सबद भेद : साहित्य के वधस्थल से : कर्ण सिंह चौहान

पेंटिग :  A perfect murder: Kim Sobat














शिवदान सिंह चौहान प्रगतिशील साहित्य के संस्थापक सदस्य थे. नामवर सिंह ने उनकी जमीन पर अपने प्रभाव का विस्तार किया. कैसे शिवदान सिंह की बेकदरी हुई, कैसे वह धीरे-धीरे परिदृश्य से बाहर हो गए और फिर विस्मृति के शिकार ?

यह कहानी जितनी शिवदान सिंह के पतन की है उससे अधिक अवसरवाद के उत्थान की है. कर्ण सिंह चौहान का आलेख.



साहित्य के वधस्थल से                                

कर्ण सिंह चौहान


(हिंदी साहित्य में जनवादी वर्चस्व के चालीस सालों में सैकड़ों साहित्यिक पत्रिकाएं निकलीं जिनमें हजारों-हजार नए लेखक सामने आए. लेकिन हमारे देखते-देखते इतिहास ने जो कत्लेआम किया यह दुनिया के साहित्य के इतिहास में अभूतपूर्व त्रासदी है. हजारों की संख्या में बंटे इनाम, लिखे आलेख और महत्व उन्हें इस त्रासदी से बचा नहीं पाए. जो दस-बीस बचे हैं, उनके बारे में भी कुछ कहना मुश्किल है. उससे भी अधिक दुख की बात यह है कि इससे बिना सबक  लिए अभी भी बड़ी संख्या में एक जुनून के मारे लोग इतिहास के बूचड़खाने की लाइन की कतार लंबी करते जा रहे हैं. शिवदान सिंह पर लिखी यह संस्मरणात्मक सी टिप्पणी इन्ही बलिदानों पर श्रद्धांजलि स्वरूप है.

प्रारंभिक रचनाओं से ही जाहिर था कि अधिकांश नए लेखक प्रतिभाशाली थे लेकिन प्रतिबद्धताओं जनवादी, लोकवादी, कलावादी, विखंडनवादी और भी कई कई - की आधी-अधूरी समझ के चलते उन्होंने लिखे से ज्यादा अनलिखे की भ्रूण हत्या की, विचारों के आधार पर रचना में कतर-ब्योंत की और एक इकहरे सपाट को कत्लेआम के लिए निहत्था छोड़ा.

जनवाद के नाम पर फिलहाल तक यशस्वी हुए अनेक कवियों ने भी नए लोगों को बरबाद करने में अहम  भूमिक निभाई. मसलन  वे खुद तो जान रहे थे कि व्यक्तित्व, व्यवहार, विचार, रचना में बड़े अंतराल होते हैं व्यक्तित्व कवियाया हुआ, विचार क्रांतिकारी, व्यवहार कुशल और रचना हिंदी कविता परंपरा के अपने राग में पली. पर नया लेखक इन सबको विचार में रिड्‍यूसकर चला और अपना बंटाढार कर बैठा. वह इन अंतरालों को न समझ पाया, न साध पाया.

अभी कुछ दिन पहले एक नामवर आलोचक को लेकर साहित्य में चख-चख मची थी कि उसने वर्तमान सत्ता का निमंत्रण स्वीकार कर अपना जीवन भर का सम्मान गँवा दिया है. ऐसे लोग अपने भोलेपन में यह नहीं समझ पाते कि नामवर होना किसी सिद्धांत, विचारवाद, संगठन या जन से प्रतिबद्धता पर टिका नहीं है, होता तो आज से पचास बरस पहले उसी दिन समाप्त हो गया होता जब रामविलास से लगाकर नेमिचंद जैन और तमाम जनवादियों ने उनके विचलन और भटकावों पर हमले किए थे. सब जानते हैं कि उसके बावजूद हर विरोधी अपनी गोष्ठी, विमोचन, समारोह आदि की अध्यक्षता के लिए, भूमिका के लिए, कृपादृष्टि के लिए उनके दरबार में सजदा करता रहा और उन्हें शीर्ष आलोचक मानता रहा.

उसी समय शिवदान सिंह जैसे समीक्षक भी जीवित थे जो विचार, विचारधारा, पार्टी, साहित्य संगठन, जनता सभी कुछ से प्रतिबद्ध थे और लेखन में भी सक्रिय थे. उनका नोटिस उनके अपने तक नहीं ले रहे थे. शिवदान तो बड़े आलोचक थे, लेकिन इतिहास के कत्लेआम में जो हजारों मारे गए, ऐसे अनंत उदाहरणों को देकर मन क्या खराब करना.

इसलिए जिन चीजों को हमारे अधिकांश साहित्यधर्मी प्रासंगिकता की शर्त मानकर चल रहे हैं, उसके बहुत कारुणिक परिणाम निकले हैं और निकलने वाले हैं.

यह संस्मरणात्मक लेख इन्हीं त्रासदियों की पृष्टभूमि में  शिवदान सिंह चौहान की त्रासदी पर है जिसे कई ड्राफ्ट में लिखा गया जो अन्य संदर्भ में यहाँ-वहाँ छपे. जिसमें ऐसे ही कितने बिंदुओं को, उफनती उत्तेजना को दबा कूलस्वर में छू भर कर छोड़ दिया गया है. संदर्भ उनका है लेकिन समस्या आम है)
शिवदान सिंह चौहान



(एक)

शीर्ष की ये पंक्तियां बाबा नागार्जुन की हैं और बीसवीं सदी के बीच लिखी गई कविता से हैं. उन्नीसवीं सदी में अमेरिका के महान कवि वाल्ट व्हिटमैन ने भी ऐसी ही कुछ बात कही थी जो उनकी "उनके लिए जो विफल रहे " कविता में है :

"जो अपनी आकांक्षाओं में विफल रहे, उनके लिए
अग्रिम पंक्तियों में खेत रहे जो अज्ञातनाम सैनिक, उनके लिए
शांत समर्पित अभियंता - साहसी यात्री, उनके लिए
उपेक्षा में रहे जिनके सुंदर गीत और भव्य चित्र, उनके लिए
मैं एक विजय स्मारक बनाऊंगा
सबसे ऊंचा, किसी विचित्र अग्निशिखा से चमकता
असमय जो बुझ गई. " (चंद्रबली सिंह के अनुवाद से )

कितना साम्य है इन दो महान कवियों की भावाभिव्यक्तियों में. वाल्ट व्हिटमैन के लिए तो बाबा से लेना संभव ही नहीं था क्योंकि वे तो उनके जन्म के भी पहले यह रच चुके थे. बाबा जैसे कवि के लिए भी यह कोई नहीं मान सकता कि उन्होंने इस कविता को पढ़कर अपना मन बनाया होगा.

