अमृता प्रीतम (1919-2005) का लेखन बहुत विस्तृत है. उनकी कविताओं ने जहाँ
पंजाबी कविताओं को पहचान दी वहीं उनके कथा लेखन में वह खुदमुख्तार स्त्री नज़र आती
है जो स्त्रियों के तमाम प्रश्नों पर बेखौफ होकर मुखर है. उनके पास एक मुलायम दिल
है जो प्रेम में है.
विमलेश शर्मा का आलेख अमृता के लेखन पर
केन्द्रित है और बहुत ही रचनात्मकता से उनके लेखन की विशेषताओं से परिचय कराता है.
दर्द, चिंगारियाँ और आग
(संदर्भ-अमृता प्रीतम)
विमलेश शर्मा
अमृता अपनी लाज़वाब औऱ पुरअसर रोशनी से
आपके मन के नीले पर दस्तक देती है. परचमों के जाने कितने बंद हैं जो इस एक लेखनी
में समा आएँ हैं. स्त्री जीवन को किस तरह कतरा-कतरा जीती है, किस तरह संवेदनाओं के
बियाबान में प्रेम के सबसे नाजुक फूलों को सहेजती है, यह कहीं से जानना है और
साहित्य में अगर उसके निशान टटोलने हैं तो अमृता प्रीतम उस बियाबां में अपनी
रचनाओं के साथ किसी कोने में सबसे तेज चमकती हुई सी नज़र आती है. स्त्री मन जाने
कितनी वेदना और उच्छवासों के रूप में यहाँ उलटता हुआ नज़र आता है. वो खामोश नज़रों
से इतिहास को देखती है औऱ औरत की दासता की बेज़बानी में खो जाती है. वो जाने कितनी-कितनी
टूटी दस्तकों को अपने लेखन में आवाज़ देती है. वह जानती है कि तलाक सचमुच झांझर की
मौत होती है और औरत के जीवन में उसकी ही मुस्कुराहटें और खनक जाने कितनी कैदों में
कैद होती रहती है. वो हमारे समाज में हिकारत से देखे गए और स्त्री जीवन की त्रासदी
कहे जाने वाले शब्दों तलाक औऱ वैश्या पर पूरी संवेदनशीलता और बेबाक लिखती है कि ये
तो केवल मन की अवस्थाएँ है, इन्हें जंज़ीरें कहना उचित नहीं. विवाह जैसी सामाजिक
संस्थाओं और शुचिता जैसे मापदण्डों से इनका कोई लेना-देना नहीं है. सही मायने में
तो स्त्री का मन ही है जो उसे कैद में रखता है . इसी के चलते वह एक कैद से मुक्त
होती है औऱ दूसरी कैद उसे आ घेरती है. यह कैद कभी औलाद की होती है, कभी रिश्तों की
तो कभी उस प्रेम की जिसे वह सांस दर सांस जीती चली जाती है.
दरअसल जीवन की जंजीरों में कैद साँसों का
नाच देखने के लिए जो आँख चाहिए होती है वह इंसानियत की आँख होती है और वह आँख
अमृता के पास थी. अमृता का लिखा सिर्फ अपने दर्द की सीमा में महदूद नहीं है वरन्
वह सरहद पार बैठे बेगाने दर्द को भी उतनी ही शिद्दत, उतनी ही तीव्रता से छू लेता
है, जैसे की कोई नरम हथेली माथे के ताप को. कई आलोचकों ने उस वक्त अमृता के इस लोकप्रिय लेखन को साहित्य से खारिज़ किया क्योंकि इससे स्त्री
मनोभाव आग की भाँति दहक उठे थे और फिर अगर बात स्त्री की अपनी जबानी हो तो इस समाज
के लिए चीजें आसानी से ज़ज्ब करना और मुश्किल हो जाता है. परन्तु साहित्य वही है जो समस्त खाँचों और दायरों से
मुक्त होकर साधारणीकृत होने की कुव्वत रखता हो. जहाँ हर मन अपने भीतर के अंगारे को
उस आँच के भीतर कुंदन बनता देखता हो, आँसुओं के निर्झर के भीतर लफ्ज दर लफ्ज़
गुज़रता हो , साहित्य का और कोई मानक फ़िर क्या हुआ जा सकता है भला.
