सैराट - संवाद (७) : कवि नागराज मंजुले और फ़िल्म







मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की चर्चा हिंदी में समालोचन से आगे बढती हुई टीवी के प्राइम शो तक पहुंच चुकी है. कुछ दिन पहले एनडीटीवी में मशहूर पत्रकार रवीश कुमार ने समालोचन में प्रकाशित चार लेखों के हिस्सों  से अपनी बात शुरू की थी.

समालोचन पर ‘सैराट – संवाद’ अभी ज़ारी है. इसकी अगली कड़ी में प्रकाशित इस आलेख में कवि और पत्रकार टीकम शेखावत ने इस फ़िल्म के नाम, उसकी सफलता और समाज पर उसके प्रभाव को लेकर यह आलेख  बुना है.

इस फ़िल्म के निर्देशक नागराज मंजुले कवि भी हैं. उनकी पांच कविताओं का मराठी से हिंदी में अनुवाद भी आप यहाँ पढेंगे.  टीकम शेखवत ने हिंदी को कुछ सुंदर मराठी शब्द भी दिए हैं.  


जाति क्यों नहीं जातीसैराट  के  हवाले से                             
टीकम शेखावत




दोस्तों मैं इक्कीसवीं सदी के वर्तमान धरातल पर भारतवर्ष के उस गाँव के बस स्टैंड पर खड़ा हूँ जहा सड़क के आने से आमूल परिवर्तन तो हुए हैं किन्तु 'बस' का इंतजार करते हुए यात्री या तो दंभ में या मजबूरी में अपनी अपनी जाति का लेबल लगाये हुए खड़े हैं. बसमें बैठ कर या बस से उतर कर लोगों का आवागमन रोज़मर्रा की तरह ज़ारी  है परन्तु उनकी आदमीयत को बेतहाशा बौना कर दिया उनकी अपनी परछाईं ने जिसे हम और आप जातिकहते हैं. चलिए, फिल्म पर बात करते हैं. फर्स्ट थिंग्स फर्स्टके सिद्धांत से  ही शुरू किया जाये. सैराटफ़िल्म के सन्दर्भ में कलम का चलना तक तक अधूरा है जब तक सैराटके अर्थ या इसके सन्दर्भ का संप्रेषण नहीं हो जाता.

चूँकि फ़िल्म कला जगत का एक बहुमूल्य आयाम है और इसमें नाम की अहम महत्ता  होती है, इसलिए इस शब्द के अर्थ व उसके संदर्भ तक पहुँचना अनिवार्य हो जाता है. इसी मशक्कत में शब्दकोष में दिए हुए पर्याय तक ही सीमित रहना या उन्हें हुबहू अवतरित कर देना इस शब्द के साथ ज्यादती करने जैसा होगा. इसका  कारण यह भी है कि यह जनसामान्य वाली ठेठ मराठी भाषा का नहीं बल्कि मराठी भूमि की खास बोली-भाषा से आया हुआ शब्द है. हिंदी का एक बड़ा पाठक वर्ग इस शब्द का अर्थ ही नहीं बल्कि उसके मायने या सन्दर्भ जानने की खातिर उत्सुक है.

मेरी जानकारी में हिंदी में सैराटके मायने निम्नांकित हो सकते हैं. किसी सोच में बेभान डूब जाना, पूर्णतः उन्मुक्त या मुक्त होकर स्वछंद आगे बढ़ना, किसी विषयवस्तु के पीछे सिरफिरा या पगला जाना, अव्वल दर्जे का बिंदासपना या फिर सैर भैरके चरम से आगे निकल जाना. महत्वपूर्ण बात यह भी है कि सैराट होना इनट्रीनसिक’ (intrinsic) होता है. यह प्रतिक्रिया के तौर पर व्यक्ति के भीतर से ही यह पनपता है. अर्थात 'सैराट' होने की दशा समय उस व्यक्ति के होश ठिकाने नहीं रहते.

