हस्तक्षेप : गाय की पवित्रता का मिथ : संजय जोठे










समकालीन भारत की विडम्बनाओं में एक ‘गाय’ भी है, राजनीति ने इसे विद्रूप में बदल दिया है. गाय की पवित्रता की वैचारिक संरचना की शुरुआत कब से हुई, क्या यह ‘हिन्दूमत’ है या ‘बौद्ध’ और ‘जैन’ संक्रमण है या सत्ता का खेल ? निरीह गाय के नाम पर निरीह मनुष्यों की हत्याओं के इस हिंसक दौर में यह जानना बहुत ही आवश्यक है. ऐसे तमाम प्रश्नों पर युवा समाज- वैज्ञानिक संजय जोठे का शोधपरक आलेख.   


गाय की पवित्रता का मिथ                 

संजय जोठे


भारत में हाल ही में जिस तरह से गाय के प्रति धार्मिक भावनाएं उभर रही हैं और जिस तरह से उन भावनाओं का हिंसक या उग्र प्रगटीकरण हो रहा है उसे देखकर निराशा होती है. यह निराशा दोहरी है. पहली निराशा इस इस अर्थ में है कि एक कृषि प्रधान देश के लिए गाय या गौ वंश का जितना और जैसा मूल्य होना चाहिए वह इतनी सदियों में हम स्वयं भारतीय ही समझ नहीं पाए हैं और गाय को पवित्र माने जाने के बावजूद वह सिर्फ राजनीतिक विवाद का विषय बनती जा रही है. दूसरी निराशा इस अर्थ में है कि  गाय या गौ वंश के प्रति अहिंसक होने का आग्रह स्वयं में अपनी अंतिम सीमा तक हिंसक होता जा रहा है, और जिस धार्मिक या आध्यात्मिक अर्थ में गाय को पवित्र माना जाता रहा है वह अध्यात्म स्वयं अब बदनाम और विस्मृत होने के कगार पर खडा है. पहली निराशा समझ में आती है, कृषिप्रधान समाज में गाय, कृषि  और पर्यावरण से जुड़ा अर्थशास्त्र हम सब समझते हैं. उसमे कोई विशेष कठिनाई नहीं है. लेकिन इस दूसरी निराशा को समझना होगा. यह पहलू उन लोगों को विशेष रूप से समझना चाहिए जो गाय के सम्मान में हिंसक आन्दोलन छेड़ने को तत्पर खड़े हैं.

असल में गाय को प्रेम करने वालों के लिए ही यह लेख है. उन्हें समझना होगा कि उनकी स्वयं की आध्यात्मिक विरासत किस अर्थ में और क्यों गाय को पवित्र मानती आई है. उन्हें यह भी समझना चाहिए कि जिस ढंग से गौवंश के प्रति उनकी भावनाएं या रणनीतियां आकार ले रही हैं वे असल में गाय और उससे जुड़े आध्यात्मिक ज्ञान का हनन कर रही है. उस पर दुर्भाग्य ये है कि सत्ता और धर्म के ठेकेदार इस दिशा में किसी तरह की स्पष्टता निर्माण करने से जानबूझकर बच रहे हैं. ऐसा करते हुए वे गौवंश की रक्षा के मुद्दे को सिर्फ दो समुदायों के सहजीवन की अनिवार्य सामाजिक, विधिक  व राजनीति शर्त के रूप में देख और दिखा रहे हैं. इस तरह वे अपनी ही आध्यात्मिक विरासत को राजनीतिक षड्यंत्र का चारा बनाकर उसे बदनाम कर रहे हैं.

अब यह आध्यात्मिक विरासत कितनी तर्कसंगत, वैज्ञानिक  या उचित है मैं इसमें नहीं जा रहा हूँ लेकिन इसके बावजूद एक बड़े विरोधाभास और षड्यंत्र को बेनकाब करने के लिए मैं उस विरासत से आने वाले निष्कर्षों का उपयोग भर कर रहा हूँ इस पूरे लेख से गुजरते हुए इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए.

आइये इसपर विचार करें. वो कौनसी आध्यात्मिक विरासत है और वो कौनसे निष्कर्ष हैं जो गाय को इतना पवित्र बनाते है? इसे अधिकाँश गौभक्त भी नहीं जानते हैं. राजीव मल्होत्रा, राजीव दीक्षित या दीनानाथ बत्रा को मानने वाले अधिकाँश लोग इस बात को शायद नहीं जानते हैं कि गाय की पवित्रता और अवद्यता की मौलिक जड़ें किन अनुभवों या मान्यताओं में हैं. वे यह बात नहीं बतला सकते क्योंकि इसमें उनके अपने धर्म की मौलिक समझ पर ही प्रश्न चिन्ह उठ खडा होता है. वे इस बात को दबाते चले जायेंगे कि गाय की पवित्रता का मूल विचार किस परम्परा या किस साधना पद्धति से और क्यों आया है.