अमृता की संवेदनशील रचनाधर्मिता
लोकप्रियता ने सभी आलोचकों का मुँह खुद ही बंद कर दिया था. अमृता को पढ़ते हुए
ख़ुद को बारहा संभालना पड़ता है, दिल के रेशे-रेशे को सहेजना पड़ता है, क्योंकि
पाठक को खुद नहीं मालूम होता है कि जाने कब आँसुओं का सैलाब वो सब कुछ बहा ले जाए
जो सिर्फ़ और सिर्फ़ आपका है. समाज का दोमुँहापन किस प्रकार व्यक्ति को तोड़ता
है, पुंसवादी सोच किस प्रकार स्त्री
को समाज के चौराहे पर बैठा देती है यह सत्य पूरी तल्ख़ी से
अमृता अपनी रचनाओं में बयां करती है. प्रेम के सबसे नरम अहसासों को जीती स्त्री
किस प्रकार छली जाती है, किस तरह वह जीवन के घात-प्रतिघातों और उतार-चढ़ावों को
जीती है, इन सभी घटनाक्रमों को अमृता की रचनाएँ जीवंत रूप में अभिव्यक्त करती है, उतनी ही सच्चाई और
प्रामाणिकता के साथ कि मानो वह स्वयं इन सबकी प्रत्यक्षदर्शी रही हो.
स्त्री जीवन को हर युग में एक भोग का साधन
माना गया है, चाहे राम हो या कृष्ण वे अपने अहं और रास से बाहर नहीं आ पाए हैं.
शायद इसीलिए वे कहती हैं “सतयुग मनचाही ज़िंदगीं जीने का नाम है, किसी आने
वाले युग का नहीं...” (ख़तों का
सफ़रनामा-सं.-उमा त्रिलोक) जाने कितने-कितने अल्फ़ाज है जो इस सदा रूदन्ती औषधि के
लेप से तपकर इस लेखनी में आ बैठे हैं. एक-एक हर्फ़ मानों सदियों की कराह है. इस
लिखें में जाने कितनी करवटें हैं तभी तो वह दर्द लिखते हुए कहती है-“नज़्म लिखना, मन के वनों में जाकर, एक सघन झाड़ी की ओट में, बदन की
केंचुली उतार देना है.. ”. अमृता ने स्त्री होने के तमाम दर्दों को प्रेम
की आँच में तापकर सहा था. यही कारण है कि इमरोज़ औऱ अमृता एक जैसे जान पड़ते हैं.
अमृता को पढ़ते हुए जाने कितनी बार आँसुओं ने सब्र के पहाड़ को तोड़ दिया है,
उन्हें पढ़ना हर मर्तबा पहली बार पढ़ना ही होता है...कोरा, सौंधा या कि चाय की
सबसे ऊपर वाली ढाई पत्ती सा एकदम तरोताज़ा...इसीलिए गंगाजल से लेकर वोदका तक उनको
शब्दों की प्यास,तलब औऱ रूमानियत को महसूस किया जा सकता है. वह प्रेम के दरिया के
पार उतरना नहीं चाहती थी, डूब जाना चाहती थी.
अगर पहले-पहल हम अमृता के नागमणि उपन्यास
की बात करें तो यह उपन्यास अल्का और कुमार की प्रेमकहानी कम एक स्त्री की
सात्विकता और पुरूष की कठोरता की कहानी अधिक लगती है. हर सामान्य पुरूष (समाज का
अर्थशास्त्र यही कहता है) की ही तरह कुमार अल्का को केवल एक देहवादी नज़रिए से
देखता है. वह उसका भोग करता है परन्तु उसे छिटक देता है. वह उसे अपने काम में बाधा
समझता है ,दूसरी ओर अल्का प्रेम के उच्चों को छूती है . इसी मानसिकता के चलते
कुमार परेशां फ़कीर की तरह दरबदर भटकता है तो अल्का उस दौलत की मिल्कीयत को लेकर, जिसे
जितना अधिक ख़र्च किया जाय ,बढ़ती ही जाती है. उपन्यास की नायिका जीवन जीने के
वस्तुवादी दृष्टिकोण के पीछे यही तर्क देती है कि-“ खुशी वस्तुओं में नहीं होती,खुशी मन की अवस्था में होती है. मैं
वस्तुओं को सूँघ सकती हूँ,उनके पीछे पड़ सकती हूँ, पर मैं किसी के मन की अवस्था को
कुछ नहीं कह सकती.(नागमणि-चुने हुए उपन्यास-अमृता प्रीतम-पृ.127)”
नागमणि उपन्यास में जीवन का प्रखर यथार्थ
औऱ गहन संवेदना दोनों है. अगर स्त्री संदर्भों में बात की जाय तो बात ज़ेहन में उमड़ती है कि क्या कभी कुमार
अल्का को उस की तरह प्रेम कर सकता है. जो पुरूष देह में अपने ताप को होम करना
चाहता है, जो प्रेमिका को वेश्या औऱ डेविल जैसे अमानवीय शब्दों में और वैसे ही
हास्यास्पद मनोभावों के साथ संबोधित करता हो क्या कभी वो प्रेम के उतने उच्च को छू
पाएगा जो अल्का के माध्यम से कहानी में दर्शाया जा रहा है. कुमार से ज़्यादा
समर्पित अल्का पर यहाँ तरस आ जाता है कि वह एक अहमंन्नय पुरूष के प्रति पूर्ण
