मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ पर संवाद के अंतर्गत आपने कल मराठी
के शीर्षस्थ कथाकार, नाटककार तथा नाट्य समीक्षक जयंत
पवार का मराठी में लिखा आलेख ‘प्रेक्षक
का ''सैराट'' झाले असावेत?’ देखा/ पढ़ा. इसका हिंदी में अनुवाद भारतभूषण तिवारी ने किया है.
समालोचन ही नहीं हिन्दी के पाठक भी उनके आभारी हैं.
निश्चित रूप से यह आलेख महत्वपूर्ण है. उत्पीड़ितों के अपने
उत्पीडन के खिलाफ जारी जरूरी संघर्ष में अतिवाद
के खतरे भी निहित रहते हैं. किसी भी आन्दोलन को लम्बे वक्त तक चलाने के लिए विवेक
के साथ उसमें अपनी आलोचना को भी सुनने का धैर्य होना चाहिए.
इससे पहले इस क्रम में आप विष्णु खरे, आर. बी तायडे, कैलाश
वानखेड़े को पढ़ चुके हैं.
दर्शक क्यों ‘सैराट’ हुए होंगे?
जयंत पवार
(मराठी से हिंदी में अनुवाद भारतभूषण तिवारी)
कल एक सामाजिक कर्तव्य पूरा किया. नागराज मंजुले की ‘सैराट’ देखी. कई बार कोई महत्त्वपूर्ण फिल्म देखने से रह जाती है.
उस बारे में कोई सायास सवाल नहीं करता. मगर ‘सैराट’ रिलीज़ हुई तब से
लोग एक-दूसरे से पूछ रहे हैं, ‘सैराट’ देखी? मानो यह फिल्म
देखना आपका कर्तव्य है, ऐसा पूछने वाले
का मंतव्य होता है. इसलिए यह फिल्म देखना एक सामाजिक कर्तव्य बन गया था. वह कल
पूरा कर दिया.
मैंने फिल्म देखी वह उपनगर के एक मल्टीप्लेक्स में.
हॉल आधा भरा था और लोग गानों पर नाच नहीं रहे थे. इसलिए फिल्म ठीक से देखी गई.
मतलब फिल्म देखते हुए लोग फिल्म को कैसे देख रहे
हैं यह भी देखने का एक हिस्सा होता है. हॉल में कुछ ग़ैर-मराठी लोग थे. मतलब
काफी सारे मराठी थे और उनकी काफी जगहों पर उनकी दाद देने की भांति निकली हँसी
सुनाई पड़ रही थी. फिल्म समाप्त होने पर कुछ लोग आँखें पोंछते हुए बाहर निकल रहे थे.
सोशल नेटवर्क पर इस फिल्म के बारे में और खासकर उसके अंत को लेकर इतना लिखा गया है
कि अब उसमें शॉक एलिमेंट नहीं बचा. मगर इसका एक उल्टा परिणाम भी हुआ. आखिर
का हिस्सा देखते हुए, अब अपना अंत आ
गया है ऐसा किसी को महसूस होने पर जैसा होगा कुछ-कुछ ऐसी ही हालत मेरी हो गई थी. 'कैफ़े मद्रास' फिल्म में बम-विस्फोट से पहले कमर पर बम बांधकर निकलने वाली
आतंकवादी लड़की को जब कपड़े पहनाए जाते हैं उस वक़्त सारी आवाज़ें निर्देशक ने म्यूट
कर रखी हैं. मानों एक भयानक समारोह चल रहा है. विवाहोपरांत पराए घर जाती लड़की की
बिदाई के वक़्त की जाने वाली तैयारी की भाँति. वह देखते हुए जैसे कलेजा ऊपर-नीचे
होता है, यहाँ वैसा ही हुआ. पहले
के दर्शकों की तरह मैं असावधान धरा नहीं गया. इसलिए थर्राया नहीं मगर दम घुटने का
अहसास हुआ.
कुल मिलाकर अपने गुण-दोषों के साथ फ़िल्म पसंद आई. सच कहें
तो जितने उसके गुण बताएं जाएं उतने ही या उससे ज़्यादा दोष बताने पड़ेंगे. बल्कि
पूरी फ़िल्म देखने के बाद यह सवाल मन में उठा कि यह मराठी की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर
फ़िल्म कैसे हो गई मियाँ. बेहद अस्त-व्यस्त अरेंजमेंट और सटीकता का अभाव जो
कलात्मकता के आड़े आना वाला सबसे बड़ा दुर्गुण है वह इस इस फ़िल्म से चिपका हुआ है.