इसमें गहरे चलते हैं. इस देश में दो तरह की साधना पद्धतियाँ रही हैं. एक ब्राह्मण और दूसरी श्रमण. वैदिक और ब्राह्मण पद्धति में भक्ति प्रमुख मानी गयी है और परमात्मा की कृपा को मुक्ति का साधन माना गया है. इसीलिये मुख्यधारा का हिन्दू समुदाय मुसलामानों और ईसाईयों की तरह अनिवार्य रूप से एक भक्ति समुदाय है. इसके विपरीत श्रमण परम्परा में स्वयं के प्रयास या श्रम को कैवल्य या निर्वाण का साधन माना गया है इसमें कोई परमात्मा बीच में नहीं आता. इस परम्परा में जैन और बौद्ध आते हैं जो कालान्तर में अपने धर्म को वैदिक हिन्दू धर्म से अलग कर लेते हैं. विशेष रूप से जैन धर्म इस गौवंश के मुद्दे पर बहुत विचारणीय है. जैन धर्म में आत्मा को परम मूल्य दिया गया है और इश्वर या सृष्टिकर्ता जैसी किसी सत्ता को नकार दिया गया है. इसीलिये जैनों में सृष्टि के बजाय प्रकृति शब्द का व्यवहार होता है. अब जैसे ही आत्मा और प्रकृति को मान्यता मिलती है, वैसे ही सारी चिन्तना आत्मा और पुनर्जन्म सहित आत्मा के उद्विकास पर केन्द्रित हो जाती है. तब कैवल्य सहित बंधन का सारा उत्तरदायित्व आत्मा पर आ जाता है.

अब इसके कुछ विशेष इम्प्लीकेशंस हैं जिन्हें बारीकी से समझना चाहिए. जैन विचार में आत्मा और उसका कर्म स्वयं ही अपनी मुक्ति या बंधन का कारण है. कोई एक्सटर्नल एजेंसी या कोइ परमात्मा (इश्वर/सृष्टिकर्ता  के अर्थ में) यहाँ किसी काम का नहीं है. दिगंबर परम्परा में सर्वाधिक प्रतिभाशाली तीर्थंकर, भगवान् कुन्दकुन्द का प्रसिद्द ग्रन्थ है समयसारउसमे वे लिखते हैं कि न कोई बंधन है न कोई मुक्ति है वस्तुतः यह राग से भरा मन है जो बंध जाता है यह अध्यात्म के जगत की सर्वाधिक क्रांतिकारी बात है, यही बात गौतम बुद्ध, वसुबन्धु और नागार्जुन सहित सारे जापानी झेन बौद्ध फकीर दुसरे अर्थ में कहते हैं कि मुक्ति और बंधन दोनों ही मन के खेल हैं.

अब इस जैन या बौद्ध मान्यता की गहराई में चलिए. इसका एक अर्थ यह हुआ कि बंधन या दुःख असल में मन के कर्मों का उत्पाद है. इसलिए उसकी निर्जरा के लिए मन को निर्मूल करना है. इसका अर्थ यह भी हुआ कि मन जिस-जिस अर्थ में कर्मबंध या संस्कार निर्मित करता है उस-उस अर्थ विशेष में उस-उस मार्ग पर विराम लगाया जाये. यहाँ विराम लगाने की प्रक्रिया का चुनाव करते हुए बौद्ध और जैन मार्ग अलग हो जाते हैं. जैन परम्परा उन मार्गों पर विराम लगाकर भौतिक शरीर के अनुशासन को अत्यधिक मूल्य देने लगती है और बौद्ध दर्शन केवल और केवल मन पर विराम लगाने पर केन्द्रित हो जाता है. जैन मुनि आहार निद्रा आदि के अनुशासनों को अंतिम उंचाई तक विकसित करने लगते हैं और बौद्ध आचार्य मन और मनोविज्ञान की गहरी प्रक्रियाओं को समझ लेने में ही मुक्ति का आश्वासन बतलाने लगते हैं. इस तरह जैन और बौद्ध दोनों दर्शनों में अंतिम रूप से शरीर और मन की चेष्टाओं को समझकर उनका नियंत्रण करना ही मुक्ति का मार्ग है. यहाँ हिन्दू परम्परा का इश्वर या उसकी भक्ति या उसकी कृपा दूर दूर तक किसी काम की नहीं समझी जाती है. और जो भक्ति हम इन जैन या बौद्ध धर्म में देखते भी हैं वह असल में इन धर्मों के पतन का सूचक है, इसके बावजूद वे किसी सृष्टिकर्ता इश्वर को नहीं बल्कि किसी तीर्थंकर या बुद्ध को मानव रूप में पूज रहे हैं.

अब और गहरे चलते हैं, जब शरीर और मन की चेष्टाओं पर बंधन या मोक्ष निर्भर करता है तब सवाल उठता है कि मन कैसे बंधन में पड़ता है? इसके उत्तर के लिए भोग के चुनाव और पुनर्जन्म को आधार बनाया जाता है. विशेष रूप से जैन धर्म में चूँकि आत्मा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है इसलिए उसके उद्विकास को बहुत गहराई से देखा गया है. इसी से पुनर्जन्म की श्रृंखला का पीछा करते हुए यह देखा जाता है कि इस मन का पिछ्ला अवतार या भव क्या था. यह व्यक्तित्व जो आज सामने खडा है यह पिछले जन्म में क्या था? इसलिए पूर्वजन्म की स्मृति जगाने का विज्ञान सभी श्रमण धाराओं में सबसे विक्सित विज्ञान माना गया है. बौद्ध और जैन दोनों इस विज्ञान को विकसित करने वाली परम्पराएं रही हैं. 