समर्पिता है परन्तु वह उस प्रेम का मोल नहीं समझ पा रहा. वह प्रेम को सिर्फ़ और
सिर्फ़ एक कैद मान बैठा है. अल्का सिर्फ़ औऱ सिर्फ़ उस दिन का इंतज़ार कर रही होती
है जब वह कुमार के लिए बाहर की वस्तु नहीं वरन् भीतर का भाव बन जाएगी. अल्का अपने इसी
समर्पण औऱ कुमार के प्रेम में उसका हर निर्णय स्वीकार करती है, “अगर मेरे एक विवाह
से आपको संतुष्टि नहीं हुई तो मैं दो कर लूँगी, दो से भी नहीं हुई तो चार कर लूँगी
. जितने आप कहेंगे कर लूँगी..”(वही, पृ.152) आश्चर्य होता है कि प्रेम में बौरायी हुई यह
लड़की थक कर बैठती नहीं ,हार नहीं मानती, क्योंकि उसे यकीं है कि कुमार एक दिन उसे
ठीक उसी तरह अंगीकृत करेगा , जिस तरह वह उसे प्रेम करती है. उसे विश्वास है कि
ज़िंदगी एक दिन करवट ज़रूर लेगी. प्रेम का जो रूहानी रंग अमृता पेश करती है वो आज
के साहित्य में मिलना मुश्किल है. आज प्रेम एक विडियो चैट के मार्फ़त शुरू होता
है. चंद अल्फ़ाजों में कैद होता है, चंद मुलाकातें होती है औऱ फ़िर वाष्पीकृत हो
जाता है. नागमणि का कथानक जहाँ एक ओर कुमार के प्रेम के विरोधाभास को इंगित करता
है तो दूसरी तरफ़ जगदीशचन्द्र के शिव भाव को बताता है. जगदीशचन्द्र के प्रेम का
उच्च वहाँ है जहाँ वह कहता है कि प्रेम में देह, देह नहीं रहती. प्रेम सिर्फ़ वहाँ
होता है, जहाँ सिर्फ़ मन का ऐक्य हो, जहाँ बस विस्तार को महत्व मिलता हो, किसी भी
प्रकार के संकुचन को वहाँ स्थान नहीं. शायद इसीलिए अल्का उस की लौटती पीठ से माफ़ी
माँगती है. अगर कुछ शब्दों में ही बाँधा जाए तो स्त्री की जीवटता, प्रेम करने के
सामर्थ्य औऱ सहनशीलता की कहानी है नागमणि और उपन्यास का निचोड़ है ये चंद
पंक्तियाँ-
"मेरे
ख़याल में ज़िंदगी का रास्ता जिस्म की रोशनी में मिलता है!
"रोशनी
मन की होती है - तन की नहीं!
"जिसके
तन में मन रोशन हो वह जिस्म अंधेरा नहीं हो सकता!" – (अमृता प्रीतम-नागमणि उपन्यास)
अमृता का जन्म पंजाब में हुआ और बचपन
लाहौर में बीता, यही कारण है कि उन्होंने भारत विभाजन का दर्द बहुत करीब से महसूस
किया था . इनकी कहानियों और उपन्यासों में इस दर्द को पूरी गहनता और तीव्रता के
साथ महसूस किया जा सकता है. सामाजिक दायरों में दबी पिसी स्त्री की कसमसाहट और वैवाहिक
जीवन के कटु सत्यों का उद्घाटन अमृता की
लेखनी अनवरत करती चलती है . संभवतः यही कारण है कि इनका लेखन भारतीय समाज की कट्टरता
का जीता जागता उदाहरण तो बन ही पड़ा है, साथ ही सीमा पार की सीमाओं को भी तलाश
लेता है. जो बात सबसे महत्वपूर्ण है वह यह कि वह अपने पात्रों की संवेदनाओं को
इतनी शिद्दत से जीती है कि स्व और पर का भेद मिट जाता है. उनकी कथाओं के पात्र
परिवेश से बहुत निकट से उठा लिए गए हैं इसलिए जिस लोकप्रियता को अमृता ने छुआ उसे
और कोई नहीं छू सकता था. उसे किसी ने ख्वाब कहा तो किसी ने अनलिखी नज्म जैसे कि वो
लिखने के लिए हो ही ना सिर्फ़ , जीने के लिए ही हो. स्त्री जीवन के संघर्ष को जब
वे बेबाकी से बयां करती हैं तो सिमोन की बगल में खड़ी नज़र आती हैं. उन जेहादी
विचारों से उनके लिखे में वो गर्माहट आ जाती है जिससे वो कभी अपनी कूची को सुहागन
रंगों से रंगती है तो कभी होली के रंगों से ...और यूँ हर्फ़ों में उकेरा हुआ उसका
हर रंग कुछ और गहरा , कुछ और हरा हो जाता है . उसकी लेखनी में जाने कितने समंदर
सांसे लेते हैं . वहाँ कहीं उमर ख़य्याम
की रूबाईयां है तो कहीं कई टूटी हुई उदास नज़्में. वह अपनी कविता में अपने लेखन की
नमी को स्वय बयां करती हुई लिखती है-“गंगाजल से लेकर वोदका तक, यह सफ़रनामा है मेरी
प्यास का....”(ख़तों का सफ़रनामा) यही सफ़र काव्यात्मक ढंग से
उनकी हर रचना में आन खड़ा हुआ है.
