मंगलाचार : दिव्या विजय (कहानी)

























(Photo: Courtesy  Woody Gooch)

बायोटेक्नोलॉजी से स्नातक, सेल्स एंड मार्केटिंग   में   एम.बी.ए.
बैंकाक में आठ  साल रहीं फिर लौट कर ड्रामेटिक्स से स्नातकोत्तर और नाटकों में अभिनय और लेखन आदि. यह दिव्या विजय हैं. और यह है इनकी कहानी.

दिव्या विजय की इस कहानी में वो सारे तत्व मौजूद हैं जो उनके अंदर के कथाकार के भविष्य को लेकर आशान्वित करते हैं.
भाषा पर उनकी पकड़ है और स्फीति से वह बचती हैं,  प्रारम्भिक कहानियों में जिन्हें साध पाना मुश्किल ही होता है.


उनका स्वागत और आप जरुर बताएं कि इस कहानी में आपको क्या अच्छा लगा.


बनफ़्शई ख़्वाब                                                      
दिव्या विजय 



घंटी बजी और उसने चौंक कर घड़ी की ओर देखा. सात बज गए... इतनी जल्दी! वो मन ही मन पलों का हिसाब करने लगी. उसे पता था ठीक पंद्रह सेकंड बाद फिर डोर बेल बजेगी. तब तक दूध वाला लगभग बीस क़दम चलकर बाक़ी दो घरों में दूध के पैकेट पकड़ा देगा. यही पंद्रह सेकंड उसके पास तय करने को थे कि उसे उठना है या नहीं. उसे उठ जाना चाहिए...उसने कोशिश की मगर नहीं उठ पायी. घंटी चीख़ती रही....इतनी तेज़ कि दीवारें उस चीख़ से अट गयीं. दीवार से फिसलते हुए उसकी नज़र ज़मीन तक गयी...फ़र्श भीगा है. फ़र्श पर क्या गिरा है...कहीं कल रात फिर...? अब सब पोंछना होगा. बिखरा हुआ समेटना क्यूँ पड़ता है? नहीं, वो कुछ नहीं करेगी.


पेड़ की हिलती हुई शाख़ पर उसकी निगाह अटक गयी. पत्तों की ओट से छन आ रही धूप की किरचियाँ उसे ज़ुबान पर चुभती महसूस हुईं. उसे गर्म थूक को उगलने की शदीद इच्छा हुई पर उसने उसे निगल लिया. कल चौथी रात थी जब उसकी आँखों ने झपकने से इंकार कर दिया था. शुरू में उसे घबराहट हुई पर अब वो अभ्यस्त हो चली है. ज़्यादा थकान होने पर अब वो आँखें खोल कर भी सो सकती है. यह आँखें बंद कर सोने से ज़्यादा आसान है. उसने नज़रें बाहर जमा दीं. 


पेड़ की शाख़ पर कूदती गिलहरी के पंजों की बुनावट देख उसका मन भीग आया. कितना कस कर तने को पकडे है...एक बार भी नहीं गिरती. फ़ोन फिर बजा..इस बार माँ का. कल बमुश्किल दो-चार शब्दों की बात हुई थी. बोलना बाज़ दफ़ा कितना मुश्किल हो जाता है. पर उसे बोलना पड़ा क्योंकि नहीं बोलती तो माँ यहाँ आ जाती. वो नहीं चाहती यहाँ कोई भी आए. किसी की भी उपस्थिति से उसका मन घबरा जाता है. किसी से बात करना बड़ा भारी मालूम होता है. इस सोफ़े से हिलना उसे नामुमकिन लगने लगा है. उसका सारा वक़्त यहीं बीत रहा है. आस-पास पैकेज्ड फ़ूड की पन्नियों का ढेर इकट्ठा है और पानी की ख़ाली बोतलें बिखरी हैं. परसों मेड को फ़ोन कर उसने हफ़्ते भर की छुट्टी दी है. ज़िंदा इंसान को देखना उस से बर्दाश्त नहीं हो पा रहा....इस से ख़ुद की मुर्दनगी का अहसास और बढ़ जाता है.