किन्तु अगर कोई मुझसे कहे कि जैसे अंग्रेज़ी के वनको हिंदी में एककहते हैं या फिर वाटरको हिंदी में पानीकहते हैं तो ठीक वैसे ही एक ही शब्द में सैराट का अर्थ बताओं? यहाँ में गढ़ना चाहुँगा बेधुरी”, यानी अपनी धुरी से बिंदासपनने में अलग/तितर बितर हो जाना. चाहे वह धुरी आपकी जमीन हो जिस पर आप खड़े हैं या फिर आपकी अस्मिता, अस्तित्व, ज़हन, या व्यक्तित्व की ही क्यों न हो.

समालोचन के पटल पर सैराटके सन्दर्भ में विष्णु जी का सटीक विश्लेषण पढ़ा. विषय को नए आयाम दिये कैलाशजी ने और मयंक भाई ने. लेकिन अगर फ़िल्म देखने वाली आम जनता की बात करू तो मैंने कई लोगों को थियेटर में बेभान नाचते देखा तो दूसरी और यही पुणे के पास एक गाँव में एक युवतीनायिका की तरह बुलेट चलाते नज़र आई. कई लोग ऐसे भी मिले जो यह सोचकर की यह सीरियस फ़िल्म है, फिल्म देखने ही नहीं गए. इस फिल्म को लेकर थोड़ा समाज में बवाल भी हुआ. कितनी ही आलोचनाएँ और  टिप्पणियाँ आई किन्तु हम सभी के सामने यह अमिट सत्य हमारे इतिहास और इतिवृत्त में दर्ज हो गया कि यह मराठी की अब तक की सर्वाधिक पैसा कमाने वाली फ़िल्म हैं.

सफलता के पथ पर नागराज जी की शानदार हैट्रिक हुई (पिस्तुल्या, फ्रेंड्री व सैराट) हैं. ऐसा क्या है इस मराठी फ़िल्म में कि देशभर में इसकी  चर्चा हो रही है? क्या हम यह माने कि किसी फ़िल्म का अच्छा पैसा कमाना ही उसकी विजयगाथा के रथ को दौड़ते रखता है? शायद नहीं! आज जहाँ फिल्मों की भरमार हैं वहीँ ऐसी कितनी ही फ़िल्में हैं जिनकी कहानी आपके मस्तिष्क  से सिनेमा हाल से निकलते ही गुम हो जाती है या फिर जब कोई कहता हैं की फलानी लाइट एंटरटेनमेंट की फ़िल्म हैं तो एक कयास यह भी लगा दिया जाता हैं की वह टाइमपास मूवी है और उसमे कोई कहानी नहीं है.. ऐसे में सैराटकी कहानी भुलाये नहीं भूलती.

यह शायद इसलिए क्योंकि यह कहानी नहीं है, entertainment नहीं है भाई. जीवन है जिसकी पगडंडियाँ अक्सर टेढ़ीमेढ़ी होती हैं, वे हमारी पास ही होती  हैं किन्तु हम उसे खुली आँखों से देख नहीं पाते. अब तो हम उसे अखबार में पढ कर हैरान भी नहीं होते और टीवी की न्यूज़ में अब ये खबर दिखाई नहीं जाती बस स्क्रीन के नीचे एक पट्टी जिसे आप स्क्रॉल कहते है. वहाँ एक वाक्य में लिख दिया जाता है रेलवे ट्रैक पर २ लाशे मिली हैं, कुछ ही दिन पहले उन्होंने अपनी जाति के बाहर प्रेम विवाह किया था. यह पढ़ते पढ़ते हम चाय की एक सीप और लेते हैं और समाज की इन विसंगतियों को अखबार और टीवी के हवाले 'भारत' में छोड़ देते हैं और हम खुद सैराट होकर इण्डिया में चले जाते हैं जहाँ हमारा इंतजार सुपरमाल्स, पिज़्ज़ पॉइंट्स और योयो हनीसिंह का म्यूजिक कर रहा होता है. अस्पृश्यता वाली मानसिकता या जातिभेद का आवेश किस तरीके से समाज में आज भी व्याप्त हैं इसका बेहतरीन उदाहरण है यह फिल्म.