हिन्दुओं में एक मान्यता के रूप में पुनर्जन्म अवश्य रहा है लेकिन एक क्रियान्वित किये जा सकने वाले अनुशासन या विज्ञान के रूप में पुनर्जन्म कभी नहीं रहा है. इसीलिये जब मंडन मिश्र की पत्नी ने शंकराचार्य को कामशास्त्र पर शास्त्रार्थ के लिए ललकारा तो आदि शंकर अपने पूर्व जन्म की स्मृति के आधार पर काम के अनुभव में नही गए. बल्कि उन्होंने किसी अन्य राजा के शरीर में प्रवेश करके काम का अनुभव लिया और फिर शास्त्रार्थ को उपस्थित हुए. अगर उनके पास पुनर्जन्म की खोज की तकनीक होती (जो जैन और बौद्ध विज्ञान है) तो वे अपनी जान दांव पर नहीं लगाते, कई रहस्यवादी ऐसा मानते हैं कि चूंकि आदिशंकर छः माह तक अपने शरीर से बाहर रहे इसीलिये उनका शरीर कमजोर हुआ और वे अल्पायु में चल बसे.

इस तरह यह स्पष्ट होता है कि पुनर्जन्म का विचार मूलतः जैन और बौद्ध विचार है और उसका विकसित विज्ञान भी जैन व बौद्ध श्रमण परम्परा से आता है. जैनों की मान्यता है कि हर तीर्थंकर पशु योनी से मनुष्य योनी में आने के क्रम में किसी पशु योनी से गुजरता है. इसीलिये उन्होंने प्रत्येक तीर्थंकर के साथ उनके पशुयोनी के अवतार का संकेत भी बना रखा है. जैसे भगवान् ऋषभदेव के साथ वृषभ या सांड का चिन्ह है, भगवान् महावीर के साथ सिंह का चिन्ह है. इसी तरह गौतम बुद्ध के साथ भी हाथी का चिन्ह है. यह जाहिर  करता है कि ये सब तीर्थंकर पशुयोनी में अंतिम रूप से इन इन पशुओं के रूप में जन्मे थे. इस मान्यता या रहस्यवादी अनुभव के आधार पर उनके हजारों शिष्यों और मुनियों ने अनुभव किया कि सामान्यतया अधिकाँश मनुष्य गाय की योनी से मनुष्य योनी में आ रहे हैं. इस प्रकार चूँकि मनुष्य योनी में छलांग लगाने के लिए गाय योनी अनिवार्य जंपिंग बोर्ड है इसलिए गाय पवित्र और अवध्य मान ली गयी है. इस बात को ओशो रजनीश ने भी अपने प्रवचनों में स्पष्ट किया है.

यह बात गहराई से नोट की जानी चाहिए कि यह जैनों और बौद्धों की खोज है. हिन्दू साधुओं ने कभी भी इस तरह की बात नहीं उठाई. इसीलिये श्रमण परम्परा ने इस निष्कर्ष पर आते ही गाय सहित सभी पशुओं की बलि पर अनिवार्य रूप से रोक लगा दी. जैनों की अहिंसा और बौद्धों की अहिंसा का मूल कारण यही था. और इसमें भी गाय को इतना पवित्र मानने का कारण भी यही था कि यह पशु योनी से मनुष्य योनी के बीच की यात्रा में अनिवार्य कड़ी है. यह ज्ञान हिन्दू परम्परा में बहुत बाद में आया, या फिर ये कहें कि उन्होंने जैनों और बौद्धों से सीखा. शुरुआती वैदिक धर्म में यहाँ तक कि उपनिषद्काल में भी पशु बलियाँ और गौ बलियाँ दी जाती थीं. बाद में जैन व बौद्ध धर्म के निष्कर्ष को और उससे जन्मे आचरण शास्त्र को ब्राह्मण परम्परा ने भी अपना लिया.

अब गौर से देखने की बात ये है कि जिस मौलिक प्रतीति पर गाय या गौ वंश की दिव्यता या पवित्रता का भवन खड़ा है उसकी आधार भूमि संवेदनशीलता और अहिंसा है. वह भी इसलिए ताकि पशुयोनी से मानव योनी की यात्रा में बाधा न हो. इस दृष्टि से देखें तो मनुष्य योनी तक आने में गाय एक पड़ाव है इसीलिये उसकी ह्त्या नहीं की जानी चाहिए. इसका यह अर्थ हुआ कि मनुष्य गाय से अधिक महत्वपूर्ण है. गाय एक संभावना है मनुष्य उस संभावना का साकार रूप है. इसलिए गाय या मनुष्य के जीवन में चुनाव होगा तो मनुष्य को ही बचाया जाना चाहिए.

अब इस सबके बाद गौमांस के मुद्दे पर मनुष्यों की ह्त्या की घटना को देखिये. यह न तो सामाजिक या मानवीय दृष्टिकोण से उचित है न ही धार्मिक या आध्यात्मिक अर्थ में उचित है. यह सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक ड्रामा है जो वोटों के ध्रुवीकरण के लिए रचा गया है. इसीलिये यह जोर देकर कहना चाहिये कि धर्म का नाम लेकर गौवंश को मुद्दा बनाने वाले लोग न तो धर्म या अध्यात्म को समझते हैं न इंसानियत को. अगर गौवंश को बचाना है तो उसे दंगा या विभाजन पैदा करने वाली मानसिकता से नहीं बचाया जा सकता. गाय को  बचाना है तो उसे इतना मूल्यवान और उपयोगी बनाना होगा कि उसकी मौत की बजाय उसकी जिन्दगी की कीमत ज्यादा हो. अभी गाय कटती है क्योंकि ज़िंदा गाय की तुलना में मरी हुई गाय अधिक मूल्यवान है. जिस दिन ज़िंदा गाय से मरी हुई गाय की तुलना में अधिक आमदनी होने लगेगी उस दिन गाय अपने आप बच जायेगी. तब किसी अभियान की जरूरत नहीं होगी.


