कांगड़ा पेंटिग |
12 वीं शती के महाकवि जयदेव
विरचित ‘गीतगोविन्द’ ऐसी कृति है जिसकी अनुकृति का आकर्षण अभी समाप्त नहीं हुआ है.
केवल भारतीय भाषाओँ में इसके २०० से अधिक अनुवाद हुए हैं. हिन्दी के भीष्म पितामह
भारतेंदु ने १८७७ – १८७८ के बीच ‘गीत- गोविन्दानंद’ शीर्षक से इसका अनुवाद किया
था. शब्द और स्वर के इस महाकृति को इस लिए भी जाना जाता है कि इसमें पहली बार राधा
अपने पूरे व्यक्तित्व के साथ उपस्थित होती हैं.
युवा कवि अविनाश मिश्र
ने नव रास नाम से ये जो ९ कविताएँ लिखी हैं, गीतगोविंद से प्रेरित हैं. अनुवाद
नहीं हैं इसलिए समकालीन हैं. प्रेम में श्रृंगार और चाह के साथ यातना और वेदना का भी संग –साथ रहता है. आज
ख़ास आपके लिए.
नव रास
[ जयदेव कृत ‘गीतगोविंद’ से प्रेरित ]
अविनाश मिश्र
ll कृष्ण ll
[ संध्या ]
मैं महत्वाकांक्षा के
अरण्य में था
जब तुम मुझे लेने आईं
आवेगों से भरा हुआ था
तुम्हारा आगमन
सारा संघर्ष तुम्हारा
मेरी बांहों में समा जाने के लिए था
अब देखती हो तुम मुझे
महत्वाकांक्षाओं के संग रासरत
मैं भूल गया हूं तुम्हारा
आना
मैं भूल गया हूं तुम्हें
मैं भूल गया हूं आवास
*
ll राधिका ll
[ निशा ]
मैंने कानों में कभी कुछ नहीं पहना
मैंने नाक में कभी कुछ नहीं पहना
मैंने गले में कभी कुछ नहीं पहना
मैंने कलाइयों में भी कभी कुछ नहीं पहना
और न ही पैरों में
मैंने अदा को
अलंकार से ज्यादा जरूरी माना
अलंकार कलह की वजह थे
और प्रेम परतंत्रता का प्रमाण-पत्र
*
ll सखी ll
[ ऊषा ]
अतिरिक्त
चाहने से
किंचित
भी नहीं मिलता
उसने
चाहा चांद को
और पाया
:
‘विरह
का जलजात जीवन’
कोई
स्त्री पहाड़ नहीं चढ़ सकती
कोई
पुरुष नहीं लिख सकता कविता
तुम रोको
स्त्रियों को पहाड़ चढ़ने से
और पुरुषों
को कविता लिखने से
*
ll कृष्ण ll
[ संध्या ]
चुनौतियों में उत्साह
नहीं है
समादृतों में
बिंबग्राहकता
देखना ही पाना है
बेतरह गर्म हो रहा है भूमंडल
आपदाओं में फंसी है
मनुष्यता
दूतावासों में रिक्त
नियुक्तियां
तवायफें अब भी सेवा में
तत्पर
प्रेम कर सकता है कभी भी
अपमानित
रोजगार कभी भी बाहर
*
ll सखी ll
[ निशा ]
तुझे पाकर भी तुझे भूलता
है वह
तू नहीं हो पाती उसकी तरह
कि याद आए उसे
वह भयभीत है महत्वाकांक्षाओं के भविष्य से
तू अभय दे उसे
उसे आकार दे तू
गीली मिट्टी की तरह
तेरे प्यार के चाक पर घू म
ता हुआ
अब तेरे हाथ में है वह जो
चाहे बना दे
*
ll राधिका ll
[ ऊषा ]
मेरी महत्वाकांक्षाओं में कोई दिलचस्पी नहीं
एक बड़ी
झाड़ू है मेरे पास
इससे मैं
बुहारा करती हूं आस-पास की महत्वाकांक्षाएं
इस
बुहारने में ही मिलती हैं मुझे तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं
इन्हें
न मैं जांचती हूं
न
बुहारती हूं
मैं बस
इन्हें उठाकर रख देती हूं
किसी ऐसे
स्थान पर
रहे जो
स्मृति में
*
ll कृष्ण ll
[ संध्या
]
मैं उजाले का हारा-थका
अंधेरे
में तुम्हारे बगल में लेटकर कहता हूं
कि न
जाने कहां खो दीं
मैंने
अपनी महत्वाकांक्षाएं
तुम
अपने बालों को
मेरे
चेहरे पर गिरा
अपने
होंठों से
बंद करती
हो
मेरा
बोलना
*
ll राधिका ll
[ निशा ]
तुम्हारी
स्मृति बहुत कमजोर हो गई है
मैं
देती हूं तुम्हें तुम्हारी स्मृति
तुम्हारा
स्थान—
जहां
मिलेंगी तुम्हें
तुम्हारी
महत्वाकांक्षाएं
जो न
मेरे लिए अर्थपूर्ण हैं
न अर्थवंचित
लेकिन जिन्हें
मैं बचाती आई हूं
अपनी
बड़ी झाड़ू से
*
ll कृष्ण ll
[ ऊषा ]
सब
नींद में हैं
सब बेफिक्र
हैं
सब
स्वयं के ही दुःख और दर्द से
व्यथित
और विचलित हैं
इस दृश्य में मैं खुद को
इस प्रकार अभिव्यक्त करना चाहता हूं
कि लगे मैं इस ब्रहमांड
का सबसे पीड़ित व्यक्ति हूं
लेकिन तुम यूं होने नहीं
देतीं
उन्हें नहीं पता कि उनकी
जिंदगी में क्या नहीं है
***
_______________________
संदर्भ
: ‘विरह का जलजात जीवन’ महादेवी वर्मा के एक गीत की पंक्ति है.
