कोर्ट ट्रायल में रेहाना |
ईरानी युवती
रेहाना जब्बारी को 25 अक्तूबर 2014 को फांसी दी गई थी. वह 19 साल की थी जब उन्हें हत्या के अभियोग में गिरफ़्तार किया गया था पर वह
अंत तक अपने इस दावे पर क़ायम रहीं कि उन्होंने महज़ बलात्कार की शिकार होने से बचने के लिए अपने हमलावर का प्रतिकार
किया था, हमलावर को मारने वाला कोई और था. अदालत से मौत पाने तक उन्होंने पूरे सात साल सियाह क़ैदख़ाने में गुज़ारे और मौत से पहले अपनी मां को एक संदेश भेजना चाहा था. इस फ़ारसी संदेश का अंग्रेज़ी अनुवाद समाचार माध्यमों में रेहाना की वसीयत के रूप में प्रचारित-प्रसारित
हुआ था. इसी वसीयत का हिंदुस्तानी में काव्यानुवाद विनोद चंदोला ने किया है. कितना मार्मिक है यह पत्र. दिल में सीधे उतर जाने वाला.
वसीयत रेहाना की
अज़ीज़ शोले1
हो
गया तय आज
होना
है रूबरू क़िसास2 से
सालता
है दर्द
तुमने
ख़ुद जानने न दिया
खड़ी
थी आख़िरी जुज़ पर
मैं
किताब-ए-ज़िंदगानी की
क्यों?
नहीं
लगा तुम्हें
मालूम
होना चाहिए था मुझे?
पता
है तुम्हें!
कितनी
शर्मिंदा हूं मैं
कि
तुम हो आज़र्दा3
मेरे
लिए
न
मिल सका तुम्हें मौक़ा
कि
चूम सकूं
तुम्हारा
और अब्बू का हाथ
अता
किए जीने को
दुनिया
ने 19 साल
बला
की उस रात
चली
जानी चाहिए थी मेरी जान
फेंक
दी जाती लाश मेरी
किसी
कोने में शहर के
और कुछ
दिन बाद ले जाती पुलिस तुम्हें लाश घर
शनाख़्त
के लिए
तब होता
तुम्हें मालूम
ज़िनाबिलजब्र4 भी सहा
था मैंने
क़ातिलों
का न पता चलता कभी
हैसियत
नहीं हमारी उनके जैसी
यही
हुआ होता फिर
कि
जीतीं तुम ज़िंदगी तड़पती, शर्मसार
और मर
जातीं कुछ बरस बाद तड़प-तड़प कर
लेकिन
क़िस्से ने लिया मोड़
जिस्म
को मेरे कहीं फेंका न गया
कर
दिया गया क़ैद क़ब्र से सियाहख़ाने में
मजबूर
क़िस्मत के आगे
करूं
क्या शिकवा भी
जानती
हो तुम बेहतर
है नहीं
मौत ज़िंदगी की आख़िरत
था तुमने
सिखाया, बताया
आता
है हर कोई
इस
दुनिया में
लेने
तजुर्बा
कोई
सबक़
और
साथ हर पैदाइश के
असर
लेती है एक ज़िम्मेदारी
जाना मैंने
है
पड़ता लड़ना भी
कभी-कभी
याद
है मुझे
कहा
था तुमने
क़द्र-ओ-क़ीमत की ख़ातिर
चुकानी
पड़ती है जान भी
सिखाया
था तुमने
फ़साद-शिकायत के वक़्त मदरसे में
बने
रहना चाहिए कैसे हमें ख़ानम-ख़ातून5
याद
होगा तुम्हें
कितना
ज़ोर देती थीं तुम
हमारे
अख़लाक़6 पर
था
तुम्हारा तजुर्बा ग़लत
वक़्त-ए-हादसा
तुमसे
सीखी बातें न कर सकीं मदद मेरी
पेश
कर अदालत में
बनाया
गया बेरहम क़ातिल
बेदिल
मुजरिम
न
बहाए आंसू मैंने
न
मांगी रहमत
चीखी-चिल्लाई भी नहीं
था यक़ीन
क़ानून पर
लगा
मुझ पर इल्ज़ाम
बेपरवा
जुर्म का
मालूम
है तुम्हें
मच्छर
तक नहीं मारे मैंने
तिलचट्टों
को उड़ा देती रही हूं मैं
अब
बन गई हूं क़त्ल की साज़िश करने वाली
न
जानना चाहा मुंसिफ़ ने
हादसे
के वक़्त
लंबे
पॉलिश किए नाख़ून थे मेरे
न जानना
चाहा उसने कभी
हाथ
न थे मेरे खुरदरे किसी
मुक्केबाज़
के से
और
यह मुल्क
जिसके
लिए महब्बत तुमने बोई मुझ में
न
चाहा कभी उसने मुझे
