मंगलाचार : संदीप सिंह (कविताएँ)











कश्मीर भारतीय महाद्वीप का सबसे संवेदनशील हिस्सा है. ‘भारत का अटूट हिस्सा’ और ‘निजामें मुस्तफा’ के बीच उसमें लाखों लोग भी रहते हैं. उनमे से बहुतों को दर्दनाक तरीकों  से बाहर निकाल दिया गया जो बचे हैं वह दर्द में जी रहे हैं. यह  जो दर्द है उसकी इबारत कौन लिखेगा ?  

संदीप सिंह की पहचान बौद्धिक-विवेचक, राजनीतिक–सामाजिक एक्टिविस्ट की है. अब पता चला कि वह पन्द्रह वर्षों से कविताएँ लिखते मिटाते आ रहे हैं- ‘यह भी लगता रहा कि कविताएँ अक्सर बिखर जाती हैं. उनकी आतंरिक संगति बन नहीं पाती और अलग-अलग विचारों/बिम्बों का गुलदस्ता बन जाती हैं. सधती नहीं. इसलिए न कहीं भेजा न कभी छपीं. मेरा उनसे रिश्ता भी अजीब है. जब गला चोक होने लगता है तब वे आती हैं. अपने तईं यही लगता है.’




संदीप सिंह  की तीन लम्बी कविताएँ                                        





परवीना आहंगर* के लिए  
परवीन आहंगर


आर आर, 21 राजपूत
गोरखा, 36 कमांडर
बीएसएफ, सीआईएसएफ
टास्क फ़ोर्स, सीआरपीएफ...
और और न जाने
कितने कितने नाम
तुम लेती गयी परवीना,
रसोई में रखी सब्जियों की तरह
स्कूल बस्ते में रखी किताबों की तरह..

एक सांस में
फौजों के इतने नाम तो
नहीं ले सकते मेरे पिता भी
भले ही तीस सालों तक
ठोंकते रहे हैं सैल्यूट..

ये बटालियनें, ये अफसर
जिनके नाम तुम्हारी जबान
और उँगलियों पर
तैरते रहते हैं
क्यों बना दिया गया इन्हें
तुम्हारी जिंदगी का हिस्सा?

तुम पुकारती हो नाम
उन हज़ार चेहरों के
जो गुमनाम कर दिए गए हैं.
वे नाम घाटी की
दीवारों से, दरख्तों से
नदियों से, खेतों से
गलियों से, घरों से
धुंए की तरह उठते हैं
कभी चीख और टीस की तरह
और हमारे दिलों में
फांस की तरह गड़ते हैं...  

तुम कहती हो युद्ध सरदारों से
नौकरी नहीं, पैसा नहीं
हमारे बच्चे वापस दो
हमारे बच्चे वापस दो..

तुम कहती हो युद्ध सरदारों से
ढूंढों, वापस लाओ
हमारे बच्चों को
जहाँ भी तुमने रखा है
जेलों में या कब्रों में..

खाली करो अपनी सारी जेलें
खोदो फिर से उन
आदमखोर कब्रों को
जिनमे कभी दफनाए नहीं मुर्दे..

ढूंढों उन्हें
जो खो गए हैं या
जिन्हें कर दिया गया है लापता,
तुम चीखती हो...

कब से तुम
घूम रही हो उनकी निशानियाँ लेकर
तस्वीर, ताबीज या
कोई खत.
तस्वीरें धुंधली हो रही हैं
खत घिसते जा रहे हैं

लेकिन
परवीना
मैंने देखे हैं वे चेहरे
नक्श-ब-नक्श,
वे खत
लफ्ज़-ब-लफ्ज़
तुम्हारी आँखों में..

मुझे मालूम है
यकीनन
इनसे जरूर निकलेगा
दावानल
जो खाक करेगा
सारे युद्ध सरदारों को एक दिन..
आमीन....


(*परवीना आहंगर, कश्मीर में लापता लोगों के अभिवावकों के संगठन से जुडी हैं. घाटी में रक्षा सेनाओं ने पिछले दो दशक में हजारों नौजवानों को  बिना उनका गुनाह बताये या तो मार दिया है या जेलों में ठूंस रखा है. )



काफ्कालैंड*
इरफान शाह

कहाँ जाओगे शाह?
इरफ़ान शाह कहाँ जाओगे? 
कहाँ तक जा पाओगे? 

