मीमांसा : जुरगेन हेबरमास : अच्युतानंद मिश्र















विश्व के प्रमुख बुद्धिजीवियों में शुमार, जर्मन समाजशास्त्री और दार्शनिक जुरगेन हेबरमास (Jürgen Habermas, 8 June 1929), लोकवृत्त (Public sphere) की अपनी अवधारणा के कारण जाने और माने जाते हैं, इसके साथ ही आधुनिकता और तार्किकता की समझ के विस्तार में भी उनका मौलिक योगदान है. अध्येता अच्युतानंद मिश्र का यह आलेख हेबरमास के साथ ही तमाम समाज – वैज्ञानिकों की मीमांसा को देखता है, और वर्तमान में उनकी उपादेयता को भी परखता है.
              



आधुनिकता का विकल्प विकल्पों की आधुनिकता                      
अच्युतानंद मिश्र 



अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर ‘आधुनिकता और उसकी विसंगतियां’ विषय पर भाषण कर रहे थे. मुझे भी वहां सुनने के लिए आमंत्रित किया गया था. जब वे जाँन बाज़, टी एस एलियट, गिन्सबर्ग, एन्दिवारोल, तमाम पर अपनी आपत्तियां व्यक्त कर चुके सबको अपनी कल्पना में धराशायी कर चुके और उसके बाद उन्होंने पूछा –‘एनी क्वेश्चंस ’! तो सारी (सभी) तरफ सन्नाटा था. सिर्फ एक अजनबी, एक हिन्दुस्तानी, एक छोटा सा आदमी, मैं उठा और मैंने उनसे पूछा कि “जेंटलमैन ! व्हाट इज द अल्टरनेटिव टू मॉडर्निज़्म ? और तब सन्नाटा था. उक्त प्रोफेसर इमानदार थे. उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया और अपनी सीट पर बैठ गए. (पूर्वाग्रह अंक 63-64 1984 में प्रकाशित)

ह भारत भवन में हिंदी के कवि श्रीकांत वर्मा द्वारा दिए गये वक्तव्य का एक अंश है. हालाँकि यहाँ श्रीकांत वर्मा का मंतव्य आधुनिकता से ही है ,जिसे मॉडर्निटी की जगह मॉडर्निज़्म कह रहे हैं, लेकिन जो भी हो यहाँ यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है कि आधुनिकता का विकल्प क्या है? श्रीकांत वर्मा जब यह प्रश्न उठाते हैं तो यह स्पष्ट है कि न सिर्फ उक्त मार्क्सवादी प्रोफेसर से वे सवाल पूछ रहे होते हैं बल्कि समूचे मार्क्सवाद पर  सवाल उठा रहे होते हैं. यह बताने की जरूरत नहीं है कि मार्क्सवाद और आधुनिकता के सम्बन्धों पर श्रीकांत वर्मा ने शायद ही गंभीरता से विचार किया हो. और उनका सवाल बीसवीं सदी में फैशन का रूप ले चुके इस सवाल से भिन्न कोई और उद्देश्य रखता हो.  बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में यह सवाल अनेक बार अनेक सभाओं गोष्ठियों और सेमिनारों में उठाया गया.  सवाल पूछने की गरज से कम मार्क्सवाद को अपमानित, लांछित और धता बताने के उद्देश्य से अधिक.  

हालाँकि हम यह न भूलें कि मार्क्स और मार्क्सवाद प्रबोधन काल की सबसे बड़ी परिघटना है. चूँकि यह प्रश्न एक गुजर चुके दौर का हिस्सा है इसलिए यह स्वीकार तो किया ही जाना चाहिए कि यह एक  वाजिब प्रश्न है. एक ऐसा प्रश्न जिसे बीसवीं सदी के आरंभिक पचास वर्षों में लुकाच, बेंजामिन से लेकर एडोर्नो तक के सभी दार्शनिकों ने समझने और व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया. 50 के दशक के बाद अचानक बहसें आधुनिकता की बजाय उत्तराधुनिकता पर केन्द्रित होती चली गयी. फूको को हम अगर इस कड़ी से बाहर कर दें, तो पाते हैं कि आधुनिकता की बहस पचास के दशक के बाद उतनी महत्वपूर्ण नही रह गयी. फूको ने जरूर अपने अंतिम दौर में आधुनिकता की परिकल्पना पर विचार किया, हालाँकि फूको के सम्पूर्ण चिंतन में आधुनिकता की आलोचना मौजूद है. अपने लेख व्हाट इज एनलाइटेनमेंट में वे कांट की अवधारणाओं के प्रति आलोचनात्मक रुख अख्तियार करते हुए सभ्यता समीक्षा के कार्य को अंजाम देते हैं.  आरंभ में ही वे लिखते हैं “इन दिनों जब कोई पत्रिका अपने पाठको से किसी विषय पर सवाल पूछती है तो वह किसी ऐसे विषय पर रायशुमारी करना चाहती है जिस पर पहले ही लोगों ने राय कायम कर रखी है; इसलिए इसमें कुछ भी ऐसा नहीं होता जिससे नई बात सीखी जा सके. अठारहवीं सदी में संपादक उन प्रश्नों को पूछते थे जिनके जवाब सामने नहीं थे, मैं नहीं जानता हूँ कि वह प्रक्रिया बेहतर थी या नही. लेकिन इतना जरुर है कि वह दिलचस्प थी.  

फूको इस प्रक्रिया को महज़ दिलचस्प मानते हैं तार्किक या लोकतान्त्रिक नहीं. ऐसा मानने के पीछे उनके अपने तर्क है लेकिन अगर अठारहवीं सदी की कोई तार्किक प्रक्रिया बीसवीं सदी में महज़ एक रस्म-अदायगी बनकर रह गयी तो इस पर विचार करना कि ऐसा क्यों हुआ, आधुनिकता की  परम्परा के मूल्याङ्कन की कोशिश ही है.  इस पूरी कोशिश में फूको, हेबरमास और एडोर्नो एक त्रिकोण बनाते हैं. बीसवीं सदी के आरम्भ में अधिकांश दार्शनिकों ने तीन विषयों पर हर बार नये सिरे से बात करने की कोशिश की. ये तीन विषय हैं (1) प्लेटो (2) हीगेल (3) आधुनिकता.  लुकाच से शुरू करते हुए सूजेन सोंटैग तक के चिंतकों के यहाँ हम इस बात की तस्दीक कर सकते हैं. बहस की परम्परा में इन तीनो विषयों के सन्दर्भों को बार-बार आता हुआ देख सकते हैं. लेकिन पचास के दशक के आते आधुनिकता से खिसकती हुयी सारी बहस आधुनिकतावाद पर और आधुनिकतावाद से उत्तराधुनिकता पर केन्द्रित होती गयी. यह भी दिलचस्प है कि आधुनिकता को समस्याग्रस्त बताने के लिए आधुनिकतावाद का दामन थामा गया और अंततः उस पूरे युग की मृत्यु की घोषणा कर दी गयी. ऐसे में आधुनिकता पर कोई बहस शुरू तभी हो सकती थी जब कोई सारी बहसों को नये सन्दर्भों में परम्परा के मूल्याङ्कन के साथ प्रस्तुत करे.  

