परख : पिछड़ा वर्ग और साहित्य



















पिछड़ा वर्ग  और साहित्य                
अमलेश प्रसाद

बसे ज्‍यादा मतदाता हैं, लेकिन राष्‍ट्रीय मुद्दों में हस्‍तक्षेप न के बराबर है. सबसे ज्‍यादा आबादी है, लेकिन सबसे ज्‍यादा असंगठित समाज यही है. सबसे ज्‍यादा कामगार इसी वर्ग के हैं, लेकिन अधिकांश बेराजगार हैं. सबसे ज्‍यादा कारीगर भी इस समाज के हैं, लेकिन कलाकारी में कहीं नामो-निशान नहीं है. सबसे ज्‍यादा किसान भी यही हैं, लेकिन अभी अधिकांश भूखे-नंगे हैं.

चाहे साहित्‍य हो, चाहे राजनीति हो, चाहे धर्म हो, चाहे अध्‍यात्‍म हो, चाहे कला हो, चाहे खेती-बागवानी हो, हर क्षेत्र में सबसे ज्‍यादा पसीना बहानेवाला यही समाज रहा है. कितनी विडंबना है कि वेद की चंद ऋचाएं रटने वाले को योग्‍य माना जाता है, लेकिन मनुष्‍य की दैनिक जरूरत की चीजों का प्रकृति के साथ-साथ सृजन करनेवाले को अयोग्‍य कहा जाता है. पिछड़ा वर्ग के पिछड़ेपन का मुख्‍य कारण कूटनीति है. पिछड़ा वर्ग उतना कूटनीतिज्ञ नहीं है, जितना सवर्ण समाज. हर विधा में सक्षम होने के बावजूद कूटनीति के अभाव के चलते पिछड़ा वर्ग अपंग बना हुआ है. इतिहास गवाह है कि आज का पिछड़ा कभी अगड़ा रहा है. जीवन के हर क्षेत्र की कारीगरी एवं कलाकारी में इसे महारत हासिल है, लेकिन इसे कूटनीति से हराकर बंधुआ मजदूरी करायी जा रही है. जन्‍म से लेकर मृत्‍यु तक मनुष्‍य को जितनी चीजों की जरूरत होती है, उन सबका पालक, उत्‍पादक और निर्माता पिछड़ा वर्ग ही है. लेकिन दुर्भाग्‍य है कि आज पिछड़े वर्ग पर साहित्‍य और राजनीति दोनों मौन धारण कर बैठे हुए हैं.

अब कुछ लोग पिछड़े समाज को लेकर साहित्‍य और राजनीति में कुछ-कुछ कर रहे हैं. लेकिन आबादी के हिसाब से यह प्रयास न के बराबर है. इसी कमी को पूरा करने के लिए युद्धरत आम आदमी का पिछड़ा वर्ग विशेषांक उल्‍लेखनीय है. इस अंक के अतिथि संपादक संजीव खुदशाह ने पिछड़ा वर्ग साहित्‍य आंदोलन खड़ा करेगा संपादक रमणिका गुप्‍ता ने अभी लम्‍बा सफर तय करना है पिछड़ा वर्ग को और कार्यकारी संपादक पंकज चौधरी ने साम्‍प्रदायिक नहीं हैं पिछड़ी जातियां आंदोलित करने वाला संपादकिय लेख लिखे हैं. इस विशेषांक में पिछड़े वर्ग के तमाम पहलुओं को शामिल करने की कोशिश की गई है. इस अंक को मुख्‍य रूप से निम्‍न खंडों में विभाजित किया गया है- दस्‍तावेज, इतिहास आन्‍दोलन संस्‍कृति स्‍त्री, समाज राजनीति नेतृत्‍व, मीडिया, पसमांदा मुसलमान, अति पिछड़ी जातियां, एकता/अन्‍य, आरक्षण, साक्षात्‍कार, पुस्‍तक अंश और पुस्‍तक वार्ता.

