सबद भेद : साहित्य का अध्ययन : कर्ण सिंह चौहान

( young Korean dancer Eunhye Jang)













लेखक आलोचक कर्ण सिंह चौहान का  मानना है कि – “किताबें और आलेख वगैरह वक्त के मुकाम पर मैंने लिखे जरूर हैं, लेकिन उनका अपना स्वायत्त जीवन और सुख-दुख हैं, जैसे मेरे. न वे मेरे आधीन हैं, न मैं उनके. और कि उनमें व्यक्त से आज लेखक की सहमति जरूरी नहीं है.” 

यह एक व्याख्यान है, इसमें साहित्य के अध्ययन की रीतियों पर सवाल उठाये गये हैं ? निराला की मशहूर कविता ‘तोड़ती पत्थर’ की पुनर्व्याख्या द्वारा कलाओं को फिर से समझने पर जोर दिया गया है.  



हाउ नाट टु स्टडी लिटरेचर” 
के बरक्स  
साहित्य के अध्ययन की प्रारंभिक बातें               

कर्ण सिंह चौहान



पको सबसे पहले तो यह बताना है कि पिछले अनेक वर्षों से मैंने सभागोष्ठियों में जाना और भाषण देना छोड़ दिया है. भाषण एक स्वतंत्र कला है और उसे न केवल सीखना पड़ता है बल्कि सतत साधे रखने के लिए रियाज करते रहना पड़ता है. और मैं क्योंकि कई साल से इसे विराम दिए हूं इसलिए मुझे डर है कि आज का मेरा यह हस्तक्षेप कोई भाषण न होकर व्यक्तिगत बातचीत नुमा कुछ होगा. इस शिविर के आयोजकों ने मुझे यहां जो बुलाया है तो एक जमाने में एक वक्ता या भाषणकर्ता के रुप में मेरी महारत से परिचित होकर ही बुलाया होगा. विद्वत्ता का वही एकमात्र पैमाना भी है. आपमें से कई लोगों ने भी इसके बारे में सुना होगा या यहां पहले बोलकर गए विद्वानों से ही यह अंदाजा तो लगा ही लिया होगा कि यहां बुलाए जाने की एक जरुरी शर्त वक्तॄत्व कला में प्रवीण होना तो है ही. इसलिए शुरु में ही बता देना जरुरी है कि आपको आज काफी निराशा हाथ लगने वाली है.

अब मूल विषय पर आएं. आयोजकों ने अपने निमंत्रण-पत्र में लिखा है कि मुझे `साहित्य का सामाजिक और सांस्कॄतिक अध्ययन' विषय पर बोलना है. यह आपका और मेरा अतिपरिचित विषय है. इस विषय पर देश-विदेश की भाषाओं में सैकड़ों पुस्तकें होंगी, हजारों लेख पत्र-पत्रिकाओं-पुस्तकों में प्रकाशित हुए होंगे. पिछले कुछ सालों में इस पर हजारों संगोष्ठियां आयोजित की गई होंगी. और भी कितनी ही सामग्री इस विषय पर उपलब्ध होगी.

यह सब होने पर भी आप चाहते हैं कि मैं एक और भाषण इस पर दे दूं. जब इतने सारे भाषणों, प्रकाशित सामग्री से कुछ नहीं हुआ तो मेरे एक बार उस सब को दोहराने से क्या होगा ? जरा और स्पष्ट रूप में अपनी बात समझाते हुए कहूं तो जब हजारों बार इतनी स्पष्टता से समझाने पर भी यह समझ में नहीं आया तो इस एक भाषण में कैसे आ जायगा ?

इसलिए मामला समझने या समझाने का उतना नहीं है. कुछ और है. वह क्या है, इस पर मैं भी फिलहाल बहुत साफ नहीं हूं. इसलिए बहुत सामान्य और बुनियादी बातों से ही शुरु करें.

यानी हम इससे शुरु करें कि यहां जो मैं भाषण देने आया हूं और आप लोग जो सुनने आए हैं, वे कौन हैं. मैं कौन हूं और आप कौन हैं और यहां क्या करने आए हैं ?

क्या मैंने ज्ञान के क्षेत्र में कोई नई खोज कर डाली है कि उसे बांटने यहां चला आया हूं ? या मैं कोई बड़ा ज्ञानी हूं जिसे ज्ञान की पिपासा रखने वाले आप सबने यहां बुला लिया है ? हम दोनों जानते हैं कि यह सच नहीं है.

दरअसल जिस ज्ञान के आदान-प्रदान पर सब टिका है, मुझे तो उसके सर्वमान्य अर्थ पर ही शंका है.

जिसे अक्सर ज्ञान मानकर बहुत ऊंचा दर्जा दिया जाता रहा है वह कोई व्यक्तिगत चीज न होकर एक सार्वजनिक थाती है जो सदियों से एकत्र होता रहा है. वह पुस्तकों में उपलब्ध है, पुस्तकालयों में उपलब्ध है और आजकल कंप्यूटर की छोटी सी चिप में संकलित है. आपको कोई चीज जाननी है तो कंप्यूटर पर टाइप करके वह सब जानकारी मिनटों में उपलब्ध की जा सकती है. आपको जो भी जानकारी या ज्ञान चाहिए वह जितना जरुरी हो वहां से डाउनलोड कर लीजिए और वहीं फाइल में संग्रहीत कर लीजिए. उसे दिमाग में डाउनलोड करने की अब जरुरत नहीं है.

लेकिन अभी तक हम इसी सार्वजनिक जानकारी को दिमाग में डाउनलोड करने का काम करते रहे हैं. बचपन से. स्कूल में पहाड़ा रटाया जाता था और उन गिनतियों को रटने में बहुत श्रम और समय बर्बाद होता था. उसे दिमाग में स्टोर किया जाता था. फिर बाकी तथ्यों और सूचनाओं के दिमागी संग्रह में लोग लगे रहते थे. फिर सिद्धांतों और विश्वासों के संग्रह में लगते थे.

क्यों करते थे यह संग्रह ? क्योंकि अभी तक माना जाता था कि यह ज्ञान है और ज्ञान शक्ति है. यानी जितना ज्यादा ये सब चीजें आपने अपने दिमाग में डाउनलोड की हुई होंगी उतना ही आप ज्ञानी माने जाएंगे और जितना आप ज्ञानी माने जाएंगे उतना ही समाज में आपका आदर-सत्कार होगा . आपके पास उतनी ही शक्ति होगी.

इसी के लिए सब लोग जीवन भर इस डाउनलोड की क्रिया में संलग्न रहते थे और अभी भी रहते हैं. यह मान लिया जाता था और जाता है कि यह जो बाहर से एकत्रित कर दिमाग में डाउनलोडेड सामग्री है वह कोई व्यक्तिगत चीज या ईजाद है. कोई यह सवाल उठाने की हिम्मत नहीं करता था कि डाउनलोड करने की यह पूरी कवायद काफी फिजूल और मूर्खतापूर्ण है. जैसे आज कैलकुलेटर पर बड़ी से बड़ी संख्याओं के जटिल से जटिल जंजालों को हल करने वाले स्कूली बच्चे पुराने स्कूलों की रटंत को क्या कहेंगे ? ज्ञान की साधना या अर्थहीन कवायद ?

इसलिए कहना होगा कि आज कंप्यूटर में एकत्र उपस्थित जानकारी या ज्ञान संसार के सब ज्ञानियों के ज्ञान से करोड़ों गुना अधिक है.

यह तो माना जा सकता है कि एक ऐसा जमाना भी रहा है मानव सभ्यता के इतिहास में जहां भाषा के उन्नत रूप  नहीं हैं, हमारे जैसी प्रकाशन की सुविधा नहीं है, जानकारी को कहीं और संचित कर रखने का सुभीता नहीं है. इसलिए यही एकमात्र विकल्प रहा कि जो भी जानकारी हो उसे दिमाग में ही रख लिया जाय. इसीलिए साहित्य के दृश्य और श्रव्य दो ही भेद हुए, लिखित नहीं. बाद में इसी जानकारी का फायदा उठाने के लिए उसे ज्ञान का दर्जा दे दिया.

लेकिन आज दिमाग को इन फालतू चीजों से पाटने की कोई जरूरत नहीं है कि हम सारी जिंदगी उसे सिर में भरे घूमते रहें. आज तो कंप्यूटर पर भी बेकार फाइलें डिलीट करते चलने का चलन है.

इसलिए आज ज्ञान की पिपासा में किसी ज्ञानी के पास जाने की जरुरत नहीं है. आपको जिस भी चीज की जानकारी चाहिए या ज्ञान चाहिए वह स्वयं आपके पास उपलब्ध है. यह जो व्यक्तिगत ज्ञान का धंधा अभी भी धड़ल्ले से चल रहा है या फलफूल रहा है तो उसके कोई संगत कारण नहीं हैं बल्कि स्वार्थगत कारण हैं .

ऐसे फिजूल धंधे क्यों चलते रहते हैं !

इसे व्यावहारिक उदाहरण से समझना होगा. मसलन दुनिया की बड़ी कंपनियां विज्ञान की नई शोधों के आधार पर अपनी उत्पादित मशीनरी में इसलिए परिवर्तन नहीं करतीं क्योंकि पुरानी मशीनों को फेंककर नई लगाने में उनके मुनाफों पर आघात होता है. इसलिए वे पुराने को ही चलाए चलते हैं. अगर नए आविष्कारों को खुली छूट मिल जाय तो वे दुनिया की भौतिक स्थितियों को तेजी से बदलने और प्राकृतिक संसाधनों की बचत को सुनिश्चित कर सकते हैं. ठीक यही मामला ज्ञान को लेकर भी है. वहां भी पुराने तरीके चल रहे हैं और सबकी (आपकी और हमारी) रोजी-रोटी चल रही है. आप इस शिविर में आते हैं और आपके कारण मैं इस शिविर में आता हूं और मेरे जैसे कितने आते हैं. इसलिए हम इस ढर्रे को बदलने नहीं देना चाहते.

केवल यही नहीं, इसे अबूझ बनाए रखना भी हमारे हित में है. जैसे आम-फहम वनस्पतियों से बनने वाली  दवाओं के नाम इतने जटिल होते हैं कि कोई कुछ समझ ही न पाय, जैसे अदालतों की भाषा और धाराएं होती हैं कि बिना वकीलों के काम ही न चले. ऐसे ही साहित्य की आलोचना या शास्त्र का मामला है. ऐसे घनघोर शब्दों का, देशी-विदेशी सिद्धांतों का प्रयोग करो कि सब दंग रह जायं और  स्वयं को अज्ञानी मान सब चुपचाप मान लें.

इसलिए यह स्पष्ट करना जरूरी है कि मैं कोई ऐसा ज्ञानी-ध्यानी नहीं हूं जिसने किसी अघोरी साधना से कोई नया ज्ञान का खजाना खोज लिया हो. मेरे पास साहित्य या समाज या सिद्धांतों के बारे में जो भी जानकारियां हैं वे उसी सार्वजनिक स्रोत से डाउनलोड की गई हैं (पुस्तकों, पत्रिकाओं, कंप्यूटर वगैरह से), जहां से कोई भी उसे ले सकता है.

इसलिए मैं यहां किसी ज्ञान का संदेश देने नहीं आया हूं .

आप भी यहां किसी ज्ञान का विस्फोट देखने या उसे अर्जित करने नहीं आए हैं. जैसा मैंने पहले ही कहा कि इस विषय पर सैकड़ों किताबें हैं, हजारों लेख हैं और हजारों गोष्ठियां हो चुकी हैं. अगर आपके मन में विषय को लेकर कोई वास्तविक जिज्ञासा होती तो आप कोशिश करके वहां से उसे शांत कर सकते थे.
लेकिन मैंने देखा है कि जिन विषयों पर हम आज से पच्चीस बरस पहले बहस करते थे उन पर आज भी कर रहे हैं. जो विश्लेषण और निष्कर्ष हमने आज से पच्चीस बरस पहले दिए थे, आज भी वही दे रहे हैं. जो प्रश्न हम तब उठाते थे आज भी वही उठा रहे हैं. जो उत्तर हम तब देते थे आज भी वही दे रहे हैं.

यानी हमारे न तो कोई विषय हैं, न प्रश्न. हमें न तो कोई उत्तर पाने हैं और न कोई हल. यह मात्र एक शगल है. ऊबे हुए लोगों का टाइमपास. न इससे अधिक न इससे कम. ज्यादातर गोष्ठियों में यही चल रहा है. शिविर तो फिर भी कुछ व्यावहारिकता लिए हैं कि नौकरी में पदोन्नति में मदद करते हैं और भाषण देने वालों का भी बायोडाटा बढ़ता है.

