सहजि सहजि गुन रमैं : मोनिका कुमार














मोनिका कुमार की कविताएँ आप 'समालोचन' पर इससे पहले भी पढ़ चुके हैं. प्रस्तुत है उनकी छह नयी कविताएँ. टिप्पणी दे रहे हैं अविनाश मिश्र   







मोनिका कुमार की कविताएँ                                      




(एक)
बेवजह अनानास खरीद लेती हूं मैं 
मुलायम फलों के बीच इसकी कांटेदार कलगी 
मुझे शहर के बीच जंगल की याद दिलाती है
दोस्तों को खिलाए हैं मैंने अनानास के कई नमकीन और मीठे व्यंजन 
बाकायदा उन्हें बताती हूं यह स्वास्थ्य के लिए कितना गुणकारी है 
कायदे से मैंने इसके गुणों पर कोई लेख नहीं पढ़ा है
ज्ञान की मौखिक परंपरा ठेलते हुए मैं समाज के भीतर सुरक्षित रहती हूं  

अनानास की जंगली सुगंध सपाटबयानी करती है 
कि अवसाद को पालतू हुए अब अर्सा हुआ 
इसे बाहर आने के लिए दीवान--गालिब के अलावा 
जुबान को उकसाती हुई कुछ चुभन चाहिए 
चुभती हुई जुबान से और अनानास के सहारे 
क्यूं दोस्तों से आज यह कह दिया जाए 
सीने में इतने समंदर उफनते हैं दोस्तो 
हमारी दोस्तियों के अनुबंध इन्हें सोख नहीं पाते 
गालिब के नामलेवाओं के बीच 
घर के बाहर फुदकती गिलहरियों की याद आती है 
यह अनानास का कोई अद्वितीय गुण है 
जरूरी चीजों की लिस्ट बनाते हुए कभी याद नहीं आता 
घर इसके बगैर ऐसे चलता है जैसे जीवन की खुशी में इसका कोई स्थान नहीं 
घर प्रेम के बगैर भी चलने लगता है जैसे जीवन की खुशी में इसका कोई स्थान नहीं 
फिर भी इन्हें देखते हुए मैं इनकी ओर ऐसे लपकती हूं
जैसे मैं केवल प्रेम करने
और
अनानस खाने ही दुनिया में आई थी. 





(दो)
मैं और मेरे विद्यार्थी
सप्ताह में छह दिन 
ठीक 9 बजे 
35 नंबर कमरे में पहुंच जाते हैं 
वे मेरा स्वागत करते हैं 
मैं उन्हें धन्यवाद देती हूं  

उन्हें लगता है जीवन बस जीवन है 
कोई कला नहीं 
उन्हें शायद ऐसा कोई दुःख नहीं 
जिसका उपचार विचारों के पास हो 
दो एक विद्यार्थी होते हैं मेरे जैसे हर कक्षा में 
जिन्हें अध्यापक कहते हैंखुश रहा करो’ 
विचारों में वे इतने मगन होते हैं 
कि जिसे सीख समझना चाहिए 
उसे आशीष समझते हुए 
कृतज्ञता से थोड़ा और दब जाते हैं 

खैर ! अगले पचपन मिनट हमें साथ रहना है 
मैं शुरू करती हूं कविता-पाठ 
सरलार्थ और सप्रसंग व्याख्याएं 
बहुत मुश्किल से समझा पाती हूं
सड़कों पर औंधी पड़ी परछाइयों के बीच गुजरने वाले
राहगीर की व्यथा 

विद्यार्थी चुपचाप सब सुनते हैं 
असहमति के अवसरों में 
हम इस बात पर बात बिठा देते हैं 
कि कविताओं के मामले में सभी की निजी राय हो सकती है 
हमारी असहमतियां विनम्रता और आदर की हदों में रहती हैं

कविता के सारांश पर बात करते-करते  
मैं किताब बंद कर देती हूं
और धीरे धीरे
हम बिछुड़ने लगते हैं 
वे घुस जाते हैं सफहों के हाशियों में 
नीली स्याही से बनाते हैं 
पतंग, फूल, झोंपड़ी, सूर्यास्त, पंछी 
और अखबारी जिल्द पर छपी अभिनेत्रियों की मूंछ बनाते हैं 
मैं सोचती हूं  
क्या सारांश पाठ की नैतिक जरूरत है

घंटी की आवाज
हमें हाशिए से वापस खींच लेती है 
परिचित हड़बड़ाहट से हम दुनिया से वापस जुड़ जाते हैं.  