और फ़िल्मों की अवधि कम होने के आजकल के दौर में ‘सैराट’ की तीन घंटे की
लम्बाई यह चिंता की और दर्शकों की सहनशक्ति की परीक्षा लेने वाली बात साबित हो
सकती थी. फिर भी इस पर विजय पाकर दर्शकों ने फ़िल्म देखी, एन्जॉय की और अनुभव लिया. ये एक चमत्कार की तरह लगने वाला
अनुभव है. यह चमत्कार केवल मार्केटिंग से मुमकिन हुआ होगा ऐसा नहीं लगता. सिर्फ एक
निर्देशक को ब्राण्ड वैल्यू हासिल हो चुकी इसलिए ऐसा हुआ होगा, ऐसा भी नहीं लगता. ‘सैराट’ की सफलता की क्या
वजहें हैं, इसकी पड़ताल बहुतों को बहुत से पहलुओं से करनी
पड़ेगी. इस बात की वजहें कृति के भीतर और उसके बाहर भी हैं. कोई क्षेत्रीय फ़िल्म
कमाई के सारे रिकार्ड तोड़कर यहाँ-वहाँ पसरती जाती है और उसकी लोकप्रियता की
महामारी हवा की तेज़ी से फैलती है तब उस सफलता का अर्थ ढूंढना पड़ता है. इस काम से
फ़िल्म की महानता के कारण शायद पता न चलें, बल्कि जो पता चलेंगे वे धोखे में डालने वाले होंगे मगर समाज के एक बड़े हिस्से
की अभिरुचि, बदलती संवेदनाओं
की दिशा मालूम हो पाएगी.
‘सैराट’ देखते हुए मुझे
उसमें जो लक्षणीय लगीं ऐसी गिनी-चुनी बातें मतलब लिखे हुए संवादों का एकदम अभाव.
वे वास्तविकता में जैसे झड़ते हैं उन्हें वैसे ही रखे जाना. इसलिए उन्हें बोलने का
तरीका भी स्वछन्द, अस्पष्ट और
बहुजनी अंदाज़ का. मानक भाषा के व्याकरण का उल्लंघन करने वाली. वाक्यरचना का तर्क
खारिज करने वाली. नायक के साथ रहने वाले उसके दो फटीचर मित्रों का रचा गया खालिस
किरदार देखने लायक है. इन दोनों में लंगड्या तो एकदम ग़ज़ब है. यह किरदार निभाने
वाले कलाकार ने ज़बरदस्त अभिनय किया है. दो दृश्यों में लंगड्या के सामने या पीछे
कोई और लंगड़ा आदमी सरकता नज़र आता है. एक सीन में नाटा सामने से आता है. ये साधारण
गरीब आदमी का अपाहिजपन, असहायपन चिन्ह
बनकर फैलता रहता है. फिल्म रफ्ता-रफ्ता फैंटसी से यथार्थ की ओर सरकती जाती है.
पहले हिस्से की परिकथा में भी निर्देशक नायक और नायिका के पीछे वाले यथार्थ का
पल्लू कस कर थामे रहता है. उसमें से बोए गए अर्धशहरी ग्रामीण व्यवस्था में निहित
जातीय सन्दर्भ भली-भान्ति पहुँचते हैं.
पाटिल का लड़का लोखंडे नाम के दलित अध्यापक को
थप्पड़ मारता है यह बात उसके बाप को काबिले-तारीफ लगती है. यही लोखंडे परश्या से
कहता है, तू सो चुका ना उसके साथ
(पाटिल की बेटी के साथ), फिर छोड़ दे.
उन्होंने भी ऐसा ही किया. ये जातीय सन्दर्भ प्रमुखता से आते हैं, शायद इस बात से भी दर्शकों को ख़ुशी मिली होगी.
इसमें जो सुन्दर नहीं, जो अभावों में
जीते हैं ऐसे युवक-युवती का रोमांटिक जीवन यथार्थ के करीब पहुँचता है और उसका
रोमांटिसिज़्म, हीरोइज़्म
गुदगुदाता-सहलाता है. अब तक परदे पर साकार हुई प्रेमकहानियों के नायक-नायिकाओं ने
भी युवावर्ग को ख़ुशी दिलाई होगी, मगर यहाँ दर्शकों
के बीच वाले परश्या, आर्ची, लंगड्या, सल्लू, आनी पर्दे पर के किरदारों में खुद को देखते हैं. उनके इर्दगिर्द का यथार्थ ऐसा
ही हिंसक, निर्दयी और अभावों से भरा
है. उसमें वे जीने के आराम तलाशते हैं. उनकी फंतासियाँ और यथार्थ दोनों ‘सैराट’ ने सामने रख दिए हैं और हौले से भविष्य की तस्वीर की गठरी भी खोल दी है. इस
देश के साधारण युवक-युवतियों का जीना एक तीन घंटे के कैप्सूल में बंद करके नागराज
मंजुले ने हमारे सामने रखा है.