उत्तराधुनिकता के दौर में गड़े मुर्दे खूब उखाड़े  गए, लेकिन आधुनिकता से आधुनिकतावाद तक की यात्रा के विषय में या तो खामोश रहा गया या फिर उसे समाप्त मान लिया गया. इन तमाम परिवर्तनों और आधुनिकता की समाप्ति की घोषणा  के बावजूद आधुनिकता को अनिवार्य और संभव बताने का उपक्रम पिछले पचास वर्षों में जिस जर्मन दार्शनिक ने किया है उसका नाम है जुरगेन हेबरमास. हेबरमास 1956 में एडोर्नो के सहायक बनकर फ्रैंकफर्ट स्कूल से जुड़े. यह वह दौर था जब फ्रैंकफर्ट स्कूल की दूसरी पीढ़ी तैयार हो रही थी. एडोर्नो, होर्खिमायर अब भी फ्रैंकफर्ट स्कूल से जुड़े हुए थे, लेकिन उनके कार्यों के आलोचनात्मक मूल्याङ्कन का वातावरण निर्मित हो रहा था. क्रिटिकल थ्योरी की आलोचना की परिपाटी विकसित हो रही थी.

हेबरमास ने स्वीकार किया है कि जब वे फ्रैंकफर्ट स्कूल से जुड़े तो उनके ऊपर एडोर्नो और होर्खिमायर द्वारा संयुक्त रूप में लिखी पुस्तक डायलेक्टिक्स ऑफ एनलाइटेनमेंट (प्रबोधन की द्वंद्वात्‍मकता) का असर था. हालाँकि हेबरमास इस असर से शायद ही कभी मुक्त हो पाते हैं लेकिन आधुनिकता की पूरी बहस को हेबरमास डायलेक्टिक्स ऑफ एनलाइटेनमेंट से शुरू करते हुए एक नई दिशा की और ले जाते हैं, जहाँ न तो आधुनिकता का अंत होता है और न ही आधुनिकता असंभव जान पड़ती है. हेबरमास आधुनिकता की पूरी बहस को नए सिरे से उठाते हैं और यह सवाल पूछते हैं कि उत्तराधुनिकता का गैराधुनिकता से क्या रिश्ता है? तात्पर्य यह कि तकनीक के इस उत्कर्ष के दौर में, सामंती मूल्यों को पुनर्जीवित करना अगर उत्तराधुनिकता है तो निश्चित रूप से उसके मूल्य गैराधुनिक ही होंगे. हमारे यहाँ भी टी. वी. चैनलों पर आये दिन जो धारावाहिक दिखाए जाते हैं, उनमे अधिकांश सामंती मूल्यों का ही पोषण करते हैं ऐसे में हेबरमास का यह सवाल वाजिब हो उठता है कि उच्च तकनीक के इस आदर्श दौर के मूल्य, इतने गैरआधुनिक क्यों है. कहीं आधुनिकता के विरोध के लिए तो उत्तराधुनिकता की अवधारणा नहीं विकसित की जा रही है?

हेबरमास के अनुसार आधुनिकता महज़ एक निश्चित समय काल नहीं है.  एडोर्नो होर्खिमायर से लेकर देरिदा और फूको तक अधिकांश दार्शनिक उसे महज़ प्रबोधन में लोकेट करने की कोशिश करते हैं. हेबरमास कहते हैं आधुनिकता सामाजिक राजनीतिक सांस्कृतिक सांस्थानिक (सामूहिक) एवं मनोवैज्ञानिक स्थिति भी है जो ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत विकसित हुयी है. वह परिदृश्य में सर्वत्र मौजूद रहती है. आधुनिकता विभिन्न सौन्दर्यात्मक पहलुओं से जुड़ते हुए भी अलग है. इस अर्थ में ही वह आधुनिकतावाद से अलग राह बनाती है. एक कलाकार के पास यह स्वतंत्रता होती है कि वह आधुनिकतावाद को चुने या नकारे लेकिन आधुनिकता के साथ यह संभव नहीं.  हम आधुनिकतावाद की तरफ जा सकते हैं लेकिन आधुनिकता हमारी ओर रुख करती है. एक तरह से यह भी स्वीकार करें कि हेबरमास के लिए आधुनिकता महज़ दृष्टि नहीं है बल्कि समय की गतिशीलता भी आधुनिकता है. अपने बहुचर्चित लेख “आधुनिकता एक असमाप्त परियोजना” (modernity an unfinished project)  में वे बताते हैं कि-आधुनिक शब्द का सर्वप्रथम इस्तेमाल पांचवी सदी के आखिर में किया गया. जब वर्तमान यानि अबके आधिकारिक इसाई को तबके पैगन और रोमन से अलगाने का प्रयत्न किया गया. हर दौर में एक नई विषयवस्तु के साथ आधुनिकता की अभिव्यक्ति, एक ऐसे युग चेतना से स्वयं को अलगाती है जो किसी अतीत की शास्त्रीय चेतना होती है. इस तरह आधुनिकता पुराने से नये की ओर प्रस्थान का बोध रचती है.  ऐसा सिर्फ रेनेसां के दौर में ही नहीं हुआ जिससे हम सबके लिए आधुनिक युग का आरम्भ होता है. लोगों ने स्वयं को बारहवीं सदी में चार्लमैग्ने के दौर में भी आधुनिक माना था और प्रबोधन के युग में भी – संक्षेप में जब भी युरोप में एक नई युग चेतना का विकास होता है और वह शास्त्रीय युग के साथ नये संदर्भ विकसित करता है आधुनिकता का जन्म होता है”

स्पष्ट है कि जहाँ आधुनिकता को तमाम दार्शनिक प्रबोधन की परिणति के रूप में देखते हैं, उसे एक निश्चित अवधारणा में तब्दील करते हैं, वहीँ हेबरमास आधुनिकता को युग विशेष से जोड़ते हुए भी उसमे मौजूद गतिशीलता पर अधिक जो देते हैं. यही वजह है कि हेबरमास के लिए आधुनिकता का अर्थ दुहराव नहीं बल्कि नूतन की ओर प्रस्थान है. और इस प्रक्रिया में वे चेतना के पुराने से कटकर नये की ओर मुड़ने के संक्रमण को, मनुष्य की स्वाभाविकता के रूप में देखते हैं. इसलिए अगर हम यह कहें कि हेबरमास के लिए मनुष्य स्वभावतः आधुनिक होता है तो यह गलत न होगा.