अमृता साहित्य और आम रचना का फ़र्क बखूबी
जानती थी, इसीलिए उसने कोरी भावुकता को वक्ती आँधियाँ कहा, जो साहित्य का कभी भला
नहीं कर सकती. सीमोन की ही तरह अमृता स्त्री का दर्द और त्रासदी सब कुछ समझती है.
बकौल प्रभा खेतान- “ लेखक की निर्मित दुनिया स्वयं उस लेखक को
आत्मसात कर सके इसलिए अपनी चेतना पर आरोपित सभी परतों को छीलते हुए चलने पड़ता है,
किंतु अत्यधिक आत्मसात् करने के पश्चात् भी हमारा तादात्म्य और एकीकरण प्रामाणिक
नहीं हो पाता, भेद बना रहता है. स्व की सीमा का अतिक्रमण भी
वही कर सकता है जो अपने सीमित दायरे के भीतर की दुनिया को पहचाने. नहीं तो सारा
पाठकीय अनुभव आरोपित, किसी और के मानस का छीना हुआ टुकड़ा लगता है.” (स्त्री उपेक्षिता
पुस्तक के आमुख में प्रभा खेतान के विचार)
अमृता प्रीतम स्व और पर की इन हदों को बखूबी जानती हैं इसीलिए वो कहती हैं –“कई घटनाएँ जब घट रही होती हैं, अभी-अभी लगे जख़्मों सी होती हैं, तभी उऩकी कोई कसक अक्षरों में उतर जाया करती है.” पढ़ते हुए लगता है कि हर दर्द की सूरत कमोबेश एक सी ही होती है , एक दिन कोई एक नाम वाला दुख ले दे रहा होता है, कल कोई दूसरे नाम वाला. पर शब्दों की स्याह ताकतें हर दर्द के माप को एक सा कर देती है. यही बात अमृता के लेखन में हर्फ़ दर हर्फ़ नज़र आती है. अमृता की कहानियों में शाह की कंजरी, उस स्त्री की कहानी है जो नाच गाना करके गुजर बसर करती है. शाह नामक एक रसूखदार व्यक्ति की नज़र जब उस नीलम पर पड़ती है तो वो उससे प्रेम कर बैठता है. स्त्री पर अगर इस तरह किसी काम का ठप्पा लग जाए जो कि समाज की दकियानूस मान्यताओं के विरूद्ध हो तो वह उसे रखैल जैसे संकुचित शब्दों की संज्ञा प्रदान करता है. नीलम यहाँ रखैल है पर ऐसी जिसने अपना जीवन और संवेदनाएँ शाह को समर्पित कर दिया है. इसी बात और सौतिया डाह के मनोभाव को यह कहानी सहजता से दर्शाती है.
अमृता प्रीतम स्व और पर की इन हदों को बखूबी जानती हैं इसीलिए वो कहती हैं –“कई घटनाएँ जब घट रही होती हैं, अभी-अभी लगे जख़्मों सी होती हैं, तभी उऩकी कोई कसक अक्षरों में उतर जाया करती है.” पढ़ते हुए लगता है कि हर दर्द की सूरत कमोबेश एक सी ही होती है , एक दिन कोई एक नाम वाला दुख ले दे रहा होता है, कल कोई दूसरे नाम वाला. पर शब्दों की स्याह ताकतें हर दर्द के माप को एक सा कर देती है. यही बात अमृता के लेखन में हर्फ़ दर हर्फ़ नज़र आती है. अमृता की कहानियों में शाह की कंजरी, उस स्त्री की कहानी है जो नाच गाना करके गुजर बसर करती है. शाह नामक एक रसूखदार व्यक्ति की नज़र जब उस नीलम पर पड़ती है तो वो उससे प्रेम कर बैठता है. स्त्री पर अगर इस तरह किसी काम का ठप्पा लग जाए जो कि समाज की दकियानूस मान्यताओं के विरूद्ध हो तो वह उसे रखैल जैसे संकुचित शब्दों की संज्ञा प्रदान करता है. नीलम यहाँ रखैल है पर ऐसी जिसने अपना जीवन और संवेदनाएँ शाह को समर्पित कर दिया है. इसी बात और सौतिया डाह के मनोभाव को यह कहानी सहजता से दर्शाती है.