संपादकीय के बाद पहले खंड दस्‍तावेज में जाति प्रथा नाश- क्‍यों और कैसे डॉ. राममनोहर लोहिया का लेख है. लोहिया ने जाति की जड़ खोदने के साथ-साथ अपने समय को भी कैनवास पर उतारा है, यथा- ‘ंची जातियां सुसंस्‍कृत पर कपटी हैं, छोटी जातियां थमी हुई और बेजान हैं.इतिहास आन्‍दोलन संस्‍कृति स्‍त्री खंड में प्रेमकुमार मणि का भारतीय समाज में वर्चस्‍व व प्रतिरोध’, बजरंग बिहारी तिवारी का केरल का नवजागरण और एसएनडीपी योगम्, बृजेन्‍द्र कुमार लोधी का वर्ण व्‍यवस्‍था एवं जाति प्रथा : मिथक तथा भ्रांतियां और सीए विष्णु दत्‍त बघेल का पराधीनता व आत्‍मग्‍लानि का बोझलेख शामिल हैं. इस खण्‍ड में उत्‍तर से दक्षिण और प्राचीन से आधुनिक भारत के जातीय इतिहास को मथा गया है.  

समाज राजनीति नेतृत्‍व खंड में अनिल चमड़िया, पंकज चौधरी, के.एस. तूफान और रामशिवमूर्ति यादव का क्रमश: ‘नमो को पिछड़ा बनाने के निहितार्थ’, ‘उत्‍तर का राजनीतिक नवजागरण’, राजनीति सत्‍ता और पिछड़ा वर्गऔर नेतृत्‍वविहीन है पिछड़ा वर्गआलेख को स्‍थान दिया गया है. यहां पिछड़ा वर्ग के राजनीति उतार-चढ़ाव को रेखांकित किया गया है. ‘मीडिया खण्‍ड में उर्मिलेश और संजय कुमार के दो लेख हैं. इनके शीर्षक हैं क्रमश: ‘भारतीय मीडिया और शूद्रतथाहाशिए का समाज मीडिया में भी हाशिए पर’. 

पिछड़े वर्ग की पीड़ा और प्रताड़ना से पसमांदा मुसलमान भी पीड़ित हैं. पसमांदा मुसलमानखण्‍ड में अली अनवर, कौशलेन्‍द्र प्रताप यादव, ईश कुमार गंगानिया और प्रो. मो. सईद आलम के लेख क्रमश: ‘पसमांदा ही भागाएंगे साम्‍प्रदायिकता के भूत को’, ‘कौन समझेगा पसमांदा मुसलमानों का दर्द’, ‘पसमांदा मुस्‍लिम की अस्‍मिता के प्रश्‍न’, और पसमांदा मुसलमानों को आम्‍बेडकर की तलाशलेखों से यह स्‍पष्‍ट होता है कि पसमांदा मुसलमान भी अब धार्मिक कठमुल्‍लेपन को छोड़कर अपने आत्‍मसम्‍मान, अस्‍मिता, सामाजिक, आर्थिक पिछड़ेपन के मुद्दे उठाने के लिए निकल पड़ा है. इस पिछड़ा वर्ग विशेषांक में अति पिछड़ों का भी पूरा ख्‍याल रखा गया है. ‘अति पिछड़ी जातियां खण्‍ड में डॉ. राम बहादुर वर्मा, डॉ. पीए राम प्रजापति, महेन्‍द्र मधुप का क्रमश: ‘यूपी में अति पिछड़ी जातियों की दशा-दिशा’, ‘बदलते आर्थिक परिवेश में अति पिछड़ा वर्ग का विकास एवं चुनौतियां’, ‘अति पिछड़ों को ठगने का काम राजनैतिक दल छोड़ेंआदि महत्‍वपूर्ण लेख शामिल हैं.