(तीन)
महोदय, समझने की कोशिश कीजिए 
जब मेरा जन्म हुआ था 
मेरे दादा की पहले से पांच पोतियां थीं
नानी की बेशक मैं पहली दोहती थी 
पर उनकी अपनी पहले से पांच बेटियां थीं  
कुल मिलाकर जन्म का प्रभाव ऐसे हुआ 
जैसे गणित के समीकरण में 
जमा की सारी रकमें कट जाती हैं मन्फियों से 
और बकाया रह जाता है निहत्था अंक एक 

मैंने जहां-तहां अपनी शक्ल शीशे में देखनी शुरू की 
घर में, दूकानों के काले कांच के दरवाजों में 
दूसरों की मोटरसाइकिल पर लहलहाते गोल शीशों में 
कोई नैन-नक्श ढूंढ़ती जो मेरा हो 
फिर अलां-फलां तरीके से हंसना, उठना, बैठना और चलना 
यकीन कीजिए प्रभु
किसी साजिश की तरह मुझे यहां-वहां कोई अपने जैसा दिख जाता है  
मां के बात-बात पर डांटने पर 
मेरा प्रश्न यही रहता कि मुझे ठीक ठीक बताओ 
आखिर मुझे करना क्या है 
ठीक-ठीक लगना है अपनी बहनों जैसा 
या फिर कुछ अलग करना है 
साफ-साफ मेरी मां कपड़े धोती थी
खाना रीझ से खिलाती 
जैसे हम कोई देवता हो   
हर बात साफ-साफ करने की मेरी जिद पर उसे गुस्सा आता था 

जिससे मुझे प्रेम हुआ 
मुझसे पहले उसे किसी और से भी प्रेम हुआ था 
मेरे लिए यह ठीक-ठीक समझना मुश्किल था 
कि मुझे दिखना है कुछ-कुछ उसी के जैसा 
या फिर ठीक-ठीक क्या करना है 

विज्ञप्ति से लेकर 
नियुक्ति पत्र तक 
सभी दफ्तरी पत्रों में मेरे लिए गुप्त संदेश था 
कि बेशक यह नौकरी मुझे दे दी गई है 
लेकिन उनके पास मौजूद है सैकड़ों उम्मीदवार
जो नहीं हैंमुझसे कम किसी लिहाज से  

महोदय, आपकी बात उचित है 
मुझे अपने जैसा होना चाहिए 
और यह काम जल्दी हो जाना चाहिए 
पर इतना तो आप भी समझते होंगे
इतने और जरूरी मसलों के बीच 
ऐसे कामों में देर-सवेर हो जाती है. 






(चार)
शिखर वार्ता चल रही है दो प्रेमियों में 
प्रेम क्यूंकर सफल नहीं होता 
और सब्जी वाला फटी आवाज में 
गली में चीख रहा है 
टमाटर ले लो, भिंडी ले लो 
अरबी ले लो, कद्दू ले लो 

गली की औरतों को लगता है 
यह रेहड़ीवाला बहुत महंगी सब्जी देता है 
प्रेमिका को लगता है 
उसने किया बहुत प्रेम 
पता नहीं क्या है जो पूरा नहीं पड़ता 
गृहिणी फिर भी करती है मोल-भाव 
उसी से तुलवाती है आधा किलो भिंडी  
दो किलो प्याज और पाव भर टमाटर 
प्रेमी झल्ला रहा है 
क्यूं टूटता है उसी का दिल 
वह नहीं करेगा अब किसी से प्यार 