यह कहकर मैं इस अवसर की गरिमा को नष्ट नहीं करना चाहता. न अपनी और आपकी उपस्थिति की महिमा को ही नष्ट करना चाहता हूं. बस इतना ही चाहता हूं कि आप किसी मिथ्या की चपेट में न रहकर सहज स्वस्थ रहें. तमाम पाखंडों से मुक्त होकर ही हम एक-दूसरे से सहज बातचीत कर सकते हैं जैसे दो मनुष्य रूपी जीवधारियों को करनी चाहिए.

तो हम सब लोग बहुत सरल व्यावहारिक कारणों से यहां आए हैं. यानी इस बैठक के आयोजन के लिए ये सरल व्यावहारिक चीजें कारणभूत रही हैं. आयोजकों ने विश्वविद्यालय और विभाग की गरिमा को बढ़ाने के लिए और उसमें अपनी सकर्मकता सिद्ध करने के लिए किसी संस्था से फंड की व्यवस्था की होगी. वे इस आयोजन की सफलता से प्रेरित हैं. मैं मित्र आयोजकों की पत रखने के साथ बतकही की सुखकामना और सेंतमेंत में कुछ धनोपार्जन हो जाने से या अधिक हुआ तो अपने किसी सिद्धांत का प्रसार करने. आप लोगों के लिए तो मैंने सुना है इधर पदोन्नति के लिए इन शिविरों में आना आवश्यक कर दिया गया है. इस तरह इन इतने मामूली से कारणों से हम यहां मिले हैं. जब मिले हैं तो मिथ्या विश्वासों और आडंबर को छोड़ कुछ बातचीत क्यों न कर ली जाय ?

सबसे पहली बात तो यह कहनी है कि अगर हम लोग वाकई साहित्य या साहित्य से जुड़ी चीजों को समझना चाहते हैं तो हमें दिमाग में पहले से भरे बहुत से कूडे-कबाड़ से मुक्त होना होगा. साहित्य को लेकर बहुत सी मान्यताएं, विश्वास, सिद्धांत हमने मन में बिठा रखे हैं. उसी के आधार पर साहित्य को देखते हैं . देखते कम हैं, अंदर की मान्यताओं की पुष्टि ज्यादा करते हैं.

अगर ऐसा कोई सिद्धांत या मत या वाद या विश्वास आपने साहित्य को लेकर बना लिया है और उसे मन में बिठा लिया है तो चाहे जितना भी अच्छे पाठक या विश्लेषक या आलोचक आप हों साहित्य के, आप साहित्य को नहीं समझ सकते. मान्यताओं का यह सेंसर अनजाने ही आपसे कतर-ब्योंत कराता रहता है. आप अपने की ही पुष्टि कर रहे होते हैं. ये विश्वास, मान्यताएं, सिद्धांत और विचार आपके व्यक्तित्व के रूप में स्थानांतरित हो जाते हैं. ऐसा होने का अर्थ ही है किसी भी संभावना का अंत . वह जो है उसके अलावा कोई चीज सही या संगत नहीं हो सकती.

और अंतत: ये विश्वास और सिद्धांत अंधविश्वासों का रूप धारण कर जाते हैं. अंधविश्वासी व्यक्ति प्रकृति से असहिष्णु, हिंसक और हत्यारा बन जाता है. उसके विश्वासों, सिद्धांतों से अलग या विरोधी शत्रु श्रेणी में आ जाते हैं और शत्रु के प्रति युद्ध में कुछ भी जायज है. यानी पूंजीवाद के विचार में अंधा व्यक्ति मार्क्सवादी की हत्या कर सकता है और एक मार्क्सवादी पूंजीवादी की. ऐसा करने में न कोई झिझक होगी, न करणीय-अकरणीय के प्रश्न.

इस विश्वासी को अंधा क्यों कहा. क्योंकि फिर न वह कुछ देखता है, न सुनता है, न सोचता है. उसका विश्वास ही देखने, सुनने और सोचने को अपदस्थ कर देता है. यह कट्टरता साहित्य में ही हो सो बात नहीं. यह धर्म की भी हो सकती है, जाति की भी, भाषा और संस्कॄति या देश की भी. एक बार यह कट्टरता हावी हो गई तो समझो किसी भी रचनात्मकता का, नएपन का, जिज्ञासा का अंत हो गया.

कैसे जानें कि यह व्यक्ति कट्टर है ? अधिकांश में तो हम जानते हैं. जब हम किसी व्यक्ति को सुनने जाते हैं तो जानते हैं कि वह क्या कहेगा. इसमें कोई रहस्य नहीं है. हम जानते हैं. किसी लेखक की पुस्तक पढ़ते हैं तो जानते हैं कि उसमें क्या होगा. कई बार कई वक्ता या लेखक हमारे प्रिय हो जाते हैं तो मानना चाहिए कि उसके विश्वास धीरे-धीरे हमारे विश्वास बनते जा रहे हैं. इससे धीरे-धीरे पूर्वग्रह बनने लगेंगे और दूसरों की बातें कम पसंद आने लगेंगी. खुले मन से सुनना और पढ़ना कम होने लगेगा. यही विश्वासों और अंधविश्वासों की शुरुआत है.

सवाल यह है कि किसी भी चीज को देखने, सुनने, पढ़ने में आपको आनंद आने की पहली शर्त तो उसका अप्रत्याशित होना ही होना चाहिए. यदि पहले से ही मालूम है कि क्या देखना, सुनना या पढ़ना है तो इसमें क्या आकर्षण ? कितना ही महान कोई क्यों न हो, लेकिन यदि पहले से मालूम है कि क्या कहेगा तो आकर्षण नहीं होगा. लेकिन हम हैं कि देखे हुए को ही बार-बार देखे जा रहे हैं, हजार बार सुने हुए को ही बार-बार सुन रहे हैं, हजार बार पढ़े हुए को ही बार-बार पढ़ रहे हैं. हजारों साल से रामलीला देखते चले आने वाले देश में यह एकदम स्वाभाविक लगता हो तो आश्चर्य नहीं.

दरअसल ऐसी स्थिति में दृष्टा और दृश्य, वक्ता और श्रोता, लेखक और पाठक दोनों ही रचनात्मकता से हीन ऊबे हुए लोग हैं. यह स्थिति बाकी ज्ञान और विज्ञानों में क्या गुल खिलाती है यह तो अलग बात है लेकिन साहित्य में इसका होना तो सांघातिक है.

इसलिए मनप्राण पर अधिकार जमा चुके विश्वासों, विचारों, मान्यताओं से मुक्त होना जरूरी है. तभी सहज, स्वाभाविक, प्राकृतिक स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है. यह साहित्य रचना में प्रवेश का सबसे सही रूप है.

इसलिए यहां जो भी कहा जा रहा है, वह न तो किसी विश्वास पर आधारित है, न अंधविश्वास पर. न सिद्धांत पर, न मूल्य पर. उसमें प्रमाण के तौर पर या पुष्टि के तौर पर किसी लेखक के उद्धरण भी नहीं दिए जा रहे कि आप उनकी मुहर लगने पर यहां कही बातों को आंख बंद कर मान लें. जो भी कहा जा रहा है केवल अपने प्रमाण पर ही. और बात को सहारा देने के लिए इसके कहने वाले की भी टेक इसके साथ नहीं है जो उन्हें गिरने से बचा सके. ये बातें बस अपनी टेक के सहारे ही खड़ी होंगी.

अगर कहे को अपने बल पर खड़े रहना है और किसी की बैसाखी नहीं लगानी है तो जरुरी है कि बुनियाद से एक-एक चीज को उठाया जाय. जिस भी चीज को खोलना हो पर्त-दर-पर्त खोला जाय कि कहन में किसी हाथ की सफाई की गुंजाइश न रहे.

इसके लिए एक उदाहरण लें. अभी कुछ दिन पहले टी वी के एक चैनल पर हिंदी को लेकर बहस हो रही थी. हिंदी वाले थे, अंग्रेजी वाले थे, संस्कॄत वाले थे. हिंदी वाले गदगदायमान थे और लगभग हिंसक थे कि देखो हिंदी दुनिया में कैसे बाजी मार रही है. अंग्रेजी वाले गदगदायमान थे और लगभग हिंसक थे कि देखो अंग्रेजी दुनिया - देश में भी कैसे बाजी मार रही है. संस्कॄत वाले तो शाश्वत गदगद हैं.

अब जरा देखें इसकी सच्चाई. यहां कोई विश्लेषण नहीं, बल्कि अपने-अपने स्वार्थों का खेल था. इसमें सब सिद्धांत शामिल थे जनतावादी, ज्ञानवादी, शाश्वतवादी, भूमंडलवादी और सब वादी. नहीं था तो स्थिति का सहज सच्चा बयान नहीं था. सबके अपने सिद्धांत थे और स्वार्थ थे जो सच्चाई को देखने में बाधा थे.

भाषा की वास्तविकता क्या है यहां ? हिंदी वालों की बड़ी संख्या है इसलिए स्वार्थों के लिए सब उसे रिझा रहे हैं. इससे कई बार लगता है कि सब हिंदीमय हो रहा है. क्या यही वास्तविकता है ? कैसे जानें ? विशेषज्ञों से ही पूछें ? कौनसे विशेषज्ञों से ? जो अभी लड़ रहे थे और इस मसले पर आम आदमी से भी ज्यादा भ्रांत थे ?

पूछना ही है तो उस सबसे निचले स्तर पर खड़े आम देहाती से पूछें कि अपनी राष्ट्रभाषा के बारे में उसके क्या विचार हैं.

हमने पूछा कि अगर उसके सामने छूट हो कि वह अपनी संतान को हिंदी या अंग्रेजी के स्कूल में पढ़ा सकता है तो वह किसमें पढ़ाना पसंद करेगा ? इसके जवाब में उसके मन में कोई दुविधा नहीं है, न दोगलापन है. वह जीवन को देखता है और बनते भविष्य के नक्शे को और समझता है कि उसकी संतानों के लिए अंग्रेजी सही रहेगी. इस पर हिंदी वाला चीखेगा कि यह तो वक्ती दबाव है. लेकिन यह सब तर्क दोगलेपन से आएंगे जहां वह हिंदी का डंका बजाएगा लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाएगा.

ऐसे ही विश्व में हिंदी का सवाल. सरकारी आदान-प्रदान के चलते और कुछ इस प्रचार के चलते कि भारत की भाषा हिंदी है दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई हो रही है तो हिंदी वाले विश्व विजय का डंका बजाने लगते हैं. क्या यह कोई सच्चाई है ? सच्चाई तो वह है जब भारत के विश्वविद्यालय में कोई अध्यापक हिंदी की कक्षा में पहली बार जाता है और बुझे चेहरे वाले छात्रों से इस देशप्रेम या भाषाप्रेम का कारण पूछता है और जवाब मिलता है कि क्योंकि मन के विषय में नंबर कम होने से दाखिला नहीं मिला इसलिए मन मारकर हिंदी लेनी पड़ी है. ऐसा होता है अधिकांश में यह हिंदी प्रेम.

लेकिन हम सिद्धांतों से, स्वार्थों से सब देखते हैं कि वस्तुस्थिति दिखाई ही नहीं पड़ती.इसलिए जरुरी है कि इन पूर्वाग्रहों से मुक्त हो साहित्य का अध्ययन किया जाय. यह किसी भी सामाजिक या सांस्कॄतिक अध्ययन की पूर्वशर्त है.

और ऐसा करने का अर्थ है कि हम चीजों को किसी चश्मे से नहीं, वास्तविक रूप में देखने लगते हैं. ऐसा करना काफी मनोहारी है लेकिन खतरनाक भी है क्योंकि इसमें सब चीजें तमाम तरह के आवरणों, भ्रांतियों से मुक्त हो असल रूप में होती हैं. यहां कोई छोटा-बड़ा, पूर्व-निर्धारित नहीं हो सकता. जो होगा अपने बल-बूते पर होगा. कोई महान कवि अपनी कविता को बचाने नहीं आएगा, न तथाकथित महान कविता किसी कवि को बचा पाएगी. जो है वह सामने होगा बिना किसी सुरक्षा कवच के.

इसके लिए यह सही होगा कि हम हिंदी के एक महान कवि की महान कविता को विश्लेषण के लिए लें. कवि हैं सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और उनकी मशहूर कविता है `तोड़ती पत्थर' .