एक समीक्षक की दृष्टि से जब मैं फिल्म का फ्लिप साइड देखता हूँ और जब लोग कहते की इस फिल्म की तो कोई खास मार्केटिंग भी नहीं हुई तो मै इसमें अपनी सहमती जुटा नहीं पाता. दरअसल फिल्म का नाम आम बोलचाल की मराठी से इतना भिन्न है कि फ़िल्म आने तक इस शब्द के अर्थ व सन्दर्भ काफी लोग खोज रहे थे और यह कुतूहल का विषय था. इसकी ऐसी व्याप्ति होना विपणन का हिस्सा क्यों नहीं हो सकता? जिस देश में प्याज़ के महंगे होने की सामूहिक चर्चा सत्ता को बदल देने की ताकत रखती हो वहा इसे यूटोपियाको एक स्ट्रेंथ के तौर पर देखा जा सकता है.

मार्केटिंग के अन्य पहलु तब सामने आते हैं जब पता चलता हैं कथित तौर पर यह पहली भारतीय फ़िल्म हैं जिसका संगीत हालीवुड’ में रिकॉर्ड किया गया. इस विषय का मेल जब अजय-अतुल के संगीत निर्देशित गीत झिंग झिंग झिंगाट गाने के साथ होता है तो फिर अस्पृश्यता, जातिवाद जैसी सीरियस विषयवस्तु को नए एंगल से देखने के लिए मैकडोनाल्ड्स में जाने वाले और सो कॉल्ड वायपीढ़ी (जनरेशन) के युवा भी अपने आपको को रोक नहीं पाते. गीत का कमाल यह है की अर्थपूर्ण स्वदेशी शब्दों का विदेशी धुन के साथ लाजवाब कोलाज हुआ है जिससे यह गाँव गाँव भी बज रहा हैं और एलिट शहरी क्लास के यहाँ भी.  
   
फिल्म की नायक नायिका ने अभी-अभी स्कूलिंग के बाद कॉलेज में एडमिशन लिया हैं और फ़िर उन्हें एक दूजे से प्रेम हो जाता हैं. यहाँ तक तो ठीक हैं, किन्तु  केवल यही कहना कि 'चूँकि नायक असवर्ण हैं इसलिए यह प्रेम जातिभेद की भेंट चढ़ जाता है'  कहाँ तक  उचित है ? आम तौर पर इस उम्र में (१६-१७ साल की उम्र में) कोई भी माँ-बाप ऐसे रिश्ते को स्वीकार नहीं करते चाहे बच्चे एक ही जाति के क्यों न हों. यह बालिश्त उम्र होती है. शुरुआत में नायक के घर वालों की बोली अलग हैं और फिल्म के उत्तरार्ध में उन्ही की जाति के पंचायत के वार्तालाप के समय बोली अलग जान पड़ती है. पुलिस अट्रोसिटी का भी कोई दर्ज नहीं करती और ना ही कोई दलित नेता आगे आता हैं.
खैर, कोई कितनी भी खामिया बताये किन्तु इस फिल्म के बाद नागराज के लिए राहत इंदोरी’ साहब की शायरी में  कुछ  यों   कहा  जा  सकता    है.  