बीसवीं सदी के मनुष्य के संकट को एडोर्नो और होर्खिमायर ने यांत्रिक तार्किकता ( instrumental modernity ) के बढ़ते प्रभाव के रूप में चिन्हित किया है.  उनके अनुसार बीसवीं सदी का सामाजिक जीवन एक विशेष तरह की तार्किकता की गिरफ्त में आ चुका है. हर चीज़ का वस्तुकरण हो रहा है. चीज़ों का भविष्य गणित के तर्कों  द्वारा निर्धारित किया जा रहा है. मनुष्य के सोचने की प्रक्रिया को गणित में बदलने की कोशिशें हो रहीं हैं, लेकिन मनुष्य महज़ तर्क का पुतला बनकर नहीं रह सकता. उसे आध्यात्मिकता, संस्कृति, सामाजिकता एवं सामूहिकता की आवश्यकता पड़ती है. यांत्रिक तार्किकता उसे इनसे अलग करती है. एडोर्नो के अनुसार इसमें विज्ञान और तकनीक की बड़ी भूमिका है. इनके हवाले से जीवन की गतिविधियों को सांस्थानिक कर दिया गया है. यहाँ तक की मनुष्य की सामाजिक वृतियों को भी सांस्थानिक व्यवहार कुशलता में बदल दिया गया है. यह एक अभूतपूर्व परिवर्तन है. ऐसे में तर्क के इस पुतले ने वर्चस्व के बोध को रचा.

होर्खिमायर और एडोर्नो का कहना है वर्चस्व और विशेषज्ञता दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं. विज्ञान के साथ तार्किकता ने वर्चस्व को बढाया. पुराने समय में जादू की समूची परिकल्पना ही मनुष्य द्वारा प्रकृति पर वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश थी. प्रबोधन की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप मनुष्य को अधिक स्वतंत्र और उन्मुक्त होना था लेकिन जैसे ही औद्योगीकरण का विकास हुआ मनुष्य अधिक नियंत्रित होता चला गया. मनुष्य को प्रकृति से आज़ाद कराने की जगह प्रबोधन ने मनुष्य को नये तरह की गुलामी में जकड़ दिया. मनुष्य पर वर्चस्व का अर्थ था प्रकृति पर वर्चस्व क्योंकि मनुष्य स्वयं प्रकृति का हिस्सा है. इस तरह उसे प्रकृति की चेतना से काटा गया. प्रकृति की चेतना से कटने की वजह से वह अपने स्वाभाविक प्रतिरोध की चेतना से भी कटा. मार्क्स इसे ही एलिनिएशन कहते हैं.  इस सबके परिणामस्वरुप एक तरफ भयानक गरीबी भूखमरी और बेकारी का प्रसार होने लगा. मनुष्य अपनी ही आधुनिकता की फांस में फंस गया. नैतिक विकास के स्थान पर क्रूरता का स्थानापन्‍न आधुनिकता की परिणति है. एडोर्नो और होर्खिमायर के अनुसार यही प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता है. डायलेक्टिक्स ऑफ़ एनलाइटेनमेंट की भूमिका में वे इस निष्कर्ष को सामने लाते हैं- प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता में प्रबोधन जरुरी भी है और असंभव भी : जरुरी इसलिए कि मनुष्यता उसके बगैर आत्महंता और परतंत्र होती रहेगी और असंभव इसलिए कि उसे सिर्फ तार्किक मानवीय प्रक्रियाओं के द्वारा ही अर्जित किया जा सकता है और तार्किकता का उद्भव ही समस्याओं के मूल में हैं”

एडोर्नो और होर्खिमायर इस द्वान्धात्मकता से मुक्ति किसी रूप में नहीं पाते. एडोर्नो और होर्खिमायर जिस निराशा और विकल्पहीनता की और मुड़ते हैं वहीँ से एक रास्ता उत्तराधुनिकता की ओर भी जाता है.  हालाँकि हेबरमास का यह मानना है कि स्वयं एडोर्नो और होर्खिमायर इस ओर रुख नहीं करते. हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि कहीं न कहीं एडोर्नो , होर्खिमायर और यहाँ तक की वाल्टर बेंजामिन तक के लेखन में जो निराशा नज़र आती है उसके मूल में फासीवाद की  बड़ी भूमिका रही है.  हालाँकि हेबरमास के लिए यह मूलतः विश्लेषण की समस्या से जुड़ा प्रश्न है.

अपनी पहली पुस्तक Structural transformation of the public sphere : An inquiry into a category of Bourgeois society  के माध्यम से हेबरमास एडोर्नो और होर्खिमायर द्वारा विकसित क्रिटिकल थ्योरी की अवधारणा का क्रिटिक रचते हैं. इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद 1991 में प्रकाशित हुआ, मूल जर्मन संस्करण के तक़रीबन तीन दशक बाद. इस पुस्तक के माध्यम से हेबरमास क्रिटिकल थ्योरी की परम्परा का मूल्याङ्कन भी करते हैं और उसकी अपूर्णता की चर्चा भी करते हैं. एक बातचीत के दौरान हेबरमास ने कहा कि वे यह नहीं मानते कि क्रिटिकल थ्योरी कोई पूर्णतः ऐसी  अवधारणा थी जिसे फ्रैंकफर्ट स्कूल ने खोजा हो. उनके अनुसार इसकी सुदृढ़ परम्परा थी. फ्रैंकफर्ट स्कूल के परिदृश्य में आने से पूर्व क्रिटिकल थ्योरी के कुछ अंशों को  लुकाच के लेखन में 20 के दशक में देखा जा सकता है, जहाँ वे मार्क्स के प्रति एक आलोचनात्मक रुख अपनाते हैं. हेबरमास के अनुसार जिस सतत आलोचना की परम्परा हीगेल, मार्क्स और कांट ने विकसित किया, लुकाच उसी परम्परा को आगे बढ़ाते हैं और उसी का विस्तार हमें एडोर्नो और होर्खिमायर के चिंतन में दीखता है. हेबरमास बताते हैं कि  पचास के दशक में एडोर्नो के भाषणों में अकसर हीगेल दुर्खाइम और फ्रायड का जिक्र होता था.  एडोर्नो मार्क्स और फ्रायड के लेखन को क्लासिक का दर्जा देते थे.