गृहिणी की टोकरी में उचक रही है 
मुट्ठी भर हरी मिर्च और धनिए की चार टहनियां   
जो शायद सब्जी वाले की करुणा है 
सब्जियों के बढ़ते दाम की सांत्वना 
जरूरी मनुष्यता 
या सफल कारोबार की युक्ति 
इधर प्रेमी चूम रहा है प्रेमिका को 
प्रेमिका का विदायगी आलिंगन 
जो शायद इनकी करुणा है 
बिछोह की पीड़ा का बांटना 
या असफल प्रेम को सहने की युक्ति. 





(पांच)
कवि नहीं दिखते सबसे सुंदर
मग्न मुद्राओं में
लिखते हुए सेल्फ पोट्रेट पर कविताएं
स्टडी टेबलों पर
बतियाते हुए प्रेमिका से
गाते हुए शौर्यगीत
करते हुए तानाशाहों पर तंज
सोचते हुए फूलों पर कविताएं

वे सबसे सुंदर दिखते हैं
जब वे बात करते हैं
अपने प्रिय कवियों के बारे में
प्रिय कवियों की बात करते हुए
उनके बारे में लिखते हुए
दमक जाता हैं उनका चेहरा
फूटता है चश्मा आंखों में
हथेलियां घूमती हुईं
उंगलियों को उम्मीद की तरह उठाए
वही क्षण है
जब लगता है
कवि अनाथ नहीं है.






(छह)
यह बात सच है
जीवन में खुशी के लिए कम ही चाहिए होता है
वह कम कई बार बस इतना होता है
कि हमें जब बसों, गाड़ियों और जहाजों में यात्रा करनी हो
तो हम इतने भाग्यशाली हों
कि हमें खिड़की वाली सीट मिल जाए
हम टिकट लेकर  
बगैर सहयात्रियों से उलझे
सामान सुरक्षित रखने के बाद
आसानी से अपनी खोह में जा सकें

घर से निर्जन के बीच ऐसी जगहें बमुश्किल होती हैं
जहां हम फूल जैसी हल्की नींद ले सकें
सैकड़ों पेड़ झुलाए नींद को
या बादलों की सफेदी ले जा रही हो निर्वात की ओर
इस छोटी-सी नींद से जगना चमत्कार जैसा है
यह नींद हमारे छीजे हुए मन को सिल देती है
जैसे हम इस हैसियत में लौट आएं
और खुद से एक बार फिर पूछें
कि हम कौन हैं
भले इस प्रश्न के उत्तर में

हम फूट-फूट कर रो पडें.
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अर्थ-व्याप्ति के प्रति आसक्ति                                
अविनाश मिश्र

हां मोनिका कुमार की छह कविताएं हैं. मोनिका शीर्षकवंचित कविताएं लिखती हैं. उनके संपादक अपनी सुविधा के लिए प्राय: उनकी कविताओं के शीर्षक गढ़ते आए हैं. कवयित्री ने स्वयं ऐसा अब तक नहीं किया है. विनोद कुमार शुक्ल या भवानी प्रसाद मिश्र आदि की तरह कविता की पहली पंक्ति को भी मोनिका ने कविता के शीर्षक के रूप में नहीं स्वीकारा है. इस तरह देखें तो मोनिका की कविता-यात्रा किसी सही शीर्षक की खोज में है. कुछ यात्राओं की सार्थकता खोज की अपूर्णता में निहित होती है. मोनिका की कविता-यात्रा कुछ ऐसी ही है.

ये कविताएं अपने आलोचकों/आस्वादकों को इतनी छूट देती हैं कि वे उनकी कविताओं की शीर्षकहीनता पर कुछ वाक्य, कुछ अनुच्छेद कह सकें. कविताओं की शीर्षकहीनता कवियों के लिए कोई समस्या या विषय नहीं होती, औरों को यह एकबारगी चौंका सकती है लेकिन कवियों के लिए यह अक्सर अनायास और सहज होती है.