तो मानना होगा कि यह एक ऐसा स्थाई भाव है जो देश और काल की सीमाओं के पार कवियों को मथता रहा है. यही वह जमीन रही है जिससे आधुनिक काल के साहित्येतिहास में रवीन्द्रनाथ टैगोर और अन्य ने उपेक्षितों का सवाल उठाया और बहुतों ने फिर यशोधरा, उर्मिला, कर्ण, मेघनाथ आदि कितने ही ऐतिहासिक-पौराणिक चरित्रों को उठाया, घीसू-माधव को रचना के केंद्रीय चरित्र बनाया. यही मूलभूत संवेदना और विकसित होकर वर्तमान में समाज के उपेक्षितों के पक्ष में कवि-संवेदना को ले जाती है. यही भाव कविता के- " जलते हुए गांवों के बीच से गुजरने" और "जली हुई औरत के पास सबसे पहले" पहुंचने, या "जिनके स्वभाव के गंगाजल ने युगों-युगों को तारा है/ जिनके कारण यह भारतवर्ष हमारा है"  जैसी कहन पर आधारित साहित्य का एक नया सौंदर्यशास्त्र रचने का प्रेरक रहा है.

यानी कि देश और काल के तात्कालिक तकाजों और निर्णयों से परे इतिहास और मानव संवेदना का एक ऐसा रहस्यमय संसार अभी तक रहा आया है जिसे किसी सत्ता, शक्ति, वैभव, प्रसिद्धि, विजय हुंकारों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता था. यह संवेदना जमीन के अंदर के उस कंपन को सुन सकती थी जो उन धड़कनों से होता है जो किसी भी देश या काल में अनजाने-अनपहचाने ही दफ्न हो गईं. धरती वंध्या नहीं है, न कंकर-पत्थरों का मलबा कोई सर्जना कर सकता है. उसके अंदर पड़े रचना के अंकुर हजारों साल बाद भी धरती की कोख से फूट निकलते हैं.

इसीलिए वाल्ट व्हिटमैन उनको पहचानते हैं और इसीलिए बाबा नागार्जुन केवल उन्हें ही नमन करते  हैं.

शिवदान सिंह चौहान अभी हाल ही में हमारे बीच से गए हैं. बहुत अरसा नहीं हुआ. कि लोगों ने अनुभव करना और कहना शुरू कर दिया है कि इस हिंदी भाषा ने अपनी एक ऐसी प्रखर आलोचनात्मक प्रतिभा की नितांत उपेक्षा की. इस अपराधबोध से उसे कोई मुक्त नहीं कर सकता.

मामला केवल उपेक्षा तक ही सीमित नहीं रहता. उपेक्षा, अकेलेपन, सायास षड़यंत्रों को झेलना और फिर भी लिखते रहना सबके लिए संभव नहीं होता. चौहान तो फिर भी सुना कि अंत तक कुछ न कुछ लिखते रहे. लेकिन जो लिखना सोच कर भी नहीं लिख पाए, वह क्षतिपूर्ति कहां होगी. उनकी कई महत्वपूर्ण पुस्तकों के नए संस्करणों की भूमिका में विष्णु शर्मा जी और मधुरेश ने दिखाया है कि किस प्रकार ऐसा महत्वपूर्ण लेखक अपनी अनुपलब्ध पुस्तकों के पुन:प्रकाशन की उम्मीद तक खो बैठा था. यह हमारी लेखक जमात और प्रकाशन जगत की स्थिति में आया एक आमूल बदलाव है, जिसे चौहान साहब तो समझते ही नहीं थे, आज भी अधिकांश लेखक नहीं समझ पा रहे हैं. वे इसे व्यक्तिगत घटना की तरह देखते हैं या किसी प्रकाशक विशेष के आचरण का प्रमाण मानकर.

जबकि मामला इतना सरल नहीं है. इसमें रोज-रोज ऐसी कितनी ही दुखदायी स्थितियां जुड़ रही हैं और मजे की बात यह है कि इसपर किसी को बहुत अफसोस भी नहीं होता. जो किसी तरफ छपा ले जाते हैं वे बेछपों पर फब्तियां कसते हैं . किताबें धड़ल्ले से छपती हैं. किसी विभाग में थोड़ी सी हैसियत में आया अध्यापक लेखक प्रकाशकों का चहेता बन सेंतमेत में दो-चार पुस्तकें छपा जाता है. किसी मौके की सरकारी जगह पर बैठा अफसर अपनी तो अपनी यार-दोस्तों और चहेतों की भी छपा जाता है. साहित्य संगठनों के अफसरों की प्रकाशकों से सांठगांठ जग-जाहिर हैइधर तो बहुत यार-बास साहित्यिकों ने बाकायदा अपने-अपने गुट बना लिए हैं जो पुस्तक-प्रकाशन से लेकर विज्ञापन और पुरस्कारों के तंत्र क को प्रभावित करते हैं. वहां शिवदान सिंह चौहान जैसी आलोचनात्मक प्रतिभा को यह दिन देखना पड़े, उससे शोचनीय दशा किसी भाषा साहित्य की और क्या हो सकती है. लगता है हिंदी का पूरा तंत्र बटमारों की चपेट में है जहां सब अखबारों, प्रसार माध्यमों, पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशनों में पुराने और नए प्रभुओं का ही बोलबाला है.

आक्रोश में यह और ऐसा ही बहुत कुछ कहा जा सकता है .

सब जानते हैं ऐसा कोई भी आक्रोश अंतत: साहित्यिक सत्तामानों की शक्ति का ही गुणगान करना होगा. चीनी लेखक लू शुन ने कहा था कि बाज जब चिड़िया को धर दबोचता है तो चिड़िया ही चिल्ल-पौं मचाती है, बाज खामोश रहता है. बिल्ली जब चूहे को दबोचती है तो चूहा ही चीखता है, बिल्ली एकदम शांत रहती है. बहुत से लेखक जब अपने विरुद्ध हो रही ज्यादतियों का शोर मचाते हैं तो दूसरे सब खामोश रहते हैं. तो समझ लीजिए कि हम चीख रहे हैं और महानुभाव बहुत सौम्य और शांत हैं तो यह कुछ बाज-चिड़िया, बिल्ली-चूहे जैसा मामला ही होगा.