इसीलिये गाय की नस्ल सुधार का आन्दोलन चलना चाहिए. गाय के दूध की मात्रा बढनी चाहिए. विदेशी सांडो से डर लगता है तो देशी विकल्पों पर ही ध्यान दीजिये. जैसे भैंस की दूध देने की क्षमता बढ़ गयी है वैसे ही गाय की देशी संकर प्रजातियों की क्षमता भी बढ़ सकती है. उसके बाद कोई किसान या गरीब आदमी अपनी गाय को मैला खाने के लिए या सडक पर आवारा घूमने के लिए खुला नहीं छोड़ेगा. क्या किसी ने दुधारू भैस को आवारा घुमते या गन्दगी खाते देखा है? उसे कटते देखा है? यह सबसे महत्वपूर्ण बात है जो गौभक्तों को समझनी चाहिए. गाय धर्मशास्त्र से नहीं अर्थशास्त्र से बचेगी. जिस दिन ज़िंदा गाय एक मरी गाय से अधिक मूल्यवान हो जायेगी उसे दिन किसी धार्मिक, नैतिक या कानूनी आग्रह या नियम की कोई जरूरत नहीं रह जायेगी.
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संजय जोठे, युवा समाजशास्त्री और पत्रकार. समाज कार्य मुद्दों पर पिछले बारह वर्षों से कार्यरत. 
इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट स्टडीज यूनिवर्सिटी ऑफ़ ससेक्स से अंतर्राष्ट्रीय विकास में एम्. ए. संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं. 
sanjayjothe@gmail.com

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  1. भारतीय दर्शन के विषय में लेखक का ज्ञान अगम्भीर और सतही है। ऐसे अधकचरे ज्ञान के सहारे तो इसी प्रकार के सतही और अव्यावहारिक निर्णय ही लिये जा सकते हैं।

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  2. रावल साहब माना कि आप संघ के प्रचारक हैं विचारक नहीं. कम से कम असहमति के बिन्दुओं को तो स्पष्ट करते.

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  3. वैदिक संस्कृति लौकिक संस्कृति थी। यह पशुचारी और कृषिप्रधान थी। वैदिक समाज जिन वस्तुओं को उपयोगी पाता था, उनका दैवीकरण कर लेता था। शरद का महीना व्यापार से जोड़े जाने के कारण अश्विन या अश्वयुज ही हो गया।(भारत तब से अब तक, भगवान सिंह) गाय को श्रमण परम्परा से जोड़कर देखना, इतिहास के एक हिस्से को छोड़कर देखने जैसा है। हाँ, कट्टरपंथियों ने जो स्थितियां पैदा की हैं उनसे भय पैदा हुआ है- खुदा वो वक्त न लाये कि सोगवार हो तू..

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  4. जरूरी लेख है। जड़ता कटे तो कुछ बदले। सत्ता की वार मशीनों से लिथड़ गया देश। शुक्रिया अरुण जी।

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  5. मुझे बहुत संकोच होता है ये लिखते हुए कि जब पढ़े-लिखे लोग अपने मानसिक संरचना या अपनी वामपंथी विचारधारा के अनुरूप बिना स्वयं खोज किये ऐसा अनर्गल प्रलाप करते हैं ,. ये श्रीमान संजय जोठे क्या बताएँगे गाय के विषय में , इनसे कहीं पहले द्विजेन्द्र झा नामक दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्बद्ध सज्जन लेखक एक पूरी किताब लिख चुके है , जो सिरे से बकवास है , उसी बकवास का एक हिस्सा ये लेख है ....जो भारत को ,भारतीय सनातन परंपरा ,शास्त्रों के रहस्य को ,उनके अर्थ-घट्न की पद्धति को नहीं समझते ,वो वेद शास्त्रों में गाय की हिंसा खोजते हैं ...ऐसे सबको खुली चुनौती है शास्त्रार्थ की .आइये इस पर निर्णय हो जाये ....इसका तात्पर्य ये नहीं है कि अफवाह के नाम पर निर्दोष नागरिक पर हमलों का हम समर्थन करते हैं न..वो घोर निंदनीय है ..किसी को भी कानून हाथ में लेने की इज़ाजत नहीं दी जा सकती .लेकिन आपको ये हक किसने दिया कि आप गाय के प्रति सनातन वैदिक धर्मावलम्बियों की आस्था पर आधारहीन बातें करें .ये इस देश का दुर्भाग्य है जहाँ ऐसे लोग पैदा होते हैं य जड़ अकादमिक संस्थान उन्हें ऐसा बना देते हैं ...कभी उधार की मार्क्सवादी दृष्टि से हटकर विशुद्ध भारतीय दृष्टि से देखा होता तो समझ आता गाय का धार्मिक महत्त्व एक तरफ रख भी दिया जाये तो भी उसका वैज्ञानिक ,कृषि उपयोगी ,स्वास्थ्य ,समाज ,पर्यावरण सम्बन्धी महत्त्व कितना ..दुनियां के कितने ही देश गाय के ही दूध का व्यवहार करते हैं ...

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  6. आप सिद्ध करिये न सर हम पढेंगे...सिर्फ बकवास कह देने से नहीं चलेगा,...लेकर आइये अपने भी शोधपरक तथ्य...