इसे लेने का विशेष कारण है क्योंकि एक तरह से निराला अपने बाद की कविता और बाद के कवि व्यक्तित्व के लिए बीज स्वरुप हैं. इस मायने में यह अध्ययन प्रातिनिधिक हो सकता है. हम सब कवि निराला और उनकी इस कविता पर पर्याप्त श्रद्धा रखे आए हैं. ऐसी भावुक स्थिति में वास्तविक विश्लेषण की परीक्षा और भी जरुरी है. वह कठिन भी है.
हमारा उद्देश्य कविता की पूरी व्याख्या करना नहीं है, बल्कि विश्लेषण के आधार की तरफ इशारा करना मात्र है . फिर भी आपकी सुविधा के लिए पूरी कविता इस प्रकार हैः

तोड़ती पत्‍थर
वह तोड़ती पत्‍थर.
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्‍थर.


कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्‍वीकार,
श्‍याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय,कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार.


चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रुप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्‍यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गयीं,
प्राय: हुई दुपहर:
वह तोड़ती पत्‍थर.


देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्‍नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोयी नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह कांपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्‍यों कहा-
मैं तोड़ती पत्‍थर !


कोई भी बड़ा कवि अपने व्यक्तित्व से और बड़ी कविता अपने संरचना विधान से पाठक पर सम्मोहन क्रिया का उपयोग करते हैं. उस सम्मोहन से बाहर आ उसे सहज हो देख पाना कठिन है. लेकिन उसके सम्मोहन में बंधे भक्ति भाव से कीर्तन करते रहना कवि और कविता दोनों का ही अपमान है. आज तक हिंदी साहित्य इस सम्मोहन से बाहर नहीं आ पाया है. इसलिए इन कविताओं के गिर्द बना कोहरा छंट नहीं पाता. यहां हमारे उद्देश्य में उसकी भाषा संरचना का विश्लेषण शुमार नहीं है जबकि उसपर काफी कुछ कहा जा सकता है. वह मुक्त छंद में है, जो छंदशास्त्र के बहुत से अनुशासनों से उसे बचा लेते हैं. मसलन महाकवि प्रसाद की महत्वाकांक्षी रचना “कामायनी” के पहले बंध में ही आल्हा छंद का विचलन साफ दिखाई पड़ता है जब हम यह पढ़ते हैं –

“हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांव
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह .“

‘छांव’ या ‘छांह’ में  ‘प्रवाह’ की तुक और पूर्व पद ‘शीतल’ और ‘प्रलय’ के प्रयोग खटकते जरूर हैं, लेकिन उसे हम वैसे ही अनदेखा करते रहते हैं जैसे संगीत में कुमार गंधर्व की गायकी पर क्लासिक कमैंट्‍स को. कविता का विधिवत विश्लेषण करने पर और भी न जाने कितने झोल उजागर होंगे.

पहले ही कहा कि संपूर्ण विश्लेषण यहां संभव नहीं है क्योंकि कोई भी बड़ी कविता एक चुनौती की तरह है जिस पर पूरा ग्रंथ  लिखो तो भी बातें छूट जाएंगी. खैर.

कविता के पहले बं की तीन पंक्तियों में ही एक `वह' है, एक `मैं' है और इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ने की क्रिया है. `वह' एक सामान्य मजदूर स्त्री है जो सड़क पर पत्थर तोड़ रही है . `मैं' एक दर्शक है जो काम में लीन उस स्त्री को देखता है. कमकर स्त्री के बारे में जो भी जानकारी मिलती है या जो भी उसके गतिचित्र या भावचित्र कविता में उभरते हैं वे सब इस दर्शक कवि के द्वारा ही हैं. यानी कि दर्शक कवि के मन पर बने बिंब हैं जो उसकी भावनाओं और विचार-सरणियों से संलिप्त आए हैं.

कविता में केवल इतना भर नहीं है कि एक मजदूर स्त्री पत्थर तोड़ने का काम कर रही है. इसके अलावा भी बहुत कुछ है जो वही देख सकता है जिसके पास तेज देखने वाली नजर हो, मर्मभेदी निगाह हो. और मामला केवल देखने तक ही सीमित नहीं है, बीच-बीच में कुछ टिप्पणियां भी हैं जो बिना खास विचार के संभव नहीं हैं. कुछ प्रतिक्रियाएं भी हैं जो कवि की मन:स्थिति, भावस्थिति और विचारस्थिति को ही दर्शाते हैं.

इसलिए कविता की व्याख्या करने से पहले यह जानना जरुरी है कि यह दृश्य और दर्शक कौन हैं. दृश्य के बारे में कोई बहुत उलझन नहीं है. उसमें सड़क पर पत्थर तोड़ने वाली एक गरीब स्त्री है, पत्थर तोड़ने की इस प्रक्रिया में होने वाली कर्म-श्रंखला है और वह आम रास्ता है जो कवि के अनुसार इलाहाबाद को जाता है. इलाहाबाद से सटा ही रहा होगा तभी तो वहां से शहर की अट्टालिकाएं दिख रही हैं.

इस आम दृश्य में देखने वाला कवि बहुत से रचनात्मक चित्र जोड़ता है जो व्यक्ति, भाव और विचार की श्रेणी में आते हैं. इनकी वजह से कविता में अनेक नए पेंच उपस्थित हो गए हैं जिन्हें ठीक से समझने के लिए इस देखने वाले कवि को जानना जरुरी है.

आखिर यह कवि कौन है ? व्यक्ति-विशेष है या हिंदी कवि का प्रातिनिधिहै ? या दोनों ही ?

पहली बात तो यह साफ है कि यह कवि कमकर नहीं है. वह कमकर की स्थिति से अलग, ऊपर और प्रेक्षक है जिसके पास देखने की पैनी नजर है. पढ़ालिखा होगा तभी तो अच्छी भाषा में सब कह पा रहा है. फुरसत में होगा तभी तो देखता घूम रहा है और दिखते को स्मृति में संजोए अप्रस्तुत विधान से सजा पा रहा है.

`वह' और `मैं' का यह विभेद किस सामाजिक और सांस्कॄतिक स्थिति और परिदृश्य को रेखांकित करता है ?

कमकर स्त्री के नरक से निकल पढ़-लिखने का सुभीता पाया व्यक्ति कुछ घूमने-फिरने की और अनुभव करने की सुविधा पा गया. कुछ शहरी भी हो गया और नए विचारों से परिचित भी. अब इस देखे हुए को अपने विचार और भावों का नमक-मिर्च लगाकर पाठक को परोस रहा है.

इस कविता से जुड़ी प्रगतिशीलता को थोड़ी देर के लिए दरकिनार कर इस कविता के बारे में बेलाग होकर सोचें तो मालूम होगा कि जो विषय यहां चुना गया है और जिस तरह विभिन्न कोणों से दृश्यों को मन के कैमरे में बंद कर फिल्माया गया है, वह आज की उपभोक्ता संस्कॄति में भी बहुत बिकने वाला माल है. आज जो ये टी. वी. चैनल अधिकतर और फटाक से इन दृश्यों के पास पहुंच जाते हैं तो इसीलिए कि यह आकर्षक हैं .
कमकर मजदूर ही नहीं स्त्री दृश्य में है इसलिए गाहे-बगाहे उसका श्याम तन, सुघर कंपन, भर बंधा यौवन भी दिख जाता है जो इस आकर्षण को और बढ़ा देता है. इस तरह सौंदर्यशास्त्र का सौंदर्य पक्ष पूरा हुआ. और उसके बाद कवि ने `लांग व्यू' से दृश्य में शहर की अट्टालिका को भी ले लिया और उसपर नजर टिकी दिखा गुरु हथौड़ा भी चलवा दिया. इससे वर्ग-संघर्ष का प्रतिफलन संपन्न होकर प्रगतिशील विचार और प्रतिबद्धता संपन्न हुए. इससे कवि को तो क्रांतिकारी सुख मिला ही बाद में पाठक और आलोचक को भी मिला.

यह सब कवि की कृपा से संपन्न हुआ. अब यह जानने की परवाह किसे है कि वह कमकर स्त्री असल में उस दौरान क्या सोच रही थी.

इसे कहते हैं किसी को वस्तु में बदल देना और उसका मनमर्जी इस्तेमाल कर लेना. यह इस्तेमाल आपके व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए हो सकता है, समाज के लिए हो सकता है, विचारधारा के लिए हो सकता है. इससे क्या फर्क पड़ता है !
इस्तेमाल तो इस्तेमाल है.
आज आप एक तरह से करेंगे तो कल दूसरा दूसरी तरह से. लेकिन जब आप अपने सिद्धांत के लिए इस्तेमाल करते हैं तो सही है, लेकिन जब विज्ञापन वाला अपने सिद्धांत के लिए इस्तेमाल करे तो आप गाली देंगे. सवाल यह है कि इस इस्तेमाल से अलग हटकर अगर यथार्थ के ईमानदार बयान पर ही भरोसा किया होता तो क्या यह कम प्रेरक होता ! शायद स्थिति की विडंबना के कारण और मर्मस्पर्शी होता.

आज तक निराला की यह कविता तरह-तरह से इस्तेमाल की जाती रही है और की जाती रहेगी क्योंकि स्वयं कवि ने इसकी शुरुआत की थी.

इससे भी बड़ा सवाल है इस या इस तरह की कविताओं की दुखदाई स्थितियों का प्रिय और पापुलर हो जाना. जितना जीवन के दुखदाई पक्ष को कविता प्रस्तुत करेगी उतनी ही वह कालजयी होकर पाठकों के मनप्राण पर राज करेगी. तो क्या यह मान लिया जाय कि हम `सैडिस्ट' हो गए हैं जो दूसरों के दुख में ही आनंद लेते हैं. अगर हम इन दुखदायी स्थितियों से मुक्त होने को अपना और समाज का लक्ष्य मानते तो इन्हें मिटे देखना चाहते. इन स्थितियों से वितॄष्णा और छुटकारा पाना या दिलाना चाहते. उसका मतलब होगा उनको दिखाने वाली कविता से भी छुटकारा.

लेकिन हम तो ऐसी स्थितियों को ही पसंद करने लगे हैं. उन स्थितियों पर टिकी कविता को ही अमर बनाए दे रहे हैं. उसका मजा ले रहे हैं. यानी जितनी जो स्थिति दुखदायी होगी, जुगुप्सु होगी उतना ही हम उसकी तरफ खिंचेंगे, उतना ही वह मजा देगी.

क्योकि ये स्थितियां मिट गईं तो जीवन में रह क्या जायगा ? सुख ? सुख भला सौंदर्य की सृष्टि कैसे कर सकता है ? इसलिए सबके स्वार्थ दुखदायी से जुड़ गए हैं . क्या कवि, क्या राजनेता, क्या कोई और नियंता. ये मिट गईं तो हमें कौन पूछेगा ?

जैसे राजनेता के वर्चस्व के लिए जरुरी है कि इस देश की जनता निर्धन रहे, दुखियारी रहे, निरक्षर रहे. इनसे वह मुक्त हो गई तो समझो जनता के नाम पर चलाई जा रही सब राजनीति और तंत्र भरभराकर गिर पड़ेंगे. इसी तरह कविता की रचनात्मकता के लिए भी जरुरी है कि दुखदायी स्थितियों का तानाबाना बना रहे. पत्थर कूटती मजदूरन हो और पैनी नजर वाला कवि हो और क्रांतिकारी विचार हो जिसे देख सब तालियां बजाएं और दशकों तक आपके वर्णन की महानता के गुण गाएं.

चीजों के इन सामाजिक, सांस्कृतिक पहलुओं को बेलाग तरह से आपके सामने रखने और आपके विश्वासों को झकझोर कर आपको कष्ट देने के लिए आप मुझे क्षमा करेंगे. लेकिन साहित्य के सामाजिक और सांस्कृतिक अध्ययन के लिए इस व्यापक और गहन परिप्रेक्ष्य से टकराना जरूरी होता है . कहे हुए को गाते चले जाने से कोई विमर्श समृद्ध नहीं हो सकता .