वाल्ट व्हिटमैन हों या नागार्जुन, रवींद्रनाथ टैगोर हों या मुक्तिबोध या आलोक धन्वा, यह कॄति संवेदना जब बाज की जगह चिड़िया की, बिल्ली की जगह चूहे की पुकार सुनती है तो रचना के न्याय की घोषणा करती है. यह न्याय अब तक होता आया है और किन्हीं कारणों से समकालीन स्थितियों में उपेक्षित रह गए लेखकों को इसका बड़ा भरोसा रहा है. अभी न सही लेकिन कभी न कभी, कहीं न कहीं, कोई न कोई तो होगा जो हमें पढ़ेगा और सराहेगा.

और ऐसा वाकई हुआ भी है. कितने ही लेखक ऐसे हुए जो अपने पद, प्रभाव, संगठन के चलते जरूरत से ज्यादा मूल्य पा गए. ऐसे भी हुए जो महत्वपूर्ण अवदान के बाद भी स्थितियों की अन्-अनुकूलता के कारण उपेक्षित रह गए. दोनों ही स्थितियों में न्याय हुआ, भले ही मरने के बाद हुआ.

लेकिन आगे-आगे यह चल पाएगा इसमें संदेह है क्योंकि जिन आस्थाओं, विश्वासों, रूढ़ियों, मूल्यों, सिद्धांतों के कारण यह संभव होता था उन सबकी नींव हिल रही है. किसी के पास कल हुए तक को देखने की फुरसत नहीं है, बीते इतिहास में जाने की कौन कहे. और फिर आप जो करते हैं या नहीं करते उसके लिए जिम्मेवार आप स्वयं हैं. आपका क्या बनता है और क्या नहीं बनता, इसके जिम्मेवार भी आप ही हैं, कोई दूसरा नहीं. यह तो हो नहीं सकता कि एक तरफ तो आप सिद्धांतों के लिए बलिदानों की बात करें और दूसरी तरफ जब थोड़ा कुछ बलि होने लगे तो आप चिल्लाएं कि उपेक्षा हो रही है. एक तरफ तो आप सत्ता या व्यवस्था के खिलाफ मुहिम चलाएं, लेकिन जब सत्ता या व्यवस्था भी आपकी अनदेखी करे तो चिल्लाएं कि देखो अनदेखी की जा रही है. आप नए बनते परिवेश और परिस्थितियों से आंख बंद कर पुराने खटराग में ही मगन रहें, लेकिन जब यह नया आपको छेककर चला जाए तो आप चिल्लाएं कि देखो-देखो छेका जा रहा है.

कथनी और करनी का, सिद्धांत और व्यवहार का, आस्था और आचरण का ऐसा दोगलापन बहुत दिनों तक चला और काफी हद तक आज भी चल रहा है. लेकिन इधर यह भेद मिट रहा है. 

यानी कहने को तो हम कहते रहे कि "नीड" और "ग्रीड" में पहली ही उत्तम है लेकिन चलते दूसरी पर रहे. आज का युवा इस दोगलेपन से मुक्त हो लालच को जीवन के लिए जरूरी मानकर उसपर चलता है. पूरा समाज पैसे को कोसे और उसी के लिए सारी मारकाट करे, यह बेईमानी इधर के लोग समझने लगे हैं और कहते हैं कि अच्छे जीवन के लिए पैसा कमाना कोई बुरी बात नहीं है . यह भी कि आपके जीवन का स्तर, संभ्रांतता, स्वतंत्रता, सदाशयता, मानवीयता सब आपकी जेब के पैसों के अनुपात में हो गई है.

तो ऐसा नया वातावरण बन रहा है. उसमें अगर आप छेंके जा रहे हैं तो उसका चुनाव आपने किया है, जिम्मेदारी भी आपकी है. आप क्रांति करने निकले हैं तो क्रांति का विरोधी यह पूंजी का समाज आपको हिकारत से देखेगा ही. फिर शिकायत किस बात की और किससे है ? पूंजीवादी तंत्र या उसके नुस्खों पर अमल करते समाज से कि देखो क्रांतिकारियों को हलवा-पूरी नहीं खिला रहा ! या पूंजी पर टिके समाज में अपने लिए सुअवसर बनाते अपने साहित्यिक हमसफरों से कि तुम भी हमारी तरह क्यों नहीं रह जाते ? अरे बाबा जब इस सत्ता और समाज को मिटाने ही चले हो तो या तो इसे मिटा कर खुद आ जाओ सत्ता में या फिर यह तुम्हें मिटा देंगे. तो फिर रोते काहे हो भैय्या ?
यह प्रतिक्रिया होगी किसी की भी इस उपेक्षा के रुदन के बारे में.

लेकिन यह तो गनीमत है कि हमारी भाषा में और उस भाषा के समाज में बदलते हुए भी काफी कुछ पुराना चल रहा है और बदलते-बदलते भी कुछ समय तो लगेगा ही. इसलिए आज भी इस तरह की चर्चाएं हो जाती हैं और काफी लोग समवेदना में जुट जाते हैं. इसलिए यहां अभी पुनर्मूल्यांकन वगैरह की बातें कुछ दिन तो चलेंगी ही. उपेक्षितों के न्याय की बातें भी होंगी और उसमें लानत-मलामत, आवेश की बातें भी होंगी. इन उपेक्षितों के प्रति प्रणाम का जज्बा भी दिखेगा.


नामवर सिंह


(दो)

तो जब चौहान साहब को करीब से जानने वालों ने या उनकी प्रतिभा को पहचानने वालों ने उनकी उपेक्षा का सवाल उठाया तो बहुतों को लगा कि यह सच है. वैसे भी साहित्य की अपनी दुनिया आज इतनी सीमित सी और हाशिए की हो गई है कि अपने किसी बिसरे को स्थापित करने का काम सार्थक लगता है.

ऐसा नहीं है कि अपने समकालीनों में केवल शिवदान जी ही इस उपेक्षा का शिकार हुए हों. और भी कई हुए होंगे जो हमेशा के लिए खो गए. और भी कई हो सकते थे लेकिन साहित्येतर कारणों ने उन्हें एक हद तक बचा लिया. और वह समय भी आने वाला है जब सब हाशिए पर ही पड़े नजर आएंगे. वैसे भी सत्साहित्य के पाठक और प्रशंसक तो पहले भी बहुत नहीं रहे. इधर तो अच्छे-अच्छों की बेकद्री हो रही है. हिंदी के सबसे पापुलर लेखक प्रेमचंद को लेकर ही रोज कोई न कोई बवाल मचा रहता है. कभी कहते हैं कि उनके जन्मस्थान की बेकद्री हो रही है. कभी कहते हैं कि उनकी फलां किताब हटा दी. और अब तो कुछ दलित भी पीछे पड़ गए हैं.