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  7. आप पहले शास्त्र को पढने का ,,उनके अर्थ संगती लगाने का विवेक किसी प्रमाणिक गुरु से सीख कर आइये ,तब बात कीजिये ...और जो इस बकवास के उत्पादक हैं उन्हें तो खुला निमंत्रण दिया ही गया है ..आमने सामने बैठ कर शास्त्रार्थ करें ...इतने लम्बे चौड़े वक्तव्य लिखने का समय आपके पास हो गा ,हमारे पास नहीं ...आपका आभार मैडम .....

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  8. लिजिए अब आपकी इस बुद्धि को क्या कहें? एक तरफ चुनौती भी दे रहे और दूसरी तरफ समय भी नहीं आपके पास अपनी बात को रखने का?कमाल है।और प्रमाणित गुरुओं की यह उपज है कि हमें कुछ पता नहीं इस शास्त्र के विवेक के बारे में... इतनी अंध प्रमाणिकता की एक हिंसक भक्त टीम पैदा हो गई और गुरुओं को पता नहीं चला वाहहह...यह जो बातों को गोल गोल घुमाने की आप लोगों की प्रवृति है इसी का नतीजा है कि विश्वसनिय नहीं है आपलोग..,और शास्त्रार्थ बन्द कमरे नहीं खुले मंच पर होता है....सिद्ध करिये फिर किसी पर आरोप लगाईए..,शुक्रिया..बहुत.,

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  9. आपसे किसने कहा है कि शास्त्रार्थ बंद कमरे में करने को , जो मंच आपको और आपके दिग्भ्रमित सहयोगियों को रुचे उस पर आयोजन कीजिये ...और गुरु जनों के विवेक के बारे में बात मत कीजिये ...अपना विवेक बताइए कितना है ,,,,आपने भारतीय शास्त्रों को कभी देखा है भारतीय दृष्टि से ,,,,या रोमिला थापर और इरफ़ान हबीब जैसे अपने आकाओं की दृष्टि से ही देखा ...आप का विश्वसनीय मानना न ,मानना दो कौड़ी का है हमारे लिए ...बात तो उसकी हो रही है ,जो धर्मिक शोध की बात कर रहे हैं ...और दूसरों को कुछ पहने पहले आप अपनी ओर दृष्टि डाल लेती तो शायद आपको इतना संयम न खोना पड़ता ...कुछ खास जल्दी में हैं आप अपने बने बनाये निष्कर्षों को थोपने के लिए ,,,इसलिए अपनी बिरादरी के फौरी समर्थन पूरा दंगल यही चाहती हैं .....

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  10. Akshay Kr Rastogi जी, क्यों आप ऐसे लोगों से व्यर्थ में उलझ रहे हैं जिनके जन्म को ही आप इस देश का दुर्भाग्य मानते हैं । ये बहस के लायक नहीं, कुचल कर मार डालने के लायक है, जैसा कि दादरी में अख़लाक़ के साथ किया गया ! क्यों ? रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब के तो नामोच्चार से ही क्या आप भ्रष्ट नहीं हो जाते ? उनकी किताबों को छू लेने पर तो आपको ऐसा पाप लगेगा कि कई जन्मों तक उससे उभर नहीं पायेंगे । इन विधर्मियों के चक्कर में आप समान पुण्यात्मा न पड़े, इसी में भलाई है । शास्त्रार्थ तर्कों से नहीं, हिटलरी घूसों से किया जाता है । इसे जानते हुए भी क्यों अपना समय जाया कर रहे हैं !

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  11. चलिए आप "रोमिला थापर "और "इरफान हबीब" को काट कर बताईए.,,मैं फिर कहती हूँ आपकी बातें भी हमारे लिए दो कौङी से ज्यादा नहीं बन पाती जब आपलोगों की बौखलाहट आधारहीन देखी और समझी जाती है.,और हम जैसे लोगो अपनी ओर दृष्टि डाल कर ही किसी दूसरे का विवेचन कर पाते है इस लिए हमारे संयम और निष्कर्ष पर न जाकर आप अपने संयम और निष्कर्ष को पेश करिए..,,गुरुगीरी बहुत देखी है गुरुओं की ।हम दिग्भ्रमित है तो भ्रम दूर किरिए..,यह तो जिम्मेदारी हुई न आपकी कि बस बकवास बोल कर निकल लेंगे...शास्त्रार्थ तो यह नहीं सिखाता महाशय..

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  12. सर आप अत्यंत आदरणीय है ,आपको ऐसा पक्षपात पूर्ण वक्तव्य नहीं देना चाहिए ...लेकिन इतना तो तय ये लोग रोमिला थापर व् इरफान साहब आदि अन्य चिंतकों की दृष्टि से संचालित हैं ...कभी भारतीय पक्ष देखा ,समझा व् जाना ही नहीं .....और मैंने बार बार कहा है यदि मेरे स्टेटस को वाल पर पूरा पढ़ा जाये ...की किसी को भी केवल अफवाह के नाम ,या गो हिंसा हुई भी हो तो भी ,कानून हाथ में लेने का अधिकार नहीं है ,ऐसे लोग निसंदेह दंडनीय हैं ..लेकिन इस आधार पर गाय को जिस दृष्टि भारतीय देखते हैं उसी पर अनर्गल प्रलाप ,ये असहनीय है ....ये देश का विचार ही समावेशी है ,विचार की उदारता की पूरी परंपरा है ..नहीं तो इतनी संस्कृतियाँ या जैम न गई होती ..अतः सभी लोगों का स्वागत है ...लेकिन आप अपनी वैचारिक उदारता का वितान जरा तलाशिये कि इस देश के करोडो आस्थावान लोगों ,ऋषि मुनि ,विवेकानंद ,रामकृष्ण परमहंस ,रमण ,अरविन्द जैसी परम चेतनाओं के आश्रित लोगों को मूर्ख ,जाहिल व् पिछड़ा समझते हैं..क्योंकि सरे ज्ञान का ठेका तो मार्क्सवादियों के पास ही है