इसलिए आपसे इतनी अपेक्षा तो होगी ही कि आप गहरे जमे साहित्यिक विश्वासों पर चोट के कारण उत्पन्न टीस लेकर यहां से जाने की बजाय तमाम चीजों पर नए सिरे से सोचना शुरू करेंगे और साहित्य के अध्ययन में नई रचनात्मकता से प्रविष्ट होंगे.
(यह विश्वविद्यालय शिविर में दिए एक भाषण का संक्षिप्त रूप है जिसमें साहित्य को पढ़ने के लिए कुछ जरूरी बातों का संकेत है.)
________

कर्ण सिंह चौहान 

स्कूल की शिक्षा दिल्ली के स्कूलों में हुई तथा उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई. वहीं से एम.फिल. और पीएच. डी., दिल्ली विश्वविद्यालय में २०१२ तक अध्यापन किया. बीच के नौ-दस बरस सोफिया वि.वि., बल्गारिया और हांगुक वि.वि., सिओल, दक्षिण कोरिया में अतिथि प्रौफैसर के रूप में अध्यापन किया.

लगभग १५ पुस्तकें साहित्य की विधाओं में प्रकाशित हैं जिनमें आलोचना के नए मान, साहित्य के बुनियादी सरोकार, प्रगतिवादी आंदोलन का इतिहास, एक समीक्षक की डायरी, यूरोप में अंतर्यात्राएं (यात्रा), अमेरिका के आर पार (यात्रा), हिमालय नहीं है वितोशा (कविता), यमुना कछार का मन (कहानी) आदि प्रमुख हैं. विदेशी साहित्य से अनुवाद में जार्ज लूकाच की दो पुस्तकें, पाब्लो नेरुदा, लू शुन, कोरियाई कविता-संग्रह आदि प्रमुख  हैं. देश-विदेश की पत्रिकाओं में  लेख प्रकाशित हुए.
karansinghchauhan01@gmail.com

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  1. निराला की कविता < " तोडती पत्थर " का पुनर्मूल्यांकन बहुत ही सतही और हास्यास्पद लग रहा है. अपने classics की आत्मा को विकृत कर कोई अपनी विस्मृत की जाती छबि को नहीं बचा सकता. उसके लिए सिर्फ पश्चाताप की ही मुद्रा अपनाई जा सकती है जैसा कि इस विश्लेषण से लक्षित है . हिंदी का कोई सजग पाठक इसे शयद ही स्वीकार कर पाए .आगे खुदा हाफिज !

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  2. एकबात और / जो हमने लिखा है वह हम से कभी स्वायत्व नहीं है/ क्योंकि हमने उस में अपने जीवन का सर्वोत्तम देने की कोशिश की है . और न उससे लेखक स्वायत्व हो सकता है क्योंकि हमने उसमें प्रतिबिम्बन के सिद्धांत के अनुसार वस्तुजगत की पुनर्रचना की है. ऐसा कहना सिर्फ एक ऐसा छल है जिस से हम अपने विचारों को बदलने का कवच बना लेते है. इधर साहित्य को चिंतन और विचार से दूर ले जाने की प्रतिक्रियावादी कोशिश हो रही है. यहएक सुन्योजित कोशिश है. इससे वैचारिक संघर्ष और तेज होगा.

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  3. मान्यवर, पहले भी कह चुका हूं, गाली और श्राप देने के अलावा आपके पास बचा ही क्या है ! सो जारी रखिए । इनका जवाब नहीं दिया जाता ।

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  4. लेखक का कद कितना भी ऊँचा क्यों न हो उसकी रचना के नए व तार्किक विश्लेषण को धैर्य से सुना जाना चाहिए । मुझे डॉ चौहान का यह वक्तव्य तार्किक लगा ।

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  5. कविता की व्याख्या और गहराई की मांग रखती है।

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  6. ब्रज रतन जी, कविता की व्याख्या यहां नहीं है, यह संकेत करना उद्देश्य है कि समीक्षा के लिए तमाम दबावों, पूर्वाग्रहों से मुक्त होना जरूरी है, अन्यथा पिष्टपेषण, दुहराव के अलावा कुछ नहीं होगा । उससे जितनी आत्मतुष्टि हो जाय समीक्षा के रचना पक्ष में कोई योगदान शायद ही हो पाय ।

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  7. कर्ण सिंह चौहान की बातों को समझने के लिए जरूरी है कि जिनके दिमाग में कूड़ा-करकट भरा हो उसे पहले साफ कर लें। दिक्कत यह है कि कि जिनके दिमाग में गड्ढा होता है कूड़ा-करकट भरता ही जाता है। साठ वाले में जितना कूड़ा-करकट होगा, अस्सी वाले में जाहिर है कि उसका दोगुना या चारगुना होगा। कर्ण सिंह चौहान ‘तोड़ती पत्थर’ के बहाने किसी भी कविता को देखने की एक भिन्न दृष्टि दे रहे हैं, वे यह नहीं कह रहे हैं कि निराला छोटे कवि हैं या उन्हें कवि-कर्म नहीं आता है या उनकी यह कविता महाबकवास है। वे तो इस कविता के एक-एक पेंच को सिर्फ वस्तुनिष्ट ढंग से खोल रहे हैं। बता रहे हैं कि किसी कविता को इस तरह भी देख सकते हैं। पुरानी से पुरानी कविता को एक आलोचक नये ढंग से देखता है। बल इस बात पर है। सिर्फ कवि ही नया नहीं करता है, आलोचक भी नया करता है। कर्ण सिंह चौहान इस कविता पर कोई अंतिम निर्णय नहीं दे रहे हैं। इसी कविता को जब मैं देखता हूं तो हिन्दी की बहुत मजबूत कविता के रूप् में देखता हूं। हां, विचारधारा के पहाड़ के रूप में नहीं देखता, न बस इंकिलाब हुआ ही हुआ जैसी हड़बड़ी के साथ देखता हूं। एक बड़ा लेखक अपनी रचना में बहुत कुछ झूठ भी मिलाता है, जो देखता है, उसका कोण बदल देता है या उसमें कुछ और चीजें डाल देता है, जाहिर है कि एक बड़े सच के उद्घाटा के लिए यह सब करना पड़ता है। जैसे प्रेमचंद छः-सात साल के बच्चे के हाथ में मिठाई की जगह चिमटा पकड़ा देते हैं। तमाम कविताओं में जो है उसके साथ जो होना चाहिए वह भी टांक देते हैं। कर्ण सिंह चौहान का बल सिर्फ लकीर का फकीर न होने पर है। एक लेखक या आलोचक अपनी हर कृति में नया करता है। चौहान जी, विचारधारा को नदी के तट पर पहुंचने के बाद नाव को पकड़कर बैठ जाने की बेवकूफी की तरह न लेने पर जोर देते हैं। उन लोगों का कुछ नहीं हो सकता है जो चलायमान हैं और विचारधारा के दुराग्रह की वजह से उस नाव को ही अपनी अंतिम यात्रा का सामान बना देना चाहते हैं। अंत में इतना ही कि साहित्य के लोकतंत्र में किसी भी तानाषाही के लिए कोई जगह नहीं है, चाहे वह किसी महान विचारधारा की ही क्यों न हो।

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  8. डाल पकड़ के लटके महानों को नए सिरे से चीजों को देखने की प्रस्तावना कभी नहीं पचती।

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  9. मान्यवर , जवाब तब दिया जाता है जब सवाल का हल आता हो ? हिंदी समीक्षा के इस "अंधे युग " में जो कहा जा रहा है उसी से संतोष करके दिन गुजार दिए जायेंगे / यह कहना आसान है कि कुछ बातों का जवाब नहीं दिया जाता / जिस से लोग भ्रमित होते रहें. मान्यवर , मेरे कथन में एक भी शब्द अलोकतांत्रिक नहीं है . अगर यह भी गाली है तो आपका कथन कोन से कोश से सुभाषित सिद्ध होता है. नए के नाम पर कई बार उन मूल बातों को विस्मृत भी किया जाता है जो सामाजिक गतिकी से जुडी होती है. बहस को रोकने का यह भी एक तरीका है कि प्रतिवाद को गाली कह दिया जाये.

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  10. लाख टके की बात। "वह तोड़ती पत्थर" का चुनाव भी सही किया। पर बात को परिणति तक पहुँचाने में आलस कर गए। संकेत के बजाय स्पष्ट निरूपण हम-से साधारण पाठकों के लिए अधिक रुचिकर होता।

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  11. शिव किशोर जी, आप सही कह रहे हैं कि संकेत से बात नहीं बनती, विश्लेषण पूरा होना चाहिए । यह एक भाषण का अंश है जिसमें कविता का जिक्र संकेत के लिए ही आया क्योंकि विषय कुछ और था । बड़ी कविताओं का विश्लेषण ठीक से कभी हुआ ही नहीं, श्रद्धा-सुमन ही चढ़ाए जाते रहे । विश्लेषण तो होंगे भले ही श्रद्धालुओं की भावनाओं को ठेस लगे और संगठित निंदा प्रस्ताव पारित हों ।

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  12. मैंने डा. कर्ण सिंह चौहान के व्याख्यान गौर से पढ़ा है। पूरा का पूरा व्याख्यान एक मुक्तिकामी लेखक का बिल्कुल एक गैर जिम्मेदाराना और बचकाना वक्तव्य है जो हमें हमारी आंख पर पट्टी बांधकर विचारों के धुंध के बीचोबीच चौराहे पर खड़ा कर देना चाहता है और कहता है कि जाओ, अब तुम्हें जहां जाना है। साहित्य के “सामाजिक और सांस्कृतिक अध्ययन” पर चर्चा करते हुए डा. कर्ण ने जिन बंधनों की बात की है और जिससे मुक्ति का संदेश देना चाहते हैं, वह इतना अधूरा, इतना संक्षिप्त, इतना वाचाल और इतना विरोधीभासी है कि व्याख्यान को पढ़-सुनकर आदमी किसी अंजाम पर नहीं पहुंच सकता। हमारे कुछ सवाल है डा. कर्ण से - पहला यह कि अगर ज्ञान की साधना अर्थहीन कवायद है तो फिर स्कूल से महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं और गहन प्रतियोगी परीक्षाओं का क्या तुक है ? कंप्यूटर-चिप्स, कलकुलेटर वगैरह वैज्ञानिक उपकरण तो हैं ही । 2. धंधा तो ज्ञान का ही होता है, अज्ञान का नहीं हो सकता। आप भी यहां पर ज्ञान का ही धंधा चला रहे हैं, क्यों ? 3 . एक तरफ तो व्याख्यान में आप विश्वास, मान्यताएं, सिद्धांत और विचार को ताक पर रखते हैं, दूसरी और निराला के कविता ‘पत्थर तोड़ती’ की चर्चा में आप उन्हीं समाजशास्त्रीय स्थूल मनोस्थिति और भाव-स्थिति को लाते हैं जिससे आपको व्याख्यान में परहेज है या कहें, जिसके विरोध पर आपकी यह बहस टिकी है। आपने यह भी नहीं बताया कि आपके मतानुसार नई विवेचना में कौन से तत्व या विचार शामिल होने चाहिए । यह कहां तक सही है ? 4. अगर आप इतने अभद्र है भाषा की वास्तविकता पर बात करते हुए तो, सबसे पहले आप स्वयं से और अपने घर- परिवार के बच्चों की भाषा की पढ़ाई-लिखाई से बात शुरू करते हुए हिन्दी की बात शुरू करें तो हमें पढ़ने-सुनने में जरूर अच्छा लगेगा। दूसरों को उपदेश देना बहुत आसान है।
    इस व्याख्यान का सारांश यही है कि व्याख्यान में मुक्तिकामी लेखक की बात नहीं, केवल बेबात और भड़ास है जो पढ़ने और सुनने में तो मनोरंजन के तौर पर तो अच्छी लगती है पर हमें कहीं नहीं ले जाती है। हर आदमी अपने कपड़े के नीचे नंगा होता है , इसका यह मतलब थोड़े ही है कि हम निर्वस्त्र हो जाएँ ! विषय चाहे कोई भी हो , `साहित्य का सामाजिक और सांस्कॄतिक अध्ययन' हो या अन्य ही कोई वैचारिक बात क्यों न हो, हम नई बात किसी बात से आगे जाकर कहते है, उसमें कोई नया मोड़ (ट्विस्ट) देते हैं, वह भी संदर्भगत होकर और सोदाहरण, तब जाकर ठहरेगी वरना वह शब्दों और भावों में अराजक होगी, बात से ‘वन की वात’ बनकर रह जाएगी जैसे कि यह व्याख्यान है जिसका न कोई ओर-छोर है और न कोई निष्कर्ष, ठीक आज के संगीत की तरह – उ ला ला उ ला ला , पर यह क्या बला है किसी को पता नहीं।