मैं नूर बनके ज़माने में फ़ैल जाऊंगा
तुम आफ़ताब में कीड़े तलाशते रहना

इन सभी बातों से से प्रश्न उठता हैं की अगर विषयवस्तु साधारण है,पुराना  हैं या कॉमन है तो फिर इस फिल्म में अलग क्या हैं? क्यों इसे लेकर इतनी चर्चा है और शोर शराबा है? मेरी नज़र में यह फिल्म आपको अपने समाज रूपी शरीर के सूक्ष्म घावो को लेंस की मदद से देखने का एक बेजोड़ माध्यम है. यह फिल्म बताती है कि तुम मंगल ग्रह पर तो ऑटो रिक्शा से भी कम किराये में चले जाते हो किन्तु जाति-वाद के द्वेष के अभेद दरवाज़ों को खोलना अब भी लगभग दुर्गम अथवा असंभव है. यह इस विडंबना को भी उजागर करती है कि हमारी समस्याओं का निराकरण या गलती पर सज़ा आज भी पञ्च-परमेश्वर के हाथो में हैं. हमारी आँखे जो पथरा गई थी अपने मतलब की दुनिया में व्यस्त रहते हुएउन्हें नागराज मंजुले ने फ़िर से जीवित किया हैं.

और फिल्म का आखिरी दृश्य तो बेजोड़ है. यह दशको तक याद रखा जायेगा. हमारी दिक्कत यह है की हमें रेडीमेड उत्तर पाने की आदत सी पड़ गयी है,  नागराज ने इस दृश्य के माध्यम से हमारी तरफ बहुत जोर से वास्तविकता के धरातल से लबालब सवाल फेंके हैं जिनसे खून के छींटे उतर कर हमारे मानस, हमारी संवेदनाओं से चिपक गए हैं और नहीं निकल पा रहे. अफसोस हम इस सत्य को पचा नहीं पा रहे हैं. मगर, यह हमारी अपनी समस्या है और इसके उत्तर हमे ही खोजने होंगे.

जहाँ एक ओर हर तरफ फ़िल्म को लेकर सामंतवाद, जातिभेद से संबंधित टिप्पणियों पर चर्चा है तो वहीं दूसरी ओर मुझे लगता है इसमें नारी विमर्श के महिम धागों वाली कड़ियाँ भी हैं जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. उदाहरण के लिए नायिका आर्चीको बुलेट या ट्रेक्टर चलाने की अनुमति तो है किन्तु मर्यादाओं के लाल सिग्नल सदा उसके इर्द गिर्द बने हुए हैं जो कभी हरे नहीं हो सकते. पलायन के पश्चात् भी वह फ़ोन पर अपनी माँ से संपर्क में रहती हैं किन्तु माँ इतनी कमज़ोर हैं की वह घर के मुखिया को अपनी बात नहीं समझा पाती या यूँ कहिये की वह अबला, किसी के भी सामने अपनी बात नहीं रख पाती.

कुल मिलाकर एक बेजोड़ सिनेमा. मानव समाज को जरूरत है जाति के मुखौटों से इंसानो को आज़ाद कराने की. इसी सन्दर्भ में दलित चेतना के मूर्धन्य कवि नामदेव ढसाल का ज़िक्र फिल्म में प्रतिकात्मक तौर पर हुआ हैं.  नायक व नायिका का कत्ल फ़िल्म को हमारे समाज के वास्तविक चेहरे से अवगत कराता है.
नागराज जितने अच्छे फिल्मकार हैं उतने ही बढ़िया प्रगतिशील कवि भी है. मेरे बाबूजी की स्मृति में प्रदान किये जाने वाले सोनइन्दर सम्मान - २०१६ (हिंदी, उर्दू व मराठी काव्य के लिए) के कार्यक्रम में नागराज बतौर मुख्य अतिथि आये थे और उन्होंने कविता भी सुनाई थी. प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताओं का मराठी से हिंदी में अनुवाद.

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ll नागराज  मंजुले की कविताएँ ll 



धूप की साज़िश के खिलाफ़

इस सनातन
बेवफ़ा धूप
से घबराकर
क्यों हो जाती हो तुम
एक सुरक्षित खिड़की की
सुशोभित बोन्साई!
और
बेबसी से... मांगती हो छाया.

इस अनैतिक संस्कृति में
नैतिक होने की हठ की खातिर......
क्यों दे रही हो
एक आकाशमयी
मनस्वी विस्तार को
पूर्ण विराम...