विनोद कुमार शुक्ल ने एक साक्षात्कार में कविता-शीर्षकों के विषय में कहा था, ‘‘शीर्षक, कविता से मुझे कुछ ऊपर, अलग से रखा हुआ दिखता है. यह कविता में कविता के नाम की तरह अधिक है. शीर्षक, कविता के अर्थ को सीमित करता है. कविता को बांधता है. बंद करता है. वह ढक्कन की तरह है. इससे अर्थ की स्वतंत्रता बाधित होती है. शीर्षक, अपने से कविता को ढांक देता है. उसी के अनुसार अर्थ को लगाने की कोशिश हो जाती है. यह कटे हुए सिर की तरह अधिक है. बिना शीर्षक की कविता में हलचल अधिक है. बिना शीर्षक की कविता मुझे जीवित लगती है, जागी हुई. अन्यथा चादर ढांककर सोई हुई. या चेहरा ढंके बाहर निकली हुई.’’

प्रस्तुत उद्धरण के प्रकाश में कहें तो कह सकते हैं कि मोनिका की कविताएं स्वतंत्र, जीवित और जागी हुई हैं. इनमें अर्थ-व्याप्ति के प्रति आसक्ति और आकर्षण इतना सघन है कि ये शीर्षकवंचित होना पसंद करती हैं. शीर्षकों के अतिरिक्त ये सपाटबयानी और सारांशों से भी सायास बचती नजर आती हैं. यह काव्य-स्वर बहुत ध्यान, अभ्यास और अध्यवसाय से बुना गया काव्य-स्वर है. प्रस्तुति से पूर्व इसमें जो पूर्वाभ्यास है, वह इसे हिंदी युवा कविता का सबसे परिपक्व और सबसे संयत स्वर बनाता है. प्रथम प्रभाव में यह स्वर कुछ मुश्किल, कुछ वैभवपूर्ण, कुछ व्यवस्थित, कुछ अनुशासित और कुछ कम या नहीं खुलने वाला स्वर है. अपने अर्थशील आकर्षण में यह अपने आस्वादक से कुछ मुश्किल, कुछ वैभवपूर्ण, कुछ व्यवस्थित, कुछ अनुशासित और कुछ धैर्यशील होने की जायज मांग करता है. इसमें पूर्णत्व— जो एकदम नहीं, आते-आते आया है, चाहता है कि आस्वादक अपने अंदर से कुछ बाहर और बाहर से कुछ अंदर आए. इस तय स्पेस में मोनिका की कविताएं नजदीक के दृश्यबोध को एक दृष्टि-वैभिन्न्य देते हुए संश्लिष्ट बनाती हैं. इनकी मुखरता शब्दों और पंक्तियों के बीच के अंतराल में वास करती है. ये स्वर हिंदी कविता में कैसे एक अलग राह का स्वर है, यह सिद्ध करने के लिए यह कहना होगा कि भाषा में उपलब्ध स्त्री-विमर्श बहुत जाहिर ढंग से इसके कतई काम नहीं आया है. इसने प्रकटत: उसे अपनी काव्याभिव्यक्ति के लिए वर्जित मान लिया है. वह इसमें निहां हो सकता है, गालिबन है ही. यह इस अर्थ में भी अलग है कि यह उन अनुभवों के अभावों को भरता है जिससे अब तक हिंदी कविता वंचित थी. यह विस्तार देती हुई गति है, इसे अपनी दिशाएं ज्ञात हैं और उनके अर्थ और लक्ष्य भी. यह उस काव्य-बोध के लिए चेतावनी है जो मानता है कि दिशाओं पर चलना और उन्हें समझना एक ही बात है. काव्यानुशीलन में व्यापक परिवर्तन की मांग वाले एक कविता-समय में मोनिका कुमार की कविताओं का अनुशासन और संगीतात्मक सौंदर्य भी इन्हें मौजूदा हिंदी कविता में कुछ भिन्न बनाता है.