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  13. मान्यवर , यह कहकर आप फिर भ्रमित कर रहे है कि , " बडी कविताओं का विश्लेषण ठीक से हुआ ही नहीं " तो अब आप 70 के आसपास होंगे अबतक यह काम करके आपको दिखाना चाहिए था. और जिन्होंने यह काम ईमानदारी और श्रम से किया है उनका ससम्मान उल्लेख करना चाहिए. मै केवल एक उदाहरण सेअपनी बात को पुष्ट करना चाहूंगा / हमारे समय के महान और मनीषी आलोचक डॉ ० रामविलास शर्मा ने बखूबी यह काम किया है . प्रमाणके लिए उनकी तीन पुस्तकें देख सकते है / 1- परम्परा का मूल्याङ्कन , 2- निराला की साहित्य साधना ( 2खंड) और 3- नई कविता और अस्तित्ववाद / कोई कह सकता है इसके अलावा और किसी का नाम बताएं! मेरा कहना है कि जैसे कविता लिखने वाला हर व्यक्ति कवि नहीं होता / कवि हर समय विरल होते है. ठीक वैसे ही जैसे- तैसे आलोचना लिखने वाला हर कोई आलोचक नहीं होता. वेभी कविओं की तरह ही वरल होते है. मझे अफ़सोस है कि स्वयं को लोक प्रिय बनाने के लिए हमअपने बहुत बड़े आलोचकों का नाम तक लेना नहीं चाहते / उनसेमतभेद हो सकते है. पर उनजैसा काम तो हम करके दिखाएँ / बड़ा बनने के लिए चीख-पुकार नहींसिर्फ एक लम्बी रेखा खींचनी होती है. बेहतर हो हम इस तरह अपनी समृद्ध परम्परा का असम्मान न कर स्वयं असम्मानित न हों /

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  14. एकबातऔर , मैंने आज तक किसी बड़े लेखक को यह कहते नहीं सुना कि उनकी पुस्तकों में व्यक्त विचारों से वे सहमत हों जरुरी नहीं. और हर चीज को नए सिरे से देखने की इतनी हडबड़ी क्यों. यह नया क्या है ? हर चीज बेहतर ही हो क्या अरुरी है? नयेपन की होड़ में हम उस सामाजिक गतिकिको भी विस्मृत करते है जो रूपांतरण को बल देतीहै और जीवन की गहनता से दूर लेजाती है. साहित्य के निर्णय बहुमत सेनहींहोते.खास तौर पर fb तो कतई नहीं. यहाँ चीजों को गंभीरता से लेने वाले विरल होते है. बल्किf FB की आभासी चर्चा हमें आत्ममुग्ध बनाती है/

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  15. कल्बे कबीर12 जुल॰ 2016, 8:05:00 am

    यह नया कर्ण सिंह चौहान है
    अपने को ध्वस्त करता हुआ नया होता हुआ नये युग से लोहा लेता हुआ
    कुछ लोगों को तक़लीफ़ है कि यह 70 या 80 वाला कर्ण सिंह नहीं है

    लेकिन हमारे लिए यह कर्ण सिंह मूल्यवान है
    यह अब सच्ची बात कर रहा है बड़ी बात जो खुद को तोड़ कर ही प्राप्त होती है
    अभी रास्ते में हूँ विस्तार से कभी कहूँगा

    कर्ण सिंह चौहान भविष्य के आलोचक हैं ।

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  16. Vijendra जी ने जिस बयान के मुतल्लिक कहा है कि किसी बड़े लेखक से कभी नहीं सुना, उसकी हिमायत में फ़ूको ने लिखा है। कविताओं को समझने की जो पद्धति श्री चौहान ने प्रस्तावित की है उसके बीज डेरिडा और डीकंस्स्ट्रक्शन की विचारधारा में देखे जा सकते हैं। इससे यह न समझा जाय कि मैं श्री चौहान की मौलिक सोच पर संदेह कर रहा हूँ। केवल यह कहना अभिप्रेत है कि " न भूतो न भविष्यति" जैसी कोई बात उनके आलेख/भाषण में नहीं है।

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  17. फूको और दरीदा की बाबत तो जगदीश्वर या सुधीश बता सकते हैं, मैं उतना विदग्ध नहीं । जो बात कही हैं वे अपनी भाषा और अपनी दुनिया से हैं ।
    सर्वहारा की सैद्धांतिकी के बाद उभर कर आई नई अस्मिताएं – पिछड़े, नारी, दलित, आदिवासी, अपंग, मानवेतर प्राणीजगत और प्रकृति और आगे और भी - लगातार वेद-पुराण से लेकर आज तक के अधिकांश महिमामंडन को चुनौती दे रही हैं । इसमें किसी का साबुत बचे रहना संभव नहीं है । गांधी और प्रेमचंद का प्रतिमा-भंजन तक इसमें हुआ है । बाकी सब का भी पुनः-अध्ययन होना ही है । इससे पुराने और अभी हाल में बने श्रद्धा-विश्वासी लोगों का कष्ट रोज-रोज बढ़ता ही जाता है । मैंने तो अभी कुछ कहा ही कहां है !
    हो सकता है कुछ लोग पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों से इस जन्म में शुरू से ही सिद्धत्व को लेकर आते हों, हमें वह सौभाग्य नहीं मिला । गांव-घर के कर्मकांडी वातावरण से निकल लोहिया के युवजन, फिर मार्क्सवाद, फिर अस्मिताओं द्वारा खोले नए दरवाजों से सामर्थ्य भर ग्रहण करते हुए यहां तक आए हैं । सभी ने नया जोड़ा है और आगे बढ़ने का हौसला दिया है । अंतिम सत्य को पा जाने या संतुष्ट हो बैठ जाने का सुख न मिला, न चाहा । हम तो साधनावस्था में रमे लोग हैं, लगातार नया सीखते हैं, पुनर्विचार करते हैं, कुछ त्यागते हैं, कुछ नया अपनाते हैं । हर पुरानी किताब या लेख की बहुत सी बातें कुछ रोज बाद बचकानी या नाकाफी लगती हैं । उस अभाव को भरने में लिखने के नए प्रयास होते हैं । जिस दिन पुराना सब आदर्श लगेगा और उसे दुहराना ही विकल्प बचेगा उस दिन लिखना भी छूट जायगा ।

    लोकप्रियता का सस्ता सुगम रास्ता ७०-८० के दशक में था ही, उसपर चलने का सुख कौन गंवाना चाहेगा भला ! उसे छोड़कर नई तलाश में जाने का मतलब ही है हिंदी साहित्य की सत्ता के संगठित आक्रमणों के लिए स्वयं को खुला छोड़ देना और अकेले हो जाना । “तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सब” केवल मुहावरा ही तो नहीं है ।

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  18. विदग्ध मैं भी नहीं हूँ। पर आपने तर्क बदल दिया। अपने भाषण में आप कविता को उसके अंदर से पढ़ना चाह रहे थे। अब आप बाहर की चीजों पर जोर दे रहे हैं। मुक्तिबोध को कोट करने के लिए भी गलत मौका ढूँढ़ा। मैंने आपकी बात का समर्थन कुछ और ही सोचकर किया था। क्षमा चाहता हूँ। अब इस चर्चा में मेरी रुचि नहीं है।

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  19. इतना भ्रमित और भाषाई प्रपंच का यह व्याख्यान नये के नाम पर हमें किसी भी प्रकार के सामाजिक दायित्व से मुक्ति का ही पाठ पढ़ाता है । हमारी पूरानी पीढ़ी कुछ नया और सार्थक देपाने में असमर्थ हो सडे विचारों की फेरी लगाती घूम रही है उसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह सारहीन संभाषण है जो निष्कर्षतः तो यह कहती फिरती है किसी तरह की गांठ से मुक्ति पाओ लेकिन सारतः अपने समस्त सामाजिक दायित्व से मुक्ति और निठल्ले चिंतन का पाठ पढ़ा रही है । आप किसी भी रचना को लेकर बात कर सकते हैं और बार बार किया जाना चाहिए वहाँ यह भी भी तय होना चाहिए कि आप का निष्कर्ष कोई नया आयाम देता हैआने वाली पीढ़ी को सोचने की नयी दिशा देता है या महज खिल्ली उडाने और बार - बार अंधभक्ति से मुक्ति का बात करते हुए निठल्ले विमर्श कारों का भक्ति समुदाय ही बनाने पर उतारु है । विभ्रम फैलाते और कुहासा पसारती भाषाशैली का बेहतरीन नमूना । उम्मीद सेपरे । हर आदर्श टूटते हैंलेकिन भाषा और विचार के नये सामाजिक दायित्व बोध की जरुरत के मद्देनजर न कि यहाँ वहाँ की चासनी मिली चलताऊ विमर्श से। आपके विमर्श और साहस की दाद देने वालों के पीछे मोटी तनख़्वाह और गुलगुला गद्दा है जिनपर बैठकर वे तमाम मेहनती कौम और उनके पक्षमें खड़े लोगो पर खिलखिला सकते है और बहुत हुआ महानता और अपने वर्ग की सामूहिक दीनता का रोना रो सकते हैं । और कुछ नहीं ।
    और डाक्टर साब आज भी मैं ' साहित्य के बुनियादी सरोकार " और 'आलोचना के नये मापदंड ' को आलोचना की बुनियादी और जरूरी किताब मानता हूं । और उनसे सीखने समझने की सामग्री मिलती है जबकि इस प्रकार के व्याख्यान के औचित्य पर किसी भी प्रकार की सहमति बना पाने में मेरा विवेक आड़े आता है । हम इतना भी नये पन की आग्रही नही हो सकते कि सामाजिक बदलाव और साहित्य के सरोकार को महज
    असंगत बात और निष्कर्ष से सहमति जताने लग जायें वह भले हमारा प्रिय आलोचक / लेखक ही क्यों न हो ।

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  20. जिन लोगों को स्पष्ट दो-टूक मार्गदर्शन चाहिए वे साहित्यिक संगठनों या साहित्य के मठाधीशों के पास जाएं । और अधिक सकर्मकता के लिए राजनीतिक-सामाजिक संगठन तो हैं ही । साहित्य का मार्ग थोड़ा अलग है और उसी चाल से चलता है जैसी यहां दिखी है, अगर व्यक्तिगत तल्खियों, टिप्पणियों और भाषा के शिथिल प्रयोंगों को नजरअंदाज कर सकें तो । सहमति-असहमति-बहस तो होगी ही ।

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  21. सभी कमेंटबाज़ों को अपने अंदर झकझोर करके झांकना चाहिए इससे भी काम न बने तो गर्म पानी से मुँह धुलें...
    खैर
    यंहा जो भी चर्चा है जायज है फिर भी एकदम नई नहीं है कर्ण जी को भी हठ योग से दूरी रखनी चाहिए आप से सभी सहमत ही होंगे ऐसा कभी होगा क्या??
    किसी भी विचार से या व्यवहार से सभी सहमत होंगे यह कभी नहीं होगा और होना भी नहीं चाहिए।
    बाक़ी जो लोग मोहपाश में बंधे हैं उनको तो कंही हूर चाहिए कंही सम्मान कंही कानून कंही अफलातून वो खुद की दिवार में कैद आलोचक या कमेंटबाज़ हैं वो दुखी ही सकते हैं...
    पहले भाषा के कठिन प्रेत बनिए फिर सरल व्याख्या करिये फिर अतिसरलीकरण प्रचारित बहस में कूदिये उसमे साहित्य का भाषा का संवेदनाओं का और कवि कर्म का भुर्जी पाव बना डालिये । इतनी सालो से चल रही बहस आज तक सटीक उत्तर नहीं दे पाई की साहित्य क्या है?कविता क्या है?क्या आम आदमी माने वो सबसे पीछे वाला(तोड़ती पत्थर, और चलाता रिक्सा) इससे परचित भी हुआ...नहीं हुआ आज तक नहीं हुआ और हुआँ हुआँ करने से होगा भी नहीं।
    कुछ नया चाहिए नहीं लोगो को अपनी प्रेत योनि से अपने अतीत स्वप्नो से अपने पुराने सालते दुखो से फोड़े की खुजली से आनंद आता है सबको (इसी में कोई तेजू होंगे वो मुह उठाकर न न करने लगेंगे कि मुझे नहीं आता) उसी आनंद की हड्डियों से ढोल बजाना चाहते हैं सभी।
    हम बाज़ारू युग के बाज़ारू मनुष्य हैं इसमें शर्म आती है हमें जो नहीं है उसकी अंतहीन तलाश में भटकते भरमाते लीचड़ लोग हैं हम अपने स्वार्थों की लार में लोटते हुए मगरमच्छ हैं हम(अब कोई आएगा मेरा नाम पता उम्र स्थान पूछेगा और अपने शातिर दिमाग से मुझे कुछ साबित करने की कोशिश करेगा जो बेहूदा और अतार्किक भी होगा निसन्देह)
    हमें एक विशाल गृह के आकार के आईने की परम आवश्यकता है हमें तू तू मैं मैं की आदत से छुटकारा कब मिलेगा????!!!!!
    रोज़ बहस में जीभ तेज़ करने से शब्दों को फेक फेक मारने से कान में सिद्धान्तों का मिट्टी के तेल को डाल लेने से कुछ नया भी नहीं होगा कुछ बेहतर भी नहीं होगा।
    अपने आँख के चश्मे को साफ़ करना होगा पुराने को उस महानता को उसी के समय काल में जांचना होगा और ससम्मान उसे वंही त्यागना होगा।
    नए साहित्य नए साहित्यकार नए आलोचक नए संमाज को नए विज्ञान नए सिद्धान्तों से देखना परखना होगा।
    तुलसी बाबा पोलियो की दवाई बनाकर नहीं गए, कबीर ने परिवार नियोजन और शौचालय पर दोहे नहीं गढ़े। प्रसाद और निराला ने पिज़्ज़ा बर्गर और व्हाट्सएप नहीं जाने
    यंहा तक की ग्रामीण समस्याओ का भी नया रूप अब सामने है।
    और हमारे यंहा समस्याएं एक फैशन है महान बनने की महान दिखने की कुछ कर गुजरने दिखते रहने की।
    गंदगी साफ करनी है तो सूअर(पिग,सूकर) बनना पड़ेगा।