तुम क्यों
खिल नहीं जाती
आवेश से
गुलमोहर की तरह.....
धूप की साज़िश के ख़िलाफ़.




दोस्त

एक ही स्वभाव के
हम दो दोस्त

एक दुसरे के अजीज़
एक ही ध्येय
एक ही स्वप्न लेकर जीने वाले

कालांतर में
उसने आत्महत्या की
और मैंने कविता लिखी.




 मेरे हाथो में न होती लेखनी


मेरे हाथो में न होती लेखनी
तो....
तो होती छीनी
सितार...बांसुरी
या फ़िर कूंची

मैं किसी भी ज़रिये
उलीच रहा होता
मन के भीतर का
लबालब कोलाहल.




और

.

इश्तिहार में देने के लिए
खो गये व्यक्ति की
घर पर
नहीं होती

एक भी ढंग की तस्वीर.



ख.

जिनकी
घर पर
एक भी
ढंग की तस्वीर नहीं होती
ऐसे ही लोग
अक्सर खो जाते हैं.



जनगणना के लिए

जनगणना के लिए
स्त्री / पुरुष
ऐसे वर्गीकरण युक्त
कागज़ लेकर
हम
घूमते रहे गाँव भर
और गाँव के एक

असामान्य से मोड़ पर
मिला चार हिजड़ो का
एक घर.
(अनुवाद टीकम शेखावत) 
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 टीकम शेखावत (सोनइन्दर) 
कविता 'नटनागर से बात करे' पर नृत्य नाट्य को राज्य स्तरीय पुरस्कार, राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिकाओ में कविताएँ प्रकाशित. 
सम्प्रति: उप मुख्य प्रबंधक -  मानव  संसाधन द टाइम्स  ऑफ़ इंडिया  समूह, पुणे  
संपर्क :  B-602, श्रीनिवास ग्रीनलैंड काउंटी
मानाजी नगर, नरहे गाँव, पुणे, 411041            
चलभाष : 09765404095
tikamhr@gmail.com
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  1. सैराट के अर्थ को समझाते हुए फिल्म के बहाने समाज के चेहरे से रूबरू करती है,टीकम शेखावत की समीक्षा.सबसे शानदार है कविता.उनका बेहतरीन अनुवाद. विशेषत कविता के लिए शुक्रिया.

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  2. बेहतरीन पोस्ट. सैराट अब पुस्तक का रूप लेने लगी है. इन कविताओं के लिए समालोचन का शुक्रिया. समालोचन अब बस्ती बन गया है कोमरेड.

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  3. मनुष्य के कोमल मन और हमारे भारतीय समाज के कलुषित जन को सामने लाकररखने वाला कलुषित सत्य है सैराट । !।टीकम जी की सटीक समीक्षा ।

