गजानन माधव मुक्तिबोध जितने
महत्वपूर्ण कवि हैं उतने ही बड़े आलोचक भी. अपने समय की यातना और आतंक को जैसा
मुक्तिबोध ने पढ़ा है वैसा अब तक किसी लेखक ने नहीं. जटिल, विकट और अभाष्य यथार्थ
की अभिव्यक्ति के लिए मुक्तिबोध ने फैंटेसी का सहारा लिया. हिंदी का युवा रचनाकार
मुक्तिबोध को अपने निकट पाता है. मुक्तिबोध की पहचान और प्रासंगिकता पर सिद्धान्त
मोहन का आलेख.
उनके ख़याल से यह सब गप
है, मात्र किंवदंती
सिद्धान्त मोहन
ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
और
मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम...
साथ में
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे.
क्या कहूं,
मस्तक-कुण्ड में जलती
सत्-चित्-वेदना-सचाई व गलती -
मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात.
मस्तक-कुण्ड में जलती
सत्-चित्-वेदना-सचाई व गलती -
मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात.
शुरुआत
ऐसे करनी होगी कि विश्व के ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ ने अमरीका को इतनी छूट दे दी है कि
देश में आगे होने वाले नाभिकीय हादसों में मुआवज़े देने के लिए ‘स्ट्राइप्स एंड
स्टार्स’ बाध्य नहीं है. शुरू होते मजमून में तो यह भी लिख दिया जाना चाहिए कि देश
की सरकार चुने जाने के साल भर बाद भी चुनावी विक्षिप्तता से जूझ रही है और बात
यहां से भी शुरू हो तो क्या गलत है कि भारत के प्रधानमंत्री ने कह दिया है कि देश
गलतियों को माफ़ कर सकता है, धोखेबाज़ों को नहीं; और इसके साथ यह भी कि वे कहते आए
हैं कि मैं मानता हूं कि गुजरात में साल 2002 में दंगे हुए, लेकिन तब से लेकर अभी
तक गुजरात में एक भी दंगा हुआ हो तो मुझे बताएं.
और
इसके बीच हम जैसे विकट मानसिकता से लबरेज़ लोग हैं, जो इतने घने और गहराते माहौल
में एक कवि को ढूंढ रहे हैं, उसकी एक ‘कविता की प्रासंगिकता’ की तलाश कर रहे हैं.
अपनी बातों से गजानन माधव मुक्तिबोध को बेहद दुर्लभ और दूर बताने का कोई आशय तो
सही नहीं मालूम पड़ता, फ़िर भी इस एक कविता ने न जाने क्यों इस कवि को बड़ा दूर बनाने
का प्रयास किया. यह कवि तो इस कविता से अपने बीच और गहरे उतरना चाहता था, लेकिन
बहसों, विवादों, संवाद श्रृंखलाओं और लेखों ने इस कविता और आम पाठक की पकड़ को और
दूर किया. इस कवि ने ‘कविता’ को दूर रखकर बदलाव के आह्वान का प्रयास किया, जो
बहसों में सिमटा रह गया. मुक्तिबोध तो कहता ही है – कविता में कहने की आदत नहीं,
पर कह दूं वर्तमान समाज में चल नहीं सकता.
चूंकि बात को सरल करने का
चलन भी है, इसलिए कहना ज़रूरी है कि ‘अंधेरे में’ पर आए तमाम किस्म के विचारों ने
बहुत दुर्लभ योगदान के बाद भी इस कविता को पहुंच से थोड़ा और दूर किया.
....और इसके साथ पद्म
पुरस्कृतों की श्रेणी में बिल और मेलिंडा गेट्स का भी नाम दर्ज हुआ.
प्रासंगिकता
की खोज में यह भूलना लाज़िम था कि अपना भूगोल बहुतेरे उदाहरणों से भरा हुआ है. उन
उदाहरणों को कान पकड़कर बीच में कभी भी लाया जा सकता था, लेकिन उन्हें दरकिनार कर
शाब्दिक भूगोल से इस कविता को साधने की कोशिश हुई. मुक्तिबोध यह खुद ही कह जाता
है, कौन वह दिखाई जो देता, पर नहीं जाना जाता है! बहुतेरे चौंकने और सहम
जाने के बीच भी वह तो मौजूद ही है, उसे चिन्हित करने और पाने के प्रयास नहीं
हो रहे. यहां बहुत सारे ‘वह’ हैं, इन सारे ‘वहों’ के बीच एक सम्बोधक भी है. उसका
बस एक काम है, संवाद. वह हर जुबां से बात करने की कोशिश में है, लेकिन उसका यह
‘वह’ बीच में ही साथ छोड़ जाता है और वहां दूसरा ‘वह’ घर कर जाता है. अपने वह के
लिए मुक्तिबोध शुरू में साफ़ करने की कोशिश करता है – वह रहस्यमय व्यक्ति अब तक
न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है. हालांकि अपने ‘वह’ की यह अभिव्यक्ति खुद भी एक
स्तर के बाद कम है, वह ‘वह’ बहुत दूर तक फैला हुआ दिखाई देता है.