हमारे पास तुम्हारी एक तस्वीर है. 
तुम कहीं जा सकते हो क्या?

सारी जगहों के लिए 
जहाँ तुम जा सकते हो 
हमारे पास तुम्हारी एक तस्वीर है.

हम तुम्हारा पीछा करेंगे 
शहर भर की दीवारों पर 
तुम्हारे पोस्टर टांग देंगे.

हम तुम्हारी दुकान में 
कुत्तों और भेड़ियों के साथ 
चेतावनी दिए बगैर आयेंगे 
सूंघ लेंगे सारे पोशीदा राज 
और खतरनाक मंसूबे.

हम तुम्हारे सपनों में आयेंगे 
वहीँ करेंगे तुम्हे गिरफ्तार.

अगर तुम कभी कहीं गए नहीं 
हम भेजेंगे तुम्हें 
जिन्नातों के साथ 
दर्ज करेंगे उनका हल्फिया बयान 
तुम्हारे गुनाहों के सबब.

बस तुम कुबूल कर लो 
ये तुम्हारी तस्वीर है 
हम तुम्हें पहचान देंगे
पहचान को काम देंगे

हम तुम्हारा नाम लोहे से लिखेंगे.

कहाँ जाओगे इरफ़ान शाह?
आख़िर कहाँ तक जा पाओगे? 
हमारे पास तुम्हारी एक तस्वीर है.



(*इरफ़ान शाह सोपोर (कश्मीर) में एक बिजली के सामानों की छोटी सी दुकान चलाते हैं. आम शहरी हैं. एक दिन अचानक उनकी तस्वीर एक कुख्यात आंतकवादी अब्दुल कयूम नाजिर की पहचान के साथ अखबारों में शाया हो गयी. यह राज्य की पुलिस का इश्तेहार था जिसमें इस दुर्दांत आतंकवादी को जिन्दा या मुर्दा पकड़वाने में मदद करने वाले को दस लाख का इनाम घोषित किया गया था. बदहवाश हालत में वे और उनका परिवार/रिश्तेदार हर जगह गुहार लगाते, भागते फिरे. अन्ततः मानवाधिकार आयोग की डांट के बाद पुलिस ने वह इश्तेहार वापस लिया. आप शाह की हालत की कल्पना कर सकते हैं. यह कश्मीर के जादुई यथार्थवाद की एक तस्वीर है.)
(* काफ्कालैंड, मनीषा शेठी की किताब का भी नाम है.)





क्यूँ ऐसा कह रहा हूँ

क्यूँ ऐसा कह रहा हूँ नहीं मालूम. ये मुझे विरसे में मिला है. मेरे दादा जैसे वे सब साधू बन गये और पागलपन में मरे. उन्हें कभी नहीं देखा मैंने. उनके साथ वे चीजें भी चली गयीं जो मेरे पिता नींद में बड़बड़ाते वक़्त याद करते हैं. बताते हैं कि एक बार दुश्मनों ने मेरे पिता को मरा मान खेत में फेंक दिया. वे अकेले उस रास्ते नहीं जाते जबकि न दुश्मन बचे हैं न रास्ता. उनका डर अजीब है. वे सारे पेड़ सूख गये हैं जिन पर मैं उन लड़कों-लड़कियों के साथ खेला करता था जिनसे मैं अब कभी नहीं मिल पाऊंगा. वे महानगरों के धुंधले उजालों में जज्ब हो गये हैं. रास्ते उदास वहीँ पड़े हुए हैं. ऐसा क्यों लगता है कि अब कोई नहीं जाता है उनके साथ चक्करदार दौड में. धड़धड़ाती एक ट्रेन, बहुत मोहक, बहुत क्रूर सब जगह घुसती जा रही है. शक्लें एकदम बदल चुकी हैं. वहाँ कुछ घर हुआ करते थे जिनके वारिस अब न जाने कहाँ रहते हैं. मेरे खेत, इस जंग में खेत रहे. मेरे दोस्त पेड़, अब दरवाजों, चूलों में बदले जा चुके हैं और धरती से बहुत ऊपर शीशे के फ्रेम में कसे जा चुके हैं. मैं बहुत अकेला हूँ उन सबके बिना.... 