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  4. मराठी फिल्म 'सेराट' इन दिनों चर्चा में है.. Arun Dev के समालोचन पर निरंतर चर्चा ने भी मुझे फिल्म देखने को उकसाया..
    नागराज मंजुल निर्देशित यह तीसरी फिल्म है |
    बेहद साधारण कहानी ..जो टीनएज लव बेस्ड है कुछ खास प्रभावित नहीं करती | अल्पवयस्क अभिनेता -अभिनेत्री (जो शायद निजी जीवन में भी वयस्क नहीं है) आकाश ठोसर और रिंकू राजगुरु का परस्पर आकर्षण.. जिसे हम 40 पार करते करते 'इनफेच्युएशन' कह कर हंसी में उड़ा देते है, टाइप की लव स्टोरी है.. जो कमोबेश पहले हाफ में चलती है |
    सवर्ण अार्ची (रिंकू) का दलित प्रेमी के साथ . भाग जाना व विकट परिस्थिति में गृहस्थी चलाना.. दो बरस बाद एक बरस के बच्चे के साथ कस्बे में लौटना और आर्ची के घर वालों द्वारा उनकी नायक नायिका की हत्या... अॉनर किलिंग..
    कहानी निष्प्राण सी ही है.. मगर आखिरी दृश्य में थोड़ा सा हिलाती है ( क्योंकि हम भारतीय मां- बहन को मनुष्य नहीं.. घर की इज्ज़त प्रतिष्ठा के साथ जोड़कर देखने के आदी है.. तभी तो गाली के रूप में मां -बहन के रिश्तों का इस्तेमाल सामने वाले को अप्रतिष्ठित करने के लिए करते है).. एक वर्ष का बच्चा मां-बाप की लाशों को देख रोता हुआ घर से बाहर निकलता है...|
    फिल्म खत्म होने पर अजय -अतुल का संगीतबद्ध किया हुआ गीत 'झिंग झिंग झिंगाट ..' बजता है..
    सारा स्यापा यहीं है | क्योंकि गाने की रिद्म इतनी सही है युवा दर्शक सिनेमा हॉल में थिरकने लगता है..
    ..तथाकथित दलित विमर्श के महारथी इसे असंवेदनशीलता मानते हुए यह तर्क दे रहे है कि "हत्या के दृश्य के बाद भी लोग हॉल में नाच कैसे लेते है ... यह दलित विरोधी मानसिकता है.."
    पर हां साधारण सी फिल्म है... हिट की कारण शायद इस पर विवाद... ठीक ठाक अभिनय (वो भी बॉबी-जूली छाप) और संगीत है..|

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    1. Hello. I agree with you on the point that the story is not that great. Actually there is no story, it's all realistic. The end however leaves a great impact. I'm shocked to know that they played the song zingaat after the end. It is not supposed to be done since it's not part of the end. The end is totally silent and it's made like that for a reason. I have never heard such cases from anyone who has seen the movie here in Maharashtra. Probably in some other states this might have been done keeping in mind the common trend of playing the most catchy and popular song at the end of the movie. But here, it might just wash out your thought process which just started at the end, and it doesn't seem to do justice to the main motive of the movie.

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  5. शिवप्रिया7 जून 2016, 3:23:00 pm

    किसी फिल्म का इतना गहरा, विवेकपूर्ण और संवेदनशील विश्लेषण काफी समय के बाद पढ़ने को मिला हैं! कविता तो केवल अनुवादित ही नहीं, बल्कि अपने आप में परिपूर्ण लगती हैं; जैसे कोई स्वतंत्र अभिव्यक्ति हो! आदर्श समालोचन और आदर्श अनुवाद का यह वस्तुपाठ पाठकोंको प्रदान करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!!

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  6. Wonderful criticism. encompassing different angles in the movie. Very good translation of Mr. Nagraj Manjule's poetry by Tikam Shekhawat.
    Congratulations!

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  7. अशोक भांबुरे8 जून 2016, 8:35:00 am

    सैराट का विवेचन और नागराज मंजुले की मराठी कविताओंका हिन्दी हिन्दी अनुवाद दोनोही बढीया है!

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  8. Shekhavat ji, very nice blog. I liked the translated poems also. I had heard the one titled 'dost' in marathi in an interview of team sairat. I would like to answer the questions in your blog about Parsha's family and the police case. The Kale family has to finally leave the village and that scene where his father requests the panchayat to allow his family to stay in the other village, is probably some village near Gujarat, hence the language changes. It is not clear for how many days they are staying there, but the important thing is they are living in the same state in the new village also. They have to plead and reassure the panchayat that their family will not be a nuisance to the village by cutting all the threads to past, they have to forget their son! It's not easy, whether to move to a new place for such reason and to be ashamed and guilty about your own son.. But people from lower castes are still treated like that so their biggest fight is to live, somehow live! And there is no police case? Police? The police was useless there, totally under the control of Patil. If the police works what it is supposed to do, we would have much peace!

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  9. Tikam Bhai,

    Very nice discussion on Marathi Film 'Sairat'. Yet Indian People bebived in cast system, very sad.
    The translation of Nagraj's Marathi Poems also good.
    Latika

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