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  1. sabhi kavitayen shaandar, avinash kee tippnai ka jawab nahi

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  2. Chupchaap se gahan aur masroofiyet mein gahan ko vahan karta hua ek kavi ...kaho tum kavyitri kaho use ..Yah taabadtod ho jaayega.. lekin marod nahin aayeinge shokaasshok ko ...!

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  3. Bahut hi achhi kavitayen. Monika meri priy hain

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  4. bahut achchhi kavitaayen ...visheshkar kavi nahi dikhte sabse sundar

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  5. काव्य-स्वर बहुत ध्यान, अभ्यास और अध्यवसाय से बुना गया काव्य-स्वर है, Avinash की बात से सहमत... बधाई.

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  6. मोनिका की कविताओं के लिए महमूद दरविश की कविता 'आई बिलोंग देयर' की अंतिम पंक्ति की याद बरबस आती है जिसमें एक 'घर' की तलाश में कवि अपनी भाषा के असंख्य शब्दों को इसलिए तोड़ता है ताकि अपनी ही ज़मीन में उसे घर मिल सके. वह अपनी स्मृति में बसे हर उस शब्द को डिसमेंटल करता है -जहाँ माँ है, घर की खिड़कियाँ हैं, भाई है, बहन है, खेत हैं, क्षितिज है, आकाश है , चारागाह हैं, जैतून है, चिड़िया है ..आंसूं हैं, बादल हैं; मोनिका के पास भी एक भाषा की वे स्मृतियाँ हैं जहाँ शब्द को तोड़कर कविता सफ़र पर निकलने को आतुर है, अविनाश इसे अर्थ-व्याप्ति के प्रति आसक्ति कहते हैं और मैं इसे शब्दों को डिसमेंटल करते हुए नयी राह की तलाश मान रही हूँ .
    मोनिका आपको बहुत शुभकामनाएँ . इस रचाव तक जाने के लिए मेरा मन पहले खुद को रचाव के लिए तैयार करता है तब मैं आपके 35 नंबर के कमरे में कई देर तक रहती हूँ ..सारांश के बाद आप चली गईं किन्तु मैं यहीं छूट गई.
    अलग आस्वाद की कविताओं के लिए समालोचन का शुक्रिया . अविनाश की कलम सही ठिकानों की कलम है . दो सफ़र एकसाथ किये ..

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  7. मोनिका कुमार की कविताएँ एकबारगी ...और एक लय में नहीं पढ़ी जा सकतीं ...

    उनकी कविताएँ बहुत धीरज और इत्मीनान की मांग करती हैं ...!

    अविनाश की टिप्पणी काबिले-तारिफ़ है...मगर कविता और शीर्षक को लेकर वैचारिक मतभेद हो सकता है...

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  8. मोनिका जी की कविता सही अर्थों में समकालीन समय को उसके समकलीनता में ही देखने की जबरदस्त अपील के साथ सामने आयी है..विषय समान्यत: जो हर व्यक्ति की जिन्दगी का हिस्सा होते ही है के बावजूद कविता में मामूली से नहीं लगते...मोनिका कुमार ने अपनी कविता से यह बात पूरी तरह साफ कर दी है कि एक ही भाव अनुभूति के स्पर्श से दो अलग तरह का अन्तर रखते हैं और उसी में एक सामान्य एक विशिष्ट बन जाता है....अविनाश जी की बातों से पूरी तरह सहमत हूँ कि मोनिका जी की कविताएं सतर्क दृष्टि से लिखी गई है और सावधानी से पढी जाने वाली है...कविताओं में गम्भीरता के साथ विचारशीलता का प्रभाव ज्यादा है। बेहतरीन कविताएं...मैं मोनिका जी को पहली बार ही पढ रही हूँ।

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  9. सभी कविताएँ अच्छी हैं. ३,४,५,६ विशेष रूप से. शुक्रिया.

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  10. Experienced real poetry in Monika's poems, beautiful indeed.

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