हेबरमास फ्रैंकफर्ट स्कूल के अंतर-अनुशासनीय चरित्र को बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं और अपनी पुस्तक में इस चरित्र को विस्तार देते हैं. एक तरफ जहाँ वे इसमें, समाजशास्त्र, साहित्य और दर्शन का समावेश करते हैं वहीँ दूसरी तरफ वे समाज के प्रगतिशील दायरे में मौजूद तार्किकता को समाज के दूसरे दायरे में मौजूद अतार्किकता से अलगाते हैं.  यहीं वे एडोर्नो से अलग रास्ता अपनाते हैं.  एडोर्नो के समस्त लेखन पर अगर हम देखें तो मार्क्स की वर्गीय विश्लेषण की पद्धति हावी है.  और इसीलिए वे सामाजिक संरचना में मौजूद आतंरिक विभाजन को उतना महत्व नहीं देते. वे मास कल्चर जैसी पदावली का इस्तेमाल करते हैं जिसमें मध्यवर्ग के बड़े हिस्से में मौजूद अंतर्विरोधों को नकार दिया गया है.  हेबरमास ऐसा नहीं करते हैं वे सामाजिक अंतर्विरोध को अभिव्यक्त करने के लिए सामाजिक आलोचना के दृष्टिकोण को महत्वपूर्ण मानते हैं. वे सतत आलोचना की प्रक्रिया को अपनाते हैं.  मार्क्स भी कहते हैं सब पर संदेह करो.यानि आलोचनात्मक रुख का बने रहना लगातार प्रगतिशील बने रहने की शर्त है.  हेबरमास इस अर्थ में आत्मालोचना को भी महत्व देते हैं. इस तरह वे आलोचनात्मक द्वंद्व को सामने लाते हैं.  

इस प्रक्रिया का मूर्त रूप वे लोकवृत (पब्लिक स्फीयर ) की अवधारणा के रूप में प्रस्तुत करते  हैं. लोकवृत की अवधारणा में प्रबोधन की मूल चेतना की शिनाख्त की जा सकती है. प्रबोधन के मूल में स्वतंत्रता, समानता और न्याय की परिकल्पना मौजूद थी.  अठारहवीं सदी के आरम्भ में नागरिक अधिकारों की स्थापना के परिणामस्वरूप व्यक्ति स्वातंत्र्य की बूर्जुआ परिकल्पना एवं स्वतंत्र प्रेस की अवधारणा विकसित हुयी. इसने मध्यवर्ग की विशिष्ट परिकल्पना को रचने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.  परिणामस्वरूप मध्यवर्ग ने अपने अधिकारों की अभिव्यक्ति के लिए नये स्थलों की तलाश की, मसलन कॉफ़ी हाउस, सैलून, साहित्यिक पत्रिकाएं इत्यादि.  इन स्थलों पर हिस्सा लेने वाले प्रतिनिधि स्वतंत्रता पूर्वक अपने मतों को प्रकट कर सकते थे. ये स्थल प्रकट रूप में राज्य के नियंत्रण में होते हुए भी उनके दायरे से बाहर आकर अपनी भूमिका निभाते थे.  ये इलाके दो अर्थों में स्वतंत्र थे. प्रथम यह कि उनमे सहभागिता का प्रश्न व्यक्ति का अपना निर्णय था, दूसरे यह कि वे आर्थिक और राजनीतिक बन्धनों से एक हद तक मुक्त थे. यह स्पष्ट है कि वे बुर्जुआ चेतना के वर्गीय दायरे में ही महदूद थे लेकिन हेबरमास का मानना था कि वे वर्गीय दायरे के भीतर मौजूद अन्तर्विरोधों को गहरा कर सकने में सक्षम थे और यही उनकी उपलब्धि थी. कहना न होगा कि अठारहवीं सदी की यह परम्परा आज भी मौजूद है.  आज भी देश के छोटे बड़े शहरो में कोआपरेटिव-कॉफ़ी हाउस जैसी संस्थाएं नज़र आती हैं.  इन जगहों पर जिस तरह शहर के हर आयु के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का जमावड़ा नज़र आता है उससे अठारहवीं सदी में विकसित इस परम्परा की सार्थकता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. ऐसा भी नहीं है कि यहाँ पर हो रही तमाम गतिविधियों के प्रति राज्य का नज़रिया आंखमूंद लेने का ही होता है बल्कि इसके विपरीत हम पाते हैं कि अधिकांश कॉफ़ी हाउस बंद होने के कगार पर नज़र आते हैं. जहाँ एक तरफ इन्हें बंद करने की कोशिशे हो रही हैं, वहीँ दूसरी तरफ इस तरह की संस्थाओं की पैरोडी बनाने की भी कोशिश होती रही है.  मसलन कैफ़े कॉफ़ी डे सरीखे पूर्णतः व्यावसायिक संस्‍थान. लोकवृत की अवधारणा इस तरह की कोशिशों को अठारहवीं सदी में अर्जित स्वतंत्रता समानता और न्याय की परिकल्पना के विरोध में देखती है. इस अर्थ में हेबरमास लोकतंत्र की स्थापना को बहुत सकारात्मकता और उम्मीद के साथ देखते हैं और उसके मूल्यों को पुनर्जीवित करने में लोकवृत के दायरे के विस्तार की बात कहते हैं. यहाँ यह भी स्पष्ट है कि उत्तरपूंजीवाद के मूल्य किस हद तक बूर्जुआ चेतना को भी नकार देते हैं.

हेबरमास बताते हैं कि इन अड्डों पर होनेवाली बहसों, परस्पर आरोप प्रत्यारोप, दृष्टि की भिन्नता बूर्जुआ चेतना में नये सुराख़ पैदा करती थी. लोकवृत की अवधारणा बूर्जुआ जीवन में मौजूद द्वंद्ध को गहरा करती थी और इस तरह पूंजीवाद के सामाजिक विरोध का वातावरण निर्मित होता था. हेबरमास के अनुसार इसे सिर्फ वर्गीय अवधारणा के सामान्यीकरणों के तहत नहीं समझा जा सकता है. एक तरह से यहाँ स्पष्ट है कि हेबरमास मार्क्सवाद का क्रिटिक प्रस्तुत करते हैं लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि मार्क्सवाद की आलोचना करते हुए भी हेबरमास सकारात्मकता को नहीं छोड़ते और न ही आलोचना को एकांगी बनाते हैं. वे कहते हैं बूर्जुआ जीवन के सकारात्मक पक्षों की प्रशंसा स्वयं मार्क्स ने की थी लेकिन उनके मूल्याङ्कन में कहीं न कहीं उनका राजनीतिक चिंतन हावी हो जाता है. उनके समर्थकों ने बूर्जुआ की अवधारणा को मूलतः राजनीतिक सन्दर्भों में ही देखने का प्रयत्न किया. आज भी कम्युनिस्ट दायरे में मध्यवर्ग की भूमिका को लेकर एक खास तरह की दुविधा नज़र आती है साथ ही यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि बीसवीं सदी में मार्क्स के अनुयायियों ने मार्क्स के समूचे अवदान को उनकी राजनीतिक आर्थिक व्याख्या तक रिड्यूस करने का प्रयत्न किया. हेबरमास लोकवृत की अवधारणा के माध्यम से यह बताने का प्रयत्न करते हैं कि बूर्जुआ समाज का एक तबका अपनी वर्गीय सीमाओं के प्रति सचेत भी रहा और उसने समय समय पर पर उसे चुनौती भी दी. हम जानते हैं कि दुनिया के बड़े दायरे में बीसवीं सदी के आरम्भ में मार्क्सवाद का विस्तार इसके बगैर संभव नहीं था. एक तरह से इसी प्रक्रिया को हेबरमास सतत आलोचना की प्रक्रिया मानते हैं और वे इसे समाज के उत्तरोत्तर विकास के लिए जरुरी मानते हैं.  लोकतंत्र की अवधारणा को मात्र संख्या बल तक सीमित नहीं किया जा सकता . लोकवृत का आकलन मात्र संख्या के आधार पर नहीं किया जा सकता. हेबरमास के अनुसार ये राज्य के साथ एक तनाव को रचते थे. समाज में इनकी भूमिका एक प्रेशर ग्रुप की थी. प्रबोधन की ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित करते हुए हेबरमास आधुनिकता और लोकवृत्त की अवधारणा को सामने लाते हैं. उनके अनुसार आधुनिकता का अर्थ है स्थापित की आलोचना.  