उसने अपने हाथों को देखा. मैल की परतें गोरे रंग के बीच से झाँक रही हैं. वो कई दिनों से नहायी नहीं...कितने दिनों से...शायद वही आख़िरी दिन था. हाँ वही था...पहने हुए कपड़ों को देख उसने सोचा. बनफ़्शई ड्रेस उसी रोज़ पहनी थी. उसकी बाँहें मटमैली हो चली हैं. सिलवटों से भरी ड्रेस उसे चुभने लगी. क्या उसे कपड़े बदलने चाहिए? उसने भीतर झाँक कर देखा. अंदर इनर था. उसने ड्रेस झटके से उतार कर फेंक दी. उसे राहत महसूस हुई. क्या उस रोज़ उसे पता था कि यह होने वाला है? शायद नहीं या हाँ...वो पहली बार उस से मिली थी उसी रोज़ से उसे मालूम था कि यह होने वाला है. 


उसके दोस्त कहते हैं..."शी इज़ सो गुड ऐट आयडेंटिफ़ायइंग पीपल."
'
ओह येस शी इज़! एंड शी इज़ डम्ब इनफ़ टू फ़ॉल फ़ॉर सेम पीपल हूम हर हार्ट रेजेक्ट्स.

हार्ट...आह!ये दिल! दिल की धड़कन अचानक बढ़ गयी तो उसने सोफ़े को बाहें फैला कस कर सीने से लगा लिया. सोफ़े ने उसका दिल थाम लिया. सोफ़े का सफ़ेद रंग उसके भीतर उतरने लगा...ठंडक पिघलते हुए उसके दिल पर गिरने लगी...बूँद-बूँद. ड्राई आइस....अपनी ठंडक से जला देने वाली बर्फ़. 


उसे बहुत जोर की चीं-चीं सुनायी दी. नीले काकातुआ का जोड़ा झगड़ रहा है. वो सोफ़े से उतरने की कोशिश में नीचे गिर गयी. ख़ुद के इस तरह गिरने पर उसकी हँसी छूट गयी. वो अकेले ही हँसने लगी....हँसते-हँसते उसे रोना आने लगा. उसने घड़ी देखी..साढ़े सात हो रहे हैं. उसे लगा कि आज का दिन फिर इस तरह शुरू नहीं करना चाहिए. वो किसी तरह घिसटते हुए रिमोट तक पहुँची और टीवी चालू कर दिया. 


फ़ुटबॉल मैच आ रहा है. वो खिलाड़ियों को पहचानने की कोशिश करने लगी पर उसे ठीक से कुछ दिखायी नहीं दिया. फ़ुटबॉल की जगह एक सफ़ेद धब्बा उसे उछलता हुआ दिखायी दे रहा था. वो उसी धब्बे के पीछे भागने लगी. धब्बा एक झील में जा गिरा. उसने झील में जाने के लिए क़दम बढ़ाया मगर तुरंत पीछे ले लिया. उसने अपने बूट्स उतारे और झील में पैर डुबो दिए. ठंडा पानी पहली बार में नश्तर की तरह चुभा. उसके तलवे सिकुड़ने लगे लेकिन उसे ख़याल आया कि वो आने वाला है. उसकी देह गर्माहट से भर गयी. उसने हाथ में पकड़े तोहफ़े नीचे घास पर रख दिए. उसका जन्मदिन है...वो आने वाला है. उसने कहा था वो आएगा. उसने कहा था आज सारा दिन वो उसके साथ बिताएगा. वह जल्दी तो नहीं पहुँच गयी. उसने इधर उधर देखा. यह जगह भी उसी ने चुनी है....उसकी पसंद कितनी अच्छी है.