इसलिए बेकदरी से तो कोई परे नहीं है. चौहान कोई मामूली लेखक तो थे नहीं. समकालीन दुनिया के सबसे प्रचलित मार्क्सवादी सिद्धांत से जुड़े थे. कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे. साहित्यिक संगठनों से जुड़े थे. जनता से जुड़े थे. 'प्रभा', 'हंस', 'आलोचना' जैसी मशहूर पत्रिकाओं के संपादक रहे थे. गहन साहित्य समीक्षा की चौदह किताबें लिखी थीं. दुनिया की अन्य भाषाओं में मशहूर तैंतीस किताबों का हिंदी में अनुवाद किया था. आठ किताबों का संपादन किया था. यह कोई छोटा-मोटा काम तो नहीं.

इतने विराट कर्म और इतने विशाल साहित्य भंडार के होते हुए इनके साथ ऐसा हुआ, अफसोस तो होगा ही.

यह अफसोस तब और बढ़ेगा जब हम देखेंगे कि एक कल की छोकरी अरुंधती राय एक उपन्यास लिख रातों-रात छा गई दुनिया के साहित्यिक आसमान में. केरल संदर्भ के कारण शुरू में कुछ कामरेडों ने विरोध भी किया, लेकिन जब हर सत्ता-विरोध के जुलूस में वह शीर्ष पर चलने लगी तो सबने चुपचाप लोहा मान लिया. एक ने लिख मारा एक निम्न मध्यवर्गीय कस्बाई लड़की के चांद को चाहने और उस पर पहुंच जाने की कहानी और बन गया सीरियल और छप गए फटाफट दस संस्करण. सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता का मामला तूल पकड़ा तो एक ने लिख दिया ' कितने पाकिस्तान' और छप गए धड़ाधड़ संस्करण और मिल गया पुरस्कार.

तो ऐसे होता है साहित्य में आजकल. जो होना होता है वह फटाफट हो जाता है. यह और बात है कि उस होने में लेखक को बाजार को समझना होता है, प्रकाशक को आक्रामक प्रचार करना होता है, बहुत सारे अन्य प्रचार-माध्यमों को साधना होता है. यानी उसके होने में पर्दे के पीछे एक लंबी प्रक्रिया चलती है . लेकिन आप हैं कि लिए बैठे हैं लेखन कर्म की एक लंबी-चौड़ी फेहरिश्त . किसके पास उस फेहरिश्त को पढ़ने की फुरसत है. हिंदी का हर तीसरा मास्टर तीन बोरी किताबें लिखे होता है. तो अब क्या उसे ही देखते रहें.

इसलिए यह विराट और विशाल रचनाकर्म से प्रभावित या आतंकित होने का समय नहीं है.

यानी आमतौर पर यह सत्साहित्य की बेकदरी का समय है. चौहान जी की हुई यह यहां चर्चा में है. उनके आसपास के कई की हुई या हो सकती थी. सैकड़ों खेत रहे लोगों का जिक्र तो यहां संभव नहीं उनके परिकर के लोगों में से लें उनमें से ही एक चंद्रबली सिंह हो सकते थे और रामविलास शर्मा हो सकते थे. कहने सुनने में यह चाहे जैसा लगे लेकिन यह एक तथ्य है कि जनवादी लेखक संघ के निर्माण और उसमें चंद्रबली सिंह के 'रिकाल' ने उन्हें विस्मॄति के गर्भ से उठाकर कुछ हद तक समकालीन चर्चाओं में ला दिया. रामविलास शर्मा के साथ यह हो गया होता लेकिन कोई जीवट रही होगी कि उन्होंने साहित्य के इर्दगिर्द के उन तमाम ज्ञानक्षेत्रों में इतना काम कर डाला कि साहित्य में ही सीमित महानुभावों की उनसे जिरह करने की हिम्मत नहीं हुई. वे अपने में एक मठ बन गए और वहां बहुत से श्रद्धालु जुटने लगे. इस तरह ये बचे. लेकिन सुरेंद्र चौधरी या विमल वर्मा जैसे सैकड़ों लोग शुरू में ही ऐसे दबे कि फिर उबर नहीं पाए. और भी कई.

लेकिन शिवदान जी के साथ यह हादसा क्योंकर हुआ. देश की राजनीति के संबंध में अपने समकालीनों में शायद वे सबसे सही और सजग थे. राजनीतिक सकर्मकता में भी वे पार्टी के साथ घनिष्ठ रूप में जुड़े रहे. साहित्य के सैद्धांतिक विश्लेषण में या व्यावहारिक मूल्यांकन में उनके जैसी वस्तुनिष्ठता, सातत्य, पैनापन, संवेदनशीलता, वैज्ञानिकता किसी दूसरे में देखने को नहीं मिलती. यानी कि अभी तक जो मूल तत्व किसी लेखक को महत्वपूर्ण बनाने और बनाए रखने के लिए काफी थे, वे सब उनमें थे. फिर भी उनके साथ यह हादसा हुआ.

औरों की बात तो जाने दीजिए, सातवें दशक का समय था जब हम युवा लोग प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े मुद्दों की पड़ताल कर रहे थे और प्रगतिशील और जनवाद की बहसें तेज थीं. रामविलास जी तो 1953 में प्रगतिशील संगठन से क्या अलग हुए कि उन्होंने फिर उस ओर मुंह किया ही नहीं. लेकिन शिवदान जी तो आखीर तक साहित्यिक संगठन के काम से जुड़े रहे . "आलोचना के मान" पुस्तक के नए संस्करण में उनकी दो डायरियां संकलित हैं. "दिल्ली डायरी" दिल्ली में 1956 में हुए एशियाई लेखक सम्मेलन का विस्तॄत ब्यौरा देती है और वैचारिक संघर्ष के मुद्दों को सामने लाती है जिसमें शिवदान जी सक्रिय थे. "ताशकंद डायरी" उसी क्रम में 1958 में हुए अफ्रीकी एशियाई लेखकों के सम्मेलन के बारे में है. दोनों डायरियों में उनकी दॄष्टि का तीखापन और मूल्यांकन का संतुलन देखने की चीज है.