    नोट मेरी उम्र बहुत कम है यही परिचय और होंमोसेपियन्स होने पर कोई गर्व नहीं है यह नियति है काल की दिक्ककाल की(अब कायश लगाइये एसीपी प्रद्दुम्न)

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  22. शिरीष मौर्य12 जुल॰ 2016, 5:54:00 pm

    'वह तोड़ती पत्थर' - मुझे सिर्फ़ इतना कहना है कि गुरु हथौड़ा शामिल कर कवि ने प्रगतिशीलता का हस्तक्षेप सायास नहीं किया है। उन्हें उनकी सरस्वती भी उस स्त्री में दिखी है। प्रगतिशीलता निराला का हिस्सा हो गई थी, ठीक वैसे ही,जैसे पहले कुछ धार्मिक गौरव उनमें रहा...बाद में वह छीजता गया, उसकी जगह प्रगतिशीलता ने ली। निराला का जीवन, उसके कई पक्ष तथ्यों के साथ हमारे सामने हैं। ऐसे में यह पाठ मुझे तो सहमत नहीं करता। मेरी असहमति से असहमति भी एक पक्ष है, मैं उसका भी सम्मान करता हूं। कभी अवसर मिला तो मैं ख़ुद इस कविता पर लिखूंगा। एक अनुरोध यह भी कि बहुत पहले लिखी 'सरोज-स्मृति' का स्मरण भी इस कविता के साथ करना चाहिए, प्रगतिशीलता के बीज निराला में कब से हैं, कुछ अहसास हो जाएगा।

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  23. गणेश पांडेय जी अनावश्यक आक्रामक हो रहे हैं। सुशील कुमार जी के तीसरे प्रश्न का उत्तर तो देना पड़ेगा। इसके विना बात कैसे आगे बढ़ेगी? इस कविता का विश्लेषण स्वयं कर्ण सिंह जी के अनुसार "गढ़" ढहाने और "मठ" तोड़ने के इरादे से किया गया।पांडेय जी या तो इस इरादे को साझा कर सकते हैं या तोड़ती पत्थर को बड़ी कविता मान सकते हैं। दोनों साथ साथ कैसे होगा?

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  24. पहली टिप्पणी में और बाद की टिप्पणियों में काफी कुछ कह चुका हूं। यह भी कह चुका हूं कि साहित्य के लोकतंत्र में कर्फ्यू नहीं लगा सकते कि किसी कविता को सब एक नजर से देखेंगे। मैं खुद उस कविता को दूसरी नजर देखता हूं, लेकिन कर्ण सिंह चौहान को दूसरी तरह से कविता को देखने से मना करना बेवकूफी होगी। यह तो अच्छी बात है कि वे कविता को देखने का एक नया कोण सुलभ कर रहे हैं। उन्हें हक है कि कविता की व्याख्या अपने ढंग से करें। यहां बहस करने से अच्छा उस कविता पर लेख लिखना है। अनुज शिरीष मौर्य ने बेहतर कहा है। आप लोग भी उस कविता या कर्ण सिंह के विचार पर लेख लिखें। मूल्यवान होगा।

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  25. कर्ण को अब अपने बचाव में गाँव और बीमार माँ याद आ रहे है. मेरी उनसे सहानुभूति है. उनकी माँ स्वस्थ प्रसन्न हो.और वे आयें और सुशील और आशीष के सवालों का माकूल उत्तर दें

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  26. अभी लौटना हुआ तो देखा ऐसी कोई नई बात नहीं है जिसके उत्तर की जरूरत हो । बहुत सारे सवालों के जवाब भाषण में ही हैं, ध्यान से देखेंगे तो मिल जाएंगे । हालांकि जो लोग पहले से ही नतीजों पर पहुंच सवाल कर रहे हैं, उनको कोई जवाब देने का तुक नहीं है.
    साहित्यिक बहसें कोई दंगल नहीं हैं, न यहां कोई कुश्ती हो रही है कि हार-जीत हो । यह संवाद का जरिया है । जो भी संवाद हुआ वह अभी तक स्वस्थ ही था । साहित्य के सवालों के कोई अंतिम जवाब नहीं होते, जो सब कुछ तय किए बैठे हैं, वे बहस से परे हैं और अपना और दूसरों का समय बरबाद करते हैं । घर जाने और मां को लेकर यहां जो तंज किया, वह मेरे लिए अविश्वसनीय था । उसपर कुछ न कहना ही बेहतर है । मेरी ओर से सभी का धन्यवाद ।

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  27. माँ की बीमारी पर कूट मुझे भी अच्छा नहीं लगा। कोई मेंड़ का झगड़ा तो है नहीं।लिखने में संयम रखना आसान होना चाहिए, पर जाने क्यों फेसबुक पर नहीं होता।
    पर किसी ने जवाब का मुस्तहक कोई सवाल ही नहीं उठाया, इस सोच में भी खोट है। आप एक स्थापित कविता को नई नजर की स्क्रुटिनी में लाये ये कमाल की बात होती अगर आप गढ़ और मठ तोड़ने की बात न करते। मैं निराश हुआ कि इतनी अच्छी तकरीर के बाद इस बहस के दौरान आपने संदेह पैदा कर दिया कि आप निराला को उनके सरनेम से तौल सकते हैं। आप इतने बड़े विद्वान हैं, इतना लिखा है - ऐसे निष्कर्षों पर पहुँचने के लिए?

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  28. हिन्दी साहित्य में यदि कोई सबसे प्रिय हैं तो वो हैं 'निराला'....बिल्कुल अपने नाम के अनुरूप। उसमें भी 'तोड़ती पत्थर' कविता मेरी प्रिय कविताओं में से एक मुख्य कविता है। कर्ण सिंह जी का मुक्त व्याख्यान मैंने पढ़ा जिसमें लीक से हटकर सोचने की अनुसंशा करते हुए परम्परागत और मानसिक गुलामी से मुक्त करने का एक प्रयास भर है। इस व्याख्यान पर उँगलियाँ उठनी स्वाभाविक थी क्योंकि किसी भी स्थापित कविता और उसके कवि पर यूँ आक्षेप असहनीय तो हो ही जायेगा। लेकिन यह व्याख्यान क्यों?और किसके लिए?पर विचार करें तो व्याख्यान की महत्ता और उद्देश्य स्पष्ट हो जाते हैं। इस व्याख्यान को ध्यान से पढ़ा जाये तो साफ लगता है कि आलोचक का उद्देश्य निराला को नीचा दिखा के खुद को स्थापित करना नही है बल्कि यह अपने को बिल्कुल अकेला करके बल्कि खतरे में डालकर व्यक्ति पूजा से अलग हटकर उससे सवाल-जबाब करने की राह दिखाने का एक छोटा सा प्रयास भर है। आलोचक यदि चाहता तो कोई कमजोर कविता को भी चुन सकता था पर उसने साहित्य जगत की सबसे अच्छी कविता को चुना...। जिस तरह आजकल पूर्व लेखन या व्यक्ति पूजा चाटुकारिता के चरम पर है उससे साहित्य का क्षरण स्वाभाविक है। आये दिन यह देखने में आता है कि किस तरह किसी महत्वपूर्ण कवि या अपने वैचारिकी के समर्थक कवियों की सामान्य कविता को भी महत्वपूर्ण कविता बताते हुए आलोचनाएं लिखी जा रही हैं। किस तरह मठों को मजबूत बनाने की कवायद चल रही है। गढ़ों को तोड़ने के नाम पर काम करने वाली विचारधाराएं भी गढों को मजबूत करने में कैसा-कैसा हथकंडा अपना रही हैं। किस तरह परम्पराओं और रूढ़ियों में हिंदी समाज उलझा हुआ है कि उसे कुछ अलग हट कर सोचने की फुर्सत ही नही मिल पा रही है।
    दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात जिसका इस व्याख्यान में बहुत सूक्ष्म रूप से संकेत किया गया है कि कविता क्यों?और किसके लिए? जिसका जिक्र एकदिन मोहन नागर जी ने भी किया था। जो मैंने अभी दो-चार दिन पहले ही #गरीबी :एक सच# कविता सीरीज में अपने टूटे-फूटे शब्दों में कहने की चेष्टा की थी। व्याख्यान का छोटा सा अंश देखिये-'कमकर मजदूर ही नहीं स्त्री दृश्य में है इसलिए गाहे-बगाहे उसका श्याम तन, सुघर कंपन, भर बंधा यौवन भी दिख जाता है जो इस आकर्षण को और बढ़ा देता है. इस तरह सौंदर्यशास्त्र का सौंदर्य पक्ष पूरा हुआ. और उसके बाद कवि ने `लांग व्यू' से दृश्य में शहर की अट्टालिका को भी ले लिया और उसपर नजर टिकी दिखा गुरु हथौड़ा भी चलवा दिया. इससे वर्ग-संघर्ष का प्रतिफलन संपन्न होकर प्रगतिशील विचार और प्रतिबद्धता संपन्न हुए. इससे कवि को तो क्रांतिकारी सुख मिला ही बाद में पाठक और आलोचक को भी मिला.
    यह सब कवि की कृपा से संपन्न हुआ. अब यह जानने की परवाह किसे है कि वह कमकर स्त्री असल में उस दौरान क्या सोच रही थी।'
    इस व्याख्यान से संकेत भी मिलता है कि मूलतः कविताओं का जो संवेदनात्मक विषय है-गरीब, मजदूर, माँ, पिता, बहन, स्त्री, दलित आदि... क्या इनपर लिखी जा रही कविताएं इनका कुछ भला कर पा रही हैं या नही? 'तोड़ती पत्थर' के ही सन्दर्भ में ही देखें कि उस स्त्री का क्या हुआ? क्या कविता के प्रगतिशील या क्रांतिकारी तेवर से उस मजदूरन का कुछ भला हुआ? जिसके ऊपर ये कविता लिखी गयी और उस पर तमाम समीक्षाओं का उस पर या उस जैसों की हालत में कुछ सुधार हुआ...।
    निष्कर्षतः इतना कहा जा सकता है कि कुछ भी अंतिम नही है। कोई भी कविता या सिद्धांत अंतिम नही है। कोई भी व्यक्ति महानता के उस शिखर पर स्थापित नही हो गया है जहाँ पहुँच कर सवाल न पूछा जा सके। कितना भी बड़ा विश्वास हो यदि उस पर चोट की जाये तो प्रतिवाद की जगह उस पर नए सिरे से सोचने के लिए स्पेस जरूर हो।