अंतरव्यथा(नीचे के कपड़े) कहानी वैवाहिक
संबंधों की वास्तविकता की कलई खोलती है. इन संबंधों की जाने कितनी हकीकतें और
रूदालियाँ हैं जो कितनी ही अलमारियों की खुफ़िया दराज़ों में बंद है. कहानी एक माँ
की उस चिंता को स्वर प्रदान करती है जो अपने पुत्र के सामने गलत साबित नहीं होना
चाहती. वह चाहती है कि पुत्र उसे उस प्रेम की ही नज़र से देखे जो उसने उससे किया
है. यह भय माँ के मन में शायद इसलिए है कि पुत्र भी बड़ा होकर इस पितृसत्तात्मक
व्यवस्था का ही अंग बन जाएगा. जिसकी नज़र में स्त्री की शुचिता, उसका समर्पण औऱ
पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ ही उसकी प्रतिबद्धता तय करेगी. इसलिए वह कहानीकार के पास
अपनी कहानी ले कर जाती है. वह उसके जीवन को लिपिबद्ध करने की माँग करती है, जिसे
वो अपनी ज़िंदगी के उन बंद खतों के साथ बतौर कन्फेशन रख देगी.
‘जंगली बूटी’’ अमृता की बहुत ही संजीदा कहानी है. जिसमें
अँगुरी के भोलेपन ने प्रेम को सहज रूप प्रदान कर दिया है. कहानी में प्रेम की
तुलना उस जंगली बूटी से की गयी है, जिसे कोई गर एक बार चख ले तो वो पराए हाथों बिक
जाता है. कहानी ग्रामीण मानसिकता भी उजागर करती है कि ग्रामीण जीवन में स्त्रियों
के लिए पढ़ना औऱ प्रेम करना दोनों पाप है. अंगुरी की मासूमियत इसमें है कि वो
प्रेम में विवाह जैसी संस्था को बाधा नहीं मानती. ग्रामीण जीवन में स्त्री जीवन पर
उसके परिवार का हक होता है जो उसे जहाँ चाहे, जैसा चाहे किसी वस्तु की भाँति उसे
बेच सकता है, उसका बियाह कर सकता है. कहानी में प्रभाती जो अंगुरी का पति है, दुहाजु है औऱ अंगुरी दूजवर. प्रभाती लगभग निष्क्रिय सा रहने वाला जीव है तथा
अँगुरी के प्रति पूर्ण उदासीन है. अँगुरी भी अपने गहनों की खनक में खुश है. पर मन
तो मन का साथ माँगता है सो वह रामतारा को अपने मन की चाबी सौंप देती है और यूँ
उसकी सदा खनकने,चहकने वाली झांझरें प्रेम में मौन हो जाती है.
अमृता के लेखन से गुजरते हुए हम चाहे बात
पिंजर की करें या नागमणि, यात्री, तेरहवाँ दिन और उनचास दिन की वहाँ चित्रित सभी
पात्र चाय के एक पौधे की मानिंद उगे हुए नज़र आते हैं और हर लड़की उस पौधे की सबसे
ऊपर की कोंपल की भाँति जो डेढ़ औऱ ढाई के क्रम में लगी होती है,... सबसे छोटी,
सबसे हरी और चमकदार पर सबसे ताज़ा और ज़ायकेदार. हर किरदार वहाँ अपने को खोज़ता
हुआ फिर-फिर बुनता हुआ नज़र आता है. इस तरह अमृता को पढ़ते-पढ़ते बार-बार रूमी याद
आते हैं कि- “तुम समन्दर की एक बूँद नहीं, अपने आप में एक बूँद
में पूरा समन्दर हो....” अमृता की लिखी सौ से अधिक पुस्तकें हैं परन्तु
अभी पिंजर, रसीदी टिकट, यह सच है, एक थी सारा और खतों का सफ़रनामा ही ठीक से पढ़
पायी हूँ. बहुत कुछ पढ़ा जाना बाकी है पर बात यह भी है कि एक ही रचना को जाने
कितनी-कितनी बार पढ़ा जाए तब कहीं जाकर वह पूरे होश में ठीक-ठाक जेहन में बैठ पाती
है. इसके बावजूद बहुत कुछ अनपढ़ा भी छूट जाता है. पहली दूसरी दफ़ा तो पाठक पर
लफ्जों और संवेगों का तुफ़ान ही तारी रहता है. उनका प्रसिद्ध उपन्यास पिंजर, जिस
पर फिल्म भी बन चुकी है.. विभाजन औऱ हिन्दू –मुसलमां कौम के कट्टरपन पर हावी एक
स्त्री की ज़िद औऱ उसके यातनापूर्ण जीवन की दास्तां है. यह ऐतिहासिक दास्तान
अभिव्यक्त होकर इतिहास की वेदना और चेतना बन जाया करती है. यहाँ लेखिका पूरो औऱ
रशीद के रिश्ते की कशमकश में. स्त्री मन के उन अनछुए पक्षों को उकेरने की कोशिश
करती है जो हर स्त्री के अपने हैं. स्व से ऊपर उठकर अंततः पूरो की ही तरह उनका हर औपन्यासिक पात्र
चेतनावान हो उठता है. यही कारण है कि पूरो अपना जबरन उठाए जाने का, धर्म परिवर्तन
का और सपनों के कुचले जाने का दर्द भूलकर हर उस लड़की की मदद करती है जो उस
की ही तरह सतायी जा रही है. वह कहती है, “कोई भी लड़की हिन्दू हो या मुसलमान, जो भी लड़की लौटकर अपने ठिकाने
पहुँचती है, समझो उसी के साथ मेरी आत्मा भी ठिकाने पहुँच गई.” (पिंजर उपन्यास-अमृता प्रीतम) पिंजर इंसान के एक बेहतर इंसान बनने की कल्पना है. यहाँ नायिका पूरो
परिपक्व है, गंभीर है औऱ वैचारिक है. यही वैचारिकता उसे व्यष्टि से समष्टि स्तर तक
ले जाती है.