हिमायत
की न किसी ने मेरी
कराहते-चिल्लाते सहे जब लात-घूंसे
मैंने
खाईं
सवाल पूछने वालों से फ़ाहिश गालियां
सर
मुड़वाकर
खोई
मैंने ख़ूबसूरती की आखिरी निशानी
और पाई इनाम में
ग्यारह
दिनों की तनहाई
मत
रो शोले
सुन
कर यह सब
पुलिस
दफ़्तर में
दुखाया
गया मुझे जब
नाख़ूनों
के लिए मेरे
तो
समझी मैं
यह
ज़माना नहीं करता क़द्र
ख़ूबसूरती
की
खूबसूरत
अंदाज़ की
ख़याल
और तमन्ना की ख़ूबी की
ख़ुशख़ती7 की
ख़ुशचश्मी8 की
ख़ूबसरत
खयाल की
और मीठी
ज़बान की ख़ूबसूरती की
अज़ीज़
मादर
ख़याल बदले मेरे
और
न हो तुम इसके लिए ज़िम्मेदार
न
होंगे मेरे अल्फ़ाज़ ख़त्म
ग़ैरमौजूदगी
में तुम्हारी
तुम्हारे
जाने बग़ैर
जब
मैं होऊं हलाक
बाद
उसके सिपुर्द किए जाएंगे तुम्हें
छोड़े
जा रही हूं
अपने
हाथों से लिखा यह ख़त
बतौर
विरासत अपनी
लेकिन
मर्ग9 से
पहले
मांगती
हूं जो तुमसे
देना
होगा तुम्हें
पूरी
ताक़त से, पुरज़ोर कोशिश से
है
यह वह एक अदद चीज़
जो
चाहती हूं मैं
इस
दुनिया से
इस
मुल्क से
और
तुमसे
मालूम
है मुझे
तुम्हें
चाहिए
कुछ
मोहलत इसके लिए
करती
हूं बयां
अपनी
वसीयत का
एक
क़तरा भर
रो
मत मादर
सुन
चाहती
हूं मैं
जाओ तुम अदालत
बताओ
उसे मेरी ख़्वाहिश
क़ैद
से नहीं कर सकती मैं यह दरख़्वास्त
इसलिए
तुम्हें
फिर-फिर
उठाना
होगा सोग
मेरी
ख़ातिर
है एक
चीज़ यही
गुज़ारिश
जिसकी करती नहीं मुझे
परीशां
कहा
तुमसे कई मर्तबा
हलाक
होने से बचाने की मुझे
न
करो इल्तिजा
मेरी
रहमदिल मादर
जान
से भी अज़ीज़ मेरी
अज़ीज़
शोले
सड़ना
नहीं चाहती मैं गर्द में
चाहती
नहीं जवां दिल मेरा
और
चश्म हो जाएं ख़ाक़
इसलिए
हूं करती अर्ज़
बाद
मुझे किए जाने के हलाक
जल्द-अज़-जल्द
दिल मेरा, गुर्दे,आंखें, हड्डियां
और
वह सब कुछ
जो
काम आ सके दूसरों के
लिए
जाएं निकाल जिस्म से मेरे
दे
दिए जाएं बतौर तोहफ़ा
उन्हें
जिन्हें ज़रूरत हो उनकी
नहीं
चाहती मैं
ऐसा
तोहफ़ा पाने वाला कोई
जाने
मेरा नाम
ख़रीदे
मेरे लिए गुलदस्ता
या
दुआ करे मेरे लिए
नहीं
चाहती अपने लिए कब्र
जहां
आकर रो सको तुम अपना दुखड़ा
और
तड़प सको ख़ूब
नहीं
चाहती पहनो तुम
सियाह
लिबास मेरे लिए
कोशिश
करो
भुलाने
की मेरे मुश्किल दिन
सिपुर्द
कर दो मुझे
हवाओं
को
उड़ा
ले जाएं वे मुझे
न
की दुनिया ने महब्बत हमसे
न
चाहा मेरा नसीब
और
अब मैं शिकस्ता
लग
रही हूं
मौत
के गले
लेकिन
अदालत में ख़ुदा की लगाऊंगी
इल्ज़ाम
तफ़्तीश करने वालों पर
होंगे
मुलज़िम इंस्पेक्टर और मुंसिफ़
मुंसिफ़
अदालत-ए-उज़्मा10 के
जो पीटते रहे जगा-जगा कर
न
रुके सताने से मुझे
मुलज़िम
वे सब होंगे मेरे
जिन्होंने
जहालत में या झूठ के सहारे
हक़
कुचले मेरे
न
किया ग़ौर इस पर
कि
हक़ीक़त
दिखती
है कभी-कभी जैसी
होती
है उससे अलहदा
नरम-दिल अज़ीज़ शोले
दूसरी
दुनिया में
होंगे मुद्दई मैं और तुम
बाक़ी
सब मुलज़िम
देखेंगे
है
ख़ुदा की क्या मर्ज़ी
मैं
आख़िरी दम तोड़ना चाहती थी
तुम्हारे
आग़ोश में
करती
हूं तुमसे बेइंतहा प्यार.
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1.