बीस बरस पुरानी चप्पलें याद के छींके में लटकती रहती हैं
जो अब गिरा कि तब गिरा जैसा लगता है
उनकी स्मृति तस्वीर का एक शी-शा झूला है
जिसके उस तरफ बैठा करता है एक हसरत भरा नौजवान
हालांकि उसे अरहर की नसों में दौड़ते खून को
देखने की आदत थी
जब अलग किया गया उसे पुरखों की जड़ों से
वो किसानों की कितनी आदतों के साथ फिसल गया उनकी पकड़ से
मोह छूटता है न मिट्टी से न प्यार से.

मैं यहीं पैदा हुआ
यहीं मैंने मिट्टी काटी
यहीं मेरे बच्चे पैदा हुए
मुझे यहीं मरने दो.

रोको.....
धड़धड़ाता एक बुलडोज़र
रौंदता जाता है मेरे घर, खेतों और सपनों को
मेरे खेतों ने अपनी परछाइयाँ पाताल में छुपा दीं
और आ निर्वस्त्र लेट गये लोहे के पहिये के सामने.

इतनी बारीकी से हुआ यह काम
किसी ने नहीं देखा
सिर्फ परछाइयाँ गवाह हैं
लो उनका हल्फिया बयान
कि कब उन्हें निगल गया समय
सभ्यता और इतिहास के बीच से.

मेरे पुरखों का भूत
जुमई चाचा के कब्रिस्तान से निकलकर आता है
और अब भी मुहर करता है इच्छाओं की वसीयत.
ओह! उन्होंने उसे अपना घर छोड़ने का अल्टीमेटम दिया
शर्त थी कि सुबह का सूरज कहीं और देखे
जब मैं लड़ते-लड़ते गिरा युद्धभूमि में
उनके साथ चेतना के बीहड़ों में रेंग गया था
वापसी पर सब मुझसे पूछते हैं
जेल से भागे क्या?
जेल से भागे क्या?.

अपनी ही जगह में छुपना पड़ता है मुझे
जबकि मुझे खबर भी न थी दुश्मनों के नाम की.

कितना श्वेत-श्याम है समय
चलो कहीं से खींच कर लायें इन्द्रधनुष का घोडा
जिसे बाँध रखा है धनी-मानी कुबेरों ने.

पिता कहते हैं क्या करूँ उन चिट्ठियों, न्योतों और पोस्टकार्डों का
जो अब तक इस पते पर मुझे भेजे जाते रहे
घर के पुश्तैनी चूल्हे में आग बाकी है
क्या भर दूं उसका पेट?

ये मेरी मिट्टी है
मैं इसका बाशिंदा हूँ
जी हाँ, श्रीमान
ये मेरे शरीर से उतरी धूल है.

अहगनिया खेत ने कहा
तुमने मुझे ऐसे छोड़ा
जैसे छोड़कर चला जाता है कोई अपना घर
न तुम घर को भूल पाते हो
न घर तुम्हे भूल पाता है.

मेरी दादी जब मरीं
वो बुदबुदा रही थीं उस खेत का नाम
जो उनके लिए दादा जैसा था.

उफ़, तुमको नहीं देखना था ये सब
ये हमारी किस्मत में लिखा था
हमसे छीन ली जानी थीं
हमारी ही निशानियाँ और पहचान.

और फिर तुमने कहा कि कोई इंसान नहीं बचा मेरे भीतर
जबकि मैं जानता हूँ
जो मेरा है वही सच तुम्हारा भी है.

खुद में निर्वासित, सीमाओं से ही बैरंग वापस
आशा जैसा अकेला और अन्धविश्वास जैसा भीरु
जब एक अकेला निकलता है अन्धकार से
अपने साथ वह उन सबको लिए आता है
जो भूखे हैं प्रकाश के.

मैं चाहता हूँ तुझको राहत मिले सौदागर
तू मुस्कुराता है और मौत को हँसने का लाइसेंस मिल जाता है
तेरी सभ्यता काले सांड की तरह बीच रोड में बैठ पागुर करती है
और मजूर का पसीना रास्ता बदल उसे  हाइपोनैट्रीमिया का मरीज बना देता है.

तू सोच
हज़ार हाथ और हज़ार पैर हैं मेरे
पर एक भी नहीं पहचान पाता हूँ
मेरे खेतों पर उग रही है काली काली इमारतें
वे खड़ी हो गयीं हैं नाग के फन की तरह
मेरे बच्चों की राह पर
मेरे दादी की आह पर.
मेरे बेचैनी को एक कैप्सूल में पैक कर
मुझे रख दिया है एक ऐसी जगह
जहाँ मेरे गुस्से की तरह मैं भी कैद हूँ.