अविनाश मिश्र
युवा कवि-आलोचक. प्रतिष्ठित प्रकाशन माध्यमों पर रचनाएं प्रकाशित और चर्चित.
पाखी' में सहायक संपादक
कालजयी कृतियाँ निरन्तर नए आयामों में प्रासंगिकता तलाश लेती हैं।तुम्हें और अविनाश को बधाई।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएँ !
जवाब देंहटाएंबेहद सुंदर कविताएँ हैं। शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंबढ़िया विवेचन
जवाब देंहटाएंअद्भुत कविताएं। अविनाश मिश्र की कलम से बिल्कुल आधुनिक सी लगती हुईं।
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारी कविताएँ जिनमें न जाने कितनी अर्थछवियाँ हैं...
जवाब देंहटाएंपहली कविता *संध्या* : का अंश
जवाब देंहटाएंसारा संघर्ष तुम्हारा मेरी बांहों में समा जाने के लिए था/
दूसरी कविता*निशा*: का अंश
"मैंने अदा को
अलंकार से ज्यादा जरूरी माना
अलंकार कलह की वजह थे
और प्रेम परतंत्रता का प्रमाण-पत्र"
तीसरी कविता*उषा*: का अंश
"तुम रोको स्त्रियों को पहाड़ चढ़ने से
और पुरुषों को कविता लिखने से"
चौथी कविता:*संध्या*: का अंश
"चुनौतियों में उत्साह नहीं है"
पाँचवीं कविता *निशा*: का अंश
अब तेरे हाथ में है वह जो चाहे बना दे
छठी कविता*उषा*: का अंश
मेरी महत्वाकांक्षाओं में कोई दिलचस्पी नहीं
.........
मैं बस इन्हें उठाकर रख देती हूं
किसी ऐसे स्थान पर
रहे जो स्मृति में
*
सातवीं कविता*संध्या* का अंश
मैं उजाले का हारा-थका
अंधेरे में तुम्हारे बगल में लेटकर कहता हूं
कि न जाने कहां खो दीं
मैंने अपनी महत्वाकांक्षाएं
आठवीं कविता *निशा*: का अंश
तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं
जो न मेरे लिए अर्थपूर्ण हैं
न अर्थवंचित
नौवीं कविता *उषा* : का अंश
तुम जिनकी जिंदगी में नहीं हो
उन्हें नहीं पता कि उनकी जिंदगी में क्या नहीं है/
जब पोस्ट खास हो तो उसकी टिप्पणी भी अवश्य होनी चाहिए। जयदेव रचित ‘गीतगोविंद’ की तरह साहित्य में बहुतेरे ऐसी बुर्जआ सौंदर्य-बोध से सिक्त कृतियाँ हैं जिनमें रीतिवाद, नवरीतिवाद और नवाधुनिकता का यौनार्षण मौजूद है और मशहूर भी है लेकिन यही वह भावभूमि है जहां कवियों-लेखकों के लेखकीय चरित्र और उसकी प्रतिबद्धता की पहचान होती है। उसके मन में क्या चल रहा है या वह किन मूल्यों के प्रति समर्पित है, यह इन्हीं रचनाओं में देखा-परखा जाता है। आज अविनाश मिश्र जैसे युवा शब्द-चितेरों की कमी नहीं, जो भाषा के जाल में नवरूपवाद का ऐसा भावलोक रच रहे हैं जहां जनजीवन के संघर्ष और द्वंद्व से दूर–दूर तक कोई सरोकार नहीं । इन सुविधाभुक्त लेखकों के समूह में वे सारे शहराती कवि–लेखक शामिल हैं जिनके लिए कविता एक शौक-मौज है, चाहे वह गीत चतुर्वेदी हों या बाबूषा कोहली या फिर शुभम श्री जिन्हें उदय प्रकाश , अशोक वाजपेयी और अज्ञेय की परंपरा प्राप्त है। जीवन से कटी हुई ये कविताएं महफिलों की शोभा बढ़ा सकती है, श्रोता की तालियाँ बटोर सकती हैं पर यहाँ जन का आलोक नहीं, उसका दुख-दर्द नहीं, न उस प्रतिकार का संवरण है। ये कविताएं नव भोग-संस्कृति की फसल है और बिलकुल किताबी है जो नब्बे के बाद की अप-संस्कृति का फल–मूल है। न इनमें ईमानदारी है , न प्रतिबद्ध्त्ता , न साहस, नैतिकता । बस शब्दों का इंद्रियसुख है जिसमें कलाबोध और भावबोध विचार-बोध से बिना संतुलन के कविता को अभिजन संस्कृति का उपभोग्या मात्र और मनोरंजन का हासिल समझती है। प्रस्तुत कविता में युवा (रूपवादी) कवि अविनाश मिश्र ने समय के प्रहरों – उषा, संध्या, निशा के साथ राधा-कृष्ण के मनोगत प्रेम में रास-लीला का जो रूप–वरण किया है उसका ध्येय और श्रेय हमारी क्षणिक उत्तेजना और इंद्रिय को गुदगुदा कर मन को एक जन-विलोमहर्षक भाव से भर देना है जिसमें भूषण और चार्वाक का तत्व-दर्शन तो होगा न कि मार्क्स और बुद्ध का भाव नहीं । ऐसी कविताएं निश्चय ही हमें उस उत्तर-आधुनिकता की ओर ले जाएंगी जहां हमारा भारतीय चित्त और मूल्य कहीं नजर नहीं आएगा जिसने अब तक मनुष्यता को बचाने का अपरिसीम यत्न किया है ।
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