फिर "सभी रंगत के प्रगतिशीलों" का एक सम्मेलन बुलाया गया बांदा में 1973 में. इसमें बड़ी संख्या में नए लेखक भी आए. शिवदान जी यहां भी बहुत सक्रिय थे. यह जमाना प्रगतिशीलों और जनवादियों के बीच सहीपन की लड़ाई का था और दोनों ही अपनी-अपनी लाइन के पक्ष में संगठन को जीतना चाहते थे. इस सम्मेलन में हमने शिवदान जी को सक्रिय रूप में देखा था. वे बहुत ही गंभीरता से सब कुछ करते और करने में पूरी शालीनता बरतते. लेकिन शायद जमाना बदल चुका था और गंभीरता और शालीनता के मूल्य अब ऐसे बेशकीमती नहीं रह गए थे कि नए लेखकों को अपने पक्ष में करा सकें. नए लेखक चाहते थे जोश, आवेश, तीखापन, कुछ घटनात्मकता, कुछ सनसनीखेज. इसलिए पुराने प्रगतिशीलों की पूरी बिरादरी की उपस्थिति के बावजूद हम लोग सम्मेलन को अपनी दिशा में ले जा सके. अहं के टकराने के अपने प्रारंभिक विरोध के बावजूद धूमिल तक इस मिलिटैंसी के खेमे से आन मिले थे क्योंकि यह उनके मन की बात थी.
हमने देखा था चौहान जी को विक्षुब्ध होते, पराजित होते, मौन होते, निराश होते. उनका पूरा व्यक्तित्व जैसे इस नई परिस्थिति में असंगत सा हो गया हो.

फिर पुराने प्रगतिशील आंदोलन के मूल्यांकन की बहसें हुईं. इन बहसों के स्रोत के रूप में लोग शिवदान जी की "साहित्य की समस्याएं" तथा "प्रगतिवाद" नामक दो पुस्तकें, रामविलास जी की "प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं", हंसराज रहबर की "प्रगतिवाद : पुनर्मूल्यांकन", अमॄतराय की "साहित्य में संयुक्त मोर्चा" के साथ-साथ अनेक प्रगतिशील लेखकों द्वारा समय-समय पर की गई टिप्पणियों को लेते थे. और हालांकि इस पुराने इतिहास के प्रति सभी लोग एक वस्तुपरक विश्लेषण की बात करते थे, लेकिन सच्चाई यह थी कि नए लोग सनसनीखेज अतिवादिता को ही अंदर से पसंद करते. शिवदान जी का विवेचन बहुत संतुलित, तथ्यपरक और तर्काधारित होता. इससे उत्तेजना नहीं मिलती थी.

अमॄतराय या भैरव जैसे लेखकों का आक्रोश कुछ शिकायती सा मालूम पड़ता. लेकिन रामविलास जी किसी भी अनुशासन से मुक्त हो जब अपने तीर चलाते तो पढ़ने वाले को मजा आ जाता. इसलिए ज्यादातर नए लेखक उनके कायल होने लगे. फिर जब वे नई मुक्त अवस्था से कम्युनिस्ट पार्टी के कमिस्सारों को ललकारते तो उसमें लेखकों को साहित्य की अस्मिता का स्वाभिमान नजर आता.

इसलिए पुरानी बहसों में भी शिवदान जी का संतुलन लोगों को रास नहीं आया . शिवदान बहुत ठंडे भाव से चीजों को पेश करते. मसलन प्रगतिशील आंदोलन में प्रेमचंद की भूमिका और उनके लेखन के कायल होने के बावजूद यह चौहान ही कह सकते थे कि प्रेमचंद गांधी से बड़े यथार्थवादी नहीं थे. यह एक गहरी वस्तुपरकता और बेबाक विश्लेषणात्मकता थी. लेकिन नए लेखकों को यह पसंद नहीं था. कोई जब प्रेमचंद के हवाले से कहता कि साहित्य राजनीति के पीछे नहीं उसके आगे चलने वाली मशाल है तो साहित्यिकों को मजा आता. गांधीवाद की शवपरीक्षा होती तो रचनाकार को मजा आता. 'कहना न होगा' की पुनरावॄत्तियों में जब न कुछ को भी रसदार बना कहा जाता तो श्रोताओं को मजा आता.

शिवदान जी यह मजा नहीं दे सकते थे. इसीलिए वे तीनों संगठनों में से किसी में महत्व के नहीं रहे. तीनों में से किसी के मंच पर उनका कोई स्थान नहीं रहा. साहित्य के पुराने और नए विवादों में उनकी कहन कोई सनसनी पैदा न कर पाने की वजह से अप्रासंगिक हो गई. उन्होंने अपने अन्य कई समकालीनों से कोई सबक नहीं लिया. लिया होता तो जान जाते कि कैसे संगठन मात्र का विरोध करने पर भी उनके ये समकालीन तीनों संगठनों में पुजते थे. कैसे सब जगह से उन्हें न्यौता मिलता था. सबमें उनके अपने भक्त थे.


(तीन)

शिवदान बहुत सिद्धांतवादी होकर रहे और नई विकसित विद्याओं से अनजान रहे.

क्या थीं ये नई विद्याएं ? इन्हें बदलते इतिहास ने, बदलते परिवेश ने विकसित किया था. कुछ लोग कहना चाहेंगे कि इन्हें आधुनिकता के बाद विकसित उत्तर-आधुनिकता में बदलते भूमंडल ने विकसित किया था. ये विद्याएं थीं जो किसी भी तरह के इतिहास के अंत की घोषणाएं कर रही थीं, किसी भी तरह के सिद्धांत के अंत की घोषणाएं कर रही थीं, किसी भी तरह के महिमामंडन या महागाथाओं के अंत की घोषणाएं कर रही थीं. सॄष्टि के पीछे कोई सुसंगत तर्क नहीं है जिसे किसी तथाकथित वैज्ञानिकता से समझा समझाया जा सके. कोई ऐसा विचार या विचारधारा नहीं हो सकती जिससे हर चीज का विश्लेषण किया जा सके. केंद्रीभूत, सिलसिलेवार, श्रंखलाबद्ध कुछ नहीं है. खंड-खंड वास्तविकताएं हैं और अपनी आकांक्षाओं को फलीभूत करते जन, गुट या समूह हैं जो भूमंडल के इस चक्र को चला रहे हैं.