वह
अपने ही समग्र में बहुत बार मारा जाता है. बहुत-बहुत नृशंस तरीकों से. मारे जाते
ही वह उठ खड़ा होता है, फ़िर से आवाज़ उठा देता है. फ़िर से प्रश्न करता है, फ़िर से
तुम सब माँस के लोथड़ों पर हताश होता है. उदाहरणों को और छिछला करते हुए कहें तो वह
जब मारा जाता है तो बहुत सारे यूरोपीय पॉलिटिकल फिल्मकार बगलें झाँकने लगते हैं.
यह
बहुतों के अपाच्य और बहुतों के लिए अपने ही खेमे की पहल क्यों है? मुक्तिबोध जब इस
कविता को लिखता है, तो इस कविता में बहुत सारे जॉनर्स और
स्टीरियोटाइप्स तोड़ता है. बहुत सारी चीज़ों के साथ और उतनी ही चीज़ों के खिलाफ़ खड़ा
होता है. वह मठ और गढ़ की नियमावली के खिलाफ़ खड़ा होता है और वह अभिव्यक्ति की आज़ादी
के खतरों के सापेक्ष भी बात करता है.
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा.
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा.
फ़रवरी
2015 के किसी दिन सेंसरबोर्ड ने कुछ शब्दों की सूची निकालकर कहा कि साहब! ये सारे
शब्द आपकी फ़िल्मों में अब नहीं आने चाहिए. हिन्दू धर्म पर सबसे गहरी चोट एक फ़िल्म
से हुई और मुजफ्फरनगर दंगों में बलात्कार की शिकार औरतों की चिकित्सकीय जांच घटना
के दो से आठ महीनों के बाद कराई गई..
प्रश्न थे गंभीर, शायद
खतरनाक भी,
इसीलिए बाहर के गुंजान
जंगलों से आती हुई हवा ने
फूंक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी –
कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
मौत की सज़ा दी!
इसीलिए बाहर के गुंजान
जंगलों से आती हुई हवा ने
फूंक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी –
कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
मौत की सज़ा दी!
उसने
सूत्रधार और अभिनेताओं के साथ बात की शुरुआत की है. हिन्दी साहित्य का एक बड़ा
हिस्सा रंगमंच को प्रेरणा देता रहा है, अलबत्ता यह भी कहना कहां से गलत होगा कि
साहित्य की बड़ी फांक रंगमंच के बेहद करीब होती है. भले ही वह मूर्त रूप लेने में
तुम सभी से कितना ही रियाज़ क्यों न करवाए? उस कविता का अस्तित्व वही रियाज़ है. यह
रियाज़ ऐसा नहीं है, जो तुमसे एक लंबा समय मांगे. बस थोड़ी-सी सामाजिक समझ और तुम उसके
और ज़्यादा क़रीब होते हो. मुक्तिबोध तुम्हारा सूत्रधार बना बैठा है, सभी बातों को तुम्हारे
करीब ला-लाकर बिठा दे रहा है, तुमसे बेहद सरल भाषा में वह अभिमुख होता है और हमारे
समय के कुछ बेहद महत्वपूर्ण आलोचक इस सूत्रधार को डरपोक नायक की तरह खड़ा कर देते
हैं. कुछ तो उसे इतना महिमामंडित कर देते हैं कि वह सरलता के कटोरे में अपनी जगह
बनाने से दूर बैठ जाता है. उसे तो बेहद अच्छे तरीके से पता है वह वर्तमान समाज
में चल नहीं सकता.
हे
आलोचक! मुक्तिबोध तुम्हारा भोथरापन जानता आया है.