इतनी विकट है यह माया
कितना मायावी है जाल
इतनी लच्छेदार है यह भाषा
और ऐसा मादक है भाव
कि अदृश्य है दृश्य
दृश्य है अदृश्य.

मैं चाहता था कि मेरा
और मेरे खेतों का, मेरे गाँव के ऊसरों का ख्याल रखा जाए 
पर यह नहीं हुआ
मेरे दुश्मन
मुझे मेरे सपनों में ही घेर लेते हैं
और क़त्ल कर दी जाती हैं मेरी इच्छाएं
देखते-देखते मेरे ऊपर से
एक अंतहीन सड़क गुजर जाती है
मैं धडकनों की जगह पदचापें सुनने का आदी हो चुका हूँ
हाई स्पीड कारों की चिंचियाती ब्रेक
पीसती है मेरे कान
नस-नस में फ़ैल चुकी है पेट्रोलिया गंध....

वो औरत जो मुझे
अपना बेटा मानती है
जब उसने जाना कि
उसका खेत और उसका बेटा
दोनों अपनी लड़ाई हार चुके हैं
उम्र भर की आस्तिकता के इस मोड पर
सहसा वह नास्तिक हो गयी
और तब मैंने जाना
बाकी सब ने सोच-समझकर
सिर्फ इस औरत ने
जिसे मैं माँ कहता हूँ 
नशे में किया मुझे प्यार.

मैं जब भी अपने खेत से और अपने महबूब से मिलता हूँ
मुझे हर बार लगा कि आखिरी बार मिल रहा हूँ.

जबकि उनके लिए मैं एक विषयहूँ 
वे मुझे दर्ज कर लेना चाहते हैं फाइलों
तस्वीरों और डाकूड्रामे में
जिनकी करेंगे वे चीरफाड़
निकाल लाये जायेंगे मेरे सारे रहस्य
और बाजार करेगा मुझे जिन्दा बार-बार!

हाईड्रा के सिर की तरह
जो बार-बार बन जाता है शरीर
मैं जो काट-काट कर फेंक रहा हूँ अपने अंग
कि सडांध फैले, उमस उठे
पड़े कीडें, हथेलियों में बाम्बियाँ हो सापों की
सभ्यताके इसी गहबर से
मौत के इसी कोहबर से
थूक के इसी नाबदान से
रक्त के इसी पान से
जहाँ रगेद दिया है मेरी आत्मा और इंसानियत को
उठ, उठ भाई उठ. (अपूर्ण)

___________________________


संदीप सिंह
लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं
एम. ए. (हिंदी)एम. फिल./ पीएच. डी. (दर्शन शास्त्र).
जेएनयू  छात्रसंघ के अध्यक्ष  और छात्र संगठन आइसा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं.
sandeep.gullak@gmail.com

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  1. संदीप सिंह की खासियत यही है कि वे जिस काम में भी लगते हैं जूनून की हद तक जाकर लगते हैं।डूब कर और सब कुछ भूल कर! फिर चाहे वह राजनीति हो,प्यार हो,लड़ाई हो,बागवानी हो और अब फ़िल्म समीक्षा और कविता!लेखन में वही जूनून और तीखी धार दिख रही है।अध्यक्ष जी लगे रहो!

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  2. idhar sandeep jaisa likh rahe hain wo chahe gadya ho ya kavita unse ek taajepan ki khushbo aati hai.

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  3. नये तेवर की कवितायें जो आम आदमी के गुस्से का इजहार तो करती ही है साथ में हमे समय के यथार्थ की सही तस्वीर भी दिखाती है .कवि .कवि नही एक्टिविस्ट भी है .संदीप को इस साहस के लिये बधाई..

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  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-07-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2403 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  5. आपको अपने समय के सवालों पर सोचने के लिए और शिद्दत के साथ अहसास कराने वाली कविता ।

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  6. कश्मीर को कविता में सम्बोधित करना निस्संदेह हमारे प्रेतबाधाग्रस्त समय में मुश्किल और खतरनाक कविकर्म है . और इससे बच निकलना सब से आसान . संदीप ने आसान रास्ते का मुंह बंद करने की कोशिश की है . 'मौत के नाबदान' में कीलित कर दी गई कविता को अँगुलियों से थामने का यह साहस हिम्मत बढाता है .

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