फूको ज्ञान- ताकत के अनुशासनात्मक विकास के माध्यम से एक अभेद्य वृत्त को रचते है.  हेबरमास के लोकवृत्त की अवधारणा उसमें सुराख़ कर देती है. आधुनिकता की जिस आलोचना से फूको ज्ञान और ताकत के अन्तर्सम्बन्धों के ऐतिहासिक विकास तक आते हैं. हेबरमास उसे अपर्याप्त मानते हैं.  मार्क्स की वर्गीय अवधारणा की सीमाओं का उल्लेख करते हुए फूको सत्ता के चरित्र को पूर्णतः राजनीतिक और आर्थिक मानने से इनकार करते हैं. फूको सत्ता के चरित्र में ज्ञान- ताकत के वर्चस्व को एक नई प्रवृत्ति के इजाद के रूप में व्याख्‍यायित करते हैं, परन्तु ऐसा करते हुए फूको अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के चरित्र में आए परिवर्तन को नज़रंदाज़ कर देते हैं और एक तरह से संस्थाओं के विकास क्रम में ताकत के अभ्युदय को एकांगी विकास के तौर पर लक्षित करते हैं. हेबरमास के अनुसार अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के प्रबोधन में एक मूल अंतर है. जहाँ अठारहवीं सदी का प्रबोधन ज्ञान का अंतर –अनुशासनीय चरित्र विकसित करता हैं- स्वतंत्रता समानता और न्याय की अवधारणा जिसके मूल में मौजूद होती है- वहीँ उन्नीसवीं सदी में ज्ञान पर विज्ञान और तकनीक का वर्चस्व हावी होने लगता है. और इस तरह प्रबोधन की चेतना एक वर्चस्वादी चेतना के रूप में विकसित होने लगती है.

अठारहवीं सदी के आखिर में बूर्जुआ क्रांति ने नये समाज की नींव रखी.  बूर्जुआ क्रांति ने जहाँ एक ओर पुराने सामंती मूल्यों को नकार दिया वहीँ मनुष्यता और समाज की नई परिकल्पना भी प्रस्तुत की. ऐसा नहीं था कि यह कोई पूर्णतया नई अवधारणा थी या यह अंतर्विरोधों से मुक्त परिकल्पना थी.  दरअसल बूर्जुआ समाज ही अंतर्विरोधों से भरा था ,लेकिन इन अंतर्विरोधों का महत्व इसलिए था कि ये एक गतिशीलता को रचते थे. इस गतिशीलता ने नवोदित सत्ता वर्ग के प्रति अंतर्विरोधों से भरा समबन्ध विकसित किया. यही से सत्ता और समाज के बीच एक नया तनाव विकसित हुआ.  समाज का सम्पूर्ण नियंत्रण अब किसी एक वर्ग के हाथ में नहीं रह गया था. वर्गीय अंतर्विरोधों द्वारा निर्मित तनाव राज्यसत्ता के वर्चस्व को चुनौती देते थे.  इसी अर्थ में अठारहवीं सदी की राज्यक्रांति एक ऐसी क्रांति थी जिसने सत्ता और समाज के नये संबंधो को विकसित होने दिया. इस संबन्ध में कोई एक पक्ष सर्वत्र बलशाली हो ऐसा संभव नहीं था. समाज की परिकल्पना एक नया संदर्भ विकसित करने लगी. समाज का बदलता रूप नये प्रतिमानों की मांग करने लगा. स्वतंत्रता, समानता और न्याय की अवधारणा किसी एक वर्ग के ही पक्ष में आरम्भ में रही हो, ऐसा नहीं था. अगर मार्क्स, मार्क्सवाद के विकास में ऐतिहासिक परिस्थितियों को महतवपूर्ण बताते हैं तो उन ऐतिहासिक परिस्थितियों के निर्माण में समाज के इस नये रूप की महत्वपूर्ण भूमिका थी.  

कल्याणकारी राज्य की अवधारणा इसी तनाव का सकारात्मक परिणाम थी. सत्ता पर दबाव निर्मित करने वाले प्रेशर ग्रुप समाज के भीतर से विकसित हुए.  हेबरमास लोकवृत्त की समूची अवधारणा का विकास इसी अंतर्विरोध को ध्यान में रखते हुए करते हैं और यह बताते हैं कि इन अंतर्विरोधों में मौजूद गतिकी समाज को प्रगतिशील बनाये रखती थी. इसी को वे आधुनिकता के रूप में पहचानते हैं. लेकिन धीरे धीरे समाज और सत्ता के अंतर्विरोधों की दिशा बदलने लगी. उन्नीसवीं सदी के मध्य तक आते आते सत्ता का स्वरुप एक नये वर्चस्व में तब्दील होने लगा. ऐसा क्यों हुआ? हेबरमास के अनुसार ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उन्नीसवीं सदी विज्ञान और तकनीक की सदी साबित हुयी.  तार्किकता (rationalism ) को वैज्ञानिक ज्ञान (logic) का पर्याय बना दिया गया.  नई तार्किकता के इस संकीर्ण दायरे से लोकचेतना बाहर होती चली गयी और समाज के वर्चस्वशाली वर्ग ही समाज के प्रतिनिधि बनकर उभरने लगे. अगर ऐसे में यह प्रतिनिधि चेहरा साम्राज्यवादी लूट की तरफ मुड़ गया तो हैरानी की बात नहीं. हेबरमास के अनुसार अठारहवीं सदी में विकसित तार्किकता नैतिक बोध को प्रश्रय देती थी. उन्नीसवीं सदी में ज्ञान के दायरे से नैतिकता को बाहर कर दिया गया है.