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  29. कर्ण जी का यह व्याख्यान उस अवकाश को भरने की ओर कदम लगता है जो हिन्दी में विकराल हो गया है. 31 जुलाई आने वाली है और फिर से साहित्य, समाज व राजनीति की ढेर सी बातें होगीं. अजीब है कि एक सूत्रीकरण कबसे चला आ रहा है. कोई उसको problematize नहीं करता. दशकों के अनुभव ने तो दिखाया कि सत्ता भी अक्सर कहने लगी कि साहित्यकारों का काम हमारे आगे-आगे चलना है. भले ही साहित्यकार ज्यादातर उसके पीछे ही खड़े हों या चरणों में पड़े हों. बहस उस बिंदु पर भी पहुँच रही है जहाँ यह पूछा जाएगा कि साहित्य का उद्देश्य क्या है? साहित्य क्यों? अलग-अलग समाजों, उनके काल-समय में खड़े होकर ही इसका जवाब दिया जाना है. दिया जाना चाहिए. बहुत मुमकिन है मुक्तलिफ़ समाज इसका जुदा-जुदा उद्देश्य बताएं. कुछ हमको अच्छे लगेंगे, कुछ नहीं. साहित्य समाज का आईना (रूसी किसानों और तोलस्ताय के सन्दर्भ में लेनिन), आगे चलने वाली मशाल (प्रेमचंद), एक कार्यवाही (नेरुदा), समाजरूपी जहाज का मस्तूल (एडवर्ड सईद) स्वयं से साक्षात्कार आदि आदि बातें आ सकती हैं. सहमति का जो, जैसा भी हो, कोई भी परिभाषा मुकम्मल नहीं. यह जो बड़ी-बड़ी तहरीकें लाद दी गयीं इस पर - इससे किसका, कितना भला हुआ? कितने क्रांतिकारी और कलावादी कवियों को अब भी पढ़ा जा रहा है. कहीं यह एक अल्पसंख्यक समूह का दूसरे अल्प्संखयक समूह के लिए कला/साहित्य का उत्पादन और पुनरुत्पादन तो नहीं. पर मार्क्स पूछते हैं क्लासिक कृतियों को अब भी क्यों पढ़ा जाता है? मसलन कालिदास. आदिपूर्वज के उस ज़माने में बहुसंख्या वर्णमाला और देवभाषा के करीब फटकने नहीं दी जाती थी. कौन पढता था उन्हें स्वाद लेकर. आगे किसने पढ़ा. अब उस बात को छोड़ दें तो क्यों पढ़े गए कालिदास. संस्कृत जानने वाले बताते हैं कि उनका काव्य सबसे पहले 'बहुत अच्छी कविता' है. मुझे यहाँ से सूत्र मिलता है. जो भी कविता हो, पहले उसे अच्छी कविता होना ही चाहिए. मुद्दा यह नहीं कि उसमें पसीना है या प्रेम. फिर मुद्दा आता है 'क्रिटिक' का. साहित्य/कला जैसी भी हो, वह 'क्रिटिक' कर रही है कि नहीं. (किसी भी किस्म का मनोरंजन (साधारण, साहित्यिक, सौन्दर्यात्मक etc) शर्त तो है ही- ब्रेख्त). यहाँ पर आती है तोड़ती पत्थर. जाहिर है मजदूर स्त्री का मन हमें पता ही नहीं. वह आता तो शायद कविता ऐसे लिखी ही न जाती. पर यह mediation तो साहित्य/कला के हर रूप में है. क्या निराला, क्या प्रेमचंद, क्या नेरुदा. सब mediate कर रहे हैं sabject matter के साथ, अगर subject matter वो खुद नहीं हैं तो. और क्या मजदूर स्त्री, फिर तो नागार्जुन की मादा सुअर, डंगवाल की कटरे की रुक्मिणी, रामपुर के बन्दर, निराला का कुकुरमुत्ता, धूमिल का मोचीराम, आदि इत्यादि इसी mediation का ही तो परिणाम है. जाहिर है यही काम विज्ञापन भी करता है. जिसकी बनाई छवियों से हमें चिढ़ होती है. तो इस सबके इतर शायद यह एक अच्छी कविता है. निश्चय ही पूरा projection कवि का है. नयेपन के चलते चली, संवेदना के चलते स्थापित हुई, कथ्य और संरचना के चलते चर्चा का विषय बनी, open ended होने के चलते बहुपाठी हुई, गढ़न और कवित्त के चलते जीवित रही. तो इस तर्क पर कि वह वस्तु में बदल गयी कि नहीं, पर यह कहा जा सकता है कि प्रेम/प्रेमिकाओं पर लिखी कविताओं में प्रेम/प्रेमिकाओं का क्या होता है? वो किस चीज में बदलती हैं? तो क्यों हो जाती हैं 'दुखदायी स्थितियां' पॉपुलर? इसका जवाब दिक् काल में मिलेगा, आलोचकों और पाठकों में नहीं! वे हैं ही कितने? जितने हैं उतने में खुश हैं, कुछ कचोटता नहीं, तो बात और है. बहुत अच्छा लगा पढ़कर. यह बहस, ऐसी बहसें वक़्त की जरूरत है.

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  30. Amitabh Vikram Dwivedi13 जुल॰ 2016, 2:02:00 pm

    After reading the excerpt from Prof. Karan Singh Chauhan's lengthy speech and thereafter posted comments, I want to quote Shakespearean poem:

    "Youth and age cannot live together"

    Sometimes young are with old thoughts and sometimes old with new thoughts.

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  31. किसी भी बड़े कवि की अपने समय में बड़ी मन ली गयी कविता का एक दूसरा पाठ भी हो सकता है, बल्कि होना चाहिए, भले यह भक्तों को रुचिकर न लगे. कर्ण जी की इसी प्रस्तावना को आपने सार्वजनिक किया था. खेद है की उसे कुंठा भाव से देखा गया.
    पिछले दिनों मैंने केदारनाथ अग्रवाल को लेकर एक पुनर्मूल्यांकन करने की कोशिश के थी. उसका एक छोटा अंश दे रहा हूँ.
    “अक्सर कविता के सन्दर्भ में संवेदना को ही सौन्दर्य मान लिया जाता है. जीवन के किन्ही अन्य व्यापारों में संवेदना ही सौन्दर्य भले हो, कविता में संवेदना ही नहीं, संवेदना भी सौन्दर्य होती है. काव्य-सौन्दर्य संवेदना आधारित होते हुए भी एक अलग प्रत्यय है. लोगधर्मी संवेदना, लोकधर्मी भी हो, जरूरी नहीं. ‘लोग’ और ‘लोक’ के द्वन्द्व से प्रगतिशील कविता विकसित होती है. कविता की प्रगतिशील यात्रा ‘मैं’ से ‘लोग’ और ‘लोग’ से लोक की यात्रा है.
    केदार की एक कविता में हथौड़ा चलाने वाले एक मजदूर के घर पुत्र उत्पन्न होता है. स्वाभाविक सी खुशी परिवार में फैल जाती है. परिवार की इस खुशी में शामिल कवि मानवीय कम वैचारिक अधिक दिखता है. परिवर्तन का सपना देखने वाला. बेटे के जन्म पर माँ-बाप, दादी-दादा की खुशी को कवि मानवीय खुशी से अधिक अपनी विशिष्ट वैचारिक खुशी बना देता है - ‘एक हथौड़े वाला घर में और हुआ. ’ यह कविता हथौड़े वाले के सद्यः प्रसूत बेटे की कवि-कुण्डली है. हथौड़ा चला कर पेट पालने वाला मजदूर चूंकि क्रांति भार ढोने वाला प्रतीक भी है, इसलिए कवि सपना देखता है कि दो क्रांतिकारी हाथ और जुड़े. इसका एक पाठ यह भी कि हथौड़े वाले का लड़का ससुर हथौड़े वाला ही तो बनेगा. कविता में यदि माँ-बाप अपनी स्वतंत्र आखों सपना देख रहे होते तो शायद देखते कि पैदा हुए पुत्र को पढ़ाएंगे-लिखाएंगे. कुछ भी हो उसे वह जिंदगी नहीं जीने देंगे जो हम खुद जी रहे हैं. इसे बेहतर जिंदगी देने की कोशिश करेंगे. सपना कितना यथार्थवादी होगा इसे माँ-बाप से पूछने के पहले कृपया कवि से भी पूछ लें कि मजदूर-पुत्र को लेके देखा जाने वाला कवि का सम्भ्रान्त सपना कितना यथार्थवादी है ? इसलिए सपने के यथार्थ और भविष्य पर तो बात ही नहीं हो सकती. बात सिर्फ मानवीय संवेगों की ठहरती है. भिखारी भी नहीं चाहता कि उसकी औलाद भी भिखारी बने.
    स्वयं कवि भी नहीं चाहता कि उसका अपना पुत्र भी कवि बने . चाहता कौन है ? डाक्टर, इंजीनियर, पैसे वाले, व्यापारी चाहते हैं कि उनका पुत्र भी वही बने ताकि जमे-जामए धंधे, जायदाद का वारिस कोई हो . ‘हाथ बटाने वाला’ या ‘बुढ़ापे का सहारा बनने’ का सपना या सिर्फ ‘पिता’ या ‘दादी’ कहलाने के सुख की कल्पना या मनोदशा ही ऐसी स्थिति में स्वाभाविक मानवीय प्रतिक्रिया होती है न कि यह कि एक रिक्शा खींचने वाला और आया. यह काव्य-प्रतिक्रिया मजदूर परिवार से केवल किताबी सम्बन्ध रखने वाली, कलम से क्रांति करने वाली प्रतिक्रिया है जो कविता के अन्त में चेतावनी देती है - ‘सुन ले री सरकार ! कयामत ढाने वाला और हुआ’ . खुद यदि केदार के अक्सर कविता के सन्दर्भ में संवेदना को ही सौन्दर्य मान लिया जाता है . जीवन के किन्ही अन्य व्यापारों में संवेदना ही सौन्दर्य भले हो, कविता में संवेदना ही नहीं, संवेदना भी सौन्दर्य होती है . काव्य-सौन्दर्य संवेदना आधारित होते हुए भी एक अलग प्रत्यय है . लोगधर्मी संवेदना, लोकधर्मी भी हो, जरूरी नहीं . ‘लोग’ और ‘लोक’ के द्वन्द्व से प्रगतिशील कविता विकसित होती है . कविता की प्रगतिशील यात्रा ‘मैं’ से ‘लोग’ और ‘लोग’ से लोक की यात्रा है .’

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  32. कर्ण जी के पास भाषा कमाल तो है ही जैसी कि अक्सर एक अध्ययनशील विश्वविद्यालयी प्रोफेसरों आलोचकों की होती है। भाषा से इस तरह लट्टू घुमाते हैं कि अविश्वसनीय भी विश्वसनीय लगने लगता है। यह नामवर आलोचकों का प्रमाण है। कविता की यह व्याख्या सहित्य में वैसी ही अलग विशेष ब्रेकिंग न्यूज़ है जैसी न्यूज़ चैनलों में अक्सर अपनी अलग विशिष्ट पहचान बताने के लिए होती है। इस कविता की ऐसी सोच विचार की व्याख्या निष्कर्ष के निहितार्थ बहुत कुछ ऐसे संकेत दे रहे है जो शायद बहुत कम को पचेंगे। बहरहाल यह भी देखने की एक दृष्टि तो है ही

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  33. निराला की प्रगतिशीलता विभाजित रही अथवा यूँ कहें कि उनकी अप्रगतिशिलता व अंधविश्वासप्रियता में निरन्तरता मिलती है!
    अपनी काव्य-रचना के आरम्भिक काल में उनने सरस्वती वन्दना (वर दे वीणा वादिनी वर दे) लिखी, अपने काव्य जीवन के मध्यकाल में भी एक लम्बी कविता 'देवी सरस्वती' शीर्षक से लिखी और जीवन की अंतिम कविता 'हाथ वीणा समा सीना' भी कथित देवी सरस्वती की वन्दना में लिखी।

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  34. एक बड़ा कवि और बड़ी कविता विचार और व्याख्या के अनगिनत नए आयाम खोलते हैं । इस बहस ने इसके कवि और रचना में गहरे उतरने को प्रेरित किया, इससे अधिक और क्या चाहिए । साहित्य की आलोचना को किसी के लिए भी संभव हो सकने का यही मार्ग है ।

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  35. और, विवेकानन्द-अध्यात्म में जीवन के अंत तक भटकते रहे। हाँ, यह जरूर है कि जितनी अनर्गल कविताएँ उन्होंने लिखीं उतनी ही जीवन की कविताएँ भी।
    कोई प्रगतिशील मान्य व्यक्ति यदि उनकी 'राम की शक्तिपूजा' एवं 'तुलसीदास' को बड़ी कविता अथवा हिंदी की सबसे बड़ी कविता मानता है तो उसके प्रगतिशील और आधुनिक चित्त होने पर मुझे संदेह है।

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  36. निराला शातिर सतर्कता और दूरगामी-गहरी रणनीतिक नाप-जोख की रचना-प्रक्रिया अपनाने वाले लेखक नहीं है. उनकी सृजन-धारा कभी आड़े तो कभी तिरछे आगे बढ़ने वाली नदी की तरह बहती चली गई है। जब जो मन में आया, लिख डाला। तय है कि वह राजनीतिक व्‍यक्ति तो कदापि नहीं थे क‍ि जो कोई पहाड़ा पकड़ लिया उसे दोहराते-तिहराते धुनते-कुटते रह जाएं। वह हिन्‍दी के असाधारण रचनाकार हैं, उन पर एक झटके से हमला करना विवेकपूर्ण कदम नहीं होगा। हमें यह भी याद रखना होगा कि उन्‍हें मानसिक यंत्रणा के कई दौरों से भी गुजरना पड़ा है.. परिस्‍िथतियों के थपेड़ों से पछाड़ खाता मन के कब किस क्षण कैसी-कैसी दर्दभरी करवटें लेता या ले सकता है, इसे तर्क-कुशलता से नहीं, संवेदना की उस सतह पर उतरने की कोशिश करते हुए ही समझा जा सकता है। उन पर विचार करते हुए ऐसे सारे संदर्भ नजरंदाज नहीं किए जा सकते..