अमृता ने प्रेम को जिया था. उसने प्रेम को
गिरते हुए नहीं वरन् संभलते औऱ संभालते हुए देखा था. यही कारण है कि
अमृता-साहिर-इमरोज़ के उदात्त प्रेम और विश्वास की महक उनकी कई रचनाओं में बिखरी
मिलती है . यह प्रेम कभी सरहदों पार पहुँचकर देश, काल और परिवेश से परे हो जाता है
तो कभी दिल के सबसे भीतरी कोने में छिपकर बैठा गमकता रहता है, ठीक रातरानी की तरह .
यूँ हर प्रेम एक कविता के ही समान होता है जहाँ कुछ अक्षर सुनहरे रंग के हो जाते
हैं तो कुछ विरह की आग में तपकर सुर्ख़ . परन्तु उनकी हरियाली ताउम्र कायम रहती है.
पिंजर में रशीद और पूरो का प्रसंग हो या उसके मंगेतर रामचंद का प्रसंग प्रेम की यह
खेती वहाँ भी हरी ही रहती है. अमृता की खासियत यही है कि यहाँ बातें बेहद सादा
लफ्जों में निकलती हैं और दिल को छू जाती है. औरत की सादगी और पाकीजगी को समाज ने
कभी स्त्री मन की नज़र से देखने की कोशिश नहीं की वरन् वह उसे तन के फ्रेम में
कसने की कोशिश करता है. इसी दर्द को लेकर उनके उपन्यास एरियल की पात्र ऐनी कहती
है,- “मुहब्बत और वफ़ा ऐसी चीजें नहीं है जो किसी
बेगाना बदन के छूते ही खत्म हो जाएं , हो सकता है- पराए बदन से गुज़रकर वह और
मज़बूत हो जाए जिस तरह इंसान मुश्किलों से गुजरकर औऱ मजबूत हो जाता है. ” प्रेम औऱ रिश्तों
पर इतनी खूबसूरती से सिर्फ़ और सिर्फ़ अमृता ही लिख सकती थी. उनके गद्य में जाने
कितनी अधूरी कविताओं के टुकड़े पड़े हैं जिन्हें पढ़ते हुए, देखते हुए दिल जाने
कितनी बार छलनी हो उठता है. अमृता की
‘दो खिड़कियाँ’ कहानी जीवन के उन अर्थों के नाम है जो
पेड़ों की शाखों पर पत्तों की मानिंद उगते हैं और खो जाते हैं. एक स्त्री का उसके
परिवेश से आत्मीय लगाव होता है. यहाँ विस्थापन की वेदना है औऱ ताउम्र उन चीजों की
वापसी का इंतज़ार है जो लोप हो गयी हैं. यह कहानी एक स्त्री के रीतते जीवन औऱ
अकेलेपन का एकालाप है.
एक थी अनिता, रंग दा
पत्ता औऱ दिल्ली की गलियां उनके वे उपन्यास है
जहाँ स्त्री चेतना का निरन्तर विकास औऱ प्रेम के चैतन्य सोपान दिखाई देते हैं. एक
थी अनिता की नायिका अनिता उस राह पर चलती है जहाँ कोई रास्ता नज़र नहीं आता परन्तु
कुछ है जो उसे निरन्तर बुलाता है. रंग दा पत्ता में प्रेम की रवानगी है. इस
उपन्यास की स्थापना है कि मुहब्बत से बड़ा ज़ादू इस दुनिया में कोई नहीं है.
ऐसा नहीं है कि अमृता सिर्फ़ औऱ सिर्फ़
प्रेम औऱ स्त्री मन की ही बात करती है समाज, मज़हब और सियासत पर भी वे बैलौंस
लिखती है. उनके ‘यह सच है’ उपन्यास में गढ़ा गया बेनाम किरदार इंसान
के चिंतन का ही प्रतीक है. वह अपने वर्तमान को पहचानने की कोशिश में हज़ारों साल
पीछे जाकर इतिहास की कितनी ही घटनाओँ में खुद को पहचानने का प्रयत्न करता है.