रोजा लक्जमबर्ग के इस प्रश्न का जवाब यहाँ ढूंढा जा सकता है, जहाँ वे पूछती हैं कि क्या साम्राज्यवाद पूंजीवाद की अनिवार्य परिणति है. अगर हम हेबरमास की और रुख करें तो उनका स्पष्ट मानना है कि अगर अठारहवीं सदी में मौजूद लोकवृत्त उत्तरोतर कमजोर नहीं होता, राज्य और समाज के बीच तनाव कायम रहता तो राजसत्ता वर्चस्व का रूप नहीं इख्तियार करती.

डायलेक्टिक्स ऑफ़ एनलाइटेनमेंट के हवाले से देखें तो ऐसा लगता है कि एडोर्नो प्रबोधन की प्रक्रिया में जिस द्वंद्ध को देख रहे थे उसे ही हेबरमास समाज और सत्ता के बीच मौजूद द्वंद्ध के रूप में चिह्नित करते हैं. एडोर्नो के लिए उन्नीसवीं सदी का वर्चस्व प्रबोधन की द्वन्द्वात्मकता की अनिवार्य परिणति है और इसलिए वे इस द्वन्धात्मकता को एक नकारात्मक द्वंद्ध में बदलता हुआ पाते हैं. हालाँकि हेबरमास प्रबोधन में मौजूद द्वंद्वात्मकता की पहचान के लिए एडोर्नो के महत्व को स्वीकारते हैं लेकिन एडोर्नो जिस नकारात्मकता के बिंदु पर पहुँचते हैं हेबरमास वहां से स्वयं को एडोर्नो की व्याख्या से अलग करते हैं. हेबरमास का स्पष्ट मानना है कि बीसवीं सदी के आखिर में भी यह तनाव (सत्ता और समाज के बीच) समाप्त नहीं हुआ है कमजोर जरुर हुआ है. ऐसे में जरुरत इस बात की है कि इस तनाव को पुनर्सृजित किया जाये. अठारहवीं सदी की अधूरी रह गयी परियोजना को पूरा करने का कार्य वर्तमान में किया जाना चाहिए. फूको वास्तव में एडोर्नो की नकारात्मक द्वन्धात्मकता की ही अवधारणा से आगे बढ़ाते हुए एक ऐसे बिंदु पर पहुँच जाते हैं जहाँ वे इस तरह के किसी द्वंद्ध से ही इंकार कर देते हैं. यह एक तरह का उत्तर-संरचनावादी रुझान है, जहाँ हेबरमास के अनुसार एडोर्नो कभी भी जाना पसंद नहीं करते. हेबरमास कहते हैं एडोर्नो के लिए  ऐसा करना क्रिटिकल थ्योरी की विरासत से दगाबाजी करना होता.  

हेबरमास के लिए बीसवीं सदी अगर उत्तर सदी साबित होती है तो इसके मूल में उन्नीसवीं सदी की वर्चस्वादी अवधारणा रही है. इसे आधुनिकता के संकट के रूप में देखना आधुनिकता की मूल चेतना को ही नकारना है हालाँकि अधिकांश उत्तराधुनिकतावादी आधुनिकता के संकट को इसी रूप में देखते हैं. तो क्या यह  नहीं मानना चाहिए कि हेबरमास यूरोपीय औपनिवेशिक चेतना का ही विस्तार उत्तरपूंजीवादी वर्चस्व में पाते हैं. वे बताते हैं कि पूंजी का वर्चस्व समाज के भीतर लालसा, लिप्सा एवं घृणा को पैदा कर रहा है और इससे लड़ने का रास्ता आधुनिकता की पगडंडी से होकर गुजरता है.  

हेबरमास तर्क की परम्परा को पुनर्जीवित करने की मांग रखते हैं.  वे कहते हैं संवाद की कोई भी स्थिति तर्कहीन होकर संभव नहीं है. तार्किक होकर ही सम्वाद को सुनिश्चित किया जा सकेगा. संवाद के लिए समान जमीन की तलाश तार्किकता ही है. वायवीयता सम्वाद को कमजोर बनाती है. उनके अनुसार आधुनिक होने की कड़ी में संवाद कायम किया जा सकता है.  समाज के भीतर संवाद की स्थिति बनी रहे इसके लिए जरुरी है कि लोकतांत्रिक मूल्यों का बचाव किया जाये. बीसवीं सदी में समाज में मौजूद द्वंद्वात्मकता को विनष्ट किया जा रहा है.  द्वंद्धहीन समाज कभी भी न तो आधुनिक हो सकता है और न ही उसमे संवाद की कोई स्थिति बनती है. एक बातचीत के दौरान हेबरमास कहते हैं तर्क की भूमिका यह नही है कि वह महज़ सत्य के प्रति जिम्मेदार रहे, बल्कि तर्क की भूमिका यह भी होनी चाहिए की वह तार्किक क्षणों की एकता कायम करें जिसे तीन रूपों में कांट ने बिलगाया  है –सैद्धांतिक तर्क की एकता के साथ-साथ व्यव्हारिक नैतिक अंतर्दृष्टि और सौंदर्यबोध” (Autonomy and Solidarity  pg 101 ) 

हेबरमास इस बात को स्पष्ट करते हैं कि तर्क की भूमिका समाज के लिए रचनात्मक तभी हो सकती है जब हम उसे संकीर्ण सन्दर्भों में इस्तेमाल न करें.  वास्तव में तर्क की भूमिका सत्य की बहुस्तरीयता, नैतिक, व्यावहारिक एवं सौन्दर्यबोध इन तीनों की एकता कायम करने में हैं.  सामाजिक तार्किकता को वे वास्तविक तर्क के रूप में रखते हुए बताते हैं कि जब हम विज्ञान के दायरे में सच को रखते हैं तो उसका संकुचित सन्दर्भ ही निर्मित होता है, सत्य का जुड़ाव उस सिद्धांत से है जहाँ अब तक नैतिकता एवं सौंदर्य बोध को अलग नहीं किया जा सका, इसलिए सत्य की बहुस्तरीयता की परिकल्पना ही मनुष्य के बोध को तार्किक बना सकती है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया जिसका वास्तविक प्रतिफल है. वे लोकतंत्र के प्रश्न को तर्क के विकासवादी स्वरुप से जुड़ा प्रश्न मानते हैं. उनके अनुसार “बूर्जुआ व्यवस्था की न्याय और संवैधानिक व्यवस्था एवं राजनीतिक संस्थाओं का स्वरुप एक नैतिक व्यव्हारिक चिंतन को सुनिश्चित करता है, इसे नैतिक न्यायिक-राजनीतिक संस्थाओं के निर्माण में प्रभावी मानना चाहिए.”  (Autonomy and Solidairity  pg 102)  इसमें आगे जोड़ते हुए वे कहते हैं अगर कोई मार्क्स को सही ढंग से पढ़े तो पायेगा कि बूर्जुआ राज्य व्यवस्था में अंतर्गुम्फित कुछ विचारों को ही सामाजिक व्यवस्था में तब्दील किया जा सका है.