बहुत से लोगों को आज बहुत सी बातों पर आश्चर्य होता है. कुछ चीजें उनकी समझ से परे हो गई हैं. मसलन हिंदी में ही शीर्ष पर ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनकी टिप्पणियां अक्सर लेखकों में हास्य-व्यंग्य का विषय बनी रहती हैं. लेकिन फिर भी हर संगठन, हर लेखक अपने सभा-सम्मेलन-विमोचन-विश्लेषण में उन्हें विभूषित कर कॄतकॄत्य होता है. यह कौन सा रहस्यवाद है. कोई खास रहस्यवाद भी नहीं. असल में हमसे जो चीज उनके अजीबोगरीब की आलोचना कराती है वह हममें कहीं सटी चलती आधुनिकता की मूल्यधर्मिता है. यह एक मरती हुई आदत है बस जिसकी स्मॄति दूसरों के संदर्भ में होती है. सब जानते हैं कि हर आदमी जीवन में, व्यवहार में, आचरण में उसे कबका त्याग चुका है. उनके लिए यह अजीबोगरीब ही वास्तविकता है. इसलिए व्यवहार में सब इसके पुरोधाओं को ही प्रणम्य मानते हैं.

इसलिए यह अजीबोगरीबपन, सर्व-निषेध और सतत संशय की आकर्षक मुद्राएं अब रचनात्मकता की पूर्व शर्त सी हो गई हैं.

शिवदान सिंह इसमें पिछड़ गए थे. वे एक पुरानी सैद्धांतिक अड़ पर कायम थे और यह अड़ बदलती दुनिया में लगातार अप्रासंगिक होती जा रही थी. इस अड़ से जन्मी समाजवादी व्यवस्थाएं टूट रही थीं, इस अड़ से साहित्य रचना करने वाले या साहित्य के सिद्धांत बनाने वाले लोग लगातार अर्थहीन होते जा रहे थे. शिवदान भी इन्हीं में थे. वे शायद देख तो रहे थे लेकिन समझ नहीं पा रहे थे कि कोई उनका समकालीन दिन में तीन बार स्थापना बदलने के बाद भी साहित्य समाज से लेकर हर सत्ता का चहेता बना हुआ था. ऐसे लोगों का विरोध भी हर जगह होता था लेकिन फिर भी उनका प्रभामंडल बढ़ता ही जाता था. विरोध जिन कारणों से होता था वह कमजोर होते हठ थे. समर्थन या सम्मान जिन कारणों से होता था वे उभरती नई स्थितियां थीं. शक्तिशाली पुरानी फिजूल होती शक्तियों के पराभव और न्यूनता में भी नई शक्तियों की पहचान में अपनी महारत का कायल मार्क्सवादी ही जब इसे पहचानने में चूक रहा था तो बाकी की बात तो कौन कहे. जो जो लोग साहित्य में सफलता के मान कायम कर रहे थे वे वही थे जो इस अड़ को तिलांजलि दे नए हालातों के राज को एक हद तक या तो समझ चुके थे या उसके अनुकूल आचरण कर रहे थे.

आधुनिकतावाद के मूल्यधर्मी मार्क्सवाद में पगे शिवदान जैसे व्यक्ति के लिए शायद इसे समझना संभव भी नहीं था ठीक उसी तरह जिस तरह समाजवादी व्यवस्थाओं के पराभव को समझना किसी भी तरह के मार्क्सवादियों के लिए संभव नहीं रहा है. वे उसके कारणों में जाने के नाम पर दूसरी लाइन को जिम्मेदार मानते हुए अपने को सही ठहराकर खुश हो रहे होते हैं. दिनों दिन स्पष्ट होता जा रहा है कि आधुनिकता की विचारधाराओं की व्याख्याएं इस आज के समय को समझने में असमर्थ हो रही हैं . लेकिन फिर भी एक अड़ बनी है.

इस अड़ ने हमारे सामने ही कितने ही हादसों को घटित किया है और आने वाले दिनों में बहुत सारे हादसों को जन्म देगी जिससे साहित्य के क्षेत्र में लगातार कारुणिक स्थितियां पैदा होंगी. हम यह जानते हैं कि शिवदान जी की पीढ़ी ने और उसके बाद आई प्रगतिशीलता या जनवाद या नव जनवाद की पीढ़ी ने या साहित्य के प्रतिमान बना चलने वाले और सब ने मान-मूल्यों की जो एक दुनिया बसाई है और साहित्य के सौंदर्यशास्त्र के जो सिद्धांत गढ़े हैं वे तेजी से निरस्त हो रहे हैं . केवल इतना ही नहीं, साहित्य मात्र से प्रतिबद्ध चाहे जिस तरह के भी जनवादी या कलावादी रुझान रहे हों उन सबने अपनी मान-मूल्य आधारित विशिष्ट दुनिया का निर्माण किया है. वह दुनिया रोज लगातार ध्वस्त हो रही है. इसलिए आने वाले दिनों में साहित्यिक ट्रेजिकों की लंबी कतार होगी क्योंकि मीडिया की इस दुनिया में महान से महान हिंदी लेखक की प्रस्तुति भी बहुत मामूली सी कारुणिक होगी.

फिर भी हम स्वयं इसी अपनी साहित्यिक दुनिया का हिस्सा होने के कारण सब कुछ जानते हुए भी छाती पीटने को अभिशप्त होंगे क्योंकि उससे ज्यादा कुछ होना या कर पाना संभव नहीं होगा. दृश्य कुछ महाभारत के स्त्री-पर्व जैसा होगा.

शिवदान जी की ट्रेजेडी सबसे ताजा है  अपूर्णकाम ये ट्रेजेडियां रचनाकारों की वेदना का स्रोत बनेंगी जो वाल्ट व्हिटमैन या नागार्जुन या टैगोर या आलोक धन्वा की रचनाओं में उभरेंगी और उन्हें ज्यादा भावप्रवण, धारदार, मानवीय बनाएंगी.

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कर्ण सिंह चौहान 
स्कूल की शिक्षा दिल्ली के स्कूलों में हुई तथा उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई. वहीं से एम.फिल. और पीएच. डी., दिल्ली विश्वविद्यालय में २०१२ तक अध्यापन किया. बीच के नौ-दस बरस सोफिया वि.वि.बल्गारिया और हांगुक वि.वि.सिओलदक्षिण कोरिया में अतिथि प्रौफैसर के रूप में अध्यापन किया.