झील के चारों ओर हल्की हरी चादर बिछी है और झील का पानी हल्का नीला. उसने अपनी ड्रेस ज़रा ऊपर की...जाने कब खिसक कर पानी को छूने लगी थी. हल्का गीला हिस्सा घुटनों पर ठहर गया. गोरे रंग पर बनफ़्शई झालर का कंट्रास्ट.....एक पुरानी बात याद आयी जब उसके रंग पर इस से भी गहरा एक रंग ठहरा था...उसके होंठ ताम्बई जो थे. झील के पानी में गुलाल घुल गया. गुलाबी रंग से उसने अपनी अँगुलियाँ भिगोयीं और घास पर कुछ बूँदें छितरा दीं. वहाँ गुलाबी फूल उग आए....फूलों को लड़ी में पिरो उसने माला बनायी...कुंडल बना कर पहन लिए...वो वनकन्या दिखने लगी. उसे जंगल-जंगल फिरना होगा...तब क्या उसका महबूब आएगा? उसने ज़ोर से आवाज़ लगायी....आ जाओSSS.....


आवाज़ चिड़िया बन गयी...उसने चिड़िया को अपनी पुकार थमा दी और उड़ा दिया. अब वो आता ही होगा. सूरज के बीचों बीच एक धारी उग आई और वो उसे निगलने लगी....पानी जमने लगा. उसके पैर बर्फ़ हो गए तो वो महबूब के गले कैसे लगेगी? उसने अपने पैर झील से निकाले और घास पर बिछा दिए. एक कनखजूरा जाने कहाँ से उसके पैरों पर आ लिपटा. उसे डर नहीं लगा...उसे कहानियाँ याद आयीं जब प्रेम की परीक्षा लेने कोई और रूप धर ख़ुदा चला आया. वो ग़ौर से उसे देखती रही....अनगिनत पैर....उसके इतने पैर होते तो वो बग़ैर थके मीलों भागते हुए अपने महबूब को यहाँ लिवा लाती. कनखजूरा उसके पैरों पर से होता हुआ कहीं खो गया.

वो अब फिर अकेली थी. धब्बा बड़ा हो रहा था और फ़ुटबॉल एक खिलाड़ी के पास थी. अब शायद गोल होगा. काकातुआ फिर चिचियाने लगे. उनका पानी ख़त्म हो गया था. उसने उनके लिए पानी भरा और उन्हें बाहर रख दिया. उन्हें बाहर रहना अच्छा लगता है...खुले आसमान के नीचे. तय समय बाहर न निकालो तो शोर मचा देते हैं. उन्हें सीधी धूप नहीं सुहाती इसलिए कभी उनके ऊपर छतरी तान देती है कभी ख़ुद कुर्सी पर बैठ उनकी छाँव बन जाती है. 


वो भीतर जाने को पलटी तो उसके कानों में साँप रेंगने लगे....उसने लकड़ी के दरवाज़े पर अपने कान टिका दिए. आवाज़ें थीं...पुकारें थीं...भीड़ का शोर था....जयकारे थे...ज़रूर कोई शहंशाह युद्ध जीत कर आ रहा था. यह वही हो सकता है...बस वही. उसे झील के पार जाना होगा. झील को बर्फ़ हो जाना होगा...बर्फ़ जिस पर दौड़ते हुए वो उस पार जा सकेगी. उसने अपने दिल की आह झील पर रख दी. वो भागती गयी...अब किसी भी पल वो दिखायी देगा...घने जंगल के अँधियारे चीरते हुए उसकी आँखें मशाल बन गयीं. वो हर साये को सहलाती गयी. जो साया उसे जकड़ लेगा वही उसका महबूब होगा.