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  13. बिल्कुल सटीक बात लिखी है संजय सर ने ! मुझे तो ईस लेख मे कहीं भी गायो के प्रति हिंसा को खोजने का वक्तव्य नही दिखा, बल्कि उनके उत्थान की बात कही गयी है | गौ माता हमारे लिये पुज्यनिय है, लेकिन ये भी पुर्णतः सही है कि हमने भैंसो को कभी मैला खाते या सड़को पर घुमते नही देखा है |

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  14. बेहतरीन लेख...शेयर किया है और बधाई संजय जी इस विमर्श नेबहुत कुछ साफ कर दिया है मेरे मन के सवालों को भी..

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  15. Akshay Kr Rastogi ji... Please let me know on what grounds you disagree. What are your specific questions. You talked about gururs, I have mentioned Buddha, Mahavir and Ambedkar as our gurus, who are your gurus?? Let us know their opinions about cow and reincarnation theory. One of your avtar is VARAH means boar, why you don't care for boar??? Cow is not an Avtar, boar is. Then why you give more importance to cow??? Fish is your first Avtar, Bengali Brahmins eat fish three times a day, can your gurus explain it??? If you are serious about it I would request you to kindly write an article. I will try to answer your questions.... Regards...

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  16. रस्तोगी जी, दरअसल आपकी दिक़्क़त यह है कि आपने शायद रोमिला थापर और इरफ़ान साहब की किसी किताब को देखा भी नहीं है । अन्यथा इतना दुस्साहस नहीं करते । भारतीय इतिहास के अध्ययन को आज के काल में एक नईऊंचाई दी है इन्होंने । इतिहास कोरा इतिवृत्त नहीं होता, न कोई आस्था की चीज़ । इतिहास इतिवृत्तों के साथ ही पुरातत्व, मानविकी, भाषाशास्त्र, जनांतिकी, अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान आदि विभिन्न अनुशासनों का एक साझा उपक्रम है । इन सबसे हमारे सामाजिक जीवन के विकास की धारा का ठोस परिचय मिलता है । भारतीय इतिहास लेखन में इरफ़ान साहब, रोमिला थापर, आर एस शर्मा आदि ने इस दिशा में ठोस काम किये हैं । आप जिन तमाम लोगों का नाम गिना रहे हैं, वे इतिहासकार नहीं हैं । उपदेशक, धर्म-प्रवर्त्तक, वेदान्ती या दार्शनिक हो सकते हैं ।इनके ज़रिये अतीत के किसी विशेष ज्ञान-विमर्श की जानकारी भर मिल सकती है, और कुछ नहीं ।

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  17. संस्कृति रक्षकों और भक्तों से इसीलिये निराशा होती है. अगर थोड़ी सी बुद्धि ये लोग लगाएं तो उन्हें साफ़ नजर आयेगा कि इस लेख में मैं गाय और गौवंश की पवित्रता और अवध्यता को ही सिद्ध कर रहा हूँ. धार्मिक परम्पराएं या रहस्यवादी एचिंतन किन आधारों पर गाय को पवित्र मानता है मैं उसे सामने ला रहा हूँ. इसमें कष्ट की क्या बात है? ये रहस्यवाद कितना विज्ञानसम्मत है मैं कुछ नहीं जानता लेकिन धर्मदर्शन के एक विद्यार्थी के रूप में अलग अलग धर्मों की तुलनात्मक निष्पत्तियों पर चर्चा तो की ही जा सकती है न? क्या समस्या है? फिर ये सब संस्कृति रक्षकों और भक्तो की अपनी जानी पहचानी बहस है. ये पुनर्जन्म और अवतारवाद की बहस है. मैं आपके मैदान में आकर खेल रहा हूँ और आप भागे जा रहे हैं. आरोप लगा रहे हैं. ये क्या है? आपको उत्तर देना आता है तो उत्तर दीजिये ना.
    खैर मैं समझता हूँ समस्या कहाँ है. समस्या इस बात में है कि गाय की अवध्यता और पवित्रता श्रमण (बौद्ध/जैन) परम्परा का विज्ञान है, इसे हिन्दुओं ने एडाप्ट कर लिया है, उन्होंने पैदा नहीं किया है. इस बात से सारा कष्ट हो रहा है. लेकिन भक्तजनों से निव्सदन करूँगा कि आप इस बात के विरोध में तर्क लाइए. मैं चर्चा करूँगा. अगर गाय (जो अधिक से अधिक किसी देवी की सवारी है) वराह अवतार से अधिक पूज्य है तो उसका कारण बताइये. कृषि या पर्यावरण के अर्थशास्त्र को बीच में मत लाइए. यह धर्मशास्त्र की बहस है अर्थशास्त्र की नहीं. आपकी अपनी अवतारवाद और पुनर्जन्म की थ्योरी में गाय कहाँ है? आपके रहस्यवाद में या धर्म के विधान में गाय क्यों महत्वपूर्ण है? क्या जैनों और बौद्धों की तरह आप कोई उत्तर दे सकते हैं? वराह, और मछली एक अवतार हैं उसकी पूजा आप क्यों नहीं कर रहे? अगर गाय की श्रेष्ठता का विज्ञान/दर्शन आपके उपनिषदों वेदों से निकलता है तो उन्होंने गाय को अवतार क्यों नहीं बनाया?? ये प्रश्न हैं अगर उत्तर दे सकते हैं तो बात कीजिये. आरोप लगाने का या दावा करने का खेल मत खेलिए. दावा तो मैं भी कर सकता हूँ कि गाय इसलिए पवित्र है कि वैदिक काल में पुष्पक विमान गौमूत्र से चलते थे और गोबर से बने हेलमेट पहनकर उसमे अंतरिक्ष यात्री सूर्या तक जाया करते थे ... ये दावा है तर्क नहीं... आप तर्क रखिये ... दावे तो करोड़ों हैं आपके पास.... सादर ...