मार्क्स की इतिहास की अवधारणा को भी हेबरमास एक तरह के सरलीकरण के तौर पर देखते हैं. उनके अनुसार मार्क्स वर्गीय दृष्टिकोण को विकसित और मूर्त करने के लिए क्रमिक इतिहास की अवधारणा को सामने लाते हैं. ऐसे में वे जिन सामान्यीकरणों का सहारा लेते हैं उसके परिणामस्वरूप बहुत से ऐसे ऐतिहासिक विचार- बिंदु हैं जिसे वे महत्व नहीं देते ,लेकिन लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रिया में वे प्रभावी हो जाते हैं. दूसरी तरफ वे उस इतिहास दृष्टि को भी नकारते हैं जो इतिहासबोध को ही ख़ारिज करती है, मसलन वाल्टर बेंजामिन और ब्लोक की अराजकतावादी इतिहास दृष्टि. हेबरमास की इतिहास दृष्टि न तो पूर्णतया किसी निरंतरता को स्वीकारती है और न ही किसी किस्म की सम्पूर्ण अराजकता को ही इंगित करती है. उनके अनुसार इतिहासबोध दोनों अतिवादी दृष्टियों के मध्य मौजूद होता है. स्पष्ट है कि हेबरमास इतिहास की अवधारणा को भी समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से व्याख्यायित करने का प्रयत्न करते हैं और इतिहास की परिकल्पना को एक जटिलता में बदल देते हैं .

इतिहास की इस जटिलता की शिनाख्त करते हुए वे सामाजिक परिवर्तन की बेहद महत्वपूर्ण व्याख्या हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं.  वे कहते हैं आधुनिकता को अगर हम ऐतिहासिकता के परिप्रेक्ष्य से देखें तो राज्य और समाज एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. कार्यपद्धति को दो हिस्सों में विभक्त कर दिया गया. प्रशासनिक शक्तियां और विनिमय मूल्य. इन दो हिस्सों को एक जटिल संरचना में तब्दील कर दिया गया. जीवन जगत को संवादहीनता की स्थिति तक ले जाया गया. इस प्रकार राज्य और अर्थव्यवस्था अनिवार्य रूप से उत्तरोत्तर विकास के साथ एक जटिल संरचना अख्तियार करते चले गये. यही वह बिंदु है जिसे नव-रूढ़िवादी नहीं देख पाते हैं.  इसी से जुड़ा दूसरा पहलू है जो कि रोजमर्रा के जीवन का सामाजिक - तार्किक – मनोवैज्ञानिक स्वरुप है. आन्तरिक औपनिवेशीकरण के नाम पर जीवन पद्धत्ति की वकालत .......... एक पक्ष ऐसा उत्तराधुनिकता के नाम पर करता है तो दूसरा पुनरुत्थानवादी मूल्यों को आत्मसात करते हुए प्रबोधन के मूल्यों को नकारता है ........ मेरा संकट यह है कि दोनों प्रक्रियाएं उन सबको नष्ट कर रही हैं जिसे बचाना चाहिए, क्योंकि यही पश्चिम की मूल्यवान आधुनिक परम्परा है और उसकी मूल्यवान विरासत” (Autonomy and Solidairity  pg 107)

हेबरमास वर्तमान में मौजूद उन दो तत्वों की पहचान करते हैं जो आधुनिकता को अप्रासंगिक बनाते हैं एवं उसके मूल्यों को नकारते हैं. वे इतिहास में मौजूद द्वंद्ध को इतिहास के विकासक्रम के रूप में देखते हैं. उन्हें लगता है जब जब द्वंद्ध को नकारा जाता है और बाहरी तौर पर समन्वय की स्थिति प्रस्तुत की जाती है, एक विकृत इतिहासबोध पैदा होता है. उत्तराधुनिकता  को वे इसी तरह की ऐतिहासिक स्थिति में पाते हैं. वे सवाल उठते हैं कि उत्तर आधुनिकतावादियों की मंशा क्या है ? समाज के आर्थिक राजनीतिक प्रश्नों से उनका रिश्ता क्या है? कहीं उत्तराधुनिकता और गैर आधुनिकता के छोर मिलते तो नहीं ? यही वह बिंदु जहाँ हेबरमास समाज में मौजूद तर्क की चेतना एवं लोकवृत्त की अवधारणा को पूंजीवादी वर्चस्व के नकार के लिए अनिवार्य मानते हैं. वे सतत आलोचना की परम्परा और संवाद की बहुस्तरीयता को पूंजीवादी वर्चस्व के घेरे से बाहर निकलने के अग्रिम दस्ते के रूप में देखते हैं. हेबरमास आधुनिकता को विकल्प के रूप में ही नहीं बल्कि किसी भी विकल्प की चेतना के आरंभ के रूप में भी देखते हैं.  इस ठन्डे बेजान और द्वंद्धहीनता के दौर में हेबरमास मार्क्स हीगेल और कांट की बहुस्तरीय तार्किकता को मनुष्य की मुक्ति के अनिवार्य उपक्रम के रूप में देखते हैं.  ठीक भी है, आखिर आधुनिकता का विकल्प भी क्या है !

सहायक ग्रन्थ :
1 Main currents of Marxism, Leszek kolakowski, vol 2 , Oxford university press,1978
2 The politics of historical vision, Steven Best, The guilford press ,1995
3 Structural transformation of the public sphere :  An inquiry into a category of Bourgeois society , Jurgen Habermas, Mit press ,1991
4 Dialectics of enlightenment, Adorno , Horkhimier, Stanford university press ,2002
5 Autonomy and Solidairity, interviews with Jurgen Habermas, edited by Peter dews, Verso,1992
6 The philosophical discourse of modernity , Jurgen Habermas, Polity press ,1998

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अच्युतानंद मिश्र का आलेख - फूको :  (ज्ञान और ताकत का साझा इतिहास) भी पढ़ें.        

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  1. Public sphere has notable inpect on democracy. It's been a useful theory so far and became an obvious reference in every public related discourse.

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  2. एक बेहतरीन आलेख जिसे मोदी युग के दुर्भाग्यपूर्ण दौर में हर भारतीय बुद्धिजीवी को पढ़ना चाहिए.