दलित समाज की सभा/सम्‍मेलनों में पिछड़ों को भाई कहा जाता है और पिछड़े समाज की सभा/सम्‍मेलनों में दलितों को भाई कहा जाता हैएकता खण्‍ड में दलित-पिछड़ों की इसी एकता पर गंभीर चर्चा की गई है. इसमें मूल चंद सोनकर ने आम्‍बेडकर ही एकमात्र विकल्‍प’, केशव शरण नेपिछड़ा वर्ग और उनकी दशा-दिशा’, डॉ. धर्मचन्‍द्र विद्यालंकर ने दलित पिछड़ा भाई-भाई, तभी होगी केन्‍द्र पर चढ़ाई’, डॉ. हरपाल सिंह पंवार ने क्‍या पिछड़ी जातियां भी शूद्र हैं’, रमेश प्रजापति ने ब्राहमणवाद के जुए को उतार फेंके पिछड़ा वर्ग’, इला प्रसाद ने चित्रगुप्‍त के वंशज तथा यशवंत ने हक न पा सकने वाली नस्‍ल लेख लिखा है. अब तक आरक्षण को लेकर मानवता को शर्मसार करनेवाली कितनी ओछी राजनीति होती रही है. यह आरक्षण खण्‍ड को पढ़ने से ज्ञात होता है. इस खण्‍ड में महेश प्रसाद अहिरवार ने लिखा हैपिछड़ों को आरक्षण मा. कांशीराम की देन’. राम सूरत भारद्वाज ने पिछड़ों को आरक्षण : काका कालेलकर से मण्‍डल कमीशन तक की चर्चा की है. वहीं जवाहर लाल कौल ने ओबीसी आरक्षण : एक विवेचन में शोधपरक विवेचना की है. ‘साक्षात्‍कार खण्‍ड में कांचा इलैया, राजेन्‍द्र यादव, मुद्राराक्षस, मस्‍तराम कपूर, चौथी राम यादव, डॉ. शम्‍सुल इस्‍लाम, असगर वजाहत, आयवन कोस्‍का, दिलीप मंडल और रमाशंकर आर्या के साक्षात्‍कार शामिल हैं. साक्षात्‍कार में कुछ महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न सभी लोगों से पूछे गये हैं. यहां प्रश्‍नों के दोहराव से बचना चाहिए था

पुस्‍तक अंश खण्‍ड में रामेश्‍वर पवन कीद्विजवर्णीय नहीं हैं कायस्‍थ’, गणेश प्रसाद की गरीबों का हमदर्द कर्पूरी ठाकुर’, संजीव खुदशाह की आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्गऔर अभय मौर्य के उपन्‍यास त्रासदीके अंश हैं. ‘पुस्‍तक वार्त्‍ताखण्‍ड में आरएल चंदापुरी की पुस्‍तक भारत में ब्राहमणराज और पिछड़ा वर्ग आन्‍दोलनतथा संजीव खुदशाह की आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्गकी समीक्षा शामिल है.  

वर्तमान में दक्षिण और उत्‍तर भारत के कई राज्‍यों में पिछड़ों की सरकार है. यहां तक कि भाजपा नेता नरेंद्र मोदी पिछड़ी जाति का प्रमाण-पत्र लेने के बाद ही प्रधानमंत्री बन पाए. पर, इस अंक में पिछड़े वर्ग के एक भी नेता को शामिल नहीं किया गया है. इस विशेषांक के बहाने पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाले नेताओं का मुंह भी खुलवाना चाहिए था कि वे साम्‍प्रदायिकता, जातीय व धार्मिक कट्टरता के विरूद्ध सामाजिक परिवर्तन और पिछड़ों के अस्‍मिता, अस्‍तित्‍व व आत्‍मसम्‍मान के किस पाले में हैं? वैसे पिछड़े वर्ग पर साहित्‍य की अभी बहुत कमी है. बहरहाल विशेष प्रयास से युद्धरत आम आदमी का निकला यह विशेषांक हाथ में आते ही एक बार उलटने-पलटने और पढ़ने के लिए विवश कर देता है.
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अमलेश प्रसाद
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