन. इंदौर दूरदर्शन केन्द्र के लिए हिन्दी के प्रख्यात रचनाकार श्री विद्यानिवास मिश्र, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, विष्णु नागर तथा अन्य साहित्यकारों से साक्षात्कार. प्रगतिशील लेखक संघ तथा ‘इप्टा’, इन्दौर के सदस्य.

नॉर्थ कैरोलाइना स्थित अमेरिकन बायोग्राफ़िकल इंस्टीट्यूट के सलाहकार मण्डल के मानद सदस्य तथा रिसर्च फ़ैलो. बाल-साहित्य के प्रोत्साहन के उद्देश्य से सक्रिय ‘वात्सल्य फ़ाउण्डेशन’ नई दिल्ली की पुरस्कार समिति के निर्णायक मण्डल के भूतपूर्व सदस्य. राउण्ड स्क्वॉयर कांफ्रेंस के अंतर्गत टीचर्स-स्टूडेंट्स इंटरनेशनल एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत मई 2009 में इंडियन हाई स्कूल, दुबई में एक माह हिन्दी अध्यापन.

सम्प्रति - 
डेली कॉलेज, इन्दौर, मध्यप्रदेश में हिन्दी अध्यापन.
पता - भारती हाउस (सीनियर), डेली कॉलेज कैंपस, इन्दौर - 452 001, मध्यप्रदेश.
दूरभाष - 0731-2700902 (निवास) /  मोबाइल फ़ोन - 94259 62072

ईमेल :     banerjeeutpal1@gmail.com

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  1. इन कविताओं के लिए समालोचन का आभार।

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  2. अच्छी कवितायें। सुंदर अनुवाद।
    -राहुल राजेश।

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  3. अरुण माहेश्वरी3 जन॰ 2017, 6:49:00 pm

    सचमुच यह सोच कर गहरा अफसोस होता है ! जिंदगी में अफरा-तफरी की शोर मचाती ढेर सारी खबरों के बीच यह समाचार आया था कि शंखो घोष को ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा की गई है। अन्य सारी व्यग्रताओं के बीच यह एक गहरी आश्वस्ति की खबर थी, सांत्वनादायी, संतोष देने वाली। तमाम आकांक्षाओं से परिपूर्ण लेकिन किसी से भी कोई अपेक्षा न रखने वाले स्वतंत्रता के संतुष्टी के भाव से भरी हुई खबर ! लेकिन फिर भी, उस पर दो शब्द तक नहीं लिख पाया !

    शंखो घोष बांग्ला के एक ऐसे मौन कवि है, जिनसे आज की आपाधापी से भरे जीवन में फंसे हुए किसी भी व्यक्ति में एक गहरी ईष्‍र्या का बोध पैदा हो सकता है। आज के समय के भक्तों ने पूजा के साथ जुड़े आत्म के एक सुरीले और लयात्मक विनय भाव को जिस प्रकार की कर्कश ध्वनियों के डरावने शोर में बदल दिया है, उसमें शंखो घोष को आदमी के मौन और उसकी गुमनामी का पुजारी कहने में भी डर लगने लगता है।

    शंखो घोष की एक छोटी सी कविता है -

    ‘‘कहकर बताता या लिखकर या करके स्पर्श
    लगता है भूल हुई मेरे समझने में, यह तो नहीं चाहा था कहना
    अंत में सभा के जब कागज ले हाथ में जाते हैं लोग तब
    लगता है, कहूं मैं पुकारकर : आइए, सकूंगा कह
    मैं अबकी बार।’’

    यही हमेशा मौके पर चुक जाने का भाव, अर्थात बात कह कर भी अपने बात न कह पाने का भाव, लेकिन असंतोष नहीं, कोई गम नहीं, फिर कभी कहने की आकांक्षाओं से परिपूर्ण, अपेक्षाओं से विरत, अपनी स्वतंत्रता में संतुष्टी का भैरव-भाव - यही रहा है शंखो घोष के सृजन का स्थायी भाव।