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  18. शायद मेरी बात ठीक से पहुंची नहीं. संजय जी एडॉप्शन और एसिमिलेशन तो हुआ ही है और आपके लेख में ज़ाहिर है कि प्रमाण के साथ बातें कही गई हैं, जिनका मैं स्वागत करती हूँ. पर मुझे लगता है कि केवल श्रमण परम्परा से इसे जोड़ना 'आकस्मिक घटना' की तरह होगा. मैं धर्मों के तुलनात्मक आधार पर नहीं कह रही हूँ. इतिहास की कोई कड़ी मिस हो रही है, ऐसा मुझे लगा.वैदिक धर्म में गोचारण के उल्लेख कृषि के उल्लेख से कम हैं. अवतारवाद के रूप में गाय कहीं नहीं दीखती. वैदिक संस्कृति में उसका दैवीकरण या पवित्रीकरण भी नहीं हुआ था शायद. पवित्रीकरण के पीछे भौतिक आधार जरूर होने चाहिए. या तो वध्यता बहुत अधिक बढ़ जाने के कारण संख्या का घट जाना. या पशु-धन के प्रति कोई अन्य असुरक्षा भाव. मुझे भक्तों में इन्क्ल्यूड नहीं कीजियेगा. जिज्ञासावश लिखा है. सादर!

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  19. "वैदिक काल में मांस के रूप में गोमांस,, बकरे, घोड़े , भेड़ आदि का मांस खाया जाता था , लेकिन इसी काल में कुछ पशुओं के मांस और इनके वध को वर्ज्य बनाया गया, यद्यपि इस प्रयास में सफलता नहीं मिली थी किन्तु जनमत तैयार होने लगा था. वैदिक काल में गाय की पूजा की बात निराधार है लेकिन आर्थिक कारणों से और एक लम्बे आन्दोलन के बाद गो और गो-प्रजाति के वध और गौ मांस भक्षण पर प्रतिबन्ध लगाया गया और इसके बाद भी ब्राह्मण-काल तक ज़ारी रहा था, इसे अन्य विद्वान भी मानते हैं." हडप्पा सभ्यता और वैदिक संस्कृति, भगवान सिंह (पृ. २५४)

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  20. संजय जी, वह कौनसा आन्दोलन रहा होगा, पुस्तक में इसका कोई ज़िक्र नहीं.

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  21. डी डी कोसंबी का ' प्राचीन भारत' और रोमिला थापर का 'इतिहास की पुनर्व्याख्या' ..आपने किताबें खुलवा दीं. आज का दिन सार्थक रहा. पुनः आभार लेखक और समालोचन का.

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    1. Yes its true that we cannot rely upon mystical and relugios believes. Social, economical and political angle are equally, or more important. But my point is "what is the basic inspiration" or the very first realisation which shape any preference or mindset. For example BOAR is an Avatar, but Hindus don't worship it. But Cow is not an avtar but they are worshiping it. Obviously its the socioeconomics which is playing here. But again, why only cow?? The answer is not in socioeconomics ONLY. Since Hinduism tried to adopt everything from Buddhist and Jainas, they learned that why cow is special. Then obviously the economic aspect came into play and got rooted in masses.... Through this article I tried to know the Hindu version of Cow story, but I am sad to see that Hindus are really in very pathatic situation. They don't know their scriptures, they don't have arguments. This is enough proof that all their beliefs are adopted from here and there, if they have CREATED them, then they can easily share the logic.