महाभारत के प्रसंगों के माध्यम से इतिहास को वर्तमान में जोड़ने की कोशिश यहाँ
साफ़ झलकती हुई दिखाई पड़ती है. उपन्यास की किरदार पानी पीने के लिए ग्लास उठाती है तो उसे लगता है कि उसने युधिष्ठिर की सदियों पहले दी गई आज्ञा से ही उसने जल का
स्रोत खोज़ा है और मानो उसके लिए भी वहाँ से वैसी ही एक आवाज़ गूँजती है जो कभी नकुल के लिए गूँज़ी
थी कि मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना इस ग्लास का पानी नहीं पीना औऱ इतिहास औऱ
वर्तमान के बीच झूलते हुए वह किरदार फिर यह सोचने लग जाता है कि वह सदियों से अभिशप्त नकुल ही तो है, जो कभी वक्त के सबसे
ज़रूरी सवालों का ज़वाब नहीं दे पाया और जिसे मूर्छित होने का शाप लगा हुआ है. कभी
यह किरदार जुए में हारा हुआ युधिष्ठिर बन बैठता है तो कभी द्रोपदी बन सवाल करता है
कि – युधिष्ठिर जब तुम अपने आपको ही हार चुके थे तो फ़िर मुझे दाव पर लगाने का
तुम्हें क्या अधिकार था. अमृता लिखती है कि इस सवाल के माध्यम से मैं समाज को
बताना चाहती हूँ कि,- जब इंसान अपने आपको दाव पर लगा चुका है, हार चुका है तो समाज
के नाम पर दूसरे इंसानों को मज़हब के नाम पर खुदा की मखलूक को और रियासत के नाम पर
अपने-अपने देश के वर्तमान भविष्य को दाव पर लगाने का उसे क्या अधिकार है? इतिहास और वर्तमान
के बीच ऐसी ही कशमकश हमें कमलेश्वर के उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ में भी दिखाई देती
है.
वस्तुतः उनका समूचा
लेखन इंसान क्या है और इंसान क्या हो सकता है के फ़ासले को जेहनी तौर पर तय करने का हौंसला दिखाता है.
इस सफ़र में जाने कितने तिकोन पत्थर उनके हलफ़ से उतरे हैं. कितने भविष्य हैं जो
उसने वर्तमान से बचाएं हैं और शायद कितने
वर्तमान जिनको वर्तमान से भी बचाया है, की जद्दोजहद साफ दिखाई देती है.
यह बचाव बेहद ज़रूरी है क्योंकि यहाँ हर चेहरे पर नकाब है औऱ यहाँ हर जन्मपत्री
आदम की जन्म की एक झूठी गवाही देती है.
अमृता के लेखन में
जाने कितनी बेरंग चिट्ठियां है, हिज़्र का रूहानी रंग है और हर हर्फ़
इस तरह प्रयुक्त हुआ है मानो अपना सबसे अलग प्रभाव छोड़ रहा हो. वहाँ गूढ़
दार्शनिकता के बज़ाय नीम उदासियाँ हैं जो भावों के पैराहन ओढ़ कर आती हैं.
पाकिस्तान की शायरा सारा शगुफ़्ता की ज़िदगी औऱ शायरी के बारे में लिखती हुई वह कब
खुद शगुफ़्ता बन बैठती है पता ही नहीं चल पाता. सारा का जीवन यातनाओं का चरम है.
उस जीवन में बस दीवारें हैं, गुज़रता हुआ वक्त है औऱ आँखों में
बेमाप समुन्दर. सारा की नज़्में जलते हुए हर्फ़ है जिन्हें पढ़ते हुए दिल
पर फफोले उभर आते हैं और आँख में पानी. इन शब्दों को पढ़ते हुए संवेदनाओं की
उठापठक आपको कई देर मौन के गहरे गह्वर में धकेल सकती है. वह पल-पल समाज,
शौहर और परिवार द्वारा दी गयी यातनाएँ भोगती हुई कहती है कि,
मैं अपने रब का ख़्याल हूँ... और मरी हुई हूँ...मेरे जीवन की रात में दाग
सिर्फ़ चाँद का है. अमृता सारा की फिर से जीने की ख्वाहिश को स्याह (शाब्दिक)
ताकतों के ज़रिए आबाद करती हुई, मन्नतों के इतिहास
में एक पाक मन्नत दर्ज़ करती है, जो इंसान को सिर्फ
इंसान देखने की आकांक्षी है. उसकी नज़र में ‘सारा’
स्वयं एक दुआ है पर अपने हाथों से गिरी हुई नहीं ,
वह इंसान के हाथों से गिरी हुई दुआ थी. वो कहती है सारा एक दुआ थी और
दुआएँ हमेशा सलामत रहती हैं..कभी रूठती नहीं..मरती नहीं.... वाकई ! इतना खूबसूरत
तो कोई खुदा जैसा दोस्त ही लिख सकता है. अमृता की लिखी यह किताब हर्फ़ दर हर्फ़
सांसों का उतार-चढ़ाव है. सारा अमृता के लिए खास है और इसी कारण उसका दर्द भी उसका
अपना है. उस तारे की टूटन को वह अपने भीतर महसूस करती है. “
लोग कहते हैं तो सच ही कहते होंगे कि उन्होंने कई बार टूटे हुए तारे कि
गर्म राख ज़मीन पर गिरते देखी है....मैंने भी उस तारे की गर्म राख अपने आँगन में
बरसती हुई देखी है...जिस तरह औऱ तारों के नाम होते हैं,
उस तरह जो तारा मैंने टूटते देखा ,
उसका भी एक नाम था- सारा शगुफ़्ता...” (एक थी सारा-अमृता
प्रीतम)
सारा की नज़्म कागज से उतरकर जिस्म पर कुछ यूँ सुलगती है....और अमृता खुदा से मिलकर सिसकते हुए उसे सलाम कहती है...