साये ख़त्म हो गए...दिल डूब रहा था. सामने पहाड़ था...पहाड़ के ऊपर...वहाँ कुछ है. उसने नंगे पैरों को देखा...वो उसे मिलेगा... वो फिर दौड़ चली. वो आया क्यों नहीं...उसे कुछ हुआ तो नहीं. उसने कहा था...उसने जगह चुनी थी...उसने बनफ़्शई रंग कहा था...उसने कहा था वह उसे चाहता है. उसने वादा किया था वो उसके सामने फिर जन्म लेगा. वो रुकी..उसने अपने पेट पर पत्थर बाँध लिए. अब वो उसे जन्म देगी...वो बढ़ चली. 


वो पहाड़ की चोटी पर थी. वहाँ तेज़ हवा थी...वो दो इंच ऊपर उठ कर तैरने लगी. वहाँ कंकाल थे...उसने हाथ बढ़ाया...उन्होंने हाथ थाम लिया. क्या वो उसे पंख देंगे? उसे और आगे जाना है. वो बिना पंखों के आगे बढ़ चली है...पर वो तो  नीचे जा रही है. उसे किसी ने धकिया दिया है. किसने? गोल हो गया था. 


खिलाड़ी ख़ुशी से चीख़ रहे थे. काकातुआ की चहचहाहट थम गयी थी. वो तंद्रा से जागी...एक बिल्ली पंजा भीतर घुसा उनकी गर्दन मरोड़ चुकी थी. 
____________

दिव्या विजय :
(२० नवम्बर १९८४, अलवर, राजस्थान)

ई मेल-  divya_vijay2011@yahoo.com

9/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. दिव्या जी को बधाई। कथाकार में कहीं कवि भी छिपा है। कथा की टेक के सहारे उस कवि तक भी पाठक पहुँचता है।

    जवाब देंहटाएं
  2. कहानी पढ़ी। भाषा बांधती है।दिव्या जी को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  3. मेरी दो प्रिय लेखिकाओं का आभार।

    जवाब देंहटाएं
  4. मुझे भी लगा कोई कविता पढ रहा हूँ। बाबूशा की कविताएँ याद हो आईं।

    जवाब देंहटाएं
  5. मनोज पाठक29 नव॰ 2016, 8:46:00 pm

    कहानी पसंद आयी.दिव्या में संभावना है. और मुझे कहानी के साथ प्रस्तुत फोटो भी बहुत जंचा. कहाँ कहाँ से खोज कर यह सब आप लाते हैं. बहुत मेहनत करते हैं आप. आप की उर्जा बची रहे. आभार

    जवाब देंहटाएं
  6. कहानी अच्छी लगी । भाषा पर अच्छी पकड़ है, इससे से भी अच्छी कहानी आप लिख सकती हैं । संभावना काफी है। बधाई ।

    जवाब देंहटाएं
  7. राकेश बिहारी30 नव॰ 2016, 8:49:00 am

    भाषा का कलात्मक सधाव, काव्यात्मक संवेदना और रचनात्मक कल्पनाशीलता को देखते हुए कहानीकार के प्रति संभावनाएं जागती हैं। कहानी की लय में गुंथी हुई सांकेतिकता लगातार कौतूहल बनाए रखती है। आशा की जानी चाहिए कि आगामी कहानियों में भी यथार्थ और संकेत का यह अनुकूल अनुपात कायम रहेगा। कारण कि इस अनुपात के बिगड़ते ही कभी अमूर्तन तो कभी सपाटपन के खतरे शुरू हो जाते हैं। आगामी कहानियों में पाठक किस्सागोई के कुछ और गुणसूत्र की उम्मीद भी करेंगे।

    एक अच्छी कहानी पढ़वाने के लिए समालोचन को बधाई और नई सम्भावना का स्वागत!

    जवाब देंहटाएं
  8. कहन बहुत अच्छी है। कविताई भाषा है। खूब बधाई...

    जवाब देंहटाएं
  9. अद्भुत बिम्ब गढ़े है दिव्या आपने,कहानी की भाषा भी बहुत सुंदर है

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.