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  22. कल आदरणीय संजय जी कह रहे थे कि आप को प्रश्न पूछना चाहिए. यानि आपत्ति किस बात की है .कोई शिवानी गुप्ता मैडम थी ,वो भी काफी परेशान होकर गालियाँ दे रही थीं . आपके इस लेख पर आपति है आपकी दृष्टि पर ,केवल आपकी ही नहीं इस तरह की आकादमिक गड़बड़ जो लोग भी करते हैं ,जो अकादमिक निष्कर्षों से लोगों की धार्मिक आध्यात्मिक भावनाओं की परिभाषा का निर्धारण करते हैं .ताकि उनके और उनके जैसी सोच वालों को एक बौद्धिक खुराक मिल जाये या उनकी संकीर्ण बुद्धि के खाके में वो समाधान फिट हो जाये . आपने किस आधार पर ये ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति का यूटोपिया खड़ा किया है .ये आकादमिक उडान हो सकती है ,लेकिन भारत को इससे कोई तात्पर्य नहीं है . आदरणीय संजय जी ने अपने कमेंट्स में कुछ प्रश्न भी रखे थे ,उन प्रश्नों को ध्यान में रखा जाये ....भारतीय जनता किसी भी चिन्ह ,तत्व ,प्राणी के प्रति आस्था या ईश्वर के प्रति भी आस्था केवल शास्त्रों के आधार पर रखता है ...संजय जी ने पूछा कि आपके भगवान के अवतार घोड़े के रूप में आये ,शूकर के रूप में आये आप उन्हें क्यों नहीं पूजते . ..इस व्यक्तिगत हमले को नज़रअंदाज करके मैं इसका वस्तुनिष्ठ जवाब दूंगा . भारतीय कुछ भी करते हैं उसका आधार शास्त्रीय है येही इसका जवाब है ...प्राणिमात्र में आत्मा है इसलिए अध्यात्म क्या घोड़े ,या शूकर सबको रक्षणीय मानता है . गाय का पूरा अस्तित्व पवित्र व् पावन , लेकिन उसके मुख को पवित्र शास्त्र नहीं मानता , लेकिन घोड़े के मुख को पवित्र मानता है .इसलिए किसी ऐसे बर्तन को जो अशुद्ध हो गया है किसी भी प्रकार से ..उसे पहले अग्नि में तपाकर फिर घोड़े के मुख से स्पर्श कराया जाता था ,तब उसको पवित्र मानता था .हड्डी मात्र के स्पर्श धार्मिक व्यक्ति स्नान करता है .लेकिन शंख को पवित्र मानता है ,और वो है भी ये वैज्ञानिक सिद्ध भी हुआ ,खैर ये अलग बात है , कहने का मतलब इनका आधार शास्त्रीय है ....ऋग्वेद में कहा गया है कि गाय अघन्या है ,अर्थात किसी भी स्थिति में उसपर हिंसा नहीं होनी चाहिए , वहीँ वेद में कहा गया है कि जो लोग गाय पर प्रहार करे उसे शीशे की गोली से मार दिया जाये ,स्पष्ट इसी भाषा का प्रयोग वेद ने किया है ...उसके बाद स्मृति ,पुराण ,महाभारत तमाम सनातन शास्त्र एक स्वर से गाय की पूज्यता की घोषणा करते हैं .इसके अतिरिक्त उसका आर्थिक ,सामाजिक ,कृषिगत , पर्यावरणीय महत्त्व पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है ,,अगर उनसब प्रमाणों को एकत्रित किया जाये तो एक महाभारत से बड़ा पोथा तैयार हो जाये .लेकिन आदरणीय संजय जी ने उन सब प्रमाणों को सप्रयास हटाते हुए श्रमण ,जैन ,पुनर्जन्म आदि की काल्पनिक ,अशास्त्रीय उडान भरी है ,जो उनके मार्क्सवादी उद्देश्यों से मेल खाती है .आपको अविछिन्न सनातन वैदिक परंपरा ,उसके हजारों आचार्य,संत महात्मा ,ऋषि मुनि नहीं दिखाई दिए ..श्रमण जैन परंपरा का काल्पनिक विमर्श दिखाई दिया ...यानि हमारे माता-पिता हमारे माता-पिता हैं इसके लिए हमारे माता-पिता प्रमाण नहीं हैं ,पडोसी प्रमाण हैं जो ये कहते हैं कि तुम्हारे माँबाप सही कह रहे हैं ...अहो ध्वनि ,अहो रूपं ...

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    1. Akshay Rastogi ji ... You failed to answer WHY cow is special. Try to understand the difference between logic and belief. I doubt you understand it. I gave a LOGIC about why JAINS and BUDDHISTS arrived at Ahimsa as a virtue... It was because of their research in reincarnation.... This is called logic. If you understand it, please try to bring the Hindu LOGIC ... Believes are always foolish ... You may believe in a monkey who can swallow the sun ... But its not logical or possible in any way.

      That's why I say Hinduism has copy pasted most of the things from other philosophical systems, hence Hindus BELIEVE in them, they don't know the SCIENCE or logic behind those conclusions. That's why everything is ASTHA for them. And now they will turn Science into ASTHA .. this will be the death of logic in this poor country.

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  23. My dear Sanjay Jothe ji. You are not ready to see and understand the reality. Religious beliefs about cow are only just a thing. Many reasons are there for cow's worldly usefulness. Have you ever gone through Ayurveda Granth. Chemicals based farming has destroyed the health of the world, only cow based farming can give poison less crop and other fruits vegetables. Do you see such kind of studies and research. No, not at all. I am not Suspecting on your intention but just trying to tell Indian point of view. Why cow is so pious and important.

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  24. Dear Akshay ji... Read my post again, I have clearly mentioned it is a debate about Religion and Mystical systems, and not about economics of agriculture or environment... Don't bring economics here. Try to bring religious and mystical or philosophical reasons for it. If you can't ...pls don't waste your and my time.... Regards ...

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  25. Again I am saying that you don't want to understand the discourse. One Time you say you don't believe on beliefs, now you are saying you are not ready to accept cow's worldly usefulness. So you are only trying to save your absolutely false and offensive theory which you have developed by your imagination. You have wasted the time and intelligence who will tack thoughtless and effortless solution for this such a important matter for Indians. Sorry to say you are innocent and Genuine in your writing. That's why most of the people don't want to talk because you are those people who settle his results first then fit their research upon them....

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  26. Rastogi ji... OK leave the cow, please explain how mighty Hanuman had swallowed the SUN ... You also believe in this story... Isn't it?

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  27. the writer has absolute misconceptions about jainism in particular... kindly don't spread the wrong messages across people.. when you are unclear about it.. spreading wrong messages is unethical, illegal and wrong

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