    देखिये, उनकी एक और छोटी से कविता - हवा।

    ‘‘हुआ तो हुआ, नहीं तो नहीं
    रखना जीवन को
    इसी तरह
    यही नहीं, सीखो कुछ
    रस्ते पर, गुमसुम
    बैठी भिखारिन की आँखों के
    धीर प्रतिवाद से

    है, यह सब भी है।’’

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  4. अरुण माहेश्वरी3 जन॰ 2017, 6:50:00 pm

    राजकमल पेपरबैक्स ने शंखो धोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताओं का एक मिला-जुला छोटा सा संकलन प्रकाशित किया है जिसमें शंखो घोष की 30 कविताएं संकलित है। इस संकलन की कविताओं का अनुवाद प्रयाग शुक्ल ने किया है। इसमें शंखो घोष अपनी छोटी सी दो पन्नों की भूमिका में ‘शब्द और शब्द’ से भरे थका देने वाले हर दिन की व्याकुलता में मौन की अपनी तलाश के बारे में लिखते हैं - ‘‘शब्द और शब्द, केवल। जैसे कभी कहीं मौन नहीं था - कभी भी- जैसे कभी किसी हाथ ने दूसरा हाथ नहीं छुआ था। वह मौन, जिसकी खोज में तुम थे, हवा में गायब हो गया है और क्या तुम्हें इसकी बिल्कुल परवाह नहीं।...सिर्फ शब्दों को ही यह आता है कि मौन का तत्व धारण कर ले, बिना आध्यात्मिक जगत से रिश्ता तोड़े।...आदमी के लिये सबसे कठिन है गुमनामी सहन करना। ...वह पहचाना नहीं जायेगा और कोई अँगुली उसकी ओर नहीं उठेगी - ‘देखो ! वह कवि आ रहा है।’ सिर्फ तब मौन कविता जन्म लेगी।’’

    इसी भूमिका में वे जीवनानंद का प्रसंग लाते हैं और बड़ी मार्के की एक बात कहते हैं कि ‘‘जो चीजें उनकी कविताओं में बहुत निजी थीं, समकालीन लेखन में प्रदर्शनी के लिए सजा दी गयी हैं, जैसे किसी अजायबघर में कफन जमा रखे हों। उनकी खामोशी का पारदर्शी परदा कहाँ गया? वही चीज थी उनकी जिसकी पूजा की जानी चाहिए थी।’’ हिंदी में मुक्तिबोध की कविताओं के तमाम निजी प्रसंगों की सार्वजनिक प्रदर्शनी के सच को इस कथन की रोशनी में देखें, शायद मुक्तिबोध भी कुछ और नये दिखाई देने लगेगे।

    बहरहाल, ‘पूजा की जानी चाहिए थी’ - शंखो घोष का यह कथन। वे आज भी हमारे बीच है, आज के समय के प्रत्यक्षदर्शी। वे ‘पूजा और भक्ति’ की प्रदर्शनी के खेलों को हर रोज देख रहे हैं। वे इस ‘शोरगुल में मौन की पताका उठाने’ की बात कहते भी है और कविता को उस पताका की खोज भी बताते हैं। लेकिन जो शंखो घोष की गतिविधियों पर नजर रखते है, वे जानते हैं, उनका यह चिर-परिचित मौन कब और कैसे मुखर होता है, नाना रूपों में, कविता से लेकर जुलूसों तक में ! कहना न होगा, उनकी ‘मौन की पताका की तलाश’ उस स्वातंत्र्य की तलाश ही है, जिसमें आकांक्षाओं की परिपूर्णता और अपेक्षाओं की शून्यता का बोध विराज करता है।

    आपको बहुत धन्यवाद, समालोचन में प्रिय कवि शंखो घोष को याद करने के लिये।

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  5. ज्ञानवर्धक कवितायेँ।
    बहुत आभार

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  6. Sunder kavitanye. Utkrist anuvad. Badhai.

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  7. सुन्दर ! अनुवाद के साथ कवितायेँ हम तक पहुँचाने के लिए शुक्रिया !

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