शोले पाकरवान, रेहाना की मां
2.
ख़ून के बदले ख़ून की न्याय दंड व्यवस्था
3.
शोकाकुल
4.
बलात्कार
5.
सुशील-भद्र महिला
6.
व्यवहार
7.
अच्छी लिखावट
8.
आँखों की सुंदरता
9.
मृत्यु
एक उत्कृष्ट काव्य संबाद के लिये - श्रद्धा से अवनत सादर नमन
जवाब देंहटाएंयखबस्ता उदासियों ने घेर लिया। बाबुषा का लिखा भी दुहरा रही हूँ, इन अफ़सुर्दा वक्तों मेंएक पत्ते की हरी रंगत काँपती है उम्र-भर
जवाब देंहटाएंकोमल-सी कोई लहर बनती-बिखरती
चाँद की घट-बढ़ जारी रहती है
मानो अस्थिरता नाम के किसी गिलास में आकार लेती हो
पानी से जीवन की लम्बाई-चौड़ाई
शायद ईश्वर भी देखता होगा
पलकों की दूब पर ओस के ठहरने का स्वप्न
सम्भव है नींद न टूटे आजीवन
टूटना मगर, स्वप्न की नियति है
सड़क किनारे गठरी लादे फिरते उस आदमी की तरह
आते-जाते रहते हैं बसन्त या शरद के विक्षिप्त दिन
अभी तो हज़ारों प्रकाशवर्ष दूर है सुबह
धरती के कण्ठ में जाड़ा जमा हुआ है
कोई चीत्कार नसों में कँपकँपा के दुबक जाती है
कैसा अश्लील समय है
कि नदी की हँसी और रूदन का अन्तर भी समझ नहीं आता
पड़ोस के आसमान पर सूर्य पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा है
स्त्री का एक पर्यायवाची शब्द गुनाह भी होना चाहिए। वह जो भी करती है बस गुनाह ही है। बहुत मार्मिक
जवाब देंहटाएंकितनी सुंदर लड़की थी ये रेहाना ! कितना साहस ! कितनी जीवंत चिट्ठी है ये.
जवाब देंहटाएंसच ! सुंदरता की कद्र नहीं. और लीना दी ने ठीक ही लिखा कि औरत का एक पर्यायवाची शब्द गुनाह भी होना चाहिए.
अत्यंत मार्मिक।शब्द कम है इस दुःख को व्यक्त करने के लिए शब्द भी कम हैं और हिम्मत भी।
जवाब देंहटाएंलगातार मिल रही चुनौतियों से पुरुष सत्ता बौखला उठी है।
जवाब देंहटाएंबहुत भयंकर हालात हैं।
बलात्कार से बचना और बचाव के लिए बलात्कारी को मार देना भी अपराध हो गया है इन दिनों ईरान में इन दिनों....यह कैसी सोच है, जिसमें हर हाल में अपराधी स्त्री होती है...क्या ख़ुदा की मर्ज़ी इसी में है या यह पितृसत्ता का सबसे ज्यादा घिनौना चेहरा है...आखिर किसने देखा है कभी ख़ुदा को....देख रहे हैं तो बस हैवानियत का चेहरा जो जाने किस किस नाम के पीछे खुद को छिपाए रखता है...
जवाब देंहटाएंऐ रेहाना जब्बारी नाम की बच्ची से बन गई औरत, तू बच्चों की सी अपनी बेख़ौफ़ जिज्ञासा को, आवाज को बुलंद किए रख...हम तेरी आवाज में अपनी आवाजें मिलाकर एक सतत चलने वाली धुन बना देंगे...तुझे शांति मिले, मुर्दों वाली नहीं, निडर व्यक्ति वाली, जानकार वाली...हमें हौसला मिले, तेरी आवाज में अपनी आवाज मिलाने और मिलाए रखने का...
आमीन्...
कई कई वसीयतें अभी पढ़ी जानी बाकी है.. उसके प्रतिकार को, ज़ज़्बे को सलाम..
जवाब देंहटाएंरेहाना जब्बारी का यह माँ के नाम अंतिम पत्र का अनुवाद मैंने पढ़ा था, बहुत बहुत मार्मिक था और क्रूरता का जो जिक्र था वह रूह कंपाने वाला था .... उनसे अपने बलात्कारी से खुद को बचाते हुए बलात्कारी की ह्त्या हो गयी थी तो रेहाना को भी मौत की सजा मिली... उसके नाखून पर नेलपोलिश लगी थी सो उसे जेल में पीटा गया और उसके नाखून उखड़वाये गए..... गंजा भी किया गया... मैंने वह पत्र शेयर किया था किन्तु वह पोस्ट अब मिल नहीं रही ..नहीं तो वह ख़त यहाँ शेयर करती.... कविता उसी दर्द को बयां कर रही है.... जो उसमे लिखा गया.... उस ख़त को सही तरीके से कविता में रखा गया है ... न ज्यादा न कम .. बिलकुल वाजीब... सादर
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