इस पूरी फ़िल्म में बहुजन संस्कृति का अस्तर लगा है, जिसकी वजह से
बहुत सारे लोगों को फिल्म में अपनी आवाज़ सुनाई पड़ती है. फ़िल्म अपना ही एक
सौंदर्यशास्त्र रचती जाती है जो अभिजातों को अथवा जिन पर कलात्मकता के अभिजात
संस्कारों का असर है उन्हें झूठा, सुविधापूर्ण और
नीरस लग सकता है. इस फिल्म का आकार चुस्त और सुघड़ नहीं. बहती हुई धारा की तरह वह
जैसे-तैसे हो बढ़ती रहती है, मगर उसकी अपनी ही गति है और स्वाभाविकता है.
यह फ़िल्म देखने आया बहुजन युवा दर्शक राज्य के छोटे बड़े
सिनेमाघरों में घुसा और गानों पर पैसे फेंकते हुए नाच उठा. हम बड़े शहरों के
मल्टीप्लेक्सेज में जाकर वहाँ के थिएटर में सीट पर खड़े होकर नाच नहीं सकते,
वहाँ अब उच्चवर्गीय लोग नहीं तो हमारे जैसे लोग
ही अधिक होंगे, इसलिए पैरों में
स्लीपर हो तब भी हिचकिचाने की कोई वजह नहीं, खूब नाचा जाए, यह अलग सा कॉन्फिडेंस इस फ़िल्म की वजह से आया. यह अपना चेहरा दिखाने वाली और
अपनी ही आवाज़ में बोलने वाली फ़िल्म है यह अहसास अनजाने में ही ‘सैराट’ ने उसे दिया और वह मदहोश हो गया होगा.
यह और ऐसे अनेक कारण ‘सैराट’ की सफलता के पीछे
सुप्त अवस्था में होंगे. ‘सैराट’ की सफलता उसकी कलात्मकता में कम और उसके भीतर और
बाहर वाली ऐसी कुछ समाजशास्त्रीय बातों में अधिक है.
अब यहाँ से आगे बहुजन संवेदना वाली कृतियों के समक्ष
ज़िम्मेदारी बढ़ गई है. उसमें एक खांचे में बंधी प्रस्तुति करना सुभीते भरा काम है
फिर भी यथार्थ के सरलीकरण के सिवा उस से कुछ हासिल नहीं होगा. जाति के यथार्थ की
और अधिक खुल्लम-खुल्ला प्रस्तुति अब लोगों को चाहिए. वह उनकी ज़रुरत बनती जा रही है
ऐसा नज़र आता है. और यह यथार्थ पेचीदा है. यथार्थ का ही जायज़ा लेना है तो पाटिल की
खलनायकी हमेशा काम नहीं आएगी. ‘ख्वाडा’ और ‘सैराट’ में जो दर्शाया गया है
उससे मराठा जाति के कुछ हिस्से को अगर दुःख पहुँचा होगा तो ऐसी जातीय अस्मिता भी
काम की नहीं. क्योंकि जो दिखाया गया है वह झूठ नहीं है. जिस प्रकार ब्राम्हणों की
होने वाली आलोचना उनमें के समझदार और प्रगतिशील हिस्से को भी समझदारी दिखाते हुए
झेलनी/सहनी पड़ेगी उसी तरह मराठा वर्ग को भी आलोचना झेलनी पड़ेगी. इसका कोई विकल्प
नहीं है. ये झेलते हुए ही इस जाति को अपनी अकड़ कम करते हुए और स्वयं को सुधारते
हुए आगे बढ़ना पड़ेगा. मगर इसके साथ-साथ यह भी सच नहीं कि अन्य जातियाँ सिर्फ शोषित
हैं.
शोषक उनमें भी हैं. वे सभी जातियों में हैं. हर जाति अपने से नीचे वाली जाति को तुच्छ समझती है और
विवाह-सम्बन्ध की बात होने पर हैवान बन जाती है. ऑनर किलिंग हरेक जाति में होती
हैं और ऐसे अनेकों उदाहरण इस महाराष्ट्र
में घटे हैं. और पितृसत्ता से तो सबसे निचले पायदान की जाति भी ग्रस्त है. सबसे
निचली जाति की स्त्री सबसे अधिक शोषित है. इसलिए बहुजन कलाकारों को यहाँ से आगे
यथार्थ से भिड़ते हुए शोषण की इन भीतरी सलवटों का बहादुरी से सामना करना होगा. ऐसे
भिड़ते हुए हरेक जाति की अस्मिता जागृत होकर उन कृतियों का गला घोंटने से भी शायद
बाज़ नहीं आएंगीं. मगर इस सेंसरशिप की
चुनौती बहुजन लेखक कलाकारों को स्वीकारनी होगी. ‘सैराट’ ने यह चुनौती
स्वीकार नहीं की मगर आगे की राह ज़रूर स्पष्ट की है. कोई दूसरा हमारे साथ अन्याय
करता है इस यथार्थ में सुभीता है मगर हम खुद अपने आदमियों के साथ अन्याय करते हैं
यह दिखाना आसान नहीं होता, देखना सुभीते भरा
नहीं होता. मगर मानवता जगाने की राह वही होती है.