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  3. विद्वतापूर्ण लेख है .इस परिश्रम के लिए लेखक का अभिनंदन .खासकर तब जब हिंदी में सैधान्तिकी -साहित्य ,सामाजिकी या अंतरअनुशासकीय की कमी है ,जिसका रोना अक्सर निर्मला जैन ने रोया है .इस लेख के कारण लेखक के फूको पर लिखे लेख को भी समालोचन पर पढ़ा .विश्व चिंतन को हिंदी में आनने का श्लाध्य प्रयास है .दुःख यही है कि इस पोस्ट और इस लेख पर जैसी बहस की उम्मीद थी नहीं दिखी .समालोचन ब्लॉग के कमेन्ट बॉक्स में भी सिर्फ लेखक के प्रयास को एक रिवाज की तरह सराह दिया गया है .उनके प्रयासों की सच्ची तारीफ तो तब होती जब हैबरमास पर न सही ,उनके बहाने से उठाये गये जरुरी मुद्दों पर बात होती .बहरहाल , श्रीकांत वर्मा के प्रश्न को मै वाजिब नहीं मानता .बाज दार्शनिको ने मॉडर्निटीऔर मॉडर्निज़्म के फर्क को झूठ मुठ का बाल का खाल निकलना माना है .लेकिन हैबेरमॉस के लिए यह फर्क अहम् है .आधुनिकता एक वस्तुनिष्ट स्थिति है .हम सब आधुनिक है ,इस अर्थ में कि हम आधुनिक समय में स्थित है ,मोबाइल ,इन्टरनेट ,मोटरगाड़ी का इस्तेमाल करते है .जबकि जो आधुनिक है उसका आधुनिकतावादी होना जरुरी नहीं .आधुनिकतावादी होना सिर्फ आधुनिक होना नहीं है ,यह आधुनिकता को अच्छा समझना है ,उसका समर्थक होना है .एक विचारधारा के रूप में उसका हामी होना है .इस तरह वहां एजेंसी उपस्थित है .वहां सब्जेक्टिव निर्णय सक्रिय है .इस लिहाज से आधुनिकता के विकल्प की बात करना ही आधुनिकतावादी नहीं होने से जुडा है .लेकिन विकल्प भी ज्ञानोदय की तरह द्वंद्वात्मक है .किसी चीज़ का विकल्प उस चीज़ जैसा ही होना चाहिए वरना उसे विकल्प नहीं कहा जा सकता .जैसे पेट्रोल का विकल्प डीजल है .पेट्रोल का विकल्प प्रकार्य में पेट्रोल जैसा है .पेट्रोल का विकल्प मिट्टी नहीं है .लेकिन विकल्प को उस चीज़ से भिन्न भी होना है वरना उसे विकल्प नहीं कहा जा सकता .जैसे कि कहा जाता है कि भाजपा कांग्रेस जैसी है इसiलिए वह कांग्रेस की विकल्प नहीं है .कांग्रेस जैसा होना कांग्रेस का विकल्प नहीं होना है .इस तरह विकल्प उसी जसा और उससे भिन्न है .यह कुछ कुछ देरिदा द्वारा सुझाये हुए differance की संकल्पना जैसा है. इसलिए आधुनिकता के विकल्प की बात होती है तो प्रायः देशज आधुनिकता ,पुरबी आधुनिकता जैसे शब्द सुनने को मिलते है .वर्मा ओक्टोवियो पाज से बहुत मुतासिर थे .इसलिए वे प्रायः वैकल्पिक आधुनिकता की बात करते थे .लेकिन जैसा कि लेख में बताया गया है इस बाबत उनके सरोकार ज्यादा संजीदा नहीं थे .यह प्रश्न यो ही पूछ लिया गया था बस मार्क्सवाद को कठघरे में खड़े करने के लिए .लेकिन मार्क्सवाद की हैबरमास की क्रिटिक गहरी है .वे इसे दो जगह नाकाफी पाते थे -एक अपने व्यापकता के बावजूद यह चीजों की महीन रेशो का विश्लेषण नहीं कर पाती .दो -हैबर साहेब मैक्रो स्तर पर थियोराइज करने के साथ माइक्रो स्तर पर भी संवाद के मेकनिज्म को अपनी चिंता के भीतर रखते है .इसलिए क्रिटिकल थ्योरी के पैरोकारो की तरह विश्लेषण की सत्यता की जाँच सिर्फ वस्तुनिष्ट हालात से न कर ,संवाद में सहभागी लोगो के द्वारा सत्यापित किये जाने के प्रस्तावना रखते हैं .इस तरह वह एक बहुलतावादी खोज की प्रकिया को जन्म देते हैं जहाँ इस तरह का सत्य का सहभागी द्वारा सत्यापन इस ज्ञान की खोज का ही हिस्सा है .

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  4. हैबर साहेब की चिंतन प्रक्रिया का प्रस्थान बिंदु प्रक्सिस (अरस्तू के हवाले से ) के प्रश्नों पर हिदेगर जैसो के दार्शनिक मौन पर स्थित है .फौरी सवाल जो नाजी जर्मनी को उड़ेल रहे थे उस पर चुप्पी थी .इस चुप्पी के कारणों की तलाश में उन्होंने जर्मन दार्शनिक परम्परा के साथ कॉन्टिनेंटल /एनालिटिकल दर्शन के साथ हे अमिरीकी प्रग्मटिक (रोर्टी आदि ) लोगो को खंगाला .इस तरह एक सम्यक सामाजिक क्रिटिकल थ्योरी के विकास का प्रयास किया .जिससे लोकवृत जैसी अवधरनाओ का विकास हुआ .आज जो सिविल सोसाइटी आदि का शोर है .वह इन्ही चिंतन बिन्दुओ के लोकप्रिय अभिवयक्ति के विस्फोट हैं .फूको जैसे लोगो ने एक विकल्पहीन दुनिया की और इशारा किया --''दुनिया एक साथ असहनीय और अपरिवर्तानीय है (किशन जी ने इसे ''विकल्पहीन नहीं है दुनिया में विवेचित किया है ) '' .साथ ही कहा कि -मोदेर्निज्म ही उपनिवेशवाद है और उपनिवेशवाद ही मोदेर्निज्म है '' सत्ता/ज्ञान की एकता का प्रकटन ही आधुनिकता /उपनिवेशवाद जैसे देरिदीय la brisure एकयुग्म में परिणत होता है .इस इकहरे मोदेर्निज्म की बरक्स एक संवाद की संभावना वाले लोकतान्त्रिक स्पेस की तलाश में हैबर साहेब ने तमाम सामाजिक मॉडल का फरोग किया .

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  5. इस विद्वतापूर्ण लेख के लिए मिश्र जी को तो साधुवाद है ही, सम्पादक जी, आपको भी बधाई.

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