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  37. यह वक्तव्य निषेधवादी है।मैं पूरे सम्मान के साथ विशिष्ट समालोचक डाॅ. कर्ण सिंह चौहान के सामने विचार. के लिए कुछ बातें रख रहा हूँ : 1.ज्ञान केवल 'सार्वजनिक थाती' नहीं,वह व्यक्तिगत भी है।व्यक्ति अौर समाज के बीच ज्ञान का आदान-प्रदान लगातार होता रहता है।वह पुस्तक,कम्प्यूटर की चिप आदि में रहने के पहले मस्तिष्क में रहता है।चिप आदि से ज्ञान अर्जित कर नया कुछ करने के लिए उर्वर सशक्त मस्तिष्क की जरूरत होती है,अौर वह मिलता है सक्रिय कार्यशीलता,दिमाग में ज्ञान के 'डाउनलोड' करते रहने से।इसके अभाव में वह मन्द हो जाएगा; नया सृजन,आविष्कार,विकास आदि रुक जाएंगे। 2. विचार, विश्वास, मान्यता, मूल्य से पूरी तरह मुक्त होना अराजक,निषेधवादी होना है।हाँ, रूढ़ि,अन्धविश्वस से मुक्ति जरूरी है। विचारहीन होकर विचार करना भी एक विचार है।विचार,ज्ञान,मूल्यआदि के आलोक में विवेकपूर्ण ढंग से साहित्य का अध्ययन किया जाना चाहिए। 3. निराला ने पत्थर तोड़ने वाली युवती को न तो 'वस्तु में बदला' है अौर न 'उसका मनमर्जी इस्तेमाल ' किया है। वस्तुतः कवि ने युवती को उसके पूरे परिवेश के साथ अंकित किया है। यहाँ 'वस्तु'अौर 'इस्तेमाल ' देखना आलोचकीय पूर्वग्रह, अहं है, कवि के सम्प्रेष्य को गलत दिशा में मोड़ना है। 4. सभी तरह के' इस्तेमाल ' को एक ही खाँचे में रख देना आलोचकीय विवेक के विरुद्ध है। ' व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ' , 'समाज के लिए' होने वाले इस्तेमालों में फर्क है। 5. 'जीवन के दुखदाई पक्ष ' का चित्रण 'सैडिस्ट' होना नहीं है। इससे करुणा,दुख से मुक्ति, सहयोग के भाव कहते हैं। 6. यहाँ लगता है कि दुख, अभाव, पीडा़ के चित्रण की जगह केवल दुख, सम्पन्नता,आनन्द के चित्रण को महत्त्व दिया गया है,जिसे सुखी,सम्पन्न,आनन्दित, कलावादी मन का परिणाम कहा जा सकता है।

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  38. कर्ण के बाद के वक्तव्य सिर्फ बचाव की मुद्राएँ है. उनमें कोई वजन अब नहीं है. / कर्ण के अनर्गल और अराजक कथन का वरिष्ठ कवि शम्भु बादल ने बहुत ही तर्क संगत , व्यवस्थित और सटीक उत्तर दिया है. कर्ण ने जो महत्वपूर्ण लिखा था वे उसे अब नकार रहे है. और अब नया उनपर कहने को कुछ है नहीं / अक्सर जब लेखक चुकने लगता है तो सुर्खिओं में आने की गरज से भी बे-सिर -पैर की बातें करने लगता है. मुझे कर्ण जैसे मेधावी समीक्षक के विचलन को देख बहुत अफ़सोस है. जब उनहोंने " आलोचना के मान " की प्रति भेजी थी तो मैंने टिप्पणी की थी कि रामविलास का सही उत्तराधिकारी हमारे बीच आ चूका है. आज में अपने शब्द बहुत ही दुःख के साथ वापस लेता हूँ.
    कुछ लोग कहेंगे कि ऐसा क्यों होता है कि लेखक अपने कहे हुए को ही बदलने लगता है. मुझे लगता है जब हमारे जीवन में गिरावट आती है तो रचना में भी उसका प्रतिबिम्बन होता है. ऐसे लेखकों पर पाठक भरोस नहीं करता . क्योंकि कों जाने यह फिर अपनी बात को बदल दे. कर्ण को एक दिन इस विचलन पर जरुर पश्चाताप होगा. मेरे और कर्ण के बहुत ही पुराने और आत्मीय सम्बन्ध रहे है. पर मै उनके अराजक , विचारहीन और अनर्गल वक्तव्य से असहमति व्यक्त करने को विवश हूँ

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  39. मुसाफिर बैठा16 जुल॰ 2016, 5:36:00 pm

    Musafir Baitha वक्तव्य मुझे भी अटपटा लगता है। पर मुझे लगता है कि चौहान साहेब इस बयान के माध्यम से अपना बिलकुल खोल के रख रहे हैं!

    निराला आजीवन वेदांती रहे, अंधविश्वासी रहे मगर मार्क्सवादियों एवं प्रगतिशीलों ने उन्हें पुचकारने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यदि उनके विभाजित व्यक्तित्व को मद्देनजर उनके प्रगतिशीलता एवं जनवाद के खांचे की रचनाओं को भाव नहीं दिया गया होता तो क्या होता?
    समाज के अन्य हिस्सों की तरह साहित्य में एक बड़ी परेशानी यह है कि किसी को स्वीकार एवं ख़ारिज करने में में हम सब कहीं न कहीं दोगला आचरण करते हैं। अपने काम के लोगों को उनकी तमाम कमियों के बावजूद स्वीकारते हैं लेकिन अपने नापसंद के व्यक्तियों के गुणों को भी भाव नहीं देना चाहते, केवल उनके अवगुण गिनने पर होते हैं।

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  40. Vijendra Kriti Oar उनका यह भ्रामक वक्तव्य सदा याद रहेगा " किताबें और आलेख आदि वक्त के मुकाम पर मैंने लिखे जरुर है . लेकिन उनका अपना स्वायत्व जीवन है और सुख-दुःख , जैसे मेरे . न वे मेरे आधीन है / न मै उनके / और कि उनमें व्यक्त विचार से लेखक की सहमति जरुरी नहीं " / इसकी ध्वनि यह भी है कि लेखक बड़ी चतुराई से अपने पाठकों को दिग्भ्रमित करता रहा है.

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  41. विजेंद्र जी, फिर से एक बार दोहराना पड़ रहा है - गालियों और श्रापों का जवाब नहीं दिया जाता । वैसे आप जारी रखिए आपको कौन रोक सकता है । मेरी चिंता छोड़िए, अब कुछ अपनी चिंता कीजिए । आपके आत्मीय लोग बहुत से सवाल पूछ रहे हैं । इस बहस को भटकने देने का डर नहीं होता तो मैं उसपर स्वयं कुछ कहता । फिर सही ।

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  42. अगर मेरी लोकतान्त्रिक बातें आपको गाली लग रही है तो क्या आप जो कह रहे है वे किस कोश के आधार पर सुभाषित सिद्ध होंगे. वाह ! प्रतिवाद गाली है / और अनर्गल बात सुभाषित / मेरे वारे मै अगर कोई कुछ कहता है मै आपकी तरह उसका प्रतिवाद न कर एक बेहतर रचना से उत्तर दूंगा. ऐसा मै आज तक करता भी आया हूँ. आप मेरी चिंता छोड़ें . मै अपनी आलोचना को हर तरह से स्वीकार करता हूँ अगर वह सप्रमाण कही गई है. और यह भी तो एक वहस ही है / आप से कोई व्यक्तिगत शत्रुता तो है नहीं. हो एकता है इस से कुछ सीखने को मिल सके.
    मुझे अपनी चिंता है कि आज तक इतना लिखने के बाद भी कवि नहीं हो पाया . यहो तो कहलाना चाहते थे न आप. या और कोई. तो मै मान लेता हूँ कि में कवि अभी भी नहीं हो पाया.पर यह कहकर कि मै अपनी चिंता करूँ मुझे मेरी बात कहने से रोकें तो नहीं . और दहशत पैदा न करें . जैसे और लोग असहमति व्यक्त कर रहे है वैसे मै भी कर रहा हूँ.

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  43. Karan Singh Chauhan कर्ण सिंह जी, इस धारदार वक्तव्य के लिये साधुवाद।
    दरअसल, हमारे मित्रों की दिक्कत यह है कि वे कभी ऊबते नहीं है, जबकि ऊब से बड़ा रचनाशीलता का दूसरा कोई कारक नहीं होता है। यह आदमी के अंदर की उस शून्यता का प्रतिबिंब है जिससे वह अपनी परिस्थिति की सीमा से परिचित होता है। ऊब का सीधा संबंध अभाव से भाव के साथ अर्थात creation out of nothing के साथ होता है। इनकी नजर में ऊब एक बुराई है जिसपर रचनाशीलता की अच्छाई से विजय पाई जाती है। जब कि वास्तविकता इससे उल्टी है। अर्थात, कह सकते हैं कि रचनाशीलता भी एक बुराई है।
    हाल में सीपीआई(एम) पर लिखते हुए अपने एक लेख में हमने उसमें फैल रहे अवसाद और बीच-बीच में हुक मार रही फ्रायडीय मृत्युकांक्षा की चर्चा की थी और आज की राजनीति की अपनी प्रकृति को समझने के लिये यह मांग की थी कि उसे इस संसदीय जनतंत्र की राजनीति के अपने रोमांच को समझना होगा तभी वह इसमें अपनी कोई खास भूमिका अदा कर पायेगी। हमने उसमें ‘जासूसी कहानी के पक्ष में’ (In defence of detective story) चेस्टरटन की उस बात का उल्लेख किया था जिसमें वे बताते है कि कैसे उन कहानियों में हमेशा पुलिस की भूमिका चोर या लुटेरे से ज्यादा रोमांचकारी होती है क्योंकि साजिशों में भी सबसे अधिक काली और दुस्साहसी कुछ है तो वह नैतिकता की साजिश होती है। इसीलिये हर परंपरावादी का सारा रोमांच कर्मकांडों में निहित होता है।

    जब कोई अपनी ऊब के शून्य में अपनी परिस्थिति के सीमांत और आगे की अंधेरी खाई को देखता है, ठिठक जाता है, वही उसकी धातु की अपनी सीमा होती है। इसके बाद कर्मकांडी रोमांच का रास्ता पकडने के अलावा उसके सामने दूसरा कोई चारा नहीं बचता। उल्टे एक गहरे अवसाद में फंसने और बीच-बीच में मृत्युकांक्षा (death drive) से भी पीड़ित होने का खतरा ऊपर से रहता है। इसे आप यहां भी देख ही रहे होंगे।

    इनके अच्छे स्वास्थ्य के लिये जरूरी है कि ये इसीप्रकार स्थिर रहते हुए चलने के भ्रम को जीते रहे। और अपने इस विश्वास पर अटल रहे कि 'यज्ञों के विधिपूर्वक शुद्धरूपेण सम्पन्न किये जाने से मनोवांछा की पूर्ति उसी प्रकार अवश्यम्भावी है जैसे प्रकृति के नियम अटल और अवश्यम्भावी होते हैं।'

    वैसे कर्णसिंह जी आप जानते ही है, शंकर ने ऐसे वैदिक कर्मकांड के अनुष्ठानकर्ताओं को उपनिषदों के मामले में निम्न स्तर का बताया था।

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