फॅण्ड्री' के जब्या ने फेंका हुआ पत्थर या आर्ची-परश्या के बच्चे के
घर से बाहर निकलते खून से सने कदम अगर हमारे कलेजे पर पड़ें तो कृति की कलात्मकता
की चर्चा के मुकाबले ये बड़ी बात है. मगर इस पत्थर की और कदम की आगे की दिशा
चीन्हना ज़्यादा मुश्किल है.
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भारतभूषण तिवारी
फिलहाल अमेरिका में रिहाइश
bharatbhooshan.tiwari@gmail.com
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मूल मराठी में पढने के लिए यहाँ क्लिक करें : प्रेक्षक का ''सैराट'' झाले असावेत?
विष्णु खरे के आलेख के लिए यहाँ क्लिक करें
क्या इस हत्या में आप भी शामिल हैं : मयंक सक्सेना
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भारतभूषण तिवारी
फिलहाल अमेरिका में रिहाइश
bharatbhooshan.tiwari@gmail.com
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क्या इस हत्या में आप भी शामिल हैं : मयंक सक्सेना
हिंदी अनुवाद पाकर हिंदी के पाठक अब और ज़्यादा कनेक्ट हुए हैं।
जवाब देंहटाएं'समालोचन' पर जो यह सब हो रहा है,इसके लिए अद्भुत शब्द भी अपर्याप्त है. इन्टरनैट और ब्लॉगिंग के इतने बहुआयामीय इस्तेमाल का ऐसा दूसरा उदाहरण विश्व में शायद अब तक देखा नहीं गया.और अभी तो यह ख़त्म नहीं हुआ है.सोचिए कि भारत भूषण तिवारी अमेरिका में बैठे हुए कितनी मिहनत और लगन और पैनी निगाह से इसमें भागीदारी कर रहे हैं. इस पर तो एक निबंध लिखा जा सकता है.
जवाब देंहटाएंसैराट, अर्थ पर न जाएँ तो हिंदी लोकभाषी इसके उच्चारण में छिपे तमाचे की सनसनाहट से रू-ब-रू होंगे! यह भारतीयता और फिल्मों के सामाजिक जुड़ाव की अगली कड़ी है!
जवाब देंहटाएं'समालोचन' और अरुण देव जी का शुक्रिया जिनके कारण हम लगातार अच्छे लेख पढ़ पा रहे! मैं तो यह फ़िल्म इसी कारण देख भी पाया!
भारतभूषण का शुक्रिया.अच्छा अनुवाद और बेहतर समीक्षा.
जवाब देंहटाएंजयंत पवार की समीक्षा सटीक है और भारतभूषण तिवारी का अनुवाद भी. "‘सैराट’ की सफलता उसकी कलात्मकता में कम और उसके भीतर और बाहर वाली ऐसी कुछ समाजशास्त्रीय बातों में अधिक है". कम समीक्षक हैं जो इस बात को समझ पाए हैं. धन्यवाद अरुण भाई.
जवाब देंहटाएंजो भी धमाकेदार प्रस्तुति दी जा रही हैं कमाल ही नही बहुत कमाल की हैं
जवाब देंहटाएंसमालोचन से जुड़ी होने पर सौभाग्यशाली हूँ। बहुत कुछ सीखने,समझने को मिलता है।
बहुत-बहुत धन्यवाद सर।
' सैराट ' फिल्म पर विष्णु खरे जी की टिप्पणी ने एक सार्थक बहस को उकसाया है । कई आलेख पढने को मिले । फिल्म मैंने नहीं देखी पर लगा कि एक महत्वपूर्ण विवेचना हो रही है । और बात सिर्फ फिल्म की नहीं रह गयी है । फिल्म पर हुई आम दर्शक की प्रतिक्रियाओं के विश्लेषण में हमारे सामाजिक मनोविज्ञान , सामूहिक अवचेतन में बैठे संस्कारों की जकड़बंदी और समय की जटिलताओं को लेकर अनेक विचारणीय बिन्दु उभर कर आये हैं । आपको भी इस बहस को इतने सार्थक ढंग से चलाये रखने के लिये धन्यवाद । ।
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