लगभग १५ पुस्तकें साहित्य की विधाओं में प्रकाशित हैं जिनमें आलोचना के नए मानसाहित्य के बुनियादी सरोकारप्रगतिवादी आंदोलन का इतिहासएक समीक्षक की डायरीयूरोप में अंतर्यात्राएं (यात्रा)अमेरिका के आर पार (यात्रा)हिमालय नहीं है वितोशा (कविता)यमुना कछार का मन (कहानी) आदि प्रमुख हैं. विदेशी साहित्य से अनुवाद में जार्ज लूकाच की दो पुस्तकेंपाब्लो नेरुदालू शुनकोरियाई कविता-संग्रहआदि प्रमुख  हैं. देश-विदेश की पत्रिकाओं में  लेख प्रकाशित हुए.
karansinghchauhan01@gmail.com

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  1. ट्रेजेडी का संबंध नाट्य विधा से अब तक जाना था . यह नाट्येतर पहला गद्य लेख पढ़ा जो ट्रेजेडी की ऊँचाई को छूता है। अद्भुत।

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  2. भूमिका के रूप में कोष्ठकों में जो कुछ तिरछे अक्षरों में लिखा है, वह बड़ा जानदार है।बाद का आलेख (टिप्पणियाँ?) भी सच्चे मन से लिखा गया है। बधाई।

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18-8-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2438 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  4. यह वधस्थल नहीं, क़ब्रिस्तान है

    हर चीज जो आकर्षित करती है, उसमें उसके वक़्त की ज़रूरत का एक तत्व निश्चित तौर पर निहित होता है । यही तर्क कमोबेस इतिहास में स्थापित होने और ख़ारिज होने पर भी लागू होता है । साहित्य की प्रवृत्तियाँ कभी भी आकाश से नहीं टपकती । इतिहास में जो ख़ारिज होते हैं, उनकी ज़रूरत समाप्त हो गई होती है ।

    इसके अलावा, साहित्य हो या कोई भी मीमांसा का क्षेत्र, हमेशा उनमें एक क्षैतिज (horizontal) विकास होता है और उसी से जुड़ा होता है लंबवत (vertical) विकास भी । जब किसी क्षेत्र में व्यापक तौर पर कोई नई प्रवृत्ति का उभार दिखाई दे तो वही अपने शिखर पुरुषों को भी जन्म देती है । लेकिन कभी भी हर चीज शिखरों पर नहीं जा सकती । सामयिक तौर पर जब किसी तूफ़ान की तरह कोई प्रवृत्ति आती है और आँधी की तरह ही चली जाती है तो उससे कोरा विध्वंस हासिल होता है । यह शिखरों के मार्ग में भी भारी अवरोध का काम करती है । इसे हम सब अपने-अपने अनुभवों से समझ सकते हैं । मीमांसा के क्षेत्र में, जहाँ विषय को एक आंतरिक प्रक्रिया से ग्रहण किया जाता है, उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न अकस्मात् ही, कुछ ख़ास क्षणों में उठता है ।

    फिर आलोचना का काम महज अपने अतीत का उत्खनन करके किसी विश्वकोश में उन्हें सजाने का नहीं हो सकता है । यह एक प्रकार का सार-संग्रहवाद होगा । हेगेल ने कला के विद्वानों पर एक बहुत दिलचस्प टिप्पणी की थी । उन्होंने कहा था कि ये विद्वान कृति के कुछ पक्षों पर प्रकाश डाल सकते हैं, लेकिन पाठक या द्रष्टा उसे कैसे ग्रहण करेंगे, इसे कभी तय नहीं कर सकते । इसी प्रसंग में वे लिखते हैं कि, "For art scholarship ( and this is its defect side ) is capable of resting in an acquaintance with purely external aspects, such as technical and historical details etc ; and of guessing but little, or even knowing absolutely nothing, of the true and real nature of a work of art."

    ज्ञान परंपरा में हर विचार या अवधारणा को उसकी अपनी एक जैविक समग्रता में देखा जा सकता है । वह अपनी ज़रूरत का एक वृत्त तैयार करके अपने संसार की रचना करता है । अतीत से वह अपनी इयत्ता के लिये ही जुड़ता है और भविष्य पर अपने गर्म दबाव को तब तक बनाये रखता है जब तक किसी नये विचार के गर्भ का प्रजनन नहीं हो जाता ; विषय ज्ञान के नये स्तर तक में नहीं चला जाता । इसी समय वह खुद में लौट कर अपना वृत्त पूरा कर लेता है । ऐसे में, इस क्षेत्र के व्यक्तियों और विचारों के अपने दीर्घ-स्थायी वृत्तों में बने रहने के बावजूद उनका विस्मृत या विलुप्त हो जाना बहुत स्वाभाविक है । और हम जिस हिंदी आलोचना के क्षेत्र की बात कर रहे हैं, उसके वृत्त तो जैसे जन्म के बिंदु के साथ ही पूर्ण-काम की गति को पा लेने के लिये अभिशप्त रहे हैं ।

    जहाँ तक शिवदान सिंह चौहान का सवाल है, उन्हें पढ़ते हुए हमेशा ऐसा ही लगा कि वे तो महज एक बहती हुई दरिया की वस्तु की तरह रहे, जैसे अनोखा हिंदी गद्य लिखने वाले अमृत राय भी थे । अपने समय की कुछ जरूरी बातों को सिर्फ छू भर देने वाले, बिना अपनी कोई खास पहचान के दृश्य से हट जाने वाले ।

    ऐसे में अगर कुछ लोगों पर अलग से विचार किया जा सकता है, तो उनमें एक नाम डाक्टर रामविलास शर्मा का हो सकता है । लेकिन वे अपने जीवन काल में ही अपने बिंदु से हट चुके थे । आज रामविलास जी की स्थापनाओं की कोई ज़रूरत नहीं बची है । इस तुलना में, नामवर सिंह साहित्य की अपनी एक आंतरिक ज़रूरत, उसके अंदर के वैचारिक और कलात्मक विमर्श में खुलेपन की ज़रूरत को पेश करते रहे और इसमें अपने सारे उलझावों के कारण ही उन्होंने अपने में एक आकर्षण पैदा कर लिया था । इसके अलावा, सत्ता से गहराई से जुड़े एक ग़ैर-सांस्थानिक व्यक्तित्व के तौर पर उनकी उपस्थिति ने भी उनके लिये बहुत बड़ा स्पेश तैयार कर दिया था । उनका लेखन तो काफी पहले ही बंद हो चुका था, भाषणों की धार भी कुंद हो चुकी थी, अब इन अंतिम दिनों में उन्होंने अपने इस ग़ैर-सांस्थानिकता के पहलू को पूरी तरह से गँवा कर अपने रहस्यमय आकर्षण और संस्थानों से जुड़े ग़ैर-सांस्थानिक व्यक्तित्व की ताक़त को भी खो दिया है । अब वे सत्ता के चाटुकारों की क़तार में दिखाई देने लगे हैं ।