वह
दो रूपों को लेकर चलता है. एक को तो कमज़ोरियों से ही लगाव है और जबकि दूसरा
तुरंत बोल पड़ता है कि दूर उस शिखर-कगार पर स्वयं ही पहुँचो!
उसकी
प्रासंगिकता क्या है? एक लाइनअप पर चलने से माहौल तो यह बन गया कि इस प्रश्न से
अलग कोई बात की ही नहीं गयी. लेखकों
और भाषकों को मेल और पत्र लिखे जाने लगे और फ़ोन पर पूछा जाने लगा कि आप ‘अंधेरे
में’ की प्रासंगिकता को अपनी अगली रचना का केन्द्र बना सकते हैं क्या? नियमतः
अपवादों को ध्यान में रखते हुए बात करें तो साफ़ समझ आया कि पूरी जुगत इन अंधेरों
की प्रासंगिकता ढूंढने में ही खर्च हुई. किसी रिज़ल्ट की बात नदारद थी. सम्भव है कि
इस बार भी यहां भी निष्कर्ष से पहले तक के मोड़ तक ही पहुंचा जा सके. मुमकिन है कि
इस लैबिरिंथ में कुछ खोजा न जा सके लेकिन कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह
दूं वर्तमान समाज में चल नहीं सकता.
...एक
बात यह भी थी कि इंडियन मुजाहिद्दीन नाम का संगठन सरकार की नाकामियों और रिपोर्ट
कार्ड का भार उठने के लिए अस्तित्व में आया.
उसका ‘वर्तमान समाज’ क्या है? यदि किसी आयोजन का दारोमदार मेरे सिरे पर स्खलित हो तो पहल होगी कि इस ‘वर्तमान समाज’ के बारे में तुम्हारी क्या राय है? तुम्हारे इश्टैबलिशमेंट और डिसेंडेंस में ‘वर्तमान समाज’ कहां फ़िर रहा है? या यही क्यों नहीं कि अवमूल्यन के समझौतों में ‘वर्तमान समाज’ कहां तक गिरा? रे पाठक! पॉलिटिकल तुम कब होगे? उसका वर्तमान समाज तो काल के सभी रूपों में फैला हुआ है. वह राजनीतिक तो है ही साहित्यिक भी है. उसकी समझ और उसका डावांडोलपन भी साफ़ है. उसे तो पक्का पता है कि ध्वस्त दीवालों के उस पार कहीं पर बहस गरम है. वह तुम्हारे जैसे टूटपूंजिये क्रांतिकारी को भी समझता है, उसको तो यह भी पता है कि क्रांति तुम्हारे रग-रग में धड़क रही है, तुम हरेक पल रंग-दे-बसन्ती मार्का क्रांतिकारी हो जाना चाहते हो, लेकिन तुम्हारी हिम्मत और तुम्हारी क्रांति का सारा वैभव केवल इंटरनेट और फेसबुक पर ही धरा रह जाएगा. तुम लिखोगे, तुम तस्वीरें काली करोगे, सस्ते चुटकुले चेंपते फिरोगे लेकिन तुम तख्तियां और ‘अभिव्यक्ति के सारे खतरे’ नहीं उठाओगे. तुम सबका काव्य-चमत्कार उतना ही रंगीन परन्तु, ठण्डा है.
उसका ‘वर्तमान समाज’ क्या है? यदि किसी आयोजन का दारोमदार मेरे सिरे पर स्खलित हो तो पहल होगी कि इस ‘वर्तमान समाज’ के बारे में तुम्हारी क्या राय है? तुम्हारे इश्टैबलिशमेंट और डिसेंडेंस में ‘वर्तमान समाज’ कहां फ़िर रहा है? या यही क्यों नहीं कि अवमूल्यन के समझौतों में ‘वर्तमान समाज’ कहां तक गिरा? रे पाठक! पॉलिटिकल तुम कब होगे? उसका वर्तमान समाज तो काल के सभी रूपों में फैला हुआ है. वह राजनीतिक तो है ही साहित्यिक भी है. उसकी समझ और उसका डावांडोलपन भी साफ़ है. उसे तो पक्का पता है कि ध्वस्त दीवालों के उस पार कहीं पर बहस गरम है. वह तुम्हारे जैसे टूटपूंजिये क्रांतिकारी को भी समझता है, उसको तो यह भी पता है कि क्रांति तुम्हारे रग-रग में धड़क रही है, तुम हरेक पल रंग-दे-बसन्ती मार्का क्रांतिकारी हो जाना चाहते हो, लेकिन तुम्हारी हिम्मत और तुम्हारी क्रांति का सारा वैभव केवल इंटरनेट और फेसबुक पर ही धरा रह जाएगा. तुम लिखोगे, तुम तस्वीरें काली करोगे, सस्ते चुटकुले चेंपते फिरोगे लेकिन तुम तख्तियां और ‘अभिव्यक्ति के सारे खतरे’ नहीं उठाओगे. तुम सबका काव्य-चमत्कार उतना ही रंगीन परन्तु, ठण्डा है.
ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
और
मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम...
साथ में
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे.
बांध-भारत-मंदिर
वाला बयान देने वाले नेहरू यदि बांधों की वैकल्पिक सचाई को भी समझते तो वे कहते कि
बांध भारत के नए हाशिए हैं, जो ‘विकसित’ और ‘विस्थापित’ को उनकी परिभाषा से भी दूर
फेंक देते हैं.
इस
प्रासंगिकता की लड़ाई को समझने की जद्दोज़हद तब से ही खत्म होती आ रही है, जब से यह
नव-काव्याभाषियों के रैगिंग का हथियार बनना नहीं शुरू हुई. साहित्य की तमाम
प्रचलित और इंटरनेटी परिभाषाओं ने मुक्तिबोध के इस पूरे झंझावात को शुरुआत में हर
युवा के लिए अप्रासंगिक बनाए रखा. फ़िर जब फुटकर रचनाओं, कुछ सस्ती पोस्टों और कुछ
उनसे भी सस्ते विवादों ने किसी युवा को ग्लैमर के क़रीब लाकर खड़ा किया, तो फ़िर वह
भी प्रासंगिकता साबित करने का हथियार होने लगा. इतनी बहसों के बावजूद इसे क्यों
नहीं पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया जा सका? इसे गाइडलाइन के सापेक्ष क्यों नहीं
रखा गया?
क्यों
यह साहित्यिक खेमेबंदी का आधार भर बनकर रह गया?
इतना
तो साफ़ है कि इस काव्य पर अपना हक़ जताने वाला हरेक खेमा इस अर्थ में निःसंतान है.
जब उसका दिल ढिबरी-सा टिमटिमा रहा है तो वह आपका हो जाता है, और जब सैनिक
प्रशासन है नगर में वाकई तो आपका. इस सब के बीच बहुत कुछ है, बहुत सारा
अनुत्तरित-संबोधित भी है. इसको विराट और बहुअर्थी न समझ पाने वाला अपने अवमूल्यन
के कई दरवाज़े खोलता है. यह हमारे समाज के ताज़ातरीन उदाहरणों से भरी हुई कविता है.
पढ़ते-पढ़ते कई सारे उदाहरण लुक-छिप चले आते हैं.
पीछे-पीछे
साथ-साथ.
और
दोस्त, तुम्हारे लिए आखिर में एक कोट –
(पूरी शिद्दत से मुक्तिबोध का सम्मान करता
हूं. शैली संभवतः अपाच्य हो, इसके लिए मुक्तिबोध मुझे समझेंगे और माफ़ करेंगे, ऐसी
आशा है.)
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अच्छा लेख । सुकून मिला हे ।
जवाब देंहटाएंमुक्तिबोध पर लिखते हुए एक आत्मसंघर्ष से गुज़रना पड़ता है ,नहीं तो एक अजीब अतिरिक्त मुद्रा आ जाती है बिना निशाने के ढेले फेंकने जैसी।हो सकता ये मेरा भ्रम ही हो
जवाब देंहटाएंसिद्धांत / अपना मत स्पष्ट करो कि , अन्धेरे में ; से गुज़रने वाले जुलूस में तुम अपने लेख लिखने के समय के ठीक पहले किन चेहरों की शिनाख्त कर सकते हो / आज के समय में मुक्तिबोध को समझने के लिये हमें कविताओं मे आज के कुछ चेहरे देखने होंगे / हमारे आस -पास चलते दृश्य बधों में अँधेरा ही तो चारों ओर है .... कविता हमे समय के पार नहीं ले जाती , कविता समय से अपना विरोध दर्ज कराती है हार युग में / झाँकता हूँ बाहर /सूनी है राह अजीब है फैलाव / ढीली आँखों से देखते हैं विश्व / उदास तारे .........................अच्छा गद्य है / इसे एक विचार सीरीज की तरह डेवलप करना चाहिए /
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