सारा की नज़्म कागज से उतरकर जिस्म पर कुछ यूँ सुलगती है....और अमृता खुदा से मिलकर सिसकते हुए उसे सलाम कहती है...
“अभी औरत ने सिर्फ़ रोना ही सीखा है
अभी पेड़ों ने फ़ूलों की मक्कारी ही सीखी है
अभी किनारों ने सिर्फ़ समुन्दर को लूटना ही सीखा है
औरत अपने आँसुओं से वुजू कर लेती है
मेरे लफ़्ज़ों ने कभी वुजू नहीं किया
और रात खुदा ने मुझे सलाम किया...” (सारा शगुफ़्ता, एक थी सारा से...)
अभी पेड़ों ने फ़ूलों की मक्कारी ही सीखी है
अभी किनारों ने सिर्फ़ समुन्दर को लूटना ही सीखा है
औरत अपने आँसुओं से वुजू कर लेती है
मेरे लफ़्ज़ों ने कभी वुजू नहीं किया
और रात खुदा ने मुझे सलाम किया...” (सारा शगुफ़्ता, एक थी सारा से...)
अमृता की यह दोस्ती और रूहानी अहसास उनकी
रचना एक थी सारा में जीवित है. उनकी हर रचना हर पाठ के साथ एक नयी आलोचना तैयार
करती है. कहानियाँ और कविताएं भाषिक सरंचना से जाने कैसा ज़ादू पैदा करती है कि उन
में डूबा हुआ पाठक इस दुनिया ज़हान के समस्त
प्रसंगों के लिए अपरिचित बन बैठता है. पाठक को हर रचना पाठ के बाद भी
कुँआरी जान पड़ती है. वहाँ खामोशी का बोलता हुआ दायरा है जो आपको अपने आगोश में
लेने के लिए बेताब जान पड़ता है. अमृता अपनी रचनाओं में सदा जीवित बनी रहेंगी, यही
कारण है कि पाठक उनकी कविताओँ में हर बार एक नयी अमृता को पा लेता है, ठीक इन
पंक्तियों की तरह-
मैं तुझे फ़िर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरी कल्पनाओँ की प्रेरणा बन
तेरे कैनवास पर उतरूँगी
या तेरे केनवास पर लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फ़िर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं...(रसीदी टिकट)
एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा था, ''जन्मों की बात मैं नहीं जानती, लेकिन कोई दूसरा जन्म हो तो... इस जन्म में कई बार लगा
कि औरत होना गुनाह है... लेकिन यही गुनाह मैं फिर से करना चाहूँगी, एक शर्त के साथ, कि
खुदा को अगले जन्म में भी, मेरे
हाथ में कलम देनी होगी.”..यही बयान अमृता के लेखन में उतरकर उसे स्त्री के हकूक में खड़ा कर चिरयुवा
रखते हुए कालजयी बना देता है.
___________
विमलेश शर्मा
अजमेर (राजस्थान)
vimlesh27 @gmail.com
vimlesh27
वे साहसी लेखिका थी । कुछ भी नही छिपाया । साहिर और वे एक दूसरे के पर्याय थे । अपने लेखन में वे जादूगरनी थी । अपने जवां दिनो की वह प्रिय लेखिका थी ।विमलेश जी ने उनके साहित्य और जीवन का जीवंत मूल्यांकन किया है ।
जवाब देंहटाएंएक बेहतरीन आलेख।
जवाब देंहटाएंबढ़िया आलेख। अमृता बहुत साहसी और संवेदनशील लेखिका थीं। उनका साहित्य दिल को छू लेता है। विमलेश जी ने उनके साहित्य पर बड़ा सुंदर विश्लेषणात्मक लेख लिखा है।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 31 अगस्त 2019 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
एक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.