    यही तो है अब तक की हिंदी आलोचना का वह परिदृश्य जिसे कर्ण हिंदी साहित्य का वध-स्थल कह रहे हैं । हमने इसे 'आलोचना का कब्रिस्तान' कहा था । कर्ण के अनुसार यहाँ लोगों का वध हो रहा है और हमारे अनुसार यहाँ मुर्दों का बोलबाला है ।

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  5. Tewari Shiv Kishore एक समय शेक्सपियर भी खारिज थे। जान डन ३०० वर्षों तक खारिज रहे। ढेर सारे साहित्यकार कभी खारिज कभी बहाल रहे हैं। इस आधार पर कोई सिद्धांत बनाना मुश्किल है। कर्ण सिंह जी की बात किसी के स्वाभाविक रूप से "ऐतिहासिक" हो जाने के बारे में थी भी नहीं। टुच्ची गुटबंदी और ओछी राजनीति की ओर उनका इशारा था। अरुण जी का विवेचन सदा विद्वत्तापूर्ण होता है, सिर्फ विषय पर नहीं होता।

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  6. आपने मेरी बात की ही पुष्टि की है कि हिंदी में आलोचना को चरितार्थ करने वाले काम ही नहीं हुए हैं । मुक्तिबोध जैसे इक्के-दुक्के, बल्कि शायद अकेले को छोड़ कर । रामविलास जी ने बहुत पहले ही अपने को विश्वकोशीय काम में लगा दिया था । इसीलिये यहाँ गुटबाज़ी की चर्चा ज्यादा है, मानो गुट न होते तो क्या हो गया होता !

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  7. प्रिय अरुण माहेश्वरी और शिव किशोर जी ने विषय को विस्तारित करते हुए अनेक दार्शनिक, सैद्धांतिक और ऐतिहासिक न्याय के प्रश्न उठा दिए हैं और उनका अपनी तरह से जवाब भी दिया है । वह दिलचस्प है और गंभीर विवेचना की मांग करता है जो यहां संभव नहीं दिखती ।
    थोड़ा और आगे बढ़ने पर मैं अपनी तरह से उनपर अवश्य कुछ कहना चाहूंगा ।
    फिलहाल स्पष्टीकरण के तौर पर कुछ बातें कहनी हैं –
    १. शीर्षक क्या होना चाहिए “वधस्थल” या “कब्रिस्तान” या और कुछ इस पर एक मत होना मुश्किल है । मैंने इसके भूमिक पक्ष को “इतिहास का कत्लेआम” और शिवदान जी वाले हिस्से को “हो न सके जो पूर्णकाम, उनको प्रणाम” नाम दिया था । पत्रिका संपादक ने उसकी जगह जो शीर्षक दिया और उस पर जो चित्र लगाए, वह संपादकीय अनुभव से दिए जिनसे असहमत होने का कोई कारण नहीं है ।
    २. इस आलेख का उद्देश्य एक लंबे दौर की रचनात्मकता (जिसमें रचना के तमाम रूप – काव्य, गद्य आदि – सब आते हैं) के उन पक्षों पर बात करना था जिसके कारण हमारे देखते-देखते वे विस्मृत हुईं । शिवदान के उदाहरण के माध्यम से बात कहने से उसके आलोचना-केंद्रित दिखने का भ्रम हो सकता है, पर वह है नहीं । व्यापक अर्थ में रचना, आलोचना साहित्य की स्वायत्त रचनात्मक विधाएं होते हुए भी एक साहित्यिक परिवृत्त का हिस्सा हैं और परस्पर की तू-तू, मैं-मैं से परे जाकर उनपर बात करेगे तभी एक समग्र चित्र उपस्थित होगा । इसमें एक आसमान पर और दूसरी पाताल में नहीं होती ।
    ३. अरुण जी की दार्शनिक तौर पर प्रवृत्तियों के उभार, हॉरिजांटल और वर्टिकल विकास और शिखरों की बात से सहमति है । लेकिन यहां केंद्र में वे सायास विचलन और गैर-साहित्यिक दबावों की अतिशयता रही जिसने रचनात्मकता की अंतर्निहित शक्ति का बाध किया । यह इसलिए भी जरूरी है कि आज भी लेखन में कुछ लोग उसे प्रासंगिकता और स्थापत्य की रामबाण औषधि मानकर चल रहे हैं ।
    ४. शिवकिशोर जी की इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि इतिहास-न्याय में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं । उनके बारे में अंतिम रूप से कुछ चाहे नहीं भी कहा जा सके पर उसके कुछ मूलभूत अभिधानों को कुछ हद तक अवश्य समझा जा सकता है । उन्हीं की चर्चा यहां है । नामवर, रामविलास,अमृत राय, शिवदान के संदर्भ में कुछ बातों की चर्चा अरुण ने की है, उनसे मेरी पूरी सहमति नहीं है, जो चीजें और हैं उन पर बात होगी । रचनात्मकता के तत्व इस चर्चा का अभिन्न हैं जो आलोचना, रचना में अपनी तरह से प्रकट होते हैं ।

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  8. मैं कुछ बुनियादी, तात्विक अर्थों में रचना और आलोचना को अलग-अलग देखता हूँ । छोटे से छोटे रचनाकार को भी । ये दो लगभग अलग प्रकार के काम है । इसीलिये मैंने पहले ही हेगेल के scholarship of art का उल्लेख किया । और उसकी प्रकृति पर भी ज़ोर डाला । आलोचना विचारक की भूमिका में चरितार्थ होती है, जैसा कि हम पश्चिम में देखते हैं । ब्रेख़्त, सार्त्र, इको आदि जैसे रचनाकार-आलोचकों में और लुकाच, कॉडवेल, बेंजामिन, फ़िशर,फाक्स से लेकर रेमंड विलियम्स, फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल, दरीदां, फ़िशर से लेकर सईद और जेमिसन तक में । इनमें जिजेक एक शुद्ध दार्शनिक है । प्लेटो, अरस्तू, कांट, किर्केगार्द, हेडेगर, हेगेल और मार्क्स के आगे का नया वृत्त ।

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  9. अरुण जी, हालाँकि यह एक स्वतंत्र बहस का विषय है जिस पर हिंदी में चर्चा बहुत समय से टल रही है । इसके कारण रोजाना फालतू की आक्षेपात्मक टिप्पणियां और सतही मूल्य-निर्णय देखने को मिलते हैं । मैंने इस पर इधर-उधर काफी लिखा है और सोचा है । फिलहाल उसपर बात करना मुनासिब नहीं होगा क्योंकि बहस विषय से भटक जायगी । प्रस्ताव है कि इस पर शीघ्र ही बहस हो ।

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